शिप्रा किरण
To live is to suffer, to survive is to find some meaning in the suffering” – Nietzsche
उदय प्रकाश की कहानियाँ डर, नैराश्य और अंधेरे से जूझते इंसान की कहानियाँ हैं. उसी इंसान की कहानियाँ जो सदियों से बार-बार गिरता और फिर धूल झाड़ कर संभलता रहा है. वही मनुष्य जो युगों पहले जंगल में जानवरों का शिकार बना है फिर बाद में उन्हीं जानवरों का शिकार कर अपनी भूख भी शांत की है. पहले-पहल आग को देख कर चकित-विस्मित-भयभीत हुआ है फिर उस आग को इस्तेमाल कर उसे अपने काबू में भी किया है. तमाम परेशानियों में भी उसने रास्ते ईजाद किए हैं.
आदमी के डर और भय के कई रूप हम उदय प्रकाश की कहानियों में देख सकते हैं. बल्कि उस डर का रंग और उसकी तेजी भी- ‘‘डर का रंग कैसा होता है? धूसर, सलेटी, ज़र्द, हल्का स्याह या फिर राख जैसा? ऐसी राख जिसके भीतर आग अभी पूरी तरह मरी न हो!…या फिर कोई ऐसा रंग जिसके पीछे से अचानक कोई सन्नाटा झाँकने लगता है और उसकी दरार में से एक फासले पर कोई सिसकी अटकी हुई दिखती है?’’1
डर का यह रूप रोंगटे खड़े कर देने वाला है. ऐसा वर्णन वही कर सकता है जिसने स्वयं उस डर को देखा हो, उसे छुआ भी हो. या जिसने बहुत करीब से किसी बेहद डरे हुए आदमी के चेहरे की रंगत को देखकर उसे महसूसा हो. जब उदय प्रकाश ‘शिंडलर्स लिस्ट’ के रेल की खिड़कियों से झाँकते यहूदी महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों के डरे चेहरों की याद दिलाते हैं तो उनका मतलब सिर्फ वहीं तक नहीं होता बल्कि उस रेल की याद आते ही हम फ्लैशबैक में पहुँच जाते हैं. कई सारी तस्वीरें एक साथ जेहन में कौंध जाती हैं. जिसमें सबसे खतरनाक तस्वीर है, भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान चलने वाली, लाशों और डरे हुए चेहरों से खचाखच भरी ट्रेनों की, गुजरात दंगे के उस डरे-सहमे और दंगाइयों के सामने हाथ जोड़े, जान के लिए गिड़गिड़ाते युवा चेहरे की जिसे भारतीय मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए वर्षों तक भुनाती रहती है, जिस डर का चित्रण खुशवंत सिंह ने ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ में किया है, वही डर जिसे स्वयं प्रकाश की कहानी ‘क्या तुमने कोई सरदार भिखारी देखा है’ में बूढ़े सरदार जी के ‘‘काले झुर्रीदार चेहरे, धँसी आँखों और मैली दाढ़ी’’2 में देखा जा सकता है.
लेकिन डर के जितने रंग उदय प्रकाश के यहाँ दिखाई देते हैं उतने शायद ही किसी और रचनाकार के यहाँ हों. विभाजन और चैरासी के सिक्ख दंगों के इतने बरस बाद ऐसा क्यों है कि डर के रंगों में कमी तो क्या आई है उनमें और इजाफा ही हुआ है? क्यों मोहनदास और उस जैसे हजारों युवाओं के चेहरों के डर के रंग और अधिक गहरे हुए हैं? कुछ तो है जो यह डर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. तब सिर्फ जान का डर था. कुछेक व्यक्ति ही व्यक्ति के शत्रु थे. अब पूरे माहौल और व्यवस्था में ही शत्रुता की हवा है. व्यक्तियों के समूह के साथ-साथ निर्जीव वस्तुएं भी अपनी पूरी ताकत के साथ इंसान की जान लेने पर आमादा हैं. यह व्यक्ति-वस्तु-मशीन का गठजोड़ है. एक बड़ी ही धूर्तता भरी समझ के साथ मनुष्यता पर चैतरफा आक्रमण की साजिश है यह. आत्मरक्षा के सारे रास्ते बंद कर दिये गए हैं. ऐसे में एक लाचार छटपटाहट के सिवा बचता ही क्या है! सहमा हुआ आदमी अकेला है, कमजोर है पर डराने वाली ताकतें अकेली नहीं हैं. वो मजबूत हैं, एकजुट हैं. इतनी मजबूत हैं कि जीते-जागते मनुष्य से उसका नाम, उसकी पहचान, उसका चेहरा छीनकर उसे मृत घोषित कर दें. वह इस हद तक विवश और मृतप्राय हो जाये कि खुद ही कहता फिरे- ‘‘हमारा नाम मोहन दास नहीं है….हम अदालत में हलफनामा देने को तैयार हैं. जिसे बनना हो बन जाये मोहन दास. आप लोग किसी तरह हमें बचा लीजिये!…हम आप सबके हाथ जोड़ते हैं’’.3
मोहन दास मात्र कोई ‘संज्ञा’ नहीं है बल्कि यह अपने भीतर की तमाम विशेषताओं को समेटे अपनी संपूर्णता में एक ‘विशेषण’ भी है. उसके प्रथम नाम ‘मोहन’ के साथ ‘दास’ का जुड़ जाना ही उसकी विशेषताओं तक पहुँच जाने के कई मार्ग खोल देता है. वह हरिशंकर परसाई और रघुवीर सहाय के ‘रामदास’ की ही कड़ी का ‘मोहन दास’ है. जिसे व्यवस्था ने शुरू से डरा-धमका कर अपना ‘दास’ बने रहने को मजबूर किया है. एक रघुवीर सहाय का रामदास है जिसे पहले से ही पता था कि उसकी हत्या होने वाली है, उसे ही क्यों सबको पता था कि आज उसकी हत्या होगी-
‘‘चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था उसकी हत्या होगी
धीरे-धीरे चला अकेला
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी’’.4
कल्पना कीजिये उस व्यक्ति के डर का जिसे पहले से ही बता दिया गया हो कि वह मार दिया जाने वाला है! क्या रही होगी उसकी हताशा जब भी भरी सड़क पर सब उस व्यक्ति की हत्या का तमाशा देखने के लिए चुपचाप खड़े हों! अगर हम उस हत्यारी भीड़ का हिस्सा नहीं और हमारे भीतर थोड़ी भी आग बाकी है तो हम उसी डर को मोहन दास को पढ़ते हुए जरूर महसूस कर पाते हैं- ‘‘मोहन दास को आप देखेंगे तो पहले तो आपको उस पर दया आएगी लेकिन बाद में आप भी डर जाएंगे. क्योंकि यह समय बहुत डरावना है और यह लगातार डरावना होता जा रहा है’’.5
यह समय सचमुच डरावना है, जब फ्र्सट डिवीजन पास किसी ग्रेजुएट को-
‘‘पानी पीने के लिए हर रोज एक नया कुआं खोदना पड़ता है और खाने के लिए हर रोज रोटी की नयी फसल पैदा करनी पड़ती है’’.6 और उसी टापर का हुलिया यह हो-
‘‘एक फटी हुई, बेरंग हो चुकी, जगह-जगह पैबंद लगी, किसी समय में नीली डेनिम की फुलपैंट, एक सस्ते टेरीकोट की आधी बाजू की, दायें कंधे के पास उधड़ी हुई बुशर्ट. इसमें किसी समय चैखाने बने थे, जिनकी वे लकीरें धुंधली होकर मिट रही हैं, जिनके रंग कभी हल्के रहे होंगे. और एक रबर का सस्ता बरसाती जूता, जिसे मिट्टी, धूल, दुख पानी, समय और धूप ने इतना चाट डाला है कि अब वह कभी चमड़े और कभी मिट्टी का बना दिखता है’’.7
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(Schindler\’s List फ़िल्म से एक दृश्य) |
बाह्य परिस्थितियाँ ही बहुत हद तक मनुष्य के आंतरिक भावों की भी निर्माता होती हैं और जब समय भयावह और बाहरी ताकतें अत्याचारी हों तो मनोबल भी आखिर कब तक टिके! जूते इंसान के संघर्ष का प्रतीक हैं, एक समय के बाद वह भी रंग बदलने लगते हैं, घिसने लगते हैं. ‘ल्यूटीयन जोन’ में सुरक्षित बैठे लोग आदमी के जूतों के रंग उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जान-बूझ कर जीवित रहने के लिए जरूरी और मूलभूत आवश्यकताओं तक आम आदमी की पहुँच इतनी मुश्किल बना दो कि वह ज्यादा आगे की सोच ही ना पाये. तभी मोहनदास निराश होकर कहता है- ‘‘हम भी बी.ए. फ्र्सट क्लास हैं. दिन रात घोंटते थे…! क्या हुआ?’’8 और हार कर बाजार की शरण में चला जाता है. लेकिन यह भी ध्यान रखिए कि मोहनदास के भीतर कुछ ऐसी कमजोरियाँ थीं जिसकी वजह से उसे नौकरी तो नहीं ही मिल सकती, वह बाजार में भी नहीं खप सकता था- ‘‘मोहन दास बहुत सीधा, संकोची और स्वाभिमानी था’’.9
अपने इन्हीं ‘अवगुणों’ के कारण उसने जल्दी ही यह समझ लिया था कि ‘‘स्कूल-कालेज के बाहर की असली जिंदगी दरअसल खेल का ऐसा मैदान है, जहां वही गोल बनाता है, जिसके पास दूसरे को लंगड़ी मारने की ताकत होती है’’.10 परसाई के रामदास और इस मोहन दास में बड़ी समानताएं हैं. रामदास भी मोहन दास की तरह ईमानदार था. तभी रामदास का साहब एक जगह कहता है- ‘‘मुझे वर्षों बाद यह ईमानदार आदमी मिला है’’.11
इसी तरह अभावों ने दोनों को ही समय से पहले बूढ़ा कर दिया है- ‘‘मोहन दास की उम्र इस समय पैंतीस-सैंतीस के आसपास होगी, लेकिन देखने में वह मेरे बराबर या मुझसे कुछ बड़ा ही लगता है’’.12 मतलब अपनी उम्र से कई गुना बड़ा. ठीक उसी तरह जैसे रामदास- ‘‘अभी तक 35 पतझरों को परास्त कर चुका है. यौवन की कमजोरी देखकर बुढ़ापे ने अपने गुप्तचर, सफेद बाल, इसके यौवन के राज्य में भेज दिये हैं, जो एक-एक काले बाल को फुसलाकर विद्रोह करवा रहे हैं’’.13 यहाँ फर्क सिर्फ दोनों लेखकों की बात कहने के लहजे में है.
उदय प्रकाश जिस बात को सीधे तरीके से कह रहे हैं, परसाई उसी बात को व्यंग्यात्मक तरीके से मगर ‘भय’ के रूप दोनों के यहाँ समान हैं. पहले-पहल इस चित्रण को पढ़ कर दया और करुणा का भाव ही पैदा होता है लेकिन अगले ही क्षण हम उस डर से रूबरू हो जाते हैं, जो मनुष्य को रामदास और मोहन दास बनाने के लिए जिम्मेवार हैं. चेखव के ‘क्लर्क की मौत’ का क्लर्क भी व्यवस्था के उसी डर का शिकार था शायद. तभी अपने बॉस के पास छींक देने और उस अपराधबोध व परिणाम से डर कर एक दिन वह मर जाता है. व्यवस्था ने बाजार के रूप में भयभीत करने का एक और तरीका अख्तियार किया है. जो खूब सफल रहा है और तेजी से फल-फूल भी रहा है. मनुष्य के हाथों की शक्ति, उसकी कारीगरी और श्रम को बाजार ने अपने कब्जे में कर, उस पर भी अपना ठप्पा लगा दिया है.
मोहन दास और कस्तूरी जैसे हजारों महनतकशों के श्रम को बेहद सस्ते दामों में खरीदकर उनकी पैकेजिंग और ब्रांडिंग कर बाजार ने खूब पैसे बनाए हैं. ‘फलाँ-फलाँ हैंडीक्राफ्ट्स’ के टैग लगाकर भारी मुनाफे कमाए हैं सेठों ने. प्रभात पटनायक इस बात को ऐसे समझाते हैं- ‘‘आज असुरक्षा के माहौल में छोटे उत्पादक, मसलन किसान, दस्तकार, मछुआरे, शिल्पी आदि और छोटे व्यापारी भी शोषण की मार झेलने के लिए छोड़ दिये जाते हैं. यह शोषण दोहरे तरीके से होता है. एक तो प्रत्यक्ष तौर पर बड़ी पूंजी, उनकी संपदा जैसे उनकी जमीन वगैरह को कौड़ियों के मोल खरीद कर. दूसरे उनकी आमदनी में गिरावट पैदा कर के. इससे लघु उत्पादन के माध्यम से उनकी जिंदा बने रहने की क्षमता कम रह जाती है’’.14
बाजार को नियंत्रित करने वाली ताकतों के द्वारा उन चीजों की कीमतें तय कर दी गईं और महानगरों में दिल्ली हाट, अहमदाबाद हाट जैसे हाटों की अवधारणा विकसित कर, लघु व घरेलू उद्योगों के प्रचार और विकास के नाम पर पूँजीपतियों ने खूब पैसे बटोरे हैं- ‘‘उस रोज आँगन में मोहन दास और कस्तूरी बांस और छींदी की चटाई, खोंभरी और पकऊथी बुनने में लगे थे. बाजार के मोहनलाल मारवाड़ी की दुकान ‘विंध्याचल हैंडीक्राफ्ट्स’ से इतना बड़ा ऑर्डर मिला था कि दो-तीन महीनों तक मोहन दास और कस्तूरी को दम मारने की फुर्सत नहीं थी’’.15 व्यवस्था की इस कॉन्स्पेरेसी को उदय प्रकाश ने बखूबी समझा है और बाजार की इसी क्रूरता के विषय में वाल्टर बेंजामिन ने भी लिखा है- ‘‘विकास का हर नया सोपान बर्बरता के नए रूपों को जन्म देता है’’.16
सेज, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे विकास के परिणामों को हम अपने आस-पास आसानी से देख-समझ सकते हैं. विकास की इन्हीं परियोजनाओं और बाजार की नई नीतियों और चोंचलों का एक और शिकार बिसेसर के रूप में दिखाई देता है- ‘‘खेत में पैदा होने वाले अनाज और दूसरी फसलों की कीमत ही बाजार में नहीं रह गई थी. पास के गाँव बलबहरा का बिसेसर, जिसने ग्रामीण बैंक से कर्ज लेकर सोयाबीन की खेती की थी दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के खंभे पर चढ़कर नंगी तार से चिपक कर मर गया था. छोटे किसान और खेत मजदूर गाँव छोड़-छोड़ कर शहर भाग रहे थे’’.17 अपनी जान देने वाले ऐसे किसानों की संख्या लगाता बढ़ती ही जा रही है. फिर विकास किसके लिए है इसके अर्थ क्या हैं!
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(Schindler\’s List फ़िल्म से एक दृश्य) |
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‘लेनिन नगर’ का अपराधियों और भ्रष्टाचार का अड्डा बनते जाना मेहनतकशों की हिम्मत और तोड़ देता है. मोहन दास की पहचान और नाम हथिया कर नौकरी करता विसनाथ उसी लेनिन नगर में सुख-चैन से रह रहा है. ‘आफ्टर थ्योरी’ में टेरी ईगल्टन ने पहचान और अस्मिता पर आए संकटों की वर्तमान संदर्भ में व्याख्या की है- ‘‘चारों तरफ थोड़ा-बहुत नहीं, बहुत ज्यादा बदल रहा है.रातों-रात लोगों की समूची जीवन शैली को मिटा दिया जा रहा है….मनुष्य की पहचानों के छिलके उतारे जा रहे हैं, उन्हें काटा-छांटा जा रहा है’’.18
हर सभ्यता और समाज में ये काटने-छांटने वाले लोगों के इलाके भी कुछ अलग नहीं हैं बल्कि यही हैं- ‘‘लेनिन नगर, गांधी नगर, अंबेडकर नगर, जवाहर नगर, शास्त्री, नेहरू और तिलक नगर जैसी सुव्यवस्थित कालोनियों में हजारों बिसनाथ जैसे लोग थे, जो किसी दूसरे की पहचान, अधिकार, योग्यता और क्षमता को चुरा कर वर्षों से कुर्सियों पर बैठे हुए थे और हजारों की तनख्वाह ले रहे थे’’.19 क्या विडम्बना है हिंदुस्तान की! सत्य मार्ग, न्याय मार्ग, नीति मार्ग आदि भी इसी देश की राजधानी के कुछ मार्गों के नाम हैं. लोकतन्त्र के तीनों स्तंभ मोहन दास को न्याय दिलाने में असक्षम रहते हैं. आम आदमी को न्याय की उम्मीद दिलाने वाले न्यायिक दंडाधिकारी ‘मुक्तिबोध’ को थक कर कहना पड़ता है- ‘‘दि होल सिस्टम हैज टोटली कोलैप्स्ड…!’’20
यह कहने के बावजूद भी, बीड़ी पीते हुए, बेचैन होकर सिर्फ अंधेरे कमरे में चक्कर लगाते हुए भी मुक्तिबोध कहते हैं- ‘‘लेकिन मनुष्य के भीतर एक चीज ऐसी है, जो कभी भी, किसी भी युग में, किसी भी तरह की सत्ता द्वारा नहीं मिटाई जा सकती!…और वह है न्याय की आकांक्षा!…न्याय की आकांक्षा कालातीत है’’.21 कह कर भी वह उतनी ही बेचैनी से कमरे में टहलते हैं. न्यायिक दंडाधिकारी जी.एम. मुक्तिबोध द्वारा खाँसते हुए कही गई यह बात किसी ‘फैंटेसी’ जैसी ही लगती है बस! सारी बौद्धिकता और सैद्धांतिकी के बावजूद वह किसी भी तरह का परिवर्तन लाने में असफल होते हैं. लगता है इस व्यवस्था में न्याय बेचैन होकर रतजगे ही कर सकता है और कुछ नहीं. सत्य के लिए लगातार संघर्ष करते रहने वाले मुक्तिबोध की ब्रेनहैमरेज से होने वाली मृत्यु उस न्याय की मृत्यु है जिसके लिए मोहन दास और उसका पूरा परिवार आस लगाए बैठा था. हार कर मोहन दास अपनी अस्मिता, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व, अपना स्वाभिमान खोने को तैयार हो जाता है- \”जिसे बनना हो बन जाये मोहन दास. मैं नहीं हूँ मोहन दास….बस मुझे चैन से जिंदा रहने दिया जाए. अपने अपने घर भरो. लेकिन हमें तो हमारी मेहनत पर जीने दो’’!22 अपना सब कुछ खो कर भी मोहन दास जीना चाहता है. सारे डर, भय और नाउम्मीदीयों के खिलाफ. तभी मनुष्य की कभी न चुकने वाली अदम्य जीजिविषा की तरह मोहन दास की यह कहानी भी कभी खत्म नहीं होती.
चंद रोज़ और मेरी जान! फ़कत चंद ही रोज
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर कैद है, जज़्बात पे जजीरें हैं
फिक्र महबूस है, गुफ्तार पे ताज़ीरे हैं
अपनी हिम्मत है के: हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफलिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब जुल्म की मी याद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र के: फरियाद के दिन थोड़े हैं.
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फ़ैैज़
संदर्भ सूची-
1. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 07, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
2.10 प्रतिनिधि कहानियाँ- स्वयं प्रकाश, पृ.सं.- 35, किताबघर प्रकाशन, संस्करण 2008
3. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 10, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
4. कविता कोश- रघुवीर सहाय की कवितायें
5. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
6. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 09, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
7. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
8. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 10, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
9. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 14, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
10. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 14, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
11. परसाई रचनावली-1 (सं.मण्डल)- कमला प्रसाद, धनंजय वर्मा, श्यामसुंदर मिश्र, मलय, श्याम कश्यप, पृ.सं.- 37, राजकमल प्रकाशन, चैथा संस्करण, जनवरी 2005
12. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
13. परसाई रचनावली-1 (सं.मण्डल)- कमला प्रसाद, धनंजय वर्मा, श्यामसुंदर मिश्र, मलय, श्याम कश्यप, पृ.सं.- 36, राजकमल प्रकाशन, चैथा संस्करण, जनवरी 2005
14. जनसत्ता- प्रभात पटनायक का आलेख ‘‘नव उदारवाद से उपजी चुनौतियाँ’’, संपादकीय पृष्ठ, दिनांक- 22/2/2014
15. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 08, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
16. अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, पृ.सं.- 11, संवाद प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2010
17. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 46-47, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
18. अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, पृ.सं.- 81, संवाद प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2010
19. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 78, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
20. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 76, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
21. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 77, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
22. मोहन दास- उदय प्रकाश, पृ. सं.- 85-86, वाणी प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति संस्करण, 2009
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