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समालोचन

Home » सौ साल के मोहम्मद रफ़ी : रिज़वानुल हक़

सौ साल के मोहम्मद रफ़ी : रिज़वानुल हक़

भारतीय उपमहाद्वीप के अन्यतम गायक मोहम्मद रफ़ी (24 दिसम्बर 1924- 31 जुलाई 1980) के विषय में संगीतकार स्वर्गीय वसंत देसाई ने कहा था कि वह एक शापित गंधर्व थे जो ग़लती से धरती पर आ गए थे. रफ़ी का यह शताब्दी वर्ष है. अगर वे आज होते तो सौ साल के होते. इस अवसर पर उर्दू के मशहूर लेखक रिज़वानुल हक़ ने उन्हें बड़े ख़ुलूस से याद किया है. किसी युवा के जीवन में रफ़ी किस तरह प्रवेश करते थे और किस तरह उसमें रच-बस जाते थे इसका दिलचस्प वर्णन इस लेख में मिलता है. जो गीत उद्धृत हैं उनमें उनके सुने जाने के लिंक भी हैं. उन्हें सुना भी जा सकता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
December 24, 2024
in संगीत
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सौ साल  के मोहम्मद रफ़ी : रिज़वानुल हक़
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सौ साल के मोहम्मद रफ़ी 
रिज़वानुल हक़

मोहम्मद रफ़ी को पहली बार कब सुना था? और उन्हें कब से जानता हूँ? अब यह याद करना मुमकिन नहीं, शायद सुना तो सबसे पहले माँ के पेट में ही होगा. ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि उन नौ महीनों में मेरी माँ ने कभी रेडियो नहीं सुना होगा, और रेडियो पर मोहम्मद रफ़ी का गाया कोई नग़मा न बजा होगा. रही बात जानने की तो इसके बारे में कुछ कहना और भी मुश्किल होगा कि मैंने रफ़ी को कब और कितना जाना, वैसे उन्हें जानने का सिलसिला तो अभी तक जारी है, नहीं कह सकता कि उन्हें कितना जान पाया हूँ.

रफ़ी मेरे लिए कोई इन्सान न थे जिसकी ज़िन्दगी और मौत होती है, मेरे लिए तो वह एक ऐसे फ़रिश्ते थे जो दुनिया के हर मसअले पर अपनी बात कह जाते थे, मेरे दिल की वह बातें जिनका हल्का सा एहसास होता था लेकिन वह बातें मेरे जेहन में स्पष्ट नहीं होती थीं, वह मोहम्मद रफ़ी समझा जाते थे. उस वक़्त मेरे दिल में उनका मक़ाम ख़ुदा से कहीं ऊपर था, ख़ुदा से तो मुझे बस यूँ ही डराया जाता था. वह मेरे किसी काम के नहीं थे, किसी को महज़ डरा कर इन्सान नहीं बनाया जा सकता. जबकि रफ़ी हमें सीने में दिल के धड़कने का एहसास कराते थे. दिल में प्यार के नाज़ुक एहसास को समझाते थे.

आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है, रफ़ी को सुनना मेरे इन्सान बनने का सफ़र था. मैंने अपने नाटक ‘इन्सान निकलते हैं’ में एक जगह लिखा है जो मीर तक़ी मीर अपने महबूब से कहते हैं.

‘‘जिस दिल में इश्क़ बस जाता है, उसके दिल से बुग़्ज़, कीना, हसद, ख़ुदपरस्ती, सब फ़ना हो जाते हैं, तबीयत में सोज़ ओ गुदाज़ पैदा होता है, दिल में रहम और इन्सानी हमदर्दी पैदा होती है.”

मोहम्मद रफ़ी के गीतों को सुनकर यही सब कुछ मेरा साथ होता था, शायद यह अनुभव सिर्फ़ मेरा नहीं है, मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जिनके साथ भी ऐसा ही हुआ है. ज़ाहिर है सबकी ज़िन्दगी के तजुरबे अलग-अलग होते हैं. मेरे बचपन की सामाजिक ज़िन्दगी पर भी मोहम्मद रफ़़ी के गाए बहुत से गीतों का बहुत गहरा प्रभाव रहा है. मेरी शख़्सियत जो भी बनी उसमें वह बहुत गहराई तक समाए हुए हैं. बल्कि शायरी और बाद में फ़िक्शन की तरफ़ आया उसमें भी इन गीतों का कुछ न कुछ प्रभाव रहा है. यहीं नहीं समाजी रिश्तों पर भी अपनी एक राय बनाने में मोहम्मद रफ़ी मेरी मदद करते थे. मसलन धूल का फूल (1959) का जब यह गीत सुनते थे.

न तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा

तो यह गीत मेरे दिल में ही नहीं बल्कि मेरी रग-रग में उतर जाता था. इसी तरह जब मैं मेला (1948) का यह गीत सुनता था.

यह ज़िन्दगी के मेले यह ज़िन्दगी के मेले
दुनिया में कम न होंगे अफ़सोस हम न होंगे.

यह गीत सुनकर मैं अजीब फ़लसफ़े में घिर जाता था, दुनिया में रहकर भी दुनिया से कहीं ऊपर उठ जाया करते थे. अपने दोस्तों से अलग महसूस करता था. इसी तरह का एक गीत और मुझे फ़लसफे़ में डुबा देता था.

यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

इन गीतों ने मुझमें एक फ़लसफ़याना एहसास पैदा होता था, सामाजिक ताना बाना समझ में आता था, इन्सान में जो हवस होती है, हम उस हवस से ऊपर उठ जाते हैं.  एक गीत सुनकर बचपन में एहसास हुआ था वह गीत था. ब्रह्मचारी फ़िल्म का वह गीत था.

दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर
यादों को तेरी दुल्हन बनाकर रखूँगा दिल के पास

इस गाने में यादों को दुल्हन बनाने का तसव्वुर मेरे लिए नया था, जिसे सुनकर शायरी के अंकुर फूटने शुरू हुए थे, लेकिन इस गाने को सुनकर पहली बार लगा था, रफ़ी ने इसे गाने में बहुत मेहनत की होगी, ऐसा लगता था जैसे पूरा गाना एक सांस में ही गाया हो. क्या वाक़ई एक बार में गाया गया है? ग़ौर से सुनने के बाद मालूम हुआ कि नहीं रफ़ी ने बीच में सांसें तो ली हैं. मगर फिर भी जिस तरह से गाया है, वह कोई मामूली बात नहीं है. बहुत बाद में जब संगीत की थोड़ी बहुत समझ हो गयी तब मालूम हुआ कि यह गाना बहुत हाई पिच पर गाया गया है और उस पिच पर इतनी तेज़ी से गुज़रना कमाल की बात है.

उस वक़्त मैं एक गाँव में रहता था और वहाँ रेडियो के अलावा दुनिया के बारे में जानने का कोई और माध्यम नहीं था. मेरे घर में जब बिजली और टेलीविज़न आया तब तक मैं हाई स्कूल पास कर चुका था. इससे पहले मैं मोहम्मद रफ़ी से इस तरह मानूस हो चुका था जैसे वह मेरे घर के ही कोई सदस्य हों, वह मेरे घर में हर जगह थे, हर समय थे, एक फ़रिश्ते की तरह. मेरे हर जज़्बात को जबान दे देते थे, हर ख़ुशी में हर ग़म में, हर एहसास में हर तजुरबे में वह मेरे जज़्बात की तर्जुमानी कर देते थे. ऐसा नहीं था कि मैंने बचपन में सिर्फ़ मोहम्मद रफ़ी के ही गाने सुने और पसन्द किए हों, मोहम्मद रफ़ी के साथ साथ लता मंगेश्कर और आशा भोंसले भी थीं, मुकेश और मन्ना डे भी थे, तलत महमूद थी थे. सब पसन्द थे, गायकी की बारीकियों को तो उस वक़्त उतना नहीं समझता था. लेकिन रफ़ी और लता की आवाज़ में जो मिठास थी वह कहीं और नज़र न आती थी. उस वक़्त मैं गायकी और गाने की धुन से कहीं ज़्यादा उन ख़्यालात से मुतासिर होता जो उन गीतों में बयान किए जाते थे.

रफ़ी और लता में रफ़ी ज़्यादा दिल के क़रीब शायद इसलिए थे, क्योंकि वह मर्दों के जज़्बात की नुमाइन्दगी करते थे और मैं भी मर्द था. इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि फ़िल्मों में मर्दों के रोल और गाने भी औरतों के मुक़ाबले ज़्यादा होते थे. क्योंकि फ़िल्म बनाने वाले तक़रीबन सभी हिदायतकार और प्रोड्यूसर भी मर्द थे. बहरहाल उस वक़्त मैं लता को किसी भी तरह रफ़ी से कमतर गायक नहीं समझता था लेकिन रफ़ी मेरे दिल के ज़्यादा क़रीब थे.

एक गाना जो बचपन में मुझे बहुत पसन्द था और अक्सर लाउडस्पीकर वाले उसे बजाते थे, वह मोहम्मद रफ़ी का गाया हुआ यह गीत था.

इस दुनिया में ऐ दिल वालों दिल का लगाना खेल नहीं
उल्फ़त करना खेल है लेकिन करके निभाना ठीक नहीं.

‘दिल्लगी’ फ़िल्म का यह गीत मैंने न जाने कितनी बार सुना होगा. यह एक ऐसा गीत था जिसे मैं बिलकुल बचपन से सुनता आया हूँ और इसका जादू अब भी बरक़रार है, अलबत्ता पसन्द करने की वजहें बदलती रही हैं. शायद उस वक़्त किसी से मुहब्बत का सुरूर था, ऐसे में लगता था यह गीत मेरे दिल की तर्जुमानी करता है. गाने के बहाने मैं अपने दिल के जज़्बात सुनता था. अब जो सुनता हूँ तो इसकी वजह यह है कि यह रफ़ी के उन शुरुआती गानों में से है जिनसे उन्हें शोहरत मिलनी शुरू हुई थी. इस गाने पर के एल सहगल का थोड़ा-थोड़ा असर दिखता है, लेकिन रफ़ी का लहजा भी साफ़-साफ़ नज़र आने लगा था. जिसे उन्होंने बाद में और आगे बढ़ाया.

बचपन में गाने सुनने के तीन माध्यम थे, पहला और सबसे महत्वपूर्ण माध्यम रेडियो था. दूसरा गाँव में किसी के यहाँ शादी व्याह या कोई दूसरा फंक्शन होता तो उसके यहाँ फंक्शन से एक दो दिन पहले से और एक दो दिन बाद तक लाउडस्पीकर बजता रहता था. और उस पर रेकार्ड बजते रहते पूरा मोहल्ला गाने सुनता रहता. तीसरा माध्यम था ग्रामोफ़ोन जो मेरे मामू के यहाँ था, जो हमारे पड़ोस में ही रहते थे. हम लोग सुइयाँ घिस-घिस कर लगाते और गाने सुनते रहते, मुश्किल से एक या दो गाने सुनते थे कि सुई मोटी हो जाने की वजह से आवाज़ मोटी हो जाती थी, और फिर एक घिसी हुई सुई लगाते थे. ग्रामोफ़ोन के साथ सबसे अच्छी बात यह थी कि उस पर हम अपनी मर्ज़ी के गाने सुन सकते थे. रेडियो और लाउडस्पीकर पर यह सुविधा नहीं थी. मामू के घर पर जो डिस्क अक्सर हम सुनते थे उनमें मुग़ले आज़म, अनारकली, ज़बक, गूँज उठी शहनाई, बैजू बावरा, वगै़रा फ़िल्में थीं. जिनमें सबसे ज़्यादा मोहम्मद रफ़ी के थे और ज़्यादातर रिकार्ड पचास की दहाई के गीत थे, और आज इतने साल बाद भी मुझे सबसे अच्छे गीत पचास की दहाई के ही लगते हैं.

लाउडस्पीकर में भी रिकार्ड लगाये जाते थे लेकिन बहुत कम ऐसा होता था कि वह मेरी मर्ज़ी के लगाए जाएं. अव्वल तो लाउडस्पीकर वाला ख़ुद अपनी मर्ज़ी के रिकार्ड लगाता था जो उस वक़्त बहुत मक़बूल होते थे, दूसरी तरजीह पर वह लोग होते थे, जिसके यहाँ वह बजाने आते थे, इसलिए हम मोहल्ले या गाँव वालों को बहुत ही कम ऐसा मौक़ा मिलता कि वह हमारी पसन्द के गीत सुनवाए. मुझे पचास और साठ की दहाई के गाने पसन्द थे जबकि वह ज़माना अस्सी की दहाई का था, अलबत्ता कुछ गीत पचास के पहले के भी पसन्द थे.

फ़िल्म का नाम महज़ गीत को पहचानने का एक रेफ़रेन्स होता था, मेरे लिए उन गीतों का किसी फ़िल्मी अदाकार से कोई तअल्लुक़ नहीं था. उस वक़्त तक उन गीतों का देखने से कोई तआल्लुक़ न था और न ही फ़िल्मी अदाकारों से मेरे लिए उनका कोई रिश्ता़ होता था. सिनेमा हाल पर फ़िल्म देखने का मौक़ा उन दिनों बहुत कम ही मिलता था, साल में एक या दो बार चोरी छिपे बस, न फ़िल्म देखने के लिए पैसे होते थे और न ही घर से इजाज़त थी. इसलिए मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ मेरे लिए एक ऐसी हस्ती थी जो फ़रिश्ते की तरह थी जो नज़र नहीं आती थी, लेकिन मेरे हर काम में, हर अनुभव में शामिल थी, और वह हमसे बहुत दूर उस वक़्त के बाम्बे शहर में नहीं रहते थे, बल्कि वह मेरे घर में ही मेरे साथ जीते थे.

जब मैं नवीं जमात में पहुँचा तो पढ़ाई थोड़ी सख़्त हो गयी थी, साइन्स और गणित का विद्यार्थी था, ख़ास तौर से गणित की रियाज़ में घण्टों वक़्त बीतने लगा था, ऐसे में कई बार रेडियो और ख़ास तौर से रफ़ी के नग़मे मेरे लिए बैक ग्राउण्ड का काम करते, जैसे गायकी के किसी प्रोग्राम में वीणा या सितार गायकी की ख़ाली जगहों को सुरों से भरता रहता है, ऐसे ही मैथ और साइंस के मेरे प्रोग्रामों में रफ़ी की गायकी बैक ग्राउण्ड में चली गयी. कभी खाना खाते वक़्त या ख़ाली वक्त में रफ़ी चुपके से मुख्य गायक की भूमिका में भी चले आते थे. बाक़ी समय में वह पार्श्व में रहते थे.

मेरे घर में टी.वी. उस वक़्त आया था जब मैं हाई स्कूल पास कर चुका था. अब मैंने उन नग़मों को एक तरह से फिर से तलाश करना शुरू किया, जो अब तक रेडियो पर सुनता आया था. जब फ़िल्म में देखना शुरू किया तो सामने कोई अदाकार दिख रहा था, मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ पार्श्व में चली जाती थी. यह बात मेरे साथ अच्छी रही कि मैंने रफी को फ़िल्म में बैक ग्राउण्ड से सुनने के बजाए उन्हें रेडियो पर पहले सुना था, इसलिए रफ़ी को ज़्यादा बेहतर तरीके से समझ सका. बहरहाल फ़िल्म में या टी. वी. पर गाने देखकर बहुत से गानों के कुछ और अर्थ खुले और वह गीत पहले से बेहतर लगने लगे. लेकिन कई गानों को देखकर ऐसा भी लगा कि काश मैंने इस गाने को टी.वी. पर या फ़िल्म में न देखा होता. देखने पर कुछ गाने तो बड़े मज़हका खे़ज़ (उपहास के लायक़) लगे.

बारहवीं जमात के बाद मैं अगली दो दहाइयों तक आगे की पढ़ाई और कैरियर को लेकर घर से बाहर रहा, जहाँ न रेडियो था न टेलीवीज़न, बस यूँ ही कभी-कभार कोई गाना आते जाते इधर उधर सुनने को मिल जाता था. ऐसा लगता था कि बचपन में रफ़ी ने परवरिश करके, और एक तरह की शख़्सियत को बना के मुझे अपने हाल पर छोड़ दिया था, अब आगे का संघर्ष मुझे ख़ुद करना था. जैसे माँ बाप ने भी बारहवीं के बाद आगे के कैरियर के लिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया था, बस जब तक कुछ करने नहीं लगा था रुपये पैसे से ज़रूर मेरी ज़रूरत के हिसाब से मदद करते रहे थे बाक़ी सबकुछ मुझे ही करना था. तक़रीबन दो दहाइयों बाद जब मैं साहित्य में गहराई तक उतर चुका था, उर्दू साहित्य का सहायक प्रोफ़ेसर बन चुका था. तब मैंने साहित्य के साथ-साथ दूसरी कलाओं मसलन चित्र कला, थिएटर, सिनेमा, क्लासिकल नृत्य और संगीत को भी थोड़ा-थोड़ा समझने की कोशिश करने लगा. इस वक़्त तक मेरे पास कम्प्यूटर और इंटरनेट आ चुका था और इस तरह यू ट्यूब ने मुझे एक बार फिर मेरे बचपन के साथी मोहम्मद रफ़ी से मिलवाया दिया. और मैंने मोहम्मद रफ़ी को एक नए तरीक़े से तलाश करना शुरू कर दिया.

अब तक मैंने मोहम्मद रफ़ी के बारे में जो भी बातें की हैं वह अपने व्यक्तिगत अनुभव की बुनियाद पर की हैं, मेरा ख़्याल है अब वह वक़्त आ गया है कि सार्वजनिक यादों और अनुभवों के आधार पर भी कुछ बातें कर ली जाएं. इस लिहाज़ से बात करने से पहले अब मुझे मोहम्मद रफ़ी के बारे में कुछ बुनियादी बातें बता देनी चाहिए. ज़ाहिर है जो मोहम्मद रफ़ी के नग़मों के क़द्रदान हैं वह इनमें से बहुत सी बातें पहले जानते होंगे. बहरहाल कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो शायद यह बातें न जानते हो तो बहुत हाल उनकी ज़िंदगी के उन लम्हों वाक्यात को बता देना चाहिए.

मोहम्मद रफ़ी 24 दिसम्बर 1924 में कोटला सुल्तान सिंह नाम के गाँव में पैदा हुए, जो अमृतसर ज़िला पंजाब में आता है. रफ़ी को गायकी से पहली दिलचस्पी उस वक़्त हुई जब वह एक फ़कीर को गाते सुनते, उसकी आवाज़ में बड़ी कशिश थी, रफ़ी उसका गीत सुनते-सुनते दूर तक उसके पीछे-पीछे निकल जाते, जब वह फ़क़ीर गाँव से बाहर निकल जाता तो वह वापस आकर अपने अब्बू की दुकान के पास वही गाना गाने लगते. आस पास के लोग जमा होकर मोहम्मद रफ़ी का गाना सुनने लगते और उनकी आवाज़ के जादू में खो जाते. जब मोहम्मद रफ़ी 11 साल के हुए उनका परिवार लाहौर में जाकर बस गया. उनके बड़े भाई दीन मोहम्मद के एक दोस्त हमीद थे, उन्होंने जब रफ़ी को गाते हुए सुना तो उन्हें लगा यह तो बहुत ही अच्छा गाता है. उन्होंने उस बच्चे को लाहौर के कई बड़े उस्तादों से मिलवाया. जिनमें उस्ताद वहीद ख़ाँ, पंडित जीवन लाल मट्टू और उस्ताद फ़िरोज़ निज़ामी के नाम ख़ास तौर से क़ाबिले ज़िक्र हैं. रफ़ी उन सबसे गायकी सीखने लगे. कभी-कभी उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां से भी कुछ सीखने का मौक़ा मिल जाता.

अभी वह तेरह साल के ही थे कि लाहौर में के एल सहगल की गायकी का एक प्रोग्राम रखा गया, जो उस वक़्त फ़िल्मों के सबसे बड़े स्टार थे, गायकी में भी और अदाकारी में भी. इत्तेफ़ाक़ यह हुआ कि प्रोग्राम शुरू होने से पहले ही बिजली चली गयी, इसलिए माइक भी नहीं चल सकता था. ऐसे में कार्यक्रम के आयोजकों ने के एल सहगल को प्रोग्राम स्थल पर आने से रोक दिया कि अंधेरे में, वह भी बिना माइक के आपका प्रोग्राम कैसे होगा. लेकिन भीड़ जमा हो चुकी थी वह शोर मचाने लगी. मोहम्मद रफ़ी भी हमीद भाई के साथ सहगल को सुनने गये हुए थे, जब शोर शराबा सुना तो दीन मोहम्मद ने आयोजकों से बात की यह लड़का बहुत अच्छा गाता है, जब तक बिजली नहीं आती है तब तक इसको मौक़ा दे दीजिए लोगों का मनोरंजन करेगा. आयोजकों ने बात मान ली कि इस शोर शराबे से तो अच्छा ही है, और इस तरह बड़े मजमे में उन्हें पहली बार गाने का मौक़ा मिला.

मोहम्मद रफ़ी नाम के इस तेरह साल के लड़के ने वाक़ई भीड़ को संभाल लिया. फिर जब बिजली आ गयी तो के एल सहगल आ गये, उन्होंने गाया. प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद संगीत निर्देशक श्याम सुन्दर वहीं मोहम्मद रफ़ी से मिले, वह लाहौर में पंजाबी फ़िल्मों में संगीत देते थे. उन्होंने मोहम्मद रफ़ी की बड़ी हौसला अफ़ज़ाई की. फिर मोहम्मद रफ़ी से वह लगातार सम्पर्क में रहे. इस दौरान रफ़ी क्लासिकल संगीत भी सीखते रहे, और कभी-कभी रेडियो पर भी उन्हें गाने का मौक़ा मिलने लगा.

1941 में श्याम सुन्दर ने गुल बलोच नाम की पंजाबी फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी से पहली बार फ़िल्म के लिए गाना गवाया. लेकिन यह फ़िल्म 1944 में ही रिलीज हो सकी. इसी साल मोहम्मद रफ़ी बड़े भाई के दोस्त हमीद के साथ मुम्बई चले गये, हमीद अब तक उनके सरपरस्त और बड़े भाई की तरह हो गये थे. यहाँ भी श्याम सुन्दर ने ही उन्हें सबसे पहला हिन्दी गीत गवाया, यह गीत मोहम्मद रफ़ी ने ‘गाँव की गोरी’ फ़िल्म के लिए गाया. नौशाद मोहम्मद रफ़ी से पाँच साल बड़े थे लेकिन वह लखनऊ से काफ़ी कम उम्र में ही भाग आए थे, और कई साल तक संघर्ष के बाद अब वह बतौर संगीतकार जम चुके थे, उनके सरपरस्त हमीद लखनऊ पहुँच गये और उनके वालिद से मिलकर नौशाद के नाम मोहम्मद रफ़ी को मौक़ा दिलवाने का एक ख़त लिखवा लाए. अब तक रफ़ी नौशाद के साथ कोरस में गा चुके थे लेकिन सोला गाने का मौक़ा अभी नहीं मिला था. जल्द ही नौशाद ने उन्हें सोलो गाने का मौक़ दिया. इस तरह छोटे मोटे काम मिलने लगे, दो फ़िल्मों में एक आध मिनट के रोल भी किये. लेकिन उनकी क़िस्मत चमकी 1947 में रिलीज़ हुई फ़िल्म जुगनू से इस फ़िल्म में नूर जहाँ के साथ उनका गाया गीत काफ़ी मक़बूल हुआ, यह गीत था.

‘‘यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है
मुहब्बत करके देखा मोहब्बत में भी धोखा है”

यह गाना काफ़ी हिट हुआ, इस गाने से रफ़ी की एक पहचान बनने लगी. इसके बाद नूरजहाँ पाकिस्तान चली गयीं, और मोहम्मद रफ़ी का परिवार पाकिस्तान से मुम्बई आ गया. अगले साल 30 जनवरी 1948 में महात्मा गाँधी का क़त्ल हो गया, पूरे हिन्दुस्तान पर बहुत बड़ा सदमा गुज़रा, राजेन्द्र कृष्ण ने इस हादसे के फ़ौरन बाद एक गीत लिखा, जिसे संगीत से संवारा हुस्न लाल भगतराम ने और उन्होंने मोहम्मद रफ़ी से यह गीत गवाया, वह गीत था.

सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की यह अमर कहानी
वह बापू जो पूज्य है इतना जितना गंगा माँ का पानी

यह गीत इतना मक़बूल हुआ कि दिल्ली की शोक सभा में उन्हें यह गीत गाने के लिए बुलाया गया. ख़ुद नेहरू ने इसकी बहुत तारीफ़ की और रफ़ी को अपने घर पर बुलाकर फिर से सुना और पूरे हिन्दुस्तान में इस गीत को पहुँचाने को कहा. आज़ादी की पहली वर्ष गांठ के अवसर पर 15 अगस्त 1948 को उन्हें इस गीत के लिए ख़ास तौर से सम्मानित किया गया. अब उनकी आवाज़ घर-घर तक पहुँच चुकी थी. इस गीत के बाद बहुत जल्द ही ऐसा वक़्त आ गया कि अब उनके लिए न काम की कमी थी और न नाम की. उनकी अच्छी आवाज़ और अच्छी गायकी की शोहरत होने लगी थी, फिर भी अभी भी उनकी कोई अलग शैली न थी. अब उन्हें इसी की तलाश थी.

हर फ़नकार की जिंदगी में एक ऐसा वक़्त आता है जब उसे लगने लगता है कि अब उसके संघर्ष का समय गुज़र चुका है, और अब वह रोज़मर्रा के काम से ऊपर उठकर कुछ अलग कर सकता है, यही वह वक़्त होता है जब कोई फ़नकार अपने फ़न का बेहतरीन मुज़ाहिरा करना चाहता है. इत्तेफ़ाक़ से उसी वक़्त विजय भटट नौशाद के पास बैजू बावरा फ़िल्म का आफ़र लेकर पहुँचे, यह 1951 की बात है, उस वक़्त नौशाद 32 साल के हो चुके थे और मोहम्मद रफ़ी 27 साल के, दोनों अब तक फ़िल्मों में अच्छी पहचान बना चुके थे, लोग उनके संगीत को क़द्र की निगाह से देखते थे और वह अच्छे पैसे भी कमाने लगे थे. फ़िल्म की थीम को सुनकर नौशाद ने महसूस कर लिया कि यही वह फ़िल्म है जिसकी उन्हें तलाश थी. उन्होंने इस फ़िल्म को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया. जब मोहम्मद रफ़ी इस फ़िल्म में शरीक हुए तो उन्होंने भी नौशाद के मक़सद को अपना मक़सद बना लिया. कहा जाता है इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर विजय भट्ट के साथ नौशाद ने भी छह महीने तक काम किया था. विजय भट्ट के साथ नौशाद इससे पहले भी काम कर चुके थे. इस फ़िल्म में संगीत सम्राट तानसेन को गाते हुए दिखाया जाना था, नौशाद ने तानसेन को गाते हुए दिखाने के लिए उस्ताद अमीर ख़ान को मना लिया था, जो उस वक़्त महानतम क्लासिकल गायकों में शुमार किए जाते थे. अब दिक़्क़त यह आन पड़ी कि फ़िल्म के आखि़र में तानसेन बैजू बावरा से गायकी में हार जाते हैं, तो बैजू बावरा को आवाज़ कौन देगा? आखि़रकार ये मसअला ख़ुद उस्ताद अमीर ख़ान ने सुलझाया और उन्होंने ही कहा डी वी पलुस्कर इसके लिए सबसे मुनासिब होंगे, उनसे हारने में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होगी. उस्ताद अमीर ख़ान और डी वी पलुस्कर की इस जुगलबन्दी को हर संगीत प्रेमी को सुनना और देखना चाहिए.

आज गावत मन मेरो झूम के
तेरी तान भगवान आज गावत मन मेरो झूम के

मेरा ख़्याल है इस फ़िल्म में जिस तरह का संगीत और गायकी है, हिन्दुस्तान में आज तक संगीत के लिहाज़ से इससे बेहतर फ़िल्म नहीं बनी है. फ़िल्म की शुरूआत से नौशाद और रफ़ी दोनों को लग गया था कि यही वह वक़्त है जब अपना सबकुछ दांव पर लगा देना चाहिए. इस फ़िल्म में दो गाने रफ़ी ने ऐसे गाए हैं कि फ़िल्मों में गायकी ऐसी बुलन्दी पर फिर कभी न पहुँच सकी. पहला गाना एक भजन है.

मन तड़पत हरि दर्शन को आज
मोरे बिगरे सगरे काज

इस भजन को सुन कर उस वक़्त के बड़े से बड़े उस्ताद ने माना कि कोई भी क्लासिकल गायक इससे बेहतर क्या ही गाता. गीत शकील बदायूँनी का, संगीत नौशाद का और गायकी मोहम्मद रफ़ी की, इस तिगड़ी ऐसा भजन रच दिया कि पूरे हिन्दुस्तान में शायद ही कोई भजन मंदिरों में इससे ज़्यादा बजाया गया हो. नौशाद और मोहम्मद रफ़ी दोनों ने इब्तेदाई ज़माने में हिन्दुस्तानी क्लासिकल संगीत सीखा था. क्लासिकल संगीतकार फ़िल्मी संगीत को हमेशा सस्ता माल कह कर मज़ाक़ उड़ाते थे, इस फ़िल्म और ख़ास तौर से इस भजन में नौशाद और मोहम्मद रफ़ी को मौक़ा मिला था कि दिखा दें वह भले फ़िल्मी संगीत रच रहे हों, लेकिन वह क्लासिकल संगीत के सबक़ को भूले नहीं हैं, बल्कि उसे अवाम तक ले जाना चाहते हैं. इस फ़िल्म का दूसरा गीत था.

ओ दुनिया के रखवाले
सुन दर्द भरे मेरे नाले

जीवन अपना वापस ले ले में ‘ले ले‘, आस न टूटी में ‘टूटी‘ मन्दिर टूटा फिर बन जाता में ‘जाता‘ और सबसे आखि़र में ‘रखवाले‘ में आवाज़ को वह जिस ऊँची पिच पर ले जाते हैं, वहाँ पहुँचना ही अच्छे अच्छों के बस की बात नहीं थी, उस पिच पर वह ‘ले ले’, ‘टूटी‘ और ख़ास तौर गाने के आखि़र में ‘रखवाले‘ की जो गरदान करते हैं, जब आवाज़ सबसे ऊँची पिच पर पहुँच जाती है तब वह आवाज़ को एक लहर सी देते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उन्होंने दम निकाल कर ही रख दिया है. जिस एवरेस्ट पर चढ़ना ही किसी के बस की बात न हो वहाँ पहुँच कर रफ़ी साहब रक़्स करते हुए महसूस होते हैं. लोग बताते हैं कि इसे गाते वक़्त मोहम्मद रफ़ी का गला छिल गया था और मुँह से ख़ून निकल आया था. क्या कमाल है, बस वाह वाह करने को जी चाहता है, ओ पी नय्यर अक्सर कहा करते थे जिसने ओ दुनिया के रखवाले जैसा गाना गा दिया हो, उसे तो बस इसी गीत पर भारत रत्न दे देना चाहिए था.

दिलचस्प बात यह है कि इस फ़िल्म में सबसे ज़्यादा शोहरत न अमीर ख़ान और डी वी पलुस्कर के क्लासीकी गायन को मिली थी, और न रफ़ी के उन दोनों गीतों में से किसी एक को मिली. बल्कि रफ़ी और लता के एक दोगाने को मिली थी. ऊपर ज़िक्र किए गये तीनों गाने बुनियादी तौर पर क्लासिकल संगीत पर आधारित थे, क्लासिकल संगीत को समझने वाला ही इसकी तारीफ़ कर सकता है, लेकिन यह दोगाना राग पर आधारित होते हुए भी लोकप्रिय गीतों की श्रेणी में ही आता है, इसको गाने में भी मोहम्मद रफ़ी ने कमाल किया था और लता ने भी उनका भरपूर साथ दिया है. वह गीत है.

तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा
रहेगा मिलन यह हमारा तुम्हारा  

यह फ़िल्म 100 हफ़्तों तक चली, इसने प्लेटिनम जुबली मनाई, रफ़ी की गायकी ने पूरी इण्डस्ट्री में अपना सिक्का जमा लिया, इस फ़िल्म के बाद वह फ़िल्मों के सबसे बड़े गायक के तौर पर स्थापित हो गये. क्लासिकल संगीत के बड़े-बड़े उस्तादों ने भी अब मोहम्मद रफ़ी की गायकी का लोहा मान लिया था. अब उनका किसी से कोई मुक़ाबला न रहा था. लेकिन रफ़ी ने इसे भी अपनी मंज़िल कभी नहीं समझा. बैजू बावरा फ़िल्म उनकी गायकी का चरम बिन्दु ज़रूर थी लेकिन पार्श्व गायकी के अपने तकाजे होते हैं जिनकी बारीकियों को कई सबक़ अभी बाक़ी थे.

इसके बाद मोहम्मद रफ़ी ने अपनी पार्श्व गायकी के अन्दाज़ पर काम करना शुरू किया. इसके बाद उन्होंने ने अपने तजुरबे से सीखा कि फ़िल्मों में गाने से पहले तीन बातों का ख़ास ख़्याल रखना होगा. पहला गीत के भाव कैसे हैं? उस भाव को पूरी तरह से अदा करना इस बात का यूँ तो पहले भी वह ख़्याल रखते थे, लेकिन अब ख़ास ध्यान देने लगे. दूसरी बात यह कि वह जिस अभिनेता के लिए गा रहे हैं उस अभिनेता को ध्यान में रखते हुए उसके अभिनय के मुताबिक़ अपनी गायकी को ढालना होगा.

यह कमाल ख़ास मोहम्मद रफ़ी का था. जिसे उन्होंने ख़ुद ईजाद किया था. और शायद इस मामले में वह पहले गायक थे जिसने ऐसा तजुरबा किया और बहुत कामयाबी के साथ किया. उन्होंने यूँ तो बेशुमार अदाकारों के लिए गाने गाए हैं, लेकिन दिलीप कुमार, देव आनन्द, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, धर्मेन्द्र, सुनील दत्त के लिए ख़ास तौर से बड़ी तादाद में गाने गाए हैं और सबके लिए उनके गाने का अन्दाज़ अलग हो जाता है. तीसरा तजुरबा यह था कि उन्होंने जिस संगीतकार के साथ गाया उसका भी अन्दाज़ अपना लिया. इन तीनों तजुरबों के बावजूद मोहम्मद रफ़ी अपनी पहचान कभी नहीं खोते हैं, उनकी आवाज़ को इतनी आसानी के साथ पहचाना जा सकता है कि लगभग हर श्रोता उनकी आवाज़ को बड़ी आसानी से पहचान सकता है. वह चाहे जिस सिचुएशन के लिए गा रहे हों, चाहे जिस अभिनेता के लिए गा रहे हों और जिस संगीतकार के साथ गा रहें हों सबकी अलग-अलग पहचान होने के बावजूद अपनी पहचान बनाए रखना मोहम्मद रफ़ी का बहुत बड़ा कमाल है.

मोहम्मद रफ़ी ने 1957 में एस डी बर्मन के साथ प्यासा फ़िल्म शुरू की लेकिन एस डी बर्मन मोहम्मद रफ़ी की गायकी से संतुष्ट नहीं थे, उन्हें इस गायकी में एक तरह का कच्चा पन नज़र आता था. कोई दूसरा गायक होता तो शायद नाराज़ हो जाता कि जिसने बैजू बावरा के गाने गा दिये हों उसकी गायकी में आप ख़ामी निकाल रहे हो. लेकिन रफ़ी ने पूरी श्रद्धा के साथ उनके साथ गायकी सीखनी शुरू की और पूरे एक महीने तक वह रफ़ी को गायकी सिखाते रहे, उसके बाद उन्होंने प्यासा के गीत रिकार्ड कराए. इसके बाद एस डी बर्मन के साथ उनकी ऐसी संगत बनी कि उनकी तक़रीबन हर फ़िल्म को बाद में मोहम्मद रफ़ी ने ही गाया.

मोहम्मद रफ़ी की गायकी का एक कमाल यह भी है कि उन्होंने गायकी की लगभग हर विधा में गाने गाए हैं, गीतों के तो वह मुख्य रूप से गायक हैं ही, इसके साथ ही भजन, नात, ग़ज़ल, नज़्म, दुआ हर विधा में उसी परिपक्वता के साथ गाते हैं, जैसे गीत गाते हैं. गीत के मूड में भी इतनी विविधता है कि यक़ीन नहीं होता है कि इतने ग़मगीन गीत गाने वाला इतने रोमांटिक गाने कैसे गाने लगता है, फिर वह फ़लसफ़याने गीत गाने लगता है तो कहीं जानी वाकर और महमूद के लिए मज़ाहिया गाने भी उसी पूर्णता के साथ गाता है. मैंने ज़्यादा गीतों का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि मोहम्मद रफ़ी के कितने भी गीतों का ज़िक्र कर लूँ लेकिन यह फे़हरिस्त कभी पूरी नहीं होगी अगर एक हज़ार गीतों की अलग-अलग ख़ूबियाँ बताऊँ तो एक हज़ार गीत और खड़े हो जाएंगे कि हमारे बारे में भी बताना ज़रूरी है.

मोहम्मद रफ़ी अपने छोटे जीवन में ही इतने बड़े लीजेन्ड बन गये थे कि उस बुलन्दी पर पहुँच कर किसी के भी पैर लड़खड़ा सकते थे, इसके बावजूद उन्होंने अपनी इनसानियत को न सिर्फ़ हमेशा क़ायम रखा बल्कि जैसे-जैसे उनकी शोहरत बढ़ती गयी वह एक फलदार पेड़ की तरह और झुकते चले गये. वह हर नए कलाकार के साथ गाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे, कई बार नए संगीतकारों से बगैर एक पैसा लिए गा देते, कभी सिर्फ़ एक रुपया लेकर गाते या जो जितने पैसे दे देते बग़ैर किसी हिसाब किताब के रख लेते. वह न जाने कितने लोगों को माहाना ख़र्चा भेजते थे, कभी किसी से इसका ज़िक्र नहीं करते थे, जब उनकी मौत के बाद लोगों को पैसे मिलने बंद हुए तब लोग ढूँढते हुए आते और जब मालूम होता कि मोहम्मद रफ़ी नहीं रहे तो यूँ वापस जाते जैसे वह अनाथ होकर वापस जा रहे हों. उनकी मौत पर एक लाख से ज़्यादा लोग उनकी मय्यत में शरीक हुए थे.

न जाने कितने लोग उनके गीतों को गा-गा कर गायक बन गये, उनकी मौत के बाद छोटे-छोटे शहरों में एक ऐसा सिलसिला चल निकला कि शहर के या थोड़े बड़े और दूर दराज़ के गायक जमा होते और मोहम्मद रफ़ी के गाए हुए गीतों को गाते जिन्हें सुनने शहर की भीड़ उमड़ पड़ती. इन गाने वालों में कुछ अच्छे भी होते कुछ एवरेज और कुछ ख़राब भी लेकिन उन गीतों को गाने का अस्ल मक़सद गायकी सुनना या सुनाना नहीं होता था, बल्कि उन गीतों के ज़रिए उन लम्हों और अनुभवों को याद करना ज़्यादा होता था जिससे वह कभी रफ़ी के गीतों को सुनकर गुज़रे थे. ऐसी ही एक परम्परा का अनुभव अरुण देव की इस कविता से किया जा सकता है.

 

रफ़ी के लिए एक शाम

मंच पर रौशनी थी
खुद से मुलाकात के लिए जरूरत भर

नायकों की तरह एक-एक कर आये गीतकार
कोट पुराने थे उनके
जूते घिसे हुए
चेहरों पर समय की शिकन
हथेलियाँ में मशक्कत का खुरदरापन
थोड़ी फीकी उनकी रंगत
पर आँखों में बा-शऊर जिंदगी की चमक

माइक हाथ में लेते ही बहने लगा प्यार के राग का दिलकश संगीत

एक ऐसी दुनिया जहाँ इश्‍क़ था, थीं निष्ठुर प्रेमिकाएं
प्रेम के लिए आर्तनाद करते प्रेमी थे
बेवफाई का सुरीला गीत प्रेम के ध्वंस से उठता
और हुस्न-ओ-शबाब की प्रार्थना में खो जाता

जहाँ न काशी से कुछ गरज था न काबे से कोई वास्ता

हालाँकि उनमें से कुछ के गले बैठे गये थे
समय बड़ा भारी गुजर रहा था
हर मुलायम चीज हर मासूम शै रंगों रूप ख़तरे में थे

उस रात लोग अपने गम सुनने को इकट्ठे थे
कभी वे खुशी में हंस पड़ते कभी ठहर कर चुप हो जाते

एक दाढ़ी बेख़ुदी में हिल रही थी
देखा किये तुमको बन के दीवाना
एक फर वाली टोपी कह रही थी आसूं की तरह न गिराना मुझे

एक ख़ामोश आवाज ने धीरे से कहा बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
पूरा जलसा फूलों से भर गया

विरह की कंपकपाती लौ में किसी ने टूटी आवाज में पूछा
क्या हुआ तेरा वादा ?

स्त्रियाँ हंस रहीं थीं
जैसे कोई उनके ही लिए गा रहा हो ये रेशमी जुल्‍फें ये शरबती आंखें
कभी वे भी किसी के लिए चैदहवीं की चाँद हुआ करती थीं
कोई उनके नाजुक होठों को छूने के लिए ऐसे ही लरजता था

इश्‍क़ के मनुहार का जब कोई गीत फूटता
वे मुस्कातीं

जैसे उन्हें अभी भी इंतजार हो कि कोई कहेगा अब तो आँखों में सारी रात जाएगी
जिसे लम्बे दाम्पत्य में भूल गये थे उनके पति

मेरी बगल में बैठा एक बच्चा अपने अब्बा को देख रहा था
इतने संजीदा होते थे ये तो
कभी मेरे सामने अम्मी का हाथ तक नहीं पकड़ा
और आज रुख़ से नक़ाब हटाने की ऐसी शोख़ गुजारिश कर रहे हैं
उनमें दूर – दूर तक न कहीं पिता था न पति
था तो बस एक पुरुष एक स्त्री के सामने खड़ा
जो कातरता से कह रहा था मुलाक़ात का वादा तो करती जाओ

तीर, तलवार, कांटें, बरछी जैसे दिनों में यह राहत की शाम थी
यह रफी की शाम थी.

(अरुण देव, 2020, उत्तर पैग़म्बर)

______

 

रिज़वानुल हक़
नाटक : गुरुदेव (टैगोर),आदमीनामा (नज़ीर अकबराबादी), इन्सान निकलता है (मीर) आदि प्रकाशित.
उपन्यास ‘ख़ुदकुशी नामा’ शीघ्र प्रकाश्य. उर्दू से हिंदी में अनुवाद.
उर्दू कहानियों और सिनेमा पर शोध कार्य
rizvanul@yahoo.com 

 
Tags: 20242024 संगीतमोहम्मद रफ़ी के सौ सालरिज़वानुल हक़
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Comments 8

  1. Madhu B Joshi says:
    5 months ago

    Aap unke Shamshad Begum ke saath gae divya geet ko kyon bhool gae? Devata tum ho mera sahara, maine….yah art pukar sada sada dilon mein basi rahegi.

    Agar ise bhajan ke taur par dekhen to ise parde par prastut karnevale mukhya patr, gayak yugal, sangeetkar, lekhak, nirdeshak sab musalman the….

    Reply
  2. इंद्रजीत सिंह says:
    5 months ago

    पुरुष गायन की दुनिया के आफ़ताब मोहम्मद रफ़ी साहब पर रिज़वानुल हक़ जी का लेख क़ाबिले गौर और क़ाबिले तारीफ़ है l मोहम्मद रफ़ी साहब की मधुर और कर्णप्रिय आवाज़ की तरह मनभावन लेख l किसी गीत की कामयाबी में मानीख़ेज़ अल्फ़ाज़, दिलकश साज़, सुरीली आवाज़ के साथ- साथ सुनहरे पर्दे पर अभिनेता/अभिनेत्री के अभिनय के अप्रतिम अंदाज़ का योगदान होता है l लेकिन कई गीत ऐसे जिनमें रफ़ी साहब की आवाज़ के कारण अमर हैं l “जान पहचान हो जीना आसान हो “ शैलेन्द्र के साधारण शब्दों में अपनी आवाज़ की शोख़ी और मस्ती ने इस गीत को अद्भुत रूप से लोकप्रिय बनाया l शैलेन्द्र के ही एक और गीत “ चाहे कोई मुझे जंगली कहे “ को भी बेमिसाल लोकप्रिय बनाने में रफ़ी साहब का योगदान है l “दोस्ती” फ़िल्म की कामयाबी में रफ़ी साहब के गीतों का अविस्मरणीय योगदान है l मजरूह साहब के अल्फ़ाज़ों को और लक्ष्मी प्यारे की मधुर धुनों को अपनी आवाज़ से अमर बनाने का काम रफ़ी साहब ने किया l भारत सरकार रफ़ी साहब की जन्म शताब्दी पर भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा करे तो सभी संगीत प्रेमियों के लिए नए साल का नायाब तोहफ़ा होगा l अरुण जी आपको साधुवाद l

    Reply
  3. प्रचण्ड प्रवीर says:
    5 months ago

    अच्छा आलेख।

    Reply
  4. गौरव शर्मा says:
    5 months ago

    रफ़ी साहब के गायन की जादूगरी का बखान मैने अपने पिताजी से सुना था। पिताजी बहुत अच्छा गाते थे और रफी के गीत ही गाते थे। वो कहते थे कि जिस अभिनेता के लिए रफ़ी गाते थे उसी से आवाज़ और अंदाज मिला लेने का हुनहर उन्हीं में था। जैसे जैसे हम बड़े हुए, यह हमने खुद महसूस किया।

    Reply
  5. विनय सौरभ says:
    5 months ago

    इस लेख को पढ़ते हुए रफी साहब के लिए कोई नमी भीतर तक फैल गयी। लेख रफी साहब के व्यक्तित्व के कई संवेदनशील पहलुओं से हमारा परिचय कराता है। यह लेख बताता है कि वे एक महान गायक ही नहीं थे, संजीदा मनुष्य भी थे। लोगों की मदद करने वाला प्रसंग मार्मिक है और उनके लिए आदर को और बढ़ाने वाला है। रफी की गायकी और उनके जीवन को समझने के लिए यह लेख बार-बार पढ़े जाने योग्य है। समालोचन और लेखक को बधाई।

    Reply
  6. Sawai Singh Shekhawat says:
    5 months ago

    रिज़वानुल हक़ ने मोहम्मद ऱफी के होने को जिस तरह याद किया है वह उनके और उनके किए-धरे के प्रति गहरा सम्मान व सम्मोहन
    पैदा करता है।उनके यादगार गीतों के साथ जुड़े अभिनेताओं
    के अनुसार स्वर की ढलावट सिर्फ़ उनके पास ही थी।मन्नाडे जैसे गायक का उनको विश्व का शिरोमणि गायक कहना उनके क़द के बारे में बताता है।बहुत कम होता है कि कोई अपनी कला में बेजोड़ होने के साथ उतना ही बड़ा मनुष्य भी हो।लेकिन ऱफी साहब इस मोर्चे पर भी बेजोड़ थे।एक समय था जब किशोर कुमार के गीतों की तूती बोलने के चलते ऱफी साहब को कम तवज्जो दी जा रही थी।पर वही ऱफी साहब किशोर कुमार के गीतों पर आकाशवाणी द्वारा बंदिश लगाए जाने पर इंदिरा गाँधी से मिलकर उस रोक को हटवा लाए थे।उन्हें कोटि-कोटि सलाम!

    Reply
  7. नरगिस फ़ातिमा says:
    5 months ago

    बेहद ख़ूबसूरती के साथ लिखा ज़बरदस्त मज़मून जिसे पढ़ने के बाद रफ़ी साहब जैसी अज़ीम शख़्सियत की मुहब्बत में इज़ाफ़ा होना तय है। मज़मून के आख़िर में जो नज़्म है वो भी बहुत ख़ूबसूरत है। वैसे तो रफ़ी साहब के पसंदीदा गीतों की लंबी फ़ेहरिस्त है लेकिन मेरा दिल अज़ीज़ गीत है “सुहानी रात ढल चुकी”।

    Reply
  8. डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी says:
    4 months ago

    रफ़ी साहब की ज़िन्दगी से कम रोचक नहीं है,आपका यह आलेख. काफ़ी अच्छा लगा

    Reply

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