नई कविता के दौर में रघुवीर सहाय का नाम एक बड़े क़द के कवि के रूप में सामने आया और स्थापित हुआ. हालांकिे नई कविता के बारे में मेरा विचार यह है कि उसके उल्लेख आधुनिक कविता के सपाट इतिहास में डाले जाने के कारण ही कुछ प्रासंगिक हैं, वरना नई कविता जैसी धारा का मेरी निजी पढ़त में कोई मोल नहीं. विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों में नई कविता के नाम पर मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद मिश्र से लेकर धूमिल और केदारनाथ सिंह तक पढ़ाए जा रहे हैं. अपने असल गंवई मुहावरे में कहूं तो सब धान बाईस पसेरी तोला जा रहा है. आज भी अज्ञेय का प्रकोप इस क़दर व्याप्त है कि हिन्दी के अकादमिक संसार में कोई प्रश्न नहीं करता कि सप्तकों के कवि होने भर से ये लोग कैसे और क्यों कथित नई कविता के कवि हैं? मेरे लिए नई कविता नहीं लेकिन उस समय के निम्नमध्यवर्गीय नागर जीवन की कविता की एक धारा अवश्य अनिवार्य महत्व की धारा है, जिसके दो अग्रणी कवि रघुवीर सहाय और कुंवरनारायण हैं. तब से लेकर आज के समय तक इस वर्ग के निरन्तर बढ़ते फैलाव ने रघुवीर सहाय की कविता को उत्तरोत्तर प्रासंगिक भी बनाया है.
रघुवीर सहाय को मैं जन शब्द के विस्तार का श्रेय देता हूं. उनसे पहले प्रगतिशील कविता का जन किसान-मजदूर भर था. रघुवीर सहाय ने निम्नमध्यवर्गीय संताप से भरे जन कविता में उपस्थित किए तो उन्हें अपना न मानने की कोई तार्किक राह ही नज़र नहीं आयी. छोटी-छोटी नौकरियों पर जाते या कुछ अपना निजी काम-धंधा करते लोग, रोज़गार की तलाश में अपनी जड़ों से उखड़ कर शहरों में खटते-पिसते और उसमें भी स्त्रियों का समूचा विविधवर्णी संसार. इस जनजीवन के सामने लोकतंत्र एक स्थापित और मान्य राजनीतिक व्यवस्था है. इसी राजनीति में उसके स्वप्न बनते और टूटते हैं. एक विराट संवैधानिक व्यवस्था उसके सामने चरमरा के ढहने लगती है तो उसके संकट और गाढ़े होते जाते हैं. वह एक असफल– असंगठित और बात-बात पर निरूपाय-सा हो जाता वर्ग है. उसकी न तो स्मृतियां एक हैं, न स्वप्न – बस यथार्थ एक है. उसकी एक बड़ी मुश्किल यह भी है कि वह वर्गसंघर्ष की भाषा नहीं जानता और न ही जानना चाहता है. इस वर्ग के दारूण लेकिन अस्फुट असंतोषों को किस तरह समझा जाए और वाणी दी जाए यह किसी भी समर्पित कवि के लिए चुनौतीपूर्ण काम है. रधुवीर सहाय ने यह चुनौती सबसे अधिक निभायी है और इस अर्थ में वे अप्रतिम कवि हैं. जैसा कि उन्होंने लिखा भी है –
यह क्या है जो इस जूते में गड़ता है
यह कील कहां से रोज़ निकल आती है
इस दु:ख को रोज़ समझना पड़ता है
(हमने यह देखा)
1953 में रघुवीर सहाय एक छोटी-सी कविता लिखते हैं –
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता-सा :
अनुभव से जानता हूं कि यह वसन्त है
(वसन्त)
ये स्वाधीन भारत के लोकतंत्र में नेहरूयुगीन आदर्शों के मौसम के आरम्भिक वर्ष थे, जब
रघुवीर सहाय ने इस वसन्त के टूटने के बारे में एक अनुभवजन्य बयान दिया. मंगलेश डबराल ने रघुवीर सहाय की कविता में प्रोफेसी की क्षमता के बारे में एक सार्थक बात कही है – रघुवीर सहाय की कम से कम बीस कविताएं ऐसी हैं जिनमें मनुष्य पर आनेवाले संकटों के बारे में एक प्रोफ़ेटिक विज़न मिलता है, ऐसी चेतावनियां नज़र आती हैं जैसी उनके पूर्ववर्ती कवि मुक्तिबोध की कविताओं में भी जगह-जगह मिलती है.(कवि का अकेलापन, पृष्ठ 27) यह बिलकुल सही आकलन है. मुक्तिबोध के जैसा प्रोफ़ेटिक विज़न हिन्दी में भूतो न भविष्यति वाली चीज़ है और राजधानी में रहते हुए रघुवीर सहाय ने राजनैतिक सत्ताओं की घूर्णन गति को जिस बारीक़ी से पकड़ा है, वह उन्हें इस अर्थ में तो मुक्तिबोध की परम्परा में ला ही देती है. गो मुक्तिबोध के ऐसे विज़न अधिक व्यापक हैं, उनमें अनिष्ट की तमाम आहटों के साथ साम्यवादी समाज की स्थापना और उसके लिए संघर्ष के स्वप्न भी हैं. रघुवीर सहाय की प्रोफ़ेसी में केवल अनिष्ट की आशंकाएं ही है, क्योंकि उनकी विचारधारा ठीक वही नहीं है जो मुक्तिबोध की. बहरहाल, नेहरूयुगीन आकांक्षाओं का ख़ुद नेहरू पर ढह पड़ना, उनकी मृत्यु के बाद की संक्रमणशील स्थितियां, आपातकाल, सम्पूर्ण क्रांति का छद्म,उसके बाद संघियों और पश्चिमी यूपी की सामन्ती ताक़तों के सहारे कुछ समय घिसटा अधकचरा जनता-शासन और बाद के सारे भयावह प्रसंग घटने से पहले ही रघुवीर सहाय की कविता में दर्ज़ हैं. रघुवीर सहाय के जीवन में दो शहर हैं – लखनऊ और दिल्ली, दोनों लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर सत्ता के दुश्चक्रों के आदिकेन्द्र रहे हैं. इनमें रहने के अनुभव रघुवीर सहाय को उस जन का कवि बनाते हैं, जिसका उल्लेख मैंने आरम्भ में ही किया. यही दो शहर रघुवीर सहाय के ठीक समकालीन कवि कुंवरनारायण के भी हैं और हैरत नहीं कि बहुत-से प्रसंगों में दोनों की प्रतिक्रियाएं भी समान हैं, फिर भले वो अलग–अलग मुहावरे,भाषा और लहजे में हों. इन दो कवियों को हमें एक साथ याद करना चाहिए.
समय और समकालीन जीवन की जटिलता हर कवि को बेचैन रखती है और कभी-कभी यह जटिलता एक अलग भंगिमा में व्यक्त होती है, जहां कुछ देर के लिए जो घट रहा है, उससे अधिक हमें जो घट निरन्तर रहा था उसका अनुमान लगाना होता है और इसके लिए बाध्य कर देने वाली कविताएं ख़ासी बड़ी संख्या में रघुवीर सहाय के यहां हैं –
आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्चीआयी,किलक मेरे कंधे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक एक पूरा गान किया
आज जीवन फिर शुरू हुआ.
(आज फिर शुरू हुआ)
निश्चित ही यह किसी तरह के सुकून का बखान नहीं है. नेपथ्य की आवाज़ें इसमें अधिक गूंज रही हैं. कविता दरअसल व्याख्या नहीं मांगती, वह ख़ुद को महसूसना मांगती है. जो व्याख्या मांगती है, वह मेरे लेखे कविता नहीं. लेकिन हिन्दी में व्याख्याकारों की ही भीड़ है. लोग हर कविता की व्याख्या किए दे रहे हैं. इधर पाठ,अर्थ और संकेत का प्रकोप बढ़ने के बाद तो व्याख्या ही आलोचना हो चली है. मैं सोचता हूं रघुवीर सहाय होते तो इस पर क्या टिप्पणी करते !
सीढ़ियों पर धूप(1950-59) रघुवीर सहाय का पहला कविता-संग्रह है. ऊपर जितनी पंक्तियों के
उद्धरण मैंने दिए हैं, वे भी इसी संग्रह से हैं. इस संग्रह में जहां एक ओर अभिजात तरीक़े की मक्कारी को बख़ूबी समझनेवाली और आमजन के हक़ में हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन की बुनियादी मांग पर अड़ी लम्बी कविताएं हैं
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, तो वसन्त जैसी व्यापक अभिप्राय वाली बहुत छोटी-छोटी कविताएं भी. यह संग्रह कम उम्र में ही रघुवीर सहाय की कविता को सुदूर समयों तक स्थापित करने की भूमिका तय कर देता है. संग्रह में रघुवीर सहाय का चिर-परिचित स्त्री-संसार भी मौजूद है, जिस पर मैं आगे चर्चा करूंगा. यहां मुझे एक कविता मिलती है –
नीम में बौर आया
इसकी एक सहज गंध होती है
मन को खोल देती है गंध वह
जब मति मंद होती है
प्राणों ने एक सुख का परिचय पाया
(बौर)
इससे मुझे बरबस ही त्रिलोचन की कविता की याद आती है. ख़ासकर धरती में संकलित छोटी कविताओं की और कुछ बाद की भी. रघुवीर सहाय में प्रगतिशील कवियों के बीज होने का यह अद्भुत प्रमाण है. एक ऐसा तथ्य जिसे नई कविता के व्याख्याकारों ने निगाहों से ओझल रखा. इसी संग्रह की एक लम्बी कविता दे दिया जाता हूं का उल्लेख मुझे अवश्य करना चाहिए. मैं दीप अकेला मदमाता में अज्ञेय के यहां दे दिये जाने का प्रसंग कवि को पीड़ादायी बल्कि अपमानजनक लगता है जबकि वही प्रसंग रघुवीर सहाय की कविता में सुन्दर दृश्यालेख होकर सामने आता है. अज्ञेय के यहां पंक्ति को दे दिए जाने की बात है जबकि यहां वह ज़माने भरके शोर और आवाज़ों के बीच एक गूंज है नंगी और बेलौस, जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं – यहीं से अज्ञेय और रघुवीर सहाय की कविता का बुनियादी अंतर तय हो जाता है. रघुवीर सहाय की इस कविता में स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन. छनने की इस प्रक्रिया में ही वह नंगी और बेलौस गूंज और स्पष्ट होती जाती है,जिसका सीधा सम्बन्ध अपने लोगों से, उनके कष्टों और संघर्षों से है. अज्ञेय का अकेलापन कभी छन नहीं पाया, वे जीवन भर उसमें लिथड़े रहे. कविता के कई मूर्ख आत्मविश्वासी भाष्यकार अज्ञेय को रघुवीर सहाय का कविगुरु मानते हैं, उनकी बात पहले तो कतई मानने के काबिल नहीं और यदि मान भी ली जाए तो कहना होगा कि रघुवीर सहाय अज्ञेय से बहुत आगे के कवि हैं. अज्ञेय के पास ऐसा कुछ नहीं था, जिससे रघुवीर सहाय जैसा कवि कुछ सीखे.
इसी संग्रह से रघुवीर सहाय की कविता बेधक और तीखा व्यंग्य भी प्रकट होने लगता है और प्रभु की दया,पढ़िए गीता, नारी, सुकवि की मुश्किल जैसी कविताएं हिन्दी कविता में किसी भी तरह के अतिरिक्त या अतिरेकी अनुशासन को पूरी तरह ध्वस्त करती हुई उसमें शामिल होती जाती हैं. रघुवीर सहाय का पहला ही संकलन 60 के ज़माने की कुछ टाईप्ड हो चली कविता में एक नहीं, कई हवादार-रोशन खिड़कियां खोल देता है. उस विशिष्ट राजनैतिक और सामाजिक समय में मुक्तिबोध की कविता की स्थायी गूंजों और रघुवीर सहाय जैसे युवा की बेहद सारवान अलग-सी अभिव्यक्तियों का एकाएक साकार हो उठा सम्मिलित संसार निश्चित ही आधुनिक हिन्दी कविता का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बनकर उपस्थित है.
आत्महत्या के विरुद्ध रघुवीर सहाय का दूसरा संग्रह,जिसकी कविताएं 57 से 67 के बीच
लिखी गई हैं. यह भारतीय लोकतंत्र से नेहरू नामक सम्मोहन का दैहिक और वैचारिक, दोनों रूप से विदा ले लेने का समय है. हम इसे एक बिखर रहे टूटे सपनों वालों आत्महत्या की कगार पर खड़े समाज का असंतुष्ट, क्षुब्ध और हताश समय कह सकते हैं. कथित नई कविता के हिसाब से रघुवीर सहाय की कविता में इसके महज यही मुख्य स्वर होने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं है. इस संग्रह में भी रघुवीर सहाय की कविता आलोचकीय और अकादमिक हदबंदी से पार जाती हुई कविता है. यहां झरने के विरुद्ध रचने के आख्यान अधिक हैं –
देखो वृक्ष को देखो वह कुछ कर रहा है
किताबी होगा कवि जो कहेगा कि हाय पत्ता झर रहा है
(रचता वृक्ष)
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कविता लिखते हुए इस इलाक़े में किताबी कवियों पर भी रघुवीर सहाय की भरपूर निगाह थी. नकली उच्छवासों की कविता का प्रकट विरोध उनकी कविताओं में जगह-जगह है. उनसे पहले की राष्ट्रवादी और प्रयोगवादी कविता ऐसे उच्छवासों से भरी पड़ी थी और कथित नई कविता में भी उसके प्रभाकर माचवे जैसे न हो सके कवि मौजूद थे. प्रगतिशील धारा ने स्वयं को अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण इससे मुक्त रखा था
, इसे अब एक साहित्येतिहासिक सन्दर्भ मानना चाहिए कि यह और महत्वपूर्ण सिरा है जो इस कविताधारा और रघुवीर सहाय की कविता के बीच सीधे जुड़ता है. ठीक यहीं अचानक आश्चर्य की तरह लग सकती शमशेर सरीखी एक पतली नाज़ुक रेखा भी ठिठकी हुई-सी दिख जाती है –
डाल पर ठहरा हुआ है खिंचा फूल गुलाब का
(खिंचा गुलाब)
इस दूसरे संग्रह में सत्ता की बड़ी संरचनाओं से कवि की जिरह लगातार जारी रहती है. यही वजह है कि कवि-आलोचक विजय कुमार रघुवीर सहाय की कविताओं को व्यवस्था-तंत्र के सुपरस्ट्रक्चर के विरुद्ध लिखी गई कविताएं मानते हैं.( कविता की संगत, पृष्ठ 69)
तथ्य यह भी है कि रघुवीर सहाय का जिन विकट परिस्थितियों से सामना है, उन्हें व्यक्त करने के सिलसिले में वे प्रयोगधर्मी भी बहुत हैं लेकिन प्रयोगवादी नहीं. हर बड़ा कवि प्रयोगधर्मी होता है. रघुवीर सहाय के पहले निराला और मुक्तिबोध की प्रयोगधर्मिता साबित हो चुकी बात है. प्रगतिशील धारा में चारों बड़े कवि अपने-अपने मुहावरे, भाषा और शिल्प में प्रयोगधर्मी हैं. नागार्जुन ने शायद कविता के साथ सम्भवत: सबसे अधिक प्रयोग किए. शमशेर की कविता की भाषा और संरचना ऐसे मुकाम तक पहुंची हैं कि शायद ही कोई सोच सकता था कि हिन्दी में कभी इस तरह भी कविता लिखी जाएगी. त्रिलोचन ने सानेट को ऐसे साधा कि वह दूसरे संस्कार का शिल्प ही नहीं लगता. केदार की कविता में लोक और रागात्मक व्यवहार के अद्भुत यथार्थपरक प्रयोग मौजूद हैं. कहने का अभिप्राय इतना ही है कि जनप्रतिबद्ध दृष्टि और जनता तक पहुचने की इच्छा से प्रेरित विचारवान प्रयोग किसी वाद के बाड़े में क़ैद नहीं किए जा सकते, चूंकि रघुवीर सहाय के कविता-स्त्रोतों में प्रयोगवाद का उल्लेख आता रहा है इसलिए मुझे इतना यह सब भी कहना पड़ा जिसे कहने की ज़रूरत होने नहीं चाहिए थी.
अधिनायक संग्रह की बहुचर्चित कविता है. मुझे लगता है कि राष्ट्रगान की पड़ताल करने से अधिक यह कविता राष्ट्र की अवधारणा की पड़ताल करती है. लोकतंत्र के लिए चुने गए राष्ट्रगान में किसी भाग्य-विधाता (अधिनायक) के विद्रूप का होना अपने आप में एक बड़ा सवाल है. राष्ट्रगान के कवि ने उसे राष्ट्रगान के रूप में नहीं लिखा था और न ही रघुवीर सहाय रवीन्द्र से सम्बोधित हैं. इसलिए इस छानबीन में जाना बेकार है. वे सत्ता से सम्बोधित हैं. यहां तो सीधा सवाल है –
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,उनके
तमग़े कौन लगाता है
कौन-कौन वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डर हुआ मन बेमन
जिसका बाजा रोज़ बजाता है
(अधिनायक)
भारतीय सत्ता संवैधानिक रूप से लोकतांत्रिक सत्ता है लेकिन इस कविता में उसके प्रति प्रयुक्त सारे पद विलोम में हैं और जो लोक अथवा जन है, वह नंगा-बूचा. यहां पूरा देश ही रमचन्ना है. सिंहासन, अधिनायक, महाबली आदि लोकतंत्र के शब्द नहीं है लेकिन यही अब लोकतंत्र के शब्द हैं. 57 से 67 के दशक के बीच लिखी यह कविता अब और भी प्रभावी है. अब तो मीडिया तक राजगद्दी, युवराज, उत्तराधिकारी आदि शब्दों का प्रयोग राजनैतिक घटनाक्रम की रिपोर्टिंग करते हुए बड़े सहज भाव से करता है. देश में अधिनायकत्व बढ़ा है और स्थापित हुआ है. यहां तक कि संसद ने भी अपना एक अधिनायकत्व विकसित किया है. यहां फिर मुझे रघुवीर सहाय की भविष्यदृष्टि याद आती है, जिसका जिक्र पहले हुआ. इस लोकतंत्र के भीतर स्वाधीनता का हाल यही है –
स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग
एक स्वाधीन व्यक्ति से
(स्वाधीन व्यक्ति)
यह पूरा परिवेश ही एक क्षोभ उत्पन्न करता है. अपने ही नाम पर स्थापित इस तंत्र में जनता की अविश्वसनीय-अकल्पनीय उदासीनता और नासमझी खिझाने वाली है. एक हद पर आकर कवि को कहना ही पड़ता है –
क्योंकि आज भाषा ही मेरी मुश्किल नहीं रही
एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफ़रत है सच्ची और निस्संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है
(स्वाधीन व्यक्ति)
जनता अपने होने का अर्थ नहीं समझती और राजनीति के लगातार चलते खेल का मैदान बनती चली जाती है. उसमें जब स्थायी लिजलिजापन दिखाई देने लगता है तो यह नफ़रत वाजिब लगती है. इस नफ़रत का अर्थ निकाले जाने की नहीं, अभिप्राय समझने की ज़रूरत है. इसके पीछे की असीम करुणा को देखने पर ही कविता के सभी सन्दर्भ स्पष्ट हो पाते हैं. इसी कविता में वह दिलचस्प मोड़ भी आता है, जब रघुवीर सहाय अपने साथी कवि श्रीकान्त वर्मा के विचलन और नैतिक फिसलन पर सीधी और तीखी टिप्पणी करते हैं –
हो सकता है उन कवियों में मेरा सम्मान न हो
जिनके व्याख्यानों से सम्राज्ञी सहमत है
घूर पर फुदकते हुए सम्पादक गदगद हैं
(स्वाधीन व्यक्ति)
घूर पर फुदकते हुए गदगद सम्पादकों से याद आना स्वाभाविक है कि रघुवीर सहाय स्वयं बड़े पत्रकार और सम्पादक रहे. आपातकाल के दौरान दिनमान के साहस को आज एक बार फिर याद किया जाना चाहिए. पत्रकारिता को तो रघुवीर सहाय की कविता पर आक्षेप तक की तरह इस्तेमाल किया गया. उन्हें अख़बारी कवि और उनकी कविता को रिपोर्टिंग बताने वाले भी एक ज़माने में कम नहीं रहे. उनके कविकर्म में पत्रकारिता की एक ही भूमिका मुझे समझ में आती है और वो ये कि इस रूप में वे समकालीन राजनैतिक लोगों और उनकी राजनीति की असलियत को अधिक निकटता और गहराई से पकड़ सके. नागार्जुन जैसे प्रतिबद्ध जनवादी कवि तक सम्पूर्ण क्रांति के झांसे में आ गए और बाद में चल कर उन्हें इस खिचड़ी विप्लव के असल चेहरे का साक्षात्कार हुआ. रघुवीर सहाय इस असलियत को पहचानने में अचूक रहे जबकि वे विचारों से समाजवादी माने जाते थे और इस खिचड़ी विप्लव में समाजवादियों की केन्द्रीय भूमिका थी.
इस हाथ को देखो
जिसमें हथियार नहीं
और अपनी घुटन को समझो, मत
घुटन को समझो अपनी
कि भाषा कोरे वादों से
वायदों से भ्रष्ट हो चुकी है सबकी
(फिल्म के बाद चीख़)
लोकतंत्र की फिल्म के बीच अनगिन निहत्थे लोगों को किए जा रहे इस सम्बोधन में भाषा एक करुण क्रीड़ा करती हुई उस निहत्थेपन को कुछ और उजागर तो करती ही है, सावधान भी करती है कि अपनी घुटन को समझो पर घुटन को अपना मत समझो. कोरे वादों का हमला राजनैतिक वादों पर हैं, जिसे हिन्दी के व्याख्याकार साहित्यिक वादों पर बताते हैं. वे साहित्य के सामाजिक और राजनैतिक यथार्थ से कोई लेना–देना नहीं रखते. वादों के बाद वायदों का उल्लेख भी उन्हें अपनी व्याख्या से डिगा नहीं पाता. रघुवीर सहाय को न समझ पाने या ग़लत समझ जाने के लिए यही व्याख्याकार जिम्मेदार हैं जो वैचारिक गद्य की दरिद्रता के कारण ही शायद आलोचक मान लिए गए हैं. हिन्दी कविता की पढ़त में मेरी मुश्किल यही व्याख्याकार हैं. इन व्याख्याओं ने हिन्दी कविता की अकादमिक पढ़ाई-लिखाई में उसे पूरी तरह नष्ट करके रख दिया है. आज भी विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसरान पूर्णकंठ अहंकार के साथ कक्षा में पढ़ाते पाए जाते हैं कि साहित्यिक यथार्थ, सामाजिक और राजनैतिक यथार्थ से सर्वथा भिन्न होता है. इस अनिष्ट को समझना हो तो रघुवीर सहाय की कविता एक उदाहरण हो सकती है. बहरहाल, इसी कविता पर मुझे आगे कुछ कहना है. नेहरू ने शांति और प्रेम का विश्वव्यापी अभियान चलाया और देश में उनकी नाक के नीचे चल रही कारगुज़ारियों को अनदेखा करने की ऐतहासिक भूल कर गए और बात यहां तक जा पहुंची –
दस मंत्री बेईमान और कोई अपराध सिद्ध नहीं
काल रोग का फल है अकाल अनावृष्टि का
यह भारत एक महागद्दा है प्रेम का
ओढ़ने-बिछाने को,धारण कर
धोती महीन सदानन्द पसरा हुआ
(फिल्म के बाद चीख़)
आत्महत्या के विरुद्ध एक लम्बी आख्यानात्मक कविता है. मेरे लिए आधुनिक हिन्दी कविता की दस सवश्रेष्ठ कविताओं में एक. एक लम्बा नाटकीय आख्यान. रघुवीर सहाय की कविता की स्वाभाविक नाटकीयता जो दरअसल करुणा, पीड़ा और छटपटाहट को स्वर देने के लिए सम्भव होती है, शिल्प में चमत्कार करने के लिए नहीं – बड़ी बात है कि यहां मैं स्वाभाविक और नाटकीय, दो विरोधी पदों का प्रयोग एक-दूसरे के समर्थन में कर पाता हूं. क्या किसी और कवि के लिए ऐसा किया जा सकता है? कविता में संदिग्ध सम्पादक,भ्रष्ट नेता-मंत्री, पदमुक्त न्यायाधीश, पिटे हुए दलपति दहाड़ कर कहते हैं समय आ गया है,जबकि कवि दस बरस पहले कह चुका होता है कि समय आ गया है. किस बात का समय आ गया है, यह सब जानते हैं और यह भी कि बाक़ी लोगों के कहने और कवि की कहन में क्या फ़र्क़ है. मेरा ध्यान समूची कविता रचाव में सम्भव हुई उस विराटता की ओर जाता है, जिसे मैं मुक्तिबोधीय कहना चाहूंगा. यहां रघुवीर सहाय का सिग्नेचर शिल्प एक अलग विस्तार पाता है. इसमे वातावरण, घटनाएं, संवाद, मनुष्यता का अंधेरा,भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के मेगास्ट्रक्चर का प्रकोप आदि मिलकर ऐसा कुछ रचते हैं कि कविता को पढ़ने के आपका मन वही नहीं रह जाता जो पहले था. यह तो हिन्दी कविता में मुक्तिबोधीय होना है. मेरी मान्यता है कि कविता में निजी कुछ नहीं होता पर आत्म बहुत कुछ होता है. यह आत्म जब बोध, आलोचन, विश्लेषण आदि का उपसर्ग बनता है तो सार्थक और महान सम्पूर्ण क्रियाएं बनती हैं.
कल से ज़्यादा लोग पास मंडराते हैं
ज़रूरत से ज़्यादा आसपास ज़रूरत से ज़्यादा नीरोग
शक से कि व्यर्थ है जो मैं कर रहा हूं
क्योंकि जो कह रहा हूं उसमें अर्थ है
(फिल्म के बाद चीख़)
विरोधी पदों से बनती इन पंक्तियों का अभिप्राय यूं और खुलता जाता है. रोगग्रस्त व्यवस्था में कौन लोग हैं जो नीरोग बने ज़रूरत से ज़्यादा आसपास मंडराने लगे हैं इस शक से कि व्यर्थ है जो कवि कर रहा है और व्यर्थता कवि के कहने की अर्थवत्ता से जुड़ी है – यहां शब्द ही एक-दूसरे के सामने चुनौती बनकर नहीं खड़े हैं, वैचारिक चुनौतियां भी हैं जो कहीं बड़ी और जटिल हैं. रघुवीर सहाय की भाषा में उलझ कर रह जाने वाले अकसर उनकी कविता से वंचित रह जाते हैं, जबकि वे पाठक को इस उलझाव उसका अपना स्पेस देते चलते हैं. आगे जो उद्धरण मैं दे रहा हूं वह ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन के स्तर पर घटित हुआ है. ये दो महान कविताओं की पंक्तियां नहीं, हिन्दी कविता में घटित हुए सबसे वैचारिक और मार्मिक दृश्य हैं. बोलने के बारे में और टूटने के बारे में रघुवीर सहाय का यह अद्भुत बोलना सुनिए- टूटना देखिए :
कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अंदर एक कायर टूटेगा टूट
मेरे मन टूट एक बार सही तरह
अच्छी तरह टूट मत झूटमूट ऊब मत रूठ
मत डूब सिर्फ़ ….
(आत्महत्या के विरुद्ध)
संयोग नहीं है कि अच्छी तरह टूट मत झूटमूट ऊब मत रूठ की यही आत्मउद्बोबधनात्मक ऊर्जा आगे अगली पीढ़ी के वीरेन डंगवाल सरीखे समर्थतम कवि में गहरे उतर गई है. जान लिया जाए कि यह हिन्दी कविता की तेजस्वी विरासतें हैं, प्रभाव नहीं. इस कविता में राजनीति, साहित्य और सामाजिक जीवन के असल चरित्र बड़ी सहजता से आते चले आते हैं. बीस बरस का नरेन, मंथर मटकता मंत्री मुसद्दीलाल, गंजा गरजता मुस्टंडा विचारक, कुचले पांव वाला रामलाल, नेहरू, पाटिल, बिनोबा से मुन्न से बोलते जैनेन्द्र और लोहिया से कुछ कहते लोहिया. सर्वोदय की बहुत बड़ी लपसी जो पकायी गई युद्ध में बदहवास जनता के लिए. इस सब कुछ का महान आख्यानात्मक प्रभाव जो एक नहीं कई-कई तरह की आत्महत्याओं को साकार करता है लेकिन समग्रता में छिटककर आती वह अपूर्व छटपटाहट जो आत्महत्या के विरुद्ध है.
हंसो हंसो जल्दी हंसो रघुवीर सहाय का तीसरा संकलन है,कविताओं का रचनाकाल 1970-75
के बीच. पिछले संग्रह आत्महत्या के विरुद्ध में नई हंसी शीर्षक कविता जैसे इस संग्रह की भूमिका रूप में लिखी गई थी. अब हमारे गणतंत्र का नायक इस हालत में पहुंचा है –
देखो सड़क पार करता है पतला-दुबला बोदा आदमी
आती हुई टरक का इसको डर नहीं
या कि जल्दी चलने का इसमें दम नहीं रहा
आंख उठा देखता है वह डरेवर को
देखो मैं ऐसे ही चल पाता हूं
(सड़क पर रपट)
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दिख रहा है कि टरक और डरेवर के साथ यहां भाषा फिर अपनी अहम भूमिका में है. रपट रिपोर्ट के लिए आम आदमी की ज़बान में थोड़ा घिसकर लोहिया द्वारा दिया गया शब्द है. यह कविता ठीक उसी जन की कविता है, जिसके लिए मैंने जन के विस्तार वाली बात पहले भी कही है. आगे पंक्तियों में यह बात और स्पष्ट होगी –
मैंने इस तरह के आदमी इस बरस पिछले के मुक़ाबले बहुत देखे
जिनको खाने को पूरा नहीं मिला बरस भर
कैसे भी पहुंच जाते हैं दफ़्तर वक़्त से
घर लौट आते हैं देर-सबेर घरवालों को कभी अस्पताल में पड़े नहीं मिलते हैं
(सड़क पर रपट)
दो अर्थ का भय शीर्षक कविता के आरम्भ में ही लोकतंत्र की अलग राजशाही की घृणित उपस्थिति के बीच इस जनता के हक़ में कैसा अचकू बयान है यह –
मैं अभी आया हूं सारा देश घूमकर
पर उसका वर्णन दरबार में करूंगा नहीं
राजा ने जनता को वर्षों से देखा नहीं
यह राजा जनता की कमज़ोरियां न जान सके इसलिए मैं
जनता का क्लेश का वर्णन करूंगा नहीं इस दरबार में
यह हमारा लोकतंत्र है,जिसमें राजा होना नहीं चाहिए पर है. हमने वोटों की राजनीति से ही अपने लिए नए अधिनायक खड़े कर लिए, जिनकी गुंजाइश लोकशाही नहीं देती. जनता का चुना यह कैसा राजा है, जिसने वर्षों से प्रजा को नहीं देखा. वह लोगों की ताक़त के बल पर नहीं, उनकी कमज़ोरियों के सहारे राज करता है. धूर्त राजनीतिज्ञ जनता की कमज़ोरियां पहचानते हैं और उन्हीं के दम पर बरसों-बरस जनता की छाती पर टिके रहते हैं. मैं यहां एक और विषय पर बात करना चाहूंगा. कविता का शीर्षक मेरे समय में एक और संकट को समझने में मदद करता है. मैं देख पा रहा हूं कि यहां दो अर्थों के भय का यह प्रसंग फ्रांसीसी अकादमी में मल्टीपिल मीनिंग पर विमर्श की शुरूआत के प्रसंग का ठीक समकालीन है. और अपने समय में कवि का आग्रह भी यही है –
… कहूंगा मैं
मगर मुझे पाने दो
पहले ऐसी बोली
जिसके दो अर्थ न हों.
जाहिर है सभी अर्थ सही नहीं हो सकते. एक ही अर्थ सही होता है. बाक़ी अर्थ ग़लत निकाले जाते हैं और इसी कविता में ग़लत अर्थ लेकर मार दिए जाने का उल्लेख भी है. इसी कविता का सन्दर्भ लेकर मंगलेश डबराल लिखते हैं – भाषा को अर्थहीन या विकृत करने की शासक वर्ग की कोशिशों के प्रति वे सजग रहे. उनकी एक कविता ‘दो अर्थों का भय’ इन्हीं कोशिशों का विरोध करने करने वाली कविता है(कवि का अकेलापन, पृष्ठ 29). इस कथन में आए विकृत शब्द से मैं सहमत हूं लेकिन अर्थहीन से नहीं. मेरे समय ने मुझे यह समझ दी है कि शासक वर्ग की कोशिशें अब भाषा को अर्थहीन करने की नहीं, अधिक अर्थवान करने की है – साथ ही यह भी तय कर दिया गया है कि अर्थ पर लेखक का अधिकार नहीं है. यह एक मुश्किल बात है, रघुवीर सहाय की ही पदावली में कहूं तो इसे भी रोज़ समझना पड़ता है. हमारे दौर में उदारीकरण, भूमंडलीकरण, मुक्त बजबजाते बाज़ार, सोवियत यूनियन के विघटन, अमरीकी निरंकुशता, तीसरी दुनिया के देशों पर थोपे गए सिलसिलेवार युद्ध आदि के बीच ग़लत अर्थ निकालना अब अकादमिक एक्सीलेंस बनता गया है. अमरीकी अकादमियों ने तो इस कार्य के लिए विद्वान नियुक्त करने प्रारम्भ कर दिए हैं. ऐसी विशेषज्ञ तत्वमीमांसक पोथियों की दुनिया बढ़ती जा रही है, जो अपने मूल उद्देश्य में दुनियावी यथार्थ के विरुद्ध हैं.
रघुवीर सहाय की कविता में कई व्यक्ति आते हैं. आने वाला ख़तरा शीर्षक कविता में वे किसी रमेश से सम्बोधित होकर चेतावनी के कुछ वाक्य बोलते हैं जो बाद में जल्द ही चलकर आपातकाल के रूप में साकार हो जाते हैं –
एक दिन इसी तरह आएगा – रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी – रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय – रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा – रमेश
रघुवीर सहाय की कविता अकसर अपने बेहद कारगर अभिप्रायों में संज्ञा को सर्वनाम बना देती है. रमेश भी इसी प्रसंग का हिस्सा है. बाक़ी बहुत जाहिर बात है कि इस कविता में आयी ख़तरे की घंटी वास्तविकता में बजायी गयी और उसे मलिका ने बजाया. हमारे समय में भी घंटियां बज रही हैं,शासकवर्ग खुलेआम उन्हें बधावे की तरह बजा रहा है और हमारी ‘रमेश’ पीढ़ी मुदित मन सुन रही है.
हंसो हंसो जल्दी हंसो निश्चित रूप से संग्रह की अत्यन्त महत्वपूर्ण कविता है और मैं भरपूर दिलचस्पी के साथ देखता हूं कि इसकी भूमिका आत्महत्या के विरुद्ध में संकलित एक कविता में लिख दी गई थी –
बीस बड़े अख़बारों के प्रतिनिधि पूछें पचीस बार
क्या हुआ समाजवाद
कहे महासंघपति पचीस बार हम करेंगे विचार
आंख मारकर पचीस बार वह, हंसे वह पचीस बार
हंसे बीस अख़बार
एक नयी ही तरह की हंसी यह है
(नयी हंसी)
इस नई हंसी के बीच पुरानी हंसी हंसना किस तरह कितना संगीन और जानलेवा अपराध है, इसकी इसकी पूरी स्थापना हंसो हंसो जल्दी हंसो में दी गई है. यहां हंसना एक विवशता है और उससे भी कहीं बड़ी विवशता है निर्धारित कर दिए गए तरीक़े से हंसना. इस हंसी की मानीटरिंग की जाती है, सुनिश्चित किया जाता है कि हंसने वाला ख़ुश होकर तो नहीं हंस रहा. यहां एक शर्म का चलन है, हंसते हुए भी उस शर्म में शामिल होना अनिवार्य है. यह राष्ट्रीय शर्म है,शर्म का नया ‘राष्ट्रवाद’. नए अहद में ख़ुशी का बड़ा कारण सत्ता के दुश्चक्र को भेद सकना भी हो सकता है, यह ख़ुशी निज़ाम के लिए ख़तरनाक़ है-
हंसते-हंसते किसी को जानने मत दो किस पर हंसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हंसी हंसते हो
जैसे सब हंसते हैं बोलने के बजाए
सब चीज़ें उलट-पुलट हो गई हैं. विचार सर के बल खड़े हैं और आफ़त के वेताल मिथकों और किंवदंतियों को धता बताते अपने पांव पर टहल रहे हैं. देश के लोकतंत्र में कैसे दुर्दिन हैं कि उन प्रसंगों पर हंसना अनिवार्य है जो हंसने के नहीं प्रतिरोध के प्रसंग हैं –
और ऐसे मौकों पर हंसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहां कोई कुछ नहीं कर सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हंसता है
इसी संग्रह में रामदास संकलित है जो भारत के आम नागरिक के जीवन का लगभग अंतिम दस्तावेज़ है. यह एक बार लिखी जाकर बार-बार घटित होते रहने वाली कविता है. लिखी जाने के बाद यह अनगिन बार घटित हुई होगी और अनगिन बार घटित होगी. इसे इस कविता की सफलता मान लीजिए या नागरिक समाज की असफलता. कभी कविता की सफलता इतनी विकट होती है कि उससे भय लगने लगता है. रामदास ने मुझे बार-बार डराया है. एक तय कर दी गई हत्या के आगे बेबस नागरिक का समर्पण भारतीय समाज और राजनीति का बहुत संगीन चेहरा बन जाता है. यह हत्या देह में जिस स्तर पर घटित होती है, उससे कहीं बड़े और व्यापक स्तर पर विचार के इलाक़े में पहले ही घट चुकी होती है. कविता की उसे बता यह दिया गया था पंक्ति चेतावनियों के निष्फल होते जाने का स्थायी बन जाती है. इस हत्या की कवरेज भी कम भयावह नहीं है –
मरा पड़ा है रामदास यह
देखो देखो बार बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी
इस संग्रह के बारे में विजय कुमार लिखते हैं – ‘हंसो हंसो जल्दी हंसो’ के रघुवीर सहाय में शब्दों का खिलवाड़, तोड़फोड़, सिनिसिज़्म, विट और विद्रूपबोध एकाएक बहुत कम हो गए हैं. इसकी जगह समकालीन समाज में साधारण और कमज़ोर मनुष्य की बेबसी का स्वर अधिक मुखर हुआ है(कविता की संगत, पृष्ठ 69) . मुझे विजय कुमार के निष्कर्ष में प्रयुक्त हुए सिनिसिज़्म शब्द पर ख़ास आपत्ति है. दरअसल यह रघुवीर सहाय की मौलिकता को न समझ पाने वाले विद्वानों का अविष्कार था, इसे यदि विजय कुमार सहमति दे रहे हैं तो मैं उनसे बिलकुल असहमत हूं. रघुवीर सहाय में सिनिसिज़्म जैसी कोई चीज़ कभी नहीं रही,हां एक कवियोचित हठ अवश्य रहा, जिसने उनके लिखे को अपने अभिप्राय दिए. दूसरी आपत्ति यह कि बाक़ी जिन चीज़ों के कम होने की बात की गई वे दरअसल कहीं कम नहीं हुईं बल्कि और गाढ़ी हो गईं – उन्हें पकड़ना अधिक मुश्किल हो गया, ठीक वैसे ही जैसे कि जनता के लिए जीवन, समाज और राजनीति के स्तर पर समझने और लड़ने के लिहाज से नेहरूयुग से कहीं अधिक दुर्बोध इंदिरा युग हो गया. विजय कुमार के कथन के उत्तरपक्ष से पूरी सहमति है.
लोग भूल गए हैं रघुवीर सहाय का चौथा संकलन है,जिसमें 1976 से लेकर 1982 तक की
कविताएं संकलित हैं. कविताओं का रचनाकाल स्पष्ट किया जाना मेरे विचार में एक ज़रूरी बात है, इससे कविताओं के परिदृश्य और पक्ष स्पष्ट हो पाते हैं. हर छोटा कालखंड भी बड़े राजनैतिक-सामाजिक बदलावों को इंगित करता है, जैसे कि इसी संग्रह में देखा जा सकता है – आपातकाल लगना-हटना, जनता सरकार का आना-जाना, इंदिरा गांधी का सत्ता पर फिर काबिज़ हो जाना आदि बड़े फेरबदल हैं.
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मैंने कविता में श्रीकान्त वर्मा पर रघुवीर सहाय के आक्षेप पर इसी लेख में पहले भी संकेत किया है. यहां इस संग्रह की कविता तुम्हारे विचार मुझे फिर उसी तरह सोचने पर विवश करती है. कांग्रेस की राजनीति में अत्यन्त सक्रिय रहे श्रीकान्त वर्मा दिनमान में रघुवीर सहाय के सहयोगी भी रह चुके थे. कांग्रेस में समाजवाद की विकट पुनर्व्याख्या करने से लेकर ग़रीबी हटाओ के नारे तक के प्रस्तोता रहे श्रीकान्त वर्मा की राजनीति को ध्यान में रखते हुए ज़रा इन पंक्तियों को पढ़ा जाए –
ये सब मेरे विचार हैं जिन्हें तुम आज
धड़ल्ले से प्रकट कर रहे हो
पर ये ठीक-ठीक वे विचार नहीं – धन्यवाद
क्योंकि मैं कभी ताक़त से नहीं बोला
उम्मीद से बोला कि शायद मैं सही हूं
ताक़त से नहीं कि चाहे सही हूं या नहीं हूं
बोल मैं ही सकता हूं
(तुम्हारे विचार)
मुझे अहसास है कि कविता को किसी व्यक्ति पर केन्द्रित करना ठीक नहीं, उसे प्रवृत्ति के परिदृश्य में देखना चाहिए पर कभी-कभी व्यक्ति ही प्रवृत्ति विशेष का प्रमुख प्रतिनिधि बनकर उभरता है. आगे के उद्धरण में मेरी बात और स्पष्ट हो पाएगी-
यह ताक़त आज से पहले तुम्हारी आवाज़ में
नहीं थी,तुम्हारे विचार में भी दम नहीं था
पर आज जब तुमने मेरे विचार ले लिए हैं
और उन्हें सत्ता की ताक़त से कहा है
तो उस पर एक ख़ास तरह की हंसी आती है
(तुम्हारे विचार)
दरअसल मामला सिर्फ़ कवि का नहीं है, सत्ता की ताक़त से बोल रहे कवि का है. रघुवीर सहाय ने विचार शब्द का प्रयोग किया है और वह कविता में आया विचार ही है. श्रीकान्त वर्मा कथित नई कविता के दलदल में सबसे अधिक फंसे रहने कवि रहे हैं, जिससे वो मगधमें कहीं जाकर बाहर निकल सके. मगध के केन्द्र में विचार है और संयोग नहीं कि रघुवीर सहाय की 1978 में लिखी इस कविता के केन्द्र में भी विचार ही है. मगध 1984 में छपा लेकिन उसकी कविताएं आपातकाल के दौरान ही छपनी शुरू हो गई थीं. स्पष्ट कर दूं कि मैं इसे दो कवियों के बीच टकराव बनाकर पेश नहीं कर रहा हूं – यह जनता के पक्ष होने और सत्ता में रहकर जनता के पक्ष का स्वांग रचने के बीच का टकराव है. ताक़त शब्द की भी इस कविता में केन्द्रीय भूमिका है. आज मैं देख सकता हूं कि रघुवीर सहाय ने कविता में ताक़त और अत्याचार के अभिन्न अर्थ को समझते हुए उसके विरुद्ध जो मुहावरा दिया वह मगलेश डबराल की कविता और उससे भी आगे तक तक जस का तस चला आया है.
रंगों का हमला इस संग्रह की एक और चर्चित कविता है. अत्याचार के दृश्यों को उपस्थित करने के बरअक्स अत्याचारी को बेनक़ाब करने का प्रश्न उठाती कविता है. यहां भी बहुअर्थीयता का संकट रेखांकित किया है –
शब्द को तो यों ही कह देते हैं ब्रह्म शब्द के अर्थ
निकल सकते हैं दो रंगों के नहीं.
(रंगो का हमला)
जो ग़लत हो रहा है,दरिद्रता है, अनाचार है – इस सबके चित्रण तक विरोध की भाषा और विचार के सीमित हो जाने का संकट एक गहरा संकट है और उससे निकलने का ही तरीक़ा हो सकता है –
…अगर चेहरे गढ़ने हों तो अत्याचारी के चेहरे खोजो
अत्याचार के नहीं
इसको हम जानते बहुत हैं, वह अब भी छिपता फिरता है
(रंगो का हमला)
वाकई अत्याचार को हम जानते बहुत हैं, बताते बहुत हैं पर सीधे अत्याचारी पर निशाना कम लोग रखते हैं.
लोग भूल गए हैं लम्बी कविता है. रघुवीर सहाय की लम्बी कविताओं के शिल्प में कुछ लघुकथानक होते हैं, जिन्हें ग़लती से उल्लेख समझ लिया जाता है. वे अपने में पूर्ण होते हैं और मिलकर एक आख्यान बनाते हैं. साधारण लोगों के जीवन से सम्बन्धित इन कथानकों के बीच कवि के निष्कर्ष घुलमिल जाते हैं. लगता है कवि अचानक किसी के भी बारे में बात करने लगा है लेकिन बात उसी महाजीवन के बारे में हो रही होती है, जो दरिद्र, विवश, मुसीबतों के किसी लम्बे ट्रेफिक जाम में फंसा हुआ है. ऐसी हर कविता में कवि की अंगुली हमेशा अपराधी की ओर उठती है. लोग भूल गए हैं तो एक समूची संस्कृति के अपराधों को अयां करने की कविता है –
यह संस्कृति उसको पोसती है जो सत्य से विरक्त है
देह से सशक्त और दानशील धीर है
भड़ककर एक बार जो उग्र हो उसे तुरत मार देती है
(लोग भूल गए हैं)
सवाल है कि यह कौन-सी संस्कृति है ? इसका अधिक स्पष्ट उत्तर दूसरी कविता में मौजूद है –
देश में बर्बरता
हत्याएं चीथड़े ख़ून और मैल आज भारतीय संस्कृति के मूल्य हैं
(आज़ादी)
ठीक इसी बिंदु पर प्रसंगवश कहना चाहता हूं कि रघुवीर सहाय कविता में आब्जेक्टीविटी के कायल हैं. सब्जेक्टीविटी वैयक्तिक बनाती है. किसी को कविता का विषय बना लेना सरल है,जबकि उसी शिल्प में वस्तुपरक आकलन कर पाना कठिन काम है. आत्मनिष्ठता से बड़ी चीज़ उद्देश्यनिष्ठता है. कविता में लक्ष्य का निर्धारण जटिल वैचारिक प्रक्रिया है. हिन्दी पर रघुवीर सहाय ने कुछ बहुत चर्चित कविताएं लिखीं हैं. सब्जेक्टिव-आबजेक्टिव के इस समीकरण का हल मैं ऐसी ही एक कविता के उल्लेख से करना चाहूंगा –
वे हिन्दी का प्रयोग अंग्रेज़ी की जगह
करते हैं
जबकि तथ्य यह है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग
उनके मालिक हिन्दी की जगह करते हैं
दोनों में यह रिश्ता तय हो गया है
जो इस पाखंड को मिटाएगा
हिन्दी की दासता मिटाएगा
यह जन वही होगा जो हिन्दी बोलकर
रख देना हिरदै निरक्षर का खोलकर
(हिन्दी)
यहां मामला विषयनिष्ठ हो जाता तो कविता बहुत सीमित रह जाती, वह सीधी बेध देने वाली उद्देश्यनिष्ठता है जिसके तहत यह जन वही होगा जो हिन्दी बोलकर / रख देगा हिरदै निरक्षर का खोलकर जैसी पंक्तियां सम्भव हो पाती हैं, जिनसे यह कविता बड़ी और महत्वपूर्ण बन सकी है.
संकट और अनिष्ट का दौर तमग़े बटोरने का भी होता है. लोग घाव दिखाकर वीर कहलाते हैं. हिंसक समय और समाज में चिथड़े-चिथड़े होते हुए भी रघुवीर सहाय की चेष्टा चिथड़ों की राजनीति करने की कतई नहीं है, जैसी उनके कुछ समकालीनों में दिखाई देती है. वे और उनकी कविता हर हाल में उतनी ही वल्नरेबल बनी रहती है, जितना उनके हिस्से का यथार्थ उन्हें रखता है – वे उसमें कुछ भी अन्यथा जोड़ते-घटाते नहीं –
लोग शानो-शौकत दिखाते हैं
दुनिया भर के चिथड़े जोड़कर
मुझको बस इतने ही चाहिए
खुला रहे बदन जिन्हें ओढ़कर
(चिथड़ा चिथड़ा मैं)
आज़ादी लोकतंत्र का एक सबसे बहसतलब पद है. रघुवीर सहाय की ही कविता में स्वाधीन व्यक्ति की करुण उपस्थिति हम पहले देख चुके हैं. जैसे कविता व्याख्या की वस्तु नहीं, वैसे ही आज़ादी भी व्याख्या की वस्तु नहीं. आज़ादी की व्याख्या करने वालों ने ही जनता को अब तक आज़ादी से सफलतापूर्वक दूर रखा है. हालात ये हो गए है कि
चारों दिशाओं से चारों दिशाओं में
उजड़े घर छोड़ कर
दूसरे उजाड़ों में लोग जा रहे हैं
भूख और अपमान की ठोकरें खाकर
(आज़ादी)
इसी आज़ादी के भीतर भूख,अपमान, दरिद्रता और नष्ट कर दिए जाने के ख़तरों से घिरे लोग हत्या, ख़ून और मैल को सांस्कृतिक मूल्य मानने वाले बर्बरों द्वारा एक उजाड़ से दूसरे उजाड़ में विस्थापित कर दिए जा रहे हैं. विडम्बना यह कि कथित लोकतंत्र के दायरे में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत ही यह दुश्चक्र चल रहा है. इस आज़ादी को रघुवीर सहाय ने बार-बार अपने समय की भाषा, संवदेना और अभिव्यक्ति की सबसे कठिन कसौटियों पर कसा है, जिससे उनकी कविताएं कुछ और मूल्यवान बनकर उभरी हैं.
रघुवीर सहाय ने लेखन की शुरूआत से ही स्त्रियों पर विरल संवेदना की कविताएं लिखीं. इन कविताओं पर अधिक कुछ कहा नहीं गया. मैं ख़ुद यहां एक उल्लेख भर कर रहा हूं क्योंकि इसके लिए इतने ही लम्बे एक और अलग लेख की ज़रूरत है, कभी सांस साध पाया तो उसे भी सम्भव करूंगा. अभी कहना बस इतना है कि मुझे आश्चर्य होता इन कविताओं को हिन्दी में स्त्री के विमर्शकारों ने भी नहीं पढ़ा या पढ़के भी अनदेखा किया. कारण हो सकता है यह हो कि ये कथन में काफ़ी तीखी और बेधक व्यंग्य से भरी हैं. इनमें जाहिर सहानुभूति नहीं, जिसकी पारम्परिक और अकादमिक विमर्शकार अपेक्षा रखते हैं. ये पीड़ा से उस तरह भरी हैं,जैसे बोझ से टूटता-ढहता हृदय भरता है – उस तरह नहीं, जैसे बात-बात पर किसी की आंख भर आती हो. इस प्रसंग विशेष रघुवीर सहाय की इस छोटी-सी कविता के सहारे बेहतर समझा जा सकता है –
जब तुम बच्ची थीं तो मैं तुम्हें
रोते हुए देख नहीं सकता था
अब तुम रोती हो तो देखता हूं मैं
(उम्र, लोग भूल गए)
(आठ)
रघुवीर सहाय की कविताओं को अख़बारी अभिव्यक्तियां बताने वाले विद्वज्जनों की भी कमी
नहीं रही है,खेद की बात है कि यह समझ बाद के अध्यवसायियों में चली गई. जहां बहुत कला होगी विचार नहीं होगा रघुवीर सहाय की कविता की बहुचर्चित उक्ति है. जाहिर है हिन्दी कविता का एक हिस्सा कला में फंसा और अपने ऐसा होने के तर्क ढूंढता रहा. उसने जनपक्षीय कविता पर हमले किए. साहित्य और कला के भवन बनाए. सब कुछ करने के बावजूद वह भूल गया कि कविता में कला काम आती है,
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कलाकारी नहीं. मैं इस सारे शर्मनाक़ प्रकरण पर रघुवीर सहाय की कविता का कुछ अनगढ़-सा लगता अनिवार्य क्रोध यहां प्रस्तुत करना चाहूंगा –
यह दृष्टि सुन्दरापे की कैसे बनी कि हर वह
चीज़ जो ख़बर देती है हो गई ग़ैर?
क्यों कलाकार को नहीं दिखाई देती अब
गंदगी, ग़रीबी और गुलामी से पैदा?
आतंक कहां जा छिपा भागकर जीवन से
जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा?
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए
जो कविता हम सबको लाचार बनाती है?
(आज की कविता, कुछ पते कुछ चिट्ठियां)
यह कविता 1983 की है. यह समय है जब हिन्दी में पहले कविता की मृत्यु और फिर कविता की वापसी का नारा दिया गया. 1982 में भोपाल में भारतभवन खुलने के साथ हिन्दी में कलावादी-रूपवादी गतिविधियों में तेज़ी आ गई, अब उनके पास एक सुसज्जित लाखों के अनुदान वाली अपनी संस्था थी. 1984 के गैस कांड के बाद इस संस्था ने ठाठ से कविता की वापसी का नारा देते हुए विश्व कविता समारोह आयोजित किया, जिसमें हत्यारे मुल्कों के भी प्रतिनिधि मौजूद थे. भारत भवन के संचालक-प्रशासक कवि अशोक वाजपेयी ने इस आयोजन के पक्ष में आज की हिन्दी कविता के इतिहास में याद रखे जाना वाला यह बेशर्म तर्क दिया कि लाशों के साथ लाश नहीं हुआ जा सकता.
90 के दशक में साम्प्रदायिकता का हैरतनाक़ राजनीतिकरण हुआ. भारत विभाजन के बाद हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध अब तक की सबसे बड़ी कसौटी पर थे. रघुवीर सहाय की कविता अपने मुहावरे में बहुत खुली आंखों देख रही थी –
मैं जहां रहता हूं ,हिन्दू और मुसलमान
दोनों बेसुरे हैं. भजन और कीर्तन
करते हैं,ढोल और चिमटे की
ढक-ढक सुनाई पड़ती है,
भजन के शब्द नहीं. अजान दी जाती है
हरयाणवीं लोकगीत सुनाई पड़ता है
(बेसुरे लोग, कुछ पते कुछ चिट्ठियां)
61 की आयु में ही रघुवीर सहाय दिवंगत हो गए. उनके बाद समय, समाज और राजनीति बहुत बदले हैं – मुझे गहरी उत्सुकता होती है कि अगर वे होते तो उनकी कविता इन्हें किस तरह व्यक्त करती. यहां मुझे बताना चाहिए कि साथी कवि पंकज चतुर्वेदी की कविता अखंड मानसपाठ में भी कुछ ऊपर दी गई पंक्तियों की तरह की यह बात आती हैं कि सुबह बच गया यही अहसास विकट बेसुरेपन से गाए गए तुलसीदास. कहना होगा कि रघुवीर सहाय की कविता आज एक विरासत है, जिसके हामी युवा कवि भी हैं.
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शिरीष कुमार मौर्य
दूसरा तल, ए-2, समर रेजीडेंसी, पालिका मैदान के पीछे
भवाली, जिला-नैनीताल(उत्तराखंड)
पिन-263132