कालजयी कृतिओं में केन्द्रीय कथासूत्र और विचार-यात्रा के साथ-साथ अनुभव और सीख के अनेक मुक्तक बिखरे रहते हैं. रामचरितमानस ऐसी ही कृति है, जहां जीवन – प्रसंग के कई पक्ष आलोकित हैं. सज्जन और दुष्ट में क्या अंतर है, और खुद अपनी कविताई के बारे में तुलसीदास क्या सोचते हैं- जैसे प्रसंगों पर युवा लेखक पंकज पराशर ने बड़े है रोचक ढंग से लिखा है.
केसव कहि न जाइ का कहिए!
पंकज पराशर
रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड/आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड/
तुलसीदास इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं कि अहं को तुष्ट और पुष्ट कर देने के बावजूद खल/असज्जन क्लेश पहुंचाने से बाज नहीं आएंगे. इसके बाद भी वे उनकी वंदना ही नहीं करते, बल्कि रामचरितमानस के बालकांड की कई पंक्तियां उन्हीं के नाम कर देते हैं,
‘बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ. जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ..
‘उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति.
‘बंदउँ संत असज्जन चरना. दुखप्रद उभय बीच कछु बरना..
तुलसीदास संगत पर बहुत जोर देते हैं. साधु-संगत और असाधु-संगत के जो-जो खतरे और लाभ हो सकते हैं, उन सबका उन्होंने सोदाहरण वर्णन किया हैः
‘किएहुं कुबेषु साधु सनमानू. जिमि जग जामवंत हनुमानू..
‘साधु चरित सुभ चरित कपासू. निरस बिसद गुनमय फल जासू..
तुलसी के यहां जो आदर्श और मर्यादा की इतनी बातें हैं, उसका क्या कारण है? ‘तुलसीदास की वैचारिकता सामंती समाज-रचना की अभिजात्यवादी शक्तियों से अनुशासित थी. इस अनुशासन में जो उन्होंने लोक-कल्याण का आदर्श प्रस्तुत किया वह कबीर आदि निर्गुण संतों के आदर्श से भिन्न था. तुलसीदास के लिए मानव मात्र के प्रति प्रेम, ईमानदारी, सचाई, सहानुभूति आदि से भी अधिक महत्वपूर्ण थी सामाजिक मर्यादा की रक्षा. इस सामाजिक मर्यादा का मूलाधार थी वर्णाश्रम व्यवस्था. विशिष्टाद्वैती ऊंच-नीच की भावना पर आधारित यह वर्ण-व्यवस्था तत्कालीन सामंतीय सामाजिक-आर्थिक संरचना की पोषक बनी. इसकी सीमा में रहकर ही राम मानवी-सामाजिक संबंधों का निर्वाह करते हैं. तत्कालीन मानव संबंधों की नैतिकता और उसके आचार-विचार का कहीं से भी उल्लंघन न करते हुए भी राम कोल-किरात, केवट, निषाद, गुह, शबरी आदि असभ्य और अछूत कहे जाने वाले लोगों को गले लगाते हैं. उनकी इस मनुष्यता से तत्कालीन मानव संबंध अत्यंत घनीभूत होते हैं.’(लल्लन रायः तुलसी की साहित्य साधना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2002, पृष्ठ-61)
हिंदी के कवियों/लेखकों में जब आत्मप्रशंसा एक महामारी की तरह फैल चुकी है, तब तुलसीदास जैसा कवि कोरे काग़ज पर लिखकर यह ‘सत्य’ उद्घाटित कर रहे हैं, ‘कवित विवेक एक नहिं मोरे. सत्य कहउं लिखि कागद कोरें.’ आज के परिदृश्य को देखें तो द्विवेदी युग से लेकर आज तक शायद ही कोई ऐसा कवि हो, जिसे अपनी कविता और अपनी काव्य-प्रतिभा को लेकर लेश मात्र भी तुलसीदास जैसा आत्मसंशय हो. आधुनिक कवियों में अपनी प्रतिभा और रचना को लेकर आत्मविश्वास गजब का होता है! क्या आधुनिकता का (अति)आत्मविश्वास से कोई विशेष रिश्ता है? या विनम्रता कोई मध्यकालीन मूल्य है? दूसरों की मूर्खता/अज्ञानता पर हँसने की सहजता तो अक्सर दिख जाती है, मगर ख़ुद की मूर्खताओं पर हँस सकने की विशेषता कहां दिखाई देती है? तुलसीदास यदि एक बार को ऐसा संशय प्रकट करते हों या ऐसी विनम्रता दिखाते हों, तो आप कह सकते हैं कि यह विनम्रता का दिखावा है. लेकिन तुलसी अनेक बार, अनेक मौकों पर अपनी अल्प-बुद्धि और कमतर काव्य-प्रतिभा की बात करते हैं. एक तरफ जहां उनको यह पता है कि ‘राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो. राम सों खरो है कौन, मो सो कौन खोटो..’ तो दूसरी ओर विनम्रता की पराकाष्ठा देखिये, ‘खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु/रीझिबे लायक तुलसी की निलजई.’ यहां तक कि तुलसी के आराध्य राम भी अपनी चूक को लेकर आत्मनिंदा करते हैं,
‘कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ. मति अनुरूप राम गुन गावउँ..’ एक और उदाहरण देखें,
‘जदपि कबित रस एकउ नाहीं. राम प्रताप प्रगट एहि माहीं.’
‘जौं अपने अवगुन सब कहऊँ. बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ..
अपनी रचना किसे प्रिय नहीं लगती चाहे वह रसयुक्त हो या रसहीन. ‘निज कबित्त केहि लाग न नीका. सरस होउ अथवा अति फीका..’ पर दुनिया में ऐसे सहृदय व्यक्ति बहुत कम हैं, जो दूसरों की रचना को सुनकर-गुनकर वास्तव में हर्षित होते हों. दूसरे लोगों की आत्मोन्नति से प्रसन्न होते हों. दुनिया में अधिसंख्य लोग ऐसे हैं जो तालाबों और नदियों के समान जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं. अपनी रचना पर ही इस कदर निहाल हुए जाते हैं कि उन्हें अपने पूर्ववर्ती और अन्य समकालीनों की कोई महान रचना कभी याद ही नहीं आती. समुद्र-सा तो कोई एक विरले ही होते हैं, जो चंद्रमा की पूर्णता को देखकर उमड़ पड़ते हैं. तुलसी कहते हैं, ऐसे सज्जन पुरुष संसार में कितने हैं, जो वास्तव में दूसरों के उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होते हैं?
‘जग बहु नर सर सरि सम भाई. जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई..
‘कबित रसिक न राम पद नेहू. तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू..
‘आखर अरथ अलंकृति नाना. छंद प्रबंध अनेक बिधाना..
‘सब गुन रहित कुकबि कृत बानी. राम नाम जस अंकित जानी..
‘भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ. राम नाम बिनु सोह न सोऊ..
‘तैसहिं सुकबि कबित बुध कहहीं. उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं..
‘बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ.
‘होहु प्रसन्न देहु बरदानु. साधु समाज भनिति सनमानू..’
तुलसीदास को अपने जीवन-काल/मध्यकाल में बहुत कुछ सुनना/सहना पड़ा, लेकिन मृत्यु के सैकड़ों वर्ष बाद आधुनिक काल में उससे कहीं अधिक सुनना पड़ा. रामबोला को लेकर तो वे भी बोले जो थोथा तो बहुत बोले, सार कुछ न बोले. किसी ने उन्हें ‘हिंदू समाज का पथभ्रष्टक’ कहा, तो किसी ने नारीविरोधी, किसी ने शूद्रविरोधी तो बहुतों ने मध्यकालीन/ब्राह्मणवादी मूल्यों का पोषक. इन तमाम बातों को साबित करने वाले तत्व तुलसी के यहां मौजूद हैं…और यह सचाई भी कि तुलसीदास किस समाज और समय की ऐतिहासिक-सामाजिक पैदाइश हैं. सच तो यह है कि कोई भी व्यक्ति उन चीजों के प्रति सहिष्णु और सदय कहां रह पाता है, जिससे उसे असुविधा होती है! पर लोकतांत्रिक मूल्य की जो आधुनिक अवधारणा है उसकी एक मांग यह भी है कि उन मान्यताओं और अभिव्यक्तियों के प्रति हमें सहिष्णुता और श्रवणशीलता दिखानी चाहिए, जिनसे हमें सुविधा नहीं होती-आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में बहुसांस्कृतिक मूल्यों को लेकर यह सहज अपेक्षा की जाती है.
तुलसीदास को किसी के बेटे से अपनी बेटी नहीं ब्याहनी थी, न राम से खरो किसी बादशाह को बताने की चारणी-बाध्यता थी, सो उन्हें इस बात की परवाह भला क्यों होती कि कोई उन्हें धूत कहे, अवधूत कहे, रजिपूत कहे या जुलाहा कहे. संपूर्णता में देखने वाली तटस्थ दृष्टि यदि न हो तो मामला या तो अतीव प्रशंसा की ओर चला जाता है, या अतिवादिता की ओर. हर चीज को पाठ में रिड्यूस कर देने वाली मानसिकता उन चीजों की अति-प्रशंसा करती है, जहां चीजें उनकी सुविधा के मुताबिक होती हैं. मगर जहां कुछ चीजें उन्हें असुविधा में डालती है, वहां उनकी आलोचना अति-उग्र होकर अतिरंजना में बदल जाती है. किसी ‘पाठ’ की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता संदर्भ के साथ जुड़ी होती है, मगर तुलसी के साथ एक त्रासदी यह भी रही कि उनकी रचना की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता तय करते समय संदर्भ की व्याख्या अपनी सुविधा और राजनीति के हिसाब से की गई.
खल और असज्जनों की असंख्य कोटियां शुरू से भारतीय समाज में रही हैं, जिसे तुलसीदास के यहां बेहद प्रामाणिक और सटीक तरीके से लक्षित किया जा सकता है. विघ्नसंतोषियों और अचूक अवसरवादियों का ऐसा वर्णन वही कर सकता है, जिसने इन्हें वास्तव में भुगता हो. इनकी सज्जन उत्पीड़क प्रवृत्तियों के कारण प्रताड़ना का प्रसाद पाया हो. मध्यकालीन समाज में किसी नागरिक के साथ राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सत्ता का व्यवहार उसकी शक्ति और व्यक्तिगत रुचि/अरुचि से तय होता था. तब महज खल-सुख के लिए किसी सज्जन को प्रताड़ित करने की क्रूरताएं असीम थीं. सो, यह आकस्मिक नहीं है कि तुलसीदास रामचरितमानस के बालकांड में विस्तार से खल-वंदना करते हैं और खल के अहं को तुष्ट करने की पूरी कोशिश करके ही रामकथा शुरू करते हैं. क्योंकि खल और शठ विघ्न-बाधा और प्रताड़ना किसी लाभ-लोभ के कारण नहीं, बल्कि परपीड़क-आनंद की अनुभूति के लिए पैदा करते है-खुद को मिटाकर भी दूसरे को हानि पहुंचाना उनकी सहज प्रकृति होती है. तुलसीदास इस तथ्य से अवगत हैं कि सज्जनों की शक्ति और ऊर्जा सीमित होती है, सो इनके विरोध में अपनी ऊर्जा नष्ट करने के बजाय वे खल-वंदना करके उनके अहं को तुष्ट करके अपने काम में लगना चाहते हैं. इसके बाद की अगली प्रक्रिया यह है कि जब तुलसी रामचरितमानस जैसी कृति रचते हैं, तो उसे मान्यता न मिले-खलवृंद की यह पूरी कोशिश रहती है. यह कोशिश मध्यकाल क्या उत्तर मध्यकाल के अंत में मिर्ज़ा ग़ालिब तक को झेलना पड़ा और बेहद दुःख से उनको कहना पड़ा,
‘न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह,
गर नहीं हैं मेरे अशआर में मानी, न सही.’
जिनकी सोच और कल्पना-शक्ति की संरचना ही बेमानी हो उनसे मानी की अपेक्षा भी क्यों!
मध्यकालीन हिंदी कवियों में तुलसीदास संभवतः अकेले ऐसे कवि हैं जिनके पास अनुभव से उपजी भाषा तो है ही, अवधी के साथ-साथ गहरे पांडित्य और ज्ञान से उपजी भाषा का भी विशाल भंडार है. वे जिस अधिकार से अवधी में लिखते हैं, उसी अधिकार से ब्रजभाषा में भी लिखते हैं और संस्कृत का प्रकांड पांडित्य तो है ही. कई बार तुलसी संस्कृत के शब्दों को ज्यों के त्यों रख देते हैं, तो अनेक बार तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों को लोकभाषा और मुख-सुख के मुताबिक रूपांतरित करके प्रयोग में लाते हैं. जिस वजह से भाषा का सौंदर्य और निखरकर सामने आता है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि प्रगतिशील कवि त्रिलोचन की सहज चेतना में रमने वाले कवि तुलसीदास हैं. त्रिलोचनबेहद विनम्रता से यह स्वीकार करते हैं कि ‘तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी’. उर्दू के महान शायर फ़िराक गोरखपुरी तुलसीदास को यों ही एक महान कवि का दर्ज़ा नहीं देते थे! बताते चलें कि फ़िराक अक्सर ठेठ अवधी लहजे में पाठ करने वाले व्यक्ति से रामचरितमानस का पाठ करवाकर सुनते थे. महाप्राण निराला, जिनके लिए शमशेर बहादुर सिंह कहते हैं, ‘भूल कर जब राह/जब-जब राह…भटका मैं/ तुम्हीं झलके हे महाकवि/ सघन तम की आंख बन मेरे लिए’, वे निराला अपनी ओजपूर्ण कविता ‘तुलसीदास’ में लिखते हैं,
रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड/आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड/
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत/
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान/संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण/
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ.’
तो उनके सामने मध्यकाल का पूरा राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक परिदृश्य है, जिसके पूरे परिप्रेक्ष्य में वे तुलसीदास को देखते हैं. इसलिए तुलसीदास की उदात्तता अपने पूरेपन के साथ हमारे सामने उपस्थित होता है.
तुलसीदास इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं कि अहं को तुष्ट और पुष्ट कर देने के बावजूद खल/असज्जन क्लेश पहुंचाने से बाज नहीं आएंगे. इसके बाद भी वे उनकी वंदना ही नहीं करते, बल्कि रामचरितमानस के बालकांड की कई पंक्तियां उन्हीं के नाम कर देते हैं,
‘बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ. जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ..
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें. उजरे हरष विषाद बसेरें..’
तुलसीदास ऐसे खलों को सच्चे भाव से प्रणाम कर रहे हैं, जो अकारण अपने हितैषियों का भी अहित करते हैं और दूसरों के हित की हानि जिनकी दृष्टि में लाभ है. दूसरों को उजाड़ने में जिन्हें परम संतोष का अनुभव होता है-ऐसे लोग पूजा-पाठ पाकर भी जब इस तरह का आचरण करते हैं, तो उस स्थिति में इनके आचरण की सहज ही कल्पना की जा सकती है, जब इनके अहं के प्रतिकूल कोई आचरण करे. इसलिए तुलसीदास दो काम एक साथ करते हुए चलते हैं-एक ओर वे दुष्टों के चरित्र की बारीकियों को अनावृत्त करते हैं, तो दूसरी ओर बारंबार शीश नवाते हुए चलते हैं. क्योंकिः
‘उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति.
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति..’
असज्जनों की यह रीति कितनी विचित्र है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र किसी का भी हित सुनकर दग्ध होते हैं! ऐसे में ‘देखत तब रचना बिचित्र अति, समुझि मनहि मन रहिए’ के अलावा और वे कर भी क्या सकते हैं! रामचरितमानस में तुलसीदास असंतों के कोप से बचने के लिए बार-बार प्रणाम/ नमस्कार का सहारा लेते हैं और परहित देखते ही दग्ध हो जाने वाले हृदय पर विनम्रता का नवनीत-लेपन करते हैं. मगर साथ ही इनके प्रति उपजे भावों को प्रकट करने से चूकते भी नहीं. इसलिए चतुर-सुजान असंत यह ताड़ लेते हैं कि उनके प्रति विनम्रता के प्रदर्शन और वंदन-अर्चन का सत्य क्या है! बालकांड में तुलसीदास कहते हैं,
‘बंदउँ संत असज्जन चरना. दुखप्रद उभय बीच कछु बरना..
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं. मिलत एक दारुन देहीं..’
प्रणाम वे दोनों को कर रहे हैं-पर दोनों को प्रणाम करने की वजहें अलग-अलग हैं. एक के बिछुड़ने-भर से जहां दारुण दुःख की अनुभूति होती है, वहीं दूसरे के मिलन-मात्र से दारुण दुःख. तुलसी के परवर्ती कवि कुंभनदास तो बिल्कुल स्पष्टता से अपनी मनोव्यथा व्यक्त करते हैं, ‘जाको मुख देखे दुख उपजै, ताको करिबे परि सलाम !’ इस विवशता का विश्वसनीय बयान देखिये कि जिसका मुंह देखते ही हृदय दुःखी हो जाए, मन तिक्त हो जाए-उसे सलाम करना पड़ रहा है! इससे बड़ा दुःख और क्या हो सकता है, पर यह आधुनिक जीवन का भी एक कटु यथार्थ है. पांच और सातसितारा होटलों में रिसेप्शन पर बैठी महिला हो या विमान परिचारिका या किसी ऐसी सेवा में कार्यरत कोई स्त्री-मुस्कुराकर नमस्कार करना उसका कर्तव्य है. भले ही उन मुखों को देखकर उसके भीतर दुःख ही उपजे. नमस्कार करने को जी न करे. संत-असंत के चरित्र-वर्णन का एक और प्रसंग देखिये,
‘खल अघ अगुन साधु गुन गाहा. उभय अपार उदधि अवगाहा..
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने. संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने..’
संतों के गुण और परोपकार की कथाएं जिस प्रकार अनंत हैं, उसी तरह असंतों और खलों की दुष्टता और नीचता की कथाएं भी असंख्य हैं. स्पष्टीकरण देते हुए तुलसीदास कहते हैं कि दोनों के गुणों और अवगुणों को एक साथ रखकर बताने का उनका उद्देश्य यह है कि इनको बिना पहचाने उनका त्याग या ग्रहण संभव नहीं है. क्योंकि ‘भलेउ पोच सब बिधि उपजाए. गनि गुन दोष बेद बिलगाए..’सृष्टि में प्रकृति प्रदत्त सब कुछ है-अच्छा भी, बुरा भी. अब ये हम पर है कि हम किस चीज को ग्राह्य समझते हैं और किस चीज को त्याज्य. संत गुणी होते हैं और सहज ही परोपकार करते हैं, जबकि असंत इसके विपरीत आचरण करते हैं. पर तुलसीदास की अनुभवी आंखें इस चीज को भी लक्षित कर लेती हैं कि कभी-कभी संत भी काल-स्वभाव और कर्म की प्रबलता से माया के वशीभूत होकर भलाई से चूक जाते हैं. या कहें असंतों जैसा आचरण करते हैं,
‘काल सुभाउ करम बरिआई. भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं.
तो दूसरी ओर यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है कि असंत हमेशा ही हानि नहीं पहुंचाते, बल्कि कभी-कभी संत की तरह लाभ भी पहुंचाते हैं, ‘खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू.’ यह मान लेने के बाद भी तुलसीदास खलों के प्रति कहीं से भी सदय नहीं हैं, सो फौरन कहते हैं, ‘मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू.’ अर्थात मलिनता असंतों के स्वभाव का स्थायी भाव है, इसलिए वह कभी मिटता नहीं है.
तुलसीदास संगत पर बहुत जोर देते हैं. साधु-संगत और असाधु-संगत के जो-जो खतरे और लाभ हो सकते हैं, उन सबका उन्होंने सोदाहरण वर्णन किया हैः
‘किएहुं कुबेषु साधु सनमानू. जिमि जग जामवंत हनुमानू..
हानि कुसंग सुसंगति लाहू. लोकहुं बेद बिदित सब काहू..’
अर्थात् बुरा वेश बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जामवंत और हनुमान का हुआ. बुरे संगत से हानि और अच्छे संगत से लाभ होता है-यह बात लोक और वेद दोनों में है और इसे सब जानते हैं. क्योंकि तुलसी साधु के स्वभाव को जिस रूप में जानते हैं, वह देखियेः
‘साधु चरित सुभ चरित कपासू. निरस बिसद गुनमय फल जासू..
सो सहि दुख परछिद्र दुरावा. बंदनीय जेहिं जग जस पावा..’
रामचरितमानस में साधु का जिक्र आते ही असाधु का कलुषित पक्ष तत्काल आ जाता है और असाधु का वर्णन आते ही तुलसी उसकी पूरी प्रवृत्ति बताने लगते हैं. तुलसी के इस काव्य-ग्रंथ के नायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं, जो काव्यशास्त्रीय कसौटी के हिसाब से भी उदात्त चरित-नायक हैं. जिनका पूरा जीवन एक आदर्श है. कहना न होगा कि आदर्शवाद में स्याह-सफेद में सब कुछ तय होता है. जिस वजह से तुलसी के सामने अच्छा क्या है, बुरा क्या है और जो अच्छा है उसकी अच्छाई की वजह क्या है और जो बुरा है उसकी बुराई के पीछे कौन-सी परिस्थितियां कार्य कर रही है-इसको लेकर किसी तरह का कोई संशय नहीं है. हर चीज की अवधारणा उनके मस्तिष्क में बिल्कुल स्पष्ट है. सो साधु-असाधु, संत-असंत के गुण-अवगुण की गाथा अपनी पूरी अनुभवसिद्धता के साथ उनके यहां प्रकट होती है. लोग ‘उपमा कालिदासस्य’ कहें, मगर तुलसीदास जब दुष्ट की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं, तो उपमाओं की तो जैसे झड़ी लग जाती हैः
‘पर अकाजु तनु परिहरहिं. जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं.’
यानी ओले किसान की मेहनत से उगाई गई फसल को नष्ट करके जैसे खुद भी गल जाते हैं, वैसे ही दुष्ट व्यक्ति दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं. यहां तुलसी की विशेषता संत-असंतों के की पहचान में जितनी है, उतनी ही अपने युग-जीवन की पहचान में भी है.
तुलसी के यहां जो आदर्श और मर्यादा की इतनी बातें हैं, उसका क्या कारण है? ‘तुलसीदास की वैचारिकता सामंती समाज-रचना की अभिजात्यवादी शक्तियों से अनुशासित थी. इस अनुशासन में जो उन्होंने लोक-कल्याण का आदर्श प्रस्तुत किया वह कबीर आदि निर्गुण संतों के आदर्श से भिन्न था. तुलसीदास के लिए मानव मात्र के प्रति प्रेम, ईमानदारी, सचाई, सहानुभूति आदि से भी अधिक महत्वपूर्ण थी सामाजिक मर्यादा की रक्षा. इस सामाजिक मर्यादा का मूलाधार थी वर्णाश्रम व्यवस्था. विशिष्टाद्वैती ऊंच-नीच की भावना पर आधारित यह वर्ण-व्यवस्था तत्कालीन सामंतीय सामाजिक-आर्थिक संरचना की पोषक बनी. इसकी सीमा में रहकर ही राम मानवी-सामाजिक संबंधों का निर्वाह करते हैं. तत्कालीन मानव संबंधों की नैतिकता और उसके आचार-विचार का कहीं से भी उल्लंघन न करते हुए भी राम कोल-किरात, केवट, निषाद, गुह, शबरी आदि असभ्य और अछूत कहे जाने वाले लोगों को गले लगाते हैं. उनकी इस मनुष्यता से तत्कालीन मानव संबंध अत्यंत घनीभूत होते हैं.’(लल्लन रायः तुलसी की साहित्य साधना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2002, पृष्ठ-61)
ट्रकों/बसों के पीछे लिखे एक दिलचस्प वाक्य पर अक्सर नज़र पड़ती है- ‘देखो, मगर प्यार से’. ठीक उसी तरह ‘मनुष्यता से तत्कालीन मानव संबंध अत्यंत घनीभूत’ हैं, मगर वर्णाश्रम-व्यवस्था के दायरे में रहकर. निस्संदेह यह तुलसीदास के रामचरितमानस की सचाई होने के साथ-साथ उनके युग की कड़वी सामाजिक सचाई है. भारतीय समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था को लेकर सामाजिक सत्ता कितनी सख्ती बरतती रही है, इसको शिवाजी के साथ हुए एक बर्ताव से समझा जा सकता है. तुलसीदास के काफी बाद हुए मराठा क्षत्रप शिवाजी राज भोंसले के राज्याभिषेक में कर्मकांड कराने से तत्कालीन ब्राह्मणों ने यह कहकर इनकार कर दिया था कि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे. स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे, क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे. अतः उन्होंने वाराणसी के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे. मगर गंगा भट्ट ने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ, तभी हम राज्याभिषेक करवाएंगे. तब शिवाजी के सेनानायक बालाजी आव जी ने शिवाजी का संबंध मेवाड़ के सिसौदिया वंश से संबद्ध होने के प्रमाण भेजे, जिससे संतुष्ट होकर गंगा भट्ट रायगढ़ आया. लेकिन यहाँ आने के बाद जब उसने पुनः जाँच-पड़ताल की तो प्रमाणों को गलत पाया और राज्याभिषेक करने से मना कर दिया. अंतत: मजबूर होकर उसे एक लाख रुपये का प्रलोभन दिया गया, तब जाकर उसे राज्याभिषेक के लिए मनाया जा सका. इसलिए जातिवादी नजरिये से देखने पर तुलसीदास की सोच का दायरा कहीं-न-कहीं उनके युग का दायरा भी प्रतीत होता है.
कवित विवेक एक नहिं मोरे
हिंदी के कवियों/लेखकों में जब आत्मप्रशंसा एक महामारी की तरह फैल चुकी है, तब तुलसीदास जैसा कवि कोरे काग़ज पर लिखकर यह ‘सत्य’ उद्घाटित कर रहे हैं, ‘कवित विवेक एक नहिं मोरे. सत्य कहउं लिखि कागद कोरें.’ आज के परिदृश्य को देखें तो द्विवेदी युग से लेकर आज तक शायद ही कोई ऐसा कवि हो, जिसे अपनी कविता और अपनी काव्य-प्रतिभा को लेकर लेश मात्र भी तुलसीदास जैसा आत्मसंशय हो. आधुनिक कवियों में अपनी प्रतिभा और रचना को लेकर आत्मविश्वास गजब का होता है! क्या आधुनिकता का (अति)आत्मविश्वास से कोई विशेष रिश्ता है? या विनम्रता कोई मध्यकालीन मूल्य है? दूसरों की मूर्खता/अज्ञानता पर हँसने की सहजता तो अक्सर दिख जाती है, मगर ख़ुद की मूर्खताओं पर हँस सकने की विशेषता कहां दिखाई देती है? तुलसीदास यदि एक बार को ऐसा संशय प्रकट करते हों या ऐसी विनम्रता दिखाते हों, तो आप कह सकते हैं कि यह विनम्रता का दिखावा है. लेकिन तुलसी अनेक बार, अनेक मौकों पर अपनी अल्प-बुद्धि और कमतर काव्य-प्रतिभा की बात करते हैं. एक तरफ जहां उनको यह पता है कि ‘राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो. राम सों खरो है कौन, मो सो कौन खोटो..’ तो दूसरी ओर विनम्रता की पराकाष्ठा देखिये, ‘खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु/रीझिबे लायक तुलसी की निलजई.’ यहां तक कि तुलसी के आराध्य राम भी अपनी चूक को लेकर आत्मनिंदा करते हैं,
‘हमहिं देखि मृगनिकर पराहीं. मृगी कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं..
तुम आनन्द करहु मृगजाए. कंचनमृग खोजन ये आए..’
यह तो हुई व्यक्तित्व की बात. रचनात्मक स्तर पर भी तुलसी अपनी काव्य-प्रतिभा और रचना को लेकर आत्मसंशयग्रस्त रहते हैं. कुछ उदाहरण देखिये,
‘कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू. सकल कला सब बिद्या हीनू..’ और देखें,
‘कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ. मति अनुरूप राम गुन गावउँ..’ एक और उदाहरण देखें,
‘जदपि कबित रस एकउ नाहीं. राम प्रताप प्रगट एहि माहीं.’
एक ओर अपनी रचना को लेकर गर्वोक्तियां करने वाले कवि हैं, तो दूसरी ओर तुलसीदास को यह भान है कि ‘मति अति नीच ऊंचि रुचि आछी. चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी.’ अर्थात् मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है, परंतु चाहत बड़ी ऊंची है. चाह तो अमृत पान करने की है, पर स्थिति ऐसी है कि जुगाड़ छाछ का भी नहीं है. खल और दुष्ट इसमें भी तुलसी की राजनीति और कुटिलता देखेंगे, इसका पूर्वानुमान स्वयं तुलसी को भी है. कोई भी बड़ी प्रतिभा पूर्णतः दोषमुक्त और अवगुणों से रहित नहीं होती और इस तथ्य को लेकर तुलसीदास बिल्कुल साकांक्ष हैं. सो वे यह कभी नहीं जाहिर करते हैं कि मुझमें ये गुण है, ये ज्ञान और शास्त्र और जनमानस का विशाल अध्ययन है. ईमानदार और संशयात्मा मनुष्य अपने भीतर के दोषों और अवगुणों को अपने आलोचकों से बेहतर जानते हैं. इसलिए दूसरों में दोष ढूंढने में उपनी सीमित ऊर्जा को क्षय करने की जगह वे अपने अवगुणों को दूर करने के लिए अधिक प्रयत्नशील होते हैं. तुलसी की विनम्रता और नमनीयता का अनुमान इस बात से भी किया जा सकता है कि वे गुण की चर्चा से बचते हुए अपने अवगुण के बारे में कहते हैं कि मुझमें इतने अवगुण हैं कि यदि मैं उन तमाम अवगुणों को गिनाने लगूं तो शायद सूची खत्म नहीं होगी. विज्ञजनों का समय नष्ट न हो इसलिए मैं थोड़े में संकेत करके आगे चल रहा हूं-थोड़ा लिखा, ज्यादा समझें वाली शैली में. तुलसीदास कहते हैं,
‘जौं अपने अवगुन सब कहऊँ. बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ..
ताते मैं अति अलप बखाने. थोरे महुँ जानिहहिं सयाने..’
वे जानते हैं कि क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं, जिन्हें दूसरों के दोष ही प्रिय लगते हैं, वे उनकी कविता पर अवश्य हँसेंगे. ढूंढ-ढूंढकर दोष निकालेंगे और उनकी अल्प बुद्धि और कविता का उपहास करेंगे. इसलिए वे स्पष्टता से इस बात को रेखांकित करते हैं, ‘हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी. जे पर दूषन भूषनधारी..’
अपनी रचना किसे प्रिय नहीं लगती चाहे वह रसयुक्त हो या रसहीन. ‘निज कबित्त केहि लाग न नीका. सरस होउ अथवा अति फीका..’ पर दुनिया में ऐसे सहृदय व्यक्ति बहुत कम हैं, जो दूसरों की रचना को सुनकर-गुनकर वास्तव में हर्षित होते हों. दूसरे लोगों की आत्मोन्नति से प्रसन्न होते हों. दुनिया में अधिसंख्य लोग ऐसे हैं जो तालाबों और नदियों के समान जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं. अपनी रचना पर ही इस कदर निहाल हुए जाते हैं कि उन्हें अपने पूर्ववर्ती और अन्य समकालीनों की कोई महान रचना कभी याद ही नहीं आती. समुद्र-सा तो कोई एक विरले ही होते हैं, जो चंद्रमा की पूर्णता को देखकर उमड़ पड़ते हैं. तुलसी कहते हैं, ऐसे सज्जन पुरुष संसार में कितने हैं, जो वास्तव में दूसरों के उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होते हैं?
‘जग बहु नर सर सरि सम भाई. जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई..
सज्जन सुकृत सिंधु सम कोई. देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई..’
तो ऐसे लोग संसार में बहुत थोड़े हैं, जो मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे सच्चे सहृदय की तरह मोमिन खाँ मोमिन की एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़कर इस कदर निहाल हो जाएं कि उस एक ग़ज़ल पर अपना पूरा दीवान न्योछावर करने को तैयार हो जाएं! तो साहब लगे हाथों मोमिन की उस ग़ज़ल के चंद अशआर हाथों देखते चलें, ‘तुम मेरे पास होते हो गोया/जब कोई दूसरा नहीं होता/हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यों कर/हाथ दिल से जुदा नहीं होता/क्यों सुने अर्ज़-ए-मुज़्तरिब ऐ ‘मोमिन’/सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता.’ ख़ुदा से रहम की उम्मीद बंदों को होती है और सच्चे दिल की दुआ क़ुबूल होने की भी उम्मीद, पर सनम इतना निष्ठुर है कि उससे अर्ज़-ए-मुज़्तरिब सुनने की उम्मीद नहीं. मानव-मस्तिष्क की बुनावट और दुनिया की रीति-नीति की कितनी बारीक समझ थी तुलसीदास को, यह इस अर्द्धाली में देखिये, ‘जे पर भनिति सुनत हरषाहीं. ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं..’हमेशा से ऐसा रहा है कि अपने समकालीन रचनाकारों से अपने समय के बड़े कवियों को सराहना नहीं मिली. विद्यापति का समय शास्त्र-वेद में प्रकांडता और संस्कृत में काव्य-रचना करके विद्वता दिखाने का था, जो हालांकि विद्यापति ने किया भी. इसके बावजूद देशभाषा में काव्य-रचना करने के लिए उनके समकालीनों ने उनका बहुत मखौल उड़ाया. तुलसीदास तो पहले ही कह रहे हैं ‘कवित विवेक एक नहिं मोरे’. परंतु तुलसीदास को रामचरितमानस लिखते समय कुछ-कुछ यह अनुमान था कि संस्कृत के पांडित्यपूर्ण माहौल में देशभाषा (अवधी) में लिखित मेरी इस रचना का लोग मज़ाक उड़ाएंगे. दूसरी ओर अपने आप को लेकर वे किसी भ्रम में नहीं हैं कि बहुत बड़ा कवि हूं और लोग मेरी रचना को हाथों-हाथ लेगें. वे तो साफ कहते हैं,
‘कबित रसिक न राम पद नेहू. तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू..
भाषा भनिति भोरि मति मोरी. हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी..’
यही नहीं तुलसीदास कहते हैं कि काव्यशास्त्रीय मानदंडों और कविता की बारीकियों का उन्हें ज्ञान नहीं है, न ही कविता के भांति-भांति के गुण-दोषों से वे परिचित हैं. प्रगतिशील कवि नागार्जुन की पंक्ति है, ‘जनकवि हूं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं?’साफ कहने में वे लोग हकलाते हैं जिन्हें अपनी काव्य-प्रतिभा और व्युत्पत्ति का तो भारी गुमान होता है, पर भीतर कुछ नहीं होता. इसलिए प्रतिभा और व्युत्पत्ति की पोल खुल जाने के भय से वे सच को स्वीकार करने से घबराते हैं. परंतु तुलसीदास को भला क्या झिझक हो सकती है! वे तो बिना किसी हकलाहट के साफ कहते हैं,
‘आखर अरथ अलंकृति नाना. छंद प्रबंध अनेक बिधाना..
भाव भेद रस भेद अपारा. कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा..’
नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद-रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भांति-भांति के गुण-दोष होते हैं और तुलसीदास कहते हैं कि संयोग से मुझे इनमें से किसी चीज़ का कोई ज्ञान नहीं है. यही नहीं वे इस चीज़ को भी स्वीकारते हुए चलते हैं कि मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस एक ही गुण है कि श्रीरामचंद्र का उदार नाम है. जो अत्यंत पवित्र है, वेद-पुराणों का सार और अमंगलों को दूर करने वाला है. हद देखिए कि तुलसी भूल से भी यह ज़ाहिर नहीं होने देते कि वे कुछ विशिष्ट रच रहे हैं या उनकी कविता किसी भी दृष्टिकोण से काव्य-गुण संपन्न है!
इसके बावजूद तुलसीदास के समकालीन कवियों और पंडितों ने उनकी कविता का बहुत मज़ाक उड़ाया. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी का मखौल उड़ाते हुए उनके समकालीनों ने तो यहां तक कहा कि ‘इनका लिखा ये आप समझें, या ख़ुदा समझे’. इसलिए यह आदिम मानवीय प्रवृत्ति है कि समय चाहे विद्यापति का रहा हो, तुलसीदास या मिर्ज़ा ग़ालिब का-हर काल में बड़े कवियों को मान्यता के लिए बेहद संघर्ष करना पड़ा और अपने समकालीनों के ईष्या, द्वैष और मखौल का भी. आज वक्त ने यह तय कर दिया है कि मानीख़ेज अशआर मिर्ज़ा ग़ालिब के हैं या उनके समकालीन अन्य शायरों के. आधुनिक काल में छायावादी निराला को मुक्तछंद के लिए क्या कुछ कम ‘अबोल-कुबोल’ सुनना पड़ा? एक लेखक ने तो उनकी कालजयी कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ को सांप झाड़ने का मंत्र बता दिया. पर इतिहास ने बेहद ईमानदारी से यह तय कर दिया कि विश्वसनीयता के स्तर पर हिंदी-समाज ने इस कालजयी कविता को ख़ारिज करने वाली मानसिकता को किस रूप में लिया और निराला को किस स्थान पर रखा. महान और बड़े कवियों को जब कुटिल और दुष्ट लोग ऐसे नहीं मार पाते हैं, तो अफवाहों से मारने की साजिश रच डालते हैं. कवि-कथाकार उदय प्रकाश ‘कवि की पीड़ित खुफिया आंखें’ नामक कविता में बिल्कुल ठीक कहते हैं, ‘कोई विश्वास होता है हर बार/ जिस पर घात होता है हर बार/सबलोग यह जानते हैं/ पर खामोशी ही लाजिमी है/ जो व्यक्त करता है यथार्थ को /वह मार दिया जाता है अफवाहों से.’ (उदय प्रकाशः रात में हारमोनियम, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1998) जब किसी तरह बड़े रचनाकारों को लोग मिटा नहीं पाते हैं, तो अफवाहों से मारने का अभियान चला देते हैं. आख़िर गोयबल्स ने तो कहा ही था कि यदि किसी एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच लगने लगता है!
एक बड़े और महान कवि की पहचान उसकी सहजता, विनम्रता और आत्मसंशय से भी होती है. ‘संशयात्मा विनश्यति’ की बातें श्रीमद्भगवतगीता में तो ठीक है, लेकिन कोई बड़ा कवि आत्मसंशय से भला कैसे मुक्त हो सकता है! शायद इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि अपने ढंग के अनूठे और आज के बड़े कवि ज्ञानेन्द्रपति अपनी कविता-संग्रह का नाम ही ‘संशयात्मा’ रखते हैं. इसलिए रामचरितमानस में तुलसीदास अपनी हीन प्रतिभा की बात करते हुए यह ग्रंथ देशभाषा अवधी में लिखने की वजह से भी इसकी सराहना या मान्यता को लेकर संशय प्रकट करते हैं. जिन्हें रामकथा में रुचि है वे शायद इसे पढ़ना चाहेंगे, ‘राम भगति भूषित जियँ जानी. सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी..’ संत और सज्जन पुरुष की यह विशेषता होती है कि वे कमज़ोर कविता को भी जहां रामकथा के कारण सुन लेते हैं, वहीं कुकवि की रचना को भी यह सोचकर सुन लेते हैं कि थोथा में यदि कुछ भी सार हुआ, तो वे थोथा को छोड़कर सार ग्रहण कर लेंगे. क्योंकि संतों का चरित्र भौंरे के समान होता है, जो केवल रस को ही ग्रहण करते हैं. तुलसीदास कहते हैं,
‘सब गुन रहित कुकबि कृत बानी. राम नाम जस अंकित जानी..
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही. मधुकर सरिस संत गुनग्राही..’
तुलसी अपने आराध्य राम के प्रति इस कदर प्रतिबद्ध, आबद्ध और संबद्ध हैं कि सुकवि की रचना को लेकर भी उनका मत है कि रामनाम के बिना अच्छी कविता की भी शोभा नहीं बढ़ती. रामनाम को लेकर वे इस कदर आग्रहशील हैं कि कहते हैं,
‘भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ. राम नाम बिनु सोह न सोऊ..
बिधुबदनी सब भांति सँवारी. सोह न बसन बिन बर नारी..’
तुलसी की उपमा से भी राम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और आग्रहशीलता के स्तर का पता चलता है. वे कहते हैं जैसे चंद्रमा के समान मुखवाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती, उसी तरह राम नाम रूपी वस्त्र के बिना सुकवि की हर चीज से परिपूर्ण कविता भी अच्छी कविता नहीं होती. सुकवि की कविता को लेकर एक और बात तुलसीदास कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है. यानी कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहां शोभा पाती है, जहां उसके विचार, प्रसार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है. फिर भक्ति की महिमा बखानते हुए तुलसी कहते हैं कि कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं.
‘तैसहिं सुकबि कबित बुध कहहीं. उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं..
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई. सुमिरत सारद आवति धाई..’
कविता और विचार को लेकर तुलसीदास एकदम स्पष्ट हैं. उनका मत है कि ‘जौं बरषइ बर बारि बिचारू. होहिं कबित मुकुतामनि चारू..’ बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र कहते हैं और इसमें यदि श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान सुंदर कविता होती है. यहां ध्यान देने की बात यह है कि तुलसीदास हृदय को समुद्र और बुद्धि को सीप की संज्ञा देते हैं. यानी कविता में बुद्धि रूपी सीप का स्थान हृदय रूपी समुद्र से छोटा होता है. एक श्रेष्ठ और महान कविता समुद्र के समान हृदय की विशालता, उदारता और उसमें उमड़े भावों के आलोड़न से संभव होती है, न कि बुद्धि से. महान कविता यदि बुद्धि से संभव होती तो शायद शायर को यह न कहना पड़ता कि ‘अक्ल से शायरी नहीं आती.’इसलिए तुलसीदास कहते हैं,
‘सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान.
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान..’
अर्थात् चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक वैर को भूलकर सराहना करने लगें. तुलसी की दृष्टि में, ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई. सुरसरि सम सब कहँ हित होई.’ कीर्ति, कविता और संपत्ति वही उत्तम है जो गंगा की तरह सबका हित करने वाली हो-आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता में जिस लोकमंगल की अवधारणा की बात करते हैं वह इसी भावना से संबद्ध है.
हर बड़ा कवि अपने पूर्ववर्ती महान कवियों की कविता और प्रतिभा के प्रति नमनीय होता है. मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं, रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब/कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था.’ तुलसीदास भी रामचरितमानस की रचना करते हुए अपने पूर्ववर्ती कवियों के रचनात्मक अवदान को नहीं भूलते हैं. वे इस भ्रम में कतई नहीं रहते कि वही एकमात्र ऐसे ‘महाकवि’ नहीं हैं जो रामकथा लिख रहे हैं. एक सोरठा में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मैं आदिकवि वाल्मीकि के चरणकमलों की वंदना करता हूं, जिन्होंने ऐसे रामायण की रचना की जो खर यानी राक्षस सहित होने पर भी खर यानी कठोर से विपरीत बहुत कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण अर्थात् राक्षस सहित होने पर भी दूषण अर्थात् दोष से रहित है. उपमा और अनुप्रास का क्या अद्भुत संयोग है!
‘बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ.
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित..’
आदिकवि वाल्मीकि के बाद वे प्राकृत कवियों को भी नहीं भूलते, ‘जे प्राकृत कबि परम सयाने. भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने.’तुलसी के पूर्ववर्ती संस्कृत, प्राकृत भाषा के जिन कवियों ने भी रामकथा का बखान किया है, उनकी रचना और प्रतिभा को पूरा सम्मान और आदर देते हुए वे अपनी रचना प्रारंभ करते हैं. क्योंकि रामकथा की रचना करने से पूर्व उनके मन में एक संशय और है कि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं. इसलिए वे अपने पूर्ववर्ती कवियों के साथ-साथ रसिक विज्ञजनों की भी अभ्यर्थना करते हुए आगे बढ़ते हैं, ताकि वे प्रसन्न हों,
‘होहु प्रसन्न देहु बरदानु. साधु समाज भनिति सनमानू..’
और बुद्धिमान रसिकजनों से उनकी एक और विनती ध्यान देने लायक है,
‘सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर.
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर..’
तुलसीदास की विनम्रता, आत्मसंशयता और पूर्ववर्ती कवियों के रचनात्मक अवदान का स्वीकार एक बड़े और महान कवि की विशेषता-भर ही नहीं, भारतीय कविता की उस महान परंपरा से साक्षात्कार भी है जिसमें ‘मैं’ वाद का नकार शामिल है. जिसमें इस सच/तथ्य का स्वीकार भी शामिल है कि किसी भावधारा/चिंतनधारा का उदय अचानक और वायवीय तरीके से नहीं होता. विशुद्ध और सर्वथा मौलिक कुछ नहीं होता, इसलिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं ‘सब कुछ अविशुद्ध है’. तुलसीदास के यहां भारतीय काव्य-परंपरा का स्वीकार और भारतीय समाज की बौद्धिकता का पूरा सम्मान तो प्रकट हुआ ही है, मनुष्य की तमाम रागात्मक वृत्तियों को भी रामचरितमानस में सहज ही लक्षित किया जा सकता है.
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पंकज पराशर
एम. फिल., पी-एच.डी (जे.एन.यू)
कादंबिनी, दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण के संपादकीय
प्रभाग का अनुभव
पुनर्वाचन (कथा-आलोचना) आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला से
२०१२ में
अनुवाद, कविता टिप्पणियों के संग्रह प्रकाशित
संप्रतिः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिंदी
कादंबिनी, दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण के संपादकीय
प्रभाग का अनुभव
पुनर्वाचन (कथा-आलोचना) आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला से
२०१२ में
अनुवाद, कविता टिप्पणियों के संग्रह प्रकाशित
संप्रतिः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिंदी
विभाग में अध्यापन
0-96342 82886.
ईमेलः pkjppster@gmail.com
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