(Sarmad Shahid : painting by Sadequain)
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यह कविता और इस पर वरिष्ठ आलोचक शम्भु गुप्त का आलेख- \’एक-दूसरे में समाती दो रूहें\’, यहाँ प्रस्तुत है.
स र म द
उम्रेस्त कि आवाज़-ए-मंसूर कुहन शुद
मन अज़ सरे नो जलवा देहम दारो रसनरा !
(मंसूर की प्रसिद्धि पुरानी हो गई. मैं सूली पर चढ़ने का दृश्य नये सिरे से पैदा करता हूँ.)
(१)
दिल्ली के शहर क़ाज़ी मुल्ला क़वी के सवाल के जवाब में सरमद ने कहा :
शैतान बलवान (क़वी) है !
शहर क़ाज़ी को लगा कि सरमद उसे शैतान कह रहा है. मुल्ला की भृकुटियाँ तन ही रही थी कि सरमद ने फिर कहा :
एक अजीब चोर ने मुझे नंगा कर दिया है !
(२)
औरंगज़ेब के दिल में सरमद को लेकर गश था- वह उसे भी दारा शिकोह की तरह ठिकाने लगाना चाहता था लेकिन कोई उचित बहाना नहीं मिल रहा था. औरंगज़ेब जानता था कि बिना किसी वाजिब वजह के सरमद का क़त्ल करने से उसे चाहने वाले भड़क सकते थे- जिनकी सँख्या अनगिनत थी.
औरंगज़ेब क़ातिल होने के साथ धर्मपरायण भी था और बादशाह होने के बावजूद टोपियाँ सिलकर अपना जीवन-यापन करता था.
(३)
नग्नता किसी की मौत का कारण नहीं हो सकती.
औरंगज़ेब जितना अन्यायप्रिय था उतना ही न्यायप्रिय भी था !
(४)
सर्वप्रथम औरंगज़ेब ने सरमद से पूछा :
सरमद, क्या यह सच है कि तुमने दारा शिकोह के बादशाह बनने की भविष्यवाणी की थी ?
सरमद ने स्वीकृति में सर हिलाया और कहा :
मेरी भविष्यवाणी सच साबित हुई. दारा शिकोह अब समूचे ब्रह्मांड का बादशाह है.
इसके बाद धर्मसभा के अध्यक्ष सिद्ध-सूफ़ी ख़लीफ़ा इब्राहिम बदख़्शानी ने सरमद से उसकी नग्नता का कारण पूछा. सरमद ख़ामोश रहा. फिर पूछा गया तो सरमद ने वही जवाब दिया जो उसने शहर क़ाज़ी को दिया था :
एक अजीब चोर है जिसने मुझे नंगा कर दिया !
तब ख़लीफ़ा ने सरमद को इस्लाम के मूल सूत्र कलमाये तैयब (लाइलाहा इल्लल्लाह अर्थात कोई नहीं अल्लाह के सिवा) पढ़ने के लिये कहा.
सरमद के विरुद्ध यह भी शिकायत थी कि वह जब भी कलमा पढ़ता है, अधूरा पढ़ता है. अपनी आदत के अनुसार सरमद ने पढ़ा :
लाइलाहा.
सरमद को जब आगे पढ़ने को कहा गया तो सरमद ने कहा कि मैं अभी यहीं तक पहुँचा हूँ कि कोई नहीं है. आगे पढूँगा तो वह झूठ होगा कयोंकि आगे के हर्फ़ अभी मेरे दिल में नहीं पहुँचे हैं. सरमद ने दृढ़ शब्दों में कहा कि मैं झूठ नहीं बोल सकता.
बादशाह औरंगज़ेब, धर्मसभा के अध्यक्ष ख़लीफ़ा बदख़्शानी, शहर क़ाज़ी मुल्ला क़वी के साथ समूची धर्मसभा और पूरा दरबार सरमद का जवाब सुनकर सकते में था. ख़लीफ़ा ने कहा :
यह सरासर इस्लाम की अवमानना है, कुफ़्र है. अगर सरमद तौबा न करे, क्षमा न मांगे तो इसे मृत्युदंड दिया जाये.
(५)
अपनी मौत का फ़रमान सुनकर सरमद को लगा जैसे वह बारिश की फुहारों का संगीत सुन रहा है. वह भीतर से भीग रहा था जैसे उसकी फ़रियाद सुन ली गई है जैसे उसे अपनी मंज़िल प्राप्त हो गई है.
सरमद अब कुफ़्र और ईमान के परे चला गया था. सरमद ने सोचा :
कितने फटे-पुराने वस्त्रों वाले साधु-फ़क़ीर गुज़र गये- अब मेरी बारी है.
(६)
सरमद को अपनी ही रुबाई याद आई और अपना पूरा जीवन आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूमने लगा.
पहले अरमानी-यहूदी, फिर मुस्लिम और अब हिन्दू !
सरमद जब अरब से हिंदुस्तान की तरफ़ चला था तो वह एक धनी सौदागर था. उसे वह लड़का याद आया, जिससे सिंध के ठट्टा नामक क़स्बे में उसकी आँख लड़ गई थी. इस अलौकिक मोहब्बत में उसने अपनी सारी दौलत उड़ा दी. सरमद दीवानगी में चलते हुये जब दिल्ली की देहरी में घुसा तो एक नंगा फ़क़ीर था.
उसे वे धूल भरे रास्ते याद आये , जिस से चलकर वह यहाँ पहुँचा था.
तुम्हारे मज़हब के तीसरे घर में मृत्यु बैठी हुई है !
(७)
जामा मस्जिद की सबसे ऊँची सीढ़ी पर खड़े होकर सरमद ने यह शे\’र पढ़ा :
शोरे शुद व अज़ ख़्वाबे अदम चश्म कशुदेम
दी देम कि बाकीस्त शबे फ़ितना गुनूदेम !
(एक शोर उठा और हमने ख़्वाबे-अदम से आँखें खोलीं तो देखा- कुटिल-रात्रि अभी शेष है और हम चिर-निद्रा के प्रभाव में हैं.)
इसके बाद अपनी गर्दन को जल्लाद के सामने झुकाकर सरमद फुसफुसाया :
आओ, तुम जिस भी रास्ते से आओगे, मैं तुझे पहचान लूँगा !
(८)
सरमद के कटे हुये सर को उसके पीर हरे भरे शाह ने अपने आगोश में ले लिया. पवन पवन में मिल गई- जैसे कोई विप्लव थम गया हो !
(९)
ईल्लल्लाह ईल्लल्लाह ईल्लल्लाह
और यह भी प्रवाद है कि सरमद के कटे हुये सर से बहते हुये लहू ने जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर जो इबारत लिखी गई उसे इस तरह पढा जा सकता था :
लाइलाहा लाइलाहा लाइलाहा !
(१०)
हरे भरे शाह और सरमद. जैसे निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर ख़ुसरो. पीरो-मुरीद. एक हरा. एक लाल.
इन के बीच नीम का एक घेर-घुमावदार, पुराना वृक्ष है जिससे सारे साल इन जुड़वाँ क़ब्रों पर नीम की निम्बोलियाँ टपकती रहती हैं.
और जब दिल्ली की झुलसा देने वाली गर्मी से राष्ट्रपति-भवन के मुग़ल-गॉर्डन के फूल मुरझाने और घास पीली पड़ने लगती है तब भी सरमद के मज़ार के आसपास हरियाली कम नहीं होती. सरमद की क़ब्र के चारों तरफ़ फूल खिले रहते हैं और घास हरी-भरी रहती है !
(११)
(इश्क़ में जो ख़ून बहता है वह कदापि व्यर्थ नहीं जाता !) _______________________
एक-दूसरे में समाती दो रूहें
जहाँ तक इस कविता की बात है तो परम्पराप्रेमियों को यह बता देना काफी होगा कि अमूमन जिसे ‘कविता की आन्तरिक लय’ कहा जाता है, वह इस कथित काव्याख्यान की असली जान है, जो हर पाठक के दिल में बसती है. दस दरवाज़ों को पारकर ग्यारहवें की देहरी पर हमें जो यह लिखा मिलता है कि ‘ख़ूने कि इश्क़ रेज़द हरगिज़ न बाशद’ (इश्क़ में जो ख़ून बहता है वह कदापि व्यर्थ नहीं जाता!); वह इस सारे काव्य-श्रम का निचोड़ कहा जा सकता है, हालाँकि इश्क़ में ख़ून बहने की नौबत तभी आती है, जब सत्ताएँ उसके बीच रास्ते में आ जाती हैं और उसे अपने हिसाब से हाँकने की कोशिश करती हैं. ख़ून बहने की नौबत दरअसल तब आती है, जब प्रेम के दीवाने सत्ता के दखल की परवाह न करते हुए अपनी राह बदस्तूर चलते जाते हैं और न केवल चलते जाते हैं; सत्ता को ठेंगा भी दिखाते जाते हैं कि कर लो, जो करना है; हम तो ऐसे ही चलेंगे! यहाँ देखने वाली बात यह है कि प्रेम-दीवाने तो लगभग सब-कुछ से बेख़बर अपनी धुन में बिना आगा-पीछा देखे चलते जाते हैं, उन्हें सत्ता से ज़्यादा कोई वास्ता रहता भी नहीं है पर इन सत्ताओं का क्या किया जाए, जो इसे अपने लिए एक चुनौती समझती हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें सेटा नहीं जा रहा है!
(दो)
“मंसूर की प्रसिद्धि पुरानी हो गई. मैं सूली पर चढ़ने का दृश्य नये सिरे से पैदा करता हूँ.”
किसी कवि के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि किसी के सूली पर चढ़ने का दृश्य उसे पुनर्रचित करना पड़े; लेकिन जब यथार्थ वास्तविकताएँ इतनी बेहूदा हों और लगातार योजनाबद्ध तरीक़े से अंज़ाम दी जा रही हों कि इतिहास ख़ुद को दुहराता है, यह तथ्य भी एक पैरोड़ी नज़र आने लगे तो कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही पड़ता है. इतिहास ख़ुद ब ख़ुद अपने को कभी नहीं दुहराता. इतिहास अपने को दुहराता है, यह इतिहास-दृष्टि उन आततायी शासकों, राष्ट्राध्यक्षों इत्यादि की कारस्तानियों को हल्का कर देती है, जो अपने से असहमत लोगों पर राज्य की संस्थाओं का सहारा लेकर ज़ुल्म ढाती हैं, उन्हें नेस्तनाबूद करने में कोई क़सर नहीं छोड़तीं. अपने-आप को इतिहास नहीं, राज्य दुहराता है, राज्य के सर्वसत्तावादी अहम्मन्य मुखिया दुहराते हैं, समयों के अंतरालों में वे पुनरुत्थित/पुनरवतरित होते हैं; कृष्ण कल्पित की इस लम्बी कविता का पहला बड़ा अभिप्राय यह है! ….मंसूर अल हल्लाज > सरमद> गोविन्द पानसरे, दाभोलकर, कालबुर्गी, गौरी लंकेश….! …हम सब जानते हैं, यह सिलसिला अभी जारी है और न जाने कब तक जारी रहेगा! इन कुछ नामों के अनुक्रम में वे कुछ नाम भी शामिल किए जा सकते हैं, जो क़त्ल किए जाने के प्रोसेस में हैं; जो झूठे और पूर्व-आकलित मुक़द्दमों में जेलों में डाल दिए गए हैं, जिन्हें डिजिटली और फिजिकली लगातार ट्रोल किया जा रहा है, जो लिंच किए जा चुके हैं या किए जा रहे हैं…!
कविता यह स्थापित और संप्रेषित करने में पर्याप्त सफल रही है कि एक संस्था की जगह एक गिरोह में बदल जाने की राज्य की यह फ़ितरत हमारे इतिहास की एक ऐसी भयावह सच्चाई है, जो, जैसे ही स्थितियाँ उसे अपने अनुकूल दिखाई देती हैं, अपनी क़ब्र से वह निकल आती है और एक नया रूप धर कर सक्रिय हो जाती है; लगभग उसी चरित्र और गुणों के साथ, जो अब तक इसके रहते आए हैं! केवल धज बदलती है, कलेजा वही रहता है! पहले राजशाही थी तो बादशाह की ‘सहमति’ सीधे-सीधे थी, उसमें किसी के ‘डिसेंट नोट’ की गुंजाइश नहीं थी; आज हमारी सत्तर-साला जनतान्त्रिक राज्य-प्रणाली में असहमति की ढेरों प्रविधियाँ हैं लेकिन देखने में आ रहा है कि सर्वसत्तावादी राजनीतिक प्रबन्धन ने लगभग सब की सब हज़म कर ली हैं. मौज़ूदा सर्वसत्तावादी राजनीतिक ऑपरेशन किसी मायावी क्रिएचर की सांघातिक लीलाओं की तरह जारी है, जहाँ सारी राजनीति जैसे एक ‘ब्लैक होल’ में समाती जा रही है. मैंने कहा कि कवि एकदम ठंढे और अनलाउड तरीक़े से अपनी बात कहता है. लेकिन आप कवि की एक ऐसी मुद्रा की कल्पना करें जो अपने ऊपरी ‘निष्कंप’ में भी भीतर धधकते अनगिनत ज्वालामुखियों का आभास करती चलती है! सरमद जैसे चरित्र को उठाना और उसे नितांत मौजूँ बना देना और इस तरह से कि सब-कुछ आईने की तरह साफ़ होता चले और हम अपने समय की विकरालता को मूर्तिमान रूप में खड़ा देख पाएँ; यह कोई हँसी-ठट्ठा नहीं! इसके लिए ज्ञान के साथ-साथ गहरी जनप्रतिबद्धता भी चाहिए!
(तीन)
सरमद के आख्यान सम्बन्धी जो सामग्री मिलती है, उसमें अन्य के अलावा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का लिखा लेख (Votary of Freedom) सबसे काम का है. इस लेख में अपनी तेईस साल की उम्र में आज से कोई एक सौ आठ साल पहले मौलाना आज़ाद ने सरमद के बारे में जो कुछ लिखा, वह उस समय चाहे जितना ज़रूरी रहा हो, आज द्वन्द्वात्मक रूप से वह कई गुना प्रासंगिक हो गया है. उस समय औपनिवेशिक राज्य-सत्ता थी, उसकी अपनी धर्म/सम्प्रदाय-आधारित गृह-नीति थी, उसे अपना वर्चस्व बनाए रखना था, कथित प्रगतिशीलता के आवरण में उसने दक़ियानूसी, परंपरावाद को ख़ूब बढ़ावा दिया, लोगों को बाँटा और एक-दूसरे से लड़ाकर ख़ुद मुड्ड बन उनकी कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाया; क्या दक्षिणपंथी सरकार के राज्य तले आज फिर वही परिदृश्य आ खड़ा हुआ है? अबुल कलाम आज़ाद को उस समय अपने समय के सवालों के जवाब के रूप में सरमद शहीद याद आया और आज हिन्दी के एक वरिष्ठ हरफ़नमौला कवि को भी वही ज़रूरी महसूस हुआ!
“He was not bound by the illusion that there is more than the one- the illusion that we are many, separate and different from each other. He left behind all concepts about God and religion, and even himself.”