चमन में रंगे बहार उतरा
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‘आज जाने की ज़िद न करो
यूँ ही पहलू में बैठे रहो
हाए मर जाएँगे, हम तो लुट जाएँगे
ऐसी बातें किया न करोतुम ही सोचो ज़रा क्यूँ न रोकें तुम्हें
जान जाती है जब उठ के जाते हो तुमतुम को अपनी क़सम जान-ए-जाँ
बात इतनी मिरी मान लोवक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर
चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैंइन को खो कर मिरी जान-ए-जाँ
उम्र-भर ना तरसते रहोकितना मासूम रंगीन है ये समाँ
हुस्न और इश्क़ की आज मेराज हैकल की किस को ख़बर जान-ए-जाँ
रोक लो आज की रात को.’
कितना कुछ है इस दुनिया में जो बहुत सुंदर है, बेहद दिलफरेब, और जिन्हें हम अपने मन की सौ सौ परतों में सहेज कर, छिपा कर रखते हैं, न जाने कितनी स्मृतियां, दृश्य, खुशबुएँ, रंग और स्पंदन. इन्हीं में एक है फ़रीदा खानम की गायकी, उनकी स्पर्शी आवाज़. पूरा एक ज़माना लिपटा चला आता है जब भी उनकी गुनगुनाहट, उनका आलाप शुरू होता है.
उनकी आवाज़, उनके सुरों और अल्फ़ाज़ का जादू मेरे आसपास शायद तब से घुमड़ रहा है, जब मैं उन्हें ठीक से समझ भी न पाती थी. अमृतसर में लाहौर टी वी खूब देखा जाता था. उसी में दो बड़े कार्यक्रमों के बीच कभी-कभार उभर आने वाली उनकी बेहद खूबसूरत और खुशरंग शख्सियत. याद आता है कि उन्हें श्वेत-श्याम रंगों में देखा था और फिर बहुरंगीय पटल पर भी. अक्सर वे बैठ कर बेहद इत्मीनान से गाती नज़र आतीं. खूबसूरत, कशिश भरा चेहरा, बाकायदा एक परफार्मिंग कलाकार का रखरखाव, सजीली ढब और गीत या ग़ज़ल से पहले उनका सुरीला आलाप. याद करूं तो लगता है कि पहले उनके गायन के सुरों ने दस्तक दी होगी, पहले वही मंडराए होंगे और फिर यह सब डिटेल्स दिखनी शुरू हुई होंगी, या फिर…. दोनों एक साथ… कह नहीं सकती.
संगीत तो अपने आप में एक संपूर्ण कला है ही- इतनी सम्पूर्ण जो तुरंत आपका हाथ थाम इस लोक से किसी दूसरे रस लोक में आपको लिए चलती है. दूसरी ओर काव्यकला भी कहाँ किसी से कमतर है, शब्दों में ही शब्दों के परे चले जाने वाली कला. और जब इन दो का सम्मिलन हो जाए, कोई ऐसा कलाकार हो जो शब्दों की रूह को संगीत में ढाल दे, संगीत के रंगों से आंकने लगे, तब यह कहना मुश्किल हो जाता है कि कौन किसमें रंग भर रहा है. परंपरा में ऐसे मेल, ऐसे संवाद और संयोजन अक्सर चित्र और वास्तु में, वास्तु और मूर्ति में, काव्य और संगीत में घटित होते आए हैं.
भारतीय संगीत को चार श्रेणियों में बांट कर समझा जाता है. शास्त्रीय (ध्रुपद, धमार, ख्याल) उप शास्त्रीय (ठुमरी, कजरी, चैती, होरी इत्यादि), सुगम संगीत (ग़ज़ल, गीत, भजन इत्यादि) और लोक संगीत.
तो ग़ज़ल गायकी यों तो सुगम संगीत का रूप है लेकिन जिस गायिका और गायन की बात हम कर रहे हैं वह एक दूसरे अर्थात् उपशास्त्रीय रूप की ओर झुकती है. ग़ज़ल ने देश काल का एक लंबा सफर तय किया है. वह फ़ारसी से उर्दू में आई है. ऊपर जिन चार संगीत रूपों का संकेत किया गया है उनमें अल्फ़ाज़ या शब्दों का महत्व एक सा नही है. शास्त्रीय गायन में शब्द हैं तो सही पर उनका महत्व वैसा नहीं. ग़ज़ल और गीत में शब्द की महिमा बहुत है. जबकि उपशास्त्रीय रूप में शब्द की स्थिति इन दोनों के बीच की है. तो बात मुख्तसर यों कि जब ग़ज़ल गाई जाती है तो दो पूर्ण कलाओं के मेल की अन्यतम मिसाल हो जाती है. लेकिन बात तो फ़रीदा खानम की चली थी- शायद वे और ग़ज़ल इतने अभिन्न हो गए हैं कि बात ग़ज़ल की तरफ अजाने ही फिसल गई.
उनकी आवाज़ से रिश्ता तो पुराना है पर उनके जीवन के कुछ बिखरे से टुकड़े हाल ही में पता लगे. उनके बारे में यहां वहां थोड़ा पढ़ते, सुनते हुए पता चला कि वे सन 1935 में कोलकाता में जन्मीं. उनका परिवार बड़ा संभ्रांत, सुसंस्कृत एवं कलानुरागी परिवार था. अपने अतीत पर बात करते हुए तमाम इंटरव्यूज में वे अपनी बड़ी बहन मुख्तार बेगम को बहुत याद करती हैं जो न केवल पारसी थिएटर की मशहूर अदाकारा थीं बल्कि महान् गायिका भी थीं और बाद में फिल्मों में भी आई थीं. वे बुलबुल-ए-पंजाब कहलाती थीं.[1] मुख्तार बेगम पारसी थिएटर के बड़े लेखक आगा हश्र काश्मीरी की पत्नी थीं. फ़रीदा खानम को संगीत का संस्कार घर से ही मिला था और खासकर अपनी बड़ी बहन मुख्तार बेगम से. उनकी पूरी शख्सियत को वो तरह तरह से याद करतीं हैं. उनके गले में बेहद मीठी तानें बसी हुई थीं. जिस राह पर चल कर फरीद खानम ने इतनी इज़्ज़त और संगीत प्रेमियों का प्यार पाया, वह राह उनकी बहन ने ही उनके लिए सिरजी थी. मुख्तार बेगम कलकत्ता के मंच का सितारा थीं. उनकी गाईं ग़ज़लें… मेरे काबू में न मेरा दिल नाशाद आया और चोरी कहीं खुले न नसीमे बहार की… खुशबू उड़ा के लाई है जो गेसुए यार की, बेहद प्रसिद्ध थीं.
फ़रीदा खानम जब सात साल की नन्ही बच्ची थीं, तभी से मुख्तार बेगम उन्हें संगीत की शिक्षा दिलवाना चाहती थीं और बड़े गुलाम अली से उन्होंने इस सिलसिले में गुजारिश की थी. खां साहब ने आगे आशिक अली खां को यह दायित्व सौंपा था. आशिक अली खां यों तो युवा थे पर उनकी तबियत दरवेशों जैसी थी शायद इसीलिए वे बाबा जी कहाते थे. जब उनकी बहन विख्यात पटियाला घराना के उस्ताद आशिक अली खां के पास उन्हें ले गईं थीं और तब वहीं से शुरू हुआ था एक मासूम नन्ही बच्ची का शास्त्रीय संगीत का कठिन रियाज. उन्होंने ही उन्हें दादरा, ठुमरी और खयाल गायकी की शिक्षा दी. उनकी आंखों में कई यादें कौंधती हैं, कई झिलमिलाती हैं, और मंद स्मित से कहती हैं कि उन्होंने संगीत के लिए छड़ी की मार भी खाई है, रोई भी बहुत हैं. वे याद करतीं हैं कि कैसे वे रागों का रियाज़ करवाते थे. सुबह भैरव के सुर लगवाते, शाम को यमन और भीम पिलासी के. सुरों का नियंत्रण उन्होंने सिखाया, कभी प्यार से तो कभी डांट के. वे जितने ही अनुशासनप्रिय थे, नन्ही फ़रीदा का मन उतना ही रह कर भागने को और खेलने को मचलता.[2] पर उसी कठिन श्रम और प्रशिक्षण का ही फल है कि वह आज ऐसे निर्बाध रूप से गाती हैं जैसे बल खाती हुई कोई नदी अपना रास्ता खुद बनाती बहा करे.
कोलकाता में जन्मी फ़रीदा का बचपन बीता अमृतसर में. पाकिस्तान के युवा लेखक और स्वयं अच्छे गायक अली सेठी बताते हैं कि कुछ साल पहले जब वागा की सरहद को लांघ फ़रीदा खानम भारत में अमृतसर आईं तो वह अपना छूटा हुआ घर देखना चाहती थी, उसी की तलाश में आईं थीं जो घर 1947 के बदकार माहौल में छूट गया था. अली सेठी बताते हैं कि शहर थोड़ा तो बदला था लेकिन पुराना शहर इतना भी न बदला था. फ़रीदा जी बड़ी सहजता और तत्परता से बताती गईं वे तमाम मोड़ और वे तमाम गलियां जो शायद रगों की तरह उनके अपने अंदर भी फैली हुई थीं. वे कहती हैं कि बचपन में मीठी गोलियां खरीदने हाथ में दो पैसे लेकर घर से निकलते थे, पैदल, तो क्योंकर वे रास्ते कभी भूल सकती हैं. लेकिन जिस बचपन के घर की खोज में वे निकलीं थी, वह घर उन्हें कहीं दिखा नहीं. वे आगे कहती हैं कि वे बड़े अच्छे दिन थे.[3]
उनमें कतई बड़बोलापन नहीं, ज़रा सा भी दर्प नहीं, बखान नहीं, सब करनी गुरु की है. क्या उनकी कला जन्मजात है, पूछने पर वे नकार देती हैं. बड़ी ईमानदारी से वे मानती हैं कि उनका हुनर जन्मजात नहीं. कहती हैं कि आवाज़ ईश्वर की देन हो सकती है पर संगीत तो गहन श्रम से सीखना पड़ता है, राह बनानी पड़ती है, अर्जित करना पड़ता है. अपनी गायकी का सारा श्रेय वे क्लासिकी संगीत की तरबियत को ही देती हैं. कहतीं हैं कि संगीत की तमाम धाराएं, तमाम रूप क्लासिकी स्रोतों ही से तो निकले हैं.
यह पूछने पर की ठुमरी और ख्याल गायकी की जगह उन्होंने ग़ज़ल को क्यों चुना तो फ़रीदा कहती हैं कि उस समय रागदारी के आसमान पर बहुत से चमकदार सितारे थे… उमेद अली खां, नज़ाकत-सलामत अली, अमानत अली खां, रोशन आरा बेगम, इकबाल बानू, बरकत अली खां, तो मैंने तय किया कि इनके सामने रागदारी क्या करूँ, और यों शुरू हुआ गज़ल का सफर. और उन्होंने ग़ज़ल को ही अपने लिए चुन लिया.[4] ग़ज़ल का खास रोमानी अंदाज़ उन्हें खूब भाया. हालांकि ठुमरी अंग की ग़ज़ल गायक़ी का उनका ये अंदाज फूटा था क्लासिकी रागों की तरबियत ही से. वे बेगम अख्तर की ग़ज़लें सुनते हुए बड़ी हो रही थीं, और उनकी एक खास ग़ज़ल अक्सर गुनगुनाया करतीं…
दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे.
वर्ना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे.
और यों संगीत के सुरों की, लफ़्ज़ों की, अबूझ भावों और अर्थों से जन्मी दीवानगी उन पर तारी होती चली गई. वे याद करतीं हुई बताती हैं कि 1947 में एक महीने तक उनका परिवार मौजूदा पाकिस्तान के पहाड़ी स्थल मरी में ठिठुरता रहा, और वहीं उन्होंने सुना कि दो देश बन गए, और वे ‘घर’ न लौट सकीं. वहां से फिर शहर शहर भटकना हुआ, रावलपिंडी, कराची, शायद पेशावर भी. न जाने कितने घर बदले, लेकिन घर से बेघर हुए परिवार को कहीं राहत और सुकून न मिल पा रहा था. रावलपिंडी के एक घर को याद करती हुई वे कहती हैं कि वह सिखों की छूटी हुई बहुत बड़ी हवेली थी. उसमें वे, उनकी माँ और दो छोटे भाई. चारों तरफ कमरे और बीच में बड़ा सा सहन. लेकिन उनकी मां के दिल मे डर समा गया. उन्हें लगता कि कुएं से कोई रूह रात में निकलती है और भटकती है. अतः डर से वह घर भी छूटा. वे आगे बताती हैं कि हर शहर का भी अपना चरित्र और मिज़ाज़ होता है, रावलपिंडी में बसने की सोची तो वहां इतना ज्यादा पर्दा था कि क्या कहिये, संगीत का तो नाम ही लेना मुश्किल था. खैर किसी तरह लाहौर आये और वहीं रहना हुआ. वहीं विवाह हुआ. रेडियो में पहला प्रोग्राम शायद 1950 में हुआ. वे काफी छोटी उम्र में रेडियो पाकिस्तान की गायिका बनीं और फिर टेलीविज़न और संगीत के कॉन्सर्ट्स में गातीं रहीं.[5]
आज बेगम अख्तर के बाद ग़ज़ल की मलिका कही जाने वाली फ़रीदा ख़ानम की ज़िंदगी में तीन पड़ाव महत्वपूर्ण लगते हैं, जिन्होंने शायद भीतरी छटपटाहट को और दुर्दम बनाया होगा. यों तो पिता की मृत्यु जल्दी हो गई थी. फिर भी पहला बड़ा उखड़ाव 1947 में हुआ जब फ़िज़ा धार्मिक उन्माद के विष से भर गई और अपने ही घर से बेघर हो जाना पड़ा. इसके बाद एक ‘घर‘ की तलाश बनी रही, लेकिन शायद स्थाई ‘घर’ उन्हें संगीत के सुरों, शायरों की ग़ज़लों, गीतों और नज़्मों में ही मिल पाया। पीछे जो वक्त और ‘घर’ छूटा, बंगाल हो या पंजाब, वहां शास्त्रीय संगीत की शमाएं जल रहीं थीं, आगे जो वक्त आया, वहां भी संगीत के सहारे उन्होंने अपना ‘घर’, अपनी पहचान रची और कैदे हयात से अपने सुरों के पंखों पर सवार ऊपर उठती गईं. इसी के सहारे लांघीं, उन्होंने औरत होने की सीमाएं, देशों की सरहदें, धर्म और जाति के बंधन. उनकी आवाज़ हवा की तरह बहती रही, दरियाओं, समंदरों को लांघ, दुनिया के हर सरगोशे तक जा पहुंची.
उनकी ज़िंदगी का दूसरा मोड़ था उनका विवाह और अपना एक परिवार बसाना. वे कहती हैं कि यह ज़रूरी था, और इससे बहुत कुछ पाया भी- पर संगीत बिल्कुल बंद था. इसके लिए गुंजाइश नहीं बन पा रही थी. वे साफ कहती हैं कि रियाज़ भी बिल्कुल नहीं हो पाया. जो हुआ सो पहले ही हुआ. लेकिन फिर कराची में एक बड़ी कान्फ्रेंस हुई जिसमें पाकिस्तान के तमाम गुणीजन पधारे. वहां फ़रीदा खानम भी गईं. और उन्होंने फैज़, दाग़ और आगा साहब की ग़जलें गाईं और उसके बाद उनका गाने का सिलसिला चल निकला.
उनके संगीत के लिए तीसरा और अजब दौर 1980 के दशक में तब सामने आया, जब पाकिस्तान में धार्मिक कानून अर्थात शूराक्रेसी (जनरल जिया उल हक का दौर) लागू हुई. इसी समय अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप हुआ. और धार्मिक कट्टरता के दौर में फ़रीदा खानम पर भी हज़ार बंदिशें लग गईं. उनकी गायीं कई ग़ज़लों के शब्द कानों में गूंजते हैं,और उनमें व्यक्तिगत एवं सामाजिक त्रासदियों की अबूझ से अनुगूंजें सुनाई देने लगतीं हैं- है यहां नाम इश्क़ का लेना, अपने पीछे बला लगा लेना. (मौलाना मुहम्मद अली जौहर का कलाम, राग नट नारायण एवं देसी तोड़ी के सुरों का मिलाप) या फिर शायर अतर नफ़ीस की यह ग़ज़ल- वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया, अब उसका हाल बताएं क्या कोई मेहर नहीं कोई कहर नहीं, फिर सच्चा शेर सुनाएं क्या.
वो ज़हर जो दिल में उतार दिया,
फिर उसके नाज़ उठाएं क्या…
एक आग ग़मे तन्हाई की,
जो सारे बदन में फैल गई,
जब जिस्म ही सारा जलता हो,
फिर दामने दिल को बचाएं क्या.
फ़रीदा ख़ानम की आवाज़ का टेक्सचर बेहद अलग है. बहुत ऊंचे स्वरमान पर गाने वालों से बेहद अलग उनका कुछ नीचा स्वरमान, थोड़ी भारी, कुछ कुछ ऐन्द्रिय सी आवाज़, बेमालूम सी खराश लिए जैसे कोई खूबसूरत ग्रेन हो आवाज़ में. आवाज़ का यह स्पर्शी गुण उन्हें सब से अलग कर देता है.
उनकी छवियां याद आती हैं, साड़ी का पल्ला एक कांधे से घुमा कर दूजे कांधे पर लपेटे, खूबसूरत काली आंखों में काजल, आंखों में चमकते चाँद, काले बालों में फूल, झूमते झुमके, और बेहतरीन शायरों के कितने नाज़ुक, कितने गहन, कितनी खलिश भरे अशआर. ग़ालिब से लेकर दाग देहलवी, अमीर मीनाई, अल्लामा इकबाल, फ़ैज़, मुनीर नियाज़ी, आगा हश्र काश्मीरी से लेकर शकील बदायुनी, सलीम गिलानी तक. इन्हें वे इतने भाव से गातीं कि शेर के मानी और वे मानो एक हो गए हों. एक एक पंक्ति के अर्थ, या कि अर्थ नहीं बल्कि अनुभव खुल-खुल पड़ते, और सीधे दिल मे उतर जाते. उनका यों आना और गाना मानों ‘चमन में रंगेबहार’ (मुनीर नियाज़ी) का आना होता… ग़ज़ल तो अब भी गाई जाती है पर ऐसी ग़ज़ल तो नहीं. इस तरह की शैली के पीछे बड़ी पुख्ता शास्त्रीय पकड़ है. राग-रागिनियों के स्वर संसार में फ़रीदा ख़ानम बेलौस घूमती हैं, गाते वक्त तरह तरह से नवोन्मेष करती हुईं. उनका कहना भी है कि वे शब्दों के अर्थों के अनुरूप सुर लगाती हैं, तभी तो अर्थ भाव बन जाते हैं.
ग़ज़ल के एक एक शब्द में, एक एक पंक्ति में तहों के भीतर तहें छुपी रहती हैं, जो गाते वक्त इम्प्रोवाईजेशन से उन्मीलित होती हैं- कहीं वियोग का छटपटाता दर्द, कहीं अनख, स्वाभिमान, कहीं सदा और पुकार, कहीं भावों का आरोहण कहीं गहन समर्पण और अवरोहण, उतराईयां, दर्शन के तल और दृष्टियां. लेकिन यह सब उभारती हैं ख़ानम अपनी संवेदना और कला के सहारे से. कभी यों भी लगता है कि वह शायर की भावनाओं को केवल अपने सुर नहीं बक्श रहीं हैं, बल्कि उनकी गाई हुई ग़ज़ल उनकी अपनी सांगीतिक एवम् भावमय व्याख्या बन जाती है. कुछ कुछ उसी तरह जैसे शेक्सपीयर के पात्रों को हर अदाकार अपनी अपनी तरह जीता, और व्याख्यायित करता है. ऐसे में ग़ज़ल उनकी अपनी ग़ज़ल हो जाती है, उनके भीतर समा जाती है, रक्त कणों में बहती है, रगों में उतर जाती है तब बाहर आती है. श्रोता भी एक ही ग़ज़ल में कइयों को सुनता है, शायर को, गायक को, लेकिन इन सब के माध्यम से वह भी तो अपने अनुभव संसार की परतें खोलता है, सर धुनता है और अश अश कर उठता है. शायर, गायक, श्रोता, सब प्राण ज्यों एक होकर धड़कने लगते हैं, स्तब्ध, दम साधे गुम होते जाते हैं, बद्धताएँ, ग्रंथियां, और पीड़ाएँ घुलती जाती हैं, कुछ भी पराया नही रहता, सब अपना हो जाता है. कुछ ऐसे
रात जो तूने दीप बुझाये, मेरे थे.
अश्क जो तारीकी ने छुपाये मेरे थे. मेरे थे
वो ख्वाब जो तूने छीन लिए गीत जो होंठों पर मुरझाए, मेरे थे.
(सलीम गिलानी)
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संर्दभ
[1]खानम, फरीदा (अ लाइफ़ इन म्यूज़िक : फरीदा खानम भाग
एक) कोलकाता लिटरेरी मीट, 5 मई, 2014 (यू ट्यूब) https://www.youtube.com/watch?v=kI0Yd1K9Zlg .
[2] वही, भाग एक व दो (यू ट्यूब) भाग एक https://www.youtube.com/watch?v=kI0Yd1K9Zlg । भाग दो https://www.youtube.com/watch?v=asxXtl6ebc8
[3]वही, भाग एक (यू ट्यूब) https://www.youtube.com/watch?v=kI0Yd1K9Zlg
[4] खानम फरीदा, (इन्टर्व्यूड बाई रवींद्र कौल भाग एक) 7 मई 2011 में ज़ी काश्मीर पर प्रसारित (यू ट्यूब)
[5]खानम, फरीदा (अ लाइफ़ इन म्यूज़िक : फरीदा खानम भाग दो) कोलकाता लिटरेरी मीट, 5 मई, 2014 (यू ट्यूब) https://www.youtube.com/watch?v=asxXtl6ebc8
सुमनिका सेठी |