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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : अनामिका

सहजि सहजि गुन रमैं : अनामिका

अनामिका १७ अगस्त १९६१, मुजफ्फरपुर(बिहार)दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी में एम.ए., पी.एचडी. कविता-संग्रह : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब धान आलोचना : पोस्ट–एलियट पोएट्री ,स्त्रीत्व का मानचित्र , तिरियाचरित्रम; उत्तरकांड, मन मांजने की जरूरत, पानी जो पत्थर पीता है.   एक ठो शहर : एक गो लड़की (शहरगाथा), प्रतिनायक (कहानी संग्रह), अवांतर कथा, पर कौन सुनेगा, दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास (उपन्यास) अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कनार्ड ), रिल्के की कविताएँ , एफ्रो –इंग्लिश पोएम्स , अटलांट […]

by arun dev
May 13, 2012
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अनामिका
१७ अगस्त १९६१, मुजफ्फरपुर(बिहार)
दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी में एम.ए., पी.एचडी.
कविता-संग्रह : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब धान
आलोचना : पोस्ट–एलियट पोएट्री ,स्त्रीत्व का मानचित्र , तिरियाचरित्रम; उत्तरकांड, मन मांजने की जरूरत, पानी जो पत्थर पीता है.  
एक ठो शहर : एक गो लड़की (शहरगाथा), प्रतिनायक (कहानी संग्रह), अवांतर कथा, पर कौन सुनेगा, दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास (उपन्यास)
अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कनार्ड ), रिल्के की कविताएँ , एफ्रो –इंग्लिश पोएम्स , अटलांट के आर–पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें ( विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ )
सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान और साहित्यकार सम्मान
सम्प्रति:  अँग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय
ई पता : anamikapoetry@gmail.com


वरिष्ठ कवयित्री अनामिका हिंदी कविता में चेतस और संवेदित काव्य-संस्कृति के लिए जानी जाती हैं. उनकी कविताएँ मध्यवर्गीय स्त्री की पीड़ित उपस्थिति और आक्रमक तेवर से आगे जाती है, और सभ्यागत विडम्बना में स्त्री और पुरुष के आपसी विपर्यय पर अपना ध्यान रखती हैं. उनकी कविताएँ मासूम और मानवीय मूल्यों के क्षरण से विचलित हैं. उनका संसार बहिनापा का एक व्यापक वृत्त बनाता है.
शब्द सम्पदा खासी नई और सृजनात्मक है. स्त्री अनुभव को व्यक्त करने के लिए वह प्रदत्त शब्द संरचना को बदलती हैं. स्त्री – जीवन से जुड़े अनेक शब्द अपने सन्दर्भों के साथ आते हैं.उनकी कुछ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं. 

  प्रेम के लिए फांसी (ऑन ऑनर किलिंग)

मीरारानी तुम तो फिर भी खुशकिस्मत थीं ,
तुम्हे जहर का प्याला जिसने भी भेजा,
वह भाई तुम्हारा नहीं था,

भाई भी भेज रहे हैं इन दिनों
जहर के प्याले !

कान्हा जी जहर से बचा भी लें,
कहर से बचायेंगे कैसे !

दिल टूटने की दवा
मियाँ लुकमान अली के पास भी तो नहीं होती !

भाई ने जो भेजा होता
प्याला जहर का,
तुम भी मीराबाई डंके की चोट पर
हंसकर कैसे ज़ाहिर करतीं कि
साथ तुम्हारे हुआ क्या !

\”राणा जी ने भेजा विष का प्याला\”
कह पाना फिर भी आसान था,

\”भैया ने भेजा\”- ये कहते हुए
जीभ कटती
!

कि याद आते वे झूले जो उसने झुलाए थे
बचपन में,
स्मृतियाँ कशमकश मचातीं;
ठगे से खड़े रहते
राह रोककर

सामा–चकवा और बजरी–गोधन के सब गीत :
\”राजा भैया चल ले अहेरिया,
रानी बहिनी देली आसीस हो न,
भैया के सिर सोहे पगड़ी,
भौजी के सिर सेंदुर हो न
…\”

हंसकर तुम यही सोचतीं–
भैया को इस बार
मेरा ही आखेट करने की सूझी ?
स्मृतियाँ उसके लिए क्या नहीं थीं ?

स्नेह, सम्पदा, धीरज–सहिष्णुता
क्यों मेरे ही हिस्से आई,

क्यों बाबा ने
ये उसके नाम नहीं लिखीं?

नमक

नमक दुःख है धरती का और उसका स्वाद भी !
पृथ्वी का तीन भाग नमकीन पानी है
और आदमी का दिल नमक का पहाड़
कमज़ोर है दिल नमक का
कितनी जल्दी पसीज जाता है
!
गड़ जाता है शर्म से
जब फेंकी जाती हैं थालियाँ
दाल में नमक कम या ज़रा तेज़ होने पर
!

वो जो खड़े हैं न –
सरकारी दफ्तर
–
शाही नमकदान हैं

बड़ी नफासत से छिड़क देते हैं हरदम
हमारे जले पर नमक !

जिनके चेहरे पर नमक है
पूछिए उन औरतों से –
कितना भारी पड़ता है उनको
उनके चेहरे का नमक
!

जिन्हें नमक की कीमत करनी होती है अदा –
उन नमकहलालों से
रंज रखता है महासागर
!

दुनिया में होने न दीं उन्होंने क्रांतियाँ,
रहम खा गए दुश्मनों पर !

गाँधी जी जानते थे नमक की कीमत
और अमरूदों वाली मुनिया भी!

दुनिया में कुछ और रहे–न–रहे
रहेगा नमक
–
ईश्वर के आंसू और आदमी का पसीना
–
ये ही वो नमक है जिससे
थिराई रहेगी ये दुनिया
. 

अनब्याही औरतें 

\”माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री
!\”
जब भी सुनती हूँ मैं गीत,
आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं !

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा !
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता
–चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार
–बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है !

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही–सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा !

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला !

लोग मिले – पर कैसे–कैसे –
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ,
सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं,
 सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं,
 मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं,
 केवल कट्टर

कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर –
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे
.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल
!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से
–
\”एकोहऽम बहुस्याम
\”

वो देखो वो –
प्याले धोता नन्हा घनश्याम
!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न
!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना !

पूर्णग्रहण

पूर्णग्रहण काल था ये !
बरसों की बिछड़ी हुई दो वृद्ध बहनें
–
चाँद और धरती
–
आलिंगनबद्ध खड़ी थीं
–
निश्चल
!

ग्रहण नहाने आई थीं औरतें
सरयू के तट पर
गठरी उनके दुखों की
उनकी गोद में पड़ी थी !

वृद्धा बहनों के इस महामिलन पर
उनके मन में थी सुगबुगाहट,
उलटी हथेली से पोंछती हुई आंसू
एक ने कहा दूसरी से–

\”चरखे दोनों को
दहेज़ में मिले थे !
धरती की संततियों को एक अनंत चीर चाहिए
!

तंगई बहुत है यहाँ, है न !
सो धरती में चरखे रुकने का नाम ही नहीं लेते
!

हाँ, चाँद की बुढ़िया तो है निपूती,
किसके लिए चलाये भला चरखा,
क्या करे अपने इस टूटे कपास का ?

कबी–कभी नैहर आती है
तो कुछ
–कुछ बुन लाती है.

इतने बरस बीते,
जस–की–तस है चाँद की बुढ़िया !
देखो तो क्या कह रही है वह
धरती की ठुड्डी उठाकर
–
कितनी सुंदर तुम हुआ करती थीं दीदी,
रह गई हो अब तो
झुर्रियों की पोटली
!

यह बात मेरे भी दिल में लगी,
मैंने भी धरती की ठुड्डी उठाई
और उसे गौर से देखा! डूब गई थीं उसकी आँखें !
चूस लिया था हमने उसको तो पूरा ही
!
काँप रही थी वह धीरे
–धीरे! कितना बुखार था उसे !

इतने में दौड़ता हुआ आया मेरा बहन–बेटा,
उसके हाथों में भूगोल की किताब थी,

उसने कहा– मौसी,
टीचर कहती हैं,
नारंगी है पृथ्वी
!

मैंने मुंह पर पानी छ्पकाकर कहा –
नारंगी जैसी लगती है वह,
लेकिन नारंगी नहीं है
–

कि एक–एक फांक चूसकर
दूर फेंक दी जाए सीठी
!\”

विस्फोट

                  तड़ी पार शब्दों में
बनते हैं गीत,
इसलिए पुकार के लिए अच्छे हैं
चिड़िया ने चिड़े से कहा
–
विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले
.

विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले
किसी ने वादा किया था–
जिन्दगी का पहला वादा
–
घास की सादगी और हृदय की पूरी सच्चाई से
.

खायी थीं साथ–साथ जीने–मरने की कसमें !

विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले
किसी ने चूमा था नवजात का माथा !

कोई खूंखार पत्नी की नज़रें मिलाकर
बैठा था बीमार माँ के सिरहाने,

कोई कटखने बाप से छुपाकर
लाई थी पिटे हुए बच्चों का खाना
विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले.

किसी को नौकरी मिली थी
सदियों के इंतज़ार के बाद
विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले.

अभी–अभी कोई सत्यकाम
जीता था सर्वोच्च न्यायालय से
लोकहित का कोई मुकद्दमा
तीस बरस में अनुपम धीरज के बाद
!

घिस गई थी निब –कलम भी,
कलम जो किताबें लिख सकती थीं,
लगातार लिखती रही थीं रिट
–पिटीशन.

घिस गए थे जूतों के तल्ले
धंस गए थे गाल!

किला फतह करके वह निकला ही था कचहरी से
दोस्तों को बतायेगा–
जीत गए थे सारे सत्यमेव
– जयते
पहला ही नंबर घुमाया था
विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले
.

अहिंसा परमो धर्म: गाती थी बिल्ली
अस्सी चूहे खाकर हज को जाती
.

अहिंसा परमो धर्म:
बगुला कहता था मछली से,
परमाणु बम कहता था नागासाकी से
विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले
!

क्या ईश्वर है अहिंसा?
डुगडुगी बजती रहती है
बस उसके नाम की
पर वह दिखाई नहीं देती!

मंदिर के ऊंचे कंगूरे ने
मस्जिद की गुम्बद से पूछा
सहम के
विस्फोट के ऐन एक मिनिट पहले.

                   खुद क्या मैं कम ऐसी–वैसी हूँ?
मेरा सत्यानाश हो,
मैं ही कीकर हूँ,चिड़िया,नदी,और पर्वत,
बिच्छू और मंजरी
–समेत
एक धरती हूँ पूरी
–की–पूरी,

मैं ही हूँ धरती की जिद्दी धमक–
\’क्यों
–कैसे–\’हाँ–ना\’ से पूरी हुई रस्सी!
और मुई रस्सी के बारे में कौन नहीं जानता
–
रस्सी जो जल भी गई तो
बलखाना नहीं छोडती
!
 

कुछ तो

कुछ तो हो !
कोई पत्ता तो कहीं डोले
कोई तो बात होनी चाहिए अब जिन्दगी में
बोलने मैं समझने
– जैसी कोई बात ,
चलने में पहुँचने
– जैसी
करने में हो जाने
– जैसी कोई तरंग

या मौला, क्या हो रहा है यह
ओंठ चल रहे हैं लगातार
शब्द से अर्थ खेलते हैं कुट्टी–कुट्टी
पर बात कहीं भी नहीं पहुँच पाती
.

जो देखो वो है सवार
कोई किसी के कंधे पर
कोई ऐन आपके ही सिर
सब हैं सवार
सब जा रहे हैं कहीं न कहीं
कहीं बिना पहुंचे हुए !

जैसे कि ज़ार निकोलाई ने
ज़ारी किया हो कोई फरमान.

जो भी किसान दे नहीं पाए हैं लगान
जाएँ वहां न जाने कहाँ
लायें उसे न जाने किसे.

क्या लाने निकले थे घर से हम भूल गए
कुट्टी–कुट्टी खेलते से  मिले हमको
मिट्टी से पेटेंटिड बीज
!
वहीँ कहीं मिट्टी में
मिट्टी
–मिट्टी से हुए सब अरमान

होरियों ने गोदान के पहले
कर दिया आत्मदान
आत्महत्या एक हत्या ही थी
धारावाहिक !
सुदूर पश्चिम से चल रहे थे अगिन बाण
:
ईश्वर
–से अदृश्य
हर जगह है ट्रैफिक जैम
सड़कों से टूट गया है
अपने सारे ठिकानों का वास्ता
.

सदियों से बिलकुल खराब पड़े
घर के बुज़ुर्ग लैंडलाइन की तरह
हम भी दे देते हैं गलत–सलत सिग्नल

कोई भी नंबर लगाए
कहीं दूर से
तो आते हैं हमसे
सर्वदा ही व्यस्त होने  के
कातर और झूठे संदेशे!

काहे की व्यस्तता !
कुछ तो नहीं होता
पर रिसीवर ऑफ हो
या कि टूट गया हो बिज़ी कनेक्शन
सार्वजानिक बक्से से
तो ऐसा होता है, है न
–
लगातार आते हैं व्यस्त होने के गलत सिग्नल

कुछ तो हो!
कोई पत्ता तो कहीं डोले
!
कोई तो बात होनी चाहिए जिन्दगी में अब
!
बोलने में समझने
– जैसे कोई बात!
चलने में पहुँचने
– जैसी
करने में कुछ हो जाने
–जैसी तरंग!

_________________________________
पेंटिग : ANAND-PANCHAL
इन कविताएँ को अनामिका जी से लेने और टंकित करके समालोचन तक भेजने में अपर्णा मनोज, लीना मल्होत्रा राव. सईद अयूब का सहयोग है
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