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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : अपर्णा मनोज

सहजि सहजि गुन रमैं : अपर्णा मनोज

पेंटिग : Paresh Maity: SUNLIGHT अपर्णा मनोज कविताएँ लिख रही हैं, कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनके अनुवादों ने भी ध्यान खींचा है. प्रस्तुत कविताओं का वितान वैश्विक है. दुनिया में जहाँ- जहाँ भी दर्द हैं ये कविताएँ वहां वहां जाती हैं. ये कवितायेँ हिंदी कविताओं की पहुंच का पता देती हैं. एक अर्थ में ‘लोकल’ […]

by arun dev
November 16, 2015
in कविता, साहित्य
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पेंटिग : Paresh Maity: SUNLIGHT



अपर्णा मनोज कविताएँ लिख रही हैं, कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनके अनुवादों ने भी ध्यान खींचा है. प्रस्तुत कविताओं का वितान वैश्विक है. दुनिया में जहाँ- जहाँ भी दर्द हैं ये कविताएँ वहां वहां जाती हैं. ये कवितायेँ हिंदी कविताओं की पहुंच का पता देती हैं. एक अर्थ में ‘लोकल’ होने के साथ है हर व्यक्ति विश्व-प्राणी भी है. हर घटना घटनाओं का सिलसिला है. इन कविताओं में संवेदना, विचार और शिल्प की परिपक्वता दिखती है.



अपर्णा मनोज की कविताएँ                                                    


असहिष्णुता:

इसे मेरी असहिष्णुता ही समझ लिया जाए
और केवल इसलिए मेरी हत्या कर दी जाए 
कि मुझे मास्टर जी जम नहीं रहे
कि स्कूल की वर्दी का कोई रंग मुझे माफ़िक नहीं आ रहा  
कि ये ख़ास सिलाइयाँ, ये ख़ास टाँके
कि ये ख़ास जिस्म और ये ख़ास दिमाग
कि ये ख़ास तरह के खौफ़
ये ख़ास इमारतें, ये ख़ास इबारतें
कि मुझे दरी -पट्टी साथ
कि मुझे कलम- कागज़ साथ
बोलना चाहिए अब
मास्साब बीच से इस डंडे को हटाइए.
एक गैरमक्बूल सच के लिए
हमें बोलना चाहिए अब.
कि ये केवल पत्तों के टूटने की आवाज़ नहीं
कि ये रातभर फूलों का झड़ना नहीं
कि ओस और आसमान
परिंदे, नदियाँ और पहाड़
कि ये समंदर और सैलाब की निसाबे तालीम नहीं
निशानेराह और निशानेमील का सबक भी नहीं      
ये केवल चौराहे से फूटती सड़कों की बात नहीं
ये केवल रेलों का आना-जाना भी नहीं
कि मैं इस कदर भी खल्वतगाह में नहीं रहना चाहती
कि मुझे गुमशुदा समझ लिया जाए
एक संकरी प्रेम गली में
क्या सच में वे दो समा नहीं सकते?
इतना तो पूछना चाहिए मुझे, मास्साब अब.

ख़त:

डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
वे आ रहे हैं
रवांडा वे आ रहे –
बोस्निया के इतिहास, 1915 के मासूम आर्मीनिया
वे आ गए सूडान- डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
  
दुनिया के कुओं-मैं अपने कबीले की सारी बाल्टियाँ और रस्सियाँ तुम्हें सौंपता हूँ
तुम्हारे मीठे जल के लिए कोई सदी फिर लौट आये मिलने तुमसे!
दुनिया के चारागाहों मैं बीजों की पोटली और मन्नत की घंटियाँ तुम्हारे हवाले करता हूँ कि एक दिन जब सुबह को सांझ का इंतज़ार हो
तो वह लौटे हमारे मवेशियों के साथ
मैं अपनी लड़कियां कहीं छिपा नहीं सका. मुझे माफ़ करना सितारों के सरदार!
पर मैंने ख़त भेजे हैं उनकी याद में –
दुनिया की घनी आबादियों को
खार्तूम और दुनिया की ख़ूबसूरत राजधानियों को
हर पार्लियामेंट को, संसद को, कॉंग्रेस,  बून्देस्ताग और मजलिस को
मैंने साफ़-साफ़ लिखा है-
कि दुनिया की गलियों में
हमारी स्मृति में रैलियां निकालो, हर बच्चे को मोमबत्ती जलाना सिखाओ
हर युवा को मैंने छोटे-छोटे झंडे भेजे हैं –सेफ्टीपिन से अपनी जेब पर टांक लो
दुनिया के हर कवि को मैंने ‘शब्द’ पार्सल किये हैं
हर धर्म के पास मैंने इबादत भेजी है
मैंने अपना सारा सामान दुनिया के म्यूज़ियमों को भेजा है
जादू-टोने, मन्त्र और बुद्ध की मूर्तियों की अनगिनत प्रतियाँ दुनिया के महानायकों को भेज चुका हूँ.
यू एन ओ को ‘शांति’ की अपील भेजी है और साथ में अपने पेड़ों, बाग़-बगीचों, नदियों, मैदानों और पक्षियों के डी एन ए सैम्पल भी
मैंने तमाम अस्पतालों से कहा है कि हमारे एकमुश्त अंगों को ले जाओ
हमारी आँखें बहुत दूर तक देखती थीं
हमारे कंठ बहुत मधुर थे और खून बहुत साफ़
हमारे गुर्दे अब भी प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं
डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक, वे आ रहे हैं ..वे रौंदें
इसके पहले दुनिया के ‘महान जनवाद’
हमारी आत्माओं को किसी सुरक्षित जगह पहुंचा दो.
पहुंचा दो ……
प्यार और दुलार के साथ तुम्हारा डरफर!

छुटकारा:

दोस्त 
छुटकारा कहीं नहीं है
हम जो कभी एक दूसरे से दूर भागते हैं
इसका अर्थ यह नहीं कि कोई ओर नहीं, छोर नहीं हमारा
और हम कहीं भी भाग छूटेंगे
पृथ्वी की परिधियों से आज तक कोई नाविक नहीं गिरा किसी शून्य में
सब चलते रहे
चलने की चाह में हम बार-बार वामन हुए 
पृथ्वी भी साथ-साथ चलती रही, उठती रही, बढ़ती रही
कदमताल एक –दो, एक –दो –एक
अंतरिक्ष की गुफ़ा में
धरती एक ठिगना गोरखा.

फांक:

पहली-दूजी कक्षाओं तक मैं यह समझती रही कि
धरती एक नारंगी है 
शरबती फांकोंवाली
मीठी खट्टी
पर बड़े होने पर फांक के अर्थ ही बदल गए
सचमुच की फांक बीच आ गई 
नारंगी का ज़ायका फिलिस्तीनी हो गया
मुझे लगा कि मेरी देह में यहूदियों की प्राचीन बस्ती है
मुझे लगा कि मैं एक निर्वासित फांक हूँ
मुझे लगा कि नारंगी से छिटककर मैं कहीं दूर जा गिरी हूँ
मैं एक विस्थापित समय का अनपढ़ अंगूठा हूँ
बार-बार किसी सुफ़ैद कागज़ पर लगा नीला ठप्पा.
मैं फोरेंसिकी विभाग में
अपना पता पूछती रही.
उन्होंने मेरे हाथ में इज़राइल की फांक रख दी
मैं उस फांक को लिए चप्पा-चप्पा घूमी
फांक को जोड़ने के लिए दूसरी फांक नहीं थी
फांक में टूटे-फूटे घर मिले
टूटे-फूटे नाम मिले                    
अधजली रोटियां चूल्हे-चौके मिले
छूटे सामान, खत, डायरियां, तस्वीरें, खिलौने, रेडियो, टी.वी, मोबाइल
इस टूट-फूट को सँभालने रोज़ डाकिया आता है  
पार्सल, चिट्ठियों की प्रतिध्वनियाँ
डाकिये के पैरों की आवाज़
सोचती हूँ पतों पर लौट आयेंगे इनके पंछी
वंश-वृक्ष पर नारंगियाँ लटकेंगी बच्चों के लिए
अनभै सांचा.

चित्र और चित्रकार:

कितनी अजीब बात थी
एक दिन कब्र में आँख लगी मेरी
और मकबूल फ़िदा हुसैन का वह चित्र मेरी आँख में पूरी उर्वरता के साथ दहकता रहा
एक औरत की गुलमोहर छाती थी या वही नारंगी धरती
मुझे लगा कि मैं सीरिया हो गई हूँ
और मेरे बच्चे मेरी पीठ से बंधे हैं
मेरी बांह पर झूल रहे हैं
मेरे पैरों से लिपट रहे हैं
दुनिया एक मख्तूम दर्द में बदल गयी
बचे हुए बच्चे आदिम जिद में थे
बर्फ के पहाड़ का गोला खाना चाहते थे 
चाहते-चाहते उनकी चाहत आहत हुई, चाहना बंद न हुआ
चाहते कि सारी दुनिया आइसक्रीम का ठेला हो जाए
ऑरेंज बार की चुस्कियों में  
दुनिया मुहब्बत का मेला हो जाए.
बच्चों को हिंडोले में झूलना चाहिए
उनकी दादी का अंजन- ख़्वाब था
बच्चों के नज़रिए बनाते वक्त, लोई उबटन के वक्त
लोरियों की नूरअफ्शां रातों के वक्त
दादी अपने ख्व़ाब में अलादीन का चिराग घिसती
और हिंडोले मांगती दुनिया के बच्चों के लिए
सीरिया में दादी वही करती जो हिंदुस्तान में करती
हिंडोलों का इतिहास दादी पोतियों की चोटियाँ गूंथते वक्त दोहराती
लाल-पीले रिबनों से कितने हिंडोले गुँथ जाते
मकबूल की दादी ने भी उसकी हथेली पर ही हिंडोला रख दिया होगा
मेला और हिंडोला.
दुनिया और नारंगी
नारंगी और फांकें
आजकल कई दिनों से सीरिया की फांक दुनिया में बंट रही 
मकबूल की पेंटिंग में बहुत साल पहले न जाने कौन-सा सीरिया उपस्थित था?
या बचपन में किसी जाइंट-व्हील में अपने ही बैठे होने की कोई धूसर तस्वीर थी?
या कि मकबूल की नीली नस 
रंगना चाहती बेसबब –
दुनिया के बच्चे हिंडोले में झूल रहे हैं
झूल रहे हैं
आइसलैंड से चिली तक झूल रहे हैं
पूरब-पश्चिम  मकबूल की कूची पर –
मानव-चक्का आसमान और धरती बीच घूम रहा
अचानक चक्का रुक जाता 
कोई हिंडोले से उतर आया
हिंडोले में कोई और चढ़ रहा
वह देखो फ़िदा हुसैन किस दिशा जा रहा
पीछे खाली झूला..हवा से हिल रहा, हिल रहा और सामने
फैला है निर्वासन
मुश्किल है चित्र के उस पार जाना.
_____________________________________________
अपर्णा मनोज
aparnashrey@gmail.com
Tags: अपर्णा मनोज
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