निवेदिता : ४ अप्रैल १९६५,पटना
रंगकर्मी,एक्टिविस्ट और पत्रकार
स्त्री मुद्दों पर लेखन- बालिका शोषण की उनकी कहानी प्रकाशित
OXFAM द्वारा अखबारों में हिंसा पर शोध-पत्र
Magnitude of Witch hunting in Bihar पर शोध कार्य
फिलहाल हिंदी दैनिक नई दुनिया में
ई-पता: niveditajha065@rediffmail.com
ई-पता: niveditajha065@rediffmail.com
निवेदिता के काव्य संसार में पहले प्रेम जैसा चटख रंग और आकुलता है. यह प्रेम समाज और प्रकृति से जुड़ कर और गहरा हुआ है.इसमें वंचना और गैर-बराबरी की पहचान का सयानापन भी है.यहाँ उम्र निस्तेज और बेरौनक होने का पर्याय नहीं, यह सुर्ख गुलाब की तरह खिलने और विहसने का अवसर है. राग और रस से भीगे इस सृष्टि के लिए गहरा अनुराग है कवयित्री में.
ASIT SARKAR
जन्म लेगी नई स्त्री
सुनो साधो सुनो
जो सच तुमने दुनियां के सामने रखा
जो इतिहास तुमने रचा
और कहा यही है स्त्रियों का सच
अपने दिल पर हाथ रख कर कहना
कितने झूठ गढे हैं तुमने
कितनी बेड़िया बनाई तुमने
तुमने जो कहा
वह स्त्रियों की गाथा नहीं थी
वहां द्रोपदी का चीर हरण था
गांधारी की आंखों पर पट्टी थी
वेदना को धर्म और वंचना को त्याग कहा तुमने
साधो इसबार स्त्रियां अपनी गाथा खुद लिखेंगी
यह सच है कि उसने अभी-अभी अक्षर पहचाना है
फिर भी, टेढ़ी मेढी लकीरों से रच रही है नया इतिहास
अनगढ़ हाथों से नये शब्द गढ़े जा रहे हैं
रची जा रही है एक नई दुनियां
जहां चीर हरण होने पर वह भरी
सभा में प्रार्थना नहीं करेगी
नहीं मागेंगी देवताओं से लज्जा की भीख
वह टूटती-बिखरती खुद खड़ी होगी
उसके भीतर एक आग छुपी है साधो
वह दंतकथाओं की फिनिक्स पक्षी की तरह
अपनी ही राख से उठ खड़ी होगी.
प्रेम
मैं क्या कहूं
मुझसे पहले भी जाने कितनी बार
दुहराया गया है यह शब्द
कितनी बार रची गयी है कविता
कितनी बार
लिखा गया है इतिहास ‘ढ़ाई आखर’ का
जिसमें सिमट गयी है पूरी दुनिया
पूरा ब्रम्हांड
पूरा देवत्व
इस आपा-धापी समय में
प्रेम कहीं गुम-सुम पड़ा है
चाहती हॅूं फिर से जगाएं हम
ठीक वैसे ही जैसे
समुद्र के बीच से जगती है लहरें
जैसे बादलों की छाती से फूटती है बौछारें
जैसे शाम की धुली अलसायी हवा कर जाती है रूमानी बातें
जैसे सूखते सोते
अचानक भर जाते हैं लबालब
आओ एक बार फिर धमनियों में
रक्त की तरह फैल जाओ प्रेम !
मां के लिए
मैं एक मीठी नींद लेना चाहती हूँ
40 की उम्र में भी चाहती हूं कि
मेरे सर पर हाथ रख कर कोई कहे
सब ठीक हो जायेगा
ठीक वैसे ही जैसे बचपन में मां
हमें बहलाया करती थी
हमारी उम्मीदें जगाती थीं
मैं इस उम्र में मां की गोद में
सुकून की नींद लेना चाहती हूँ
उसके सीने से लिपट जी भर रोना चाहती हूँ
जानती हूँ समय ठहरता नहीं
बचपन पीछे लौट चुका है
फिर भी बार-बार मेरे आइने में मुस्कुराता है
मैं फिर से नन्हीं बच्ची की तरह
बेवजह रोना खिलखिलाना चाहती हूँ
मैंने तो कई सदियां गुजारी है
हर सदी में स्त्री का दुख एक सा है
हर सदी की स्त्री का संघर्ष
घर की दीवारों में दफन है
हर सदी में वह अपने को मिटाती रही है
घर के लिए सुकून और खुशी तलाशती रही है
वह आंधी और तूफानों के बीच कुछ रौशनी बचा लायी है
उस दिन के लिए जब बच्चे आएंगे तो उजाले में वह उनसे मिलेगी
और उनकी आंखों में तलाशेगी अपने लिए आदर और प्यार
कि बच्चे एक दिन कहेंगे
यह वही उजाला है जिसे हमारी मां ने
सूरज से चुराया था
बादलों से छिपाया था
हवा के थपेड़ों से बचाया था
वह रोशनी है यह जिससे रौशन है इन्सान.
उम्र
उम्र अब आयी है मेरे पास
मेरी बेटी बन
सीने से लिपटी है शोख चंचल सी वह
कितनी मासूम सी है अदा
कैसी इठलाती है
बलखाती है
मेरा बचपन जैसे लौट आया है
पागलों सा मैं
जंगलों से गुजरता फिरू
नदियों को मापता हुआ
सूरज मेरे दामन में है
आंखों में चांदनी
उम्र बेखौफ है.
अब-उम्र
अब जो आयी है वो
साथ लायी है हर मौसम का रंग
ये मौसम है नर्म पत्तों का
ये मौसम है सूर्ख गुलाबों का
खिले हैं प्यार के हजार रंग
यह इक रंग ऐसा है जो हर रंग पर पड़े हैं भारी
देखो उम्र के चेहरे पर फैली है लाली.