प्रत्यक्षा :
२६ अक्टूबर, गया (बिहार),
पावरग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड में मुख्य प्रबंधक वित्त, गुड़गाँव
प्रत्यक्षा की युवा कविताएँ कहन और स्थापत्य में विशिष्ट हैं. यह हिंदी कविता का नया चेहरा है. भाषा के निविड़ वन–प्रान्तर में अर्थ की तलाश में निकले यायावर शब्दों का काफिला कविता के अब तक के सौंदर्य बोध से अतिरिक्त की मांग कर रहा है. सम्बन्धों के जटिलतर विन्यास को अपनी अलहदा काव्य–शैली में प्रत्यक्षा लिखती हैं. गुम्फित विचार श्रृंखलाएं और हरपल घट रहे का बिम्ब समुच्चय घन की चोट की तरह यहाँ उपस्थिति है. अनुभव का विस्तार और भाषा का आकाश इन कविताओं को सृजनात्मक रूप से समृद्ध करते हैं.हिंसा का दैनंदिन आघात और प्रेम का मद्धिम स्पर्श प्रत्यक्षा के अपने इलाके हैं.
सोचें खुशी
किसी गीत का बजना जैसे
ये सोचना कि
उदासी का रंग हर सिंगार क्यों है
उमगती खुशी क्यों नहीं
जैसे बच्ची हँसती है , अनार खाती है
उसके अनार से दाँत में फँसी हँसी हँसती है
कानों के पीछे खुँसा जबाकुसुम का फूल ढलकता है
कैलेंडर पर कतार में नीले हाथी चलते हैं
सूँड़ उठाये
रसोई से उठती है महक हींग की
और कहीं बाहर से आता है स्वर
रेडियो सीलोन का
रात के बारह बजे हम गले लगते हैं
और थक कर सोते हैं नींद में
सब सपनों को फिलहाल मुल्तवी करते
मुकेश का गीत कभी इतना मार्मिक
पहले नहीं लगा था जैसे इस वक्त
शाम की उदासी में लगता है
जबकि हम कहते रहे एक दूसरे को
खुश रहो खूब खुश रहो
जानते हुये कि ऐसा कहना
अपनी सब सद्भावना देना है लेकिन
खुशी निश्चित कर देना नहीं
फिर भी ऐसा कहना अपनी ओर से
कोई कमी नहीं छोड़ना है
कैलेंडर के हाथी मालूम नहीं इकतीस दिसंबर के बाद
कहाँ जायेंगे
मालूम नहीं अनारदाँत लड़की बड़ी हो कर
कितना दुख पायेगी
मालूम नहीं उदास गाने क्यों न हमेशा के लिये बैन कर दिये जायें
क्यों नहीं किसी भी चीज़ के खत्म होने के खिलाफ कड़े नियम बनाये जायें
क्यों नहीं तुम मेरा हाथ पकड़ कर भाईचारे में सूरज की तरफ उठे चेहरे
की खुशी के पोस्टर बनाओ
और ये न कहो कि कागज़ चारकोल से गंदे करो
जबकि मैं पानी के रंग की खुशी चाहूँ
जबकि मैं गाने बिना शब्द के गाऊँ
जबकि मैं आग में पकाऊँ बैंगन का भरता
और अपने लिये खरीदूँ नई किताबें
और कहूँ तुमसे , सुनो तुम को मेरी सब सद्भावना
और ये संगीत तुम्हारे लिये
और ये शब्द तुम्हारे लिये
और ये रंग तुम्हारे लिये
और चाहूँ कि तुम भी चाहो यही सब
मेरे लिये
यही सब सबके लिये
कि भीड़ में खड़े हम सब
आमने सामने खड़े गायें कोरस में
कि भाषा के पहले भी प्यार था भले वो
उस लड़की के दो चोटियों और मनुष्य के जानवरों की नकल में था
शायद खलिहान में लगे उस कनकौव्वे में या फिर उस पाजी की गुलेल में था
लोर्का की कविता और चवेला वार्गास के गीतों में था या फिर बाउलों की संगत में था
किसी फकीरी फक्कडपने का ठसक भरा राग था
या किसी बीहड़ महीनी का अंतरंग रंग था
जो था सब था
तुम्हारी आँखों के सामने जस था
रूठे बच्चे की आधी सिसकी था
किसी के भय का खट्टा स्वाद था
कहीं दूर सुदूर से आते साईबेरियन क्रेन सी उड़ान था
किसी टीवी चैनेल पर जोश उन्माद भरा बीच बहस
किसी जोकर का रसरंग था
इस चिरकुट सी दुनिया के भ्रष्ट अफसाने और
व्हाई इज़ लाईफ सो ब्लडी अनफेयर का रिफ्रेन था
सुनो अब भी , इतना सब होने पर भी हम कहते रहे
दॉन कियोते न बन पाये कोई साँचो पाँज़ा ही बन गये होते
क्यों हम कभी अल बेरुनी फहियेन या मार्को पोलो न बन सके
कभी सोचा कि अलेक्सांन्द्र या कोलम्बस होना क्या होना होता होगा
कि शब्दों की नौका पर सवार अटलांटिक ही घूम आयें ? या फिर
अफ्रीका की धूपनहाई धरती पर एक झँडा , न सही आर्कटिक
और ग्रीनलैंड , न सही एस्कीमो या ज़ुलु या फिर कोई मुंडा ओराँव भी चलता
किसी टोटेम की पूजा और पत्तों पर खाना , जँगल के जँगल
की पहचान
कितने प्रश्न हैं , लेकिन तुम कहते हो सोचा मत करो
मैं सोचती नहीं , न हरसिंगार न जबाकुसुम
मैं सोचती हूँ , खुशी
सोचने से मिलती है चीज़ें जैसे किसी साईंस फिक्शन या फंतासी साहित्य में
पढी गई कहानी , जो हर होने को सँभव बनाती हैं
तो आज के दिन , जो कि हर किसी और दिन की तरह खास है
आओ हम मिलकर सोचें , खुशी
और सोचें उम्मीद
और सोचें , उस सोच को जो हर इन एहसासों को मूर्त करता है
जैसे बच्ची के चेहरे पर हँसती मैना
जैसे गाने का कोई भूला मुखड़ा
गोगां के पैलेट का कोई चहकता रंग
या फिर हमारी साझी हँसी का तरल संसार
इन टैंगो , ईवन इफ इट इज़ द लास्ट वन
क्योंकि इस विशाल विस्तृत संसार में सुनियोजित है
हमारा इस तरह कभी उदास होना और
कभी तरल , कभी कहना बहुत और सुनना और ज़्यादा
कभी तुम होना और कभी मैं
और हमेशा , अकेलेपन , तीव्र अकेलेपन के बावज़ूद
उड़ान लेना किसी पक्षी के जोड़े की तरह , इन टैंडेम
वाल्ट्ज़िंग इन द इनर स्काई
अपने भीतर के संगीत की संगत में
होना
ऐसे जैसे इस भरपूर संसार में खुद से बेहतर और कोई न हुआ
खिली धूप , नीले आसमान में सबसे सफेद
सबसे खूबसूरत परिन्दा.
सांप, सेब और प्यार
हम शिकारियों के चौकन्ने पन से
पैंतरे बाँधते
कुशल फेंसर्स जैसे
चेहरे को ढके तलवार भाँजते
शब्दों को काटते
कभी गलती से भी
जीभ पर अगर
फिसल आता
कोई प्यार जैसा
या उसका पर्यायवाची शब्द
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते हमने आपस के नये शब्द इजाद किये
सब ऐसे जो प्यार से कोसो दूर थे
जब हमारी उँगलियाँ तरसतीं
प्यार को
हमारा मन सुराखों के पार के आसमान को
ललक कर देखता
और उँगलियाँ शाँत हो जातीं लेकिन इन सब के बीच
हमारी हज़ारों किस्से कहानियों के बीच
हम कई बार
बेवजह ठिठक जाते
जैसे कोई भूला शब्द
ज़ुबान पर आते आते फिसल जाता
हम बहुधा चौंक कर देखते एक पल को
एक दूसरे को
गो कि हमने कितने दिन साथ गुज़ारे
कितनी रात बतकहियाँ की
कितनी बारिश साथ भीगे
कितने मौसमों को एक खिड़की से
बदलते देखा
फिर भी हमने
ताउम्र कोशिश की
कि प्यार जैसा
कोई शब्द हमारे बीच
बिलकुल न आये और हम इतने प्राण पण से जुटे थे
प्यार को भुला देने में
उसे बेवजह साबित कर देने में
कि मौसम कब खिड़की से बाहर गया
हम जान ही नहीं पाये
और जब हमारे बच्चे
हमारे पास आये
पूछा
तुम्हारे पास
हमारे लिये क्या है
हमने तब कहना चाहा
प्यार
हमारी जीभ इस शब्द के पहले अक्षर पर ही
लटपटाने लगी
हमारा दम फूलने लगा
गले की नसें भूली हुई कोशिश में टूटने लगीं
और हमारे सामने हमारे बच्चे हवा में धूँये की तरह
विलीन होने लगे
हम उजबकों की तरह उनको देखते रहे
देखते रहे क्योंकि हमारे बीच प्यार शब्द
कभी आया ही नहीं उसने तब कहा
दोबारा शुरुआत करो
और हमने खुद को उस बगीचे में पाया
जहाँ मैं थी
वो था
सेब था
और साँप था
वो औरतें
कुछ कुछ वैसी जैसे कुम्हार के चाक से निकले कुल्हड़ों को आग में ज़रा ज़्यादा पका दिया गया हो
और वो भूरे कत्थई की बजाय काली पड़ गई हों
या कुछ सुग्गे के खाये, पेड़ों पर लटके कुछ ज़्यादा डम्भक अमरूद की तरह
जिसे एक कट्टा खाकर फिर वापस छोड़ दिया गया हो उनके उतरे हुये स्वाद की वजह से वो औरतें डर में थकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ चोट खाये घायल मेमनों की तरह
जिबह में जाते बकरियों की तरह
जिनकी फटी आँखों से लगातार बेआवाज़ आँसू बहते हों
या कुछ उन जोकरों की तरह जो हर कलाबाज के करतब पर पाउडर पोते
ठोस ज़मीन पर खड़े अंदर ही अंदर भय से थरथराते हैं इन औरतों ने पाया कि आखिर एक वक्त ऐसा आया कि
भय और प्रेम इनके अंदर एक हो गया
तब उन औरतों ने
एक जत्था बनाया
खड़िया हाथ में पकड़ा
और लिखा प्रेम अर्थात भय
फिर लिखा
भय अर्थात शून्य और
शून्य अर्थात प्रेम अर्थात मुक्ति आसमान में अक्षर उभरने लगे
हर अक्षर पर
उनकी उँगलियों की पकड़
मज़बूत होती गई
आग की लपट उँची उठने लगी
भट्टी में शब्द पकने लगे
उन लपटों में आहूति देते एक सुर से गाया
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम ओ पवित्र अग्नि जो वर्तमान है हर सृजन में
ये मेरा शरीर , मैं समर्पित करूँ
अपनी आत्मा की गहराई से
इस अग्नि को ये शरीर जो अब मेरा नहीं
कस्मै देवाय हविषा विधेम बोलती है एक खास लय में
पर कहोगे नहीं कभी प्यार
लेकिन प्यार नहीं कहोगे
कहोगे
दुनिया जहान की बातें
इसकी बातें उसकी बातें
वो जो गौरैया थी
जो उड़ जाती थी
जो मेमना था
जो बच्चा था
कहीं हर्ज़ेगोविना बॉस्निया में
या
गाज़ा में , अनाथ अकेला
गिरजे पर हुये हमले
और मेधा पाटकर के धरने
कहोगे
फिर बुश और इराक
सद्दाम की मौत
और
पेंटागन की साजिश
नौ ग्यारह
कैसे गिरा था
ट्विन टॉवर
तब शायद खा रहे थे
रात का खाना
लिया था पहला कौर
रोटी का शोरबे के साथ
बगल में फेन उगलता
बीयर का मग
कैसे रह गया था
अधूरा
और फेंका था अगली सुबह
काँता बाई ने
ज़रा नाक सिकोड़ते हुये
तुम्हारे अफसोस के साथ कहोगे
कि शेयर मार्केट के उछाल के इंतज़ार में
रोक रखा है तुमने
खरीदना किसी अपमार्केट सबर्बिया में
पॉश एक फ्लैट
कि कितने लाख
तुमने खोये पिछली गिरावट में
पर
परवाह नहीं
कर लोगे भरपाई
किधर और से
पढ़ लोगे
इकॉनिमिक टाईम्स और मनी मार्केट
नब्ज़ है तुम्हारी सेंसेक्स पर
सिर्फ यही नहीं
फुरसत में
पढ़ोगे रेनर मारिया रिल्के को
सुन लोगे मधुरानी को
पुरानी बदरंग अल्बम से चुनकर
देख लोगे उदास कर देने वाली तस्वीरें
धूप में भी सर्द सिहर लोगे
और परे हटा दोगे
फ्लावरी ऑरेंज पीको
कहोगे
एक अलस दोपहरी में
नींद की बातें
नमक में डुबाकर हरी मिर्च का स्वाद
देर रात तक थियेटर का रंग
कि हम सब कठपुतली है रंगमँच के
फिर उस नाटकीय डायलॉग पर
ठठाकर हँस पड़ोगे
फिर संजीदा
कहोगे
कि अब हमें लाना चाहिये
एक बदलाव
कहोगे
कि चलो अब किसी दूसरी तरह से
जिया जाय
किसी और तरीके से
रहा जाय
फिर उबासी लेकर औंधे पड़े
कहोगे
कल से ?
अच्छा ?
पर कहोगे कभी नहीं प्यार ?
रेड इस डेंजर
रंग डाले थे
चौकोर टुकड़े धानी और नीले
और समन्दर का गहरा हरा नीला पानी
फैले रेत का सुनहरापन और
लहराते नारियल के पेड़
पानी का झाग और
धुँध में धुँधलाता
कोई पानी का जहाज़ फिर वो कमरे की दीवारों तक आईं
वहाँ उन्होंने बनाया
जंगल
घना डरावना नहीं
खुशनुमा सुकूनदेह
जहाँ आसमान से पत्तियों तक
रौशनी छनती थी
ज़मीन पर
छोटे नन्हे फूल खिलते थे फिर बाहरी कमरों की बारी आई
फिर दरवाज़ों की
जहाँ घुड़सवार सफेद अरबी घोड़ों पर
चुस्त मुस्तैद
परचम लहराते
धूल उड़ाते जाने कहाँ
किस नई दुनिया की खोज में
कूच करते इस तरह उन लड़कियों ने
पूरा जहान रंग डाला
एक सफर कर डाला
पूरी दुनिया देख डाली पर उनके रंग
अब भी बाकी थे
कुछ ठहर कर
उन्होंने अब रंगना शुरु किया
अपना मन
और पाया कि
चाहे कितनी मन मर्जी
कूची चला लें
कैसे भी शोख रंग चुन लें
पीले पड़े चेहरों पर
बिना आँख़ नाक होंठ वाले चेहरों पर
वो सिर्फ एक रंग डाल सकीं थी
लाल बिन्दी
सिर्फ बिन्दी
उस पीले चेहरे पर
बस और कुछ नहीं और अंत में
थकहार कर
उन्होंने लिखा
रेड इज़ डेंजर !
और कहा
ये सफर यहीं समाप्त होता है.
राग – प्रेम
गीली मिट्टी ,गेहूँ की बाली, तुम और मैं….
हरी फसल, सपने मैं और तुम
नीम का पेड, सोंधी रोटी ..मैं और तुम
मैं और तुम..हम
हम
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