सुमन केशरी : १५ जुलाई १९५८, मुजफ्फरपुर,बिहार.
शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और यूनिविर्सिटी आफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया से.
सभी पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ एवं लेख प्रकाशित.
सरगम और स्वरा नाम से
अनूठे और संवादधर्मी पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण और संपादन (आठवीं तक)
कविता संग्रह : याज्ञवल्क्य से बहस, मोनालिसा की आँखें
संपादन : जे.एन.यू में नामवर सिंह
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग में निदेशक.
ई-पता. sumankeshari@gmail.com
‘क्या परिचय दूँ मैं अपना
द्रौपदी, पांचाली, कृष्णा, याज्ञसेनी
सभी संज्ञाएँ वस्तुत: विशेषण हैं
या सम्बन्धसूचक
कभी गौर किया है तुमने
मेरा कोई नाम नहीं.’
“कोई कहना चाहे तो कह सकता है यह इस रचनाकार का परिचय भी है और इन संवादधर्मी कविताओं का भी. यह संवाद-धर्मिता ज्यादातर कविताओं में देखी जा सकती है -अलग रंग और अलग तेवर के साथ. मुझे सुखद आश्चर्य इस बात से हुआ कि इस वैचारिक आग्रह के चलते कविता को कहीं भी लाउड या अतिमुखर नहीं होने दिया गया है. यह इस रचनाकार के अपने माध्यम पर मजबूत पकड़ का प्रमाण है. मुझे इस बात से भी गहरी आश्वस्ति हुई है कि नितान्त समसामयिकता के इस दौर में यहाँ ऐसी अनेक कविताएँ मिलेंगी जो इतिहास –बल्कि उससे भी पहले के अनुषंगों को हमारे भीतर झंकृत करती है. यह आज की कविता का एक अलग प्रस्थान है, जिसे रेखांकित किया जायेगा.”
केदारनाथ सिंह (कविता संग्रह ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ की भूमिका से)
कृष्णा
मैं पांचाली-पुंश्चली
आज स्वयं को कृष्णा कहती हूँ
डंके की चोट!
मुझे कभी न भूलेगी कुरुसभा की अपनी कातर पुकार
और तुम्हारी उत्कंठा
मुझे आवृत्त कर लेने की
ओह! वे क्षण
बदल गई मैं
सुनो कृष्ण मैंने तुम्हीं से प्रेम किया है
दोस्ती की है
तुमने कहा-
“अर्जुन मेरा मित्र, मेरा हमरूप, मेरा भक्त है
तुम इसकी हो जाओ
मैं उसकी हो गई”
तुमने कहा-
“माँ ने बाट दिया है तुमको अपने पांचों बेटो के बीच
तुम बंट जाओ
मैं बंट गई-
तुमने कहा-
सुभद्रा अर्जुन प्रिया है
स्वीकार लो उसे
और मैंने उसे स्वीकार लिया
प्रिय! यह सब इसलिए
कि तुम मेरे सखा हो
और प्रेम में तो यह होता ही है !
सब कहते हैं
अर्जुन के मोह ने
हिमदंश दिया मुझे
किन्तु मैं जानती हूँ
कि तुम्हीं ने रोक लिए थे मेरे कदम
मैं आज भी वहीं पड़ी हूँ प्रिय
मुझे केवल तुम्हारी वंशी की तान
सुनाई पड़ती है
अनहद नाद सी.
एक निश्चित समय पर
एक निश्चित समय पर नींद खुल जाती है
करवट बदल, चादर लपेट फिर सो जाने का लालच परे ढकेल
उठ बैठती है वह
उंगलियां चटखाती
दरवाजे से घुस पलंग के दाहिनी ओर सोई वह
पांवो से टटोल-टटोल कर स्लीपर ढूंढ लेती है
और सधी उँगलियाँ उठ खड़े होने तक
जूड़ा लपेट चुकी होती हैं
चाय का पानी चढ़ाने
कूकर में दाल रखने
डबलरोटी या पराठा सेंकने
सब का एक निश्चित समय है
सब काम समय पर होता है
घड़ी की सूइयों-सा जीवन चलता है
अविराम
एक निश्चित समय पर नहा धोकर
बालों पर फूल और माथे पर बिंदिया
वह सजाती है
और निश्चित समय पर द्वार के आस-पास वह
चिड़िया-सी मंडराती है
इस टाइम टेबलवाले जीवन में
बस एक ही बात अनिश्चित है
और वह है उसका खुद से बतिया पाना
खुद की कह पाना और खुद की सुन पाना
अब तो उसे याद भी नहीं कि उसकी
अपने से बात करती आवाज़
कैसी सुनाई पड़ती है..
कभी सामने पड़ने पर क्या
वह
पहचान लेगी खुद को.
तुम्हारी याद
बड़ा मन है कि तुम्हारे लिए
एक प्रेम कविता रचूँ
और आज क्योंकि चौदह फरवरी है
चलन भी कुछ देने का
फिर मन भी है
तो सोचा एक कविता रचूँ अपन–तुपन के बारे में
कुछ जग जाहिर
कुछ जग से छिपी
अब क्यों कि हर सम्बंध अपने मे यूनीक होता है
अन्ना केरेनिना के प्रथम वाक्य–सा
तो एक टीस ऊब उभरी
जीवन कि पहली स्मृत घटना–सी
अन्ना याद आई
याद आया प्लेटफार्म पर भीगता
तृषित ब्रोन्स्की
एक हल्की याद किटी की
व्यथा लेविन की
असमंजस या क्रोध केरेनिन का
पर लो कहाँ से कहाँ
चली गई मैं
अब ऐसी अनअनन्यता भी क्या
प्रिय!
बहाने से जीवन जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना
रामायण और भागवत सुनने का बहाना
घूमने के लिए चलिहा१ बद मन्दिर जाने का बहाना
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना
सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना
जीने के लिए औरों की जरूरतों का बहाना
अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत
इसी तरह जीवन को जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत…..
(१.चालीस दिनों तक नियमित रूप से मंदिर जाने का संकल्प.)
लौंगिया
उस छतनार पेड़ के घेरे में
खिल नहीं सका कोई फूल
लाख जतन के बावजूद
धूप की आस में
कोई पौधा टेढा हुआ
कुछ लम्बोतरे
मानों मौका पाते ही डाल पकड़ झूलने लगेंगे
कुछ लेटे जमीन पर
आकाश ताकते उम्मीद में
हरे से पीले पड़ते हुए
उस दिन सुबह
परदा हटाते ही
गुलाबी किरणों से कौंधते
खिलखिलाते दिखे
लौंगिया के फूल
ऐन पेड़ की जड़ पी उगी बेल
उसी से खाद–पानी-हवा-धूप छीनती
याद आई
माँ
उसी पल भीतर कहीं खिलखिलाई
बिटिया.