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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेमचन्द गाँधी

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेमचन्द गाँधी

प्रेमचंद गांधी २६ मार्च, १९६७,जयपुरकविता संग्रह :  इस सिंफनी में निबंध संग्रह : संस्‍कृति का समकाल कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी कामदो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा. विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी. ई पता : prempoet@gmail.com    ये  कविताएं जितनी […]

by arun dev
February 17, 2012
in Uncategorized
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प्रेमचंद गांधी

२६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह :  इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्‍कृति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा.
विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com
  
ये  कविताएं जितनी भाषा पर हैं उतनी ही भाषा के सरोकारों पर भी. प्रेमचन्द गाँधी ने इस कविता-श्रृंखला में भाषा की सत्ता और हर सत्ता के खिलाफ उसके संघर्ष को कुछ इस तरह व्यक्त किया है कि काव्यत्व कही छूटता नहीं. ये कविताएँ मनुष्यता की यात्रा का विश्वसनीय हरकारा बन कर साथ-साथ चलती हैं. मानवता, प्रेम और सम्मान जैसे मूल्यों के साथ भाषा के लगाव की यह कविता अपनी समाजिक ज़िमेदारिओं के प्रति  सजक है. याचना और प्रार्थना से अलग कवि ने इसे गहरे विश्वास और जनास्था से रचा है.


नास्तिकों की भाषा
::
हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.
::
दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आई है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज
खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं
हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है.
::
प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा
दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.
::
सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान
विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर
किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
::
झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोई धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया.
::
हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही
हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली.
::
क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका
सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोई नामलेवा
हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.
::
याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत
इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत.
::
भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द
इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द.
::
हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद
दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन.

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