मुम्बई
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1.
धीरेन्द्र अस्थाना
एक और धीरूभाई, जो मुंबई में रहता है
उस वक्त का चारकोप कैसा था, यह इस शताब्दी में मुंबई आए लोग अंदाज नहीं लगा सकते. उसी चारकोप की एक खोली (स्वतंत्र घर) में भांडे से रहती थी ललिता अस्थाना. यह कहने में मुझे कोई शर्म नहीं कि उस खोली में धीरेन्द्र इसलिए रहते थे कि वहां ललिता भाभी रहती थी. वरना धीरेन्द्र उस मायालोक में रहते थे कि मुंबई क्या, किसी गांव में भी अकेले नहीं रह सकते थे.
लोअर परेल के ब्रिटिश रेल्वे अधिकारियों के लिए बीसवीं सदी की शुरूआत में बने आवास स्थित अपने कमरे से लोकल पकड कांदिवली स्टेशन उतर कर पैदल चारकोप के उसी ललिता भाभी के घर प्रत्येक रविवार की दोपहर जाया करता था मैं.
धीरेन्द्र अस्थाना अपनी शादी के बाद से ही बेघर हो गए थे. यह सच इसलिए है कि उसके बाद के जीवन और घर को संभालने वाली ललिता भाभी ही रही है. ललिता भाभी के घर में धीरेन्द्र ने अभी तक तो अपने को महफूज ही माना है.
कांदिवली पश्चिम से वह घर लगभग 6 कि. मी. दूर था. बेस्ट की बस का टिकट भी शायद 2 रूपये था. रामनाथ गोयनका के इंडियन एक्सप्रेस साम्राज्य के हिन्दी अखबार जनसत्ता में काम करने वाले इस पत्रकार के पास अक्सर पैसे ही नहीं होते थे. मुझे पता होता कि ललिता भाभी फिर आज टोकने वाली है कि राकेश एक नया पेंट खरीद लो, एक ही पेंट कब तक पहनते रहोगे.
धीरेन्द्र और मेरी दिमागी कसरत का ही परिणाम रहता कि उस तरह की अकेली दोपहरों में ठण्डी बियर के साथ मटन खाया जाता और फिल्मी गानों और कथानकों पर चर्चा होती रहती.मुंबई में वह समय आज तक का हिन्दी-पत्रकारिता के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण और सक्रिय समय था. साहित्य, रंगमंच और कला से जुड़ी कई बेहतर युवा प्रतिभाएं इस पत्रकारिता से जुड़ी थी. जो प्रतिदिन प्रेस क्लब, फिल्मी पार्टियों और दीगर आयोजनों में टकराती रहती थी. निदा फाजली ने ही उन दिनों धीरेन्द्र को कथा सम्राट कहना शुरू किया था और संजय मासूम और मैंने धीरू भाई या बाऊजी कहना शुरू किया था. मुंबई की आपाधापी और चकाचौंध ने इस कथा सम्राट को अपनी रचनात्मक साहित्यिक जमीन से मिलने का समय ही नहीं दिया. लेकिन फिर भी समय निकालकर धीरू भाई ने अपने सगे ध्येय को जारी रखा.
उसी दौरान उन्हें इंदू शर्मा कथा सम्मान भी मिला. उन्होंने जैसे तैसे करके मीरा रोड में अपना घर भी ले लिया. प्रतिदिन दोपहर 3 बजे से लेकर रात को अंतिम ट्रेन पकड़ते हुए हम दोनों साथ रहा करते. इसी ढलती दोपहर, शाम और फिर तरल होती रातों के समय में ही समूचे मंबई को अपने-अपने क्षेत्रों में जिया जाता. मैं रंग शारदा या पृथ्वी थिएटर में हो रही नाट्य प्रस्तुतियों, जहांगीर या पंडोल आर्ट गैलरी में लगी प्रदर्शनियों, पंडित रामनारायण के सारंगी वादन या अन्य शास्त्रीय बैठकों से रूबरू होता रहता. धीरू भाई सबरंग की आवरण कथा, कथा-कविता चयन और 10 मिनिट में 20 बार बजने वाले फोन से जुझते रहते. मुंबई की प्रत्येक शाम ने धीरू भाई और मुझे इस बात का कोई दुखद अहसास नहीं होने दिया कि हम वहां लिख नहीं पा रहे थे. कहीं किसी संपादक द्वारा मांगे जाने पर जो भी लिखा जाता, उसी में संतुष्ट रहना पड़ता. मुंबई में रहने और काम करने के लिए किसी भी रचनात्मक हिन्दी पत्रकार को जो संघर्ष करना पड़ता है उसमें अपनी रचनात्मकता से बिना शर्त समझौता भी अहम है.
फिर भी……..
फिर भी धीरू भाई ने 1990 से मुंबई में रहते हुए इसी मुंबई को अपने लिखे शब्दों से हराया और बीच के तीन-चार वर्ष दिल्ली रहने के बावजूद इसी मुंबई में डटे रहे ओर आज महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के छत्रपति शिवाजी राज्य पुरस्कार के सही मायने में हकदार बने. उन्हीं धीरू भाई को कम ओर इसकी वास्तविक हकदार ललिता भाभी को इसके लिए फिलहाल इन्हीं शब्दों से बहुत बहुत बधाई.
जनसत्ता के साथ प्रति रविवार निशुल्क वितरित होने वाली रविवारीय पत्रिका सबरंग की आवरण कथा का विषय चुनने से लेकर, उसे किससे लिखवाया जाए और किस तरह के शीर्षक के तहत उसे किस शैली में प्रस्तुत किया जाए, धीरू भाई की अच्छी खासी रचनात्मकता इसी में चली जाती थी और वे इससे संतुष्ट भी रहते थे. कभी कोई अच्छी आवरण कथा को अंतिम रूप देने के बाद उन्हें और साथ ही मुझे भी इतनी आत्मीय प्रसन्नता होती थी जैसे हमने कोई महान कहानी या कविता लिख ली हो. यहां यह बता देना किसी रहस्य को खोलना नहीं होगा कि उन दिनों सबरंग के कारण रविवार को जनसत्ता बहुत अधिक बिकता था और क्रमश… इसी के चलते प्रतिदिन भी.
सबरंग 32 पन्नों की रविवारीय पत्रिका थी जिसके 8 पन्ने रंगीन हुआ करते थे. उन रंगीन पन्नों का प्रभार मेरे पास था. साथ ही मैं जनसत्ता का प्रतिदिन प्रकाशित होने वाला फीचर पन्ना भी देखता था. मसलन स्वास्थ्य, महिला विश्व, कला संस्कृति इत्यादि. प्रति शुक्रवार आठ दिन बाद आने वाले रविवार के लिए पूरी पत्रिका की फाइनल एप्रूव्ड प्रेस कॉपी भेजना होती थी. एक्सप्रेस टावर से बाहर निकलते हुए शुक्रवार की उस शाम का मतलब हम दोनों के लिए पूरे सप्ताह की थकान मिटाना होता. निसन्देह औपचारिक ताम-झाम से भरी फाइव स्टारों में होने वाली फिल्मी पार्टियों से अलग-थलग किसी मित्र के साथ प्रेस क्लब या टाउन में ही स्थित किसी शांत बार में. बंबई में चर्च गेट, फोर्ट, फाउंटेन और कोलाबा के इलाके को टाउन कहा जाता है. एयर इंडिया के पास से या भारतीय जनता पार्टी के राज्य मुख्यालय के बाहर से टैक्सी रोक उसमें बैठते हुए हम अपने को पूरी तरह ढीला छोड़ देते कि अब फिलहाल कोई भी काम नहीं बचा है. थ्री इडियट्स बनने की विचार प्रक्रिया से एक दशक पूर्व हमारा अनकहा परस्पर संवाद होता- आल इज वेल.
धीरू भाई कहानी यूं तो एक ड्राफट में ही लिख लेते है लेकिन उसे पहले से जीने लगते है. कभी आपने ही विचारों में तो कभी टूटी-फूटी बातें में. ‘मैरी फर्नांडीस, क्या तुम तक मेरी आवाज पहुंचती है’ कहानी लिखे जाने की पूरी जीवंत रचना प्रक्रिया आज भी मेरी स्मृति में है. वे इसलिए बड़े कथाकार है कि उस शहर की अत्यधिक भागम-दौड और असुरक्षित जीवन-व्यवस्था के दरमियान रहते हुए वे अपने पात्रों का एकाकी जीवन जी लेते थे. वे खुद हर छोटी-छोटी बातों का अर्थ और उन्हें देखने की दृष्टि मोटे तौर पर भले ही नहीं जीते हो लेकिन उनके पास उसी अपकड़ और अदृश्य दुनिया में रहते थे.
धीरू भाई को अपने लिखने के लिए एकांत का होना जरूरी होता है. इसलिए वे अखबार से छुट्टी ले लेते या बंबई से लगे किसी आसपास के इलाके में चले जाते. यदा कदा जब वे बंबई से बाहर कहीं लंबे जाते तो लगता कि पूरी घर-गृहस्थी से मिलने वाली सहज सुरक्षा को अपने साथ ही ले जाने का प्रयास करते. अपने पात्रों के अकेलेपन को रचने वाले इस कथाकार को अकेले होने से बहुत डर लगता है. उन्हें उस दौरान अपने साथ किसी का होना हमेशा जरूरी लगता. चाहे वह लोकल से आना-जाना हो या किसी पार्टी में शिरकत करना. आज मेरा यह मानना है कि उस समय अगर वे किसी को प्रेम करते तो उन्हें प्रेम के अकेलेपन से भी डर लगता और वे अपने किसी विश्वस्त को उस निहायत व्यक्तिगत मामले के रहस्य के भागीदार बना लेते .
अंदाज लगाया जा सकता है कि धीरू भाई निश्छलता का ही जीवन जीते रहे. अगर उन्हें पता भी रहता कि कोई उन्हें ठग रहा है तो वे अपने उस ठगे जाने का आनंद ही लेते और बाद में मूड में रहने पर उसे मित्रों के बीच सुना भी देते.
धीरू भाई गाना गाने के भी शौकीन है. उन्हें पुरानी फिल्मों के गाने अच्छे लगते और यदा कदा वे गाते भी. एक गाना अक्सर वे गाते ‘दिए जलते हैं, फूल खिलते हैं बडी मुश्किल से मगर दुनिया में, दोस्त मिलते हैं ….. इसे गाते हुए वे अक्सर भावुक हो जाते. दिल्ली में बिताए अपने संघर्ष के दिनों के वे दोस्त जो उनके इर्दगिर्द सादतपुर में रहते थे, उन्हें याद आने लगते. रामकुमार कृषक से लेकर बलराम, महेश दर्पण, सुरेश सलिल, विरेन्द्र जैन, विजय श्रीवास्तव और रमाकांतजी तक. फिर शुरू हो जाते उनकी स्मृतियों के किस्से. धीरू भाई का दिल्ली में जगह-जगह काम करना. काम नहीं रहने की स्थिति में अपने ही मित्रों का उपेक्षा भाव और कड़वे अनुभव. इनमें उनके लिए की गई फिक्र और मदद भी शामिल रहती.
धीरू भाई को अभी बहुत कुछ लिखना है. उन्होंने जिस तरह का जीवन जिया है उसका प्रत्येक मौसम किसी कहानी की तरह ही लगता है. ऐसा बहुत कुछ अभी लिखा जाना है. निःसंदेह वे लिखेंगे इसी आज की मुंबई में रहकर ……. यह जानते हुए भी कि यह बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक जैसी रोमानी मुंबई नहीं है.
एक जमाना था जब हरिवंश राय बच्चन मंचीय कविता पर छाए रहते थे. कुछ ऐसा ही दौर मुंबई के हास्य कवि रामरिख मनहर का रहा है. वे मंचीय कविता के ऐसे पहले कवि सम्मेलन संयोजक (सीधी भाषा में ठेकेदार) रहे हैं जिन्होंने पहली बार मंचीय कवियों की हवाई यात्राएं कराई. इधर साहित्य में यह श्रेय या आरोप अशोक वाजपेयी पर जाता है.
रामरिख मनहर टाउन में ही रहते थे. महीने में दो-तीन मर्तबा सबरंग के दफ्तर आ जाया करते थे. धीरू भाई, मैं और मनहर जी एक बार बात कर रहे थे कि इतने घटिया मंचीय कवियों को हवाई यात्राएं मिल जाती है. मनहर जी को लग गया कि उन्हें कुछ करना होगा. वे धीरू भाई को हवाई जहाज से जयपुर ले गए और वहां सांगानेर के गोयनका प्राकृतिक चिकित्सालय में प्रकृति का आनंद लूटने के लिए उन्हें छोड़ आए. वहां धीरू भाई के लिए सिगरेट और शराब पर प्रतिबंध था. यह धीरू भाई की पहली हवाई यात्रा थी. जिसका डर हवाई जहाज में बैठने से सप्ताह भर पहले से धीरू भाई को डराने लगा. अपने इसी सांगानेर प्रवास में धीरू भाई ने ‘दुक्खम शरणम गच्छामि’ कहानी लिखी जो हंस में प्रकाशित होकर काफी चर्चा में रही.
अपने अनुभवों, देखे गए खूंखारतम दृश्यों और बेहद निजी सुकून देने वाली घटनाओं को इसी व्योम में खोजकर उसे शब्दों में ढालते हुए उस कथाकार को डर नहीं लगता था लेकिन हवा में गोता खाते हुए हवाई जहाज में बैठना उन्हें डराता था. पता नहीं इतनी हवाई यात्रा कर चुके धीरू भाई का वह डर अभी तक बचा है या नहीं.
यही रामरिख मनहर मुझसे अपनी आत्म कथा लिखाने की बेहद इच्छा रखते थे. उनके इस भ्रम को बनाए रखने के लिए मैंने एकाधिक बार उनके साथ बैठकर नोट्स भी बनाए. मुझे जल्दी ही लग गया था कि यह पंद्रह-बीस वर्षों की मंचीय कविता के लगातार घटिया होते हुए और कारोबारी बनने की प्रक्रिया का ही लेखा-जोखा रहेगा. मेरे मन ने यह करने से मना किया और मैंने अपने स्तर पर इस काम से बिदा ले ली.
विजयदान देथा रामरिख मनहर के अच्छे दोस्त थे. देथा जी जब भी मुंबई आते मनहर जी उन्हें सबरंग के दफ्तर जरूर ले आते. दो विरोधाभासी जीवन चरित्र हमारे सामने होते अपनी अटूट मित्रता के साथ.
यही रामरिख मनहर थे जिनके कारण ही सुभाष काबरा, श्याम ज्वालामुखी, प्रकाश पपलू और आसकरण अटल जैसे कवियों को अपने लिए बना-बनाया बड़ा बाजार मिल गया. मनहरजी ने जितना ताउम्र नहीं कमाया होगा, उतना अब ये कवि प्रत्येक वर्ष बना लेते हैं.
रामरिख मनहर जानते थे कि मुंबई में बहुत बड़ी संख्या में उत्तर भारतीय लोग रहते हैं. उन्हें अपनी संस्कृति और अपने लायक कविता सुनना अच्छा लगता है. उन्होंने उनके रसास्वादन को ध्यान में रखकर ही अपनी कविताएं और गीत लिखे. कवि सम्मेलनों के आयोजकों को तनाव मुक्त करने के लिए कवियों को आमंत्रित करना और उन्हें भुगतान करने तक का ठेका मनहर जी ले लेते थे. आयोजक मुक्त हो जाते थे और मनहरजी का मोल-तोल शुरू हो जाता था. लेकिन इसमें उन्होंने कई सारे उभरते कवियों को सहारा दिया और उन्हें मंच और राशि उपलब्ध कराई.
मनहर जी बखूबी जानते थे कि यह साहित्य नहीं है. वे अच्छे साहित्य का और अच्छे लेखकों का सम्मान करते थे. उन्हें पता था कि मंचीय कविता उनका धंधा है जिसकी वजह से वे मुंबई में सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं.
रामरिख मनहर के ठहाकों और धीरू भाई और मेरी अदृश्य गंभीरता के बीच मंचीय बनाम साहित्यिक पर कभी बहस नहीं होती थी. दोनों को पता था कि कोई भी गलत नहीं है. मनहर जी शब्दों को ठहाकों के समकक्ष रख देख पाते थे और हम उन्हें अपने जीवन के इर्दगिर्द खोजते रहते थे.
मनहर जी का मेट्रो टॉकीज के सामने ‘ललित बार’ प्रिय ठिकाना था. हमें मिलने पर अक्सर वहां ले जाते. चर्चगेट स्थित गेलार्ड रेस्टारेंट भी उनकी पसंदीदा जगह थी. यह हम लोगों के लिए भी सुविधाजनक थी कि गेलार्ड से निकलकर सीधे ट्रेन पकड़ लेते थे. इसी गेलार्ड में गुलशन नंदा, शैलेन्द्र, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और राजकपूर की पूरी टीम अक्सर वहां बैठी रहती थी. मुंबई में ऐसे विशेष स्थान की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है जो दशकों से पलपोस कर बढ़ी हुई है.
आज मनहर जी की स्मृति में कोई मंचीच कवि सम्मेलन नहीं होता. उनके नाम से कोई पुरस्कार घोषित होना तो दूर की बात है. मनहर जी के जीवनोपरांत यह भी उनके लिए ठहाके जैसी ही बात है.
अगर मैं मुंबई को पत्र लिखता तो क्या लिखता
शायद ऐसा ही कुछ लिखता –
”अब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता हूं. मुझे लगता है कि मैं तुम्हारा ही अंश हो गया हूं. तुम्हारी सारी कामनाओं और तुम्हारी निजताओं का तुम जैसा ही भागीदार. तुमने मुझे अपने से अलग आखिर कैसे मान लिया. प्रेम करने के बाद ऐसा कुछ नहीं जो निजी हो सके. हम दोनों की सबसे बड़ी ओर एकमात्र निजता हमारा प्रेम ही है. इन सबके बाद भी हम एक दूसरे के एकांत और एक दूसरे की निजता का सम्मान करते है.”
मुंबई से इसी तरह प्रेम किया जा सकता है. मैंने भी उसे उसके साथ रहते हुए दस वर्ष प्रेम किया. आज जब यह लिख रहा हूं वही प्रेम कुछ अधिक आध्यात्मिक बन मन की न मालूम किन पर्तो के बीच उपस्थित है. शायद फिर से अपने मूर्त रूप में साकार होने की सकारात्मक उम्मीद लिए.
हाजी अली की दरगाह को जाता समुह के बीच से थोडा संकरा रास्ता, बांद्रा बैन्ड स्टेन्ड पर अपने थपेडों से शोर मचाती समुद्री लहरें, किनारों पर रखे गए बड़े-बड़े पत्थर, वर्ली स्थित विशालकाय नेहरू सेंटर के आडिटोरियम में जगजीत सिंह की किसी ग़ज़ल को सजीव करती आवाज़, लोअर परेल के अपने कमरे में वुड-फ्लोर पर बिछा मेरा इकलौता बिस्तर, जे जे स्कूल आफ आटर्स का होस्टल, जो बांद्रा (पूर्व) में कला नगर के बाद आता है , …. पता नहीं……. कब किस मौसम में …….. कब किन क्षणों में, मुंबई से मेरे प्रेम करने की शुरूआत हुई.
कुलाबा में गेट वे आफ इंडिया के रास्ते पर पड़ने वाला मोंडेगर पब बियर पीने की मेरी प्रिय जगह थी. वहां मेरे बैठने के थोड़ी देर बाद ही बियर मग और ड्राफ्ट बियर से भरा एक जग टेबल पर आ जाता. मैं अपना पेन और डायरी पैड निकालकर अपने मित्रों को पत्र लिखने लगता. यह मुझे बहुत बाद में पता चला कि मुंबई के प्रति मेरा प्रेम ही मुझसे ये पत्र लिखवा रहा है.
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित मेरे पहले कविता-संग्रह ‘अन्य’ की अधिकांश कविताएं मैंने मुंबई में ही लिखी हैं. धीरू भाई जानते थे कि मेरी प्रेम कविताएं किधर से उत्प्रेरित हो रही है. पर एक बार भी धीरू भीई ने मुझसे कभी मेरी इस निजता पर बात नहीं की. उनमें इस सहज-स्वाभाविक मानवीय रिश्ते की कद्र करने की आदत थी. वे किसी की निजता में ताक-झांक करने वाले शायद इस पृथ्वी के आखिरी इंसान होंगे. अपने निकटस्थ मित्रों से भी वे निजता के मामले में सम्मानजनक दूरी बनाए रखते हैं. यही दूरी उन्हें अपनी कहानियों के अधिक निकट ले जाती है. आखिर वे भी अपनी कहानियों के सभी पात्रों की निजता एक साथ जानते ही होंगे. उन्हें रचते हुए भी वे इसी सम्मानित दूरी में रहते हैं.
धीरू भाई प्रायः कविता नहीं लिखते हैं. लेकिन पिछली शताब्दी का समूचा आखिरी दशक मुंबई में उन्होंने किसी कविता की तरह ही जिया है. बीडी या सिगरेट पीते हुए धीरू भाई का चेहरा इसी कविता की हर बार बदलती जाती इबारत की तरह ही होता है. कम से कम मैंने उसे इसी तरह देखा है.
सबरंग के दफ्तर में मेरे निजतम फोन आने पर सिर्फ ‘तुम्हारा फोन है’ कहकर फोन देकर वे अक्सर बाहर निकल जाते.
मुझे किसी की निजता का इतना सम्मान करने वाला ऐसा व्यक्ति अपने कामकाजी वर्षों में न भोपाल में मिला और न ही दिल्ली या अब वर्धा में. धीरू भाई अपनी कान और आंख से उतना ही काम लेते थे जितना उन्हें अपनी रुचि का लगता. यह परोक्ष रूप से मैंने उन्हीं से सीखा कि दुनिया में बहुत कुछ जो होता रहता है, वह सब हमारे लिए नहीं है.
मेरे जैसे लड़के से उनकी इतनी दोस्ती ही इससे रही कि मैं भी अपनी शर्तो, अपनी पसंद-नापसंद और अपने ही देखने के अलग दृष्टिकोण से जीता था. वे समझते थे इन्दौर-भोपाल से मुंबई आकर इस लड़के के पास एक साथ दो अकेलेपन थे. मुंबई में रहने का अकेलापन और इस लड़के के जीवन का निजी अकेलापन. मैं जानता था कि वे मन ही मन चाहते थे कि इस लड़के के जीवन का अकेलापन कहीं किसी संबंध में रिक्त हो जाए. मुंबई का अकेलापन धीरू भाई के साथ गुजरने वाली सारी शामें दूर कर देती थी. बर्फ और सोडे में अपने आप को मिलाता वह तरल पदार्थ जब हमारे मन-मस्तिष्क में बैठ जाता तब हम इंद्रधनुषी सपनों के पूरे विश्व के एकमात्र वितरक रूपी टायकून हो जाते. यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि दूसरे दिन की सुबह जब मै जागता तो मुझे हमारे संवादों के बारे में कुछ याद नहीं रहता. धीरू भाई को शायद अभी तक वे संवाद थोड़े बहुत याद हो.
उनके इस निजता को सम्मान देने वाली प्रवृत्ति ही शायद कभी-कभी उनके मन में मेरे प्रति कुछ-कुछ मीठी शंकाएँ जगा देती होंगी. इसका अंदाजा मुझे भी उनके बातचीत से लग जाता. कभी-कभी जब उनकी वह शंका भ्रम होती तब में अपने स्तर पर उनकी शंका को आमूल चूल भ्रम होने से बचाए रखता.
धीरू भाई को यह नहीं पता है कि मैंने अब खुद ही अपने बारे में मीठी शंकाए पालना शुरू कर दिया है ….. यह जानते हुए भी कि यह सब शत प्रतिशत भ्रम है. …. अगर मुझे इसी जन्म में मुंबई में रहने का फिर अवसर मिले तो इसे मैं अपना पुनर्जन्म ही मानूंगा. कृष्ण ने कहा है – ‘हे अर्जुन, मैंने बहुत सारे जन्म बिताए हैं और तुमने भी. किन्तु है परन्तप, तुम्हें वे सब नहीं मालूम, मुझे वे सब मालूम हैं.’
धीरू भाई, मेरे एकांत में मुंबई की हंसी खिलखिलाती रहती है. उसे सुनते हुए मैं अपनी बंद आंखों से उसका चुम्बन लेता रहता हूं.
न मैं सरल हूं
ओर न ही तुम कठिन
इसलिए हम साथ-साथ चल रहे हैं
नहीं मिल पाने
और दूरी के बावजूद
मैंने तुमसे बहुत कुछ लिया है
पर दिया कुछ नहीं
मेरे पास क्या है
जो मैं तुम्हें दे पाऊँ
मात्र इन शब्दों के ……
मुंबई को फिलवक्त इसके अलावा मैं और कुछ दे नहीं सकता. इसे लिखते हुए मुझे मुंबई में अदृश्य रूप से घुसपैठ करने का सुकून मिल रहा है. मुंबई के उस काल खंड में भी जब मैं स्थायी रूप से मुंबई रहने नहीं आया था.
धीरू भाई जून 1990 में मुंबई आए थे. जनसत्ता मुंबई के फीचर ऐडिटर बनकर. शुरू में लगभग चार महीने समूचे मुंबई में उनका कोई मित्र नहीं बन पाया. दिल्ली जैसे शुष्क, लगातार असुरक्षित होते जाते और बिना रात्रि जीवन के शहर से आकर मुंबई में उनके लिए एक नई दुनिया खुल रही थी. उनके व्यक्तित्व और चरित्र के हिसाब से उन्हें उसे धीरे-धीरे ही आत्मसात करना था.
उस कथाकार धीरू भाई को यह मालूम नहीं था कि उन्हें मुंबई के शुरुआती महीने अंधेरी (पूर्व) स्थित ओल्ड नागरदास रोड पर एक पुरानी चाल के चौथे माले में एक खोली के जिस रसोई में रहना था, वह चाल लिखने वालों के प्रिय विल्सन पेन की फेक्टरी के पास है. रसोई का वह छोटा सा कमरा दरअसल उनके ससुराल की खोली का हिस्सा था. जिसमें सास, ससुर और अन्य परिजन रहते थे. धीरू भाई सुबह जल्दी ही एक्सप्रेस टावर के लिए निकल जाते. ताकि उनके ससुराल वालों को प्रतिदिन की आवभगत की तकलीफ न दी जाए.
उन शुरुआती चार महीने धीरू भाई शाम को प्रेस से छूटकर सीधे जुहू बीच चले जाते ओर वहां चौपाटी पर से नारियल पानी लेकर केवल उतना ही नारियल पानी पीते जितनी रम उसमें डालना है. वे वहां देर तक बैठे रहते और नारियल पानी के साथ मिलाकर रम को स्ट्रा से पीते रहते. फिर खाना कहीं बाहर ही खाकर उस रसोई में तब ही पहुंचते जब उन्हें विश्वास हो जाता कि ससुराल वाले अब सो गए होंगे. उनके लिए रसोई घर का दरवाजा खुला ही रखा जाता था.
उस रसोई में रहना धीरू भाई की मजबूरी थी. उन्हें बतौर फीचर ऐडीटर उस समय चार हजार रुपए मिलते थे. ललिता भाभी को दिल्ली पैसे भेजना और खुद के मुंबई खर्च के बाद कुछ बचता ही नहीं था कि वे कोई खोली किराए पर ले लें ओर अपने घर परिवार को मुंबई ले आए.
यहाँ यह बता देना जरूरी है कि मुंबई में किराए की खोली या फ्लेट लेने के लिए एक साल का किराया एडवांस देना होता है. चारकोप में खोली किराए पर लेने के लिए उन्हें पांच हजार रुपए जुटाने में चार महीने लग गए.
मैं उन दिनों इन्दौर में था और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा के भावी मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले एक नेता के लिए दैनिक अखबार निकालने की योजना को अंतिम रूप दे रहा था. मैंने अपने हिसाब से अखबार की डमी का काम किया और साथ-साथ कभी कभार उनके भाषण लिखने और अन्य चुनाव सामग्री को प्रकाशित करने का काम कर रहा था. अपने वैध-अवैध प्रयासों के बावजूद वे हार गए और मैंने उनसे मिलकर विदा ली और मुंबई की ट्रेन पकड ली.
इसके पहले मैं केवल 2 बार एक-दो दिनों के लिए मुंबई आया था. एक तो इन्दौर स्कूल आफ फाईन आर्टस के युवा चित्रकारों के ग्रुप, जिसका नाम ब्लैक ग्रुप था, की प्रदर्शनी देखने. उस प्रदर्शनी का कैटलाग भी मैंने ही लिखा था. इसके बाद जब मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग ने कथक के जयपुर घराने की शीर्षस्थ नृत्यांगना दमयंती जोशी को कालिदास सम्मान दिया था, तब उस सम्मान से पूर्व दादर स्थित उनके घर पर उनसे एक लम्बी बातचीत करने, ताकि ‘कलावार्ता’ का एक समूचा अंक उन पर केन्द्रित किया जा सके. उस समय मैं मध्यप्रदेश कला परिषद की मासिक पत्रिका ‘कलावार्ता’ का संपादक था. बाद में उस सम्मान समारोह में ही उन पर केंद्रित अंक का लोकार्पण हुआ था.
लेकिन मुंबई की यह तीसरी यात्रा कितनी लंबी रहेगी, यह मुझे भी नहीं मालूम था. मैंने केवल यह तय किया था कि अब मुझे मुंबई में रहना है. वहां जाकर कहाँ रहना है और क्या काम करना है, इन सबसे मैं अनभिज्ञ था.
दादर स्टेशन (पूर्व) में अपने छोटे से बैग के साथ उतरकर मैं वडाला रोड से निकलने वाले मुंबई के पहले सायंकालीन अखबार निर्भय पथिक के संपादक के केबिन में था, अपने लिए कुछ काम मांगता हुआ. उन दिनों इस अखबार के मालिक भाजपा के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हुआ करते थे. उन संपादक जिनका नाम अश्विनी कुमार मिश्र है, ने मेरी रुचि और अनुभव देखते हुए मुझे दो महीने बाद प्रकाशित होने वाले दीपावली विशेषांक, जो लगभग 200 पृष्ठों की पत्रिका होती, के प्रभारी का कार्य करने का प्रस्ताव रखा. मैं मान गया और शुरुआती कुछ महीने उस अखबार का रिपोर्टर रूम मेरी रातों के लिए शयन कक्ष बन गया. मैं अखबारों की फाइलों को गादी-तकिए की तरह इस्तेमाल करता और सुबह उठकर वहीं नित्यकार्य से फारिग हो जाता.
दीपावली विशेषांक निकाल कर मैं उसी अखबार में रोज के कुछ पृष्ठ देखने लगा. उस दौरान पृथ्वी थिएटर का सालाना थिएटर फेस्टिवल शुरू होने वाला था. मैंने जनसत्ता के संपादक राहुल देव से फोन पर बात की कि क्या मुझे जनसत्ता के लिए यह फेस्टिवल कवर करने का मौका मिल सकता है. उन्होंने मंजूरी दी ओर मैं निर्भय पथिक में काम करते हुए जनसत्ता के लिए भी लिखने लगा.
बीच में गोपाल शर्मा की वजह से मुझे किसी फिल्मी साप्ताहिक पत्रिका में भी काम करने का अवसर मिला. गोपाल शर्मा ही उसके संपादक थे. उनके साथ काम करते हुए मैंने उनके व्यक्त्त्वि की बहुआयामी गहराई और उनकी मानवीयता को पहचाना. इस समय तक धीरू भाई से मेरी पहचान केवल जानने के स्तर पर थी.
बाद में जनसत्ता में आ जाने के बाद कुछ महीने मैं समाचार डेस्क पर रहा लेकिन जल्दी ही सबरंग पत्रिका और फीचर पृष्ठों के साथ मुझे जोड़ दिया गया. यहीं से मेरी शुरूआत हुई मानसी कहानी के जनक धीरेन्द्र अस्थाना को पहचानने की और उनसे घनिष्ठता बढ़ाने की.
अपने अतीत को शब्दों में उतारते हुए मुझे अपने आपको समझने का भी अवसर मिल रहा है. उन सभी मित्रों का साथ, जो मुंबई में रहा, आज मुझे किसी नए अनुभव की तरह महसूस हो रहा है. इस अनुभव को कितना बांट पाऊंगा, यह मेरी अल्पबुद्धि और कमजोर याददाश्त पर ही निर्भर करता है.
मुंबई में रहते हुए वह मुंबई मुझसे हमेशा अलक्षित ही रहा, जिसे मैं अब देख-समझ पा रहा हूं. अभी तक अपने जीवन के सबसे उद्यमी, सबसे सक्रिय और बेहद खूबसूरत रहे वे दस वर्ष जैसे अपने साथ पंख लगाकर आए थे. मैं अपनी स्मृति में अभी भी उड़ रहे उस समय को देख सकता हूं. बल्कि इसे बार-बार देखने की एक बुरी आदत सी मुझमें है.
नितान्त अपरिचित और अजनबी शहर. जिसमें रहते हुए मैंने मानवीय रिश्तों की उष्मा को महसूस किया और अंतत: उसी में जीने लगा. मुंबई में रहने वाले व्यक्ति के लिए मुंबई उनके अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रत्येक के लिए एक भिन्न शहर है. जो जहाँ है और जो भी काम कर रहा है, मुंबई की आपाधापी वाली सम से मिलते हुए ही अपने जीवन की लयकारी पूरी कर पा रहा है. अगर किसी का जीवन मुंबई की इसी सम से तारतम्य नहीं बैठा पाता तो मुंबई उसे अपने साथ नहीं रखता. मुंबई अपने से प्रेम करने के लिए थोड़े समय की मोहलत भी दे देता है. दिल्ली, मद्रास और कलकत्ता रहने वाले लोगों को भी मुंबई में रहने के लिए मुंबई में रहना सीखना पड़ता है. मुंबई में किस हद तक जाकर रहा जा सकता है यह वहां के रहवासी की इच्छा और श्रम के काटों वाली घड़ी ही निर्धारित करती है. इसीलिए मुबई कभी ग्रीनविच मीन टाइम में प्रतिपल बदलते समय को नहीं मानता. मुंबई का अपना अलग समय चलता है. शाम को 7 बजे के बाद मुंबई के दिन की शुरूआत होती है.
धीरू भाई को मुंबई से अपना यही तारतम्य बनाते-बनाते कुछ महीने लगे और वे जल्दी ही मुंबई के हो गए. अपने शुरुआती महीनों में जुहू चौपाटी की रेत पर बैठकर नारियल पानी में मिला अपना प्रिय तरल पीते हुए धीरू भाई मुंबई के उस समय को नहीं देख पा रहे थे जिसमें उनका काम मुंबई की उत्तर भारतीय संस्कृति की जीवन्त धड़कन बनने वाला था.
मुंबई में रह रहे उत्तर भारतीयों के लिए जनसत्ता और सबरंग ने यह काम बड़ी तेजी से और जिम्मेदारी के साथ निभाया. इसका असली श्रेय निश्चित ही राहुल देव को जाता है जो मुंबई जनसत्ता के संपादक थे. पत्रकारों, संवादाताओं, समीक्षकों, स्तंभकारों और गाहे-बगाहे लिखने वाले तमाम लोगों की अच्छी खासी टीम उस समय इस अखबार के पास थी. मुंबई में उस दौरान पनपी हिंदी सांस्कृतिक चेतना के पीछे कहीं-कहीं जनसत्ता का प्रोत्साहन, स्वीकार्य और संरक्षण रहा है. कितने सारे कवि, लेखक, समीक्षक ओर स्तंभकार इसी अखबार से प्रस्तुत हुई रचनात्मक उपस्थिति के बतौर आज भी मौजूद हैं.
मैंने मुंबई में अपने पहले दिन ही मुंबई को शरारती सलाम किया और उसे अपने जीवन का भागीदार बना लिया. मैं जानता था कि मुंबई से बचकर मुंबई में नहीं रहा जा सकता.
मुंबई कभी नहीं सोता. वह हर क्षण अपने जागने और होने की रखवाली करता रहता है. उसके बाशिंदों को भी पता है कि उतनी ही नींद निकालना है जितनी कि जरूरी है. इस जरूरी नींद से अधिक समय मुंबई ही उन्हें उपलब्ध नहीं कराता. धीरू भाई और मैं शायद ही किसी रात बारह बजे के पहले अपने-अपने घर पहुंच पाते थे. महीने में एकाध बार मैं या वे ट्रेन में सो जाते थे. ओर वसई या विरार पहुंच जाते थे. यह उल्लेखनीय है कि धीरू भाई सबरंग में जो अपना स्तंभ लिखते थे, उसका नाम विरार दिशा था. इस विरार दिशा को आगे विस्तार से याद किया जाएगा.
धीरू भाई आते-जाते लोकल ट्रेन में चल रही जीवन के बहुआयामी क्रिया-कलापों का सूक्ष्म अध्ययन करते रहते. बाद में शाम को एक मजेदार बात की संक्षिप्त परिचयात्मक भूमिका के साथ सुनाते रहते. मुझे कई बार लगा था कि धीरू भाई जहां होते है, वहां थोड़े ही होते है और उन जगहों पर ज्यादा होते हैं जहां वे फिलहाल नहीं है. तब मुझे लगने लगा था कि मुंबई की लाईफ लाइन मानी जाने वाली लोकल ट्रेन उन्हें शतप्रतिशत अपने पास ही रखती है. शायद इसलिए कि वे सफर कर रहे हैं. सफर में वे अधिक चौकन्ने और थोड़े डर में रहते हैं.
ट्रेन की दिशा से आने वाली हवा की खिड़की उन्हें रात को सफर के लिए अपनी प्रिय जगह लगती. जब कभी किसी रोज उस खिड़की पर बैठने का मौका उन्हें मिल जाता, वे अतिरिक्त प्रसन्नता में आ जाते. चर्चगेट से मीरारोड जाते समय रात के अंधेरे में धीरू भाई का यही एकमात्र प्रकृति प्रेम होता.
मैं ऐसे समय ट्रेन में थोड़ा उधेडबुन में रहता. बहुत बोलता हुआ और घर पहुंचने की हड़बडी में. उस घर पहुंचने की जल्दी में, जहां मेरा कोई इंतजार नहीं कर रहा होता. घर की चाभी मेरे पास भी होती , लेकिन वहां मेरे साथ रह रहे मित्र दरवाजा खुला छोड़ अपने-अपने कामों में उलझे रहते. कोई अपने बिस्तर पर बैठ मच्छरदानी के भीतर बीडी पी रहा होता ….. कोई इस हाव-भाव में रहता कि मुझे पता नहीं चल पाए कि उसने आज फिर से पी है. कोई इस तरह से गंभीर हो विचार मग्न मिलता जैसे उसे उस फ्लेट की अन्य दुनियादारी से कोई मतलब ही नहीं हो. वे मेरे चित्रकार और रंगकर्मी मित्र थे. जो उस वक्त अपनी प्रतिभा के बिकने का इंतजार कर रहे थे.
मेरा अपना एक अलग कमरा होता जिसकी चाभी केवल मेरे पास ही होती. उसे खोलकर मैं टीवी चालू कर या टेप में कोई कैसेट लगाकर अपने बिस्तर पर गिर सा जाता. तब एक-एक कर सब अंदर आते. मुंबई में अपने अपने संघर्षो की उनकी महागाथा का नया आडियो एपिसोड खुलता रहता. मैं सुनता रहता या फिर डांटता रहता. इस पहले अप्रिय काम के बाद मेरे लिए दूसरा अदृश्य काम यह होता कि मैं सो जाता.
क्या कोई सोच सकता है कि मुंबई की जमीन पर नींद निकालने वाले व्यक्ति सोते हुए अपने आप को अक्खी मुंबई का एकमात्र शहंशाह समझते हैं ……. मैं खुद को यही समझता था.
सुबह जागने के बाद फिर वही बन जाता जो मैं असल में हूं. इतनी बड़ी मुंबई में एक अकेला व्यक्ति. कई सारे मित्र , व्यावसायिक सम्बंध और अनजान पाठकों के बीच नाम से परिचित मात्र एक व्यक्ति की तरह. समय-समय पर कुल मिलाकर मुंबई के अधिकांश जीवन में मेरा यह अकेलापन बेहद समर्पित होकर बंटा भी है. वे सब स्मृतियाँ मेरे मन की सबसे कीमती धरोहर हैं. जीवन के सबसे भावुक और सबसे जिम्मेदार पल वे होते हैं जो केवल दो लोग ही जानते हों. मेरे अपने मामले में मैं उन दो लोगों में से एक हूं.
अब……. बिना दूसरे की प्रतीक्षा किए ……… उसे केवल याद करता हुआ. यह जानता हूं कि किसी का साथ होना उसका असली सानिध्य नहीं है. इसे तो स्मृति से ही प्राप्त किया जा सकता है. ….. शायद ……. कभी मेरे ये शब्द मेरी नितांत निजी धरोहर की राह पर भी चल पड़े. इन शब्दों को उस अलक्ष्य खोह में उतारने के लिए शायद मुझे ही दुआ मांगनी होंगी. आमीन.
निर्भय पथिक में काम करते हुए लगभग 6 महीनों का मुंबई का वह शुरुआती दौर मेरे लिए कुछ ऐसा था गोया मैं किसी एक्वेरियम के भीतर अपने आप को छिपाता हुआ मासूमियत से भरी रंग बिरंगी दुनिया को देख रहा हूँ.
उसी में सोता और उसी में जागता-जीता हुआ. जेहन में यह कभी नहीं आया कि अपने लिए सुरक्षित जगह बनाओ या इस शहर का भरपूर व्यावसायिक उपभोग धनलोलुप लोगों की तरह किया जाए. आज मुझसे कोई पूछे कि मैं किस तरह का जीवन जीना चाहूँगा तो मेरी यही इच्छा होगी कि मुंबई के शुरुआती पहले वर्ष के जीवन जैसा.
मुंबई अपने शुरुआती जीवन में ऐसे सपने दिखाता है जो देश के किसी भी हिस्से में रहते हुए नहीं देखे जा सकते. आपकी सहज-सरल इच्छा कब स्वप्न बन जाती है और फिर जीवन की काया में ढलकर आपके साथ सुख-दुख की भागीदार बन जीवन जीने लगती है, यह मुंबई में आपको पता नहीं चलता. निर्भय पथिक में मेरे साथ वही हुआ. इस अखबार की एक उप संपादक कम रिपोर्टर से मिलने उसकी एक सहेली प्रायः प्रतिदिन आती थी. वह सेन्ट्रल लाइन में रहती थी. हमारी पूरी टीम साथ में लंच लेती थी, तब ही वह अक्सर आती. वह लड़की मुंबई की मेरी पहली दोस्त बनी. जिसने मुझे मुंबई दिखाने में और साथ में सपने देखने में कोई कसर नहीं रखी. उसके साथ ही मैंने मुंबई के उस चरित्र को पहचाना जो प्रतिपल जीवंत रहता है. उन जगहों को देखा जहां मुंबई की आपाधापी से दूर मुंबईकर उस एकांत का सानिध्य करते थे जहां वे खुद मन से अकेले नहीं होते थे.
वह लाइट म्यूजिक की सिंगर भी थी. यदा-कदा उसके ग्रुप का कहीं किसी आडिटोरियम में परफार्म भी होता रहता था. वह मुझे हमेशा वी. आय. पी. पास देती थी. लेकिन मैं हर बार बदलते किसी उपनगर स्थित आडिटोरियम में जाने के मुंबईया भौगोलिक गणित से अपरिचित रहने के कारण जा नहीं पाता था. उसे 5 घंटे पहले अपनी फाईनल रिहर्सल करने पहुंच जाना होता था. उस समय वे 5 घंटे उसकी रिहर्सल देखने के लिए मैं निकाल नहीं पाता था. आखिर मुंबई की नौकरी आपको किसी भी कार्य के लिए अतिरिक्त समय नहीं देती.
लेकिन वह महालक्ष्मी मंदिर के पीछे बड़ी चट्टान पर मेरे साथ बैठे हुए मुझे अकेले गाना सुनाती थी. समुद्री लहरों की आवाजें और रह-रहकर उतावला होता पानी का हमारी देह पर स्पर्श, उसके गाने में पार्श्व संगीत की तरह मौजूद रहता. मैंने लगभग 2 महीने उस अखबार में उसका लाया उसके घर का बना टिफिन खाया है.
कभी-कभी रविवार को जब हम फिल्म देखते तो वह फिल्म की कहानी पर मासूमियत से अधिक विश्वास करते हुए मुझसे सपनीली बातें करती रहती. मैं उसकी बातों में अपने आप को पिघलाता हुआ महसूस करता रहता. साथ ही मुझे यह भी लगता कि केवल उसके साथ ही मुंबई में रहा जा सकता है.
लेकिन यह मुंबई है. निर्भय पथिक के बाद मेरे कहीं अन्यत्र काम करने से हमारा मिलना कम से कम होता गया और कुछ समय बाद तो मिलना ही बंद हो गया. उसको या मुझे इस नहीं मिल पाने पर उस समय शायद कोई ग्लानि नहीं हुई होगी. थोड़े समय बाद ही उसका अपना अलग जीवन था और मेरा अपना अलग. मुंबई में हमारे मन के सानिध्य का यह एक निश्चित काल था. न उससे कम.. न उससे अधिक. यह मुंबई का एक जरूरी हिस्सा है. मुंबई अपने भीतर देखो जा रहे लाखों सपनों को अक्सर अरब महासागर की उत्ताल खाती लहरों के साथ अदृश्य दिशा में भेज देता है.
निर्भय पथिक के दीपावली विशेषांक के मुखपृष्ठ पर उसी लड़की के चेहरे का एक रंगीन खूबसूरत फोटो मैंने प्रकाशित किया जो बेहद पसंद किया गया था. यह उसके लिए मेरी तरफ से अप्रत्याशित उपहार था. वरना मेरे पास उस वक्त इतने पैसे ही नहीं होते थे कि उसके लिए एक रूमाल ही खरीदा जा सके.
एक बार उसके जन्म दिन पर उसे किसी अच्छे होटल में ले जाकर खाना खिलाने के पैसे मेरे पास नहीं थे. मैंने जनसत्ता में काम कर रहे अपने पुराने पत्रकार मित्र ऋषिकेश राजोरिया को पटाया और हम तीनों ने बढियां जगह पर लंच लिया. उसका अच्छा खासा बिल मैंने उस पैसे से चुकाया जो ऋषिकेश ने इसी काम के लिए मुझे दिए थे.
उन दिनों मैं ऋषिकेश राजोरिया के साथ कोलाबा स्थित आमदार निवास गृह (एम.एल.ए. होस्टल) मैजिस्टिक बिल्डिंग में रहता था. वह कमरा घाटकोपर के भाजपा विधायक प्रकाश मेहता को आवंटित था. हम लोग कमरा नं. 114 में रहते थे और कमरा नं. 214 में भाजपा के ही प्रकाश जावडेकर का कमरा था. उनके यहां जब अधिक मेहमान आ जाते, तो वे उन्हें हमारे कमरे में भेज देते थे और हम एक से बढकर एक बहाना बनाकर उन्हें वापस रवाना कर देते थे. उस कमरे में हमारे साथ आज के एड फिल्म मेकर और सीरियल प्रोड्यूसर भरत पंडित, सबरंग के डिजाइनर शिवा हिरेमठ और गुजरात सरकार के गुर्जरी एम्पोरियम में काम कर रहे राजेन्द्र जडेजा भी रहते थे. मुझे ऋषिकेश राजेरिया के सहज मानवीय मित्रता सहयोग की वजह से वहां रहने का मौका मिला था.
उस कमरे में रह रहे सभी मित्र मेरे उस लडकी के साथ दोस्ती को जानते थे और वे इसका यथा सम्मान ही नहीं बल्कि इसमें हर संभव सहायता करते थे. ऋषिकेश राजोरिया इन दिनों जयपुर में पत्रकारिता कर रहे हैं.
किसी रविवार को चाय पीने के लिए मैं उसे कमरे में आमंत्रित करता था तो सभी मित्र नहा धोकर इस तरह बैठ जाते थे कि मानो वे अपने कमरे में भी हमेशा ही नहाए धोए रहते हैं. मैं अपने मित्रों की सारी पोलम-पट्टी बाद में उस लड़की को बताता था और यह सब हमारी तात्कालिक हंसी का कारण बन जाता था. हमारे मन तब यह नहीं समझ पाते थे कि यह थोड़ी सी हंसी कितनी कीमती है. कम से कम आज मेरे लिए तो कीमती ही है.
ये शब्द भी कहीं कितने भाग्यहीन होते हैं, जिनकी वजह से इन्हें लिखा जाता है, वह ही इन्हें पढ़ नहीं पाते हैं. इस तरह शब्द मात्र स्मरण का निमित्त बनकर रह जाते हैं. लेकिन मेरे लिए यह केवल स्मरण नहीं है. कभी-कभी मैं अपने स्तर पर इसे पुन: पुन: जीने लगता हूं. इस तरह से जीना मुझे यह विश्वास दिलाता रहता है कि मेरा होना अभी शेष है.
स्थापत्य है
जिसे बनाया है
समय ने दुष्कर पत्थरों से
इसकी एक खिड़की पर
जहां तुम्हें खड़ा होना था
एक शून्य टंगा हुआ है
इसके दरवाजे को
ढंक लिया है
हवा के थपेडों ने
कोई नहीं जो आता हो
थोड़ी देर टहलने के लिए यहाँ
किसी ने इसे देखा तक नहीं
यह ऐसा ही स्थिर रहेगा
हमारे न रहने के बाद भी
मुंबई के साथ मेरा रिश्ता मेरी इस कविता की तरह ही है. वे वर्ष किसी स्थिर चित्र की तरह, सुनाई नहीं देने वाली अनहद के साथ, मेरे सामने बदलते रहते हैं. लेकिन यह सब लिखते हुए मुझे एक ही दृश्य के आस-पास अपने को समेटना होता है.
मैं मुंबई के उस शुरुआती वर्ष में मुंबई को खोज रहा था या मुंबई मुझमें कुछ खोज रही थी, ठीक-ठीक पता नहीं ….. आज लगता है कि ना मैं मुंबई को खोज पाया और मुंबई के समक्ष तो मेरे जैसे गिरते- पड़ते लोगों की अंतहीन कतार है , उससे मैं कब का छिटक कर अलग हो गया हूं.
अलग जरूर हो गया हूं लेकिन अपनी स्मृतियों में और यथासंभव जीने में वही मुंबई मेरी भावनाओं में धड़कता रहता है. इन शब्दों में शायद उसका हल्का स्पंदन महसूस हो सके.
मेजेस्टिक एम एल ए गेस्ट हाउस में रहते हुए गेट वे आफ इंडिया की सीढियों पर समुद्री पानी में अपने दोनों पैरों को डालकर मैं अक्सर देर रात तक बैठा रहता था. यह सोचता हुआ कि भारत का जो नक्शा हम देखते हैं उसमें मुंबई से जुडी समुद्री रेखा जो दिखती है, मैं उसी रेखा पर बैठा हूं. कभी-कभी मूर्खतापूर्ण विचार भी कितने भले ओर कितने भोले लगते हैं. लगभग प्रेम की तरह. आदमी के जीवन में अगर इसका भी सुख नहीं होगा तो वह किधर जाएगा.
आधी रात के वक्त भी गेट वे आफ इंडिया रौनक से भरा रहता. यह मुंबई दंगों और श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों के पूर्व का मुंबई था. किसी को किसी से डर नहीं, किसी की प्रायवेसी में कोई ताक-झांक नहीं …….. सब कुछ पारदर्शी ……. जैसे सब को एक साथ ही यह मालूम हो कि वे जो भी कर रहे हैं अपनी-अपनी जगह ठीक ही कर रहे हैं.
कोलाबा से ससून डाक जाने वाले रास्ते पर रात 9 बजे से आधी रात तक संयमित उच्छृंखलता का शासन होता. इसी रास्ते पर आते हैं मोंडेगर और लियोपोल्ड पब. यह लियोपोल्ड पब वही है जहां कसाब ने अपने हथियार से गोलियां बरसाई थी. मुझे लगता है कि उसने यह गोलियां कोलाबा की नाइट-लाइफ कल्चर पर चलाई थी. लेकिन मुंबई अपनी चोट को बेहद करीने से जल्दी ही अपने भीतर जज्ब कर लेती है.
उस समय ताज कांटिनेंटल के इर्दगिर्द, गेट वे आफ इंडिया और कोलाबा के मुख्य मार्ग पर तमाम देशों की कई संस्कृतियों की और केवल अपनी अलग विदेशी भाषा जानने वाली लडकियों और अधेड महिलाएं अपने लिए नाइट पार्टनर ढूंढती थी. निःसंदेह शुल्क लेकर. मेरे लिए यह स्त्री-विमर्श का एक ही जगह पर एकत्र एक विशिष्ट वैश्विक चेहरा होता , जिसे कोई पढ़ नहीं रहा होता. वैसे उसे पढ़ना इतना सरल भी नहीं.
तमाम तरह के अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के परफ्यूम की खुशबू रात की उस हवा में मिलती रहती. हवा में शामिल वह सुगंध प्रतिदिन मुझे महसूस होती. न मालूम कितने तरह के सौन्दर्य प्रसाधनों की वह मिली जुली सुगंध मुझमें कभी उबकाई पैदा नहीं करती. आर्थिक उदारीकरण के उस शुरुआती दौर में उस निश्चित सुगंध से ही मैं समूचे विश्व की इस कभी न खत्म होने वाली आदिम आवश्यकता को एकटक अपने सामने घटित होते देखता रहता.
देर रात तक फुग्गे वाले, आईस्क्रीम बेचने वाले और तत्काल फोटो निकालकर देने वाले लोगों की रोजी-रोटी चलती रहती. उनके अलमस्त व्यवहार और जीवन से यह अंदाजा ही नहीं लग सकता था कि वे सब अपने-अपने प्रदेशों से दूर इस पराई मुंबई को आमची मुंबई समझ अपना संघर्ष कर रहे हैं. दूर दराज के गांव-देहातो में रह रहे उनके परिजन चैन की नींद सोते कि बेटा मुंबई में कमा रहा है और पैसे भेज रहा है.
मुंबई ऐसा निर्वासन देता है कि जल्दी ही उसी निर्वासन से प्रेम हो जाता है. तब रहने की, आने जाने की, दिन-रात की , कोई भी तकलीफ नहीं होती… होता है तो केवल मुंबई में रहने का सुख. अपने आसपास घट रही तमाम गतिविधियों से बेखबर अपने इसी संघर्ष और अंतत: अपने अपने हिसाब से मुंबई को जीत लेने का कोई अलौकिक सुख.