तलघर
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“बोलते समय अनौपचारिक रूप से बहुत सी बातें ऐसी निकल जाती हैं, जो लिखने में नहीं आती हैं. दोनों का महत्व है. मैं जो कुछ बोल रहा हूँ उसमें बिखराव हो सकता है. मैं बहुत सोच–सोच कर बोलने वाला कोई प्राध्यापक नहीं हूँ.”
मनोज रूपड़ा
1.
अपने परिवार के विषय में कुछ कहें.
जो कलाकार होते हैं सिर्फ वे ही विधा को नहीं चुनते, कभी-कभी विधा भी चुनती है. मेरी जो पृष्ठभूमि है- पारिवारिक पृष्ठभूमि. उसमें साहित्य का तो छोड़ो, शिक्षा का भी कोई महत्व नहीं है. यानी हमारे परिवार में शिक्षित होना, कोई मायने नहीं रखता, तो फिर साहित्य के संस्कार तो बहुत दूर की चीज है. मैं जिस पृष्ठभूमि से हूँ, उसमें मेरा लेखक बनना ऐसा है जैसे मैंने विधा को नहीं चुना, विधा ने मुझे चुन लिया. विधा ने मेरे अंदर कोई ऐसी चीज देखी होगी कि इसके अंदर कोई कथा कहने की, कोई कहानी कहने के गुण हैं; नहीं तो कोई पृष्ठभूमि नहीं थी, क्योंकि हमारा जो व्यवसाय है, वह पारंपरिक व्यवसाय है. वह हलवाइयों वाला है. उसमें कोई कितना मिठाई बनाने में निपुण है, इसका महत्व ज्यादा है. उसके शिक्षित होने का कोई महत्व नहीं है.
हमारे यहाँ ऐसा होता है कि जब रिश्ते देखने आते हैं लड़की वाले, तो वह यह देखते हैं कि लड़के को क्या-क्या चीजें बनानी आती है यानी जो पूरी मिठाइयां हैं, वह सब अच्छे से बना लेता है या नहीं?
नमकीन की जितनी चीजें है वे उसको बनाने आती हैं या नहीं? वह सारी चीजें अगर उसको तरीके से बनानी आती हैं, तो समझ लो उसके लिए वह एकदम सर्वगुण संपन्न है. कोई पूछता भी नहीं कि कहाँ तक पढ़ा है? अब, मैं खुद छठवीं फेल हूँ और मेरी जो पत्नी है, वह अंग्रेजी में एम.ए. है, तो सोचो उसने क्या देखकर हाँ कही होगी? क्योंकि हमारा तो समाज एक ही है, उसके यहाँ भी शिक्षा का कोई विशेष महत्व नहीं था. वह अपनी इच्छा से पढ़ना चाहती थी, तो परिवार वालों ने एक बात कही कि तुमको पढ़ना है पढ़ो, लेकिन ग्रेजुएशन के बाद तुम ये मत बोलना कि हमको कोई शिक्षित लड़का चाहिए. क्योंकि दूर-दूर तक हमारे समाज में उसकी कोई संभावना नहीं है. अगर तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया, तो बात अलग है. जैसे मेरी पत्नी की जो छोटी बहन है, उसकी अरेंज मैरिज नहीं है, उसका प्रेम विवाह है.
स्वतंत्र ढंग से चुनाव करना एक अलग चीज है. लेकिन अगर वैसा नहीं है और तुमको अपने समाज के दायरे में ही शादी करनी है, तो विकल्प सीमित हैं. लड़का जो भी होगा वह व्यवसाय से जुड़ा हुआ होगा. यह देखेंगे कि वह व्यवसाय में कितना निपुण है. शिक्षा का हमारे पूरे नेपथ्य में कोई लेना देना नहीं है. मैं कभी-कभी खुद सोचता हूँ कि मैं लेखक कैसे बन गया.
२.
वर्तमान में, इनमें कुछ बदलाव आये होंगे.
अभी भी दिक्कत है. लड़कियां अच्छे से पढ़ लेती हैं, लड़के पढ़ नहीं पाते. मेरी आठों भतीजियाँ ग्रैजुएट हैं, लेकिन किसी को पढ़ा–लिखा पति नहीं मिला. जॉब करने वाले को हमारे समाज में कोई भाव नहीं देता, अगर वह पढ़-लिख गया तो एक तरह का सामाजिक बहिष्कार. जिस तरह व्यवसाय का पूरा माहौल है, उसमें वह कहीं फिट नहीं बैठता. वह खुद अपने आपको को अनफिट महसूस करता है.
बात सिर्फ़ हमारे परिवार की नहीं है बल्कि जितने भी व्यापारी परिवार हैं. वे एजुकेशन की बजाय उद्यम पर ध्यान देते हैं यह एक अलग तरह की संरचना है हमारे समाज की. ऐसे कई उद्योगपति और व्यापारी हुए हैं जो खुद पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन उनकी चैरिटी से कई विद्यालय और कॉलेज चल रहे हैं.
फिलहाल मैं साहित्य से हटकर कुछ बातें कहना चाहता हूँ. कुल जो रोजगार है (भारत का) उसमें खुदरा व्यापार का कितना योगदान है? खुदरा व्यापार में कितनी दुकानें आ गयीं ? आप किसी भी शहर में चले जाइये, लाइन से आपको दुकानें दिखेंगी. शहर का सत्तर फीसदी हिस्सा जो होता है, वह दुकानों से पटा हुआ रहता है. उन दुकानों के जो छोटे-छोटे दुकानदार हैं, वे खुद तो स्व-रोजगार कर रहे हैं, साथ ही साथ वे बेरोजगारी के प्रतिशत को भी कम कर रहे हैं. छोटे से छोटा एवं पकौड़ी बेचने वाला भी कम से कम दो-तीन लोगों को रोजगार देता है. इस देश में छोटी–बड़ी लाखों दुकानें हैं जिसमें करोड़ों कर्मचारी काम करते हैं. बड़ी इंड्रस्ट्री में, बड़े उद्योग में या सरकारी विभागों में जो नौकरियाँ हैं, उसका प्रतिशत आप एक तरफ रखें और खुदरा व्यापार में जितनी तरह की नौकरियां हैं, उसका प्रतिशत दूसरी तरफ़.
सरकारी और औद्योगिक रोजगार से दोगुना रोजगार खुदरा व्यापार में है. अभी किसी ने सर्वे नहीं किया है कि मंडियों और बाजारों में माल ढोने वाले हमालों की कुल संख्या कितनी है ?
हमारे यहाँ तो साहित्य में खुदरा व्यापार से जुड़े हुए लोगों पर कोई कहानी नहीं है; आप देखिए कि दुकानदारी करने वालों पर कितनी कहानियां हैं? जबकि वह एक बहुत बड़ा फैक्टर है, हमारी इकोनॉमी को अगर आज तक किसी ने चलाया है, तो खुदरा व्यापार ने चलाया है. हम कई बड़ी-बड़ी मंदियों से उभरकर बाहर निकले हैं. दुनिया में जो दूसरे देश हैं, वहाँ का खुदरा व्यापार उतना बड़ा नहीं है. वहाँ या तो बड़े उद्योग हैं या फिर सप्लाई की सिस्टमैटिक चैन है; पर यहाँ एक बड़ी बात जो है कि जितने भी खुदरा व्यापारी हैं, वह आत्मनिर्भर भी हैं और दूसरों पर भी निर्भर हैं.
यह ऐसा संतुलन है कि मुझे कोई व्यवसाय शुरू करना है, तो मैं जिससे भी कच्चा माल लूँगा, वह उधार में लूँगा. इस तरह मैं उसके ऊपर निर्भर हूँ, वह हमारे ऊपर. अगर मैं नहीं ले रहा हूँ, तो उसको ग्राहक कहाँ से मिलेंगे? वह मेरे ऊपर भी निर्भर है.
वैसे तो, स्वतंत्र रूप से दोनों आत्मनिर्भर हैं. वह भी आत्मनिर्भर है, मैं भी आत्मनिर्भर हूँ. लेकिन, हम दोनों एक दूसरे के ऊपर भी निर्भर हैं. यह जो फार्मूला है, वह हमारी पूरी इकोनॉमी का सबसे बड़ा फार्मूला है. जिसकी वजह से हिंदुस्तान कई बड़ी-बड़ी मंदियों से बच गया. अगर हम व्यापारी आपस में एक दूसरे का सहयोग नहीं करेंगे, तो यह पूरी इकोनॉमी की चैन टूट जाएगी. सिर्फ बड़े उद्योग से इकॉनमी नहीं चलती. हमारे यहाँ भ्रम खड़ा किया गया है कि हम 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी में जाना चाहते हैं. आज की तारीख में, जो बातें हो रही हैं, उसमें खुदरा व्यवसाय का कोई अलग से रोल ही नहीं है. उसको काट कर अलग किया जा रहा है. हिंदुस्तान के व्यवसाय की जो रीढ़ की हड्डी है, वह खुदरा व्यवसाय है. लेकिन, अभी जो पालिसी बन रही है, वह सिर्फ बड़े उद्योगों के लिए बन रही है. बड़ी पूंजी जो हैं, वह 5 ट्रिलियन डॉलर तक तो चली जायेगी, लेकिन उसका निचले स्तर पर कितने लोगों को फायदा होगा? उसका लाभ कितने लोगों तक जाएगा? यह बताने वाला कोई नहीं है.
यह जो पूरा मामला है, खुदरा व्यापार का, उसमें लाभ सबको मिलता है. आज हर व्यापारी आठ-दस प्रतिशत में अपना व्यवसाय करता है. कोई बहुत ज्यादा सबसे लाभ नहीं ले रहा. एक दूसरे से आठ-दस प्रतिशत का लाभ ले रहा है, उसमें पैसा गोल-गोल घूमता है. बाजार में, जो लिक्विडिटी आती है, वह खुदरा व्यवसाय से आती है. लिक्विडिटी कभी भी बड़ी इंड्रस्ट्री से नहीं आती. जब भी मंदी का दौर आता है, बार-बार हम लिक्विडिटी की बात करते हैं, लिक्विडिटी कहाँ से आती है? वह सीधे-सीधे, जो निचले स्तर के बाजार हैं, वहां से आती है.
3.
आप अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ कहें. क्या आप बहुत अनुशासित होकर लिखते हैं?
मैं आधा लेखक हूँ और आधा व्यवसायी हूँ. कभी भी मैंने अपने लेखक के ऊपर व्यवसाय को हावी होने नहीं दिया और अपने व्यवसाय के ऊपर भी लेखक को हावी नहीं होने दिया. उनके बीच मैंने अपना एक संतुलन बना रखा है. मैं आज की तारीख में व्यावसायिक रूप से उतना ही सफल हूँ, जितने की मुझे उम्मीद थी. लेखन में कोई उस तरह की उम्मीद होती नहीं है. व्यवसाय में आपकी एक उम्मीद होती है. आपको यहाँ तक जाना है. लेखन में मेरा न कोई वैसा सपना है, न वैसी कोई महत्वाकांक्षा है, न मेरा कोई टारगेट है. वह एक अनंत यात्रा है. लेकिन, मैं उस लिहाज से संतुष्ट हूँ, अपने रचनात्मक काम से उस तरह से भले ही संतुष्ट नहीं हूं. वैसे संतुष्ट हूँ कि दोनों चीजों को मैंने अपने तरीके से निभाया और उस ताने-बाने को बिगड़ने नहीं दिया.
मेरे चेहरे पर आप कभी कोई तनाव नहीं देखेंगे. हमेशा खुश रहता हूँ, दोस्तों के साथ मस्ती करता हूँ. लोग सोचते हैं कि यार! इतना बड़ा व्यवसाय भी सम्हालते हो और लेखन भी करते हो. लेकिन, मैं कभी नहीं गड़बड़ाया.
4.
आपको लिखने के लिए एकांत कैसे मिलता है?
असल में ऐसा है कि फैक्टरी में सुबह आठ बजे आ जाता हूँ. दस बजे के बाद काम शुरू होता है. मेरे सब सहकर्मी ऊपर ही रहते हैं. उनके रहने की व्यवस्था, खाने की व्यवस्था सब ऊपर ही है. दस बजे हमारा काम शुरू होता है. सुबह आठ से दस का समय मेरा बिल्कुल एकांत का समय है. उस समय मेरा फोन भी बंद रहता है. अगर मुझे किसी को कॉल करना है, तो मैं करूँगा; वरना व्यावसायिक फ़ोन बंद रहता है. इस बीच घर से भी कोई फ़ोन नहीं आता. ये दो घन्टे जो हैं, मेरे लिए पर्याप्त हैं. कभी लिखने या पढ़ने का कुछ और सिलसिला आगे बढ़ा तो फिर, यह भी चलता रहता है, काम भी चलता रहता है.
मैं बीच में उठकर, वर्कशॉप में जाकर भी चीजों को हैंडल कर लेता हूँ और फिर से आकर अपना पढ़ना-लिखना भी कर लेता हूँ. दोनों के बीच मुझे कभी भी अवरोध महसूस नहीं हुआ कि मेरा कोई ध्यान टूट गया है. मेरा कोई क्रम भंग हो गया है. मैं अपने आपको बहुत जल्दी ध्यानस्थ कर लेता हूँ. एकाग्र होने में मुझे बहुत कम समय लगता है. किसी एक से निकलकर, दूसरे पहलू की ओर जाने पर, कुछ लोगों का ध्यान टूट जाता है, मेरे साथ वैसा कुछ नहीं है. वैसी कोई दिक्कत मेरे साथ नहीं रही कभी भी.
लेकिन हाँ! कभी कोई किताब ऐसी हाथ में आ गयी जो खींच रही है अपने तरह से, फिर सारी चीजें एक तरफ हो जाती हैं. लिखते समय तो मैं ब्रेक कर लेता हूँ, लिखने का फ्लो भले ही एक बार तोड़ दूँगा, लेकिन कोई किताब बहुत खींच रही है और उसका पाठ मजबूती से पैठ बना चुका है मेरे अंदर, तब, किताब नहीं छूटती फिर.
5.
ऐसी किसी किताब का जिक्र करिये?
बहुत सी ऐसी किताबें होती हैं, लेखक मानो, पूरी तरह से आपके अंदर धंस जाता है. अभी फ़िलहाल उस तरह से कोई किताब हाथ में नहीं है. लेकिन, ऐसा कई बार हुआ. एक था काफ्का का ‘मुकदमा’. उस समय तो मैंने उसको पढ़ते हुए; पूरी दुनिया को त्याग दिया था, जब तक उपन्यास खत्म नहीं हुआ, किसी भी तरह के अवरोध को मैंने स्वीकार नहीं किया. वह उस लेखक की पकड़ थी. मुझे यह समझ नहीं आया कभी काफ्का को पढ़ते हुए कि इतने सरल वाक्यों में वह आदमी लिखता है. कहीं ऐसा नहीं लगता कि आप इस चीज को समझ नहीं पा रहे हैं. लेकिन आप जब अंत में जाते हैं, तो इतने तरह के विषय में आप सोचते हैं कि पूरा पाठ बहुअर्थी हो जाता है.
हमारी आदत क्या होती है कि हम एक निश्चित प्रवाह में पढ़ते हैं, एक निर्वाह उसका होता है और उसका एक निश्चित अंत होता है, काफ्का के यहां ऐसा नहीं है. वह इतने सारे अर्थ खोलता है कि आप उसको किसी एक निश्चित अर्थ की खूँटी पर टाँग नहीं सकते हैं. ऐसा जब कोई पाठ आता है हाथ में, जो बहुअर्थी होता है; तब मैं अपने आपको पूरी तरह से केंद्रित कर देता हूँ.
एक उपन्यास का मैं जिक्र करूँगा, नॉर्वे का रचनाकार है- क्नुत हाम्सुन (Knut Hamsun). उसका एक उपन्यास मैंने ‘पान’ पढ़ा. एक दूसरा उपन्यास ‘भूख’. क्नुत हाम्सुन जो हैं, उनके जैसा अत्मलक्षी लेखक मैंने कोई दूसरा नहीं देखा. यानी जिस किसी परिदृश्य को वह केंद्रित कर रहे हैं, उसमें उनका ‘आत्म’ इतने तेज फोकस में होता है कि इधर-उधर की सब चीजें छट जाती हैं.
6.
आप खुद पर किन-किन रचनाकारों का प्रभाव पाते हैं? थोड़ा विस्तार से कहें.
हिंदी में तो हमारे सामने, जब हम बड़े हो रहे थे; ज्ञानरंजन, अमरकांत, काशीनाथ सिंह, निर्मल वर्मा और उसके पहले के जो रचनाकार थे, उनमें अज्ञेय. इन लोगों से हम प्रभावित होते रहे हैं. हमारी जो पाठ पढ़ने की तमीज आयी, वह इन लेखकों से आयी. किस बात को किस तरह से विस्तार दिया जाता है, कैसे गद्य में उसको संशोधित, परिमार्जित किया जाता है और अति विस्तार से बचते हुए, कितना ज्यादा केंद्रित करते हुए लिखना, यह सब इन लेखकों से हमने सीखा. उनकी भाषा का गहरा सौष्ठव, शेखर जोशी, अमरकांत, निर्मल वर्मा और ज्ञानरंजन, इन सब के पास क्लासिक भाषा है. अब उनके बाद वह बाहर के लेखक थे, जिनके अनुवाद हमको उपलब्ध थे. मेरी उम्र के उस समय जो युवा पाठक थे, उनके पास सहज रूप से जो उपलब्ध था- वह रूसी साहित्य था. उस जमाने में रूस के साथ जो भारत के मैत्री सम्बन्ध थे, जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान था, उसके तहत बहुत सारा रूसी साहित्य हिंदी में अनूदित होकर आता था, वह सहज रूप से उपलब्ध था और अच्छा साहित्य भी था.
उसके बाद में जो ध्यान गया, वह अफ़्रीकी लेखकों पर. उन अश्वेत लेखकों ने हमारे सामने एक बहुत बड़ी दुनिया खोली, फिर लैटिन अमेरिका की राइटिंग. लैटिन अमेरिकी राइटर ने बाद में खूब प्रभाव हिंदी के पाठकों पर डाला. खास तौर से, वहां जो यथार्थवाद के बाद जादुई यथार्थ आया. वह सारे प्रभाव हिंदी की दुनिया में खूब पड़ें. लेकिन, मैंने यह देखा कि नार्वे का लेखन कुछ छूट सा गया था. हमने दुनिया के कई देशों के लेखकों को पढ़ा, लेकिन नॉर्वे की जो लेखनी है वह सबसे अलग थी.
नार्वे की लेखनी को कभी भी अलग से कंटेंट या फार्म का जामा पहनाने की जरूरत नहीं पड़ती. जैसे- हमारे यहाँ पढ़ते समय लगता है कि यह कंटेंट पावरफुल है या फिर हम कहते हैं कि इस लेखक का फ़ार्म कितना खूबसूरत है! नार्वे की राइटिंग में कंटेंट और फार्म का कोई पचड़ा ही नहीं है, वह इतनी सहज और इतनी उन्मुक्त राइटिंग है.
पहले मैंने जो नाम लिया क्नुत हम्सुन का, वह तो बहुत पहले के लेखक हैं. चूंकि उनको नोबल प्राइज भी मिला था, तो दुनिया उनको जानती है. उनको हिंदी की दुनिया में परिचय कराने में सबसे बड़ा योगदान तेजी ग्रोवर का है. तेजी ग्रोवर ने बहुत खूबसूरत अनुवाद किये. उन अनुवादों में एक उपन्यास था- ‘परिंदे’. यह उपन्यास एक ऐसे पात्र के ऊपर लिखा गया है, जो अपनी किसी भी तरह की सचेतनता को या विवेक को मुखर नहीं कर पाता है. वह सारी प्रकृति से मिलने वाले हर संकेत को बहुत अच्छे से ग्रहण करता है. अगर, परिंदे ने कहीं सूखे हुए कीचड़ में अपने पंजों की छाप छोड़ दी है, तो उसको ऐसा लगता है कि उसने मुझसे कोई बात कही है.
वह सिर्फ परिंदे के पंजे की छाप नहीं है, मानो कोई सन्देश दे रहा है, तो वह उस तरह की चीजों से जुड़ रहा है, जहाँ प्रकृति अपने चिन्ह छोड़ रही है. मनुष्य की जो भाषा है, उसकी जो सामाजिकता है या उसके जो भी नियम कायदे हैं. उससे वह कट गया है, इसलिए सबको लगता है कि वह मूर्ख है, क्योंकि उसके अंदर किसी भी तरह की सामाजिकता का कोई बोध ही नहीं है. लेकिन प्रकृति की हर हलचल के साथ वह एक आत्मीय रिश्ता बना रहा है. उसमें उसे हर चीज बोलती हुई महसूस हो रही है. इस तरह के कैरक्टर को उपन्यास में लाना कितना मुश्किल काम है. यहाँ तो प्रकृति जो संकेत दे रही है, उनमें से उसको अर्थ ग्रहण करना है. यह उपन्यास जो है, इसे पढ़ते समय मैंने अपने आपको दुनिया से काट लिया, जब तक उसका पाठ पूरा खत्म नहीं हुआ.
7.
मुझे लगता है आपको प्रकृति और पशुजगत से बहुत लगाव है, आपकी ‘दहन’ कहानी के केंद्र में एक बिल्ली थी और ‘दृश्य अदृश्य’ कहानी में एक कुत्ता कहानी के नायक के साथ शुरू से अंत तक रहता है. अभी जब हम बात कर रहे हैं तो एक बिल्ली आपकी गोद में बैठी है और आपको एक मिनट भी चैन से बैठने नहीं दे रही. आपकी फेक्ट्री के शैड में भी गौरैया के कई घोंसले हैं. गौरैया तो गाँव में भी अब कम दिखती है, सुना है अब उसकी तादाद कम होती जा रही है, लेकिन आपकी फैक्ट्री में इतनी सारी गौरैया?
मुझे भी आश्चर्य होता है कि इन चिड़ियों ने घोंसला बनाने के लिए मेरी ही फैक्ट्री को क्यों चुना? और बिल्लियाँ भी सिर्फ़ मुझे ही क्यों तंग करती है? ये मेरे जीवन में आयी पाँचवीं बिल्ली है. इन बिल्लियों के दांव–पेंच से, मैं बखूबी वाकिफ़ हूँ. ये कितनी मासूमियत से हमें मुहब्बत के जाल में फंसा लेती है. इस फैक्टरी से पहले मेरी जो फैक्टरी थी उसमें दूसरी मंजिल में एक बहुत बड़ा हाल था, उसमें कोई पार्टीशन नहीं था; मैंने और मेरी पत्नी ने किराये से कोई मकान लेने की बजाय उसी हाल में अपनी गृहस्थी जमा ली, वहां भी रोशनदान में गौरैया का घोसला था. एक चिड़िया तो ऐसी थी कि जब मैं खाना खाने बैठता था, तो वह मेरी थाली के किनारे पर आकर बैठ जाती थी और बिना किसी डर या संकोच के चावल खाने लगती थी. रात को जब मैं बिस्तर में लेटता था, तो वह फुदकते हुए आती थी और मेरी छाती पर बैठ जाती थी. वह बहुत कुतूहल से मेरे चेहरे को देखती रहती थी. मैं इस रिश्ते को कभी परिभाषित नहीं कर सकता. कभी–कभी मुझे लगता है, इन रिश्तों की जड़ें मेरे उस गाँव से जुड़ी है, जहाँ मेरा जन्म हुआ था.
जेतपुर गाँव की जो संस्कृति है उसमें पशु–पक्षियों के लिए विशेष स्थान है. हमारे परिवार की एक बहुत पुरानी परंपरा है, रसोई में जब रोटी बनती है तो पहली रोटी गाय के लिए और दूसरी रोटी कुत्ते के लिए अलग रख दी जाती है. हमारे परिवार में जब किसी की मृत्यु होती है, तो हम उसकी अर्थी पर फूल नहीं बरसाते, हम उसकी अर्थी के साथ सवा किलो गांठिया और सवा किलो लड्डू लेकर जाते हैं और रास्ते में पड़ने वाले कुत्तों को लड्डू–गांठिया खिलाते हैं. वे कुत्ते श्मशान तक हमारे साथ चलते हैं. उस गाँव के हर मुहल्ले में पत्थर से बनी एक कुण्डी होती है जिसमें गाय और कुत्तों के लिए पानी रखा जाता है. मैं जब छोटा था, उस जमाने में हमारे गाँव में नल नहीं था. महिलाएँ भादर नदी से पानी भरकर लाती थी. गर्मी के दिनों में जब नदी सूख जाती थी और पानी की बहुत किल्लत होती थी तब भी वे उस कुंडी में पानी डालना नहीं भूलती थी.
हमारे गाँव के बीचो-बीच एक चबूतरा है उसमें एक स्तंभ है और ऊपर एक गोलालर छज्जा है, उस छज्जे में पक्षियों के लिए अनाज के दाने डाले जाते हैं, गाँव का हर आदमी एक मुठ्ठी अनाज उस छज्जे में डालता है. वह छज्जा दो सौ साल पुराना है और आज भी मौजूद है और आज भी अनाज के दानों से भरा रहता है. और आज भी सैकड़ों की तादाद में वहां रोज तरह–तरह के पक्षी दाना चुगने आते हैं.
8.
आपको चित्रकला में भी दिलचस्पी है. उसकी शुरुआत कैसे हुई? आपके द्वारा की गई चित्रकारी के बारे में कुछ कहें?
फिलहाल तो मामला यह है कि मैं छुप-छुप कर चित्र बनाता हूँ और उसे छुपा-छुपा कर रखता हूँ, क्योंकि उसमें कला का अभी वह रूप नहीं आया है. उनमें अपने भीतर की तैयारी एक अलग चीज है और इसके अलावा, उसमें प्रशिक्षण एक अलग चीज है मैंने कोई प्रशिक्षण तो लिया नहीं है. हाथ में ब्रश लेकर केनवास पर पेंट करने से कोई चित्रकार नहीं बन जाता. मैं शब्दों की दुनिया का आदमी हूँ, अब अगर मेरे अंदर का लेखक जो है, वह चित्रकला में भी कोई सामाजिक संरचना खोजने लग जाए, तो वह चित्रकला तो नहीं हुई, उसमें से बिम्ब अगर उभर कर आया किसी संदर्भ का, तो एक बात अलग है, लेकिन अगर वैसा कोई प्रभाव मैं अपने ढंग से लाना चाहूं, जो प्रभाव अपने लेखन में लाता हूँ, वह नकली हो जाएगा. इसलिए भी मैं खुद को उस तरह से समझ नहीं पाया हूँ कि चित्रकला की जो विधा है, मैं उसके लायक हूँ या नहीं हूँ.
समरसेट माम का उपन्यास है- ‘चांद और छह आने’. यह ऐसा उपन्यास है जिसे पढ़कर, मेरे अंदर चित्रकला की पहली चिंगारी पैदा हुई.
इस उपन्यास को पढ़ने के पहले शायद ही, मैंने कोई इक्का-दुक्का पेंटिंग बनाई थी. उसको पढ़ते-पढ़ते ही अचानक ऐसा लगा कि मेरे अंदर कुछ चीजें आ रहीं हैं, तो मैंने कुछ नहीं किया. कहाँ से क्या सीखना चाहिए? पेंटिंग का क ख ग… नहीं मालूम था. मैंने सिर्फ यह पता किया, पेंटिंग की सामग्री कहाँ मिलती है. बड़े से बड़े साइज का कैनवास कहाँ मिल पायेगा. उपन्यास पढ़कर खत्म कर लेने के बाद तुरंत, मैंने नागपुर में दुकान तलाशनी शुरू की. मुझे यह भी नहीं मालूम था कि सामग्री कहाँ मिलती है, ब्रश कहाँ मिलता है, कैनवास कहाँ मिलता है, अर्थात चित्रकला से पहले कोई लेना-देना ही नहीं था. जैसे ही इस उपन्यास का पाठ खत्म हुआ; मैं उठा, कुछ लोगों से पूछा कि यह कहाँ मिलता है? फिर दुकान का पता खोजने के बाद, वहाँ से आठ-दस कैनवास खरीदें और उससे पूछता भी गया कि क्या-क्या चीजें लगती हैं. जो दुकानदार था उसने मुझसे पूछा कि आपको क्या चाहिए? मैंने कहा- मैंने कभी चित्रकारी नहीं की है, पर अब करनी है; आप मुझे बताओ कि मुझे क्या-क्या खरीदना चाहिए? वह बोलें- मेरी पूरी दुकान ले जाओ, आपके ऊपर है कि आप उसका क्या करना चाहते हैं. स्केच करने की जो छोटी सी कलम है, उससे भी बड़े से बड़े चित्र बन सकते हैं. यह जितनी भी चीजें मैंने दुकान में रखीं हैं, वह सब चित्रकारी में काम आती हैं.
मैंने कई चीजें खरीदी, मेरे मन में जो आता गया खरीदता गया. उस दौरान, मेरे घर का दूसरा एक फ्लोर बन रहा था. उस समय ज्ञान जी घूमने के लिए आये हुए थे. उनकी ऊपर ऐसे ही निगाह गयी तो, उन्होंने कहा- तुम्हारी दो बेटियाँ हैं, शादी हो जाएगी, चली जाएंगी, यह सब इतना सारा क्यों कर रहे हो?
मैंने कहा- मैं ऊपर स्टूडियो बना रहा हूँ. वह बोले- किस चीज का स्टूडियो? मैं बोला- पेंटिंग. उन्होंने कहा- तुम पेंटिंग कब से करने लग गए? मैंने कहा- पेंटिग अभी शुरू नहीं की है, स्टूडियो पहले बना लेता हूँ. कैनवास खरीद लेता हूँ, उसके बाद पेंटिंग शुरू करूँगा.
समरसेट माम का जो उपन्यास है- ‘द मून एंड सिक्सपेंस’. मैं इसलिए उसका जिक्र कर रहा हूँ, क्योंकि इसमें साधारण सा मेरे जैसा एक व्यापारी है. वह कोई शेयर मार्केट में काम करने वाला है. उसका कला, संस्कृति से कोई संबंध नहीं. उसकी पत्नी को कला से बहुत प्रेम है. साहित्य और कला से उसे विशेष प्यार है. वह अपने घर में लेखक व कलाकारों को हमेशा आमंत्रित करती है. वह उसका शौक था, अपने घर में उनको आमंत्रित करना, अपने घर में उनकी मेहमान नवाजी करना.
उसके घर एक बार समरसेट माम खुद गये. पहुंचने के बाद, उन्होंने पूछा कि आपके पति कहाँ हैं? मैं उनसे मिलना चाहता हूं. वह बोली- उनका साहित्य और कला से कोई लगाव नहीं है, उनसे मिलकर आपको कोई विशेष ख़ुशी नहीं मिलेगी. मैं आपके घर के सभी सदस्यों से मिलना चाहूंगा. आपके बच्चों से भी और आपके पति से भी. तो फिर, जो मुलाकात हुई, उसमें समरसेट माम ने और उस महिला के पति ने एक दूसरे को सिर्फ देखा. उसमें पता नहीं ऐसा क्या हो गया, उस महिला को लगा कि यह कुछ अलग तरह का प्रभाव है आमतौर पर, जो दूसरे मुलाकाती होते हैं, उनसे मिलकर उनके पति के चेहरे पर वैसा कोई भाव नहीं होता, आँखों में वैसी कोई चमक नहीं आती. लेकिन समरसेट माम से मिलते समय पता नहीं क्यों! उसके चेहरे पर कुछ अलग तरह के भाव आये. इस बात को उस महिला ने नोट किया.
उस मुलाकात के डेढ़-दो महीने बाद, उस महिला ने समरसेट को फ़ोन किया और कहा कि मैं आपसे मिलना चाहती हूँ, मुझे आपकी मदद की बहुत जरूरत है. कृपाकर आप मेरे घर आइये. फिर वह गए तब महिला ने कहा- मेरे पति अचानक घर छोड़कर चले गए हैं और वह किसी चाय वाली औरत के साथ भाग गये हैं. सारी संपत्ति मेरे नाम कर गए, बैंक में भी उनकी जो जमा पूंजी थी, वह सब देकर, घर छोड़कर चले गए. ये भी मुझे मालूम है कि वह कहाँ हैं. वह पेरिस चले गए हैं, पेरिस के किसी गुमनाम इलाके की किसी बस्ती में किसी होटल में ठहरे हुए हैं. समरसेट ने कहा- ‘मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?’ महिला ने कहा- ‘आप जाकर उनसे बात कीजिये’. समरसेट ने कहा – ‘मेरी उनसे कोई पुरानी बात नहीं है, कोई परिचय भी नहीं है. एक संक्षिप्त सी मुलाकात है, आप अपने किसी ऐसे रिश्तेदार को या उनके किसी परिचित को, उनको भेजिये. मैं भला क्या करूंगा’
महिला ने कहा- ‘आपके जाने से ही कुछ होगा’. समरसेट बोले- ‘आप किस आधार पर ऐसा कह रही हैं?’ वह बोलीं- ‘जिन निगाहों से उन्होंने आपको देखा था, उससे मुझे ऐसा लगा कि उनके ऊपर आपका प्रभाव है. आप जाएंगे तो, कुछ बात बनेगी’.
‘ठीक है, मैं तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं रखता लेकिन आप कह रही हैं तो, आपकी मदद करने के लिए और आपका मन रखने के लिए एक बार चल जाता हूँ. इसका नतीजा जो भी हो.’
वह गए वहाँ और उनसे बात-चीत की. इधर-उधर की थोड़ी देर बातें होतीं रही, उसके बाद वह बोले, अब सीधे-सीधे मुद्दे पर आ जाता हूँ- यह बताइये कि आप जिस महिला के साथ आये हैं, उसके साथ आपको क्या विवाह करना है? आप जो जवाब देंगे, वह जवाब मैं वहाँ दुहरा दूँगा. मैं आपको मनाने या आपपर दबाव डालने नहीं आया हूँ. जो वस्तुस्थिति है, वह बता दीजिए ताकि आपको भी एक रास्ता मिल जाए और आपकी पत्नी को भी एक रास्ता मिल जाए.
वह हँसने लगा और बोला- ‘किस बेवकूफ ने कहा कि मैं किसी औरत के साथ भागा हूँ’. ‘पर बात तो ऐसी ही चल रही है’. उस आदमी ने कहा- ‘ऐसा कुछ नहीं है’. ‘तो तुम घर छोड़कर क्यों आये हो?’
‘मुझे चित्रकार बनना है, इसलिए मैंने दुनियादारी को छोड़ दिया.’
समरसेट माम ने पूछा कि तुम्हारे ऊपर कभी कोई चित्रकला का प्रभाव था या ऐसा कुछ? कोई अभ्यास बचपन में किया हो? कभी करने की इच्छा हो, जो छूट गया हो. उस आदमी ने कहा- ‘नहीं ऐसा कोई सिलसिला नहीं है. बस दिमाग में ऐसा आया कि मुझे चित्रकारी करनी है, चित्रकारी करनी है, तो दुनियादारी नहीं कर सकता. दुनियादारी करते हुए, चित्रकारी नहीं कर सकता; बात इतनी सी है.’
समरसेट माम ने वापस आकर महिला से सारी बात कही. उस महिला ने जो जवाब दिया उसे सुनकर समरसेट माम विचलित हो गये, उस महिला ने कहा कि अगर मेरा पति किसी औरत के साथ भाग गया होता तो मैं उनको माफ कर देती. जबकि वह इतनी कला प्रेमी महिला थी, लेकिन वह जवाब क्या देती है- अगर वह किसी औरत के साथ भाग गए होते, तो शायद मैं उनको माफ कर देती. लेकिन यह पागलपन वाला जो कदम उन्होंने उठाया है, उसके लिए मैं उनको माफ नहीं कर सकती. मैं, अब उनको अपने जीवन से बेदखल करती हूं.
अब देखिए यह कि वह एक अवैध सम्बन्ध को माफ करने के लिए तैयार है, लेकिन कला की दुनिया में उसका उस तरह से जाना उसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है. बाद में उस करेक्टर के जीवन में क्या-क्या पड़ाव आये. वह मुफलिसी में जीता है. दुनियादारी के नियमों को जड़ से काटकर सिर्फ चित्रकारी के लिए जीता है. बाकी, किसी तरह का कोई सामाजिक सरोकार वह नहीं रखता.
वह मरते-मरते बचता है, बीमार पड़ जाता है, कई तरह की चीजें होती हैं, कैनवास और रंग खरीदने के लिए वेश्याओं के लिए दलाली करता है, मजदूरी करता है और आखिर में वह एक कोयले के जहाज में बैठकर, एक द्वीप में चला जाता है. वह एक आदिवासियों का द्वीप था और वहाँ एक आदिवासी महिला के साथ फिर से विवाह करता है. उसके बच्चे भी होते हैं और आखिर में उसको कोढ़ हो जाता है. अंधा भी हो जाता है. उसके अंदर इतनी बेचैनी थी, अपनी अभिव्यक्ति की; उसको कहीं भी संतोष नहीं था.
उसके अंदर जो कुछ दबा हुआ था, वह मानो निकलता ही नहीं था. हर काम के बाद उसका असंतोष और बढ़ता जाता, जबकि दूसरे लोग और उसके समकालीन चित्रकार और कला समीक्षक उसकी पेंटिंग को देखकर, अभिभूत थे, लेकिन उसे कोई संतुष्टि नहीं थी. आखिर में वह अपनी झोंपड़ी की दीवार पर पेंटिंग करता है. जबकि वह पूरी तरह से अंधा हो चुका है.
अंधा होने के बाद, झोंपड़ी की दीवार पर जब वह पेंट करता है, तब उसे ऐसा लगता है कि मेरे भीतर जो बेचैनी थी, जो चीज मैं अभिव्यक्त करना चाहता था, वह अब बाहर आयी है. उसने कहा था कि मैं मर जाऊं, तो इसी झोंपड़ी में मेरी अंतिम क्रिया कर देना, मेरे सारे चित्रों के साथ! अंत में, उसका अंतिम संस्कार उसी झोंपड़ी में जलकर होता है और उसकी सारी पेंटिंग भी उसमें जल जातीं हैं. यह इतना अद्भुत उपन्यास था कि मेरे अंदर चित्रकारी का जो एक प्रभाव आया, हालांकि ऐसे प्रभाव से कोई चीज बनती नहीं है, दौरा पड़ना जिसे बोलते हैं, वह एक दौरा पड़ा.
9.
आपका बचपन दुर्ग, छत्तीसगढ़ में बीता. उस दौरान बचपन के कुछ यादगार लम्हों को साझा करें?
मेरा जन्म गुजरात के जेतपुर में हुआ. हमारे पिताजी व्यवसायी थे. हमारे गाँव में हर दुकानदार की अपनी कोई विशेष चीज प्रसिद्ध थी, पिताजी द्वारा निर्मित श्रीखंड और कचौड़ी बहुत प्रसिद्ध थे. उन्होंने इस व्यवसाय में अपने बड़े भाई के एक लड़के को साथ में रखा था. बाद में यह हुआ कि हमारी छह बहने थी, उसके बाद हम तीन भाइयों का जन्म हुआ. जब सिर्फ छह बहने ही थी, तो परिवार में यह धारणा बन गयी कि पिताजी का सहयोग करने वाला कोई लड़का नहीं है, इस कारण पिताजी के साथ, मेरे बड़े चचेरे भाई को व्यवसाय में सहयोग देने के लिए कहा गया. फिर जब मेरे बड़े भाई का जन्म हुआ, तो बड़े चचेरे भाई को लगने लगा कि इनका वारिस अब आ गया है. यहीं से खटपट शुरू हुई. एक दिन चचेरे भाई ने पिताजी से कहा कि मुझे अब दुकानदारी में मेरा भाग दे दीजिये. उसी समय पिताजी चालू दुकान से उठकर, चाभी उनके हाथों में सौंप कर चले गये. फिर उस शहर को ही छोड़कर, दुर्ग चले आये यहाँ किसी तरह की कोई पहचान नहीं थी. यह शहर भी बिल्कुल अलग था. हमारे गाँव जेतपुर का दर्जी, इसी दुर्ग में पहले से था. पिताजी को हिंदी ठीक से बोलनी नहीं आती थी. लेकिन जैसे-तैसे सिलसिला आगे बढ़ा. पिताजी ने उस तरह की चीजें बनायी, जो दुर्ग में मिलती नहीं थी. कई तरह के नमकीन, अलग तरह की मिठाइयां आदि. दुकान चल निकली. उसके कुछ पांच-छह महीनों बाद, हम पूरे परिवार सहित दुर्ग में आ गये.
दुर्ग में, मैंने प्रथम कक्षा से पढ़ाई शुरू की. पांचवीं कक्षा तक तो, सब ठीक-ठाक रहा. उत्तीर्ण होता गया. उत्तीर्ण होने की वजह थी- मेरे दो दोस्त. पहला तिवारी और दूसरा अखिलेश श्रीवास्तव; ये दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थे. मैं होशियार नहीं था, उसकी भरपाई इन दोनों को मिठाई खिलाकर करता था. उसके बदले में, वह मेरी मदद करते थे. उन दोनों की मदद से पांचवीं कक्षा में उत्तीर्ण हो गया. छठवीं के दौरान, हर विषय में उत्तीर्ण हुआ, पर गणित के विषय में अनुत्तीर्ण हो गया. उस समय एक सप्लीमेंट्री परीक्षा होती थी, अगर किसी एक विषय में आप अनुत्तीर्ण होते हैं तो, आप उस विषय में पुनः परीक्षा दे सकते हैं. फिर मेरी सप्लीमेंट्री की परीक्षा हुई और उसका नतीजा पिछले वाले नतीजे से भी खराब आया. अब क्या था कि छठवीं कक्षा में दुबारा पढ़ाई करनी पड़ेगी, मैं दुबारा नहीं बैठना चाहता था. क्योंकि जब मैं छठवीं कक्षा में आया था, उस पहले दिन, शिक्षक ने आकर सबसे पहले यही सवाल किया था कि अनुत्तीर्ण छात्र कौन-कौन हैं? खड़े हो जाओ. उस दौरान, जो-जो छात्र छठवीं में अनुत्तीर्ण हुए थे, वह सब खड़े हो गये. उस समय मेरे दिल में आया कि मैं पुनः उसी कक्षा में जाता हूँ, तो वही दृश्य फिर निर्मित होगी. फिर क्या था, मैंने स्कूल छोड़ दी. पढ़ाई-लिखाई छोड़ने का घर में किसी को कोई एतराज भी नहीं था, क्योंकि दुकानदारी थी.
आप जरा सोचिए कि छठवीं कक्षा का जो विद्यार्थी होगा, उसकी उम्र क्या होगी? उस उम्र में मैंने कारीगरी का काम सीखना शुरू कर दिया. वैसे, कोई सीधे कारीगर नहीं बनता, हमारे बड़े भाई कारीगर बन चुके थे, इसलिए मैं उनकी मदद करता था. कोयले की भट्टी होती थी, उसके लिए कोयले के छोटे-छोटे टुकड़े करना. जितने बर्तन थे, उसे धोकर कारीगर तक पहुंचाना. पानी भर कर देना. यह सारे काम मुझे करने पड़ते थे, तब जाकर धीरे-धीरे भट्टी का काम सीखा. नमकीन, मिठाई आदि बनाना, यह सब चीजें सीखते-सीखते मैं लगभग 16-17 साल के उम्र में एक कारीगर बन गया. उस दौरान, मेरा लगभग यही जीवन रहा- दुकान जाना और दुकान का काम करना.
१०.
आपके भीतर रचनाकार की उपस्थिति को आपने किस समय अनुभव किया, उस अनुभव के बारे में कुछ बताइए ?
देशबंधु में एक कॉलम आता था- संपादक के नाम पत्र. इसमें लोगों के पत्र आते थे. उसमें मैंने एक छोटी सी घटना लिखकर भेजी थी. वह घटना यह थी कि मेरे दुकान के पास एक मुस्लिम परिवार रहता था, वह राजस्थान के थे और राजस्थानी भाषा ही बोलते थे. उनके घर पर एक लड़के की सुन्नत थी, इस कारण मैंने कहा कि मैं पड़ोसी हूँ और मैं देखना चाहता हूं, यह क्या होता है? कैसे होता है? अतः मैंने जो थोड़ा बहुत देखा, उसे ही अपने शब्दों में लिखने का प्रयास किया. अपने लिखे इस प्रयास को मैंने संपादक के नाम पत्र में भेज दिया. वह पत्र एक तरह से कहानीनुमा था. जब प्रकाशित हुआ तो मैं बहुत खुश हुआ, क्योंकि पहली बार अखबार में नाम आया था.
राम तिवारी जी ने जो एक नाट्य निर्देशक थे उसे पढ़ा और कहा कि तुम्हारे अंदर कहानी कहने के गुण हैं, तुमने जिस ढंग से पत्र लिखा है, उसे तुम एक कहानी के रूप में लिखो.
तब मैंने सोचा, कहानी लिखना कैसे होगा? तो पहले पढ़ना शुरू किया और देखा कि कौन-कौन से कहानीकार हैं, वह कैसे-कैसे लिखते हैं. उस समय तक मैंने निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन को नहीं पढ़ा था. उस समय मुझे धीरेंद्र अस्थाना का कंटेंट या विषय और प्रियंवद की भाषा, इन दोनों का प्रभाव मेरे लेखन के शुरुआती दौर में पड़ा. दोनों की भाषा की खिचड़ी बना कर मैंने अपनी पहली कहानी लिखी. कुछ शब्द प्रियंवद के भी उधार लिए, कुछ धीरेंद्र जी के भी.
वैसे तो, कोई एकदम से मौलिकता लेकर थोड़ी पैदा होता है. मेरी पहली कहानी देशबंधु में छपी. उसके बाद लिखने का जोश सा आया, फिर मैंने अपनी दूसरी कहानी लिखी, जिसका शीर्षक था- ‘मरी हुई मछलियाँ’. फिर तीसरी कहानी लिखी जिसका शीर्षक था- ‘सूखती हुई आस्थाएं’. इस तरह से मेरी शुरुआत हुई. यह तीनों ही कहानियां देशबंधु अखबार में छपी थी. लगभग 21-22 साल की उम्र में मैंने यह तीनों कहानियां लिखी. ये कहानियां मेरे पास नहीं हैं. वह मेरे किसी संकलन में भी नहीं हैं. मैंने वह अखबार भी सम्हाल कर नहीं रखा.
मेरे साथ एक बड़ी दिक्कत है, चीजों को सम्हालकर नहीं रख पाता, इस मामले में मैं बहुत लापरवाह हूँ. यह सिर्फ कहानियों को ही सम्हालकर रखने की बात नहीं है. एक बार तो एक फाइल खोलकर, मैं खुद सोच में पड़ गया कि वर्धा रोड पर एक प्लाट जो मेरे नाम से रजिस्टर्ड है, मैंने उसकी रजिस्ट्री कब करवाई थी, मेरे जो घरेलू और प्रापर्टी से संबंधित कागजात हैं, उसका भी कोई ठौर-ठिकाना नहीं है, यह सब चीजें भी अव्यवस्थित हैं. मेरे दोस्त आनंद हर्षुल से मैंने रायपुर में एक जमीन खरीदी, उस प्लाट का ले-आउट कहीं गुम गया, मुझे मालूम नहीं है कि वह प्लाट कहाँ है? मैंने आनंद से कहा कि तुमने मुझे जो प्लाट बेचा था वह कहाँ है? अब आनंद को भी मालूम नहीं है कि वह प्लाट कहाँ है? उसे कैसे मालूम रहेगा ? वह तो मुझसे भी बड़ा कथाकार है. फिर हम दोनों मिलकर कई दिनों तक उस प्लाट को खोजते रहे, आखिर में, मेरे और आनंद के एक गैर साहित्यिक दोस्त नवीन श्रीवास्तव ने उस प्लाट को खोज निकाला.
11.
बचपन से किशोरावस्था के बीच का आपका समय कैसा गुजरा? जिस परिवेश में आपकी परवरिश हुई, उस परिवेश का आपके जीवन और आपकी कला पर क्या प्रभाव रहा ?
बचपन में खेल-कूद में बड़ा मजा आता था. मैं फुटबॉल खूब खेलता था. दिक़्क़त यह थी कि दुकान में काम करने के कारण, खेलने का समय नहीं मिल पाता था. इस कारण, मैं अपने मोहल्ले के लड़कों को सुबह-सुबह पांच बजे उठाकर, फुटबॉल खेलने जाया करता था. सबको उठाने का काम मेरा ही था क्योंकि सात बजे के बाद मेरी दुकानदारी शुरू हो जाती थी. फिर जब रात को आठ-नौ बजे तक दुकान का सारा काम खत्म हो जाता था, तो सड़क पर बैडमिंटन खेलते थे. यह दोनों जो खेल हैं, मेरे बहुत प्रिय थे और मैं उसमें इतना रमा हुआ था कि आज भी इस उम्र में मेरे हाथ में रैकेट आ गया, तो मैं बैडमिंटन अच्छे से खेल सकता हूँ. फुटबॉल के साथ भी मेरे पैर का संतुलन बना हुआ है.
किशोरावस्था में ही कई आदतें खराब होनी शुरू होती है, कई संगतों का असर पड़ता है. हमारे मोहल्ले में मेरे जैसे कई थे, जिन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी. आवारा जैसे घूमते थे. उसी दौर में जुए का शौक लगा. सिक्के उछाल कर हमलोग खूब चित और पट वाला जुआ खेलते थे. उसके अलावा मौसम के जो भी खेल होते थे जैसे- कंचे खेलना. कंचे में भी शर्त लगती थी और वह शर्त पैसे की होती. यानी, कंचे को हमलोग पैसों में बदल देते थे. जितने सारे खेल थे, उसके साथ जुआ जुड़ता गया. अब इसका कारण एक यह भी रहा कि हम जिस दुकान में किरायेदार थे, उसकी दुकान का जो मालिक था, वह बहुत बड़े सट्टे का किंग था. उनका नाम शिखर चंद्र जैन था. सट्टे में एक होता है खाईवाली करना, यानी पत्ती लिखना और एक होता है सट्टा खेलना. आप दाव लगाते हैं और जो दाव लेने वाला होता है उसे खाईवाल बोलते हैं. इसमें शिखर चंद्र जैन बड़े किंग थे. तरह से जो पूरा माहौल था, पूरा सट्टा और जुआ का ही था. अमूमन कस्बाई शहर ही ऐसे होते होंगे- नीचे दुकान, ऊपर घर. हमारा जो मुहल्ला था, वहाँ पर नीचे नाली बह रही होती थी, ऊपर चबूतरा होता था और चबूतरे से लगी हुई दुकानें होतीं. फिर रात के समय जब दुकानदारी बंद हो जाती, तो खाली चबूतरों पर कई तरह के खेल होते; उसमें शतरंज और लूडो, उनके अलावा जुआ, और तीसरी जो चीज होती, गाना बजाना और किस्से कहानी.
मुहल्ले में कई तरह के उस्ताद थे. कुछ लोग गाने के उस्ताद थे, तो कुछ लोग कहानी सुनाने के उस्ताद. उसमें हनुमान सोनी नाम का एक मेरा दोस्त था, जो किस्से सुनाने में एकदम उस्ताद था. किसी भी बात में से, बात निकलने की उसमें एक अद्भुत ताकत थी. जो गुण उसके अंदर किस्सागोई के थे, वह मेरे अंदर भी आयें. थोड़ा सच, थोड़ा झूठ मिलाकर, किसी भी बात को कहीं से कहीं पहुंचा देना. अगर सच नहीं भी है, तो अपनी कल्पना से कुछ और गढ़ देना. यहीं से मैंने सिखा कि कहानी कहने के लिए सच की नहीं झूठ की जरूरत होती है , जो आदमी झूठ नहीं बोल सकता, वह अच्छा कहानीकार नहीं हो सकता. एक किस्सा अभी मुझे याद आ रहा है, एक बार एक प्रश्न कर्ता ने मार्क्वेज से सवाल किया कि इस दुनिया के अनेक देशों में कहानी की अलग–अलग परम्परा है, जो सदियों से चलती आ रही है लेकिन कहानी की शुरुआत कहाँ से हुई, ये कोई नहीं जानता. क्या आप बता सकते हैं कि कहानी कहाँ से शुरू हुई ?
मार्क्वेज ने इस सवाल का जवाब एक कहानी सुनाकर दिया, उन्होंने कहा कि दुनिया के किसी एक देश के समुद्री किनारे बसे एक गाँव में एक मछुआरा रहता था, वह मछुआरा भुलक्कड भी था और शराबी भी, कई बार वह घर से गायब रहता था, उसकी बीवी उसकी इस आदत से बहुत परेशान थी. एक बार वह सात दिन तक घर से ग़ायब रहा, तो घर आते ही उसकी बीवी उस पर भड़क गई कि बताओ तुम इतने दिन तक कहाँ थे?
उस आदमी ने कहा कि मैं नाव लेकर समुद्र में बहुत दूर चला गया था अचानक तूफ़ान आ गया और मेरी नाव पलट गई और मुझे एक व्हेल मछली ने निगल लिया. मैं सात दिनों तक उसके पेट से बाहर आने की कोशिश करता रहा आखिर तंग आकर मछली ने मुझे वापस उगल दिया. उसके कहने का ढंग इतना सहज और विश्वसनीय था कि उसकी बीवी ने यकीन कर लिया कि सचमुच ऐसा ही हुआ होगा. कहानी की शुरुआत यहीं से हुई, कहानी उस मछुआरे के झूठ की विश्वसनीयता से शुरू हुई थी. खैर..!
अब, जो दूसरा पहलू है छत्तीसगढ़ की संस्कृति और वहां के परिवेश का, उसकी बात करते हैं. उस समय का जो वातावरण था, उसमें इतनी मासूमियत थी कि सब कुछ बच्चे जैसा मासूम था. वहां पर एक-दूसरे से व्यवहार इतना सम्पन्न था कि लोगों के आपसी रिश्ते बहुत मीठे थे, कभी उन लोगों के बीच कुछ खट-पट हो भी गयी, तो होली के त्योहार में ऐसा एक सिलसिला था कि जिन दो लोगों के बीच मन-मुटाव हुआ है, उनके पास एक टोली जाएगी एक को मना कर ले आएगी, दूसरी टोली जाएगी, दूसरे को मना कर ले आएगी. दोनों को आमने सामने खड़ा करवा कर, फिर गले मिलवाएंगे; उनके ही हाथों से एक-दूसरे को गुलाल लगवाएंगे और ये बोलेंगे कि अब तुम दोनों एक दूसरे को गाली दो और पहले का सब भूल जाओ. दुर्ग में होली के दिनों में जितनी गालियां बकी जाती हैं, उसका मुकाबला दुनिया के सब देश मिलकर भी नहीं कर सकते, लेकिन ये विद्वेष या नफ़रत से भरी हुई गालियाँ नहीं होती. हालांकि, वे बहुत अश्लील गालियाँ होती है लेकिन उनमें से एक भी गाली स्त्रियों की यौनिकता से संबंधित नहीं होती और उसका उद्देश्य किसी को अपमानित करना भी नहीं होता. होली के दिन गाँधी चौक में एक महामूर्ख सम्मेलन भी होता था, जिसमें शहर के गणमान्य नागरिकों का मंच पर सम्मान होता था. थानेदार, कलेक्टर, विधायक, सांसद सबको आना पड़ता था. सबको गालियां खानी पड़ती थी. मंच का संचालक ऊँची आवाज में हुंकार लगाता था-
‘थानेदार शुक्ला लाल है’
जनसमूह भी ऊँची आवाज में नारा बुलंद करता था-
‘लौड़े का बाल है’
मुझे याद है मैंने मोतीलाल जी वोरा, जो उस वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे और दुर्ग के सांसद और केबिनेट मंत्री चन्दुलाल चन्द्राकर को भी उस मंच पर गलियों से नवाजे जाते हुए देखा है. गाली से नवाजे जाने के बाद भी वे विनम्रता से हाथ जोड़कर जनता जनार्दन का अभिवादन करते थे.
ऐसा शानदार वातावरण जिसको मिला हो, उसका मिजाज भी तो वैसा ही होगा. मुझे तो बड़ा गर्व होता है इस बात को कहने में कि मैं दुर्ग का हूँ. अगर मुझसे कोई पूछे कि तुम कौन हो? मैं अपने आपको पहले छत्तीसगढ़ी कहलाना पसंद करूँगा. क्योंकि संस्कार तो मुझे छत्तीसगढ़ ने दिए है. जन्म गुजरात में हुआ, पैदाइशी मैं गुजराती हूँ, लेकिन मेरे जो संस्कार हैं, वह पूरे छत्तीसगढ़ के हैं. मैं अपने आपको बहुत गौरव के साथ छत्तीसगढ़ी बताता हूँ. उसका एक और कारण है कि वहाँ की लोक कलाएं भी बहुत समृद्ध हैं. उसका सबसे बड़ा कारण वहां का लोक-जीवन है, जिसमें किसी भी तरह का कोई भेद-भाव नहीं है, न जाति भेद, न धार्मिक और न ही आर्थिक. आदमी की आत्मा के लिए जितने भी संतोषजनक कारक तत्व चाहिए, वह उसको उस लोक-जीवन में मिल जाते हैं. वहाँ के आदमी के अंदर किसी भी तरह का असंतोष नहीं है, किसी भी तरह का कोई विक्षेप नहीं है. हर परिस्थिति में आनंदित रहता है, जो दूसरी जगहों में देखने को नहीं मिलता. मैं गुजरात में भी रहा हूँ, गुजरात में भी कभी देखने को नहीं मिला. महाराष्ट्र में भी रह रहा हूँ, यहाँ भी मुझे इस तरह का माहौल कभी नहीं मिला. यहाँ जातिवाद दिखता है, वर्ग भेद भी दिखता है, सांस्कृतिक स्तर पर जो मेल-मिलाप होना चाहिए, नहीं दिखता!
ये एक ही शहर है- नागपुर. उत्तर नागपुर और पश्चिम नागपुर में जमीन आसमान का फर्क है. एक ही शहर में ऐसी विभाजन रेखा, जिसमें आपको आर्थिक विभाजन भी दिख जाएगा, जाति विभाजन भी दिख जाएगा, सांप्रदायिक विभाजन भी दिख जाएगा. ऐसा छत्तीसगढ़ में कभी नहीं रहा. रायपुर इतना बड़ा शहर है, लेकिन उस बड़े शहर में भी वह भेद नहीं है, अब तो खैर! चीजें बदल गयी हैं. बहुत सारे राजनीतिक समीकरणों के कारण, बहुत सी चीज बदल गयी है. लेकिन उस समय तो यह सब बिल्कुल नहीं था, मुझपर उस माहौल का एक गहरा असर पड़ा.
12.
परिवार द्वारा आपके इस रचनात्मक कर्म में आपको कितना सहयोग मिला?
इस तरह से प्रत्यक्ष सहयोग, तो बिल्कुल नहीं मिला. बल्कि हॉ! कभी-कभी जब भी मेरे पढ़ने-लिखने के कारण, व्यवसाय प्रभावित होता, वहाँ मुझे डांट भी खानी पड़ती थी. कई बार ऐसा भी हुआ कि किताब हाथ से छीन ली गयी, क्योंकि ग्राहक सामने खड़ा होता और मैं किताब लेकर बैठा रहता. मैं भी क्या करता! अगर दुकान में नहीं पढ़ता तो कहाँ पढ़ता? सुबह सात से रात नौ बजे तक तो दुकान में काम करना होता. इस कारण पढ़ना लिखना जो कुछ था, वह सब दुकान में ही था. शुरुआत में जो मेरा पढ़ना लिखना हुआ- जो रद्दी पेपर आते थे, उनमें जब पत्रिकाएं आनी शुरू हुईं, तो हमलोग उनसे नमकीन की पुड़िया बनाते थे. धर्मयुग का जो साइज था उसमें सौ ग्राम नमकीन की पुड़िया बन जाती थी. बहुत सी पत्रिकाएं रद्दी में आने लग गयीं, अब उसी में से पढ़ना और उसी में से दुकानदारी भी करता था. प्रियंवद, धीरेंद्र अस्थाना जैसे रचनाकारों को धर्मयुग में मैंने इसी रूप में पढ़ा. उनकी कहानियां रद्दी में आयीं हुई थी! ‘कैक्टस के नाव’ कहानी, जो इतनी बढियां कहानी है. वह मेरे पास रद्दी कागज में आई थी.
रद्दी में आये हुए जो लेखक थे, उन्होंने ही मुझे रद्दी से निकालकर गद्दी तक पहुंचा दिया. खैर! आपकी भूख सबसे पहली चीज है; जिस चीज की भूख होगी, उसके लिए आप उतना ही प्रयास करेंगे. वह मामला चाहे फुटबॉल का हो या बैडमिंटन का. आप उसके लिए किसी भी तरह से समय निकालते ही हैं.
समय का अभाव कभी नहीं होता. लोग बस रोते रहते हैं कि मुझे समय नहीं मिल पाया, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर पाया, असल में आपके अंदर उसकी भूख ही नहीं होती, भूख होती तो जरूर करते. मुझे लगता है कि हर लेखक अपनी रचना प्रक्रिया के सवाल से बचना चाहता है. मैं बहुत अनुशासित लेखक नहीं हूँ, लेकिन मेरा लिखने-पढ़ने का समय निर्धारित है. अनुशासित तरीके से नियमित लिखना तो नहीं होता, परन्तु पढ़ना नियमित रूप से होता है.
जो मेरा समय है वह सुबह आठ से दस का है. तो लगभग आप कह सकते हैं कि यह अनुशासन ही है. उस तरह से, मैं वैसे लापरवाह भी नहीं हूं. मेरा समय बटा हुआ है. व्यवसाय के लिए अलग शैडयूल है और पढ़ने-लिखने का समय अलग है.
रचना-प्रक्रिया की बात करूं, तो किसी कहानी के लिए घटना मुझे उस तरह से प्रभावित नहीं करती है; अर्थात किसी घटना के कारण ही कहानी बने, ऐसा नहीं है. हालांकि बाद में ऐसी कहानियां भी आयी, जो मैंने एक विशेष घटना से प्रभावित होकर लिखी थी. लेकिन शुरुआत की जो मेरी कहानियां हैं, उसमें मुझे पहले कोई दृश्य दिखता था और उस दृश्य की मेरे अंदर-अंदर ही उसकी एक भाषा बनती थी. जैसे- ‘दफन’ कहानी जो है, उसमें सिर्फ एक दृश्य मेरे दिमाग में यह आया कि कोई हिन्दू औरत है और किसी कारण से उसका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति-रिवाज से नहीं हो पा रहा और उसकी लाश को कब्रिस्तान ले जाना पड़ गया.
कब्रिस्तान, तो मैंने कभी देखा नहीं था जो पहली बार कब्रिस्तान मेरी नजरों में आया, वह मेरी कल्पना का कब्रिस्तान था. कब्रिस्तान के वातावरण का दृश्य और एक लाश को कब्रिस्तान में ले जाना, गड्ढे खोद कर उसे दफनाना, ये दृश्य मेरे दिमाग में घूमता रहता था. फिर उसका जो बिम्ब है, कहानी में उसका विकास होता गया. फिर घटनाओं का वर्णन, फिर उसके बाद कैसे शुरू करना, उसका सिलसिला. फिर एक निर्वाह बढ़ना शुरू हुआ.
‘जबह’ कहानी का बिम्ब भी उसी रूप में आया कि कसाई के हाथों मैंने एक बकरे को जबह होते देखा. जबह का दृश्य मेरे दिमाग में काफी दिनों तक था. फिर कल्पना अपना काम करती गयी कि अगर किसी पशु को जबह किया जा सकता है, उसकी जगह कोई मनुष्य हुआ तो? जरूरी थोड़ी है कि जिस तरह से जबह किया जाता है, उसी तरह से जबह हो. असल चीज तो यह है कि किसी का प्राण लेना, तो प्राण सीधे-सीधे भी लिए जाते हैं, गर्दन पर छुरी फेर कर भी. कई तरह की ऐसी सामाजिक परिस्थितियां भी होती हैं, जो एक कसाई का काम करती है. इस तरह की कल्पना से एक लेखक के सोच का विकास होता है. एक तरह से जब आपने देखा- बकरे को जबह होते हुए, वह बिम्ब आपके दिमाग में है, फिर आपकी कल्पना, आपका अध्ययन और आप उस चीज को अपनी अवधारणा के साथ कहाँ पहुंचाना चाह रहे हैं, वह घटना तो हो गई. फिर उस घटना को और आपने जो कहानी बनायी, उसके लिए आपकी अवधारणा क्या है? उन दोनों चीजों के जरिये आप तीसरी चीज क्या कहना चाह रहे हैं? वह फिर बनते-बनते बनती है, एकदम से कोई बनी हुई अवधारणा कहानी में नहीं आती है. जो प्रभावित करने वाली चीजें होती हैं, वह सारे हिस्से मिलकर के आगे बढ़ते हैं, उसी में धीरे-धीरे लेखक की अवधारणा भी विकसित होती है.
उस तरह से कहानियां आगे बढ़ती गयी. उसके बाद एक-दो कहानी ऐसी हुई, जो सचमुच घटित हुई थी. मैं उसका प्रत्यक्षदर्शी भी था. एक कहानी उत्सव नाम से है, उस कहानी में उस दौरान एक घटना ऐसी हुई कि मेरे दुकान के ठीक सामने एक साईकल स्टोर की दुकान थी, वह किराये पर सबको साईकल देता था, उसका अचानक हार्ट अटैक से निधन हो गया. वह अपनी अच्छी जवानी की उम्र में था, उसके बच्चे छोटे-छोटे थे. उसकी जो शव यात्रा गयी, उसमें मैं भी गया था, उसके छोटे बच्चे थे उनको भी साथ में लेकर. उनकी तो खेलने-कूदने की उम्र थी. वह पूरी शव यात्रा में, बस! शुरुआत में जो थोड़ी सी रुलाई और जो वातावरण था, उस समय तक थोड़े भयभीत हुए, पर बाद में मानो उनको लगा कि यह कोई उत्सव है!
उनको क्या मालूम मृत्यु क्या है? आखिरी में, श्मशान में भी लगभग वह अपने पिता की अर्थी के साथ खेल रहे थे, अंतिम क्रिया होने के पहले तक, वह अपने पिता की अर्थी के साथ में ऐसे खेल रहे थे जैसे वह जीवित हों. रास्ते में एक पतंग लूटने का भी मामला आया, कटी हुई पतंग कहीं से आयी, तो वह हंडी जो साथ में लेकर चल रहा था आगे-आगे, वह हंडी छोड़कर सीधा पतंग लूटने के लिए चला गया. इस तरह की चीजें मेरे सामने देखी हुईं थी. हूबहू! वैसी एक कहानी मैंने लिखी, कहानी का शीर्षक था- ‘उत्सव’.
ऐसा भी होता है कि एक हूबहू घटना भी कहानी में आ सकती है. कई बार कोई घटना नहीं है, सिर्फ आप कल्पना से भी कहानी खड़ी कर सकते हैं. कई बार आप कहानी अपनी कल्पना में भी गढ़ते हैं. कई बार हूबहू आपके जीवन का हिस्सा भी कहानी में आ सकता है; उसे कोई बहुत परिश्रम की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि एक बनी-बनायी कहानी की तरह आपके जीवन में आया है वह हिस्सा.
कल्पना में जब आप कोई कहानी गढ़ते हैं तो आपको कई तरह की इमेजिनेशन लानी पड़ती है. यहाँ पर सीधे-सीधे एक चीज आ रही है और इसी प्रसंग में चल रही है, इस तरह से भी कहानी बनती है. अगर, कहानी को बनना होगा, तो अपने ढंग से बन जाएगी और अगर बिगड़ना होगा, तो आप लाख कशीदाकारी कर लें, उसमें कुछ नहीं होगा.
लेखक उसको सिर्फ अपनी तरह से दिशा दे सकता है. लेखक के चाहने से कहानी नहीं बन जाती है. कहानी बनने की एक प्रक्रिया होती है, वह आपके पास अपने आप आती है. आप अपने प्रयास से उसको जितना सँवार सकें, उसके दूसरे पक्षों को जितना अच्छे से उद्घाटित कर सकें.
कहानी में आपने क्या कहा, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है; किस ढंग से कहा, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है. यानी, आपके जो कहने का ढंग है, उसी में से कहानी आगे बढ़ेगी. हर लेखक का अपना ढंग होता है, वही हर लेखक की पहचान है. चाहे वह कविता में कह रहा हो, चाहे कहानी में कह रहा हो या पेंटिंग में कह रहा हो. गायकी की दुनिया में, संगीत की दुनिया में जो सुर लगते हैं, तो जरूरी नहीं कि हर बार वही सुर लग जाये, जो पहली बार लगे थे.
कहानी के साथ भी यही है कि आपने कोई ऐसी कहानी लिखी, जो बहुत प्रसिद्ध हुई, तो दुबारा भी आप वैसी कहानी लिख लेंगे, ऐसा नहीं हो पाता. नहीं तो, साधारण कहानी कोई क्यों लिखेगा? कोई एक जादू होता है जो करवा देता है, बड़े-बड़े उस्तादों को आप देखिए, कई बार रियाज के दौरान, ऐसा सुर लग जाता है, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी और कई बार तो प्रस्तुति के दौरान वह सुर नहीं लग पाता. वैसे ही कहानी में भी कभी आप अगर यह सोचो, जैसे मेरी जो साज़-नासाज़ कहानी है, सब लोगों ने बहुत पसन्द की, अगर मैं खुद को एक सिद्धहस्त लेखक समझता हूं तो पुनः साज़-नासाज़ क्यों नहीं लिख पाया?
सिद्धहस्त लेखक कोई भी नहीं होता है. एक प्रक्रिया होती है, जो कभी-कभी रचनाकार के अंदर बनती है, फिर उसके कहने का ढंग है, हर बार उसके कहने के ढंग में चीजें लोगों तक उसी तरह से पहुंच जाए खूबसूरती के साथ, जैसे साज़-नासाज़ में पहुंची थी, हर बार जरूरी नहीं है. वह चीज आनी होगी, तो अपने आप आती भी है. कोई भी कितना भी बड़ा कलाकार हो, कितना भी सिद्धहस्त हो, कोई एक क्षण ऐसा होता है, जो आपकी निर्मिति को उसके अंजाम तक पहुंचता है. हर बार मेरी निर्मिति किसी अलग अंजाम पर पहुंचे, जो बहुत बड़े पाठकों को प्रभावित कर सके, ऐसा हर बार नहीं होता. कभी भी लेखक को यह समझ में नहीं आता कि यह कहानी कहाँ जाएगी. किसी भी रचना को अगर बड़े लोक वृत्त में दर्ज होना होगा, तो अपने आप दर्ज होती है, किसी के प्रयास से नहीं होती. यहीं पर मामला आ जाता है आलोचना और सब चीजों का. किसी के कह देने से कोई लेखक नहीं बन जाता, किसी के उठा देने से या किसी के गिरा देने से भी नहीं बनता. रचना खुद जाती है, अगर उसमें सारे ऐसे तत्व हैं, जो विधा के अनुशासन के साथ मिलकर चल रहे हैं, विधा की अपनी जो शर्तें हैं, उन शर्तों के साथ मिलकर अगर रचना आगे बढ़ रही है, तो वह बहुत खूबसूरती से लोगों के बीच में जाएगी. आखिर में जो बड़ा लोक वृत्त है, वही सारी चीजों को स्वीकार करता है और वही सारी चीजों को नकारता भी है. उसमें पहुंचना है तो बहुत सहज ढंग से अपनी निर्मिति के सारे गुणों के साथ में चीजें जाएंगी. वरना नकार दी जाएगी. कोई अलग से उसको रेखांकित करना चाहे या प्रायोजित तरीके से, तो वह एक क्षण विशेष के लिए थोड़ी चमक जाएगी, लेकिन उसको बड़े दायरे में वैसी पहचान नहीं मिलेगी.
13.
अपने जीवन के प्रेम-प्रसंगों पर कुछ बताना चाहेंगे? किसी से आपका एकतरफा आत्मीय लगाव रहा हो?
प्रेम प्रसंग का जो मामला है. जाहिर है कि वह मोहल्ले का जीवन था और मोहल्ले में आपस में प्रेम न हो, ऐसा हो कैसे सकता है! आपस में कई लोगों के प्रेम थे. उस समय मेरी उम्र लगभग सोलह साल की रही होगी. वहाँ पर जो सामाजिक वातावरण था, उसमें सब कुछ दबे-छुपे ढंग से चलता था. मेरा वहां का जो स्थानीय इलाका था, मुझे उसमें तो किसी लड़की से प्रेम नहीं हुआ, लेकिन जो छुट्टियां मनाने लड़कियाँ अपने नाना के यहाँ आती थी और आकर एक- दो महीने में चली जाती थीं, वैसी एक लड़की से आकर्षण हो गया और फिर वह एक महीने बाद चली गयी. यह उस तरह का पहला प्रेम था, जो मुझे बहुत अंदर तक विचलित करने वाला था और लोगों की नजरों में भी आ गया.
वह प्रेम हो ही नहीं सकता, जो किसी को नजर न आये; अगर वह नजर में आया है, तो वह प्रेम है. उसे लाख छिपाने की कोशिश करो, जो नजर में आ गया इसका मतलब सचमुच है. फिर मोहल्ले में बात उठ गई कि कतराजगढ़ से जो लड़की आयी थी, उस लड़की का इसके साथ कुछ है. उस लड़की का नाम सुलोचना था. हमलोग एक दूसरे को देखे बगैर रह नहीं पाते थे, वह अपनी घर के छज्जे पर खड़ी रहती और मैं अपनी दुकान के भट्टी में दूध गर्म करते हुए, उसको देखता रहता. पीछे गल्ले में हमारे पिताजी बैठे रहते थे. हम दोनों की एक दूसरे से नजर हटती नहीं थी. फिर जब उसकी छुट्टियाँ खत्म हो गयी और वह रिक्शा में बैठकर स्टेशन की ओर जाने लगी, तब हम दोनों ही द्रवित होकर एक-दूसरे के सामने खड़े हो गये थे और उस विदाई को पूरा मोहल्ला देख रहा था. वह फिर दुबारा दुर्ग आयी नहीं और मेरा जाना कभी उसके वहाँ हुआ नहीं.
फिर दूसरा प्रेम मुझे एक रूसी लड़की से हुआ. रूस से एक सर्कस भिलाई में आया था. सर्कस की दुनिया में रूस का बड़ा काम है. यहाँ उनकी पूरी टीम आती थी. हिंदुस्तान में कई जगहों पर वह एक-एक महीने के लिए प्रदर्शन करते थे. भिलाई में भी उनके तम्बू गड़े थे. मैं एक दिन सर्कस देखने गया, वहाँ पर एक लड़की जो सर्कस की परफ़ॉर्मर थी, वह हर बार अपने करतब दिखाते हुए, घूम कर आती, उस दौरान उसकी भी नजर मेरे ऊपर पड़ती और मेरी भी नजर उसपर पड़ती.
यह आभास हो ही जाता है कि सामने वाला भी तुमसे प्रभावित है, तो लगभग तीन घन्टे का जो सर्कस था, उसमें कम से कम बीस से पच्चीस बार, इसी तरह से एक दूसरे को देखना हुआ. उसके बाद मुझे ऐसा लगा कि दूसरे दिन जाकर देखना चाहिए, ये मामला कहीं एक तरफा तो नहीं है या मुझे कोई भ्रम तो नहीं है? दूसरे दिन फिर दुकान का काम छोड़कर सर्कस देखने गया. दूसरे दिन, पहले दिन की तुलना में ज्यादा प्रतिक्रिया मिली. ऐसा हो गया कि घर में चुप-चाप निकलना, बिना बताए हुए कि कहाँ जा रहे हैं कहाँ नहीं और गल्ले से पैसा चुराना. लगातार, यह सिलसिला कम से कम पंद्रह दिन तक चला. उसके बाद फिर हिम्मत बढ़ी थोड़ी, मैंने सोचा कि इनके प्रदर्शन खत्म हो जाने के बाद, उससे कैसे मिल पाऊँगा? तो दस बजे तक प्रदर्शन खत्म हुआ. उसके बाद जो तम्बू लगे हुए थे, मैं उनमें से छुपते-छुपाते अंदर घुस कर, उस लड़की को खोजने लगा. उसी दौरान चौकीदार ने मुझे देख लिया. बाहर के किसी को अंदर घुसना मना था, इस कारण मुझे उसने डंडा दिखाया और बाहर की ओर खदेड़ दिया. उस दिन मैं अंदर जा नहीं पाया.
फिर उसके बाद एक दिन और हिम्मत की, अंदर जाने के. उस दिन वह लड़की दिखी. जब वह करतब दिखाती, तो अपने पोशाक में होती; परन्तु उस समय वह सादा लिबास में थी. उस सादा लिबास में भी, वह बहुत खूबसूरत थी. वह मुझे देखकर बहुत खुश हुई, मैं भी बहुत खुश हुआ. लेकिन उसे न कोई हिंदी का शब्द आता था और न मुझे कोई रूसी का शब्द आता. मैंने उसे इशारे-इशारे में बताया कि मैं कल आऊंगा. उसने भी इशारे में ही कहा- हाँ दूसरे दिन गया तो, तम्बू उखड़ चुका था.
14.
समय के अनुसार आपने अपनी वेश-भूषा में क्या परिवर्तन महसूस किया? आपको क्या पहनना अधिक पसन्द है?
मेरी वेशभूषा शुरू से, जो फैशन में रहा, उसके अनुकूल ही थी. जब बेल बॉटम चलती थी, तो मैंने बेल बॉटम पहना. उसके बाद जीन्स आ गयी, तो जीन्स और टी-शर्ट पहनना शुरू किया. फैशन में जिसका ट्रेंड रहा, मैंने वही अपनाया. मैं हर नये फ़ैशन के कपड़े को खोजता रहता हूँ. शुरुआती दौर से ही नये परिधान जो फैशन से आते हैं, मैं वही अपनाता रहा हूँ. भारतीय पारंपरिक परिधान मैंने कभी भी नहीं पहना. बेटी की शादी में मजबूरी में कुर्ता पैजामा पहनना पड़ा था. मेरी जब खुद की शादी हुई थी तो उसमें मैंने कुर्ता पैजामा भी नहीं पहना और न ही पारम्परिक शूट ही पहना. जीन्स और टी-शर्ट में ही शादी की थी.
कुछ प्रयोग भी मैंने किये थे. एक बार एक मणिपुरी शाल का टी-शर्ट बनवाया था, एक बार सोफे के कवर के कपड़े का पेंट बनवाया था, एक बार बारदाने के लिए प्रयुक्त होने वाले जूट का सूट बनवाया था.
15.
आप कला प्रेमी होने के नाते विश्व सिनेमा को किस तरह से महसूस करते हैं?
विश्व सिनेमा इतना बड़ा है कि इसमें कौन सी बात सामने लायी जाये, यह कहना बड़ा मुश्किल होता है. लेकिन, मैं अक्सर यह महसूस करता हूँ कि यूरोप का जो सिनेमा था, पश्चिमी देशों का जो सिनेमा था और वहाँ से सिनेमा के जो ट्रेंड आते थे, वहीं दूसरी तरफ हमारे एशिया का सिनेमा था, तो एक समय के बाद मुझे यह महसूस होने लगा कि यूरोप के सिनेमा में खासकर एंथनी वगैरह लोग आए थे. वह समय था, जब आधुनिकता, औद्योगिक विकास और यंत्रीकरण का विकास बहुत तेजी से बढ़ा. हमारी जो सामाजिक रूप रेखा थी, जो ताना-बाना था, उसमें जाहिर है कि बहुत तरह की तबदीलियां आयीं, तो ऐसा मान लिया गया कि उस आधुनिकता में, उस औद्योगिक क्रांति में, और उस यंत्रीकृत पृष्ठभूमि ने मनुष्य को बहुत अकेला कर दिया, जो मनुष्य का एलिनेशन था, वह यूरोप के सिनेमा में एक बड़े बिम्ब के रूप में सामने आया. यह मान लिया गया कि औद्योगिक क्रांति ने पूंजी का खूब विकास किया, लेकिन मनुष्य को अकेला कर दिया. यह तो सच है कि बढ़ते हुए यंत्रीकरण ने मनुष्य में अकेलापन आने लगा, वह सिनेमा में भी आया. लेकिन मैं बार-बार यह सोचता कि पूंजीवाद के आने से क्या सिर्फ मनुष्य अकेला हुआ? व्यक्तिगत रूप से अगर वह अकेला हुआ, तो उसी पूंजीवाद के आने से, उसी औद्योगिक क्रांति आने से कई बड़े-बड़े समूह विस्थापित भी हुए थे. जो विस्थापित समूह थे, वह कहाँ गये? उस बारे में यूरोप का सिनेमा बिल्कुल चुप है. वहाँ एलिनेशन को तो एक फैशन के रूप में लिया गया.
मनुष्य के अकेलेपन को दिखाने के लिए क्या-क्या प्रयोग नहीं हुए. लेकिन अपने परिचित प्रवेश से उजड़कर के बड़े-बड़े समूह विस्थापित हुए, उसके बारे में वहां कोई सिनेमा नहीं था, लेकिन जब मैं एशियाई फिल्में देखता हूँ, तो कुरोसावा की एक फ़िल्म है- डोडेस्काडेन (Dodes’ka-den). उस फिल्म में पहली बार इस औद्योगिक विकास के पिछड़े हिस्से को दिखाया है, वह पूरी फिल्म स्लम में खुलती है और जो वंचित समुदाय के लोग, जो अपने परिचित परिवेश से उजड़ कर आये हुए लोग थे, जो शहर के किनारे कर दिये गए थे, उसी पीरियड की वह भी फ़िल्म है; जब अन्टोनियोनि (Michelangelo Antonioni) फ़िल्म बना रहे थे, उसी पीरियड में जापान का एक डायरेक्टर भी फ़िल्म बना रहा था. वह उन विस्थापित लोगों पर फ़िल्म बना रहे थे, उनकी कहानी बता रहे थे. मैं यह महसूस करता रहा कि विश्व सिनेमा में शुरू से पश्चिमी यूरोप का दबदबा बहुत रहा, लेकिन एशियन फिल्मों को हमेशा कमतर रखा गया, जबकि बाद के दिनों में एशिया में जापान के साथ, ईरान ने इतनी बेमिसाल फिल्में की है; उसी तरह कोरिया.
इन फिल्मों का अपना एक अंडर टोन है, इनके पास भी अपनी एक अलग भाषा है. यह कला के जो उस्ताद थे, उन लोगों ने पश्चिमी यूरोप के फिल्मों की बहुत कद्र की. ख़ास तौर से हमारे यहाँ जो मीमांसा होती है विश्व सिनेमा की. उसमें पश्चिमी यूरोप के सिनेमा का ही महिमा मंडन होता है, एशियाई फिल्मों के ऊपर कभी फोकस नहीं होता, तो मैं यह हमेशा चाहता हूं कि फिर से एक बार, एक दृष्टि पूरे एशियाई फिल्मों पर जाये, हमारा जो पूरा द्वीप है उसको रेखांकित करने वाली कितनी फिल्में हैं! तब हम पूरे विश्व सिनेमा की बात कर सकते हैं.
यहाँ बात एक तरफा हमेशा हो जाती है, जब भी विश्व सिनेमा की बात होती है तो यूरोप की फिल्में, पश्चिमी यूरोप की फिल्में, अमेरिका की फिल्में या फिर जो लैटिन अमेरिकी देश है वहाँ की फिल्में. एशिया कहाँ है? मैं हमेशा यह चाहता हूं कि एशियन फिल्मों पर अलग से एक सुविचारित तैयारी के साथ इस पर कोई एक विशेष शोध हो, जो पूरे काल खंड को लेकर और एशियाई देशों में बनने वाली तमाम फिल्मों को लेकर, हम बात रख सकते हैं.
16.
आपको यात्राएँ बहुत पसन्द हैं. कोई यात्रा आपके रचना संसार को किस तरह से प्रभावित करती है? अपनी किसी ऐसी रचना का जिक्र भी करें?
अभी तक, मैंने यात्रा बहुत की है, उसका रचना संसार पर सीधा प्रभाव तो नहीं रहता. लेकिन भ्रमण और यात्रा, इन दोनों में फर्क है. हम अगर कहीं जा रहे हैं, तो वह सिर्फ एक भ्रमण है, यात्रा तो लोग अपनी आजीविका के लिए करते हैं, जो लंबी यात्राएं मनुष्य जाति ने की है, उन्होंने कई मैदानों को पार किया, कई समुन्द्रों को पार किया, कई पहाड़ों को पीछे छोड़ा है, वह उनकी यात्रा थी.
हमलोग एक पर्यटक की तरह सिर्फ भ्रमण करने जाते हैं. जो यात्री होते हैं उनके जो अनुभव हैं, वह शायद! हो सकता है कि रचनात्मक दुनिया में बहुत काम आते हों. परन्तु, भ्रमण का तो सीधा-सीधा रचनात्मक दुनिया से वैसा कोई रिश्ता नहीं होता, वह आप अपने मनोरंजन के लिए जाते हैं, आप अपनी रूटीन से हटकर थोड़ा सा दूसरा जीवन जीने जाते हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ चीजें आती भी हैं, जैसे मैं लद्दाख गया था, तो लद्दाख के जो प्राकृतिक लेन्डस्केप हैं, वह तो एक तरफ़ है. लेकिन वहाँ के जो मठ हैं, वह बहुत ही रहस्यमयी हैं.
एक मोनास्ट्री में मैंने बुद्ध की मूर्ति ऐसी देखी, जिसपर एक काला पर्दा पड़ा हुआ था. वह पर्दा साल में सिर्फ एक बार हटाया जाता है. वह बुद्ध की एक बहुत विशाल मूर्ति है. बुद्ध की गोद में एक महिला है और बुद्ध उसके साथ संभोग कर रहें हैं. संभोग बहुत चरम आवेग वाला है, स्त्री भी अपने चरम आवेग में है. बुद्ध का चेहरा इतना विरूपित है कि जैसे वह कोई पशु हों, यानी वह संभोग के चरम क्षणों में डूबा हुआ बुद्ध का चेहरा है. उस समय मैं बहुत आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि ये मूर्ति जितनी वीभत्स थी उतनी ही कामोत्तेजक भी. उसमें ध्यान, रहस्य और कामुकता के चरम आनंद का घातक मिश्रण था.
मैंने कभी इस तरह से बुद्ध की कल्पना ही नहीं की थी. अच्छा! मैं अगर जानना चाहूं, वहाँ के जो भी बौद्ध भिक्षु हैं, तो वह हिंदी समझते नहीं थे. यही कारण है कि मेरी किसी जिज्ञासा का उन्होंने कोई समाधान नहीं किया. लेकिन वह बिम्ब मेरे दिमाग में अभी भी है. अब उसका रचनात्मक दुनिया में कैसे आना होगा, यह आने वाला समय बताएगा.
बुद्ध के उस चेहरे को देखकर कोई भी आदमी आश्चर्य में पड़ सकता है. हमने बुद्ध को हमेशा शांत और सौम्य रूप में देखा. इतने विकराल रूप में, वह भी कामोत्तेजना की विकरालता. यह संस्कृति का अद्भुत रूप है. वहाँ से आप अपने भीतर कितना ला सकते हैं, उसको रचना में कितना ढाल सकते हैं, यह तो आने वाला समय बताएगा.
एक बार जब मैं मकाउ और हांगकांग की ट्रिप पर था तो मैंने मकाउ में एक शो रूम देखा, जैसे कोई कार का शो रूम होता है, वैसा ही शो रूम, लेकिन उसमें कार नहीं लड़कियां बेचने के लिए रखीं गयीं थीं. उस शो रूम में किसी स्टेडियम जैसी एक के ऊपर एक सिटिंग व्यवस्था थी. लाइन से सब लड़कियां बैठीं थीं उन सब की छाती के बाएं हिस्से में एक कार्ड था जिनमें उनके नंबर अंकित थे. ग्राहकों को उनके सामने बैठाया जाता था, ग्राहक उनमें से किसी को पसंद करते थे और बुकिंग काउंटर पर जाकर अपना पसंदीदा नंबर बताते थे. काउंटर पर मौजूद कर्मचारी उनसे पूछता था कि वे कौन– सा मसाज लेना चाहते हैं सिम्पल मसाज या बूम बूम मसाज.
जब मुझे मालूम हुआ कि बूम बूम मसाज का मतलब क्या होता है, तो मैं सोच में पड़ गया कि दुनिया में क्या कहीं भी इतना व्यवस्थित और इतना सांस्थानिक देह व्यापार होता होगा? चीन ने मकाउ में नाईट लाइफ़ की जो विशाल दुनिया खड़ी की है वह उसके स्पेशल इकोनोमिक जोन से कम बड़ी नहीं है. चीन ने अमेरिका के न्यूयार्क और शिकागो के नाईट लाइफ़ जोन को टक्कर देने के लिए मकाउ में जो बाजार खड़ा किया है, उसे देखकर हम समझ नहीं पाते कि ये दोनों महाशक्तियां एक दूसरे को टक्कर देने के लिए किस हद तक जाएँगी. हम अभी तक सिर्फ़ दोनों की परमाणु शक्तियों से और उनकी सैन्य शक्तियों से डरते थे लेकिन ये सब तो बहुत भयानक है.
17.
एक पाठक के तौर पर, आपको कौन-कौन सी कहानी पसन्द है?
कितनी हजारों, लाखों कहानियां हैं. एक कहानी जो मुझे बहुत प्रिय है, जिसका मैं हमेशा जिक्र करता हूँ, वह चीनी कहानी है. उसका नाम है- ‘नाव का गीत’. जो मेरी अभी तक की पढ़ी हुई कहानियों में सबसे प्रिय कहानी है. उसके लेखक का नाम है- फंग ची छआई और दूसरी कहानी जिसे मैं सबसे ज्यादा पसन्द करता हूँ, वह भी नाव की ही कहानी है. वह जोआओ गुइमारेस की कहानी है- ‘नदी का तीसरा किनारा’. ये दोनों ही अद्भुत कहानियाँ हैं.
18.
आप हिंदी के किन-किन रचनाकारों से प्रभावित हैं?
हिंदी के जो बड़े रचनाकार हैं, जिनका मेरे ऊपर बहुत ज्यादा प्रभाव है, उनमें निर्मल वर्मा और ज्ञान रंजन सबसे ऊपर हैं. उनकी भाषा एक ध्रुव तारे जैसी है, हम ध्रुव तारे को देखकर अपनी दिशा तय कर सकते हैं, पर उस तक पहुंच नहीं सकते.
19.
आपने अपने जीवन के कई साल मुंबई में भी बितायें हैं, उस समय के कुछ महत्वपूर्ण पल या कोई दुःखद घटना साझा करें?
मुम्बई में मेरा जीवन बहुत भाग-दौड़ वाला था. मैंने जीवन में कभी कोई संघर्ष नहीं किया, हर चीज का आनंद लिया है. जितनी भी कठिन स्थितियां आयी हों, उसे मैंने मजे-मजे में गुजारा है.
दुःखद स्थितियां असल में…. मुंबई है हादसों का शहर! वहाँ हादसे ऐसे होते हैं कि आदमी विचलित हो जाये. अच्छा! वहां सिर्फ ऐसे हादसे हैं, जो बहुत विचलित करने वाले होते हैं, यह कहना भी ठीक नहीं, मुंबई में कई ऐसे उदाहरण भी हैं, जिसमें ईमानदारी है, खूब सुखद घटनाएं हैं. इन सुखद और दुखद घटनाओं के बीच, वहां के लोगों की जो जिजीविषा है, वह देखने के काबिल है.
मेरी मुंबई में जो फैक्ट्री थी और उसमें जो सामग्री बनती थी, उसे खरीदने एक अंधा सेल्समैन आता था, वह मेरी फैक्ट्री से उत्पादित सामग्रियाँ खरीदता था. वह लगभग चालीस किलो का बोझा अपने दोनों कंधों पर ढोकर थाने से घाटकोपर आता था, घाटकोपर से सारी चीजें खरीदता, फिर लोकल ट्रेन में सवार होकर थाने उतर जाता. वहाँ एक-एक दुकान में अपने द्वारा खरीदे प्रोडक्ट्स सप्लाई करता. तो मैंने अपने जीवन में पहली बार अंधा सेल्स मैन देखा. मुंबई की लोकल ट्रेन में चढ़ना अपने आप में बहुत बड़ी बात है. उसमें इस तरह का काम करना और उसमें सफर करना, यह ऐसे उदाहरण हैं कि मनुष्य की जिजीविषा की पराकाष्ठा का पता चलता है.
एक महिला मेरे पास आती थी वह भी सेल्समैन थी, उसके दो बच्चे थे, दोनों बच्चे विक्षिप्त थे. उनकी विक्षिप्तता के कारण वह महिला उनको घर में छोड़ नहीं सकती थी. मेरी फैक्टरी से सारा सामान खरीदने के बाद, झोले में भरकर वह उल्लास नगर से आती थी और फिर वापस उल्लास नगर जाती थी. एक दिन यह हुआ कि उस महिला ने जल्दी ट्रेन पकड़ने की चक्कर में पटरी पार करके दूसरी ट्रेन को पकड़ने की कोशिश की. परन्तु वह महिला तेजी से आती हुई फ़ास्ट ट्रेन की चपेट में आ गयी. महिला का पूरा शरीर दो भाग में बंट गया और जो सामान उसने मेरी दुकान से खरीदा था, वह उसके चारों तरफ बिखर गया. यह बहुत दुःखद हादसा था.
एक बार फिर, एक रेलवे पुल के ऊपर से जाते हुए मैंने देखा कि नीचे ट्रैक पर एक आदमी पड़ा हुआ था. उसका बायां पैर कट गया था. दायां पैर ट्रैक के अंदर था और बाकी का हिस्सा ट्रैक के बाहर. हम हाथ पर हाथ रखकर ब्रिज पर खड़े थे. वह पुकार रहा था. दिक़्क़त यह थी कि ऐसा कोई हादसा होने पर, पुलिस ही उसको हाथ लगा सकती है. कानूनी तौर पर मजबूरी थी वरना बॉम्बे के लोग कभी भी मदद करने में पीछे नहीं हटते. अपना सारा काम छोड़कर हर तरह की मदद में, अपनी हर तरह की व्यस्तता के बावजूद सहायता के लिए खड़े हो जाते हैं, ये उस शहर की सबसे बड़ी खूबसूरती है. लेकिन वह भी एक हादसा था कि एक आदमी ट्रैक पर पड़ा हुआ जिंदा है और वह मदद की गुहार लगा रहा है, पर हम कुछ भी नहीं कर पा रहे थे. फिर दूसरी ट्रेन आई और उसे घसीट कर ले गई.
20.
आप अपने दोस्तों के साथ कहाँ समय बिताना अधिक पसन्द करते हैं? आप अपने करीबी दोस्तों के बारे में कुछ कहें? उनके साथ बीते कुछ मधुर स्मृतियों को भी साझा करें?
मैं जब दुर्ग में था, उस दौरान मेरे अधिकांश मित्र, मेरे दुकान पर ही आते थे. मेरी दुकान ही दोस्तों का अड्डा था, वहीं मैंने मार्क्सवाद का पहला पाठ पढ़ा. मैं पहले मार्क्सवाद से परिचित नहीं था. दिनेश सोलंकी हमारे मित्र हैं, आज भी मेरे उतने ही घनिष्ठ मित्र हैं. वह पुराने मार्क्सवादियों में से थे और उनका बहुत अच्छा अध्ययन है.
पूरन हार्डी मेरे दोस्त थे, वह तो अब गुजर गये, उनकी लिखी कहानी ‘बुडान’ बहुत चर्चित हुई थी. पूरन, थियेटर की दुनिया के आदमी थे और बहुत अच्छे अभिनेता भी. इसके अलावा शरद कोकास, कैलाश बनवासी, राजकुमार सोनी, सियाराम शर्मा, हरी सेन, जो एक चित्रकार और नाटकों के मेकअप आर्टिस्ट हैं, अनिल कामड़े, जो एक बहुत महत्वपूर्ण आर्ट फोटोग्राफर हैं फिर महावीर अग्रवाल, जो सापेक्ष पत्रिका के संपादक हैं, ये सब मेरी दुकान पर नियमित रूप से आते थे.
गैर साहित्यिक दोस्तों में हेमंत नेमा, अनंत ठाकुर और मुंडू; तो यह सब लोग जो हैं, लगभग शाम को पाँच-छह बजे नियमित रूप से दुकान पर आते थे, गप बाजी होती थी और बहस भी. फिर धीरे-धीरे गोलबंदी बड़ी हुई, भिलाई के भी दोस्त जुड़ते गये. फिर अड्डा मेरी दुकान से उठकर बियरबार में चला गया. उसके बाद फिर दायरा और बढ़ा, तो रायपुर में दोस्त बने- आनंद हर्षुल.
आनंद के साथ तो मैंने अनेक यात्राएं की. उन दिनों सारी मुलाकातें दुकान में ही होती थी, फिर बाद में कभी प्रोग्राम बनता, तो एक साथ सब घूमने निकलते थे. यह मेरे जीवन का सबसे सुनहरा समय था. एक साथ इतने सारे दोस्तों का रोज जुटना, परन्तु बाद में जब दुर्ग छोड़कर मुंबई चला गया, तो वह सारी दोस्ती की मौज छूट गयी. उस तरह से फिर रोज मिलना खत्म हो गया. अब इक्का-दुक्का कोई ऐसा संयोग बनता है तो हम जमा हो जाते हैं.
उसके बाद हमने यह तय किया कि अब सबके शहर अलग-अलग हो गये हैं, तो एक साथ कहीं बैठ नहीं सकते; इसलिए साल में एक कार्यक्रम ऐसा बनाते हैं कि अपने परिवार सहित हमारे जितने भी मित्र हैं, सब मिलकर किसी यात्रा पर निकला करें. तो जैसा अंडमान निकोबार की यात्रा थी, उसमें मेरा परिवार हरिओम राजोरिया और बसंत त्रिपाठी, कैलाश बनवासी और राजकुमार सोनी सब अपने परिवार के साथ थे.
उसके बाद लद्दाख की यात्रा थी उसमें परिवार सहित आनंद हर्षुल और रायपुर के मेरे मित्र नवीन श्रीवास्तव का परिवार था. इस तरह से साल में एक या दो कार्यक्रम हमलोग ऐसा कर लेते हैं कि सारे मित्र अपने परिवारों के साथ इकट्ठे हों और किसी यात्रा में जायें. उन यात्राओं का एक अलग ही आनंद होता है, गोवा की जो यात्रा रही, उसमें भी हरिओम, बसंत और मेरा परिवार था. हमलोग बहुत आनंद उठाते हैं.
21.
एक रचनाकार के रूप में शराब आपके जीवन में कितना महत्व रखती है? आप किसके साथ बैठकर पीना पसन्द करते हैं?
रचनाकार के जीवन में शराब का वैसा कोई महत्व नहीं होता, शराब के पीने से कोई रचनाकार, कभी सिद्धि हासिल कर ले ऐसा भी कुछ नहीं है. परन्तु यह है कि इसका जो मज़ा है, उसका दोस्ती-यारी के बिना कोई महत्व नहीं है. हम दोस्तों का जब किसी भी तरह का जमावड़ा होता है, तो फिर उसमें औपचारिक बातें नहीं रहती और हम सभी थोड़ा खुलते हैं. अपने बहाव में जिसका जिस तरह से मिजाज हो, वह सामने खुलकर आता है. उसमें कई तरह का गाना-बजाना भी होता है, मस्तियाँ, कई तरह का मजाक होता है. लेकिन ये लुत्फ़ सिर्फ शराब से नहीं, गाढ़ी दोस्ती से आता है. मेरे हिसाब से बिना दोस्ती के शराब पीना ठीक नहीं है. अगर आपका कोई दोस्त नहीं हैं, तो आपको शराब नहीं पीनी चाहिए. शराब तो दोस्तों के लिए बनी है.
22.
कुछ ही महीनों में आप अपने उम्र के साठवें बसंत में प्रवेश कर जाएंगे. वर्तमान सामाजिक परिदृश्य को देखते हुए, आपके मन में आशा है या निराशा?
वर्तमान परिदृश्य बहुत निराशाजनक है, लेकिन कौन ऐसा लेखक रहा है जो अपने वर्तमान से कभी भी संतुष्ट रहा हो? हर लेखक का जो वर्तमान होता है, वह उससे असंतुष्ट रहता ही है, उसके प्रति सिर्फ असंतुष्ट होना ही नहीं बल्कि उसके प्रति एक अलग तरह का क्षोभ भी उसके अंदर होता है, जब वह गहरे असंतोष से जुड़ा रहता है, तब उसे सब चीजें बहुत नकारात्मक लगती हैं, कभी–कभी मेरे अन्दर भी पागलपन से भरे भयानक विचार आते हैं, कई बार मैं ठहरकर सोचने की प्रक्रिया में लग जाता हूँ, कई बार मुझे लगता है कि प्रगतिशील ताकतों ने बहुत वक्त लगाकर धर्मनिरपेक्ष और मानवीय वातावरण बनाया, जिसमें मिल-जुल कर रहने की संस्कृति ने अपना रूप गढ़ा.
मुझे लगता है कि यह संस्कृति किसी भी धार्मिक मत से ज्यादा पवित्र है ओर जो भी अपने अंधे धार्मिक जुनून से इस संस्कृति को नष्ट करना चाहता है उसे मौत के घाट उतार देना चाहिए. जैसे कोई कट्टर मुसलमान काफिरों को मार डालता है, जैसे चर्च विधर्मियों को मार डालते हैं, जैसे कर्मकांडी, जातिवादी और साम्प्रदायिक हिन्दू, मुसलमानों और दलितों को मार डालते हैं. जैसे वे अपने धार्मिक कट्टरपन के आड़े आने वाली धर्मनिरपेक्षता को मार डालते हैं, ठीक वैसे ही धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी एकजुट होकर रुढ़िवादियों का मार डालना चाहिए. अगर धर्म कट्टर हो सकता है, तो धर्मनिरपेक्षता क्यों कट्टर नहीं हो सकती?
अगर वे मानवता के खिलाफ़ हथियार उठा सकते हैं तो हम मानवता की रक्षा के लिए क्यों न हथियार उठाएं ?
धर्मिक कट्टरता हमेशा हथियारों से लैस होती है तो धर्मनिरपेक्षता कब तक निहत्थी रहेगी?
अब आप जरा सोचिये कि ऐसे विचार क्यों मेरे दिमाग में आते होंगे क्या ये पागलपन से भरे विचार नहीं है ?
लू शुन की जो ‘एक पागल की डायरी’ है, उस डायरी के पन्ने मेरे जेहन में चील कौवों की तरह फड़फड़ाते रहते हैं, लेकिन बाद में बहुत सारी सकारात्मक घटनाएं भी होती हैं, बहुत सारे परिवर्तन भी होते हैं और निराशा का जो अंधेरा है, उसके सामने फिर उतनी ही बड़ी आशा भी होती है. एक चीज मैंने हमेशा महसूस की है, साहित्य में नकारात्मक चीजों पर लिखना तो बहुत आसान होता है, लेकिन जीवन की सकारात्मकता पर, जीवन की उज्ज्वलता पर अच्छी कहानी बहुत कम देखने को मिलती है.
जीवन की पीड़ा, निराशा, अंधकार ये तो साहित्य में बहुत बड़ी तादाद में है, जीवन की उज्ज्वलता, उसका सकारात्मक पक्ष, उस पर लिखना ज्यादा मुश्किल है, तो लेखक को हमेशा निराशाजनक स्थितियां ही क्यों अपील करती है? मैं कई बार सोचता हूँ.
23.
इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं ?
फ़िलहाल तो ऐसा कोई काम हाथ में नहीं है अभी, दो-तीन महीने पहले एक कहानी पूरी की थी, जो वनमाली पत्रिका में प्रकाशित हुई. जिसका शीर्षक है- ‘कोरस’.
24.
ऐसी कौन सी इच्छाएँ हैं, जो आप अपने शेष जीवन में पूरा करना चाहते हैं?
मैं जीवन में संपूर्णता लाने के विचार से बहुत दूर हूँ. जो लोग ऐसा सोचते हैं, वे जल्दी मर जाते हैं, जैसे गुरुदत्त, मंटो, चेखव और भी ऐसे कई हैं, जो जीवन में एक बेदाग़ संपूर्णता चाहते थे. वे मानने को शायद तैयार ही नहीं थे कि जिंदगी में यह नामुमकिन है. अधूरापन ही मनुष्य के जीवन की शर्त है.
इस दुनिया में जितने भी प्राणी हैं, उनमें सर्वाधिक संपूर्ण जीवन मनुष्यों का माना जाता है, लेकिन मनुष्य उन पदार्थों से भी ज़्यादा अभागा है, जो एक सर्वव्यापी गुरुत्व की लय में बंधे हैं.
बात इच्छाओं की, जो आपने की है, तो व्यक्तिगत रूप से मैं ऐसा मानता हूं कि मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं है, जिसे पूरी करने के लिए मैं अपने भविष्य को दांव पर लगाऊं. मैं घोर वर्तमानवादी हूं.
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सहयोग विवेक कुमार साव
9674965276 |
मनोज रूपडा की कुछ कहानियां पढ़ी थीं।’साज नासाज’ मेरी पसंदीदा कहानी है।बहुत पहले उस पर किसी आलेख में अपनी शक्ति और सीमा में कुछ लिखा भी था।
उनके जीवन और रोजगार आदि के बारे में जानकर चकित हुआ और अपने अनुभव लोक का विस्तार भी हुआ।
संभवत: पेशे से अध्यापक होने के कारण मनोज जी के बयान कि ‘बहुत सोच-सोचकर बोलनेवाला कोई प्राध्यापक नहीं हूँ’, पढ़ते हुए हँसी भी आई।मनोज जी का साक्षात्कार सुचिंतित और ज्ञानवर्धक है।
राकेश जी को साधुवाद और अरुण जी तथा समालोचन टीम को धन्यवाद।
यह शृंखला रोचक है।
मनोज चोपड़ा का साक्षात्कार पढ़कर बड़ी खुशी हुई । मिठाई बनाने वाले एक रचनाकार ने अपनी कहानियों को भी उसी तरह स्वादिष्ट बनाया। जीवन भी बिंदास हो कर जीया। बहुत खुशी हुई। मनोज को अनंत शुभकामनाएं!
लेखक के सात्विक क्रोध के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद धर्मांध ताकतों से मोर्चा लेने के लिए धर्मनिरपेक्ष लोगों द्वारा हिंसा का प्रत्युत्तर हिंसा से देने का उनका सुझाव पुनर्विचार की मांग करता है।
‘हम ध्रुव तारे को देखकर अपनी दिशा तय कर सकते हैं, पर उस तक पहुंच नहीं सकते.’ – इस अद्भुत वाक्य को मैं इस बातचीत के मानीखेज और दिशा सूचक यंत्र की तरह पढ़ सकता हूँ।
यहा़ँ दर्ज अधिकांश बिंदुओं से निजी तौर पर परिचित हूँ लेकिन अपने मित्र और कथाकार मनोज रूपड़ा की इस सुगठित बातचीत से गुज़रना सुखद है। राकेश-अरुण को धन्यवाद।
पहले सोचा बाद में पढ़ा जाएगा पर जब निगाह डाली तो एक बार में पूरा पढ़ा| कितनी सरलता है बात कहीं गई है| पूरी तरलता के साथ बात आगे बढ़ती जाती है| छोटे शहरों में लोग भरपूर जीवन जीते है, अनुभव कमाते हैं और यह पाठशाला की तरह चलता है| सबसे बढ़ी बात है उस अनुभव को संजोना संवारना और उसे सरलता से प्रस्तुत कर देना|
संवाद श्रृंखला की पहली कड़ी में राकेश श्रीमाल की मनोज रूपड़ा से अंतरंग बातचीत बहुत अच्छी लगी।बहुत ही दिल खोलकर ईमानदारी से कही गयी बातें अपना एक अलग असर छोड़ती हैं।बहुत पहले की आत्म-कथात्मक श्रृंखला-‘गर्दिश के दिन'(सारिका) की तरह एक लेखक की ये आत्म-स्वीकृतियाँ वस्तुतः साहित्य और संस्कृति के लिए मूल्यवान हैं।सभी को साधुवाद !
यह एक दिलचस्प सीरीज़ होने जा रही है। आवश्यक भी। इसका शीर्षक भी बहुत व्यंजक है। राकेश जी और आपको बहुत बधाई और आभार।
जोरदार बीडू
आज पूरा दिन इसे पढ़ते बीता ,हर प्रश्न का मनोज जी ने इतनी गहराई से उत्तर दिया है कि मन उन्हीं में रमा रहा ,कितने सुंदर छत्तीसगढ़ की माटी का उन्होंने वर्णन किया है ,दोस्ती पर बड़ी गहरी बात कही , उनका लिखा पढ़कर बहुत प्रभावित होती थी पर यह साक्षात्कार एक व्यक्ति के रूप में उनके लिए आदर और जिज्ञासा पैदा करता है । बेहद सुलझे हुए और उम्दा व्यक्तित्व के धनी हैं रुपडा जी । तलघर को बधाई बढ़िया प्रयास के लिए ।
मनोज जी ने बड़ी ईमानदारी से लिखा है।उनमें कोई श्रेष्ठता या हीनता ग्रन्थि नज़र नहीं आती।
हिंदी के तमाम जानेमाने लेखकों का ‘तलघर’ यदि ‘समालोचन’ के माध्यम से पाठकों को सुलभ हो सके तो बड़ी बात होगी।
ये बहुत शानदार श्रृंखला है. लेेखक के तलघर में उसकी रचनाओं से भी ज्यादा सामान, सामग्री छुपी रहते हैं. अभी 9 सवालों के ही जवाब पढ़ पायी कि दुकानदारी शुरू करनी है. सेव कर लिया है. शेष बाद में पढ़ती हूं.
कल पूरा पढ़ लिया। शानदार और विस्मयकारी!
बहुत समृद्ध करने वाला ईमानदार संस्मरण।
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नॉर्वेजियन लेखन इसलिए भी अनूठा लगता है क्योंकि नॉर्वेजियन सामाजिक जीवन में जितने बंद हैं, साहित्य में उतने ही खुल जाते हैं। लेखन बहुत ही निजी और ईमानदार दिखती है जिसमें लेखन यात्रा भी सम्मिलित सी हो जाती है। एक नाम तो उन्होंने ले ही लिया, समकालीन में क्नॉसगार्ड उसी व्यक्तिगत साहित्य कड़ी के कहे जा सकते हैं।
सॉमरसेट मॉम का लेखन भी उतना ही निजी नज़र आता है। स्टीफन स्वाइग में भी यह दिखता है कि वह अपने पात्रों से मिल चुके होते हैं। लेखक के इर्द-गिर्द से कथाएँ जन्म लेती हैं, वह गढ़ नहीं रहा होता। न ही कुछ छुपा रहा होता है।
मनोज रूपड़ा जी एक मिसाल हैं।
पूरी ईमानदारी से अपने मन के भाव कहना चाहूंगी -‘यह कितना बड़ा लेखक है’
बहुत जगह पर इन्होंने वह कहा है जो बहुत करीब से महसूस किया है। कहना बड़ी बात है।
यह एक शानदार बातचीत है । इस बातचीत में बौद्धिकता का दवाब नहीं है बल्कि रचनात्मकता के ‘होने’ की यात्रा है ।
“मेरा लेखक बनना ऐसा है जैसे मैंने विधा को नहीं चुना, विधा ने मुझे चुन लिया. विधा ने मेरे अंदर कोई ऐसी चीज देखी होगी कि इसके अंदर कोई कथा कहने की, कोई कहानी कहने के गुण हैं; ”
मनोज रुपड़ा का यह कथन क़ाबिले ग़ौर है ।