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समालोचन

Home » विमल कुमार की कविताएँ

विमल कुमार की कविताएँ

विमल कुमार की इन कविताओं में सपने की वह औरत और मूर्त हुई है. प्रेम अपने पुराने जख्म और नई चाह के साथ टेक की तरह लगभग हर कविता में उपस्थित. अजब अवसाद के साथ लौटा है कवि. जैसे कोई कन्फेशन हो, शोकगीत की तरह.

by arun dev
November 19, 2010
in कविता
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विमल कुमार की कविताएँ
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१.

जख्मों की रोशनाई
 
कविता केवल शब्दों में नहीं लिखी जाती
लिखी जाती है वह
कभी किसी के जख्म की रोशनाई से
कभी किसी के
दर्द की परछाई से.
 
 

 

२.

राख से जन्म
 
मैं अपनी राख में से
फिर से जन्म ले रहा हूं
एक सपना लिए
एक उम्मीद लिए
शायद इस बार मैं
कुछ ऐसी रेखाएं खींच सकूं
नदी की सतह पर
तुम जिन्दगी भर याद करोगी
कि कितनी चमक है इन रेखाओं में
 
मैं जन्म ले रहा हूं
अपनी आंखें खोल रहा हूं
पंख फड़फड़ा रहा हूं
खोल रहा हूं मुंह
फैला रहा हूं अपनी भुजाएं
आसमान में चारों तरफ
डगमग कर रहे हैं मेरे पांव
मैं आ रहा हूं फिर से तुम्हारे पास
पर घबराओ नहीं
अब मैं काफी बदल गया हूं
राखपुत्र जो हूं
तुम मिलोगी तो
नहीं पहचान पाओगी
यह वही शख्स है
जो कुछ दिन पहले ही
एक मुट्ठी राख में तब्दील हो गया है
 
 

 

३.

नए आदमी से मुलाकात
 
तुम क्या इस नए आदमी से मिलोगी
जो अब नहीं रहा एक पत्थर
न रेत, न धुआं, न अंधेरा
न कोई चीख, न कोई पुकार
न कोई आत्र्तनाद,
न कोई विषाद
न कोई बात-बात पर विवाद
 
वह काफी बदल चुका है
जब बदल गई है हवाएं अपनी दिशाएं
पक्षियों ने बदल लिए जब अपने घोंसले
यात्रियों ने अपने रास्ते
किराएदारों ने अपने मकान
 
क्या तुम इस नए आदमी से मिलोगी
जो अब पुराने विमल कुमार की तरह नहीं है
उसने बदल दी है अपने चेहरे की रंगत
अपनी आवाज, अपनी आबोहवा
अपनी भाषा, अपना व्याकरण
अपनी जुल्फें, अपनी पतलून
जूते, जुराब, मफलर, कलम इत्यादि
 
वह अब चलता नहीं लंगड़ाता हुआ
नहीं बोलता कुछ हकलाता हुआ
नहीं हिलाता हाथ किसी को बिना समझाता हुआ
नहीं दिखता तुमसे मिलकर अब घबराता हुआ
इसलिए कहता हूं
एक बार तुम फिर मुझसे मिल लो
जितनी शिकायतें हैं उसे दूर कर
फूल की तरह जीवन में बगीचे में खिल लो!.
 
 

 

४.

तुम मेरी  किताब हो
 
मैं जानता हूं
अन्ततः साथ रहेगी
मेरी कविताएं मेरे साथ
संभव है,
तन्हाई भी मेरा साथ छोड़ दे
छोड़ तो तुम भी सकती हो
एक दिन मुझे
 
इसलिए मैं प्रेम करता हूं
अपनी कविताओं से
जैसी भी हों
कच्ची, पक्की, अनगढ़, कमजोर
वह तो नहीं जाएंगी मेरी डायरी से निकलकर बाहर कहीं
धोखा तो नहीं देंगी वह मनुष्यों की तरह
उपेक्षा और बेरूखी भी नहीं दिखाएंगी
उनके साथ वर्षों का एक भरोसा तो है
मेरे लहू से बनी हैं, बनी हैं मेरी चीत्कारों से
आत्मा की पुकारों से
इसलिए मैं चाहता हूं
तुम्हें बनाना मैं अपनी एक खूबसूरत कविता
कविता बनकर
तुम रहे सकोगी मेरे पास हर वक्त
और एक दिन उनके छपने पर
तुम्हें भी मैं देख सकूंगा
एक किताब की शक्ल में
और किताबें तो दुनिया को बदल देती हैं एक दिन.
 

 

५.

बिना तकिया के प्यार
 
मेरी पत्नी ने कहा
मैं कोई तकिया लगाकर नहीं सोती
मेरे तकिए में नींद मर गई है, नींद मर गई है तो ख़्वाब सारे मर गए हैं
नहीं है उसमें मेरे आंसू
वे सूख गए हैं,
चांद तारों की बात तो बहुत दूर है, बादलों की तो मैं नहीं कर सकती कल्पना
अपने बच्चों के लिए
और तुम्हारे अच्छे स्वास्थ्य की कामना लिए
घसीट रही हूं यह जिंदगी
तकिया तो मैं देना चाहता था एक
अपनी पत्नी को
पर मेरे तकिए में न हवा है
न रूई है, सिलाई भी उघड़ी हुई
कांटे हैं उसमें छिपे अपने वक़्त के
कांटों से ही मैं उलझता रहा हूं
अपनी पत्नी से वर्षों से
बगैर तकिए के प्यार करता रहा हूं.
 
 

 

६.

अलबम के आंसू
 
मैंने तुम्हें एक दिन
लाने को कहा था
अपना अलबम
चाहता था मैं देखना
उसमें बचपन की तुम्हारी तस्वीरें
कैसी थीं तुम स्कूल में
फ्ऱाक कर रंग कैसा था तुम्हारा
और कालेज के दिनों में तुम कैसी दिखती थी
 
चाहता था मैं यह भी देखना
तुम्हारी मां कैसी है
क्या मेरी मां की तरह
पीठ पर हैं उनके भी जख्म
क्या सपने उनके भी हैं टूटे हुए कटी हुई पतंगों की तरह
और तुम्हारे पिता की मूंछें
क्या मेरे पिता से भी मिलती हैं
 
चाहता था मैं यह जानना
तुम्हारा घर कैसा है
क्या मेरे घर की तरह चूता है
कांपती हैं उसकी भी दवारें
और किवाड़ में बोलते रहते हैं झिंगुर रात में
खिड़कियां रहती हैं गुमसुम
उदास परियों की तरह
आंगन में नीम के तले
ख़ुशी का कोई टुकड़ा है
तुम्हारे यहां भी फैला धूप में
 
पर तुम नहीं लाई
लाख कहने पर भी
अपना अलबम
क्या चाहती थी तुम
मुझसे छिपाना
उन तस्वीरों के दर्द?
उनके पते?
तुमने भी कभी नहीं मांगा
मुझसे मेरे घर का कोई अलबम
तुम क्यों नहीं चाहती थी जानना
उन ब्लैक एंड व्हाईट
जमाने की तस्वीरों की कहानियां
 
क्या तस्वीरें अपने वक़्त का
इतिहास बताते हुए
रोने लगती हैं नई नवेली दुल्हनों की तरह
और उनकी आंखों से
बहते हैं आंसू
अलबम से अगर केाई
आंसू गिरे
तो मैं भी उन तस्वीरों को नहीं चाहूंगा देखना
तस्वीरों के जख्म
आदमी के जख्म से
ज्यादा गहरे होते हैं
 
शायद यही कारण है
कि तुम आज तक नहीं
लाई मेरे पास अपना अलबम
मैं तो अपनी यादों का
कोई अलबम भी नहीं
चाहता बनाना
और इसलिए
अपनी कोई तस्वीर नहीं
खींचना चाहता हूं
तुम्हारे साथ मेरी
एक भी तस्वीर नहीं है
जो बीते हुए वक़्त की
याद दिला सके मुझे
जो बहुत कड़वी हो चली है
इस शाम के धुंधलके में
जब बारिश बहुत तेज़ हो गई है
अचानक
  

 

७.

सभ्य भेड़िये
 
जिन लोगों ने मुझे कहा-‘छिनाल’
उनमें से कइयों को मैं जानती हूं
जानती हूं
वे रात के अंधेरे में चाहते हैं
मुझसे मिलना
बताए बगैर अपनी बीवियों को
कई तो थे कल तक उनमें
मेरे भी दोस्त
कहते थे दोनों जगह
हो गया हूं-अंधा तुम्हारे प्रेम में
दरअसल उन्हें नहीं चाहिए था प्रेम
हैं वे भीतर से भेड़िये
आखेट करने निकले हैं
इस शहर में
जिन लोगों ने मुझे बचाया था
इन भेड़ियों से
उनमें से भी कइयों को
जानती हूं मैं
हैं ये भी भेड़िये
सभ्य और शालीन
रहते हैं लगाए मुखौटे
अपने चेहरे पर हरदम
चाहते हैं इन्हें भी मिल जाए
कोई हड्डी
गुपचुप तरीके से
नहीं हो खबर किसी को कानो-कान भी
जानती हूं उन्हें भी,
जो नहीं जाती बिस्तरों पर किसी के
पर जाने का एक स्वांग
रचती हैं
भ्रम में फंसाए रखती हैं भेड़ियों को
अपने रंगीन जादू से
जो चली जाती हैं बिस्तर पर
भोली और निर्दोष हैं
पर जो नहीं जाती
वे अपना काम निकाल लेती हैं
बड़ी चालाकी और बारीकी से
विरोध करती हैं
अपने स्त्रीत्व को बचाए
रखने के लिए
पर्दे के पीछे
दरअसल हमेशा कुछ लोग होते हैं ऐसे
जो सभ्य कहे जाते हैं
पर सारा खेल वही खेलते हैं
मैं छिनाल जरूर कही जाती हूं
पर इस तरह का कोई खेल नहीं खेलती
जो लोग खेल खेलते हैं
वे कभी पकड़े नहीं जाते
सामने भी नहीं आते
किसी विवाद में
चुपचाप रहते हैं
मैं सबकुछ जानती हूं
पक्ष और विपक्ष भी
इसलिए लड़नी पड़ती है
मुझे अपनी लड़ाई
दोनों मोर्चों पर
हर बार इतिहास में
 
 

 

८.

गवाही
 
तुम बोलोगी नहीं
सुनोगी नहीं
जो कुछ मुझे कहना था गवाही में
मैंने इस दर्पण को कह दिया है
यही है एकमात्र गवाह
मेरे अपराधों का
पापों का
झूठ का
छल का
इससे बचकर मैं कहां जाता
इसलिए मुझे जो कुछ कहना था
मैंने उससे कह दिया है
मैंने अब तक तुमसे
अपने जीवन में कुछ भी नहीं लिया है
तुम्हें मैंने
बिना मांगे अपना प्यार दिया है
झूठ नहीं था उसमें रत्ती भर मिला
सच था, जितना वक्त मैंने तुम्हारे साथ जीया है
बता दो, मेरा अपराध
फिर देना सजा
आखिर मैंने क्या किया है
 

 

९.

नहीं बना सका तुम्हें
 
चाहकर भी मैं
तुम्हें अपनी पतंग नहीं बना सका
नहीं उड़ा सका
उसे अपनी छत पर
आसमान में
 
मैं तुम्हें अपनी नाव भी
नहीं बना सका
पार कर लेता
मैं जिससे यह भंवर
 
मैं तुम्हें इस बरसात में
एक छाता भी नहीं बना सका
बच जाता मैं
भीगने से इस बारिश में
 
मैं तुम्हें अपनी कलम भी
नहीं बना सका
नहीं बना सका स्याही
और न ही कागज
कुछ उकेर लेता अपना दर्द
लिख लेता कुछ ऐसा
जो होता जीवन में कुछ सार्थक
 
छत, घर, सीढ़ियां
दरवाजे और खिड़कियां बनाने की तो बात बहुत दूर
मैं तुम्हें अपनी केाई चीज नहीं बना सका
मूर्त या अमूर्त
नहीं था वह हुनर मुझसे
किसी को अपना बनाने का
 
चाहता तो मैं था
तुम्हारी सांस बन जाना
चाहता था तो मैं
तुम बन जाती मेरे लिए हवा
 
तुम नहीं बनी कुछ तो
उतना दुख नहीं था
पर दुख इस बात का ज्यादा है
तुमने मुझे कुछ भी नहीं बनाया अपना
जबकि मैं तैयार था
तुम्हारा बहुत कुछ बनने को
पतंग से लेकर
आईने तक
और फिर सांस तक
 
खड़ा हूं मैं वर्षों से
रास्ते में तुम्हारे
फूल बनने को
आज तक
पर तुमने तो मुझे कांटा भी बनने नहीं दिया
जो उलझ कर थाम लेता तुम्हें तुम्हारे दुपट्टे सहित.
 
 

 

१०.

बिस्तर
 
यह बिस्तर भी
एक कांटा बन गया है
सोता हूं मैं
कांटों की बिस्तर पर
याद करते हुए
तुम्हें फूलों की तरह.

_____

विमल कुमार
(९-१२-१९६०)कविता संग्रह : सपने में एक औरत से बातचीत, यह मुखौटा किसका है और पानी का दुखड़ा
भारत भूषण अग्रवाल, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, शरद बिल्लौरे सम्मान, हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई पुरस्कार.
रचनाओं के अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद.
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम शीघ्र प्रकाश्य.   

पत्रकारिता.फिलहाल, यूनीवार्ता में विशेष संवाददाता
ई-पता: vimalchorpuran@gmail.com

 

Tags: कविताएँ
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