पश्चिमी संस्कृति और शिष्टाचार में तुलना करना नागवार और घृणित समझा जाता है – Comparisons are odious –हालाँकि कुल-मिलाकर है वह एक अव्यवहार्य पाखंड ही, जबकि हमारी परम्पराओं में न्यूनाधिक तुलनाएँ होती रही हैं और इतनी आपत्तिजनक मानी भी नहीं जातीं. फिर आज तो सारा संसार उपभोक्तावाद, बाज़ार और विज्ञापनों पर टिका हुआ है जिनका काम नितांत निर्लज्ज सच्ची-झूठी तुलनाओं के बिना चल ही नहीं सकता. उधर एक विराटतर, जनवादी सन्दर्भ में मुक्तिबोध कह चुके हैं कि ‘’…जो है उससे बेहतर चाहिए’’. इसलिए जब इस वर्ष के कथित राष्ट्रीय पद्म सम्मान घोषित हुए तो देख कर हैरत हुई कि उसमें अन्य क्षेत्रों के कई नामों के अलावा फिल्म अभिनय में मुम्बई के ही दो हिन्दीभाषी अभिनेताओं – दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन – को सूची की सर्वोच्च उपलब्ध उपाधि ‘’पद्म विभूषण’’ प्रदान की गई है. यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं अब तक इन सम्मानों के नामों के अर्थ नहीं समझ पाया हूँ – बल्कि वह मुझे बेतुके और हास्यास्पद ही लगते रहे हैं. इन्हें कौन-सा निर्णायक-मंडल किन आधारों पर देता है यह भी मैंने न जाना और न जानने की कोशिश की. इस देश में सोचने-समझने वाले रचनाशील स्त्री-पुरुषों को अपना जीवन इस तरह बिताना चाहिए कि उन्हें ऐसे संदिग्ध सरकारी-ग़ैर सरकारी सम्मानों के योग्य समझने की हिम्मत ही किसी को न हो. सच तो यह है कि समाज में इनकी न कोई ख्याति है, न इज़्ज़त, न प्रतिष्ठा. अगले वर्ष तक कुछ बोगस प्राप्तकर्ताओं को छोड़ कर बाक़ी सब इन्हें एक खट्टी डकार की तरह भूल जाते हैं. इन पर बहसबाजी में वक़्त ज़ाया ही होता है.
सिनेमा कितनी कला है और फिल्म-अभिनेता कलाकार माना जाए या नहीं इस पर इस अभागे देश में अब भी विवाद होता है लेकिन जब पिछले कुल-मिलाकर सत्तर से भी अधिक वर्षों से करोड़ों दर्शक अन्य अभिनेता-अभिनेत्रियों के अलावा दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की सम्मिलित दो सौ के करीब फ़िल्में देख रहे हों और देखते रहेंगे और उन्हें एक ही ख़िताब एक साथ मिले तो मजबूरन कुछ सवालों पर ग़ौर करना होगा. अमिताभ बच्चन दिलीप कुमार के बाद की दूसरी पीढ़ी के अभिनेता हैं. दिलीप उनसे बीस साल बड़े हैं – यानी तकनीकी रूप से उनके पिता भी हो सकते थे. 1969 में जब ख्वाजा अहमद अब्बास की मेहरबानी से 27 वर्षीय अमिताभ की पहली फिल्म ‘’सात हिन्दुस्तानी’’ आई तब तक दिलीप 47 बरस की उम्र में 40 फ़िल्में कर चुके थे जिनमें से अधिकांश मसाला-विहीन सुपर-हिट थीं और उन्हें दक्षिण एशिया में कोई ‘’अभिनय सम्राट’’ कहता था, कोई ‘’ट्रेजडी किंग’’ और जुनूबी एशिया में कुछ लोगों ने उन्हें ‘’ख़ुदाए-अदाकारी’’ कहना शुरू कर दिया था . मुझे हँसी आती है जब लोग राजेश खन्ना-वन्ना को मुंबई का पहला सुपर-स्टार कहते हैं. दिलीप के लिए 1950-70 के बीच पूरे दक्षिण एशिया में वह दीवानगी थी कि कई बार उनकी जान का खतरा पैदा हो जाता था. उनकी ‘’फ़ैन-फॉलोइंग’’ इतनी थी कि यदि वह किसी को सादा काग़ज़ पर लिख कर दे देते थे कि वह उसकी फिल्म में काम करने को राजी हैं तो अगले ही दिन पूरा फाइनेंस इकठ्ठा हो जाता था. अभी कुछ बरस पहले तक यही आलम था.
लेकिन सुपर-स्टारडम, बॉक्स-ऑफिस कामयाबी, लोकप्रियता आदि कभी अभिनय का पैमाना नहीं हो सकते. करन दीवान, प्रेम अदीब, देव आनंद, राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर, जितेन्द्र, मनोज कुमार वगैरह और आज के सलमान खान, आमिर खान, शाहरुख़ खान, अक्षय कुमार आदि को भी यह हासिल हुए थे और हैं. लेकिन भारतीय दर्शक क्या इतना अभागा है कि उसे ऐसों को ‘’बड़ा’’ या ‘’महान’’ अभिनेता भी मानना पड़े? जिस तरह से हॉलीवुड और यूरोप में बड़े और महान सीनियर एक्टरों की सक्रिय मौजूदगी के बावजूद मार्लन ब्रैंडो और जेम्स डीन ने अभिनय के पैरेडाइम ही बदल डाले, वैसे ही अकेले दिलीप कुमार ने 1940 की दहाई के आख़िर तक हिंदी और भारतीय सिनेमा में अदाकारी को हमेशा के लिए तब्दील कर दिया. और यह उन्होंने सिर्फ़ सीरियस या ट्रैजिक फिल्मों के ज़रिये नहींकिया,’’आन’’,’’शबनम’’,’’आज़ाद’’,’’कोहिनूर’’,’’राम और श्याम’’ जैसी फिल्मों में अपने कॉमेडी किरदारों के ज़रिये भी अंज़ाम दिया.
दिलीप कुमार की एक्टिंग का विश्लेषण करने के लिए कई किताबें लिखी जानी चाहिए, लेकिन यहाँ मुराद इस बात से है कि अमिताभ के सिनेमा में आते-आते दिलीप अपना सर्वश्रेष्ठ हिंदी सिनेमा को दे रहे थे और स्वयं एक्टिंग की ज़िन्दा-ज़ावेद ‘’मास्टरक्लास’’ बन चुके थे. हम जानते ही हैं कि शकल में उनसे थोड़े करीब लेकिन अकल में कई युगों दूर उनकी नकल करनेवाले कई चरकटे उनकी रिजेक्टेड फिल्मों को पकड़कर करोड़पति बन रहे थे. यह मानना होगा कि कई एक्टरों ने स्वीकार किया है कि वह दिलीप से प्रेरित होकर दिलीप बनने ही मुम्बई आए थे. ख़ुद अमिताभ बच्चन ने क़ुबूल किया है कि उनकी निगाह में दिलीप से बड़ा एक्टर कोई नहीं है.’’शक्ति’’ में दोनों ने अपनी अपनी पिता-पुत्र अदाकारी के अलग-अलग लिट्मस जौहर दिखाए हैं,जिनमें अगर कुल मिलाकर दिलीप बीस उतरते हैं तो अमिताभ भी उन्नीस नहीं हैं.
और दिलीप की अदाकारी का असर अमिताभ पर पहले तो झलकता ही था, आज भी कभी-कभी कौंध जाता है. यह नक़ल नहीं है, हिंदी सिनेमा में हर अच्छे अभिनेता की मजबूरी है. उसे दिलीप द्वार के तोरणों के नीचे से झुक कर निकलना ही पड़ता है. जैसे आप ग्रे को पढ़े बिना एनाटमी की कोई पुस्तक नहीं लिख सकते, ऑडोबॉन को देखे बिना पक्षियों को जान ही नहीं सकते, उसी तरह दिलीप के सामने मत्था टेके बिना हिंदी कैमरे के सामने खड़े नहीं हो सकते. इसमें कोई शक़ नहीं कि भारत में केवल अमिताभ अभिनय में दिलीप की हैण्ड-शेकिंग, चाहें तो आइबॉल-टु-आइबॉल कह लें,दूरी तक पहुँचते हैं. यह भी सच है कि दिलीप और अमिताभ दोनों को कैरिअर में उतार-चढ़ाव देखने पड़े हैं,लेकिन अमिताभ शुद्ध जिजीविषा में दिलीप से लम्बी पारी खेल रहे हैं. दिलीप और अमिताभ दोनों विदेशी तुलनीय एक्टरों के मुकाबले में किरदारों को लेकर कंज़र्वेटिव हैं लेकिन हिंदी फिल्मों में दिलीप अमिताभ से भी ज़्यादा कंज़र्वेटिव रहे. वह चाहते तो उनके किरदारों में भी वह विविधता आ सकती थी जो ‘’क़ुली’’ और ‘’एबीसीएल’’ हादसों के बाद अमिताभ ने अर्जित की.
लेकिन दिलीप में एक ‘’मिस्टीक’’ है, वह एक मुअम्मा, एक तिलिस्म हैं. इसे उन्होंने बचा रखा है.’’अंदाज़’’ के आख़िरी दृश्यों में उनका खूँख्वार पागलपन हिला देता है. हम यह न भूलें कि एक बार वह खुद लन्दन के एक साइकोलॉजिस्ट के कोच पर गए थे. अभी वह तंदुरुस्ती के जिस मरहले पर हैं वह उनके अंतर्मन में छिपे रहस्याकारों की भी चुग़ली करता है. अमिताभ में कभी इस तरह की मिस्टीक नहीं आने पाई. हम कह सकते हैं कि यदि अमिताभ अभिनय के सचिन तेंदुलकर हैं तो दिलीप सर डॉन ब्रैडमैंन.
सच तो यह है कि यदि सचिन की भंगुर खेल-उपलब्धियाँ ‘’भारत रत्न’’ के क़ाबिल थीं तो दिलीप कुमार को बहुत पहले, ‘’दादासाहेब फालके’’ सम्मान के आसपास, भारत-रत्न भी मिल जाना चाहिए था. दिलीप और अमिताभ को एक साथ ‘’पद्म विभूषण’’ दिया जाना अमिताभ का तो सम्मान है ही नहीं, दिलीप के साथ सरासर अन्याय है, जबकि ख़ुदा-लगती बात यह है कि आगे-पीछे ( आगे दिलीप पीछे अमिताभ ) दोनों ‘’भारत रत्न’’ के मुस्तहक़ हैं. लेकिन जो चुनाव-समिति बौद्धिक रूप से इतनी जाहिल-ओ-दीवालिया हो कि दाऊदी बोहरा जैसी छोटी लेकिन महान भारतीय क़ौम के जन्नतनशीन दाई अल-मुतलक़ सैयदना मुहम्मद बुरहानुद्दीनसाहेब को मरणोपरांत ‘’पद्मश्री’’ के क़ाबिल समझे, उससे क्या आप किसी भी अक्लमंदी की उम्मीद कर सकते हैं ?
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विष्णु खरे
कविता, आलोचना, सिने-समीक्षा, अनुवाद और संपादन
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