भय भी हमें चूहा बना देता है
विष्णु खरे
जो मैं लिखने जा रहा हूँ, खुद मुझे उस पर यक़ीन नहीं आ रहा है. आपको भी शायद न हो. एक ऐसी अज़ीम शख्सियत,जिसके नाम के बिना 2011 तक के अखबारों की सुर्खियाँ सुर्खियाँ नहीं होती थीं, जिसका ज़िक्र अभी पिछले बरस की मई तक बहाने-बहाने से मीडिआ में होता ही रहता था, जिसे एक जिंदा शहीद का दर्ज़ा दे दिया गया था, उसे उन्हीं लोगों ने भुला दिया जो कल तक उसकी सुमिरनी और तस्बीह फेरा करते थे. लगता था जैसे सारे मुल्क में उसके लिए मर-मिटने के लिए तैयार बुद्धिजीवी मरजीवड़ों के दस्ते रस्से तुड़ा रहे हैं. माँदों से गुर्राहटें और दहाड़ें गूँजती थीं.आज कंदराएँ बिल बन गई हैं और ‘पुनर्मूषको भव’ जैसा बधिरकारी गूँगापन है.
’’शायर और सूफ़ी
अल ग़ज़ाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी, आलिमो फ़ाज़िल सिपहसालार, सब सरदार
हैं ख़ामोश !!’’
विश्वास नहीं होता कि आज से सिर्फ साढ़े तेरह हफ़्ते, यानी 95 दिन, बाद उसका सद्साला-ए-मीलाद है. अगर पुराने ज़माने होते तो उसकी जन्मशती के नाम पर कैसे-कैसे जुलूस, सेमिनार, प्रदर्शन, प्रदर्शनियाँ, मेले, ’’छाप तिलक’’ छाप सूफ़ियाना मूसीकी जलसे वगैरह आयोजित न किए जाते. करोड़ों का धंधा होता. आज किसी मत्रूक बेकसी के मज़ार जैसा बहादुरशाही आलम है. पै फ़ातिहा कोई आए क्यूँ ? उसका नाम तक लेने को उसी के लोग राज़ी नहीं. यूँ तो उसका फ़न अलग था जिसका वह जुनूबी एशिया का बादशाह माना जाता है लेकिन सिनेमा में उसकी गहरी दिलचस्पी थी. इस बहाने ही उसे याद किए ले रहे हैं.
उसके पैदाइशी रुझान-ओ-फ़न और फिल्मों को लेकर उसके जुनून का संगम भी दर्दनाक तरीक़े से हुआ. रोज़ी-रोटी के लिए उसे फिल्मों के बुलन्दकद चौखटे रँगने पड़े – ऐसे जिनमें से हाथी-घोड़ा गुज़र जाय. अंग्रेज़ी-हिंदी-उर्दू इबारतों में पिक्चर का उन्वान , दिलीप, देवानंद, बीना राय, जयंत और जिप्पी के रुतबावार चेहरे, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, म्यूज़िक डायरेक्टर के बड़े-बड़े नाम, सीपी सीआइ एंड बरार सर्किट का ज़िक्र. रामायण-महाभारत, पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, मुस्लिम, जादुई, तिलिस्मी, स्टंट, महँगे, सस्ते, फूहड़, हिंदी, उर्दू, मराठी, गुजराती के पिक्चर. साठ बरस पहले अमरावती में मैंने फिल्म ‘’इंसानियत’’ और ‘’श्री 420’’ के ऐसे चौखटे रँगे जाते देखे हैं. बाबूराव, गब्ड्या, और हमारे मिस्कीन पाटनी पिक्चर पैलैस छिंदवाड़ा के इबारती बाबूलाल पेंटर अब कस्बों में दंतकथानायक हैं. लेकिन उस दौर में फिल्मों से इससे ज्यादा कुर्बत मुमकिन ही न थी. सिस्तीना सरीखी गुम्बदें ऐसी ही नज़दीकी से चित्रित की जाती होंगी.
फिल्मों और शायद उनकी हीरोइनों से मकबूल फ़िदा हुसेन का इश्क़े-मजाज़ी तभी शुरू हुआ होगा. उन्होंने अपनी इस मोहब्बत को एक सच्चे आशिक़ की तरह लम्बे अर्से तक छिपा रखा. ज़ाहिर किया भी तो एक आभासी आरम्भ (‘फॉल्स स्टार्ट’) से, जो भ्रामक भी था. उन्होंने 52 वर्ष की उम्र में फिल्म्स डिवीज़न के लिए एक वह बनाई जिसे ‘शॉर्ट फ़िल्म’ (लघु या छोटी फ़िल्म) कहते हैं. लघु फ़िल्म की सिर्फ़ लम्बाई यानी चलने की अवधि कम होती है, उसमें वह बाक़ी सब हो सकता है जो बड़े या पूरे पिक्चर में होता है. उसे डाक्यूमेंट्री फिल्म भी नहीं समझना चाहिए. हुसैन की यह फिल्म मुख्यतः राजस्थान के कई सम्बद्ध-असम्बद्ध मंज़रों का एक एल्बम या कोलाज थी, जिसमें सभी कुछ ख़ूबसूरत या फ़ोटोजेनिक भी नहीं था. उसमें न कहानी थी और न कोई डायलॉग थे. हाँ,उसमें प्रसिद्ध बाँसुरी-वादक विजय राघव राव का बैकग्राउंड म्यूज़िक ज़रूर था, जिससे फ़िल्म साइलेंट कही जाने से बच गई. उसका नाम भी ऐसा था कि जिसे देखने कोई न जाए – ‘’थ्रू दि आइज़ ऑफ़ ए पेंटर’’, एक चितेरे की आँखों से.
हम नहीं जानते कि उन दिनों हुसैन के वह रसूखदार सरपरस्त और क़द्रदान कौन थे जिन्होंने इस ‘नौसिखुए’ की एक ऊटपटाँग फिल्म को बर्बाद करने के वास्ते सरकारी पैसा सैंक्शन करवा दिया और लघु फिल्म प्रतियोगिता खंड में उसे किसने कैसे एन्ट्री दिलवा दी, आज तो कोई याद भी नहीं करता, लेकिन फिल्म जगत भौंचक्का रह गया था कि उसने उसमें ‘स्वर्ण ऋक्ष’ (‘गोल्डन बिअर’,’सुनहरा रीछ’) सम्मान जीत लिया. चित्रकार हुसैन का हल्ला संसार में तब तक उतना मचा न था जितना फिल्मकार हुसैन का मच गया.अगर बातिल नहीं हूँ तो ‘दिनमान’ में फ़िल्म की समीक्षा बमय फ़ोटू छपी थी. ’दिल देके देखो’ जैसी सुपरहिट और ‘लीडर’ जैसी महाफ्लॉप फिल्म के निर्माता और रानी मुकर्जी के छोटे दादा एस. मुकर्जी उस ‘बर्लिनाले’ के निर्णायक मंडल में थे – क्या उन्होंने हुसैन के लिए लॉबीइंग की थी ?
बहरहाल, हुसैन शायद फिल्म लाइन में अपनी इस अप्रत्याशित पहली ही सफलता से घबरा गए क्योंकि उन्हें मालूम पड़ गया होगा कि जब एक छोटी फिल्म में महीनों तक इतने पापड़ बेलने होते हैं कि अपनी बीसियों तस्वीरें बन जाएँ तो उन्होंने बरसों अपनी लाख की मुट्ठी को बंद रखना बेहतर समझा और वह ठीक भी था क्योंकि जब वह 33 बरस बाद खुली तो ‘गज गामिनी’ ही साबित हुई. अपने से कहीं जूनियर देव आनंद की तरह वृद्धावस्था में उन्हें भी सामान्यतः फिल्मों और विशेषतः माधुरी दीक्षित और तब्बू सरीखी अभिनेत्रियों को लेकर एक मेनिया, एक ऑब्सेशन सा हो गया. पूँजी की तो अब हुसैन के पास कमी न थी,15-20 करोड़ रुपए उनके लिए अपने 15-20,30-40 बड़े-छोटे कैनवस ही थे जिनका टोटा उनके पास कभी न था लेकिन बड़ा-महँगा पेंटर होना एक बात है और कामयाब फ़ुल-लेंग्थ फिल्मों का निर्माता-निदेशक होना एकदम दीगर.
जब ‘गजगामिनी’ सफ़ेद हथिनी साबित हुई तब भी हुसैन साहब का जुनून गया नहीं. उन्होंने 2004 में ‘’मीनाक्षी : टेल ऑफ़ 3 सिटीज़’’ (‘तीन शहरों की दास्तान’) बनाई लेकिन उसने उनके लिए ‘घर को आग लग गई घर के चराग़ से’ जैसा बवाल खड़ा कर दिया. अब तक हुसैन के लिए हिन्दुत्ववादी तत्व संकट पैदा करते रहते थे – ‘’मीनाक्षी’’ के लिए ए.आर.रहमान द्वारा बनाई गई क़व्वाली में कुरआन से उठाए गए लफ़्ज़ (हिंदी के कुछ जाहिल इसे ‘लब्ज़’ भी लिखते हैं) ‘’नूर-उन्-अला-नूर’’ के इस्तेमाल ने हिन्दुस्तान की पूरी इस्लामी बिरादरी को उस क़व्वाली, रहमान, फिल्म, तब्बू और हुसैन के ख़िलाफ़ लामबंद कर दिया. इसके पहले कि मुल्क में आगज़नी और खूँरेज़ी शुरू होती, हुसैन ने फिल्म को वापस लेने में ही दानिशमंदी समझी और ठीक समझी. लेकिन यह हुसैन और उनके सेक्युलर समर्थकों की सबसे बड़ी उसूली शिकस्त थी. मुझे आज तक हुसैन की एक बदबख़्त पेंटिंग के अलावा, जिसमें हनुमान की लांगूल पर निर्वस्त्र सीता को पीठ से दिखाया गया है, कथित निर्वस्त्र देवियों और कथित भारतमाता सहित उनकी कोई भी कृति आज तक आपत्तिजनक नहीं लगती और न लगेगी लेकिन मूढ़ इस्लामी प्रतिक्रियावाद के कारण उनका अपनी इस फिल्म को हमेशा के लिए ख़ुद सेंसर और सप्रैस कर लेना आज तक समझ में नहीं आया है. लेकिन फिर शैख़ा मौज़ा उन्हें अपने क़तर में ख़ूबसूरत पनाह कैसे देतीं ?
मुझे तब इस्लाम के इस कठमुल्ला चेहरे को लेकर अपने समानधर्मा सेकुलरवादियों की भयभीत और पाखंडी चुप्पी समझ में नहीं आई थी और आज हुसैन को लेकर जो वैसी ही विडंबनात्मक, खौफ़ज़दा चुप्पी है वह भी समझ से परे है. हुसैन ने जब अपनी मर्ज़ी से हिन्दुस्तान छोड़ा था तब तो इस मुल्क में कथित रूप से धर्म-निरपेक्ष, सेक्युलर शासन था जिसकी खूब, और माने लेते हैं कि सही, लानत-मलामत हुई थी. लेकिन आज किसी भी हिन्दुत्ववादी ताक़त, भाजपाई सरकार, अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने ऐसा कोई फतवा नहीं दिया है कि हमारे विलक्षण फिल्मकार और हमारे राष्ट्रीय चित्रकार – मैं तो हुसैन को उनकी कुछ गलतियों के बावजूद, जिनपर बहस हुई है और होती रहनी चाहिए, राष्ट्रीय चित्रकार – कौमी मुसव्विर – ही कहूँगा और मानूँगा – को याद ही न किया जाए. नरेंद्र मोदी लगातार कहते हैं कि मेरी सरकार बदले की भावना से काम नहीं कर रही है. एम ? तो वह ललित कला अकादेमी, राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा, राज्य भाजपा सरकारों से कह कर दिखाएँ कि हुसैन की जन्मशती साल-भर निपटाऊ नहीं, प्रतिबद्ध ढंग से मनाई जाए. इस वर्ष के गोवा राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में ‘’मीनाक्षी’’ सहित हुसैन की सारी फिल्मों का एक विशेष खंड क्यों नहीं हो सकता ? हुसैन पर एक डाक-टिकट जारी होने में क्या दिक्क़त है ? क्या हुसैन के कर्दा-नाकर्दा गुनाहों को मुआफ़ नहीं किया जा सकता ?
चलिए, मान लीजिए अमितभाई-नरेन्द्रभाई से ऐसी कोई भी उम्मीद बेकार हो, हम अपने पैमाने और तरीके से क़स्बा-क़स्बा शहर-शहर हुसैन को क्यों नहीं मनाते ? एक अलग मोर्चे पर रणजीत वर्मा और अभिषेक श्रीवास्तव ज़रूर कुछ कर रहे हैं वर्ना खुली-आँखों आप-आप में पारिवारिक रेवड़ियाँ बाँटने वाले ‘’वामपंथी लेखक संघ’’ श्रीकांत वर्मा की किस दराज़ में घुसे बैठे हैं? हुसैन अरबों की जायदाद छोड़ गए हैं. खुद उनके फ़र्ज़न्द ओवैस उन पर फिल्म बनाने वाले थे. बरखा रॉय ने ‘’माइ फ्रेंड हुसैन’’ बनाने का बिगुल बजाया था. संगीत-मार्तण्ड पंडित प्रवर जसराज की मेवाती अल्हैया बिलावल कानों में गूँजती है : दैया कहाँ गए वे लोग? थोड़ी तरमीम में एलिअट याद आते हैं : I had not thought fear had undone so many. न सोचा था ये कि ख़ौफ़ ने इतनों को तबाह कर डाला होगा.
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