ख़ानज़ादा
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भगवानदास मोरवाल यूँ तो अपने पहले ही उपन्यास ‘काला पहाड़’ से अपनी पहचान बना चुके हैं, किंतु अपने अनवरत लेखन और उसमें व्याप्त कथा-रस के चलते भी उनकी एक पाठक-मंडली बन चुकी है. उनके कई समकालीन उनकी इस लोकप्रिय होती जाती छवि के आलोचक भी हैं. पर हिंदी समाज में विविध-स्तरीय बौद्धिकता के चलते किसी लेखक की लोकप्रियता को इस दृष्टि से क्यों देखा जाना चाहिए कि वह अपनी इसी लोकप्रियता के चलते अपना श्रेष्ठतम खो चुका है. वैसे भी ये दोनों तथ्य न तो विरोधी हैं, न प्रतिद्वंद्वी. भक्तिकाल में कला की श्रेष्ठता और लोकप्रियता का खूबसूरत संगम हुआ है. आधुनिक खड़ी बोली के कवि मैथिलीशरण गुप्त अपने समय में लोकप्रियता की सारी हदें पार कर गये थे. इसके साथ ही अपने द्वारा उठाए गये कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक–सांस्कृतिक सवालों और नूतन काव्य-प्रस्थानों के चलते भी वे कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं माने गये. हिंदी का समाज जैसा है, उसमें कोई रचनाकार यदि इतनी स्वीकृति पा लेता है, तो यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है.
मोरवाल एक कथाकार के रूप में कैसी लोकप्रियता और किन आधारों पर अर्जित करते हैं तो कहना होगा कि वह है उनका मेवात जिसे वे खूब-खूब जानते-समझते हैं. उसे अपनी कथा-प्रतिभा के बल पर पुनर्रचित कर एक नया चेहरा देने की कला भी उनमें है जिसे उनका ‘काला पहाड़’ उपन्यास साबित कर चुका है. अभी हाल में आया उनका नया उपन्यास ‘ख़ानज़ादा’ भी उनकी इस लोकप्रियता को प्रमाणित कर रहा है. कइयों की दृष्टि में यह एक अत्यंत विवादास्पद लेखन भी है इसीलिए अपराधपूर्ण भी. पर महीने-भर के भीतर ही उसके दूसरे संस्करण का निकल जाना इसकी लोकप्रियता की पुष्टि भी करता है.
‘ख़ानज़ादा’ शब्द भारतीय इतिहास के मध्यकाल का इतना महत्त्वपूर्ण है कि तुग़लक़ राजवंश से लेकर लोदियों, अफ़गानों औए मुग़लों के शासन-काल तक, यह इतिहास-वंश अपनी चर्चित वीरता और आत्माभिमान के लिए बार-बार याद किया जाता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक़, बहलोल लोदी और इब्राहीम लोदी, बाबर, शेरशाह सूरी, हुमायूँ और बैरम खाँ से लेकर अकबर और रहीम तक इन ख़ानज़ादाओं की जैसी व्याप्ति, जिस तरह के नाते-रिश्ते हैं, जैसी अदावतें और लड़ाइयाँ, जय-पराजयों के किस्से हैं, वे हम पाठकों को रोमांच से भर देते हैं.
संक्षेप में कहें तो मेवात के वे राजपूत जो तुग़लक़ के शासन-काल में स्वेच्छा से इस्लाम कबूल कर चुकने पर भी शायद ही कभी भूल पाए कि उनकी शिराओं में वही पुराना राजपूत रक्त है जो उनके लिए अब भी गौरवपूर्ण है. अपनी मातृभूमि के प्रति प्रगाढ़ प्रेम और अपनी जातीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग को हर पल प्रस्तुत रहने वाले इन ख़ानज़ादाओं से दिल्ली शासक भी हमेशा सचेत रहे. शायद ये ही कुछ कारण रहे होंगे जिनके चलते यह कथाकार इस ओर प्रवृत्त हुआ होगा.
कोई क्यों अचानक अपना जन्मजात या पारिवारिक धर्म छोड़कर नया धर्म ग्रहण कर लेता है यह जिज्ञासा जितनी महत्त्वपूर्ण है, समाधान उतना ही जटिल और चुनौतीपूर्ण. भारत की संस्कृति-इतिहास में बुद्ध और महावीर ने वैदिक धर्म का त्याग कर नया ही धर्म प्रवर्तित कर दिया और स्वयं उनके प्रस्थानकारी पथिक बने. मध्यकाल में वैष्णव-धर्म वर्चस्व में आया किंतु इसी काल में गुरु नानक ने सिख-धर्म का प्रवर्तन कर दिया. इन सारे धर्मों में वैदिकों की वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ और हिंसापरक यज्ञों के प्रति तीव्र प्रतिरोध का भाव रहा. कतिपय बुनियादी दार्शनिक दृष्टि भेद भी थे ही. कालान्तर से वर्तमान हिंदू धर्म को अपनी इन धार्मिकताओं के चलते काफी बिखरावों का सामना करना पड़ा.
थिनपाल वंश के राजपूत समरपाल के इस्लाम कबूल कर चुकने पर वह बहादुर नाहर खाँ बना, जिसका वंश आगे चलकर एक असाधारण प्रतापी शासक हसन खाँ मेवाती हुआ. भारतीय इतिहास जिसकी चर्चा बाबर और राणा सांगा के सन्दर्भ में तो होती ही है, लोदियों के साथ भी होती है. इब्राहिम लोदी का तो वह मौसेरा भाई ही था. इसी हसन खाँ की भतीजियाँ शाहबानू और सलीमा– बाद में हुमायूँ और बैरम खाँ की शरीके-हयात बनीं. कहते हैं ब्रज के मशहूर कवि एवं अकबर के नौ रत्नों में से एक अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ इसी सलीमा के बेटे थे. इस बात पर तो सभी सहमत हैं कि अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ का ननिहाल मेवात के ख़ानज़ादाओं के ही यहाँ था. उपन्यास में रहीम अपनी बीवी माहबानो को पहली ही रात यह बताना नहीं भूलते कि उनकी धमनियों में माँ सलीमा के चलते ख़ानज़ादाओं का भी रक्त प्रवाहित है. इसलिए वे आधे हिन्दू राजपूत और पिता बैरम खाँ के चलते आधे मुसलमान हैं.
उपन्यास में इस प्रसंग की योजना करने के पीछे की दृष्टि पर विचार करें तो और एक जो अहम सवाल उठता है- और महाभारत काल में जिसे वर्णसंकर कहा जाता रहा है कि जाति का सवाल वर्णवादी भारतीय समाज के लिए जैसी चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है, उनका समाधान तो विश्व–कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ की यह कविता ही दे पाती है–
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे
जागो रे धीरे–
एई भारतेर महामानवेर
सागर तोरे.
केऊ नाहि जानेकार आह्वाने
कत मानुषेर धारा
दुवरि स्रोते एलो कोथा हेते
समुद्रे होले हारा.
कविता कहती है कि यह भारत देश महामानवों का सागर तीर्थ है. न जाने किन-किन स्रोतों से कितनी-कितनी जातियाँ, धर्म और जन-समूह अब तक आए और सब इसी महासमुद्र में हिल-मिल कर एक हो गये. उपन्यासकार ऐसा ही कुछ यहाँ कहता हैं, या वह एक ख़ास प्रकार के राजवंश की गुम हुई पहचान को रेखांकित करते हुए, भारतीय इतिहास में उसकी महत्ता की याद दिलाना चाहता है और इस बहाने कुछ उन मूल्यों का भी स्मरण करना चाहता है, जिन्हें धारण कर कोई भी समाज स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया करता है. जैसे कि अपनी धरती और अपने लोगों के प्रति निर्द्वंद्व प्रेम और समर्पण को जीने वाले लोग. मगर साथ ही प्रत्येक कीमत पर स्वाभिमान की रक्षा और उसके लिए कोई भी मूल्य चुकाने को हर क्षण तत्पर.
उपन्यास में ख़ानज़ादाओं के इस आत्माभिमान को तीन चरित्रों के द्वारा विशेष अवसरों पर उद्धृत किया गया है. उनमें अति चर्चित हसन खाँ मेवाती के चचेरे भाई जमाल खाँ, उनकी बेटी सलीमा और बैरम खाँ व सलीमा के बेटे अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ हैं. ये तीनों जिस तरह हुमायूँ, बैरम खाँ, और सुल्तान जहाँगीर को विशेष अवसरों पर जवाब देते हैं, वह बरबस हमारा ध्यान खींचता है. उपन्यास के पाठक की रुचि भी इन प्रसंगों को जानने की जरूर होगी ? पहला प्रसंग सलीमा बेगम और बैरम खाँ के बीच घटित हुआ , जिसमें वह अपने शौहर बैरम खाँ द्वारा ईद के मौके पर लाए गये कपड़ों को इस आधार पर पहनने से इनकार कर देती है कि शौहर बैरम खाँ विवाह की रस्में पूरी किए बिना ही उसे मेवात से जबरन उठा लाए थे. जो मानवीय तो है ही नहीं , इस्लाम के विधि-विधान के भी विरुद्ध था. सलीमा के इस जवाब का बैरम खाँ जैसे महान योद्धा के मन पर क्या असर पड़ा इसे दर्ज करते हुए उपन्यासकार का रहीम के शब्दों में कथन है–
“यह सुन अब्बा जैसे थके हुए क़दमों से बाहर निकल गये. अम्मी जान से नज़र मिलाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई.”
ऐसा ही कुछ व्यवहार जहाँगीर के उस्ताद रह चुके रहीम ने तब किया जब जहाँगीर ने गद्दी पर बैठते ही अपने भाइयों की हत्या कर दी, और कवि रहीम के मुँह से अचानक यह दोहा प्रतिरोध के स्वर में फूट पड़ा–
रहिमन राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय.
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय.l
इसका भुगतान तो रहीम को जहाँगीर का कोपभाजन होकर करना ही पड़ा किंतु अपनी सफाई में जो उन्होंने कहा, वह समस्त कवि-समाज का माथा ऊँचा कर देता है. रहीम के शब्द थे,
“जहाँपनाह. यह दोहा एक कवि का है, जो किसी शहंशाह की हुकूमत का हाकिम नहीं है. यह उस कवि का दोहा है जो किसी शाहज़ादे का भी उस्ताद नहीं है. यह दोहा एक ऐसे कवि का है जो हुकूमत से कोई तनख़्वाह नहीं लेता है.”
मेवात के ख़ानज़ादाओं का स्वभाव क्या था, वह इन दो प्रसंगों से सुस्पष्ट हो जाता है. उपन्यास में इसे बार-बार कई-कई तरीकों से दर्शाया गया है.
ख़ानज़ादाओं की इस मुख्य कथा के साथ उस युग के तुग़लक़ों, लोदियों, मुग़लों का इतिहास भी स्वभावतः मुख्य कथा में अंगीभूत होता चला आया है. किन्तु परिपूर्णता और समृद्धि तो इसे तब मिलती है जब कथाकार इसमें शेर खाँ (शेरशाह सूरी) और हेमचन्द्र (हेमू) अर्थात हेमचन्द्र विक्रमादित्य के इतिहासविदित आख्यानों को अंतर्भुक्त करता है. मुग़ल शासक हुमायू और उसके उत्तराधिकारी अकबर के साथ शेर खाँ- और हेमू के युद्धों का इतिहास तो लोकविदित ही है. ख़ास बात यहाँ किन्तु यह है कि अफ़गान शेर खाँ और मेवात के हिन्दू व्यापारी हेमचन्द्र और उसके परिवार के साथ जो भाईचारा और भरोसेमंदी थी, वह कालान्तर में सघन होती चली गई जबकि अफ़गानों और मुग़लों का धर्म एक था. लेकिन अफ़गानों ने हिंदू समाज के साथ आपसदारी और भाईचारे के जैसे रिश्ते बनाए उससे सामाजिक एकता ही नहीं, राष्ट्रीय एकता की जड़ें भी मजबूत हुईं और पराए देश से चलकर आये मुग़लों से मिलकर लड़ते रहे.
अन्य कई उपन्यासकारों– मसलन उषा किरण खान का शेरशाह सूरी पर लिखा उपन्यास ‘अगन हिंडोला’ और उनके सुधी समीक्षकों की तरह यह उपन्यासकार भी यह कहने का अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देता कि अलग-अलग जाति और नस्लों में बंटा होने पर कोई मुल्क भला अपनी कोई लड़ाई कैसे जीत सकता है? दस्तरख़ान पर साथ-साथ बैठा शेर खाँ अपने मित्र हेमू (अर्थात बसन्त) से यही कह रहा है कि ऐसा मुल्क कभी भी तरक्की नहीं कर सकता, यह मैं आज कोरे काग़ज़ पर लिख कर दे सकता हूँ. हेमू भी जब शेर खाँ की इस बात से अपनी सहमति जाहिर करता है तब वह इस देश को लेकर अपनी गहरी चिताएँ व्यक्त करता हुआ कहता है कि जातियों, धर्मों, ऊँच-नीच के खानों और खाइयों में बँटा यह देश अगर ऐसे ही चलता रहा तो मुग़लों-अफ़गानों से भले ही आज़ाद हो जाए , मगर अपने आपसे कभी आज़ाद नहीं होगा.
इन शब्दों तक पहुँच कर यह समूचा कथानक हमारे आज के समयों के लिए भी बेहद प्रासंगिक हो उठता है.
उपन्यास को पढ़ते हुए सहृदय पाठकों के मन में बार-बार यह सवाल उठेगा कि इतना सारा दस्तावेजीकरण- वो भी तुग़लक़ों के शासन-काल से लेकर लोदियों और मुग़लों के बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर तक लेकिन क्यों? क्या यह कथाकार अपनी निःशेष होती जाती गल्प-प्रतिभा की रक्षा और इस बहाने अपनी सक्रियता का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए यह जबरन भारतीय इतिहास के मध्ययुगीन शासकों के इतिवृत्त में चला गया है? क्या यह उसकी क्षीण होती जाती रचनात्मक प्रतिभा का आत्मसुरक्षात्मक कदम है? अगर ऐसा नहीं है तो वह बार-बार क्यों उसी काला पहाड़ और मेवात की ज़मीन की ओर लौट जा रहा है ? जबकि ‘काला पहाड़’ जैसा महत्त्वपूर्ण उपन्यास वह हमें पहले ही दे चुका है.
इन सारे संदेहों और प्रश्नों का समाधान उसके इस इतिहास-बोध में मिल जाता है कि हिन्दू और मुसलमान– इन दोनों को इस देश में स्वाभिमान से जीने और प्रेम व शांति से रहने के लिए जिन मर्यादाओं की रचना और सुसंस्कारों को विकसित करने की जरूरत है इसे वह इस बहाने कह सके. उपन्यास की मूल संवेदना-भूमि यही है. कथाकार मोरवाल को दस्तावेजी इतिवृत्तात्मकता की ओर जाने की जरूरत इसलिए पड़ी होगी. अकारण नहीं, मेवात के जादू (यदुवंशियों) वंशीय राजपूतों की असाधारण वीरता और आत्माभिमान की गौरव-कथा प्रतापी मुग़लों तक के काल तक कही जाती रही है. ये राजपूत स्वेच्छा से इस्लाम ग्रहण कर ख़ानज़ादा के रूप में जाने गये और लोदियों व मुग़लों ने इनसे रिश्तेदारियाँ बना कर इस देश की संस्कृति से अपनी पहचान और मेल-जोल स्थापित किया.
इस पूरे इतिवृत्त में मेवाती ख़ानज़ादाओं में हसन खाँ मेवाती एक असाधारण स्मरणीय चरित्र बन उभरता है, जो ख़ानज़ादा राजपूत होकर अपनी धरती और अपने लोगों को मुग़लों की तुलना में लोदियों को प्राथमिकता देता है और इसके लिए अपनी क़ुर्बानी तक दे देता है. हुमायूँ और बैरम खाँ की बीवियाँ इसी हसन खाँ की भतीजियाँ हैं जिनमें बैरम खाँ की इसी बीवी सलीमा से हिन्दुस्तान को अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ जैसा अज़ीम शायर/कवि प्राप्त होता है. ऐसा ही कुछ इतिहास ननिहाल की ओर से अमीर ख़ुसरो का भी मिलता है. न जाने कब हम लेखकों का समाज इन लोगों पर योजनाबद्ध काम कर इस देश को धार्मिक और जातीय एकता के स्रोतों की तलाश कर इस देश की साम्प्रदायिक वैमनस्यताओं से मुक्ति दिला पाएगा. ख़ुशी है कि हमारे कथाकारों ने इस दिशा में सोचना और लिखना शुरू भी कर दिया है. अपने इन कदमों से वे यह उम्मीद तो जगाते हैं कि रास्तों के गुबार जल्द ही हटेंगे और आने-जाने की दिशाएँ तथा रास्ते दिखाई देने लगेंगे. ‘ख़ानज़ादा’ जैसे उपन्यासों का मूल्य और महत्व तब और बढ़ जाएगा, और हम अपने ऊपर ज़बरन लाद दी गई जहालत से उबर कर उस मेल-जोल वाली जीवन-धारा की ओर बढ़ सकेंगे जिसकी ओर ‘गीतांजलि’ के कवि ने अपने ऐतिहासिक गीत में इशारा किया है.
यह उपन्यास राणा सांगा जैसे चरित्रों की इस बद-नीयती के लिए भी याद किया जाएगा कि जो राजपूत योद्धा होकर भी अपने किए गये वायदों को निभाना जरूरी नहीं मानता, बल्कि हसन खाँ मेवाती जैसे देशप्रेमी बहादुरों को आगे कर ख़ुद घायल होकर रणक्षेत्र से पीठ दिखा भाग जाता है और देश-समर्पित हसन खाँ मेवाती मारा जाता है.
उपन्यासकार ने जिन तथ्यों के हवाले से ये बातें कही हैं, उन्हें हम कोरी कल्पना भी नहीं कह सकते. वास्तविकता यह है कि इसमें ऐतिहासिक सच्चाई भी है. यह तो सब जानते हैं कि बाबर को इब्राहिम लोदी के विरुद्ध आमंत्रित करने वालों में राणा सांगा को शायद यह उम्मीद थी कि बाबर भी अन्य लुटेरों की तरह लूट-पाट कर लौट जाएगा. पर बाबर और उसके द्वारा स्थापित मुग़ल राजवंश, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, महान दाराशिकोह और औरंगज़ेब से लेकर बहादुरशाह ज़फ़र तक ने इस देश में क्या किया, इस देश की संस्कृति, भाषा और समाज पर अपनी कैसी छाप छोड़ी, इस पर अब तक काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है. राजपूताने के राजपूतों– ख़ासकर जयपुर के मानसिंह से लेकर राजा जयसिंह ने इनके साथ क्या-क्या भूमिकाएँ निभाईं, भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर आज भी दर्ज हैं.
इतने सारे सुलतानों और उनके द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों, जय-पराजयों को समेटता हुआ यह ऐतिहासिक उपन्यास किस हद तक ऐतिहासिक है, और कथाकार की कल्पना-शक्ति ने इसमें अपना कितना रंग भरा है, यह जाँचना तब आसान नहीं रह जाता. तब भी इतिहासकार इसे शायद ही कभी कोई ऐतिहासिक किताब मानने को राजी दिखे. इतिहास हमेशा प्रामाणिक दस्तावेजों की आधार सामग्री के बल पर लिखे जाते हैं. कल्पना करने की वहाँ न तो कोई गुंजाइश होती है, न वह किसी भी स्थिति में वहाँ स्वीकार्य है. ठीक ही कहा गया है कि तारीखों और घटनाओं की सत्यता और प्रामाणिकता इतिहास लेखन की अनिवार्य शर्त है. जबकि साहित्य में इनकी कामकाजी या कहें व्यावहारिक जरूरत भर हुआ करती है, किसी कथानक की देह को ढाँचा मात्र देने के लिए. किन्तु प्राण-संचार का दायित्व तो कल्पना ही निभाती और पूरा करती है. यहाँ भी बाबर, हुमायूँ, अकबर, शेरशाह सूरी, हेमू आदि से लेकर राणा सांगा, हसन खाँ मेवाती, तुग़लक़ आदि चरित्र ऐतिहासिक होकर भी लेखक की अपनी कल्पना-शक्ति का रंग लेकर प्रकट हुए हैं. कतिपय घटनाएँ-प्रसंग यहाँ तक कि चरित्र भी लेखक के लेखक की अपनी कल्पना-शक्ति के बल पर ही आभापूर्ण हो उठे हैं.
इतिहास में दख़ल रखने वाले अध्येताओं के लिए यह उपन्यास रचनात्मक ख़ानज़ादाओं को लेकर या कहें उनके रहन-सहन और वंशक्रम को लेकर कतिपय अन्य जिज्ञासाएँ भी पैदा करने में सफल हुआ है. फिर भी यह उक्त वंश पर जितनी रोशनी फेंकता है, उससे आम पाठक की दिलचस्पियाँ गहरी तो ज़रूर होंगी , ख़ासकर मेवात की भूमि और मेवातियों को लेकर.
इस कथानक की अपनी कुछ उलझनें भी कम नहीं हैं, ख़ासतौर से बैरम खाँ की बेगम सलीमा को लेकर जो इतिहास की किताबों में बाबर की बहन की बेटी और रिश्ते में हुमायूँ की बहन मानी गई है. हुमायूँ ने बैरम खाँ को इस रिश्ते में बांधने की पहल सरहिन्द और मच्छीवाड़ा की विजय की ख़ुशी में किया था. पर उपन्यास में जिस सलीमा से बैरम खाँ का रिश्ता चित्रित किया गया है, वह तो मेवात के जमाल खाँ अर्थात हसन खाँ मेवाती के इस चचेरे भाई की छोटी बेटी है. हिंदी-ब्रज के विख्यात कवि अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ इसी सलीमा के बेटे थे जो रहीम संबंधी साहित्यिक प्रमाणों से भी सिद्ध होता है. हसन खाँ मेवाती की इस भतीजी का नाम सलीमा ही था या कुछ और- यह जरूर विवाद का विषय हो सकता है. पर इतना तो तय है कि है कि बैरम खाँ ने सलीमा नाम की बेगम से विवाह किया था. क्या यह असंभव है कि दोनों का ही नाम सलीमा रहा हो. तब एक और दिक्कत जो सामने आती है वह यह कि फिर बैरम खाँ की हत्या के बाद जिस सलीमा को अकबर ने अपनी शरीके-हयात बनाया, वह कौन सी थी?
उपन्यासकार तो जमाल खाँ की दोनों बेटियों का नाम क्रमशः शाहबानू और सलीमा लिखकर आत्मतुष्ट हो गया, पर इतिहास को करीब से निरखने-परखने वाले जिज्ञासुओं के लिये इसे हल कर पाना मुश्किल ही है.
उपन्यास इस रूप में एक नये ऐतिहासिक विवाद को जन्म देता है जबकि लेखक ने भी यह दावा किया है कि हसन खाँ मेवाती के चचेरे भाई जमाल खाँ और उसकी दोनों बेटियों के बारे में जो विवरण उसने दिए हैं, वे प्रामाणिक दस्तावेज़ों के आधार पर ही आधारित हैं.
भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘ख़ानज़ादा’ को भी हमें इन्हीं दृष्टियों से देखना होगा. अपनी सम्पूर्ण रचनात्मकता में यह इस देश के उस बारीक ताने-बाने को नए सिरे से खोजने, याद दिलाने और कहने की कोशिश करता है कि इस देश का बुनियादी डीएनए क्या है और इसे अपने ख़ूबसूरत भविष्य की रक्षा के लिए आज हमें किन बौद्धिक उद्यमों से गुजरना होगा.
उपन्यास तुग़लकों, लोदियों और पठानों ही नहीं, मुग़लों की उन आकांक्षाओं और कोशिशों को भी सामने लाता है कि उनमें भी इस देश के लोगों के साथ घुल-मिल कर रहने की कितनी इच्छा और कोशिश है. अन्यथा फ़िरोज़शाह तुग़लक़ का बहादुर नाहर, या बाबर का हसन खाँ मेवाती, अकबर का मानसिंह के साथ इतना सम्मानजनक व्यवहार और भरोसा क्यों कर रहा है?
इस आधार पर यह निष्कर्ष लेने का अवसर भी है कि यह एक ऐतिहासिक ही नहीं, राजनीतिक उपन्यास भी है. बल्कि एक और अर्थ में सांस्कृतिक भी, जो एक ऐसे समय में लिखा गया है जब सत्ताएँ ठेठ अस्मिताओं की खोज के बहाने इस देश और समाज को अनेक असहिष्णु फ़िरकों में बाँट कर एक ऐसी आक्रामक साम्प्रदायिकता में बदल डालना चाहती हैं, जिनसे इस देश और इसकी उदार सांस्कृतिक मर्यादाएं और रहा-सहा सामाजिक ताना-बाना हमेशा-हमेशा के लिए छिन्न-भिन्न व नेस्तनाबूद हो उठेंगी.
विजय बहादुर सिंह (जन्म: 1940) कवि-आलोचक हैं, और कई लेखकों की रचनावलियों के संपादक रहें हैं. मौसम की चिट्ठी, पतझर की बाँसुरी, शब्द जिन्हें भूल गई भाषा, भीमबैठका आदि उनके कविता-संग्रह हैं.
प्रसाद, निराला और पंत, नागार्जुन का रचना संसार, नागार्जुन संवाद, उपन्यास समय और संवेदना, महादेवी के काव्य का नेपथ्य आदि उनकी चर्चित आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. |
समालोचन में जितनी विविधता देखने को मिलती है उतनी अन्यत्र कहीं नही । शुक्रिया सर
उपन्यास, इतिहास और वर्तमान पर विवेक सम्मत विचार।मोरवाल जी को पुनः पढ़ने की प्रेरणा मिली।
सच और झूठ की परख के लिए इतिहास को जानना भी बहुत जरूरी है। अपनी इतिहास-दृष्टि और अपनी सृजनात्मकता के लिए भी। हकीम खाँ सुरी जो शेरशाह सुरी के वंशज थे और उसकी सल्तनत के वारिस भी । लेकिन मुगलों ने उस सल्तनत को छीन लिया था । लिहाजा हकीम खाँ अपनी खोई हुई सल्तनत को फिर से पाने के लिए अकबर के शत्रु महाराणा प्रताप से अपने सैन्य बल के साथ ,जिसमें लगभग पन्द्रह सौ के आस-पास सैनिक थे ,मिल गये । लेकिन महाराणा प्रताप और अकबर के बीच के युद्ध को जो 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से जाना जाता है ,हिन्दु और मुसलमान के बीच का युद्ध मान लिया जाता है ,जबकि यह दो शासकों के बीच की लड़ाई थी । उस युद्ध में महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खाँ सुरी और अकबर के सेनापति मान सिंह थे । शिवाजी की सेना में भी कई मुसलमान और औरंगजेब की सेना में कई हिन्दू योद्धा थे । ये लड़ाइयाँ बर्चस्व कायम करने और सल्तनत को हड़पने के लिए होती थीं । शायद हमें इतिहास को भी उसी सांप्रदायिक नजरिये से दिखाया जाता रहा है जिस तरह से हरे रंग को मुसलमान और पीले रंग को हिंदु मान लिया गया है । यह भी एक तथ्य है कि सिन्धु नदी के पूर्व में बसे हुए सभी लोगों को अरब क्षेत्र के लोगों द्वारा (उच्चारण दोष /ईरान में स को ह) हिन्दू कहा जाने लगा । लेकिन बाद में चलकर यह शब्द भी हिन्दुओं के लिए रूढ़ होता गया । खानजादा पर विजय बहादुर सिंह का आलेख एक गंभीर विमर्श की मांग करता है।उन्हें साधुवाद !
डॉ.लोहिया कहा करते थे कि दिमाग को सुधारने के लिए कायदे से इतिहास पढ़ना बहुत ज़रूरी है।..भारत में हिन्दू और मुसलमान के बजाय मामला देसी और परदेसी का रहा है।
मोरवाल साहब को पढ़ते हुए स्पष्ट हो जाता है कि ऐतिहासिक उपन्यास किसे कहते हैं। उनकी पैनी इतिहास-दृष्टि के तहत रचित इस उपन्यास को पढ़ते हुए इतिहास को लेकर कई भ्रम दूर हो जाते हैं।
आदरणीय विजय बहादुर सिंह ने इस कृति का पाठ-केंद्रित जैसा सूक्ष्म विवचन किया है,वह इन दिनों लिखी जा रही आलोचना को राह दिखानेवाला है।
इतिहास के बारे में कहा गया है कि वह मनुष्य की तीसरी आंख है।विजय बाबू की आलोचना में भी यह तीसरी आंख मौजूद है।
बहुत ही बेहतरीन अन्वेषी ओर उपन्यास की अंतर्वस्तु तो गहरे टटोलती समीक्षा डॉ विजय बहादुर सिंह की आलोचकीय क्षमता का प्रमाण प्रस्तुत करती है। मोरवाल ने अनेक बेहतरीन उपन्यास दिए हैं हिंदी जगत को । जिसमं काला पहाड़ तो हैं ही, एनजीओ की कार्यप्रणालियों पर भी एक बेहतरीन उपन्यास उन्होंने दिया है। मेवात की जमीन से उठे इस रचनाकार ने जिस तरह इस इलाके के इतिहास और इतिवृत्त को उपन्यासों में ढाला है वह दिलचस्प है तथा मोरवाल की औपन्यासिक क्षमता का निर्दशन भी है।
विजय बहादुर सिंह जी गहरी अंतर्दृष्टि और चिंतन के कवि-समालोचक हैं।उनको पढ़ना तृप्तिदायक और विचार-स्फूर्तिदायक है।मोरवाल की किताब पढ़ूँगा।
श्रीमान आपने इस उपन्यास की वास्तविकता से रूबरू करवाया| कम शब्दों में आपने इस उपन्यास का निचोड़ पाठक के सामने प्रस्तुत किया, आपका बहुत बहुत आभार….
बेहत्तरीन एवं उत्तम लेखन! मूल लेखक द्वारा भी और टिप्पणीकार द्वारा भी। दोनों महानुभावों को नमन प्रेषित है!