‘कविता से अनुराग प्रथमतः और अंततः जिजीविषा का ही प्रकार है.’ ऐसा मानने वाले अशोक वाजपेयी की ये कविताएँ उनकी इधर की लिखी कविताएँ हैं, अस्सी पार की कविताएँ हैं.
लगभग छह दशकों से साहित्य, कला और संस्कृति में रमें रहने वाले, पिछले कई वर्षों से सत्ता को लगातार प्रश्नांकित करने वाले और अंततः हिंदी के इस कवि की दुनिया क्या इधर कुछ बदली है ?
निराशा का भाव वैश्विक हुआ है, कोरोना के इस महाकाल में देश विदेश की कविताओं में इसे देखा जा सकता है. इन कविताओं में भी इसका रंग गाढ़ा हुआ है पर जिजीविषा की मशाल अभी बुझी नहीं है.
अशोक वाजपेयी की कुछ कविताएँ |
1)
लौटा नहीं हूँ
मैं लौटा नहीं हूँ
किसी प्राचीन नगर के सुनसान भुतहे खण्डहरों से
क्योंकि मैं वहाँ कभी गया नहीं था—
पर फिर भी मेरे सिर और कन्धों पर जो धूल है वह वहीं की है.
समय फैला हुआ था कई मंज़िलों पर,
कई बस्तियों में,
कई पंचांगों में.
मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब एक समय से
दूसरे में अबाध जाता रहा:
मुझे पता ही नहीं चला कि कब एक समय समाप्त या स्थगित हुआ और कब दूसरा शुरू.
न कुछ अतीत लगा, न कोई भविष्य दीख पड़ा?
समय सार तत्काल है
एक साथ स्वरावली सा.
मैं एक गान का एक साथ आरम्भ और समापन हूँ.
मैं लौटा नहीं हूँ
क्योंकि मैं कभी गया नहीं.
(14 अप्रैल, 2021)
2)
हम अकेले नहीं हैं
हम अकेले नहीं हैं इस यात्रा में
हमारे साथ चल रहे हैं, अँधेरे-उजाले,
नक्षत्र-आकाशगंगाएँ, लुप्त नदियाँ,
विस्मृति के अनेक उपवन और कई शताब्दियाँ
जो बीच-बीच में कहीं और भटक जाती हैं.
हम अकेले नहीं हैं
कुछ दण्ड भोगते देवता, कुछ इतिहास से न रौंदी गयी चींटियाँ,
शस्य की कुछ अबूझ पहेलियाँ और कुछ दुस्साध्य छन्द
हमारे साथ हैं.
हम अकेले नहीं हैं
विश्वासघात से मारे गये योद्धा, विफलता में अस्त हुए कुछ किंवदन्ती-पुरुष
अपनी कामाग्नि में जौहर न कर पायीं ललनाएँ
और बलि पशुओं की गणना से बाहर रहे कुछ चकित पशु
हमारे साथ हैं.
हम अकेले नहीं हैं
हमारे साथ हैं
न लिखी गयीं प्रणयकथाएँ,
बोलने से पहले पथरा गये संवाद,
यातनाघरों की अब तक खड़ी दीवारें….
हम अकेले नहीं हैं…
(14 अप्रैल, 2021)
3)
यह जो आवाज़ आती है
यह जो आवाज़ आती है
धुंध में अकस्मात् स्थगित हो गये किसी चन्द्रोदय की आह सी,
झंझावात के बाद वृक्षों पर बच गये पत्तों की कराह सी,
किसी पात्र में उड़ेले जा रहे द्रव्य के उफनने जैसी—
मैं खोलता हूँ खिड़की कविता में
और बहुत धीमे सुनायी देता है
किसी भुला दिये देवता का सिसकना
किसी खण्डहर हुए मंदिर में.
यह जो आवाज़ आती है—
किसी अनाम नदी की गहराई में बसी हरीतिमा
एक स्वर बनकर तैरती है हवा में,
किसी पर्वत की खोह में पड़ी साधु-अस्थियाँ लड़खड़ाती हैं
यह जो आवाज़ आती है—
कोई क्यों बुलाता होगा मुझे,
किसे पता है कि मैं आवाज़ सुन रहा हूँ,
किसकी आवाज़ है जो मुझे किसी सुबह की धुंध की तरह
घेर रही है?
यह जो आवाज़ आती है
और कहीं नहीं जाती.
(15 अप्रैल 2021)
4)
दिये सब बुझ चुके हैं
एक-एक कर
दिये सब बुझ चुके हैं
एक मोमबत्ती कहीं बची थी
जो अब ढूँढ़े नहीं मिल रही है.
अँधेरा अपनी लम्बी असमाप्य गाथा का
एक और पृष्ठ पलट रहा है
जिसमें बुझे हुए दीयों का कोई ज़िक्र नहीं है.
जब रोशनी थी हम उसे दर्ज़ करना भूल गये
और उसकी याद
थोड़ी सी उजास ला देती है
जिसे अँधेरा फ़ौरन ही निगल जाता है.
खिड़की से बाहर दिखायी नहीं देती
पर हो सकता है
भोर हो रही हो.
हमारे हिस्से रोशनी भी आयी
बहुत सारे अँधेरों के साथ-साथ
और लग रहा है
कि अँधेरा ही बचेगा आखि़र में
सारी रोशनियाँ बुझ जायेंगी.
5)
हर जगह पल-पक रहा जीवन
द्वारों, दर्पणों, दीवारों और गवाक्षों के पार
जो आँगन जैसा उजाला है
एक दीप्त आयतन
उस तक पहुँचने के लिए काफ़ी है चप्पलें—
मैं देवताओं से कुछ कहता
इससे पहले पुरखों ने कहा उनकी चिन्ता मत करो
क्योंकि बन आयी है जीने पर
तो उस पर ध्यान दो
देवता तो फिर खींच लाये जायेंगे,
उनकी चिन्ता मत करो.
जैसे आम पकता है वृक्ष पर हिलगा
अपनी आग से
जैसे देह और आत्मा पकती हैं अपनी आग से
वैसे ही पकने दो जीवन को
बिना चिन्ता किये मृत्यु की:
जीवन मृत्यु में समाप्त भस्म नहीं होता-
उसकी आग आगे जाती है
उसके साथ जाओ
परिपक्वता लाँघ सकती है नश्वरता को.
अभी हवा में थोड़ी नमी है
और चिताओं की आग और धुँआ
पड़ोस तक नहीं पहुँचा है-
काफ़ी है कुरता और पाजामा
इस गरमाहट को बनाये रखने के लिए
जो सिर्फ़ तुम्हारी है
और जिसे तुम दूसरों से साझा कर सकते हो.
जीवित रह पाना
किसी भी प्रार्थना से बड़ा है
और जीवन हर जगह पल-पक रहा है.
(5 मई 2021)
सुबह-सुबह इन कविताओं से गुजरते हुए सुखद एहसास हुआ।ये गहन अंधकार के बीच सघन उजाले की जीवन से भरी हुई कविताएं हैं।
अपनी कामाग्नि में जौहर न कर पायीं ललनाएँ
और बलि पशुओं की गणना से बाहर रहे कुछ चकित पशु
हमारे साथ हैं !
क्या बात ! सांस्कृतिक मदारियों से कविता का सधना मुश्किल है लेकिन अशोक वाजपेयी इसके अपवाद हैं । ऐसी कविता ज़िद अपूर्व है । अंत में यही कह सकता कि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । अवा और समालोचन का शुक्रिया ।
घिरते अंधकार में चन्द्रोदय की आह-सी कविताएं। अशोक वाजपेयी की कविताएं गोधूलि में घण्टियों की मंद-मंद ध्वनि-सी हमारे पास आती हैं। उनकी कविता की रुचिर अंगनाई में उतरती शब्दों की रौशनी कभी अवसाद और कभी आह्लाद में डूबी रहती है।
बहुत बढ़िया कविताएँ , सही लिखा आपने – ” मैं थोड़ा सा यहाँ रह जाऊंगा” से इन कविताओं तक का सफर बेचैन करने वाला है खासकरके इन छह कविताओं में एक नैराश्य और उम्र का असर साफ देखा जा सकता हैं
किसी ने कहा है , एक उम्र के बाद कविता नहीं लिखनी चाहिए। कविता दिल से निकलती है, या निकलनी चाहिए। बूढ़े कवियों की कविताओं में दिमाग की दखल बढ जाती है। इसका बोझ संभालना कविताओं केलिए मुश्किल होता है। बहरहाल अभी कविताओं का मन टटोल रहा हूॅ। फिलहाल उस अल्हड़पन को ढूँढ रहा हूँ, जो अशोक जी की कविताओं की निधि होती है। यहाँ प्रगल्भता अधिक है।
बहुत अच्छी लग रही हैं अशोक की ये कविताएँ उन अनुभवो को भी समेटे जिनसे बहुतेरे लोग इस बीच गुजरे हैं। ‘लौटा नही ‘
तो अद्भुत है।
These are painful thoughts of time and humans .
कभी कभी किसी एक पंक्ति में अटक जाना भला लगता है लेकिन पूरी कविता जिस भूमि से अपना जन्म लेती है वह किसी दूसरी कविता की किसी दूसरी पंक्ति में मिलती है । अचंभित कर सकता है किसी को भाषा के अर्जित सौंदर्य में इस तरह बीतना लेकिन समय में दर्ज होना ! खैर , वह समय की बुलाहटों पर अन्यमनस्क सा खुद को खोजने जैसा है और फिर अन्यमनस्क सा ही उस खुद को पा लेना भूल चूक से हो गयी या की गयी कोशिश लगता है । कविताओं में अस्सी पार वाली बात भला क्या है? कोई तो ऐसा कोना , खोह, गुफा , चट्टान मिले जहां गुफ़्तगू या संवाद के लिए ठिठका जा सके और वह एकांत सम्भव किया जा सके जहां कविता उसमें घुल जाए।
अशोक जी एक ऐसे कवि हैं कि जो दिनोंदिन युवा ही होते जा रहे हैं। प्रमाण के तौर पर इन कविताओं को देख सकते हैं। कंटेंट के स्तर पर भी अशोक जी उन सारे विषयों को छू रहे हैं जो अन्यत्र असम्भव है। इस उम्र में तो लोग परमात्मा को भजने लगते हैं। लेकिन अशोक जी हमारे-आपके दुख-दर्द को स्वर दे रहे हैं। ऐसा एक युवा ही कर सकता है। सुंदर कविताओं के लिए अशोक जी को बहुत-बहुत बधाई।
इन कविताओं का मूल स्वर आशावाद है विशेष रुप से अंतिम कविता ‘हर जगह पल पक रहा जीवन’ ।श्री अशोक बाजपेई परिपक्वता के इस बिंदु पर अपने विशिष्ट शिल्प में जीवन की सुलझी अनसुलझी गुत्थियों के द्वंद से बाहर आकर एक ऐसा आख्यान रख रहे हैं जो मनुष्य के आनेवाले कल के लिए मार्गदर्शक का कार्य करेगा । वे उन तमाम कवियों से बेहतर हैं जो अंतिम समय तक इस उहापोह से बाहर नहीं निकले ।
शरद कोकास
अशोकजी की कविताएँ हमेशा से मुझे जीवन की ओर, आशा और विश्वास की ओर ले जाती है. वे मेरे लिए एक ऐसे कवि हैं जिन्हें सुनने और पढ़ने की प्रतीक्षा रहती है…
बहुत अच्छी कविताएं है
श्री अशोक वाजपेयी की नयी कविताएँ उनके कवि-वृन्त पर खिले सुंदरतम फूल हैं—ripeness is all—
कविता जीवन का आदिम राग है।आदिकाल से लेकर अबतक यह राग अविच्छिन्न रूप से निरंतर प्रवहमान है। एक कवि की संवेदना अपने समय और समाज के प्रति तो होती ही है, अपने प्रति भी होती है। उसकी अपनी निजता भी जीवन में कई रंग-रूप भरती आयी है। क्योंकि आत्म-सत्य अगर वास्तव में सत्य है तो वह जगत और त्रिकाल का सत्य भी है ।जीवन को उसके समुच्चय में देखना हमें कविता सिखाती है और उसकी यह अखण्ड दृष्टि हीं हमें सत्य तक ले जाती है।जीवन यथार्थ और अनुभव की आँच पर अहर्निश पक रहा है-इसका न कोई आदि है न अंत। अशोक वाजपेयी की कविताओं में एक जीवन-दृष्टि है, किसी दर्शन या वाद का प्रभाव नहीं। यही दृष्टि प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु के दाय को पहचानने और उसके प्रति अकृतज्ञ न होने का भाव पैदा करती ही । यही सबसे मूल्यवान है क्योंकि गेटे(गोयथे) ने कहा था कि सारी विचारधाराएँ पीली पड़ गयी हैं लेकिन जीवन-वृक्ष अब भी हरा है। अशोक जी एवं समालोचन को बधाई !
Prayag Shukla बहुत खूब! Ashok Vajpayi in his form. Or shall I say, in his element? Words are at a loss at times, especially the first thing in the morning one is exposed to some creativity, so enlightening, so elevating. We are not known to each other but yes, the work speaks. I can say this as an ordinary reader but enlightened one, and not so much as a writer. Let the nay sayers roast in their own stew…
अशोक जी की कविताओं में बिम्ब का विन्यास सीखने की चीज है , विशेष करके उन बिम्बों की मल्टीप्लीसिटी और ambiguity के अर्थ लोक में पाठक के सृजनात्मक विवेक की जो परीक्षा होती रहती है , वहां कविता का आकर्षण और बढ़ जाता है ।
लेकिन गोबरैले हर जगह होते हैं , उनका अर्थ सृजन नरक द्वार की पगडंडी के सहारे होता है, उसमें भी यदि प्रतिशोध (प्रतिशोधाग्नि?) का भाव मिल जाए तो कहना ही क्या ? खैर ।
अशोक जी के समग्र काव्य लोक को (तीन खंडों में ) यदि न पढ़ा होता तो शायद यह बात नही कहता । उन खंडों में कुछ कविताएं औसत हैं , पर अधिकांश काव्य बिम्ब और उनकी अर्थ छायाएं ऐसी हैं जिससे हिंदी कविता समृद्ध ही हुई है ।
जाने क्यों इन कविताओं को पढ़ते दिलीप कुमार याद आए ! इस ओवर रिऐक्टिव समय को अभिव्यक्त करने में धीमे सधे स्वर और अंडरप्ले का इस्तेमाल करती कविताएं, दिलीप साहब के अभिनय की तरह…।
अशोक सर की कविताएं जीवन के इतर खड़ी होने वाली कविताएं हैं ।जीवन की भूलभुलैया, आदिम होने की सुगंध,बहुत कुछ छूट जाने की जो मानव जीवन की तय सीमा है उससे आगे दीखती हुई ये कविताएं हैं।
अशोक जी की कविता के प्रसंग में कहना और फिर कहने से दूर चला जाना , लौटकर आता है
कहना. ‘लौटा नहीं हूँ ‘ जाकर भी नहीं गया और लौटकर भी नहीं लौटा ‘ उद्भव और समापन में ‘
शब्दों की मितव्ययिता और अर्थ की विराट संपदा इन कविताओं का केंद्रीय भाव है, पढ़ते हुए छोर आकर अछोर हो जाना फिर उसे खोजना , उलझाव-सुलझाव के अंतराल समय आकर बैठ जाता है अंतस् में सघन.
‘हम अकेले में नहीं है ‘ कविता पढ़ते ‘समास’ के ग्यारहवें अंक की बातचीत में ( उदयन जी के साथ) “ आप अकेले पड़ जाने से घबरायें नहीं क्योंकि आप दूसरी संगत में है “. इसी संगत के कितने ही चित्र चित्रित हैं.
‘ये जो आवाज़ आती हैं ‘ सुबह की धुँध की तरह घेर रही है. गूँगों में आवाज़ का आना , वहाँ सिर्फ़ बिम्ब भर नहीं है उसके पार का रास्ता है .
‘दिये सब बुझ गये’ अँधेरा ही बचेगा, अँधेरे की अथक यात्रा में प्रस्फुटित उजास की किरण बुझे दिये की जोत का चिराग़ है.
‘हर जगह पक रहा है जीवन’
‘जीवन मृत्यु में समाप्त भस्म नहीं होता , उसकी आग आगे जाती है.’
हवा की नमी ही व्याकुलता में स्त्रोत बनती है, अभी आग, धुआँ नहीं पहुँचा .
इन्हें पढ़कर मैं गहराई और गझिनता के साथ अपने को पाता हूँ.
अशोक जी की इन ताज़ातरीन कविताओं को पढ़ने का अवसर आपने दिया , धन्यवाद.
वंशी माहेश्वरी.
ऐतिहासिक धूसरपन और सांस्कृतिक प्रगल्भता को लेकर सिर्फ़अशोक जी ही हरीतिमा और वापसी की बात रच सकते हैं. उनकी कविताओं में जो उजाला है वह मानो पूर्व के प्रकाशवर्षों के साथ आने से रह गया था और अब इस पृथ्वी पर आ रहा है टुकड़ों में. जहां वे नहीं गए, वहां की धूल उनके कंधों पर है तो इसका अर्थ हुआ, उनको मिल गई पूरी पृथ्वी, जो चाही थी उन्होंने अपनी सारी वनस्पतियों समेत.
प्रणाम और बधाई.
“कविता से अनुराग प्रथमतः और अंततः जिजीविषा का ही प्रकार है”, यही अनुराग वह भूमि है जिसपर अँधेरा कभी काबिज़ न हो पायेगा. यह दुआ भी है, स्वप्न भी. इन कविताओं के लिए तहेदिल से आभार.
ये कविताएं पाठक से दीर्घ सहयात्रा मांगती हैं। तात्कालिकता को सार्वकालिक बनाती ये कविताएं बधाई वगैरह की बनिस्बत परत दर परत उद्घाटन की हकदार हैं.
अशोक जी की इन कविताओं ने पहले से कहीं अधिक छुआ है। इनमें छिपा दर्द सीधी चोट नहीं करता, धीरे-धीरे नसों पर दबाव बढ़ाता है।
अशोक वाजपेयी का कविता संसार प्रारंभ से सुचिक्कन और हृदयग्राही रहा है। प्रेम अनुराग अवसान अकेलेपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि सभी तरह की कविताओं में अशोक जी की मुखरभाषिता नई प्रतीतियों आशयों के लिए व्यग्र दिखती रही है। कविता को भाषा का अध्यात्म कहने वाले इस संसारी कवि के यहां इसकी रंगत कुछ अलग सी ही दीखती है। उसे अध्यात्म केे अभ्यासी सहज ही नहीं पा सकते।
उनका यह कहना कि
जीवन मृत्यु में समाप्त भस्म नहीं होता-
उसकी आग आगे जाती है
उसके साथ जाओ
परिपक्वता लाँघ सकती है नश्वरता को.
और आगे इस कविता में यह कहना कि
जीवित रह पाना
किसी भी प्रार्थना से बड़ा है
उम्मीदों और प्रत्याशाओं में झूलते खिलखिलाते जीवन के बीच जीवन का निर्वचन है।
–ओम निश्चल । विहंगम।