पैंसठवें पायदान पर धीरेन्द्र अस्थाना
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निदा फ़ाज़ली धीरेन्द्र अस्थाना को कथा सम्राट कहते थे और मुंबई में मुझ जैसे असंख्य मित्र उन्हें धीरू भाई पुकारते रहे हैं. धीरेन्द्र अस्थाना का व्यक्तित्व ऐसा है कि उनका निकटवर्ती भी यह कभी नहीं समझ पाता कि उनके मन में क्या उधेड़बुन चल रही है. वे बाहर की दुनिया से अधिक भीतर की दुनिया में अधिक दिलचस्पी लेने वाले लेखक हैं. मैं उन लोगों में हूँ जिसने न मालूम कितनी बार बहकी हुई देर रातों में “दिए जलते हैं, फूल खिलते हैं, बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते हैं.” धीरू भाई की लरजती आवाज़ में सुना है. उनका अपना जीवन खुद एक रोचक कहानी है. इस बातचीत में मैंने उस कहानी को छूने की कोशिश की है.
जीवन की सबसे पहली (आधी-अधूरी ही सही) स्मृति क्या है? जब आप थोड़ा बहुत समझने लगे थे.
कमाल है, यह सवाल आज तक किसी ने पूछा ही नहीं, न मैंने ही कहीं लिखा या बताया. मेरी यादें छठी कक्षा से शुरू होती हैं, जब मैं सेंट्रल स्कूल आगरा कैंट में रहता पढ़ता था. आज यह बताने वाला कोई नहीं है कि छठी कक्षा से पहले की मेरी जिंदगी क्या थी? जानकारी के अनुसार जब मैं पैदा हुआ तो डैडी मेरठ में थे. वह कस्टोडियन में नौकरी करते थे. अनुमान है कि आरंभिक शिक्षा मेरठ में ही मिली होगी. फिर कस्टोडियन टूट गया और डैडी को एम.ई.एस. में नौकरी मिल गयी. डैडी हमें पारिवारिक घर, दादा–दादी के पास, मुजफ्फरनगर छोड़कर नौकरी ज्वाइन करने आगरा चले गये. दादा बृजबहादुर अस्थाना अंग्रेजों के जमाने के एसपी थे और रिटायर होने के बाद भी रौबदार जीवन जी रहे थे. सफेद बिरजिस, गम बूट और हैट पहन कर जब वह हाथ में हंटर लेकर बाबुल नाम की घोड़ी पर बैठ शहर में मुआयना करने निकलते थे तो उनका जलवा देखने लायक होता था. सिलसिलेवार तो नहीं आधी अधूरी स्मृतियां इसी मुजफ्फरनगर समय से निकल रही हैं.
मेरी दादी जगत भाभी के नाम से मशहूर थीं. मेरे मां–पिता भी उन्हें भाभी ही बुलाते थे. एक लहीम शहीम, भव्य सी बूढ़ी औरत पूरे घर में जहां–जहां जाती थी, वहीं–वहीं उनका पानदान भी जाता था, जिसे शांति नाम की एक घरेलू सहायिका ढोती थी. यही औरत मुझे बताया करती थी कि हमारे दादा के पास एक बाइस कमरों की कोठी थी जिसे दादा ने सिर्फ दो हजार रुपए में गिरवी रख दिया था और यह रुपया वह जुए में हार गये थे. यह कोठी कभी नहीं छुड़ाई जा सकी और फांस की तरह सबके दिल में गड़ी रही. यह उन दिनों का समय है जब मेरे पुलिस अधीक्षक दादा को सरकार से सोलह रुपए महीने वेतन मिलता था. यह जो शांति नामक सहायिका थी, यह मूड में आने पर मुझे गोद में उठा लिया करती थी और एक गाना गाती थी जो मुझे आज भी याद है–अव्वल तो मेरे कमरे में कोई आने न पाए, जो आएगा पछताएगा वापस न जाएगा, ऐसी अदा से आना परदा हिलने न पाए.
पता नहीं यह किसी फिल्म का गाना है या निजी. लेकिन याद कीजिए आजकल का यह मशहूर गाना– कुंडी मत खड़काना राजा, सीधे अंदर आना राजा.
दादा को भी सब लोग पापा के नाम से बुलाते थे, मैं भी. उनके दो मशहूर जुमले मेरे साथ आज भी रहते हैं- पहला, भूख लगी है आज, हलवा मिलेगा परसों. दूसरा, कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना, कभी वह भी मना. इन दो जुमलों के बीच समूचे मध्यमवर्ग का जीवन फंसा हुआ है. दादा और पिता दोनों साथ बैठकर शराब पीते थे. पीने के बाद दोनों के गिले शिकवे मुखर होते थे और फिर दोनों बाकायदा मल्लयुद्ध में उतर जाते थे. इन दादा से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रसंग- पिता छुट्टी पर मुजफ्फरनगर आए हुए थे और रात को दादा के साथ बैठकर शराब पी रहे थे. यह मेरी आंखों देखी घटना है. अचानक दादा ने मेरी मां से कलेजी लाने को कहा. मां बहुत लजीज कीमा कलेजी पकाती थी. प्लेट आ गई. दादा ने कलेजी खाने के बाद पिता से सिगरेट मांगी. पिता ने अपने पैकेट से एक पासिंग शो सिगरेट निकाल कर अपने पिता को दी. दादा ने पूरी सिगरेट मज़े ले कर पी और बोले, चलो अब मैं चलता हूं.
और फिर वह मर गये. बस, छठी कक्षा से पहले की ऐसी ही टूटी फूटी स्मृतियां हैं.
२.
स्कूली जीवन की कुछ यादें बताएं, जिनमे किताबें, पेन-पेंसिल, बस्ता, टिफिन, मित्र, जेबखर्च, साइकिल सीखने से गिरने तक, मित्र-निर्वाह और मित्रों से विवाद-झगड़े इत्यादि हों. यानी दुनियादारी की कच्ची समझ जब बन रही थी.
स्कूली जीवन से पहले की बात याद आ रही है. हमारे समय में नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी नहीं थे, सीधे कक्षा एक होती थी. कक्षा एक में भेजने से पहले मां बाप बच्चों को घर पर ही अक्षर ज्ञान की शिक्षा देते या दिला देते थे. तो हुआ यह कि डैडी ने इस काम के लिए एक टीचर नियुक्त किया. टीचर आया, पढ़ाई शुरू हुई. पहले दिन ही लफड़ा हो गया. टीचर ने कहा, बोलो- अ से अनार. मैं चुप. टीचर ने थोड़ा गुस्से से कहा, बोलो- अ से अनार. मैंने कहा, पहले यह बताओ कि अ से पहले क्या होता है. टीचर बिफर गया, सिर पर थप्पड़ मारते हुए बोला, अबे तू पागल है क्या? मैंने बदले में अ से अनार सीखने वाली स्लेट टीचर के सिर पर मार दी. पढ़ाई छूटनी ही थी, छूट गयी.
याद नहीं आता कि जेब खर्च कभी मिला था क्या? पहला जेब खर्च देहरादून में होने वाली रामलीला के इंटरवल में गाने गा कर जुटाया था, जिसका सिलसिला कई साल चला. शुरुआती पढ़ाई के दौरान टिफिन की भी याद नहीं आती. हां, जब आगरा के सेंट्रल स्कूल में छठी क्लास में एडमिशन हुआ तो बस्ते में टिफिन भी आने लगा. ज्यादातर परांठे और अचार होता था, कभी कभी अचार के बजाय आलू गोभी की सब्जी होती थी. आलू गोभी की सब्जी इतनी अधिक खाई है कि वह हमारी फेवरेट डिश हो गई है.
मित्र ज्यादा नहीं रहे कभी, स्कूल में भी नहीं. आत्मकेंद्रित होने के कारण परिचय का दायरा बहुत सीमित रहा इसलिए झगड़ा झंझट और वाद विवाद भी नजदीक नहीं आये. एक मैमोरी कंपटीशन की याद है, शायद पांचवीं कक्षा में हुआ था. एक कमरे में रखी बीस वस्तुओं को पांच मिनट देखकर कक्षा में लौटना था और पांच ही मिनट में उनके नाम लिखने थे. इसमें प्रथम आया था. पूरे बीसों नाम सही लिख दिए थे.
दुनियादारी की समझ बनने से संबंधित एक वाकया है. एक बार डैडी साइकिल पर बिठा कर बाजार ले जा रहे थे. अचानक एक आदमी बीच में आ गया. डैडी ने ब्रेक लगाए और चिल्ला कर बोले,चूतिया साला. वह आदमी आंखों में उतर गया. दो दिन बाद बाजार जाते वक्त फिर वह आदमी सड़क पर दिखाई दिया तो मैंने चिल्ला कर कहा, डैडी देखो, चूतिया जा रहा है.
समझ बनने से जुड़ा एक और वाकया. जीवन में एक लड़की थी. पहली लड़की. दसवीं में पढ़ती थी और छठी में पढ़ने वाले इस लड़के की दोस्त थी. दोपहर को टिफिन खाने हम स्कूल से इंटरवल में कंपनी बाग में जाते थे. खाना खाने के बाद वह मुझे गोद में लिटा देती थी और गाना गाती थी- आज कल में ढल गया, दिन हुआ तमाम, तू भी सो जा, सो गयी रंग भरी शाम.
और मैं सो जाता था. एक दोपहर मैं सो रहा था और डैडी आ गये. डैडी ने लड़की के सामने अपने सैंडिल से धुन दिया और साइकिल पर बिठा कर ले गए. फिर उस लड़की को स्कूल से निकाल लिया गया. दो साल बाद पता चला कि किसी और स्कूल में पढ़ने वाली बारहवीं की उस लड़की ने आत्महत्या कर ली.
जिंदगी का पहला दुःख लग गया था.
३.
स्कूल की किताबों के अतिरिक्त ऐसी कौन सी किताबें थी, जो आपको अच्छी लगती थी और उन्हें पढ़ना चाहते या पढ़ते थे.
सच कहूं, स्कूल की पढ़ाई में मेरी जरा भी रुचि नहीं थी, हमेशा पास होने के लिए पढ़ता रहा. वह भी इसलिए कि बचपन में ही यह सिखा समझा दिया जाता है कि कायस्थों के लड़के सिर्फ नौकरी करने के लिए बने हैं. बाकी और कोई काम उनके बस का नहीं, तो नौकरी के लिए पढ़ना ही पड़ेगा. ग्रेजुएशन तक मैं औसत छात्र ही रहा हूं, किनारे के नंबरों से पास होने वाला.
पत्नी ललिता जी के साथ |
अपनी नानी की मेहरबानी से चंद्रकांता संतति और भूतनाथ जैसी महालोकप्रिय किताबें मैं सातवीं कक्षा में ही पढ़ चुका था और मुझे स्कूल-इतर किताबें पढ़ने का चस्का भी लग गया था. आगरा कैंट की जिस केबी लाइन्स कालोनी में हम रहते थे वहां से सबसे नजदीक और बड़ा बाजार, सदर बाजार था. उस बाजार से थोड़ा पहले एक छोटा बाजार था- नौलखा मार्केट, वहां बीच वाली सड़क के दोनों तरफ ठीक आमने-सामने दो दुकानें थीं– खनूजा बुक डिपो और कालरा बुक डिपो. ये दोनों दुकानें ही मेरा प्रारंभिक विश्वविद्यालय थीं. आगरा के दोस्त बताते हैं कि ये दोनों दुकानें आज भी मौजूद हैं. किताबों से ठसाठस भरी इन दुकानों में मेरे लिए अपार खजाना था. पूरे दो साल मैं इन दुकानों का नागरिक बना रहा. मेरी पढ़ाई शुरू हुई जासूसी पंजा सिरीज़ और इब्ने सफी बीए की लिखी किताबों से. ये दोनों दुकानें किराये पर किताब देती थीं. इनके बाद नंबर आया ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कांबोज और कर्नल रंजीत की पुस्तकों का. जब वह भी खत्म हो गयीं तो सामना गुलशन नंदा से हो गया. यह जासूसी संसार से अलहदा ही कोई दुनिया थी. थोड़ी रोमानी, थोड़ी स्वप्निल, जमीन से उठती, सपनों में जाती हुई. इस विश्वविद्यालय में प्रेम बाजपेई, राजवंश, रानू, समीर और दत्त भारती भी थे, जो पढ़े भी गये मगर अपना नाता तो गुलशन नंदा से जुड़ गया था.
गुलशन नंदा को पढ़ते पढ़ते लगा कि लेखक बनना ही अपना सबसे करीबी सपना और मकसद हो सकता है. फिर इन दोनों दुकानों की सब किताबें खत्म हो गयीं और मालिकों ने हाथ जोड़ लिए, भइया तुम सब पढ़ चुके. इसी प्रसंग के तुरंत बाद हम फिर से मुजफ्फरनगर आ गये और डैडी चले गये नॉन फैमिली स्टेशन, जोशीमठ, पहाड़ में. इस बार दादा दादी की कोठी नहीं, किराये का घर था. यहां दो खास बातें हुईं– किराये के घर का एक कमरा सड़क पर खुलता था. उस कमरे में मैंने किराये पर चलने वाली किताबों की मिनी दुकान सजा दी.
इस दुकान में गुलशन नंदा वगैरह तो थे ही, आश्चर्य लोक में ऐलिस, पिनोकियो, तीन तिलंगे, रॉबिन हुड, रॉबिन्सन क्रूसो जैसी लोकप्रिय विदेशी पुस्तकों के अनुवाद भी थे. पाठकों की मांग पर लेखकों के नाम जुड़ते गये और दुकान चल निकली. मैं नौवीं कक्षा में पढ़ भी रहा था. दूसरी खास बात यह कि मुजफ्फरनगर से लोकप्रिय दैनिक देहात निकलता था, जिसके संपादक मेरे फूफा जी थे. समय मिलने पर मैं अखबार के कार्यालय और फूफाजी के घर जाने लगा जहां मेरा परिचय अपने फुफेरे भाइयों से हुआ. एक नयी दुनिया खुल रही थी, अखबार की. छपे हुए शब्दों के महत्व की. इस अखबार में जाते रहने के कारण और मेरी साहित्यिक रुचियों को जानने के बाद अखबार के कार्यकारी संपादक गोविंद सिंह वर्मा, जो बुआ के सबसे बड़े बेटे थे, ने मुझे कायदे का लिखने पढ़ने को प्रेरित किया. यहां मेरे जीवन में प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन, प्रसाद, निराला आदि ने प्रवेश किया. यहां मैंने अपने जीवन की पहली कहानी आशीर्वाद लिखी जो दैनिक देहात में छपी. मैं कुछ दिनों तक बौराया सा घूमता रहा, यकीन नहीं हो रहा था कि मैं लेखक बन गया हूं. इन्हीं दिनों मेरा परिचय राजकुमार गौतम नामक युवक से हुआ जो मेरी ही तरह लेखक बनने के लिए प्रयासरत था. हम दोनों के किस्से यहां नहीं. जीवन का यह पहला लेखक दोस्त आज भी मेरे जीवन में बना बसा हुआ है. इसके कारण मैं बाकायदा असली साहित्य के संसार में प्रविष्ट हो गया. तभी दैनिक देहात के पते पर मेरे नाम एक चिट्ठी आयी, जीवन की पहली चिट्ठी. मेरठ के श्रीपाल सांगवान ने लिखा था-बधाई लेकिन यथार्थ का सामना तुम्हें हज्जाम की चौखट पर पहुंच कर होगा. मैं चकरा गया. मुझे तब चिट्ठी का मतलब ही समझ नहीं आया था. पर मैं खुश था कि मेरी कहानी पढ़कर एक पाठक का खत आया. यह नयी दुनिया बन ही रही थी कि पिता हमें लेने आ गये. अब हमें मुजफ्फरनगर का सब कुछ छोड़कर देहरादून जाना था. मैं दसवीं कक्षा पास कर चुका था.
४.
स्कूल के दिनों की मस्तियाँ और आवारागर्दी के बारे में बताएं. क्या ऐसा लगता था कि घर में जो वर्जित है, वही बाहर की दुनिया में स्वछंद है?
मेरा घर आम घरों जैसा नहीं था. मेरी मां की एक टांग छत से गिरकर स्थायी रूप से टूट गयी थी. तब मैं मां के पेट में था. पिता नौकरी के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे. घर, मां और छोटे भाइयों को मुझे ही संभालना होता था. ऐसे हालात में था ही कौन जो घर में कुछ कामों को वर्जित करता और कुछ की स्वीकृति देता. इसलिए आवारागर्दी वाला जीवन बारहवीं के बाद शुरू हो पाया और खूब हुआ. स्कूल के दिनों की मस्तियों के नाम पर मिलिट्री के सिनेमा हॉल में पुरानी फिल्में देखना और स्कूल से भाग कर शहर के सबसे बड़े गार्डन कंपनी बाग में घूमना या फिर खनूजा और कालरा बुक डिपो में किताबें खंगालना ही पूंजी के तौर पर याद आता है.
५.
अपने घर के बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं. पिता, कितने भाई-बहन, रिश्तेदार इत्यादि. क्या बहुत बाद में आपके लेखन में कभी इन सबकी प्रतिकृतियां आ पाई? और आपके जीवन में आपका बचपन किस तरह से स्मृतियों में या जीवन जीने के ढंग में साथ रहा ?
मेरा घर एक आम भारतीय की तरह मध्यवर्गीय घर था- आम सुखों दुखों से घिरा हुआ. जीवन को लेकर मेरे पिताजी का एक जुमला था- कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना, कभी वो भी मना. तो कभी हम लगातार मटन, फिश और चिकन खाते रहते थे तो कभी सचमुच गुड़ चना खा कर सो जाते थे. आगरा में हम छह थे- मां, पिता, मैं, छोटे भाई वीरेंद्र, मुकेश, प्रकाश. छोटा भाई वीरेंद्र कुशाग्र बुद्धि का था लेकिन स्कूली पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था. कम नंबर आने पर पिता उसे पीटते थे तो वह उग्र प्रतिवाद में बदल जाता था. आठवीं में आते आते वह पागल हो गया. दुनिया भर के इलाज के बाद भी वह आज भी वैसा ही है- दुनिया में रह कर भी दुनिया से बाहर. मेरी कहानी ‘चीख‘ पूरी तरह उसी पर केंद्रित है. मुकेश, प्रकाश छोटे थे. देहरादून में तीन भाई और एक बहन और पैदा हुए. सबसे छोटा दिमागी बुखार के कारण डेढ़ साल में ही चल बसा. कुल बचे छह- पांच भाई एक बहन. मुकेश अपने परिवार के साथ जोधपुर में है, प्रकाश अपने परिवार के साथ दिल्ली में. बहन उपमा बीकानेर में है अपने परिवार के साथ. एक भाई अनूप अस्थाना, जो एयर फोर्स में था, दो साल पहले गुजर गया. उसकी पत्नी रीता और दो बेटियां फरीदाबाद में हैं. वीरेंद्र और संदीप भी जोधपुर में ही हैं मुकेश के साथ. मां और पिता दोनों दिवंगत हो चुके हैं.
एकाग्र होकर तो नहीं लेकिन यह परिवार और उसकी उलझनें मेरी कहानियों में उपस्थित हुई हैं. मां और पिता तो बहुत बार आए हैं- हूबहू नहीं, चरित्र के रूप में.
आगरा यानी बचपन, देहरादून यानी जवानी. बीच में है मुजफ्फरनगर जहां मेरे बनने बिगड़ने और बिखरने के दिन हैं. यह जिंदगी का सबसे कठोर समय है. इस समय में पिता हमारे साथ नहीं हैं, वह नॉन फैमिली स्टेशन जोशीमठ में थे, मां अपाहिज थी और भाई छोटे. यह समय मां और भाइयों की देखभाल में ही बुझ गया लेकिन इसी समय में लेखक बनने का सपना उग गया. देहात अखबार और राजकुमार की दोस्ती ने इस समय को खुली आंखों देखे सपने में बदल दिया.सपना है तो संघर्ष अनिवार्य है.
तो रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष के साथ ही सपनों के लिए संग्राम भी चल निकला. दौड़ते दौड़ते बारहवीं पास हो गई और पिता हमें लेने मुजफ्फरनगर आ पहुंचे. उनका तबादला देहरादून हो गया था और उन्हें प्रमोशन भी मिल गया था. अब वह सुपरवाइजर थे. दल बल सहित यह परिवार देहरादून पहुंचा तो मैं लेखक तो नहीं बना था मगर लिखना सीख गया था.
६.
देहरादून में ऐसा क्या-क्या हुआ, जो आपके जीवन में पहली बार हुआ और जो अंततः आपके जीवन का हिस्सा बन गया. मसलन लिखना, सिगरेट, शराब और प्रेम. इन पर विस्तार से बताएं.
जैसे खुल जा सिमसिम कहने से अलीबाबा की गुफा खुल जाती थी, ठीक वैसा ही मेरे साथ देहरादून में प्रवेश लेने के साथ होता चला गया. किशोरावस्था विदा ले चुकी थी, युवावस्था ने हाथ थाम लिया था. बारहवीं पास हो गयी थी. अब कॉलेज जीवन की आकर्षक और रोमानी दुनिया सामने थी अपने पूरे रोमांच के साथ. रहने के लिए आगे पीछे दो–दो आंगनों वाला सरकारी घर मिल गया था लेकिन बड़ा होता जा रहा परिवार और पिता की बंधी बंधायी सीमित तन्ख्वाह के चलते आर्थिक स्थिति विकट बनी हुई थी. देहरादून में दुखद दिनों की शुरुआत छोटे भाई वीरेंद्र के पूर्णतः पागल हो जाने से हुई. अंदर वाले आंगन के एक हिस्से में उसका जीवन सीमित कर दिया गया. उसका खाना पीना दवा और सोना सब वहीं होने लगा. उसका पागलपन हिंसक नहीं था, बस वह दुनिया के बाहर चला गया था. वह दुनिया के बाहर गया और मैं घर के बाहर निकल गया. चकरौता रोड पर बसी हमारी सरकारी कालोनी वाले इलाके को प्रेमनगर कहते थे. जिस मोड़ से एक सड़क चकरौता जा रही थी और दूसरी सड़क प्रेमनगर के बाजार में घुस रही थी, उसकी एकदम जड़ में कोने वाली छोटी सी पान सिगरेट बीड़ी की दुकान अपना अड्डा बन गयी. इसे ब्रह्मप्रकाश नाम का युवक चलाता था जिससे अपनी दोस्ती हो गयी. इस दुकान पर दो और युवाओं से दोस्ती हुई. एक का नाम प्रेम और दूसरे का नाम दिगंबर था. प्रेम बेरोजगार था जबकि दिगंबर के पास एक छोटी मगर सरकारी नौकरी थी.
इस बीच शहर के सबसे बड़े डीएवी कॉलेज में अपने को बीए के प्रथम वर्ष में दाखिला मिल गया और विधिवत कॉलेज जीवन शुरू हो गया. लेकिन पिता के फक्कड़पने के कारण रहने और जीने की स्थितियां अभी भी विपन्न और दुर्घटनाओं भरी थीं. शराब, गोश्त और जुआ पिता को मेरे दादा से विरासत में मिला था. यहां जिस रोज़ थाली में मुर्गा होता था उसके अगले दो रोज़ तक सिर्फ गुड़ चना भी हो सकता था. यहां फिल्म देखने के लिए जिस दिन पांच रुपए मिल सकते थे उसके अगले कई दिनों तक घर से कॉलेज की दूरी नापने के लिए बस का टिकट खरीदने की चवन्नी अपने पान वाले दोस्त ब्रहमप्रकाश से मांगनी पड़ सकती थी. यहां बाप और दादा में मल्लयुद्ध होते देखा और यहीं मां को पिता के हाथों पिटते देखा. और यहीं पिता के विरुद्ध एक बेचैनी, एक प्रतिवाद और एक अवज्ञा को मन में आकार लेते भी पाया.
पिता के विरुद्ध पहला प्रतिवाद मैंने यह किया कि चारमीनार की सिगरेट फूंकते हुए पूरे प्रेमनगर के चक्कर काट आया ताकि शाम तक यह खबर उन तक पहुंच जाये. खबर उन तक पहुंची भी लेकिन वे उसे पचा गये तो मैं एक रात, पहली बार शराब पी आया और घर में आकर उल्टी कर दी (वह पहली उल्टी थी. तब से आज तक जीवन में शराब कितनी ही पी ली हो पर उल्टी कभी नहीं की). इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो मैंने रातें अक्सर घर के बाहर बितानी शुरू कर दीं.
इस बीच प्रेम ने बाजार में एक पकौड़े कटलेट और चाय की दुकान खोल ली. कहते हैं कि प्रेम का सगा बड़ा भाई मनोहर इलाके का नामी दादा था और उसके देहरादून के दो बड़े गुंडों भरतू तथा बारू में से किसी एक से गहरे रिश्ते थे. यह भी बताते हैं कि मनोहर ने कच्ची शराब की एक भट्टी दूर कहीं जंगल में लगा रखी थी. यह शराब प्रेम की चाय की दुकान पर भी बिकने लगी थी. अंधे को क्या चाहिए,दो आंखें. मैं और दिगंबर अपनी रातों का लंबा हिस्सा प्रेम की दुकान पर गुजारने लगे. कच्ची शराब एक स्टील के गोल ड्रम में भरी रहती थी. बारह आने देने पर उस ड्रम से नल चला कर कांच का एक गिलास भर दिया जाता था जिसे एक सांस में गटक कर निकल लेना होता था. मतलब यह नियम ग्राहकों के लिए था. दो गिलास पीने से भरपूर नशा हो जाता था.
अब समस्या डेढ़ रुपए की शराब, आठ आने की पकौड़ी, आठ ही आने की छह चारमीनार की सिगरेट यानी ढाई रुपए रोज कमाने की थी. रास्ता प्रेम ने ही निकाला. वह बोला, भाई आप तो जानते ही हैं कि प्रेमनगर में जो रामलीला होती है वह मनोहर भाईसाहब ही करवाते हैं. आप इतना अच्छा गाते हैं, रामलीला के इंटरवल में दो चार गाने गा दिया करो, एक गाने का बीस रुपए दिलवा दिया करूंगा.
यह तो बहुत बड़ा ऑफर था, मैं तुरंत राजी हो गया. रामलीला के नौ दिनों में गाने गाकर मैं सात आठ सौ रुपए कमाने लगा. कभी दर्शकों से टिप मिल जाती तो कमाई नौ सौ, हजार रुपए तक पहुंच जाती. तो इस तरह अपनी कच्ची दारू, पकौड़ी, सिगरेट और गायकी चल निकली.
यह सन् 1974 के जाते हुए महीने थे. मैं देहरादून के साप्ताहिक अखबार वैनगार्ड में काम करने लगा था. वहां काम करते रहकर मेरा परिचय शहर के सभी प्रमुख लेखकों कवियों से हो गया था. सुभाष पंत जैसे नामचीन लेखक के संपादन में निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका सिलसिला में मेरी पहली कहानी लोग हाशिए पर छप कर चर्चित हो चुकी थी. देशबंधु जैसा विकट लेखक और संवेदनशील व्यक्ति मेरे जीवन में घर कर चुका था. मेरा बीए प्रथम वर्ष का पास बताने वाला रिजल्ट घोषित हो गया था. मैंने द्वितीय वर्ष में प्रवेश ले लिया था और डीएवी कॉलेज के पीछे वाली एक गली में बीस रुपए महीने पर किराये का कमरा ले लिया था. सब कुछ ठीक चल रहा था कि 26 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू हो गया. जनवरी 1976 में मेरी पहली कहानी सिर्फ धुआं सारिका जैसी बड़ी पत्रिका में छपी तो मेरी साहित्यिक दुनिया में तूफान आ गया. आपातकाल अपना चेहरा दिखा रहा था. जिंदगी सिमट गई थी, देश सन्नाटे के हवाले था. दुष्यंत कुमार की कविता गूंज रही थी– सोचना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार. 1977 के पूर्वार्ध वाले महीने में सारिका में दूसरी कहानी छपी- आयाम. इसे पढ़ कर हल्द्वानी से किसी ललिता बिष्ट ने खत लिखा. ये खत लंबे होते चले गए और 13 जून 1978 को यही ललिता मुझे सुबह–सुबह सोते से उठा रही थी और बता रही थी, तुरंत शादी करो. पीछे–पीछे गुस्सैल पिता आते होंगे. इस बीच आपातकाल हट चुका था और मैं अपना ग्रेजुएशन पूरा कर चुका था.
७.
आवारागर्दी के बीच देहरादून में लिखने का समय और इच्छा किस तरह से निर्मित की जाती थी. लेखक होने की स्थायी महत्वाकांक्षा पैदा होने में देहरादून ने किस तरह की भूमिका निभाई?
हर लेखक के लिखने की अपनी विशेष प्रक्रिया होती है. मेरी भी थी और आज भी वही है. मेरे अवचेतन में कहानी चलती बनती बिगड़ती रहती है. पात्रों की संरचना होती रहती है, मूल कथा के ताने-बाने में उपकथाएं ढलती रहती हैं. फिर एक समय आता है जब मुझे लगता है, कहानी लिखने का यह सटीक क्षण है. बस, मैं खुद को सब चीजों से काटकर एकांत में चला जाता हूं और अपनी मेज़ सजा लेता हूं.इस मेज़ पर मैं रचनाकार होता हूं और एक जीवन रच रहा होता हूं. एक या डेढ़ दिन की निरंतर बैठक में मेरी कहानी पूरी हो जाती है. लघु उपन्यास दस से बारह दिन में लिख लिया जाता है. मैंने 1974 में लिखना शुरू किया और 1978 में शादी करके दिल्ली आ गया. तो, देहरादून में तो मैं कुल चार कहानियां ही लिख पाया. मगर लिखने की मानसिकता, परिपक्वता और वहीं बने रहने की जरूरत देहरादून में ही विकसित और गतिशील हो गयी थी. दिल्ली ने इस रचनात्मक स्थिति को जमीन और आसमान दिया. बाद का लंबा समय तो दिल्ली में ही जीने जूझने और रचने में बीता, बीतता रहा. दो उपन्यास और बत्तीस कहानियां तो मैं दिल्ली में ही लिख चुका था. वैविध्यपूर्ण और विराट अनुभवों की साक्षी तो दिल्ली ही है.
8.
दिल्ली में आने रहने बसने और जीने के संघर्ष काल में हुए कुछ ऐसे किस्सों के बारे में बताएं जो आपको अब तक एक पुलक या सिहरन से भर देते हों और जो अब तक कहीं छपे भी न हों.
हां ऐसी कई यादें बातें हैं जो आत्मकथा जिंदगी का क्या किया में शायद नहीं आयीं. एकदम शुरू से ही लो. जब शादी के तीन महीने बाद ललिता भी मेरे साथ रहने राजकमल प्रकाशन के गेस्ट हाउस में आ गयी (शीला संधु जी ने दिल्ली में किराए का घर मिलने तक मुझे अपने प्रकाशन का गेस्ट हाउस रहने के लिए दे दिया था.) तो एक बार मैंने अपने देहरादून वाले खास दोस्त, कथाकार सुरेश उनियाल, से उसे मिलवाते हुए कहा,यह मेरा बाप है. ललिता आश्चर्य से बोली, यू मीन फादर? मैंने कहा, फादर नहीं बाप और हम दोनों हंस पड़े. फिर ललिता बहुत दिनों तक इस मामले को लेकर कन्फ्यूज़ रही.
एक और याद इससे भी पहले की है. नौकरी के ठीक एक महीने बाद पहली तनख्वाह लेकर मैं दरियागंज से बस लेकर देहरादून जाने के लिए अंतरराज्यीय बस अड्डे को रवाना हुआ. सर्दियां शुरू हुई थीं, मैंने कोट पहन रखा था मगर उसके बटन खोल रखे थे. दोनों हाथों से ठसाठस भरी बस के हैंडल पकड़ कर किसी तरह खड़ा हुआ था कि अचानक किसी ने कोट की जेब में हाथ डाल कर पर्स निकाला और चलती बस से बाहर कूद गया. जीवन में पहली बार मेरी आंख के सामने मेरी जेब कट गयी थी.लाल किले के स्टाप पर बस से उतर कर मैं वापस पैदल पैदल अपने गेस्ट हाउस की तरफ बढ़ चला. अब मैं पूरे एक महीने तक ललिता को लाने देहरादून नहीं जा सकता था. यह बेदिल दिल्ली के साथ मेरा पहला अनुभव था. उसके बाद से आज तक मैं पैसों को एक जगह नहीं रखता.
एक वाकया दरियागंज में गोलचा सिनेमाघर के पास हुआ. हम रात छह से नौ का शो देखकर निकले थे. ललिता को वहीं इंतजार करने को बोल मैं कुछ पीछे सिगरेट लेने चला गया. लौटा तो ललिता वहां नहीं थी, मैं घबरा गया. बदहवास मैं दौड़ता हुआ पहले आगे गया फिर पीछे आया. वह मोबाइल फोन तो दूर लैंडलाइन फोन का भी आम और सहज जमाना नहीं था. मैं बुरी तरह घबराया हुआ था. सोचिए, हमारी शादी को कुल पांच महीने हुए थे और अभी तक हम ठीक से सैटल भी नहीं हुए थे. हमारे पास न तो कोई बैंक अकाउंट था, न राशन कार्ड,न मैरिज सर्टिफिकेट और न ही कोई आई कार्ड. नवंबर की दिल्ली वाली सर्दियों में मैं पसीने पसीने था. तभी सड़क के उस पार, राजकमल प्रकाशन के बंद शटर के सामने मुझे कुछ शोर और लोगों का हुजूम नज़र आया. मैं सड़क पार कर अपने दफ्तर के बाहर पहुंचा तो मेरे होश उड़ गए. सन् 1978 का समय था. स्कर्ट और टॉप पहनने वाली ललिता ने एक आदमी का कालर पकड़ा हुआ था और वो आदमी गिड़गिड़ा रहा था,बहन जी छोड़ दो, गलती हो गई. भीड़ अपने काम में जुटी थी- आदमी पर लात, घूंसे, चांटे बरसा रही थी. मुझे देख ललिता गरजी, साला कह रहा था,चलो चलिए. चल, अब पुलिस चौकी चल. मामले को रफा-दफा कर हम आदमी को छोड़ गेस्ट हाउस पहुंचे तो मैंने राहत की सांस ली. आज भी ललिता को छेड़ना होता है तो मैं कहता हूं- चलो, चलिए.
राजकमल का गेस्ट हाउस फर्स्ट फ्लोर पर था, जिसमें हम रहते थे. नीचे राजकमल का गोदाम था जिसमें किताबें रखी रहती थीं. शोरूम कम ऑफिस में किताबें कम हो जाने पर इसी गोदाम से मंगायी जाती थीं. उन दिनों हर किताब का पूरा संस्करण एक बार में ही छाप कर रख दिया जाता था इसलिए हर बड़े और मझोले प्रकाशक को एक गोदाम भी लेकर रखना होता था. तो, राजकमल के गोदाम में हर समय आवाजाही लगी रहती थी. 25 दिसंबर 1978 की रात में मैंने ललिता के साथ अपना गरीब सा बाईसवां जन्मदिन मनाया. गरीब सा मतलब मैं दफ्तर खत्म होने के बाद दरियागंज से एक व्हिस्की का क्वार्टर और ढाई सौ ग्राम मटन लाया. मटन में दो आलू डालकर ललिता ने बहुत लज़ीज़ आलू मीट तैयार किया. रात साढ़े ग्यारह बजे हम खा पीकर सो गए. सुबह नौ बजे रोज़ की तरह मैं दफ्तर पहुंच गया. दफ्तर आये मुश्किल से डेढ़ घंटा हुआ था कि गोदाम में काम करने वाला एक कर्मचारी चेतराम घबराया सा मेरी टेबल के पास आया और बोला, घर पर बुलाया है. मैं सेल्स मैनेजर को बता कर भागा. ललिता जमीन पर बिछे बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी. उसे बहुत असहनीय दर्द हो रहा था पेट में. हम तुरंत रिक्शे में बैठकर दरियागंज के कस्तूरबा अस्पताल की इमरजेंसी में पहुंचे. दवाई और इंजेक्शन वगैरह लेकर घर आ गए. पता चला इसे डिलीवरी का फाल्स पेन कहते हैं जो अक्सर गर्भवती महिलाओं को हो जाता है. हम थोड़ा चिंतित हो गए क्योंकि एक जनवरी से हमें दिल्ली में अपने पहले किराये के कमरे में शिफ्ट करना था और हमारे पास मुश्किल से डेढ़ दो सौ रुपए थे.
(दोनों बेटों के साथ मुंबई के पहले घर में : अगस्त 1990) |
यह पहला किराये का घर था– एफ 2172 नेताजी नगर. यहां से सफदरजंग अस्पताल और एम्स दोनों दो किलोमीटर की दूरी पर थे. सरोजिनी नगर का छोटा-सा सरकारी अस्पताल तो सिर्फ एक किलोमीटर दूर था. सुरेश उनियाल भी इसी कालोनी में रहता था सुषमा के साथ. तो नये साल के पहले दिन हम नये घर में आ गए जिसके मकान मालिक एक पंजाबी सज्जन थे. लगभग ढाई महीने बाद इसी घर में हम दोनों तेईस साल की उम्र में मदर फादर बने. 13 मार्च 1979 को सरोजिनी नगर के अस्पताल में ललिता ने आशू को जन्म दिया. संयोग यह कि उस दिन होली थी
मड़कन निवास, शाहदरा. सन् 1980 . एक रात ललिता कमरे के सामने वाले आंगन में मछली की तरह तड़पने लगी. दर्द से बेहाल. मड़कन आंटी अपने फैमिली डॉक्टर को बुलाकर लायी. उसने बैरालगन नाम का इंजेक्शन लगाया और बोला, किडनी का पेन है, सुबह एम्स में ले जाइए. दफ्तर नौ बजे शुरू हो जाता था, शीला जी ठीक नौ बजे अपने चैंबर में होती थीं. मैं ललिता के साथ नौ बजे शीला जी के सामने था. आज भी नाम याद है- शीला जी ने एम्स के डॉक्टर आत्मप्रकाश को फोन किया था. एक घंटे बाद हम एम्स में थे. आपरेशन के लिए ललिता को खून की जरूरत थी, मेरा खून मैच नहीं हो रहा था. देवदूत बनकर राजकमल प्रकाशन से दीपक नाम का लड़का आ पहुंचा. उसने खून दिया तो ललिता का आपरेशन हुआ. यह लड़का आज भी राजकमल में काम कर रहा है. इस दीपक के हम दोनों कृतज्ञ हैं और पहली बार इस घटना को सार्वजनिक कर रहे हैं.
मैं अच्छा भला नेताजी नगर में रह रहा था मगर एक कमरे में रहना पड़ रहा था. मकान मालिक अपने पास कमरा और किचन रखते थे. टॉइलेट बाथरूम पर पहला अधिकार मालिक और उसके परिवार का होता था. इस चक्कर में और तो कुछ नहीं लेकिन दफ्तर पहुंचने में रोज़ देर हो जाती थी. जैसे ही राजकमल का कांच का गेट खोलकर मैं भीतर घुसता था दफ्तर के सभी कर्मचारी पहले मुझे फिर अपनी घड़ी देखने लगते थे. यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं थी लेकिन जिस आलोचना पुस्तक परिवार का मैं इंचार्ज था, उसकी दिन दूनी रात चौगुनी बिक्री के कारण शीला संधु मुझसे खुश रहा करती थीं. साथ काम करने वाले जगदीश ने प्रस्ताव दिया कि मुझे साऊथ दिल्ली का मोह छोड़ देना चाहिए, वह हम जैसे निम्न मध्यवर्गीय लोगों के लिए नहीं है. मुझे शाहदरा में रहना चाहिए जहां नेताजी नगर और सरोजिनी नगर के किराए में मुझे सैपरेट घर मिल सकता है. उसकी सलाह मानकर मैं शाहदरा शिफ्ट तो कर गया लेकिन दो साल में तीन मकान बदलने पड़े तो हम दोनों का मूड उखड़ गया. हम फिर सरोजिनी नगर आ गये, एक सरदार जी के मकान में.
यह मकान मालिक बहुत बढ़िया निकला, एकदम यारबाश और गर्मजोशी से लबरेज़, जैसे कि आमतौर पर सरदार होते हैं. इसी घर में 4 अगस्त 1984 को दूसरे बेटे राहुल का जन्म हुआ. इससे बहुत पहले मेरी नौकरी दिनमान में लग चुकी थी—1981 के अंत में. राहुल के जन्म के फौरन बाद हमारे पास यमुना विहार में रहने का आॅफर आया. दिनमान के चीफ सब एडिटर महेश्वर दयालु गंगवार के मुंबई में रहने वाले छोटे भाई राजेश्वर गंगवार का घर खाली हुआ था.नयी नयी बसी यमुना विहार कालोनी बहुत करीने से बनी थी, फर्स्ट फ्लोर पर सैपरेट अपार्टमेंट था. और क्या चाहिए था. हम सितंबर 1984 में इस घर में शिफ्ट हो गए. यहां सब कुछ बढ़िया चल रहा था कि एक राष्ट्रीय दुर्भाग्य घट गया. 31 अक्टूबर 1984 की सुबह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और उसके बाद तो तीन दिन दिल्ली सिख विरोधी दंगों में जलती रही, जिसके बारे में सब जानते हैं.
किस्से अरबों हैं और बहुत सारे आत्मकथा में आ भी चुके हैं. लेकिन यहां जो बताया वह अब तक अप्रकाशित है. इसलिए इस सवाल से इसी जगह विराम लेते हैं.
९.
दिनमान में काम करते हुए उस दौर की पत्रकारिता से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ या किस्से साझा करना चाहेंगे? साथी पत्रकारों के रवैये और कार्य पद्धति से जुड़े कुछ रोचक संस्मरण.
मैं जब दिनमान से जुड़ा तब उसका बौद्धिक वैभव ढलान पर था. मगर उस ढलान से उतरते हुए भी जीवन में बहुत कुछ जुड़ता चला. अज्ञेय जी के संपादकीय दबदबे और रौब रुतबे की स्मृतियां दिनमान के विशाल हॉल में इधर-उधर टहलती मिल जाती थीं. रघुवीर सहाय जी के समकालीन सर्वेश्वरदयाल सक्सेना दिनमान में कार्यरत थे. कन्हैयालाल नंदन संपादक थे जो मुझे और उदय प्रकाश को लेकर आए थे. बहुत पुराने लोगों में त्रिलोक दीप थे जो आज भी सक्रिय हैं. प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज जैसे वरिष्ठ कवि और कला मर्मज्ञ थे. महेश्वर दयालु गंगवार हमारे मुख्य उप संपादक थे. सबसे नये होने के कारण सहज ही मेरी और उदय प्रकाश की जोड़ी बन गई जम गई. देर शाम सब अपना अपना काम हम दोनों के कमजोर कंधों पर डाल निकल लेते थे. महीने में बीस दिन हम दोनों रात बारह बजे तक भी काम करते पाए जाते थे. उदय प्रकाश कहा करता था- तुम देखना धीरेन्द्र, पांच सौ साल बाद जब इस बिल्डिंग की खुदाई होगी तो हम दोनों यहां प्रूफ पढ़ते मिलेंगे.
पत्रकारिता के इतिहास में इस बिल्डिंग का पता ऐतिहासिक महत्व का होगा. इसका पता है– दस, दरियागंज. यहां से दिनमान, सारिका, पराग, खेल भारती और वामा जैसी अमूल्य पत्रिकाएं निकलती थीं. मुझे याद है जब संस्कृति पुरस्कार के लिए मेरा नाम सर्वेश्वर जी ने प्रस्तावित किया था तब उनसे पूछा गया था कि हमेशा दस दरियागंज वालों के नाम ही क्यों आते हैं. सर्वेश्वर जी का जवाब था- सारी क्रीम यहीं रहती है, क्या करूं?
इस बिल्डिंग के लोगों ने हिंदी को ढेर सारे नये शब्द और मुहावरे दिए हैं. नायाब स्लोगन दिए हैं. दस्तावेज़ी रिपोर्टें और फीचर्स दिए हैं. हिंदी के इतिहास पुरुष इसी बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ते उतरते रहे हैं. यहां अरबों किस्से सांस ले रहे हैं. हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के नामी-गिरामी लोगों का इस बिल्डिंग से गहरा नाता रहा है. यह बिल्डिंग ढह सकती है लेकिन यह पता- दस दरियागंज- इतिहास में चला गया है.
1981से 1986 तक के लिए यह मेरा भी पता रहा. यहां के ढेर सारे अनुभव मेरी आत्मकथा में आ चुके हैं.
१०.
1986 के बाद यह पता क्यों बदल गया? नये पते पर कितनी छोटी बड़ी लकीरें आप खींच पाए?
इसके कारण भी दिनमान के नये मैनेजमेंट की कार्य प्रणाली में निहित थे. मैनेजमेंट की छमाही मीटिंग में दिनमान की शुक्ला रुद्र जी ने प्रश्न किया- हमारे जो लोग छोड़ कर चले जाते हैं उनको हम ज्यादा सेलरी और बड़ा पद देकर वापस बुला लेते हैं मगर जो संस्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं वे यथास्थिति में पड़े रहते हैं, ऐसा क्यों है? मालकिन ऋचा जैन ने तपाक से जवाब दिया- वो रिस्क लेते हैं, फिर बाहर जाकर खुद को साबित करते हैं तो हम उनके जोखिम लेने के साहस का सम्मान कर उन्हें वापस बुला लेते हैं. बस, अपना माथा सनक गया. इस मीटिंग के फौरन बाद एक और घटना घटी. इश्तहार छपे कि दिल्ली से हिंदी के पहले साप्ताहिक अखबार के रूप में चौथी दुनिया निकलने वाला है. इसके संपादक, सहायक संपादक, समाचार संपादक थे रविवार साप्ताहिक के संतोष भारतीय, रामकृपाल और कमर वहीद नकवी. उन दिनों मैं रविवार में छपने वाला खास नाम था तो मुझमें यह सहज आत्मविश्वास था कि तीनों मुझे जानते ही होंगे. अगले दिन मैं दोपहर एक बजे चौथी दुनिया के दफ्तर में था. तीनों संपादक केबिन में खाना खा रहे थे. मैंने अपना नाम भीतर भिजवा दिया. करीब दस मिनट बाद तीनों बाहर आये और एक साथ बोले, धीरेन्द्र जी, कल सुबह दस बजे से आप हमें ज्वाइन कर रहे हैं.
तो इस प्रकार मेरा पांच साल पुराना पता बदल गया और डाक शकरपुर, विकास मार्ग, दिल्ली के पते पर आने लगी. चौथी दुनिया में गज़ब की स्वतंत्रता और निजी अनुशासन था. आम दफ्तरी नियम वहां नहीं चलते थे. दस से छह का औपचारिक टाइम-टेबल था लेकिन असली समय काम से जुड़ा था. काम के प्रति जुनूनी छोकरे भर्ती किये गये थे जो अपने झोले में पेस्ट, ब्रश, टॉवल और अंडरगार्मेंट ले कर चलते थे. दफ्तर सातों दिन चौबीस घंटे खुला रहता था, हूबहू किसी बड़े अस्पताल की तरह. जिसको जब फुर्सत मिलती थी, अपना टिफिन खा लेता था या नीचे बने ढाबे में चला जाता था. दफ्तर में शराब पीना वर्जित था इसलिए पीने वाले छत पर जाकर पी आते थे और काम में लग जाते थे. मुझे याद नहीं कि रात बारह बजे से पहले कोई घर के लिए निकलता था, लड़कियां भी. हां, देर रात होने पर लड़कियों को गाड़ी घर छोड़ आती थी. मुझे भी रोज़ रात दफ्तर की गाड़ी ही घर छोड़ती थी. चौथी दुनिया में बीता मेरा समय पत्रकारीय कैरियर का स्वर्ण काल कह सकते हैं. अखबारों का अखबार कहे जाने वाले चौथी दुनिया में मैंने कुल 85 संपादकीय, दस स्पेशल कवर स्टोरी, पचास से ज्यादा फीचर लिखे.
(सबरंग के दफ्तर में,नयी चुनौती का स्वीकार : जुलाई 1990) |
मेरे उपन्यास हलाहल का धारावाहिक प्रकाशन यहीं हुआ. और लिखने का तरीका भी अजब–गजब था. जिस दिन कलर पेज छूटना होता था उस दोपहर कमर वहीद नकवी मुझे छह ट्रांसपेरेंसी थमा कर संपादक के केबिन में बंद कर देते थे. उन ट्रांसपेरेंसी को देख समझ कर मुझे एक फीचर लिखना होता था. इस तरह लिखे मेरे दर्जनों फीचर सुपर हिट हुए. यह जानना दिलचस्प होगा कि चौथी दुनिया में काम करने वाले अधिकतर युवा आगे चलकर स्वतंत्र संपादक बने.1989 के उत्तरार्द्ध में चौथी दुनिया के कठिन दिन शुरू हुए जो कालांतर में एक दुस्वप्न में बदल गये और अंततः चौथी दुनिया बंद हो गया. 33 साल की उम्र में मैं सड़क पर आ गया था. आने वाले नौ महीनों तक मैं दिल्ली शहर में बेरोजगार रहा और बेदिल दिल्ली वाले मुहावरे को अपने ऊपर घटते देखता रहा.
16 जून 1990 को मैं पश्चिम एक्सप्रेस पकड़ कर मुंबई चला गया, दैनिक जनसत्ता ज्वाइन करने. इसके बाद की कहानी आत्मकथा में दर्ज है.
११.
उम्र के इस पड़ाव पर देहरादून और दिल्ली के अपने उस सफर को आप कभी-कभी ऐसे भी देखते होंगे कि वहाँ और बहुत कुछ किया जा सकता था, जो आप किन्हीं कारणों से नहीं कर पाए. ऐसे कुछ अफसोस बताइएं.
देहरादून को लेकर तो कोई अफसोस नहीं है क्योंकि जब शादी के फौरन बाद दिल्ली आया तब उम्र ही कितनी थी- कुल साढ़े इक्कीस साल. इतनी सी उम्र में छात्र नेता कहलाता था, तीन कहानियां छप चुकी थीं, उनमें भी दो सारिका जैसी दिग्गज पत्रिका में. कहानीकार के तौर पर देश में पहचान मिल गयी थी. अब तो अपने प्यार और आकांक्षा के साथ नया जीवन शुरू करना था और जिसका न्यौता दिल्ली से मिल चुका था.
दिल्ली में भी मैं खुद को साबित कर चुका था. मेरी जितनी कम औपचारिक शिक्षा थी उसे देखते हुए मैं उससे ज्यादा पा चुका था जितने का हकदार था. पहले राजकमल, फिर राधाकृष्ण, फिर दिनमान और फिर चौथी दुनिया में अपने होने को सिद्ध कर चुका था.दो उपन्यास, चार कहानी संग्रह छप चुके थे. संस्कृति अवार्ड पा चुका था. दिल्ली में अपना खुद का घर बना लिया था. दो बेटों का पिता था. और यह सब मैं मात्र चौंतीस साल की उम्र में हासिल कर चुका था. इसलिए दिल्ली में भी ऐसा कोई खास काम या मिशन बचा नहीं था जिसे पूरा न कर पाने का कोई अफसोस है.
अब तो जो भी करना था उसके लिए मुझे देश की आर्थिक राजधानी मुंबई बुला रही थी. और सत्रह जून उन्नीस सौ नब्बे की दोपहर दो बजे मैं पश्चिम एक्सप्रेस से बोरीवली स्टेशन पर उतर रहा था.
तीन बार समाप्त हो कर मुझे चौथी बार फिर शुरू होना था.
लेकिन ठीक इसी जगह थोड़ा ठहरकर उन अफसोसों को याद कर लिया जाए जिन्हें लेखकों के अफसोस कहते हैं. मेरा पूरा जीवन शहरों महानगरों में बीता. बहुत बहुत चाहने के बावजूद मैं कभी गांवों के जीवन को जीना तो दूर उससे रिश्ता भी नहीं बना पाया. गांव हमेशा मेरे लिए नदी के द्वीप बने रहे. और इसका भारी नुक्सान यह हुआ कि देश की अस्सी प्रतिशत ग्रामीण आबादी मेरे लेखन से नदारद रही. दूसरा अफसोस यह रहा कि एक सिटिंग में लिखने की प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्ति के कारण मैं कभी अधिक पन्नों के उपन्यास नहीं लिख पाया. सौ सवा सौ पन्ने मेरी सीमा बने रहे. यही वजह है कि मेरी कुछ बेहतरीन कहानियां, जो उपन्यास बन सकती थीं, लंबी कहानियां बन कर रह गयीं. जैसे नींद के बाहर, आदमीखोर, मानसी, खुल जा सिमसिम, युद्धरत, प्रतिसंसार. ये सब औपन्यासिक कहानियां हैं.
सबसे बड़ा रचनात्मक अफसोस यह है कि किसी गुट या गॉडफादर का संरक्षण न होने के कारण मेरी कहानियों को आलोचक वर्ग द्वारा पढ़ा तक नहीं गया. मैं केवल पाठकों के कारण पनप सका लेखक हूं. और इसीलिए मैं आज तक पाठकों को ही माई बाप मानता आया हूं.
एक दो भौतिक अफसोस भी हैं. बंबई आने के बाद मैंने कभी नहीं चाहा था कि मेरा दिल्ली का घर बिक जाए. मगर कुछ फालतू किस्म की घरेलू समस्याओं के कारण दिल्ली के घर को बिकना पड़ा.
लेकिन कोई बात नहीं. मुंबई में तो अपना घर है न.
और वो लेखक ही क्या अफसोस जिसका पीछा न करते हों. मेरा भी करते हैं. ज्यादा न लिख पाने का अफसोस, विदेशी भाषाओं में अनुवाद न होने का अफसोस,लेखन से पैसा न मिलने का अफसोस, अपने देश को पूरा क्या चौथाई भी न देख पाने का अफसोस. आदि आदि.
१२.
जीवन को किस तरह से समेटना चाहेंगे. क्या और लिखना चाहते हैं ? किन-किन शहरों में अपने मित्रों के साथ थोड़ा वक्त गुजारने की इच्छा है ? कुछ ऐसे सपने, जो आप जानते हों कि कभी पूरा नहीं होने वाले?
यह तो डरा देने वाला सवाल हो गया. जाल समेटा जैसी ध्वनि आ रही है. अपने मन का सब कुछ कहां कभी हो पाता है, अक्सर ही तो हम परिस्थितियों के अनुसार बर्ताव करने लगते हैं. हां लेकिन कुछ चीजें बातें इच्छाएं हैं जो लगता है कि मूर्त्त हो जाएं तो सुकून मिलेगा.
यूं तो जीवन को लगभग समेट ही लिया है. लिखने पढ़ने और खाने पीने में समय बीत रहा है. घूमने का शौक है लेकिन जुनून नहीं है, केवल वही यात्राएं करता आया हूं जो सुखकारी थीं. तन मन को अशांत करने वाली घटनाएं अब नहीं भातीं, उनसे किनारा कर लेने को अहमियत देता हूं. यही नजरिया रिश्तों को लेकर भी आ गया है. अब जीवन में झाड़ झंखाड़ नहीं चाहिए इसलिए चालीस नहीं चार दोस्त चाहिए जो साथ खड़े रहने का भ्रम न दें बल्कि खड़े हुए दिखें. शोरगुल से भरे शहर में मैंने अपना एकांत चुन लिया है. जीवन के इस उत्तरार्द्ध में मैं निर्मल वर्मा जैसा हो जाना चाहता हूं. बहुत चुना हुआ पढ़ना लिखना चाहता हूं. नार्थ–ईस्ट के शहरों में जाने का सपना था जो अब शायद फेफड़ों की कमजोरी के कारण सच नहीं हो पाएगा. गोवा, देहरादून, आगरा, कोलकाता, शिमला देखे हुए हैं लेकिन इन सब में बीस बीस दिन बिताने का मन है. केरल, कश्मीर और पंजाब नहीं देखा, इनको भी देखना जीना चाहता हूं. और इलाहाबाद, बनारस भी तो देखना है अभी.
कोलकाता में हिंदुस्तान के सबसे बड़े ओपन एयर बार में तुम्हारे साथ बैठकर पीनी है और चीनिया बादाम तथा उबले हुए अंडे खाने हैं. इसे शक्ति दा (शक्ति चट्टोपाध्याय) का बार कहा जाता है न. पटना, जयपुर, उदयपुर, जोधपुर, नागपुर, भोपाल, इंदौर, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, नोएडा के अपने दोस्तों के साथ कुछ दिन बिताने हैं. कम से कम दो उपन्यास और लिखने हैं– पहला, अपने अस्पताल में बिताए रोमांचक दिनों के अनुभवों को लेकर. दूसरा, मुंबई के हर क्षेत्र के स्ट्रगलर्स के जीवन और संघर्ष और जिजीविषा के बारे में.दूसरा उपन्यास तो मैं पिछले दस साल से सोच और गुन रहा हूं.
यहां एक निजी जीवन से जुड़ी पेचीदगी को शेयर करना चाहता हूं. इस पेचीदगी का हल्का सा इशारा मैंने अपनी नयी कहानी ‘बहादुर को नींद नहीं आती‘ में भी किया है. मेरे दो बेटे हैं- ऋत्विक और राहुल. दोनों मीडिया में हैं. ऋत्विक एंटरटेनमेंट में है, राहुल क्राईम रिपोर्टर. दोनों की शादी हो चुकी है. राहुल अपनी पत्नी के साथ बोरीवली में रहता है और ऋत्विक मीरा रोड में बड़ा फ्लैट लेकर मीरा रोड में ही रहता है लेकिन हमारे घर से करीब चार किलोमीटर दूर. वह अकेला ही रहता है. उसकी पत्नी दिल्ली में है. अब तक तो ललिता जी अकेले दम पर सब निभाती आयी हैं- घर, ट्यूशन, मेरी बीमारी लेकिन अब उनकी भी उम्र हो गई है और उनको भी हाई ब्लड प्रेशर, हाई शुगर,लो हीमोग्लोबिन जैसी तकलीफों ने घेर लिया है. जब शरीर ही जवाब देने लगा है तो जिजीविषा भी कितना साथ देगी. कहने का मतलब यह कि घर, बाजार, अस्पताल सब हम दोनों को अकेले ही करना होता है. कई बार दोनों की हिम्मत नहीं होती तो हम सब्जी के लिए बैठे रहते हैं. ऐसे में खिचड़ी ही विकल्प बनती है.
तो सपना या इच्छा यह थी कि अभी अकारण ही तीन घर, तीन रसोई, तीन खर्च. सब मिलकर एक बड़े घर में रहते तो खर्चे भी आधे रह जाते और वक्त जरूरत एक दूसरे का भौतिक और भावनात्मक संग साथ भी हो जाता. लेकिन लगता नहीं है कि यह सपना कभी पूरा होगा. कारण यही है कि यह मुझ अकेले का सपना है, बाकी किसी की आंख में इसकी प्रतिछाया तक नहीं है. सबकी अपनी-अपनी सीमा, स्वतंत्रता, जरूरत और जीवन शैली है. और मुझे इससे कोई परेशानी भी नहीं है.
लेकिन सपने का क्या,वह भी खुली आंख का सपना.
अंत में यही कि
बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए
(साक्षात्कार सहयोग- डॉ. आलोक कुमार सिंह)
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(मुंबई का एक्सप्रेस टॉवर के पास धीरेंद्र अस्थाना, दूधनाथ सिंह और राकेश श्रीमाल) |
राकेश श्रीमाल पढाई की रस्मी-अदायगी के साथ ही पत्रकारिता में शामिल हो गए थे. इंदौर के नवभारत से उन्होंने शुरुआत की. फिर एकाधिक साप्ताहिक और सांध्य दैनिक में काम करते हुए मध्यप्रदेश कला परिषद की पत्रिका ‘कलावार्ता‘ के सम्पादक बने. इसी बीच कला-संगीत-रंगमंच के कई आयोजन भी मित्रों के साथ युवा उत्साह में किए. प्रथम विश्व कविता समारोह, भारत भवन, कथक नृत्यांगना दमयंती जोशी, निर्मल वर्मा, खजुराहो नृत्य महोत्सव और कला और साम्प्रदायिकता पर कलावार्ता के विशेषांक निकाले. फिर मुंबई जनसत्ता में दस वर्ष काम करने के पश्चात महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से ‘पुस्तक-वार्ता‘ के संस्थापक सम्पादक के रूप में जुड़े. मुंबई में रहते हुए उन्होंने ‘थिएटर इन होम‘ नाट्य ग्रुप की स्थापना की. वे कुछ वर्ष ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के कार्य परिषद सदस्य और उसके प्रकाशन परामर्श मंडल में रहे. दिल्ली में रहते हुए एक कला पत्रिका ‘क‘ की शुरुआत की. उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. फिलहाल कोलकाता में इसी विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केंद्र से ‘ताना-बाना‘ पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं.
पढ़कर आनन्द आ गया..अंतिम पंक्तियों ने भावविभोर कर दिया