गोरख पाण्डेय के लेखन की शुरुआत १९६९ के किसान आंदोलन में उनके जुड़ाव से हुई और वे भोजपुरी में गीत लिखने लगे बाद में वे जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और प्रथम महासचिव बने. उनकी कविताओं का संग्रह ‘स्वर्ग से विदाई’ का प्रकाशन शिवमंगल सिद्धांतकर और अवधेश प्रधान के संयोजकीय में १९८९ में हुआ था.
शिवमंगल सिद्धांतकर इधर कथाकार ज्ञानचंद बागड़ी के सहयोग से संस्मरण की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं जो क्रम से समालोचन पर प्रकाशित हो रहे हैं. अब तक इसके अंतर्गत आपने नलिन विलोचन शर्मा और राजकमल चौधरी के विषय में पढ़ा है. आज गोरख पाण्डेय पर उनका यह स्मृति आलेख प्रस्तुत है.
लेखकों के विषय में उनके सहयोगी और मित्रों के संस्मरण एक तो जहाँ उनके व्यक्तित्व के नये आयामों से परिचित कराकर उन्हें पुनर्नवा करते हैं वहीं उनकी बनी छवि से अलग अगर कोई बात निकलती है तो उसपर तीव्र प्रतिक्रियाएं भी होती हैं.
आज फिर किसान अपने हकों और लोकतंत्र के लिए आंदोलन पर बैठे हैं आज फिर गोरख की याद आ रही है.
ऐसे थे गोरख पाण्डेय
शिवमंगल सिद्धांतकर
कुछ लोगों को कभी-कभी याद करना पड़ता है और कुछ लोग याद से बाहर कभी होते ही नहीं हैं. गोरख पाण्डेय से मेरा संबंध ऐसा था जिनकी याद कभी बाहर होती ही नहीं है. इन दोनों पक्षों के विस्तार में जाऊंगा तब भी वे ओझल नहीं होगें. फिर भी विस्तार में जाने की बजाय मैं गोरख पर ही अपने आपको केंद्रित करूंगा. कारण यह है कि पिछले दिनों नवफासीवादी मोदी, अमित शाह सरकार ने तीन कृषि कानून पारित किए हैं. इन तीनों कानूनों के आधार पर सचेतन आम किसान भी कहता हुआ पाया जा रहा है कि यह कानून हमारे लिए \’डेथ वारंट\’ है. कारण यह है कि आम किसान जब इसे डेथ वारंट कहता है तो ऐसा लगता है इस बात को नहीं मानने वाले किसानों के नेता तर्कजाल तो बिछा सकते हैं, बुद्धि विलास भी करते होते हैं. किसी-किसी किसान द्वारा यहां तक कहना होता है कि इन कानूनों का मसौदा भारत सरकार ने नहीं बल्कि अंबानी और अडानी के टेक्निकल मैनेजरियल साइबरतारियन्स और न्यूप्रोलेतेरियन के मस्तिष्क के उस हिस्से से तैयार किया गया है जो घोर प्रतिक्रियावादी है.
यही वजह है कि इन कानूनों के बारे में सरकार के आला अधिकारी समेत कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री तक किसानों को समझाने या बरगलाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं. जबकि किसानों ने सत्ता केंद्र राष्ट्रीय राजधानी को लगभग चारों ओर से पिछले 26 नवम्बर 2020 से घेर रखा है. किसान नेताओं और सरकार में कई दौर की बातचीत हो चुकी है और कोशिश यह चल रही है कि उस डेथ सेंटेंस को सरकार की ओर से वापस ना करना पड़े और क्यूँ ना आजीवन कारावास की सजा में इसे तबदील कर दिया जाए.
राजधानी को घेरने के तीन पड़ाव अभी तक भूमिका में उतर गए हैं. पहला है सिंधु बॉर्डर, दूसरा टिकरी बॉर्डर और तीसरा गाजीपुर बॉर्डर. इन तीनों ही पड़ाव को तोड़ने के लिए सरकार की तरफ से कोरोना का डर, सत्ता के दमन का डर और आतंकवादी डर फैलाया जा रहा है. सिंधु बॉर्डर पर पत्रकार रवीश कुमार का साक्षात्कार लेते हुए एक पंजाबी युवक ने गोरख पाण्डेय की उस कविता की ओर इशारा किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि लोग डरना छोड़ दें तो सत्ता की क्या बिसात रह जाएगी. कविता इस प्रकार है :
वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उन से डरना
बंद कर देंगे.
(1979,स्वर्ग से बिदाई संग्रह में प्रकाशित)
यहाँ मैं यह बदला देना चाहता हूं कि पिछली सदी में जो दो महाकाव्यात्मक क्रांतियां हुई उनमें सर्वहारा और किसान की भूमिका प्रमुख रही थी. रूस में 7 नवम्बर 1917 को जो सर्वहारा क्रांति हुई उसमें सर्वहारा ने जारशाही के शक्ति केंद्र को शहरों के अंदर से ही घेरा था और चीन में जो क्रांति हुई उसमें किसानों ने शहर में स्थित शक्ति केंद्र को गांवों से घेरा था. मौजूदा समय में किसानों ने अपने डेथ वारंट के खिलाफ मौजूदा सत्ता शक्ति केंद्र को गांवों से घेर रखा है इसमें सर्वहारा के शामिल हो जाने की जरूरत है. फिर दोनों क्रांतियों के फ्यूजन से 21वीं शदी की नई सर्वहारा क्रांति संभव है. जिसके आसार बनते होते हैं. यदि साइबरटारियन्स और न्यूप्रोलेतेरियन्स अपने पक्ष में यानी किसान-मजदूर के पक्ष में सक्रिय हो जाते हैं फिर साईबर साम्राज्यवाद के इस युग में मौजूदा भारत की राज्य सत्ता मिनटों में उलट जायेगी. आज और आज ही कृषि कानूनों के साथ ही श्रम कानूनों में संशोधन की वापसी को जोड़कर मौजूदा प्रतिक्रियावादी सत्ता को उलट सकते हैं. यदि कोरोना के हउवा से बेपरवाह होकर अपनी-अपनी जगह पर अपने पक्ष में नई सत्ता के लिए आंदोलित हो जाते हैं.
केवल पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि सारे देश के किसान संगठन इस आंदोलन में शामिल हैं और गैर वातानुकूलित रेल चलती होती तो पूरे देश का किसान शक्ति केंद्र के चारों ओर एकत्र हो चुका होता. किसान कहते हैं कि मरता क्या न करता. यह बात भी सत्ता केंद्र की ओर से फैलाई जा रही है कि दूसरे देशों के शासक और किसान संस्थाएं भारत के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप कर रही हैं. विडंबना आप समझ सकते हैं सरकार तो सारी दुनिया के देशों के सामने हाथ फैलाती है लेकिन किसान जब संकट में है तो उसके सहयोग को हस्तक्षेप कहना बुद्धि के पैदल चलने के बराबर है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि मौजूदा प्रधानमंत्री यह कहकर सत्ता में आये हैं कि मैं देश नहीं बिकने दूंगा. लेकिन जब से वे आये हैं देशी और विदेशी बुर्जआ घरानों या दूसरे शब्दों में देशी और विदेशी साम्राज्यवादियों के हवाले सरकारी उपक्रमों की बिक्री करते जा रहे हैं और साइबर साम्राज्यवाद के वर्चस्व से देश को गुलाम बनाना चाहते हैं. किंतु वे प्राकृतिक द्वंदवाद में विपरीत के सिद्धांत को नजर अंदाज कर रहे हैं. शायद भुगतने पर ही वे होश में आयेंगे.
मुझे याद आता है कि सिंघु बॉर्डर पर गोरख के गीत जब पंजाब के किसान गा रहे हैं तो गोरख न सही अन्यायी सत्ता विरोधी उनके गीत तो लड़ रहे हैं. किसान गा रहे हैं:
मुझे याद आता है कि जब अफगानिस्तान पर रूसी सैनिक उतर पड़े थे तो उसके विरोध में हम लोगों ने वोट क्लब पर एक प्रतिरोध प्रदर्शन किया था जिसमें गोरख की एक कविता पढ़ी गई थी. जाहिर सी बात है कि गोरख की कविताएँ वर्चस्व के खिलाफ लड़ती रहती हैं.
मेरी स्मृति में आपातकाल के बाद जनकवि गोरख पाण्डेय जब दिल्ली आए तो उनके बारे में, उनके गीतों के बारे में, उनके रहन-सहन और जन्म स्थान के परिवेश के बारे में मुझे बहुत सी बातें बहुतेरे इंडियन पीपल फ्रंट और लिबरेशन के साथियों ने बताई थी. जाहिर सी बात है कि मैंने उनसे मिलने के लिए उत्सुकता दिखलाई. लिबरेशन का कोई साथी उन्हें मुझसे मिलाने के लिए नहीं लेकर आया किंतु एक दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के अध्येता आनंद कुशवाहा उन्हें लेकर मालवीय नगर मेरे आवास पर आए. फिर गोरख से बहुत सारी राजनीतिक और सांस्कृतिक बातें हुई. मैं अपने अंदर यह आशा पालने लगा कि गोरख पाण्डेय को मैं मजदूरों के अपने कार्यक्षेत्र में ले जाऊंगा और देखने को मिलेगा कि उनके बीच इनके गीत कितने प्रभावकारी होते हैं. उस दिन अपने आवास पर मैं अकेला था. मेरी पत्नी अपने ऑफिस और बच्चे स्कूल गए हुए थे. मेरे लिए दोपहर का जो खाना रखा हुआ था उसे ही गोरख, आनंद कुशवाहा और मैंने आपस में बांटकर खाया. आपस में बांटकर खाया हुआ थोड़ा खाना भी कितना अधिक हो जाता है. मैं अपना चेहरा तो नहीं देख सकता था, महसूस जरूर कर रहा था और उनके चेहरे पर संतोष की खुशी के भाव मैंने पढ़े. थोड़ी देर की बातचीत के बाद गोरख को मैंने बताया कि मंगलेश और त्रिनेत्र वगैरह तो मुझे गीत का दुश्मन बताते हैं. किंतु मेरी पत्नी शीला सिद्धांतकर के गायन के सभी कायल हैं और प्रशंसा भी करते हैं. गोरख को मैंने कहा कि अगले रविवार को यदि आप आएं तो मेरी पत्नी जो सितार वादन और हिंदुस्तानी गायन में माहिर हैं तथा सितार की प्राध्यापक भी रह चुकी हैं, वह आपके भोजपुरी गीतों को सुनकर प्रसन्न होंगी और आप भी उनका गायन सुन सकते हैं यदि वे राजी हो गई तो. इसके बाद गोरख पाण्डेय ने रविवार को आने का वादा किया.
अगले रविवार को गोरख पाण्डेय पहुंचे और कहा कि आनंद कुशवाहा को तो कहीं जाना था, इसलिए मैं पैदल ही आ गया, ना जाने कौनसी बस कहां पहुंचा दे. उनकी इस बात से मैं समझ गया कि गोरख इस दुनिया में कम ही रहते हैं. विचार,साहित्य और संगीत में खोए रहते हैं. मैंने उन्हें शीला और बच्चों से मिलवाया. गोरख स्त्रियों और बच्चों के प्रति कितना स्नेह और प्यार रखते हैं यह उनके दांतो की मुस्कान से हमने समझा. शीला ने कहा कि अभी खाना तैयार हो रहा है, आप लोग तब तक बातचीत कीजिए. खाना खाने और गोरख को खिलाने के बाद हम लोग इनके गीत सुनेंगे. इस पर गोरख यह कहते हुए कि भोजन के बाद मैं अपने गीत जरूर सुनाऊंगा, पूरा मुंह खोलकर खिलखिलाए और बोले कि मैं शास्त्रीय संगीत के व्याकरण को तो नहीं जानता लेकिन लोकगीतों की लय की पहचान मैंने कर ली है. उसी को आधार बनाकर मैं नए गीत रचता हूं अथवा लोक प्रचलित पुराने संवेदनात्मक गीतों की पुन: रचना करता हूं. आशा करता हूं कि मेरे गीत आपको पसंद आएंगे.
बाबा ने तो कभी मुझसे गीत सुनाने की फरमाइश नहीं की. यह कहते होते हैं कि आप अपने गीत लिख कर दो तो उन्हें मैं हिरावल में छापूंगा. यहां आने से पहले तो बाबा से मेरी मुलाकात चलते-फिरते कैंपस में ही होती थी और वहीं बातें होती हैं. भोजन के बाद जब हम लोग बैठे तो मैंने गोरख पाण्डेय से कहा कि अब आप भोजपुरी गीतों से शुरूआत करें. उनके दाँत मुसकुराए और अपनी दाढ़ी और बालों पर हाथ फेरते हुए अपनी \”मैना\” वाले गीत से उन्होंने शुरुआत की और कई भोजपुरी गीत गाए. गीत सुनने के बाद शीला ने अच्छा महसूस किया और कहा कि भोजपुरी गीतों की लय और धुन यदि आप पहचान लेते हैं और उसे अपने गीतों में पिरो लेते हैं तो इतना काफी है. शास्त्रीय व्याकरण के लिए खास परेशान होने की जरूरत नहीं है. वह सब तो पढ़ने-पढ़ाने के लिए जरूरी है. उनसे होकर तो कोई विरले ही कोई गीत अथवा गायन की रचना करता है. यह तो शास्त्रीय गीत और गायन के व्याकरण को जानने वालों के लिए होता है जिसका इस्तेमाल वे सहज लिखे हुए गीतों को मीटर में बांधते समय करते हैं. आपके गीतों में और गाने में भी संवेदनशीलता झलकती है और बड़ी बात यह है कि आपके गले में प्राकृतिक तौर पर लय मौजूद है. जिसके पास यह नहीं होता है वह कोशिश करके भी उम्दा कुछ हासिल नहीं कर पाता. यह बात मैं साधारण तौर पर कह रही हूं, अपवाद तो होते ही हैं.
गोरख ने शीला से कहा कि यदि आपका मूड हो तो मैं सितार के साथ आपका गायन सुनना चाहूंगा. इस पर शीला ने कहा कि आज मैं अपने अतीत में चली गई हूं अगली बार जब मिलेंगे तो मैं अवश्य सितार तैयार रखूंगी और मूड को भी ठीक रखने की कोशिश करूंगी. उसके बाद थोड़ी देर तक गोरख मेरे तीनों बच्चों पर स्नेह लुटाते रहे. फिर मैं उनको साथ लेकर बाहर निकला. ख़ुद पान खाया, उनको भी खिलाया और कहा कि पैदल जाने में सहूलियत हो तो पैदल ही चले जाइएगा. फिर लाल सलाम करते हुए वे जेएनयू के लिए चल पड़े.
आपातकाल के बाद मैं हिरावल का दूसरा अंक निकालने की योजना बना रहा था और जनवादी लेखक संगठन हिरावल की ओर से जरूरी गतिविधियां चला रहा था तो उसमें गोरख पांडे ने खास दिलचस्पी नहीं ली. इसका कारण मैं समझता था क्योंकि वह लिबरेशन के नजदीक थे और मैं सी.ओ. सी. में सक्रिय था. लिबरेशन के कुछ लोग उन्हें समझाते रहते थे कि शिवमंगल जी आपसे कविताएं तो मांगते हैं लेकिन उन्हें हिरावल में प्रकाशित नहीं करेंगे. जनवादी लेखक संघटन हिरावल में उनकी दिलचस्पी नहीं थी. फिर हिरावल पत्रिका के संयोजक मंडल में मैंने उन्हें रखना चाहा तो इसके लिए वे तैयार हो गए. मैंने हिरावल पत्रिका के संयोजक मंडल में उन्हें स्थान दे दिया किंतु हिरावल में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही थी. उन्हें संयोजन मंडल में स्थान देने के बावजूद उनसे कोई सहयोग नहीं मिला. जब हिरावल का अंक 1978 में प्रकाशित हुआ तो उसमें गोरख पाण्डेय के सारे भोजपुरी गीत प्रकाशित थे. इन गीतों को सम्मिलित करते हुए एक छोटी पुस्तिका \’भोजपुरी के नौ गीत\’ नाम से अपने संयोजकीय वक्तव्य के साथ जब मैंने प्रकाशित की तो उदय प्रकाश वगैरा ने यह कहना शुरु किया कि गोरख के गीतों के बारे में बाबा का वक्तव्य गोरख को पागल कर देगा.
2018 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जब मैं छात्र नेता ज्योति और नवोदित अर्थशास्त्री आशुतोष के साथ किसी स्टॉल की तरफ जा रहा था तो दस-बारह साहित्यकारों के साथ प्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश टकरा गये और मेरा परिचय उन साहित्यकारों से कराते हुए कहा कि बाबा ने ही गोरख पाण्डेय का साहित्य में प्रवेश कराया था. जाहिर सी बात ही कि उर्मिलेश का इशारा उपर्युक्त संदर्भ की ओर था. इस तरह वर्षों पुरानी स्मृतियाँ ताजा हो गई थीं.
हिरावल 1978 के प्रकाशन के बाद गोरख पाण्डेय से मैंने एक दिन पूछा था कि आप की आगे क्या योजना है? इस पर उन्होंने स्पष्ट किया कि पहले तो मैं जीवन चलाने के लिए थोड़ा बहुत धनार्जन करना चाहता हूं. इसके बाद ही कोई योजना बना पाऊंगा. गोरख पांडेय और आनंद कुशवाहा के सामने मैंने एक सहकारी प्रेस चलाने का प्रस्ताव रखा. जिसका उद्देश्य उनके जीवन को चलाने के एक आधार से था. इसके लिए भी वे लोग वास्तव में तैयार नहीं हुए. फिर संयोजन मंडल के एक-दो सदस्यों के सहयोग से हिरावल के प्रकाशन और जनवादी लेखक संघ हिरावल की गतिविधियों को मैंने आगे बढ़ाया. यह महसूस करते हुए कि ये लोग अपने-अपने ग्रुप से निर्देशित होते होंगे फिर मैंने उन्हें किसी काम में लगाने का इरादा छोड़ दिया.
उसी समय कुछ दिन बाद गोरख पाण्डेय ने बताया कि राधाकृष्ण प्रकाशन से संस्कृत पाठ का हिंदी पाठ तैयार करने का काम मुझे मिल गया है और इससे जो पैसे मिलेंगे उनसे शायद मेरा जीवन चलना संभव हो सके. इसी बीच एक दिन उन्होंने बताया कि मेरा प्रवेश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए हो गया है और मुझे छात्र वृत्ति भी मिलेगी. इसके बाद जहां तक मैं जानता हूं कि वे सार्त्र से संबंधित किसी विषय पर पीएचडी का काम कर रहे थे और उन्हें छात्रवृत्ति भी मिल गई थी.
हॉस्टल में जगह भी मिल गई, इसलिए जीवन चलने लगा था. गोरख और मेरे बीच उनके व्यक्तिगत जीवन की बातें नहीं होती थी लेकिन लोगों से पता चला था कि गांव में उनकी इच्छा के विरुद्ध उनकी शादी तो हुई थी लेकिन इस शादी को उन्होंने मान्यता नहीं दी. उनकी पत्नी घर में तो आ गई थी किंतु पत्नीवत संबंध रखने से उन्होंने इनकार कर दिया था. लोग बतलाते थे कि कुछ दिनों बाद किसी बीमारी से इनकी पत्नी की मृत्यु हो गई. उसके बाद इनके पिता ने दोबारा शादी के लिए कोई आग्रह नहीं किया. गोरख पाण्डेय ने अपनी बुआ के लिए एक कविता लिखी है जिसे वे अकसर सुनाया करते थे. बताते थे कि उनका लालन-पालन उन्होंने ही किया था तथा जिनके प्रति वे आदर भाव और लगाव रखते थे. परिवार के बाकी लोगों से अलगाव महसूस करते थे.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी करते हुए गोरख पूरी निष्ठा से अपने काम को अंजाम दे रहे थे. पार्टी के लोग उनके यहां आश्रय भी लेते थे जिनके खाने-पीने और क्लास लगाने की व्यवस्था उनके कमरे में हो जाया करती थी. कामरेड लोग वहाँ ठहर भी लिया करते थे और पास में पैसा होने पर गोरख उन्हें कुछ दे भी दिया करते थे. अतिवादी एम. एल. ग्रुप के दूसरे लोग इस घटना को अपशब्दों से याद करते थे जिसके बारे में मैंने एक कविता भी लिखी थी.
गोरख पाण्डेय के जेएनयू निवास पर लिबरेशन के नेता अकसर जमे रहते थे और अपनी राजनीति के साथ ही बिरादराना संगठनों की राजनीति से उन्हें अवगत कराते रहते थे. साथ ही मतभेद भी गिनाते होते थे. उसी आधार पर गोरख पाण्डेय दूसरे एम एल के साथियों के साथ व्यवहार करते थे. मैं लिबरेशन में नहीं था लेकिन उस समय के सबसे बड़े संगठन के रूप में सी.पी. रेड्डी वाले सीपीआई एम. एल. पीसीसी में था जिसका विस्तार चौदह राज्यों में था जबकि गोरख पाण्डेय जिस विनोद मिश्र के लिबरेशन में थे उसका अस्तित्व केवल चार राज्यों में था. दोनों संगठनों के मिलने की प्रक्रिया भी चल रही थी और विनोद मिश्र ने इंडियन पीपल फ्रंट की स्थापना के लिए एक सेमिनार का आयोजन पत्र आनंद स्वरूप वर्मा, गौतम नवलखा, जय सोम के नाम से लिखा और 35, फिरोजशाह रोड वाले हॉल में आयोजित करवाया था जिसमें अन्य संगठनों के साथ ही लिबरेशन और सी पी रेड्डी पीसीसी के लोगों को विशेष तौर पर बुलाया गया था, क्योंकि दोनों ने मिलकर इंडियन पीपल फ्रंट का गठन करने की सोची थी.
इस सेमिनार को निरंकुशता विरोधी सेमिनार बतलाया गया था और गैर राजनीतिक संगठनों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था. पीसीसी का नाम लिए बिना मैंने करीब चालीस- पैंतालिस मिनट तक सेमिनार में अपना भाषण जारी रखा और गैर राजनीतिक अवधारणा को खारिज करते हुए अपने वक्तव्य का समापन किया. इस अवसर पर गोरख पाण्डेय को कुछ लोगों ने मेरे वक्तव्य के खिलाफ बोलने के लिए उकसाया और वे मंच के ऊपर पहुंच गए लेकिन अध्यक्ष मंडल के अध्यक्ष ने उन्हें सख्ती से नहीं बोलने के लिए हिदायत दी. फिर वे अपनी जगह पर जाकर बैठ गए. मेरे बोलने के बाद उपस्थित लोगों में से अधिकतर लोग मेरे पक्ष में हो गए थे, इसका अनुमान अध्यक्ष मंडल ने कर लिया था. जब भोजन अवकाश हुआ तो सी. पी. रेड्डी नेतृत्व के एक-दो आदमी जो इसमें पहुंचे हुए थे उनमें से एक कामरेड फणी बागची ने मुझे बताया कि वार्ता टूट गई है. सेमिनार चलता रहा और पीसीसी इंडियन पीपल फ्रंट में शामिल नहीं हुआ. इससे ज्यादा यहां बतलाने की जरूरत नहीं है.
यहाँ जन संस्कृति मंच की स्थापना की बात करना बहुत जरूरी है. जिसकी स्थापना महासचिव गोरख पाण्डेय के नेतृत्व में 1985 में हुई थी. राष्ट्रीय अध्यक्ष नाटककार गुरशरण सिंह को बनाया गया था.
जन संस्कृति मंच की स्थापना जब हुई उस समय मैं लिबरेशन में शामिल नहीं हुआ था लेकिन मुझे याद है कि जन संस्कृति मंच स्थापना सम्मेलन के अध्यक्ष मंडल में मेरे शामिल होने के लिए गोरख पाण्डेय मेरे साक्षरा अपार्टमेंट आवास पर आए और मुझ से लिखित स्वीकृति प्राप्त की और यथासमय, यथास्थान मैंने इस काम को पूरा किया. संक्षेप में यह बतला देना चाहता हूं कि जसम की स्थापना में गोरख पाण्डेय की भूमिका लेने का निर्णय जिस लिबरेशन ने किया वह महत्वपूर्ण था. जिसे गोरख पाण्डेय ने अनेक राज्यों में घूम-घूम कर और पत्र लिखकर जसम में शामिल होने के लिए संभावित लेखकों को राजी किया. इसके साथ ही गुरशरण सिंह को जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर आसीन कराने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी जिसके पीछे राजनीतिक व्यक्तित्वों का भी परोक्ष प्रभाव था.
जसम के संगठन में गोरख पाण्डेय ने पहली बार और निश्चित तौर पर अंतिम प्रयास किया और जब यह संगठन विवादों के घेरे में फंसने लगा तो वे बहुत दुखी हो गए थे और चाहते थे की दूसरा कोई महासचिव पद संभाले. स्थापना सम्मेलन से पहले आधार पत्र तैयार किए जाने के दौरान ही यह विवाद खड़ा हो गया था कि जन संस्कृति मंच इंडियन पीपल फ्रंट का घटक बने अथवा स्वायत्त रहे.
जेएनयू में उच्चतर तबके से लेकर आर्थिक रूप से निम्नतर तबके के लोगों को भी प्रवेश मिल जाता था. उच्चतर तबके से आए हुए लड़के-लड़कियों की जीवन शैली और व्यवहार अलग होता था जो पिछड़े और निम्नतर तबकों से आए हुए लड़कों से मेल नहीं खाता था. पिछड़े और निम्नतर तबके से आए हुए लड़के और लड़कियां अपनी कुशाग्रता के बावजूद फैशनपरस्ती में धनी लड़के-लड़कियों से घुल- मिल नहीं बन पाते थे. लेकिन प्रेम और यौन संबंध अथवा आकर्षण तो नैसर्गिक होता है. इसलिए पिछड़े और निम्नतर तबके के छात्र यदि उच्चतर तबके की सुंदर लड़की से आकृष्ट हो जाता था, प्रेम करने लगता था, यौन भाव से आकृष्ट हो जाता था अथवा अपना प्रेम भाव रखने लगता था तो अकसर मानसिक तौर पर बीमार हो जाया करता था.
पिछड़े इलाके से आये हुए गोरख पाण्डेय कुशाग्र बुद्धि तो थे किंतु उच्चतर तबके की किसी लड़की के प्रति आकृष्ट अथवा प्रेमिल हो गए तो उनका असहज हो जाना अस्वाभाविक नहीं माना जाएगा. गोरख पाण्डेय के साथ भी यही हुआ कि वे एक उच्चतर आर्थिक तबके से आने वाली लड़की के प्रति आकृष्ट हो गए. उसे चलते-फिरते देख सकते थे. खिड़कियों से देखते थे लेकिन साथ बैठकर चाय पीना या विचार-विमर्श करना संभव नहीं था क्योंकि वे अपनी सीमा से बाहर जाकर अभद्र या छिछोरा व्यक्ति कहलाये जाने से डरते थे. दूसरे शब्दों में अंदर से भद्र होने की वजह से कोई प्रेमिल चेष्टा नहीं कर सकते थे. संभवतः इस लड़की के प्रति एक कविता भी उन्होंने लिखी थी लेकिन इनका मिलना कभी नहीं हुआ. यह उनके जीवन की गाँठ इतनी बड़ी थी कि वे सिजोफ्रेनिक हो गये.
यह एक ऐसी त्रासदी थी जिसका इलाज किसी और के पास नहीं था. सिजोफ्रेनिया जब हद से बाहर जाने लगा तो उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के मनोचिकित्सा विभाग में भर्ती कराया गया. पार्टी की तरफ से उनकी देख-रेख में कार्यकर्ता भी लगाए गए लेकिन थोड़ा बहुत सुधार हो जाता, फिर बीमारी बिगड़ जाती थी. पीएचडी का काम पूरा कर देने की वजह से छात्रवृत्ति मिलनी की बंद हो गई थी. पीडीएफ के लिए भी प्रयास करते रहे लेकिन बार-बार सिजोफ्रेनिया के शिकार हो जाते थे. अस्पताल से लौटने के बाद विश्वस्त महसूस कर रहे थे.
अस्पताल से वापस आने पर मैं जेएनयू में उनसे मिला था. मैंने उनसे कहा कि यह सिजोफ्रेनिया कुछ नहीं है. प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी को सिजोफ्रेनिया के दौर से गुजरना पड़ता है. आप चिंता नहीं करें और लिखना शुरू करें, यह अपने आप दूर हो जाएगा. इस पर उन्होंने कहा कि बाबा दिमाग खाली हो गया है, कुछ उपजता ही नहीं है. जीवन का कोई अर्थ समझ नहीं आता. फिर मैंने वही बातें दोहराई जो पहले कह चुका था. उन्होंने कहा कि लिखना तो बिल्कुल नहीं हो रहा है. मैंने अपनी बात दोहराई और कहा कि आप अस्वस्थ हैं, स्वास्थ्य लाभ कीजिए. हम सब लोग जो सोचते रहे हैं उसे ही व्यवहार में लाने के लिए सब लोग अपनी-अपनी जगह पर तैनात हैं. आप से मिलने का समय कोई निकाल पाता है या नहीं निकाल पाता लेकिन सभी लोग वही काम कर रहे हैं जो आप और हम सब लोग सोचते रहे हैं. कोई भी व्यक्ति आपके प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता. सब लोग आपकी सोच- समझ और गीतों और कविताओं का सम्मान करते हैं.
जन संस्कृति मंच ने अपनी इलाहाबाद की बैठक में यह फैसला भी लिया था कि हर महीने एक निश्चित धनराशि उन्हें दे दी जाए ताकि ढंग से खा-पी सकें और रह सकें. पार्टी के सहयोग से इसे पूरा किया जाना था. इलाहाबाद से लौटकर मैंने उन्हें इस फैसले से अवगत कराने की पहल तो की किंतु मेरी उनसे मुलाकात नहीं हो पाई.
बीमारी से तंग आकर उन्होंने अपने पैतृक गांव पंडित के मुड़ेरा, देवरिया जिला, उत्तर प्रदेश वापस जाने का फैसला कर लिया था और टिकट भी बुक करा लिया था जिसकी जानकारी हम लोगों को नहीं थी. सादतपुर कार्यालय में 29 जनवरी 1989 के दिन जब स्थानीय पार्टी की मीटिंग चल रही थी तो पार्टी के एक कार्यकर्ता ने सूचना दी कि गोरख पाण्डेय ने आत्महत्या कर ली है. हम सभी लोग अवाक रह गए और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचे. उनके कमरे पर पुलिस पहुंच चुकी थी और उनका सुसाइड नोट पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया था. उनके शव को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया गया था. सुसाइड नोट में गोरख पाण्डेय ने लिखा था कि मैं बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर रहा हूं. इसका जिम्मेदार मैं खुद हूं, इसलिए किसी को तंग नहीं किया जाए. गोरख पाण्डेय ने हस्ताक्षर के साथ में तारीख भी लिख दी थी. मैंने सोचा कि उनके पिता को बुलाने के बाद ही दाह संस्कार किया जाए. फिर पता चला कि उनके पिता को विश्वविद्यालय की तरफ से सूचना भेजी जा चुकी है. दाह संस्कार के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसरों से मिलकर दाह संस्कार की बात मैंने कही तो एम. एल. की विचारधारा से जुड़े एक प्रोफेसर ने तो बेरुखी दिखाते हुए यहां तक कह दिया कि \”दाह संस्कार की चिंता क्यों कर रहे हैं शिवमंगल जी, बगल में ही श्मशान घाट है, ले जाकर जला दीजिए.”
यह सुनने के बाद मेरे पास बोलने के लिए कुछ नहीं रह गया था. अपने साथियों को एकत्रित करके कैंपस में ही बैठा, फिर पार्टी को सूचना दी. पार्टी के साथ विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि कल जब उनके पिता आ जाएंगे तब शव यात्रा निकलेगी. तब तक उनके पिता की सूचना भी आ गई थी कि वह कल सुबह पहुंच रहे हैं. तय हुआ कि शव को जेएनयू सिटी सेंटर ले जाकर दर्शन के लिए रख दिया जाए. कल वहीं से शव यात्रा निकलेगी और उनके सभी दोस्त, मित्र और संगठनों को बुला दिया जाए. अगले दिन जेएनयू सिटी सेंटर के सामने शव को सम्मान पूर्वक रखा गया और तय हुआ कि यहां कुछ लोग बोलेंगे भी. उसके बाद में पैदल ही शव यात्रा निकलेगी और निगमबोध घाट पर अंतिम संस्कार किया जाएगा. उस दिन दिल्ली में कुछ ऐसा था दिल्ली में किसी पब्लिक कार्यक्रम की इजाजत नहीं थी. पुलिस ने कहा कि जुलूस तो नहीं जा सकता. गोरख के सहपाठी डीपी त्रिपाठी पहुंचे हुए थे, उन्होंने कहा कि मैं अभी उपराज्यपाल को फोन करता हूं, जुलूस जरूर निकलेगा. उन्होंने उपराज्यपाल को फोन किया तथा उधर से पुलिस को कहा गया. इस तरह पूरे सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार किया गया जिसमें सैकडों लोग उपस्थित थे.
दूसरे दिन जेएनयू कैंपस में अनौपचारिक तौर पर हम लोग आठ-दस आदमी बैठे हुए थे, जिनमें केदारनाथ सिंह भी शामिल थे. जहाँ गोरख पाण्डेय की कृतियों के प्रकाशन के विषय में बात चल रही थी तो प्रोफेसर केदारनाथ सिंह ने प्रस्ताव रखते हुए गोरख पाण्डेय के पिताजी को कहा की गोरख पाण्डेय की प्रकाशित और अप्रकाशित कृतियों का कॉपीराइट शिवमंगल सिद्धांतकर के नाम कर दीजिए. इस पर उनके पिता जी तैयार हो गए और एक पत्रक लिखा गया जिसमें मैंने सुझाव दिया शिवमंगल सिद्धांतकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जन संस्कृति मंच लिखते हुए अधिकार पत्र मुझे दिया जाए और इसी आशय का पत्र तैयार हुआ जिसे उनके पिताजी ने अपने हाथों से लिख कर मुझे सौंप दिया.
इसके एक-दो दिन बाद मैंने जेएनयू सिटी सेंटर में ही शोक सभा की सूचना जारी की. बिरदराना संगठनों और लेखकों की उपस्थिति से 35, फिरोजशाह रोड जेएनयू सिटी सेंटर का हॉल खचाखच भरा हुआ था. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष गुरशरण सिंह के आने की थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद मैंने कार्यक्रम की शुरुआत कर दी. बीच में ही गुरुशरण सिंह आए और बिना किसी औपचारिकता के मंच पर पहुंचकर अपनी कुर्सी पर आसीन हो गए. बिना किसी व्यवधान के सभा चलती रही. बोलने वालों में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और अन्य बहुत से साहित्यकार मेरे द्वारा एक-एक कर बुलाए जाते रहे और सभी ने भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए गोरख पाण्डेय के जन कवित्व और लोक व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धांजलि देते रहे. सबसे पहले मैंने नामवर सिंह को बोलने के लिए आमंत्रित किया जो मंच पर ही आसीन थे. उन्होंने कहा कि-
\”गोरख जी के बिना जो संगठन और लोग अपने को विपन्न महसूस कर रहे हैं, उन्हीं में से एक मैं हूं. हिंदी के वे पहले कवि हैं, जिसने आत्महत्या की. इस घटना से हम स्तब्ध हैं. इस बात को कोई नहीं जान सका या नहीं जान सकता कि उन्होंने आत्महत्या क्यों की. आत्महत्या एक ऐसा रहस्य है, जो अपनी रहस्यात्मकता में भयावह हैं. इस बात से मुझे यह लगता है कि वे बहुत बहादुर आदमी थे. हमारी तरह कायर नहीं. जो लोग हत्या करते हैं यानी दूसरों का प्राण लेते हैं, वे कायर होते हैं. लेकिन उन्होंने अपने प्राण लिए यह एक असाधारण बात है.वैसे भी राजनीतिक कविता लिखना मुश्किल काम है, क्रांतिकारी कविता लिखना और भी मुश्किल काम है लेकिन राजनीतिक-क्रांतिकारी कविता लिखना असंभव काम है, जो गोरख जी ने कर दिखाया.\”
इसके बाद मैने कवि केदारनाथ सिंह को बुलाया जिन्होंने अपने संबोधन में कहा कि-
\”गोरख पाण्डेय के अचानक उठ जाने से समकालीन साहित्यिक परिदृश्य और विशेषता: युवा लेखन के बीच जो गहरी रिक्तता पैदा हुई है, वह लंबे समय तक अनुभव की जाएगी. वे एक युवा साहित्यकर्मी, जनचेतना से संपन्न कवि तथा समाज और संस्कृति के विभिन्न मोर्चों पर संघर्षरत योद्धा थे.\”
(नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के उपरोक्त दोनों वक्तव्य जन संस्कृति मंच द्वारा मरणोपरांत प्रकाशित गोरख पाण्डेय के कविता संग्रह \”स्वर्ग से बिदाई\” संकलन के कवर पृष्ठ पर दिए गए हैं).
बड़े लेखकों में केदारनाथ सिंह को मैंने सबसे अधिक दुखी पाया. इसके बाद मैंने एक नए स्वयं घोषित माओवादी लेखक को जब बुलाया तो उन्होंने समय और अवसर का असम्मान करते हुए गोरख पाण्डेय के राजनीतिक साथियों पर हमला बोलते हुए उन्हें चोर तक कह डाला. मैंने जानबूझकर हस्तक्षेप नहीं किया, किंतु कालांतर बाद मैंने एक कविता लिखी कि गोरख के दोस्तों को आपने चोर कहा वह सुनते रहे. चोर को चोर कह कर तो देखो….
गुरशरण सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गोरख पाण्डेय की आत्महत्या की स्थितियों के बारे में बीमारी का हवाला देते हुए गोरख पाण्डेय को एक विद्रोही जन कवि के रूप में विश्लेषित करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की और कहा कि जन संस्कृति मंच अपनी कार्यकारिणी की अगली बैठक में गोरख पाण्डेय की स्मृति पर अन्य कार्यक्रमों को तय करेगा जिसमें आप सभी लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी. इसके बाद उपस्थित साहित्यकारों, कलाकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैंने कहा कि जैसा जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा है कि हम लोग जसम की कार्यकारिणी की अगली बैठक में तय करेंगे कि गोरख पाण्डेय के रचना संसार से उपलब्ध धरोहर के विकास के लिए क्या कुछ करेंगे. इसके साथ ही गोरख पाण्डेय को लाल सलाम के नारे के साथ डेढ़-दो घंटे चली सभा समाप्त हुई.
मरणोपरांत जन संस्कृति मंच के निर्णय के अनुसार मैंने और अवधेश प्रधान ने संयुक्त रूप से उनकी एक कविता पुस्तक \”स्वर्ग से बिदाई\” का संपादन संयोजन किया. पुस्तक में प्रकाशित संयोजीकीय मैंने लिखा जिस पर अवधेश प्रधान ने सहमति जाहिर कर दी. इसलिए संयोजकीय वक्तव्य पर मेरा और उनका नामोल्लेख है. जिसे मरणोत्तर स्मृति संस्मरण के दस्तावेज के रुप पढ़ा जा सकता है.
गोरख के जवार के रहने वाले उनके एक मित्र जनार्दन प्रसाद शाही ने 2019 में मुझे बताया था कि गोरख पाण्डेय घर-द्वार, जमीन-जायदाद के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे. ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बावजूद गांव की दबी कुचली जातियों के बीच जाते रहते थे और उन से अपनापन रखते हुए कहते थे कि अपने हिस्से की जमीन मैं आप लोगों में बांट दूंगा. इस तरह लगता है कि निजी संपत्ति के प्रति उनका लगाव लगभग नहीं के बराबर था. इसके पीछे मैं समझता हूं एंगेल्स के निजी संपत्ति, परिवार और राज्य की अवधारणा से निकलते हुए अथवा पार्टी क्लास के प्रभाव में उनका दिमागी सांचा वैसा बन गया होगा. जो उनके अंदर विशेष मानवीयता और बराबरी की अवधारणा सृजित कर गया होगा.
जनार्दन प्रसाद शाही ने अपनी पढाई के दिनों के एक प्रसंग को याद करते हुए मुझे यह भी बतलाया कि जब इलाहाबाद में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन \’अज्ञेय\’ का सम्मान लेखकों द्वारा बड़ी तैयारी के साथ किया गया था. इस सम्मान समारोह में गोरख पाण्डेय के साथ मैं, कई नए लेखक और छात्र उस सभा में पहुंचे और तय किया गया कि गोरख पांडेय भी कुछ बोलें. इसकी सूचना सम्मान समारोह के अध्यक्ष मंडल को दे दी गई थी. गोरख पाण्डेय जब मंच पर बोलने के लिए गए तो अपने क्रांतिकारी तेवर में बोलना शुरू किया और यहां तक कह दिया कि मुक्तिबोध ने मरकर जितना किया है उतना अज्ञेय ने जीकर नहीं किया. उसके बाद अफरा-तफरी मच गई और गोरख पाण्डेय मंच से उतरकर अपनी जगह पर आकर बैठ गए. कहने का मतलब यह है कि गोरख पाण्डेय किसी नामी-गिरामी बुर्जुवा हस्ती को चाहकर भी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे.
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शिवमंगल सिद्धांतकर
शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ ज्ञान चंद बागड़ी |
कविता संग्रह : आग के अक्षर, वसंत के बादल, धूल और धुआं, काल नदी, दंड की अग्नि और मार्च करती हुई मेरी कविताएं समेत 15 काव्य संग्रह.
आलोचना : \’अलोचना से आलोचना और अनुसंधान से अनुसंधान\’, निराला और मुक्तछंद, निराला और अज्ञेय: नई शैली संस्कृति, आलोचना की तीसरी आंख आदि
वैचारिक : \’विचार और व्यवहार का आरंभिक पाठ\’, परमाणु करार का सच, New Era Of Imperialism and New Proletarian Revolution, New Proletarian Thought, Few First Lessons in Practice इत्यादि
संपादन : गोरख पांडेय लिखित स्वर्ग से विदाई, पाश के आसपास, आंनद पटवर्धन लिखित गुरिल्ला सिनेमा, लू शुन की विरासत, नाजिम हिकमत की कविता तुम्हारे हाथ, भगत सिंह के दस्तावेज, जेल कविताएं आदि तथा पत्रिकाओं में दृष्टिकोण, अधिकरण, हिरावल, देशज समकालीन और New Proletarian Quarterly आदि उल्लेखनीय हैं.
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ज्ञान चंद बागड़ी
वाणी प्रकाशन से \’आखिरी गाँव\’ उपन्यास प्रकाशित
मोबाइल : ९३५११५९५४०