दिवंगत छायाकार अशोक माहेश्वरी की याद
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वह कोई किस्सागो या कवि-कथाकार नहीं था, फिर भी उसका अंदाजेबयाँ और कैमरे की आँख श्वेत-श्याम की ऐसी रचना कर देती जिसका सम्मोहन दिनों तक घेरे रहता. तीस साल पहले की सर्दियों की वह सुबह आज भी उस यात्रा के लिए यदा-कदा उकसाती है जिसका बयान घर की छत पर चाय पीते कुछ-कुछ यूँ किया था– कभी.
जब अपने आसपास और विदिशा से मन उचाट होता तब साँची के स्तूप और बेतवा मेरी पनाहगाह बनते. उस दिन ऐसे ही खिन्नमना में बेतवा के पुल पर खड़ा उसके प्रवाह को देख रहा था.
पुल से उतरा तो अनायास बेतवा के बहाव की दिशा में चलने लगा. ऊबड़-खाबड़ टीलों, झाड़-झंकाड़ और किनारे पर खड़े इक्का-दुक्का आम के पेड़ों को पार करके देर तक ऐसे ही चलता रहा. लुकाछिपी का खेल खेलती बेतवा कभी नज़रों से ओझल हो जाती और फिर अकस्मात बिहँसती किसी ऊँचे टीले के पीछे खो जाती.
मन और शरीर सारे लगावों और स्मृतियों से मुक्त भारहीन…हवा के साथ बहता हुआ, सिर्फ अपने होने का अहसास भर…ऊँचे टीले से सटी एक कच्ची पगडण्डी पर चलने लगा. इस समय बेतवा कहीं गोलाई में घूमती हुई दूर चली गयी थी.
टीले के पास पेड़ की छाँव में बारह-तेरह साल की साँवली लड़की टोकरी में मुरमुरे और चने लिए बैठी थी. मैं उसके पास चला आया– दो रुपये के मुरमुरे दोगी– मैंने दस का नोट उसकी ओर बढ़ाया. उसने बोरी के सिरे को तनिक सा उठा झाँका और ‘नहीं’ में गर्दन हिला दी. कोई बात नहीं…छुट्टा वापसी में ले लूँगा– मैंने उससे कहा. अखबार के पुराने टुकड़े पर चने मिले मुरमुरों के साथ एक नमक की पुड़िया उसने मुझे पकड़ायी.
मुरमुरे खाते मैंने पूछा– ‘‘कहाँ रहती हो?’’ उत्तर में उसने उसी दिशा की ओर इशारा किया जिस ओर मैं जा रहा था.
“मुझे कोई आता-जाता नहीं दिखा. तुम्हारे मुरमुरे बिक जाते हैं.’’- वह हँस दी—‘‘सोंची बाजार जाने-आने वाले यहाँ बेतवा में गोता लगाने रुक जाते हैं.’’
‘‘बेतवा…वह तो दिखाई नहीं दे रही.’’- मैंने असमंजस से पूछा, उसने नीचे खड्ड की ओर इशारा किया- मैंने पानी के लिए मटकी उठाई. मटकी में बहुत थोड़ा पानी शेष था. मटकी खाली करते मैंने कहा-‘‘बेतवा से बातें करने जा रहा हूँ. तुम्हारी मटकी भरकर ले आऊँगा.’’
खड्ड की उतराई रपटीली थी. कैमरे और मटकी में संतुलन साधे नीचे उतरा. विस्मित कर देने वाला मनोहारी दृश्य. उस निर्जन प्रांत में किल्लोल करती बेतवा. तट का एक हिस्सा स्वच्छ और पारदर्शी ताल का आकार लिए. पैंट, कुर्ता उतार और उनके नीचे कैमरा छिपा मैं आँखें मूंद एक चट्टान पर टिक गया—बेतवा के मद्धिम संगीत की लहरियों के आरोह-अवरोह में देर तक खोया रहा.
मटकी उठाये ऊपर पगडण्डी पर पहुँचा तो देखा लड़की व्यग्रता से मेरी दिशा में तक रही थी. पास पहुँचा तो उसने बंद मुठ्ठी खोली—छुट्टे सिक्के.
‘‘मुझे भूख लगी है. सभी के चने-मुरमरे दे दो.’’- मटकी नीचे रखते मैंने कहा.
कुछ देर विश्राम के बाद उठा. कैमरे को उसके चेहरे की ओर फोकस करते पूछा—‘‘तुम्हारा एक फोटो उतार दूँ?’’
वह प्रसन्न हो आयी. वृक्ष के तने से सटकर खड़ी होते उज्ज्वल हँसी के साथ मेरी ओर देखने लगी.
‘‘तुम्हारे फोटो के साथ दुबारा यहाँ आऊँगा.’’- मैंने उससे विदा ली.
सूरज ढलने लगा था. वापिस लौटने की चिन्ता से बेपरवाह मैं आगे बढ़ने लगा. जंगली पीले, बैंजनी फूलों वाली झाड़ियाँ और अनजाने से पेड़…दूर से आती लयबद्ध सुरीली घंटियों के सहारे पगडण्डी अब कहीं नहीं थी. मेरे कदमों के तेज करते ही घण्टियों के स्वर खामोश हो गए.
मैं वहीं स्थिर खड़ा हो गया. कुछ क्षण बाद सुरीली घंटियाँ फिर सुनाई देने लगीं. चलने के साथ घंटियाँ थम जातीं और रुकते ही फिर शुरू हो जाती. देरी तक यही सिलसिला चलता रहा. मेरी पदचाप उन्हें पसंद नहीं आ रही थी. मैं अब दूरी बनाये उस ओर चलने लगा. उतराई वाले मोड़ पर दूर जाती गायों का एक जत्था दिखाई दिया. उन्हीं के गलों में बँधी घंटियों के सुर मुझे सुनाई दे रहे थे. उन्होंने अब मेरी पदचाप की परवाह करना अनसुना कर दिया था.
लगभग अँधेरा हो चला था जब मैं उन गायों का पीछा करता उस छोटी सी कच्ची झोंपड़ियों वाली बस्ती में चला आया था. लालटेन और चंद्रमा की हल्की रोशनी और टिमटिमाते तारों भरे आकाश के नीचे उन अनजाने भोले-भाले प्राणियों की उन्मुक्त हँसी और गुदगुदाने वाले किस्सों के साथ गुजारी वह रात आज भी अपने पास आने को आमंत्रित करती है.
इतने अंतराल बाद भी उस रात का स्मरण करते उसका चेहरा आनंद से भरा था. ‘‘बड़े भाई, आप तो खूब यात्राएँ करते हैं. कभी इस यात्रा के लिए भी समय निकालो…आपको सिर्फ साँची स्टेशन पर उतरना है और फिर…’’
उस दिन सुबह हमने यात्रा पर निकलने की योजना बनाई थी.
वर्ष 1982 के जून का कोई एक दिन. बाबा नागार्जुन विदिशा से हापुड़ हमारे घर जिस नवयुवक के साथ पधारे उसकी- आकृति मन पर अंकित है. सुनहरे फ्रेम के चश्मे के पीछे चमकती आँखें, खनकती आवाज और हर वक्त होंठों पर थिरकती जोश और उल्लास भरी मुस्कराहट. नाक-नक्श इतने तीखे कि यदि उन्हें घनी स्याह दाढ़ी ने न छिपाया होता तो चेहरे की संरचना की प्रत्येक हड्डी और जोड़ अलग से पहचाने जाते. सनक की सीमा तक हरवक्त साथ चिपका उसका निकॉन कैमरा.
कैमरे के बिना यह न कुछ सोच पाता है और न देख पाता है. रात में भी पत्नी रीता को नहीं कैमरे को बगल में सुलाता होगा…
अपनी चिर-परिचित हँसी हँसते बाबा नागार्जुन बोले. उन दिनों उसे बाबा नागार्जुन की एक-एक मुद्रा कैमरे में कैद करने की धुन सवार थी. बाबा के विदिशा प्रवास के दिनों में वह उनके सम्पर्क में आया. बाबा की दोपहरी अकसर उसके घर व्यतीत होने लगी. ‘‘रीता की रसोई की खुशबू ठाकुर विजय बहादुर के घर तक पहुँच जाती है. बिना गृहिणी के विजय बहादुर के सूने घर में आँवला, त्रिफला और पेट सफा रसायनों की गंध ने स्थायी डेरा जमा लिया है.’’—बाबा अपने अघोरी अंदाज में जोर से ठहाका लगाते.
मालवी बोली की चासनी में पगी उसकी भाषा जब कैमरे से उतारे छायांकनों की पार्श्वकथा बयान करती तो मुझे किसी कविता या कहानी के रचे जाने जैसी अनुभूति होती. ऐसे ही किसी क्षण मैंने उसे सुझाव दिया—‘‘उसे इसे लिखना चाहिए.’’ उत्तर में उसका ठहाका गूंजा— ‘‘अपन ठहरे पाँचवीं फेल, आज तक एक पोस्टकार्ड भी नहीं लिखा.’’
चार-पाँच दिन बाद बाबा को श्रीनगर (कश्मीर) के लिए निकलना था. नागार्जन को जम्मू की ट्रेन में सवार करा वह भी विदिशा वापिस लौट गया.
(दो)
इस पहले परिचय के बाद अब मेरी भोपाल यात्रा का पहला पड़ाव विदिशा होने लगा. कभी सीधे भोपाल पहुँचना होता तो वह राजेश जोशी या नवीन सागर के घर आ जाता जो भोपाल प्रवास के दिनों में मेरे स्थायी ठिकाना होते. वापसी के दिन मैं फिर उसके साथ विदिशा चला आता. ऐसी ही एक यात्रा की स्मृति आज भी बनी है. दिसम्बर की ठिठुराने वाली अल्लसुबह जब ट्रेन विदिशा पहुँची तो खासा अँधेरा और कोहरा था. इतनी सुबह उसके स्टेशन आने को लेकर मन में संशय था. पिछले दिनों उसने अपना किराये का घर बदला था जिसका पता मेरे पास नहीं था. मैं कुछ ही कदम चला होऊँगा कि वही खनकती आवाज सुनाई दी- ‘‘अशोक भाई…’’ मेरे हाथ का बैग थामते वह हँसा– ‘‘वक्त से आँखें खुलने का भरोसा नहीं था. मैं रात ग्यारह-बारह बजे यहाँ चला आया. खुले आकाश के नीचे बैंच पर अकेले होने का मजा ही कुछ और है.’’
मैंने विस्मय से उसकी ओर देखा. हवाई चप्पल पहने वह लंगड़ाता चल रहा था. प्लेटफार्म की फीकी पीली रोशन में उसके टखने का जख्म दिखाई दे रहा था. उसने पट्टी तक नहीं बाँधी थी.
वह कस्बाई फोटोग्राफर का घरेलू स्टूडियो था और उसे निम्न-मध्यम परिवार की बैठक भी कहा जा सकता था. बाँस की चटाईवाला फर्श, तीन-चार कुशन, दो-तीन छोटे-छोटे स्टूल और मात्रा एक कुर्सी बैठक का आकार लेती तो कोने में खड़ा एलम्यूनियम का फोल्डिंग कैमरा स्टैण्ड, काले कपड़े का लबादेनुमा खोल और सामने दीवार पर टँगा एक बड़े आकार का श्वेत-श्याम छायांकन उसे स्टूडियो में रूपांतरित कर देता…
साँवली लड़की के उस श्वेत-श्याम छायांकन में कुछ ऐसा सम्मोहन कि आँखें बार-बार उसी ओर टिक जातीं. स्वच्छ पारदर्शी आँखें और चेहरे पर झलकती मासूमियत की आभा. ‘‘मेरी मोनालिज़ा.’’—वह मुस्कराया– ‘‘कमरे के किसी भी कोने से इसे देखो…यह ऐसे ही दिखाई देगी.’’ नार्मल लैंस से उतारा यह छायांकन 180 डिग्री का विस्तार लिए था.
उसके पिता जब उसे यहाँ लाये तो लड़की अपनी बदसूरती के अहसास से लबालब भरी थी. फोटो खींचने की मैंने कोई बात नहीं की. इधर-उधर की बातें कर उसे अगले दिन आने का कहा. चाय पीते और बातें करते मैंने कैमरा उसके हाथों में थमाया और कैमरे की आँख से वस्तुओं को , प्राणियों को और स्वयं को दिखाता रहा. कैमरे से दृश्यों को विस्मय से देखती वह सहज हो चली. ऐसे ही किसी एक क्षण मैंने उसके भीतरी सौंदर्य और हृदय को, जिससे वह स्वयं अनभिज्ञ थी, कैमरे में भर लिया.
एक पेशेवर फोटोग्राफ़र जिसे एक चित्र उतारने का 50 या 100रुपये मेहनताना मिलता हो. क्या आप उससे ऐसी अपेक्षा रख सकते हैं?
कैमरे से उसका जुड़ाव मात्रा संयोगवश हुआ. उसने कभी इस बारे में न कुछ जाना, न सुना और न ही फोटोग्राफ़र बनने को लेकर कोई कल्पना ही की थी. स्कूल की पढ़ाई में उसका मन न रमा और उसके पाँचवीं में फेल होते ही पिता ने गुस्से से अधिक आर्थिक कारणों से उसका स्कूल छुड़वा दिया. दो-तीन साल यूँ ही आवारागर्दी करते और यदा-कदा छोटे-मोटे काम करने में बीते.
पहला ठिकाना जब उसे मिला तब वह पन्द्रह साल का हो चला था. शहर के बूढ़े फोटोग्राफ़र सरदारजी ने उसे अपनी दुकान की साफ-सफाई के लिए रख लिया. सरदारजी रात-दिन शराब में डूबे रहते और देर तक सोते. दुकान खोलने और ग्राहकों से ‘डील’ करने का काम सरदारजी ने उसे सौंप दिया. जो सरदारजी की दुकान पर अग्रिम भुगतान कर फोटो खिंचवा लेता उसे प्रिंट मिलने में इतना विलम्ब होता कि खूब तू-तू मैं-मैं होती. धीरे-धीरे ग्राहक उनसे छिटकने लगे. सरदारजी ने मजबूरन उसे फोटोग्राफी का क ख ग सिखाना प्रारंभ किया. सौल्यूशन बनाना, फ़िल्म को एक्सपोज़ करना और प्रिंट तैयार करना.
एक दिन सरदाजी नशे में अधिक देर तक सोते रहे और ग्राहकों के उतावलेपन से परेशान उसने पहली दफा खुद फिल्मों को एक्सपोज़ करना शुरू कर दिया. अनर्थ होना ही था. स्याह बदरंग धब्बों के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था. सरदाजी ने जब उन निगेटिव्स को देखा तो भद्दी-भद्दी गालियाँ उच्चारते उसके कान पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ उसका हाथ पकड़ दुकान से नीचे उतार दिया. उसके कान से खून की बूंदें निकलने लगी. वह बिना रोये-चिल्लाये गुमसुम एक तरफ खड़ा हो गया. कुछ समय बाद सरदारजी उसके पास आए, शायद उसके चेहरे की उदासी और आँसुओं की लकीरों ने उन्हें द्रवित कर दिया. प्यार से उसका हाथ पकड़ अपने पास स्टूल पर बैठाया. पहली बार उसके लिए चाय-बिस्किट मँगवाये और अपने हाथ से उसके मुंह में बिस्किट रखा.
उस दिन के बाद उन्होंने विधिवत उसे अपना शिष्य बना फोटोग्राफ़ी की दीक्षा प्रारंभ की. कैमरे की आँख से विभिन्न कोणों से चेहरे और भावों की लकीरों को पकड़ना, फिर शटर को दबाना, गुप्प अँधेरे में कैमरे की गुफा में कैद रील को बाहर निकालना और मस्तिष्क की घड़ी की टिक-टिक सुनते उसे एक्सपोज़ करना. सबकुछ उसे बेहद जादुई और अचरज भरा लगता.
लगभग तीन-चार साल सरदारजी और उसका साथ बना रहा. सरदारजी अब पूर्णतया निश्चित दुकान उसे हवाले कर नशे में डूबे रहते. इसी नशे में सरदारजी की घड़ी बंद हो गई और साथ ही उनकी दूकान भी.
कैमरे के अलावा दुनिया की कोई भी वस्तु उसके लिए आकर्षण नहीं रखती थी और वह उसी से वंचित था. हताशा से भरा वह उदयगिरि की गुफाओं की ओर साइकिल चलाता निकल जाता. आदिमानव द्वारा उकेरी आकृतियों को अचरज से देखता और सूर्यास्त के बाद उसी तरह सात-आठ किलोमीटर की दूरी साइकिल से नापता विदिशा वापिस लौट आता.
उस दिन भी वह उदयगिरि की गुफाओं के बाहर भटक रहा था. विशाल वटवृक्ष के नीचे एक जापानी युवती चटाई के ऊपर आधी लेटी अपने काम में दत्तचित्त थी. वह उत्सुकता वश उसके नजदीक चला आया. उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ वह गुफाओं की आकृतियों की अनुकृतियाँ उकेरने में खोयी थी. उसका आकर्षक कैमरा चटाई के सिरहाने रखा था.
पता नहीं किस क्षण मेरे मन में विचार कौंधा कि मैं उसका कैमरा हथिया आसानी से रफूचक्कर हो सकता हूँ. मेरे हाथ कैमरे की दिशा में बढ़े ही थे कि मन में गहरी ग्लानि और अपराध बोध से भर उठा, मैं स्वयं को उस भाव से मुक्त नहीं कर पा रहा था. चाहे मैंने चोरी नहीं की थी लेकिन अपने मन में उपजे विचार के साथ मैंने यह कुकर्म तो कर ही डाला था. मैं तीव्र गति से साइकिल चलाता विदिशा वापिस लौटा और थर्मस में चाय, बिस्कुटों के पैकेट और कुछ फलों के साथ उसी तरह साइकिल दौड़ाता वापिस लौटा, जापानी युवती को अपने काम में तल्लीन देख मैंने राहत की साँस ली. मैं उसके पास गया और बिना कुछ बोले थर्मस और खाद्य सामग्री उसकी चटाई के ऊपर रख दी. वह विस्मय से मेरी तरफ देखने लगी. …अपने मन में उपजे पाप का इससे बेहतर प्रायश्चित का कोई अन्य तरीका मुझे नहीं सूझा.
‘‘अपने छायांकनों में तुम्हारा सबसे प्रिय कौन सा है?’’– ऐसा बेवकूफाना सवाल, जो यदि स्वयं मुझसे मेरी रचनाओं को लेकर कोई पूछता तो मैं खीझ से भर उठता, के उत्तर में उसका सदा मुस्कराता चेहरा उदास हो आया, फिर कुछ देर की खामोशी के बाद बोला- ‘‘विवाह समारोहों या ऐसे ही घरेलू उत्सवों के फोटो उतारना मुझे बेहद नापसंद रहा है. मैं प्रायः इनकार कर देता हूँ…फिर भी, गर्दिशी के चलते ऐसे एक प्रस्ताव के लिए सहमत होना पड़ा. मैं बारात के साथ-साथ कैमरा उठाये चल रहा था. बैंड-बाजे के कानफोड़ शोर ओर दूल्हे के घोड़े के इर्दगिर्द फूहड़ और अश्लील डांस करते बारातियों से दूर मैं सिगरेट की तलब पूरी करने आगे निकल लिया. सड़क पर अँधेरा था. बारात के सबसे आगे आठ-दस छोटे-छोटे बच्चे गैस को हण्डे के कन्धे पर उठाये चल रहे थे. बारात देरी से एक ही जगह ठहरी थी.
गैस के हण्डे कंधों पर उठाये बच्चे प्रस्तर प्रतिमाओं की तरह एक ही मुद्रा में स्थिर खड़े थे. एक छोटे बच्चे का कंधा बोझ से दुखने लगा होगा. उसने गैस के हण्डे को जमीन से टिकाया और सुस्ताने के लिए उससे सटकर खड़ा हो गया. वहीं एक क्षण…मुझे नहीं मालूम कब…उस अँधेरे में…मात्रा गैस के हण्डे की रोशनी के सहारे मेरे कैमरे का बटन दबा और वह बच्चा अपनी समूची थकान और भूख के साथ मेरे कैमरे के भीतर चला आया. …शायद ऐसा इसलिए संभव हो पाया होगा…मैंने भी उसी की उम्र में, कभी इसी तरह, अपने कंधों पर गैस के हण्डे ढोये थे.’’
मेरी अबूझमाड़ (बस्तर) की योजना अनायास बनी. पहला पड़ाव विदिशा ही हुआ. एक क्षण भी विचार किए बिना उसने मेरा सहयात्रा बनना निश्चित कर लिया. एक माह पहले ही वह पहली बिटिया का पिता बना था. परिवार से वह अलग हो चुका था. मेरी सारी दुश्चिंताओं को नकारते हुए सहजता से बोला—‘‘रीता समझदार और हिम्मती लड़की है. बीस-पच्चीस दिन आसानी से अकेले रह लेगी.’’ पीछे घर की देखरेख करने के लिए भाई की व्यवस्था, घरेलू राशन और अपने साथ ले चलने के लिए ज़खीरा भर रीलों की व्यवस्था करने में उसने सिर्फ एक दिन का समय लिया.
तकरीबन एक माह लंबी अबूझमाड़ की उस यात्रा के दरमियान जुनून की सीमा तक दृश्यों को कैमरे में उतारने के दुःसाहस भरे क्षण और उसके कई विरल मानवीय गुण परत-दर-परत मेरे सामने अनावृत हुए.
सागौन के सूखे पत्तों के ढेर में अपने पैर फँसाते घुमावदार पगडण्डियों को खोजते सुक्कू और मासा के पीछे-पीछे हम उन पहाड़ियों को पार कर रहे थे जो कभी ढलान की तरफ लुढ़काती तो कभी पेड़ की ऊँचाइयों तक ले जाती. दूर पहाड़ी पर उभरते धुंधले बिंदुओं की ओर इशारा करते सुक्कू ने मासा से जल्दी-जल्दी कुछ कहा. सुक्कू वहीं ठहर गया और मैं मासा के इशारे पर उसके पीछे-पीछे चल दिया. मुझे आभास भी न हुआ कि कब मेरे सहयात्रा ने सुक्कू को सल्फी पीने के लिए तैयार कर लिया था. मासा मुझे अबूझमाड़ के शुरुआती गाँव ‘हितवाड़ा’ तक ले आया जहाँ आज की रात्रि हमारा पड़ाव था.
सुक्कू और अपने सहयात्रा की प्रतीक्षा करते डेढ़ घंटे से अधिक का समय हो चला था. अंधेरा हो गया था. मैं चिन्ताग्रस्त हाथ में टॉर्च लिए एकटक उसी दिशा की ओर देख रहा था. कछ समय बाद कुत्तों के भौंकने के साथ समीप आती आकृतियों को देख मैंने टॉर्च जलायी तो देखा—सुक्कू और मेरा सहयात्रा नशे में लड़खड़ाते चले आ रहे हैं.
रात में सोने के लिए लेटने तक मैं खामोश बना रहा. मेरी नाराजगी दूर करते उसने सारी घटना का बयान किया-
‘‘सुक्कू मुझे सिर्फ इशारों से अपनी बात कहता अपने सल्फी के पेड़ तक लाया जहाँ ऊँचाई पर लटकी उसकी तुम्बी पत्तों के पीछे छिपी थी. रस्सी के सहारे वह तेजी से ऊपर चढा और तुम्बी उतार लाया. तुम्बी के नीचे उतरते ही सघन पेड़ों के पीछे से तीन-चार माडिया यकायक प्रकट हुए. कोई भी आपस में एक शब्द भी नहीं बोल रहा था. उस क्षण सच में मैं बेहद भयभीत हो आया था. सभी उस पेड़ के नीचे गोलाई में बैठ गए, सुक्कू ने बाँस के एक छोटे टुकड़े को उठा उसे चीरा और उसकी फाँक के बीच एक छोटा पत्थर फँसाया. बाँस के दूसरे टुकड़े से उसे रगड़ना शुरू किया. हल्के धुएँ के साथ एक-दो चिंगारी फूटी. सुक्कू ने उस चिंगारी को सूखे पत्तों पर समेट लिया. कुछ फूंकें मारी और देखते-देखते वहाँ लपट उठी और पत्तों ने उस लपट को विस्तार दे दिया. हमारे बीच अब अलाव जल रहा था. दो माड़िया उठे और अँधेरे में गुम हो गए. वापिस लौटे तो उनके हाथों में ढेर सारे साल के बीज थे. सुक्कू ने फटाफट सागौन के पत्तों के दोने बनाए. एक माड़िया ने साल के बीजों को लपटों पर भूना और हम सभी उन बीज को खाते सल्फी पीने लगे- खाली होने तक तुम्बी बारी-बारी से हमारे हाथों में घूमती रही. मैंने बीड़ी के बण्डलों के उनकी तरफ बढ़ाया तो उनकी खुशी देखने लायक थी. तुम्बी के खाली होते ही ‘जुहार’ का इशारा करते वे सभी निःशब्द उसी तरह जंगल में लुप्त हो गए जिस तरह आये थे. …बड़े भाई, जंगल के रहस्यमय अंधेरे में उनके साथ बिताए क्षणों का रोमांच, आह्लाद और रक्त में संचारित होते अनजाने भय का अहसास मैं कभी नहीं भुला पाऊँगा. …लड़खड़ाते सुक्कू के पीछे-पीछे चलता मैं भय से भरा रहा कि सुक्कू ठहरा अपनी मर्जी का मालिक…कौन जाने कब उसका मन ‘हितावड़ा’ के बजाय कहीं और निकलने के लिए मचल जाए. आपकी टॉर्च की रोशनी जब मुँह पर पड़ी तो साँस में साँस आयी.’’
इस यात्रा को बाद में शब्दबद्ध करते उसके इस या ऐसे ही अनेक क्षण बिना उसका स्मरण या आभार प्रकट किए कितनी सहजता से मेरे अपने अनुभवों में गुथ गए थे.
इसी यात्रा की दो अन्य स्मृतियाँ—
शशांक उन दिनों आकाशवाणी, जगदलपुर में कार्यरत थे. उन्होंने हमारे लिए बस्तर के पर्यटन स्थलों के भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. मैं और शशांक जीप में अगली सीटों पर बैठे बातचीत में खोए घने जंगलों को पार करते ‘कुटुमसर’ की चूने की गुफाओं, दंतेश्वरी के प्राचीन पाषाणों से निर्मित प्रस्तर-मूर्तियों और खण्डहरों में भटकने के बाद संध्या होने तक जगदलपुर वापिस लौटे. वापसी में भी जीप में बैठने का यही क्रम रहा. विश्रामगृह की ओर चलते मुझे आभास हुआ कि मेरा सहयात्रा पूरी यात्रा में अपने खिलंदड़ और बातूनी स्वभाव के विरुद्ध खामोश और प्रत्येक दृश्य से निरासक्त बना रहा है. उसे कुरेदा में तो एक झटके से उसका छिपा आक्रोश बाहर छलक आया— ‘‘बड़े भाई आपको तनिक भी ख्याल नहीं आया कि पीछे की सीट पर मेरे कैमरे को कितने धचके लगे होंगे.’’ कैमरे के प्रति उसका लगाव और वह सात्विक आक्रोश दिनों तक मुझे मर्माहत करता रहा.
बड़े-बड़े पत्थरों को पार करते हम चित्राकोट जलप्रपात तक पहुँचे. यहाँ इंद्रावती नदी लगभग 29-30मीटर की ऊँचाई से छलांग लगाती है. नयनाभिराम दृश्य अपने सातों लुभावने रंग बिखेरता इन्द्रधनुष, इंद्रावती के दोनों तटों को छूता हुआ. दूर से एक डोंगी धीरे-धीरे इसी इन्द्रधनुष की ओर आ रही थी. अपने कैमरे के लेंस को उधर फोकस कर एक नुकीले पत्थर की नोंक पर ऐड़ी जमाये वह बोला—
‘‘बड़े भाई उस दिन पुल पर खड़े ऐसा ही इंद्रधनुष मुझे बेतवा की लहरों पर दिखा था. इसी डोंगी की तरह एक नाव को मैं उसके करीब आते देखता रहा. …आह! उस दिन पता नहीं कैसे मेरा कैमरा घर पर छूट गया था. शायद आप विश्वास नहीं करेंगे…उस क्षण को खो देने का मलाल मेरे भीतर दिनों तक बना रहा. …मैं कैमरे के साथ बेतवा के पुल पर नियमित जाता रहा. कोई एक साल बाद वही इंद्रधनुष और वैसा ही दुर्लभ दृश्य मेरे पास चला आया जिसे मैं खो चुका था.’’
उसका समूचा चेहरा अनोखे आनंद से भरा था.
यह उसके जीवन का उत्कर्ष काल था, उमंग, उत्साह, ऊर्जा, सपनों, योजनाओं और सृजन के आह्लाद से भरे दिन. इस यात्रा में उसने अपने को छिपाये रखने में पारंगत मड़ियाओं के अंतरंग क्रियाकलापों…रीति-रिवाजों, देवताओं. हाट और शिकार जीवन की हजारों छवियाँ अपने कैमरे में उतारी थीं. उसका इरादा दिनों तक इन पर काम करने का था. बड़े-बड़े एनलार्जमेंट्स, कलात्मक फ्रेमिंग और संभव हुआ तो भोपाल-दिल्ली में छायांकनों की प्रदर्शनी.
उसने बाँस की चटाइयों का फर्श और दीवारों पर इस्तेमाल करते हुए एक कलात्मक और सुरुचिपूर्ण स्टूडियो बनाया. जिसे देखने और सराहने भोपाल के कवियों, रंगकर्म और छायांकन से जुड़े व्यक्तियों का विदिशा आगमन हुआ. अपनी शिल्पकार मित्रा के साथ मैं भी विदिशा पहुँचा था. अबूझमाड़ यात्रा के बाद इतनी ऊर्जा और उमंग से लबालब मैंने उसे पहली बार देखा था. रघु राय, सुरेन्द्र राजन और छायाकारों को उनके छायांकन के साथ आमंत्रित करने, छायांकन से जुड़े विभिन्न पक्षों पर विमर्श…और ऐसी अनेकों योजनाओं के बीज अंकुरित होने लगे थे.
उसका यह कल्पना-संसार मात्रा तीन-चार माह में ध्वस्त हो गया. व्यावसायिक उपयोग की सोच के साथ जिस व्यक्ति ने आर्थिक पक्ष की जिम्मेदारी उठायी थी उसका मोहभंग हो गया और उसने अपने हाथ खींच लिए. अशोक माहेश्वरी के लिए यह भावनात्मक और सृजनात्मक स्तर पर चूर-चूर कर देने वाला आघात था. स्वतंत्रा छायांकन के लिए जिन महंगे उपकरणों, सूदृढ़ आर्थिक आधार और प्रभावशाली सम्पर्क-सूत्रों की अनिवार्यता होती है उस दृष्टि से उसकी स्थिति शून्य थी. प्रदर्शनी के लिए बड़े-बड़े एनलार्जमेंट्स और फ्रेमिंग की बात तो दूर अपने खींचे गए निगेटिव्स तक को सुरक्षित रखने की सहूलियत और साधन उसके पास नहीं थे. हुआ वही जो अन्ततः होना था. उसके सृजन के क्षणों के गवाह सारे निगेटिव्स पहले गत्ते और टिन के डिब्बों में बंद धूल फाँकते रहे और फिर बारिश की सीलन का ग्रास बन गए. कुछ समाचार-पत्रों को वह मित्रों के आग्रह से प्रकाशनार्थ अपने छायांकन प्रेषित करता तो उसकी पावती तक उसे न मिलती. छायांकन मुद्रित भी होता तो प्रायः छायाकार का नाम नदारद होता. पारिश्रमिक के रूप में यदा-कदा पचास-सौ रुपये का चैक आ भी जाता तो वह भुगतान की समय-सीमा समाप्त होने तक किसी किताब के पन्नों के बीच दबा धूल फाँकता रहता.
सुप्रसिद्ध कवियों की विभिन्न मुद्राओं और भारत भवन के सिरेमिक्स विभाग में कार्यरत कलाकारों के कलाकर्म के छायांकन के लिए वह अपने दिन स्वाहा करता. प्रिंट्स का लिफाफा उन तक पहुँचा प्रतिदान में उपकृत करने वाली मुस्कराहट पर वापिस लौट आता. उसके मुँह से सिर्फ इतना निकलता—‘‘बड़े भाई, एक क्षण के लिए भी उन्हें यह ख्याल नहीं आता कि फिल्म की रील और प्रिंट बनाने में कुछ तो खर्च हुआ होगा.’’
विदिशा स्थित राजकीय पुरातत्व विभाग द्वारा प्राचीन मूर्तियों के छायांकन के लिए प्रायः उसे ही बुलाया जाता. उन मूर्तियों, विशेषकर शाल भंजिका यक्षिणी के उसने जीवंत छायाचित्र उतारे थे. यह उसकी आजीविका का अस्थायी आधार था. उसकी प्रतिभा के मुरीद कुछ सुधीजन उसकी जटिल शर्तों और मुंहमांगी अग्रिम राशि के बावजूद उसका स्मरण करते. अग्रिम राशि दो-चार दिनों में स्वाहा हो जाती और फिर प्रिंट के एनलार्जमेंट्स और फ्रेमिंग की व्यवस्था की कोई भी तिकड़म काम न आती. धीरे-धीरे उसके मुरीद ऐसे सुधीजन ही उससे विरत हो गए.
अपने एक स्वतंत्रा स्टूडियो का उसका सपना कभी पूरा न हो सका जबकि उसके शिष्य विदिशा, रायसेन और भोपाल में सफलतापूर्वक अपने स्टूडियो का संचालन करने लगे थे.
50डिग्री के झुलसते तापमान में हम जोधपुर से पैसेंजर ट्रेन से बाड़मेर जा रहे थे. पहली यात्रा के कोई चार बरस बाद वह दूसरी और आखिरी बार सहयात्रा बना. बेटी के अलावा एक और शिशु उसके परिवार में सम्मिलित हो गया था. इस बार उसकी यह यात्रा स्वयं से भागने और प्रतिकूल स्थितियों, दुःस्वप्नों, हताशाओं और स्याह परछाइयों से राहत पाने के लिए अधिक थी.
बाड़मेर पहुँचते-पहुँचते उसने सहजता से स्वयं को स्वयं से मुक्त कर लिया और फिर से वही पुराना सहयात्रा बन गया. बाड़मेर जिले की तहसील शिव और फिर छोटे-छोटे दूरी पर बिखरे गाँव…हड़बेचा, नेगरड़ा, छाचरा…जहाँ सिर्फ पैदल पहुँचा जा सकता था. तपती रेत और चाबुक की भाँति गर्म हवा के थपेड़ों के बीच एक से त्रासद दृश्य…सूखी हुई खेजड़ी की झाड़ियाँ, छाँव में जीभ बाहर निकाले हाँफते मवेशी और राहतकार्य में जुटे स्त्रा पुरुषों के छोटे-छोटे जत्थे रेत की मोटी परतों को काटते हुए. दूह-दर-दूह लाँघते हमारे सामने जो भी गाँव आता उसकी पहली झोंपड़ी को ठकठका देते. एक लोटा ठण्डा पानी और प्याज की गाँठ के साथ रोटियाँ, किसी झोंपड़ी ने हमें निराश नहीं किया.
बाड़मेर के उन गाँवों से निकल हम रुदराऊ होते जैसलमेर वापिस लौटे थे. जैसलमेर से म्याजलरा और वहाँ से एक सरकारी निरीक्षण दल की जीप के द्वारा रेत में फँसते पहियों को लकड़ी के पट्टों और धक्कों के सहारे मुक्त कराते पश्चिमी सीमा के आखिरी गाँव पोचिणा पहुँचे थे. निरीक्षण दल सिर्फ एक घण्टे ठहरकर वापिस लौटने वाला था और हमारे पास वापसी के लिए कोई अन्य साधन उपलब्ध नहीं था.
‘‘जिस जगह का सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं देखा वहाँ आना भी कोई आना हुआ.’’
कहने के साथ मेरे सहयात्रा ने सारी दुविधाओं का समापन कर दिया.
‘‘वापिस कैसे लौटेंगे?’’—अधिकारी ने चिन्ता से पूछा तो वह मुस्करा दिया- ‘‘कल सोचा जायेगा.’’
आज तकरीबन तीस वर्ष बाद सोचता हूँ ऐसे सहयात्रा के बिना क्या कभी मैं ये दो यात्राएँ इस तरह कर पाता? वास्तविक अर्थ में यात्रा वही था, मैं उसके संग निमित्त भर था.
(तीन)
यह यात्रा मन और तन को इतना बोझिल और श्लथ करने वाली थी कि वापसी में जयपुर रमेश थानवी के घर एकाध दिन विश्राम लेना तय किया. रमेश के लिए मेरा सहयात्रा अपरिचित चेहरा था लेकिन अल्प समय में वे एक दूसरे के अंतरंग हो आए. रमेश उन दिनों राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति के निदेशक थे और अपने क्षेत्रा में अन्वेषी कार्य कर रहे थे. सुबह चाय पीते हुए उन्होंने उसके सामने आकस्मिक प्रस्ताव रखा—वह उनके संस्थान से सम्बद्ध हो जाए और स्वतंत्रातापूर्वक राजस्थान में कहीं भी भ्रमण करते हुए यहाँ के जन-जीवन का छायांकन करे, सर्पूण व्यय उनकी संस्था वहन करेगी. उसके लिए पृथक से एक स्टूडियो का निर्माण और साथ ही दस हज़ार रुपये प्रति माह का मानदेय. यह प्रस्ताव राहत देने वाला था. रमेश मुस्कराते हुए मुझसे मुखातिब हुआ—‘‘तुम बेफिक्र इसे मेरे हवाले कर—अकेले वापिस लौट जाओ.’’
एक माह बीता होगा कि अल्लसुबह रमेश का फोन आया. उसकी आवाज तल्खी से भरी थी—‘‘महाशय का कुछ अता-पता है? यहाँ से रफूचक्कर हुए बीस दिन हो गए. कोई पत्र नहीं…कोई फोन नहीं. जयपुर पाँच-छः दिन मुश्किल से टिके होंगे. एक माह का अग्रिम और दो दिन की छुट्टी लेकर विदिशा गए थे. और अब देखो…उनके लिए अलग दफ्तर की व्यवस्था की, स्टूडियो के निर्माण और उपकरणों पर संस्था की भारी रकम खर्च हो गई. संस्था कोई मेरी निजी जायदाद तो है नहीं. मुझे भी समिति के सदस्यों को जवाब देना होता है.’’ फिर तनिक व्यंग्य से बोले—‘‘क्या तुम्हारे सभी मित्र ऐसे ही अराजक और गैरजिम्मेदार हैं.’’ मैं अवाक रह गया. रमेश का इशारा विश्वेश्वर की ओर था. 1972-73 की घटना है. रमेश उन दिनों भारतीय ज्ञानपीठ में प्रशासन अधिकारी के तौर पर कार्य कर रहे थे. विश्वेश्वर मुंबई से हापुड़ आकर मेरे यहाँ टिका हुआ था. वह हापुड़-दिल्ली शटल ट्रेन से यात्रा करता दिल्ली में कोई ठिकाना ढूंढ रहा था. राजेन्द्र यादव ने उसे अक्षर प्रकाशन में नियुक्ति दे दी लेकिन दिल्ली में उसके आवास की समस्या बनी थी. रमेश टैगोर टाउन में एक कमरा किराये पर लेकर रह रहे थे.
उन्हीं दिनों रमेश का विवाह सम्बन्ध तय हुआ और उसे एक माह के लिए अपने गाँव फलौदी लौटना था. मेरे आग्रह से उसने एक माह के लिए कमरे की चावी विश्वेश्वर को पकड़ा दी. रमेश वापिस लौटा तो विश्वेश्वर ने यह कहकर कि उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है और उसे कोई कमरा किराये पर नहीं मिलेगा जबकि रमेश आसानी से कोई दूसरी जगह तलाश सकता है, उस कमरे से जाने से इनकार कर दिया. …असहाय और दुःखी रमेश ने मुझे सूचना दी. मेरे प्रयास और समझाने के बाद विश्वेश्वर कमरा खाली करने को तैयार हुआ था.
अशोक माहेश्वरी के इस कृत्य से, जिससे मैं स्वयं पूरी तरह अनभिज्ञ था. मैं आहत होने के अतिरिक्त कर भी क्या सकता था!
एक साल बाद जब उससे आमना-सामना हुआ तो बेहद सहजता से उसने अपना पक्ष रखा- स्कूटर के पेट्रोल से लेकर कैमरे की प्रत्येक रील का नियमित लेखा-जोखा, एक दृश्य के लिए कई-कई रील बर्बाद करने की जिरहबाजी और कहाँ-कहाँ और कब-कब छायांकन करने होंगे इसकी पूर्व सूचना देना…इन सबको झेलना उसके बर्दाश्त बाहर था. उसे यह सब बंधुआ मजदूरी जैसा लगा.
मेरी आँखें और मस्तिष्क हमेशा उसे कैमरे के साथ देखने की अभ्यस्त हो गई थीं. इस बार उसे बिना कैमरे के देखना एक अपंग व्यक्ति को देखना सरीखा था. इस बार यह आघात उसके अपने एक मित्र ने पहुँचाया था. यह सोचकर कि उसके छायांकनों का जादू उसके कैमरे में छिपा है उसने एक दिन के लिए उसका कैमरा माँग लिया और फिर दिनों तक चक्कर लगाने और तकरार के बाद उसका अस्थिपंजर उसे थमा दिया. जापान से सपरिवार भारत आये लक्ष्मीधर मालवीय इन दिनों मेरे अतिथि थे. दो उत्कृष्ट छायाकारों का पारस्परिक संवाद मेरे लिए रुचिपूर्ण और उत्सुकता से भरा होता. दोनों में एक बात सामान्य थी. दोनों सिर्फ श्वेत-श्याम छायांकन में आस्था रखते थे और दोनों के छायांकन छाया और प्रकाश के जादुई सम्मोहन से भरे थे. विषय-वस्तु के चुनाव में दोनों एक दूसरे के पूर्णतया प्रतिकूल छोरों पर खड़े थे. एक के लिए नारी की नग्न देह में प्रकृति और प्रकृति में नारी अंगों की रहस्यमय संरचना और दूसरे के लिए तलछट में साँस लेते ओट में छिपे प्राणियों के क्रियाकलापों की मुद्राएँ, मालवीय जी उससे छायांकनों के विषय, उसके पास उपलब्ध उपकरणों, डार्करूम और उसकी कार्यशैली और छायांकन की प्रक्रिया के बारे में शिशु जिज्ञासा से पूछते और उन्हें हैरानी होती कि कोई बिना डार्करूम, छायांकन के लिए जरूरी उपकरणों, सौल्यूशन-हाइपर के वैज्ञानिक मानकों और बिना टाइमर के सिर्फ मस्तिष्क की टिक्-टिक् के सहारे कैसे अपना काम करता होगा!
मुझे ओसाका (जापान) स्थित मालवीयजी के घर का स्मरण आया भोजन के उपरांत एक रात मालवीयजी ने मेरी बाँह पकड़ते कहा- ‘‘पूरे एक घंटा आप मेरे डार्करूम में मेरे साथ बंद रहेंगे. टट्टी-पेशाव की हाजत लगे या आपकी साँस रुके…मुझे परवाह नहीं.’’ शरारताना हँसी हँसते मालवीयजी मेरे साथ अपने डार्करूम में चले आए. गुप्प अँधेरे में मद्धिम फीकी लाल रोशनी में उनके समीप बैठा उनके क्रियाकलाप देखता रहा. तामचीनी के टब में उन्होंने हाइपर की बूंदे टपकाते घोल तैयार किया. छोटी प्लास्टिक की डिब्बी में बंद फिल्म को बाहर निकाल उसे टब में डुबो हाथ के टाइमर की टिक्-टिक् की गिनती करते रहे. टिक-टिक के रुकते ही फिल्म बाहर निकाल ब्लोअर की गरम हवा से उसे सुखा अलग-अलग प्रिंट में विभक्त कर उन्हें गौर से देखते रहे, फिर एक प्रिंट को काँच की सतह वाले स्टूल पर रखा. ‘‘अशोक जी ये सारे प्रिंट एक न्यूड के हैं…फोटो के लिए शटर क्लिक करने का काम मात्रा एक तिहाई है शेष दो तिहाई तो इसी डार्करूम का खेल है…आप देखते रहिये इसके किन उभारों में मुझे रेगिस्तान के दूह और किन रहस्यमयी रेखाओं में खाइयों की गहराइयाँ प्राप्त होंगी… मैं इस डार्करूम में अँगुलियों की सरसराहट और शिराओं में संचारित होते तनाव के सहारे इन्हीं क्षणों में अन्वेषित कर पाऊँगा.’’ अंधेरे में मैं मंत्राबिद्ध उनका एकालाप सुनता रहा था.
अशोक माहेश्वरी के चलते वक्त मालवीयजी ने उसे क्षमायाचना के साथ रोका और फिर अपना निकॉन कैमरा, तीन-चार फिल्टर, कैमरे का खूबसूरत बैग, स्टील का फोल्डिंग स्टैण्ड और डार्करूम के संकट का सामना करने के लिए काले कपड़े का जुराबनुमा लबादा उसे पकड़ाते हुए कहा—‘‘कैमरे को छोड़ सारी वस्तुएँ मेरी ओर से आपको सप्रेम भेंट. कैमरे का मूल्य अपनी सुविधा से आपको अवश्य चुकाना होगा.’’ इस अयाचित भेंट से वह भौंचका था. चलते वक्त सिर्फ इतना बोला—‘‘बड़े भाई, विदिशा से मन पूर्णतया उचाट हो गया है.’’
वह विदिशा से साँची चला आया. साँची विकास प्राधिकरण की कॉलोनी में एम. आई. जी. घर किराये पर ले लिया. मार्केट में एक छोटी दूकान भी उसे उपलब्ध हो गई. बौद्ध स्तूपों के लिए ख्यात साँची महत्त्वपूर्ण पर्यटन-स्थली भी है. धंधा कुछ-कुछ पटरी पर आने लगा.
एक किशोर को भी उसने बतौर सहायक रख लिया. साँची के उस शांत घर में कवि नरेन्द्र जैन और नवीन सागर जैसे मित्र अकसर चले आते. ये कुछ दिन उसके लिए राहत भरे थे. साल-दो साल बीतते-बीतते फिर वैसी ही आकस्मिक दुर्घटना जिनके लिए उसका जीवन बना था. एक सुबह दूकान का शटर उठाया तो पाया उसका कैमरा और बहुत से उपकरण कोई चुरा ले गया है. साथ ही वह किशोर भी लापता है. कुछ दिन उस किशोर की तलाश में दूर-दूर तक खाक छानने के बाद उसने दूकान पर ताला जड़ चाबी उसके मालिक के हवाले कर दी. पुलिस में रपट लिखाना उसे उचित न लगा, संभवतः उस किशोर में वह अपनी उस छाया को देख पाया होगा जब लगभग इसी उम्र में उदयगिरि की गुफाओं के बाहर भटकते हुए ऐसी ही चोरी का भाव उसके भीतर उपजा था. साँची में उसके लिए कुछ शेष न बचा और विदिशा मुँहबाये उसकी खिल्ली उड़ा रही थी. बावजूद सारी वितृष्णा और अनिच्छा के उसे विदिशा वापिस लौटना पड़ा. रीता कुछ काम-काज करने लगी थी और बेटी कविता ने मामूली वेतन पर एक स्कूल में नर्सरी के बच्चों को पढ़ाना प्रारंभ कर दिया. किशोर से युवा होते बेटे टक्कू ने अपनी कोई राह नहीं पकड़ी थी. परिवार में धीरे-धीरे अपनी नगण्य होती भूमिका और निःशेष होते शरीर ने उसे आत्मघाती अराजक स्थितियों की ओर धकेलना शुरू कर दिया. शराब की लत असाध्य रोग में बदलने लगी. परिवार की अनिच्छा और फटकार के बावजूद उसके घर के दरवाजे ऐसे व्यक्तियों के लिए खुलने लगे जिन्हें दारू-सेवन के लिए किसी स्थली की जरूरत होती. मेरे सामने भी एक बार ऐसा ही कुछ हुआ. मेरी उपस्थिति को पूर्णतया नजरअंदाज करते वह अपने किसी ऐसे हितैषी के साथ इस काम में डूबा रहा.
मैं पहली दफा खिन्न मन से वापिस लौटा.
रीता का फोन आया. स्वर में चिन्ता और व्यग्रता थी—‘‘उसकी हालत ठीक नहीं है. खाँसी के साथ खून के कतरे भी आने लगे हैं. डॉक्टर ने टी.बी. की आशंका जतायी है.’’
मैंने विदिशा का आरक्षण कराया. ट्रेन शाम 7 बजे नई दिल्ली स्टेशन से रवाना होती. दिल्ली यह सोचकर कि एकाध मित्रा से मिलना भी हो जायेगा सुबह चला आया. वीरेन्द्र कुमार बरनवाल उन दिनों आयुक्त, आयकर के पद पर दिल्ली में पदस्थ थे. आई. टी. ओ. स्थित उनके कार्यालय में बातचीत के दौरान मैंने उन्हें अपने विदिशा जाने के बारे में बताया. मैंने चलना चाहा तो उन्होंने रोकते हुए कहा—‘‘इतनी जल्दी क्या है? लंच लेकर जाइयेगा.’’ इसी मध्य उन्होंने दो-तीन जगह बेहद धीमी आवाज में कुछ बातचीत की.
लंच के दरमियान उनका सहायक एक लिफाफा उनके आगे रख चला गया. लंच के बाद मैं चलने लगा तो वह लिफाफा बिना कुछ कहे मुझे थमा दिया. लिफाफे में अशोक माहेश्वरी के नाम पन्द्रह हजार रुपये के तीन ड्राफ्ट थे.
विदिशा पहुँच लिफाफा मैंने उसे पकड़ाया और उसने बिना कुछ पूछे उसे एक तरफ रख दिया. वह पूरा दिन उसे चिकित्सा हेतु तैयार करने में व्यतीत हुआ…
अगले दिन सुबह मैं उसे साथ लेकर भोपाल राजेश जोशी के घर पहुँचा. उदयन वाजपेयी उन दिनों मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में विशेष कार्यधिकारी के पद पर कार्यरत थे. उनके सहयोग से राजकीय क्षय चिकित्सा केन्द्र में उसके भर्ती होने की अनुमति सहजता से मिल गयी.
नवीन सागर, राजेश जोशी, राम प्रकाश त्रिपाठी, नवल, बलराम गुमाश्ता…और कई मित्र उसे साथ लेकर ‘राजकीय क्षय चिकित्सा केन्द्र’ पहुँचे. मित्रों की सदाशयता और अपने प्रति चिन्ता देख वह विस्मित, कृतज्ञ और विभोर था. वह उसे एक समारोह की भाँति ग्रहण कर रहा था. उसे पहला आघात उस वक्त लगा जब अस्पताल के बाहर चाय के खोके की बैंचों पर हमें चाय के ग्लास पकड़ाने से पहले केतली हाथ में उठाये चायवाले ने पूछा—‘‘पेशेंट का बर्तन कहाँ है?’’ वह हतप्रभ हो आया, साथ में हम भी. शायद पहली दफा उसे अपनी बीमारी की गंभीरता का अहसास हुआ. अस्पताल में उसके भर्ती करने की आवश्यक खानापूर्ति कर हम वापिस लौटे. उसी रात मेरा वापसी का रिजर्वेशन था. मैं ट्रेन पकड़ने के लिए राजेश के घर से निकल ही रहा था कि उसे अपने सम्मुख खड़ा देख भौचक्क रह गया. वह बेहद तनाव और गुस्से से भरा था—‘‘बड़े भाई आप किस नरक में मुझे धकेल आए थे. संडास इतना दुर्गंध भरा कि साँस भी न आए. वहाँ कोई भला आदमी कैसे रह सकता है?’’ रात होते-होते वह नर्स, चौकीदार की नज़रें बचा, किसी को सूचित किए बगैर अपना बैग उठा भाग निकला था.
मेरी वर्थ के सिरहाने वह मुंह लटकाये बैठ गया. मेरा मन खिन्न था और कोई बात करने की इच्छा नहीं थी. दोनों के बीच चुप्पी पसरी थी. विदिशा आने से कोई पन्द्रह-बीस मिनट पहले उसके भीतर छिपा लावा बह निकला. उसे पहली दफा इस कदर टूटा, धुरी से छिटका और असम्बद्ध भाषा में बोलते सुना. हद तो तब हुई जब अपनी बदहाल स्थिति के लिए उसने पत्नी रीता को आरोपित करना शुरू किया.
विदिशा स्टेशन आने पर वह नीचे उतरा और ट्रेन के रवाना होने तक प्लेटफार्म पर खड़ा रहा. उस रात वापसी का सफर बेहद बोझिल और कुछ खो देने के अहसास से भरा था.
घर-परिवार की तरह शहर भी हमारे मानचित्रा में उसमें निवास करने वाले आत्मिक जनों के हर्ष-विषाद, ईर्ष्या-मनमुटाव और ऐसी ही तमाम स्मृतियों के साथ स्पंदित होते हैं, उनके अदृश्य होते ही वह शहर भी धीरे-धीरे धुंधलाने लगता है. 2003 में नवीन सागर के दिवंगत होने के साथ भोपाल भी मेरे लिए ऐसा ही शहर हो आया. आवागमन का क्रम सहसा खंडित हो आया. …भोपाल के साथ-साथ विदिशा भी.
नवीन के देहावसान के करीब दो-ढाई बरस बाद अशोक माहेश्वरी हापुड़ आया. इस बार उसकी स्थिति बेहद डरावनी थी. देर तक चलने वाली सूखी खाँसी का सिलसिला. छोटी सी दूरी पार करने के लिए सुस्ताने के लिए कई बार ठहरना. हदय रोग विशेषज्ञ द्वारा कई तरह की जाँच के बाद जो परिणाम आए वह निराशाजनक थे. उसकी जीवन-यात्रा का पड़ाव नजदीक आ गया है. इसका आभास उसे होने लगा था. वापसी के सफर में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पुल की सीढ़ियाँ चढ़ते वह कई बार ठहरा, पुल पर पहुँच पुरानी चिर-परिचित मुद्रा में मुस्कराया—‘‘बड़े भाई, अब पूरी तरह खर्च हो लिए.’’
यह उसकी आखिरी यात्रा थी. कुछ माह बीतते-बीते साँची के पुरातत्व विभाग में कार्यरत एक बंगाली युवक बनर्जी ने मुझे वही मनहूस सूचना दी जिसका मेरा आशंकित मन प्रतीक्षा कर रहा था.
मैं नागपुर की यात्रा पर निकला था जव चा गरम… चा गरम… के शोर से आँखें खुली. ट्रेन सिग्नल की प्रतीक्षा में एक अनजान स्टेशन पर खड़ी थी. भोर के कुहासे में दर्याफ्त करने पर पता चला कि इंजन में कोई गड़बड़ी आ गई है और ट्रेन के रवाना होने में कुछ समय लगेगा. मैं डिब्बे से नीचे उतरा. स्टेशन छोटा और खामोश था. मैं धीरे-धीरे टहलता स्टेशन मास्टर के कक्ष तक आ गया. कक्ष के बाहर साँची के स्तूपों का एक श्वेत-श्याम छायांकन लटका था. सबसे नीचे एक कोने में छायाकार का नाम लिखा था—अशोक माहेश्वरी.
यही वह साँची स्टेशन था जहाँ मुझे पहुँचना था और उसके साथ उस यात्रा पर निकलना था.
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वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस‘ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक से यात्रा वृतांत ‘संभावना प्रकाशन‘ हापुड़ से प्रकाशित हुआ है.
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