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Home » मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद

मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद

जेल की यातनाओं और अनुभवों पर प्रचुर मात्रा में देशी विदेशी भाषाओं में साहित्य मिलता है. नेताओं, क्रांतिकारियों, कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों आदि को जब-जब जेल में डाला गया उन्होंने अपने कारा-वास को रचनात्मक बना डाला, कभी कार्यों से तो कभी अपनी लेखनी से. मनीष आज़ाद ने अपने जेल-अनुभवों में अब्बू यानी अबीर नामक बच्चे को शामिल कर इसे लिखा है. आपबीती अगर ढंग से कही जाए तो वह अपने समय की जगबीती बन जाती है. यह संस्मरण आकार में बड़ा है पर आप इसे शुरू करेंगे तो बीच में छोड़ नहीं पायेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है.

by arun dev
December 13, 2021
in संस्मरण
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मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद
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मेरी जेल डायरी

मनीष आज़ाद

जेल में रहते हुए ही मेरी बहन सीमा आज़ाद ने जब मुझसे अपना जेल अनुभव लिखने को कहा तो मैं परेशान हो गया कि कैसे लिखूं. अपने बारे में कभी लिखा नहीं. फिर भी कई बार शुरू किया, लेकिन बना नहीं. इस बीच मेरी स्मृतियों में मेरा प्यारा अब्बू यानी अबीर (मेरे एक दोस्त का बेटा) आ-आ कर मुझे परेशान करता रहा और अकसर रुलाता भी रहा. वह मेरा साथ कभी नहीं छोड़ना चाहता था. छोटा था, तब ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह मेरी गोद से अपनी मां की गोद में बिना रोये गया हो. अंततः मैंने सोचा कि क्यों न अब्बू को साथ में रखते हुए ही लिखना शुरू करूं.

यह लिखते हुए मुझे एक प्रसिद्ध इतालियन फ़िल्म ‘लाइफ इज़ ब्यूटीफुल’ की याद आ रही है, जहां एक पिता अपने पांच साल के बच्चे के साथ एक नाज़ी यातना शिविर में फंस जाता है. पिता इस प्रयास में है कि बच्चा इस यातना को असली न समझे, इसलिए वह यातना शिविर की हर गतिविधि को बच्चे के लिए खेल के रूप में पेश करता है मानो कोई पूर्व नियोजित खेल खेला जा रहा हो. और उधर बच्चा अपने मासूम आब्जर्वेशन व सवालों से नाजी यातना शिविर के तर्को की धज्जियां उड़ा रहा होता है.

मुझे यह भी ध्यान आया की उस भीड़ में यदि बच्चा न होता तो कौन यह बोलने का साहस करता कि  ‘राजा नंगा है’. और कैसे यह कहानी सच बोलने वालों का ‘मैनिफेस्टो’ बनती. सच में, दुनिया को बच्चों की मासूम और साहसी नजर से देखना एक क्रांतिकारी अनुभव है.

अब्बू की नज़र में जेल
मनीष आज़ाद

 

1.

गिरफ्तारी के तुरन्त पहले की कहानी

दिन भर की धमा-चौकड़ी के बाद अब रात में अब्बू को तेज़  नींद आ रही थी. लेकिन आंखों में नींद भरी होने के बावजूद वह अपना अन्तिम काम नहीं भूला- मुझसे कहानी सुनने का काम. कहानी का शीर्षक हमेशा वही देता था. उसी शीर्षक के इर्दगिर्द मुझे कहानी सुनानी होती थी. कभी उसकी फरमाइश होती कि ‘सफेद भूत’ की कहानी सुनाओ, तो कभी उसकी फरमाइश होती कि ‘कभी न थकने वाली चिड़िया’ की कहानी सुनाओ. कभी-कभी वह बड़े प्यार से कहता कि ‘अब्बू और मौसा’ की कहानी सुनाओ. आज उसके दिमाग में पता नहीं  क्या आया कि उसने थोड़े चिन्तनशील अंदाज में कहा कि मौसा तुम मौसी से पहली बार कब मिले, इसकी कहानी सुनाओ. उसकी इस फ़रमाइश पर मैं और बगल में लेटी अमिता दोनों आश्चर्यचकित रह गये.

खैर मैंने कहानी शुरू की- थोड़ी हकीकत थोड़ा फ़साना. और हर बार की तरह इस बार भी वह बीच कहानी में सो गया. कहानी सुनाते हुए मैंने महसूस किया कि अमिता भी बड़े ध्यान से मेरी कहानी सुन रही है. मैंने अमिता को यह अहसास नहीं होने दिया कि अब्बू सो चुका है. और मैंने कहानी जारी रखी. लेकिन कहानी खत्म होने से पहले ही अमिता भी सो गयी. मेरे मन में ‘अरुण कमल’ की कविता की एक पंक्ति कौंधी- ‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है.’ इस खूबसूरत भरोसे को क़ैद करने के लिए मैंने दोनों को आहिस्ता से चूम लिया. किसी खूबसूरत फंतासी का इससे अच्छा यथार्थवादी अंत और क्या हो सकता है.

नींद मुझे भी आ रही थी. लेकिन आज रात मुझे ‘हिस्ट्री आफ थ्री इंटरनेशनल’ खत्म करनी थी. महज 9 पेज शेष रह गये थे. मैंने सोचा आज रात इसे खत्म कर देते है, क्योंकि  कल से एक ज़रूरी अनुवाद पर भिड़ना था. मनपसन्द किताब की ‘क़ैद’ और पढ़ चुकने के बाद ‘रिहाई’, दोनों का अहसास बहुत सुखद होता है. रात एक बजे के करीब ‘रिहाई’ के इसी सुखद अहसास के साथ मैं अपनी खुली छत पर टहलने आ गया. 7 जुलाई की यह रात बहुत शान्त थी. उस वक्त मुझे तनिक भी अंदाजा न था कि यह तूफान के पहले की शांति है. मेरे दिमाग में तो 1950 के दशक की उस दुनिया के चित्र आ जा रहे थे, जिसका विस्तृत वर्णन ‘विलियम जेड फोस्टर ने’ अपनी उपरोक्त किताब के अन्त में किया है. पृथ्वी का बड़ा हिस्सा लाल रंग में रंग चुका था और समाजवाद लगातार मार्च कर रहा था. तीसरी दुनिया के गुलाम देश एक-एक कर अपनी जंजीरें तोड़ रहे थे. इसी सुखद अहसास के साथ मैं भी अब्बू और अमिता के बीच जगह बनाकर लेट गया और उन दोनों की तरह ही नींद के आगोश में समा गया.

देर से सोने के बावजूद आज भी रोज़ाना की तरह मेरी नींद सुबह 5 बजे खुल गयी और मैं दोबारा छत पर आ गया. भोपाल की सुबह हमेशा सुहानी होती है. और फिर दो मंजिले पर स्थित मेरा कमरा एक तरफ़  छोटी पहाड़ी और दूसरी तरफ़  नहर से घिरा है. पहाड़ी पर अच्छी खासी हरियाली थी. मेरे मन में एक पुराना गीत चल रहा था-‘ये कौन चित्रकार है…..’ अचानक मेरे पीछे से ‘भो‘ की आवाज़  आयी. मैं चौक गया. यह अब्बू था. अपना यह प्रिय काम निपटा कर वह मेरी बाँहों में निंदाया सा उलझ गया. मैंने उसे गोद में उठाया और रोज़ का डायलाग रिपीट किया- ‘चल तुझे थोड़ी देर दुलार लूं. अच्छा बता दुलार करने से क्या होता है.’ अब्बू ने निंदाये हुए ही मेरी गोद में लगभग झूलते हुए अपना रोज़ का डायलाग दुहरा दिया- ‘बच्चे में कान्फिडेन्स आता है.’

इसी बीच मेरी नज़र छत से नीचे सामने की सड़क पर गयी. मैंने देखा 4-5 सफारी जैसी गाड़ियों में करीब 15-20 लोग सिविल ड्रेस में बहुत आराम से उतर कर गेट खोल कर अन्दर आ रहे हैं. मैंने सोचा मकान मालिक के यहां लोग आये हैं, लेकिन इतनी सुबह इतने लोग? अगले ही क्षण उनके कदमों की आवाज़  तेज़  होने लगी यानी बिना रुके वे लोग सीधे ऊपर चले आ रहे थे. अगले ही क्षण मेरे अन्दर भय की लहर दौड़ गयी. मैं तुरन्त समझ गया कि वे लोग हमारे लिए ही आये हैं. मेरी धड़कन तेज़  हो गयी. अगले ही क्षण वे सब मेरे सामने थे.

मेरे मुंह से कोई भी शब्द ना निकला. तभी उनमें से एक ने सॉफ्ट लेकिन आदेशात्मक स्वर में कहा- ‘चलिए, अन्दर चलिए.’ मेरे अन्दर कमरे में घुसने से पहले ही उनमें से आधे अन्दर घुस चुके थे. अमिता अभी भी अन्दर सो रही थी. इस टीम की दो महिला कान्सटेबिलों ने अमिता को जगाया. इतने सारे लोगों को कमरे में देखकर वह हड़बड़ा गयी और बोली- क्या है, कौन हैं आप लोग. इस बीच मैं शुरुआती शाक से उबर चुका था. उनके जवाब देने से पहले मैंने ही कहा- ‘इधर आ जाओ, पुलिस वाले हैं.’ टीम को लीड कर रहे ऑफिसर ने व्यंग्य मिश्रित मुस्कान के साथ कहा- ‘अच्छा तो समझ आ गया.’

मैंने कहा- हां. फिर भी उसने अपना आई कार्ड निकाल कर दिखाया. तब मुझे समझ आया कि ये यूपी एटीएस के लोग हैं. आश्चर्यजनक रूप से अमिता ने भी जल्दी ही अपने पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और चौकी पर मेरे बगल में आकर बैठ गयी. उसने धीरे से मेरा हाथ दबाया और मैंने धीमे स्वर उससे कहा- New struggle begins. पिछले 20 सालों की राजनीतिक ज़िन्दगी में हमने सीमा-विश्वविजय सहित इतने सारे दोस्तो-परिचितों की गिरफ्तारियां देखी हैं कि हम अक्सर यह कल्पना करते थे कि हमारी गिरफ्तारी कब और कैसे होगी. मैं अक्सर मज़ाक में अपने दोस्त कार्यकर्ताओं से कहता- ‘समय-समय पर लिखा है, गिरफ्तार होने वाले का नाम.’ बिना गिरफ्तारी के हम जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बायोडेटा कहां पूरा होता है.

मेरे घर पर कब्जा जमाये वो 15-20 लोग पूरे घर को हमारे सामने ही उलट-पुलट रहे थे. इस छोटे से एक कमरे के घर को अमिता ने बेहद करीने से सज़ाया था. उसकी आंखों के सामने इसका पूरा सौन्दर्य बिखर रहा था. इसी उठा पटक में अब्बू की नींद भी खुल गयी, जो दुबारा मेरी गोद में सो गया था. इतने सारे लोगों को कमरे में देखकर वह सहम गया और सहमते हुए बोला- ‘ये लोग कौन हैं.’ मैंने धीमे से उसके कान में कहा- ‘सत्ता के दोस्त हैं ये लोग.’ उसने लगभग डरते हुए पूछा- ‘तुझे और मौसी को पकड़ने आये हैं?’ मैंने कहा-‘हां.’

मुझे आश्चर्य हुआ कि इसके बाद उसने ना तो कुछ पूछा और ना ही कोई प्रतिक्रिया दिखाई. बस उन सभी को बारी-बारी से ध्यान से देखता रहा, मानो उनके और सत्ता के चेहरे में साम्य ढूंढ रहा हो. अपने और अपने काम के बारे में मैंने अब्बू को कई बार कहानियों के माध्यम से समझाया था. शायद यह उसी का असर था. शायद वह उन कहानियों और इस यथार्थ के बीच तुलना में तल्लीन था. अचानक अब्बू ने मेरे कान में शिकायती लहजे में कहा- ‘मौसा वह आदमी मेरी कविता पढ़ रहा है.’ मैंने पहले ही गौर कर लिया था कि इन 15-20 लोगों  में एक व्यक्ति ऐसा था जो इस उलट पुलट में शामिल ना होकर कमरे में लगे कविता पोस्टरों को बेहद ध्यान से पढ़ रहा था. मानो ब्रेख्त, नाजिम, मीर, ग़ालिब की कविताओं में कोई गुप्त सन्देश छिपा हो. पता नहीं  यह इन कविताओं का असर था या कुछ और- बाद में इस व्यक्ति ने मेरी महत्वपूर्ण मदद की.

अचानक मैंने सुना कि अब्बू अपनी ही कविता मेरे कान के पास बुदबुदा रहा था- ‘अब्बू की ताकत है मौसा, मौसा की ताकत है अब्बू, इन दोनो की ताकत है मौसी, हम सबकी ताकत है खाना.’

मैंने देखा कि अब उन्होंने सामान पैक करना शुरू कर दिया था. मेरा, अमिता का कम्प्यूटर, मेरी सारी किताबें, 3 हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव, तमाम कागज पत्र आदि. इसी में उन्होंने चुपके से बोस कम्पनी का स्पीकर भी रख लिया (इस चोरी का पता मुझे बाद में चला). मैं समझ गया, अब हमें जल्दी ही हमेशा के लिए यहां से निकलना था. मैंने मन ही मन कमरे की एक-एक चीज़  से विदा ली. विदा मेरे कम्प्यूटर, जिसकी स्क्रीन रूपी  खिड़की से मैं दुनिया झांक लेता था. विदा मेरी प्यारी किताबें, जिन्हें ‘टाइम मशीन’ बनाकर मैं अतीत और भविष्य की सैर कर लेता था और मार्क्स, माओ, ब्रेख्त, हिकमत, भगत सिंह जैसे तमाम दोस्तों का हाल चाल ले लेता था. विदा मेरे गद्दे, जिस पर मैं अब्बू से कुश्ती लड़ता था और दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था. विदा दरवाजे के पीछे वाले कोनो, जिसके पीछे छिपकर अब्बू मुझसे छुपम छुपाई खेलता था और जब प्यार से मैं पूछता था कि मेरा प्यारा अब्बू कहां है तो वह उतने ही मासूमियत से जवाब देता-मौसा मैं यहां हूं.

विदा चाय के कप, जिसमें सुबह-सुबह चाय बनाकर अमिता को जगाने का आनन्द ही कुछ और था. विदा प्यारी बाल्टियां, जिसमें मैं अपने कपड़े भिगोता और चुपके से अमिता उसमें अपना एकाध कपड़ा भिगो देती और धोते समय मैं उसे देखता और हमारा प्यारा झगड़ा शुरू हो जाता.

विदा, अब्बू के प्यारे खिलौनों जो अब्बू के आते ही मानो जीवित हो उठते और उसके जाते ही दुःखी होकर निर्जीव हो जाते. तभी अचानक मेरी नज़र मेरी गोद में बैठे अब्बू पर गयी, जो अभी भी बड़े ध्यान से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखे हुए था. मैंने मन ही मन कहा-‘विदा मेरे प्यारे अब्बू, अलविदा!’

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Tags: जेल
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Comments 14

  1. रमेश अनुपम says:
    3 years ago

    पूरा पढ़ गया। इस तरह के गद्य विचलित करते हैं। बहुत कुछ द्रवित भी। मनीष आजाद को पढ़ते हुए देश के भीतर जो कुछ भी हो रहा है जिसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है उसे देखकर तकलीफ ही हो सकती है। हम जिस दौर में जी रहे हैं वह बेहद क्रूर और भयावह है। इस तरह के गद्य की उम्मीद केवल ’समालोचन’ से ही की जा सकती है।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    3 years ago

    मनीष आनन्द की डायरी पढ़कर मज़ा आ गया । मेरी दृष्टि में यह सबसे आनन्ददायक पोस्ट है । मनीष, अब्बू और अमिता का संसार सुहावना है । समाज को बदलने का जुनून है । अकसर मेरे मन में यही सवाल रह-रह कर उठता है कि मैं गिलहरी की तरह अपनी आहुति डाल सकूँ । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि क्रांति या परिवर्तन अहिंसक हो । हम अपने वांग्मयों से वे व्यक्ति ढूँढें जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपना बहुत कुछ होम कर दिया हो । मनीष जी आज़ाद ने अरुण कमल की पंक्ति ‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है’ को उद्धृत किया है । इस पंक्ति में अहिंसा (जिसका सकारात्मक अर्थ प्रेम है; विश्व व्यापी प्रेम) प्रकट हो रहा है । आज़ाद साहब की कुछ पंक्तियों को मैंने काग़ज़ पर लिख लिया था । मसलन ‘History of Three International’ किताब ख़त्म करनी थी’ । क्योंकि कल एक ज़रूरी अनुवाद से भिड़ना है । एक शायर का कलाम याद आ गया ।
    ठनी रहती है मेरी सिरफिरी पागल हवाओं से
    मैं फिर भी रेत के टीले पे अपना घर बनाता हूँ

    अपने शरीर की मुश्किलात से गुज़रते हुए भी समाज के सुख के लिए कुछ करना चाहता हूँ । मनीष जी लिखते हैं मनपसंद मिलन
    की ‘क़ैद’ और पढ़ चुकने की ‘रिहाई’ दोनों का अहसास सुखद होता है । ‘अब्बू की ताक़त है मौसा, मौसा की ताक़त है अब्बू, इन दोनों की ताक़त है मौसी, हम सब की ताक़त है खाना’ । फिर मनीष जी आज़ाद लिखते हैं-दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था’
    मनीष और अमिता के घर में मार्क्स, ब्रेख़्त, भगत सिंह आदि के Quotation के पोस्टर मुझे भी हौसला देते हैं । मैंने पहले भी लिखा था कि मुझ में भी कुछ कुछ Communism है ।
    पुलिस मनीष को क़ैद करने आयी । बदलाव करने वाले व्यक्ति पुलिस का बेवजह शिकार बनते हैं ।
    अब्बू के मन में नाज़ीवाद के लिए नफ़रत है और उसकी यादें हैं । सुखकर है । हिटलर फिर से न पैदा हों । समाज जागरुक करने की कोशिशें जारी रहें ।
    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी यदि मनीष आज़ाद ने इस डायरी का विस्तृत वर्णन किसी किताब की शक्ल में किया हो तो मैं ख़रीदना चाहता हूँ ।

    Reply
  3. हिमांशु बी जोशी says:
    3 years ago

    बहुत गज़ब का लेखन। विवरण ही नहीं उन्हें दर्ज़ करने का तरीका भी निहायत ही भीगा हुआ सा है। उच्चस्तरीय।

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    3 years ago

    बेहद मर्मस्पर्शी संस्मरण ! क्रांति के सपने देखते-बुनते लोगबाग जो सत्ता से टकराने के बाद किस तरह अनेक शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलते हैं और जेल की सलाखों के पीछे जो अमानवीय बदसलूकी एवं नरक जैसी यंत्रणा भोगते हैं-इन सबका यहाँ बड़ा हीं मार्मिक वर्णन है। अब्बू के साथ उसके एक काल्पनिक साहचर्य में जीते हुए गहरी संवेदना से भरी यह आपबीती सचमुच जगबीती बन गयी है। समालोचन एवं मनीष जी को बधाई !

    Reply
  5. अशोक अग्रवाल says:
    3 years ago

    मनीष आजाद ने अपनी आप-बीती इतने सरल, मार्मिक और ह‌दय को छूने वाले शब्दों से लिखी है कि कला तो उसमें अपने आप अंकुरित हो आयी है। अविस्मरणीय पाठ। ऐसी ही रचनाओं से साहित्य समृद्ध होता है। समालोचन ऐसी सामग्री पढ़वाता है इसके लिए उसका आभार।

    Reply
  6. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    एक अनुभव के यथार्थ को इस तरह लिखा जाए कि वह एक कृति भी बन जाए: यह उदाहरण है। मनीष का गद्य जीवंत, दृष्टिसंपन्न और मार्मिक तो है ही, प्रतिवाद और यातना को भी प्रभावी ढंग से दर्ज करता है।
    अरुण देव को इसे प्रकाशित करने के लिए बधाई।

    Reply
  7. राकेश says:
    3 years ago

    बेहद जीवंत,मार्मिक।बच्चे के माध्यम से यथार्थ,इतिहास और फंतासी का अद्भुत समन्वय। जेल में बिताए दिन याद आये।

    Reply
  8. प्रभात+मिलिंद says:
    3 years ago

    गद्य का एक साथ प्रासंगिक, विचारोत्तेजक और रोचक होना एक दुर्लभ संयोग है। मनीष आज़ाद के इस गद्यांश को पढ़ते हुए इसी विरलता के दर्शन होते हैं। एक ऐसे नैराश्यपूर्ण समय में जबकि साहित्य भी कई बार सत्ता की भाषा बोलने लगी है, या अपनी पुनरावृत्ति में वह प्रायः एक विदूषक की भूमिका में दिखती है, प्रतिवाद का साहित्य हमें नई आशाओं से भर देता है। पूरे संस्मरण में अब्बू की उपस्थिति किसी सुखद प्रतीकात्मकता की तरह है।

    इस संस्मरणात्मक गद्य को पढ़कर अनायास मुझे पिछले दिनों इतालवी सिद्धांतकार एंटोनियो ग्राम्स्की के प्रिज़न नोटबुक्स के पढ़े गए कुछ अंश याद आ गए। यद्यपि कंटेंट की दृष्टि से वे बिल्कुल भिन्न हैं और मूलतः राजनीतिक सिद्धांतों पर केंद्रित हैं किन्तु यह बात तो सामने आती ही है कि देह के बंदी बनाए जाने के बाद भी विचारों को बंदी नहीं बनाया जा सकता।

    पिछले दिनों साहित्य के इतर भी इतिहास, संस्कृति, कला, सिनेमा, विचार और संगीत पर विविध तरह की सामग्रियाँ प्रकाशित कर समालोचन ने इसके उत्तरदायित्व और इसकी रोचकता दोनों को जिस तरह से संतुलित रखा है, वह श्लाघनीय है।

    Reply
  9. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    मनीष आज़ाद की जेल में लिखी कहानी पढ़ते हुए लगा जैसे मैं लेखन की क्लास में बैठा हूं। और सोचता हूं लेखन के लिए इतनी अच्छी और मुफीद जगह सभी को नहीं मिलती। इसका आशय यही हुआ कि यातना के क्षण हमें जुर्म के खिलाफ लिखने को प्रेरित करते हैं। मनुष्य का मौलिक स्वभाव है मनुष्यता के विरुद्ध होनेवाली कार्रवाई को स्थगित करना।
    मनीष आज़ाद की इस खूबसूरत शुरुआत के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  10. पूनम वासम says:
    3 years ago

    पढ़ रही हूं, शब्द, शब्द अनुभव कर पा रही हूँ, मन में बहुत देर तक ठहरने वाला है यह गद्य, बहुत शुक्रिया 🙏

    Reply
  11. Anonymous says:
    3 years ago

    एक एक शब्द रुककर संभलकर पढ़ना पड़ा। भावनाओं का एक कैप्सूल

    Reply
  12. जीतेश्वरी says:
    3 years ago

    मनीष आजाद द्वारा लिखी गई बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण डायरी को हम सब के बीच प्रस्तुत करने लिए ‘ समालोचन ‘ को बहुत शुक्रिया।

    ‘ मेरी जेल डायरी ‘ में जेल की सुबह, शाम और रात जो चार दिवारी में कैद हो जाती है, उसकी इतनी गहराई से मनीष जी ने वर्णन किया है जो हमारी कल्पना में संभव ही नहीं है। पर इसे मनीष जी ने सच कर दिखाया है। एक-एक, छोटी – छोटी बारीक से बारीक चीजों का जिस तरह से चित्रण किया गया है वह बेहद आश्चर्यजनक है। मनीष जी कि गंभीर दृष्टि और समझ ने उनके प्रति मेरे मन में सम्मान की एक नई भावना गढ़ ली है।

    मैं जब पढ़ने बैठी तो पता नहीं चला कि कब अंत की निर्णायक शुरुआत में पहुंच गई। अब्बू का मासूम चेहरा और उसकी बातें दिलों, दिमाग में छाने लगी।

    ‘ मेरी जेल डायरी ‘ पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो कोई फिल्म चल रही हो और उस फिल्म को बीच में एक क्षण के लिए भी छोड़ना मेरे लिए मुश्किल हो गया। भाषा ऐसी जैसे कोई शांत नदी चुपचाप अपनी कहानी किसी नाविक को सुनाते हुए बह रही हो और
    नाविक उस नदी में इस तरह खो जाता है जैसे अब उसने फैसला कर लिया हो कि मुझे किनारे नहीं पहुंचना सिर्फ बहना है नदी के साथ दूर तक।

    मेरी जेल डायरी बहुत मार्मिक होने के साथ – साथ जीवन की अनेक कहानियों को एक साथ प्रस्तुत करने वाली सुंदर डायरी है। इसके लिए बहुत बधाई और बहुत शुक्रिया मनीष जी और समालोचन को।

    Reply
  13. Anonymous says:
    3 years ago

    वेहद सहज , सम्प्रेषणीय और मार्मिक गद्य

    Reply
  14. Devpriya Awasthi says:
    2 years ago

    बेहद संजीदा जेल डायरी.
    मौजूदा दौर ऐसी ढेरों डायरियां सामने लाने के लिए मुफीद है.

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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