कौन था बेचू ?यादवेन्द्र |
बेचू: चिट्ठियों के बाण चलाने वाला विस्मृत नायक
कुछ दिनों पहले गयाना से अमेरिका जा कर बस गई लेखक पत्रकार सुश्री गैयुत्र बहादुर (Gaiutra Bahadur) की बहुचर्चित किताब “कुली वुमन: द ओडिसी ऑफ इंडेंचर” पढ़ी जो उन्होंने बीसवीं शताब्दी के एकदम शुरू में छपरा के एक गांव से जहाज पर चढ़ कर अकेले गयाना चली जाने वाली अपनी परदादी सुजरिया के बारे में लिखी है. इसे पढ़ते हुए मैं लगातार उस स्थान और काल में विचरण करता रहा जो आम भारतीय के स्मृति पटल से ओझल है- इस किताब की यही सबसे बड़ी ताकत और खूबी है.
सबसे पहले मैंने ‘बेचू’ के बारे में इसी किताब में पढ़ा, उससे पहले मेरा इस नाम के किसी व्यक्ति से कोई परिचय नहीं था. बहादुर ने बेचू का संक्षिप्त परिचय यह कह कर दिया है कि वह एक अनाथ बंगाली था जो कलकत्ते की एक इसाई मिशनरी महिला द्वारा पाला पोसा गया. उसे अंग्रेजी पढ़ना आता था और लिखना भी- लिखने पर बेचू की भाषा में लालित्य और कटाक्ष का सम्मिश्रण होता था और तर्कों की सटीकता उसके लेखन की नैतिक शक्ति थी.
बेचू नामक अनूठे मज़दूर नायक के बारे में यह सब पढ़ कर और अधिक छानबीन कर उसके बारे में ज्यादा जानने की मेरी इच्छा बलवती हो गई और अगले डेढ़ दो महीनों में मैं जितना जान पाया वह जिज्ञासु साथियों के साथ साझा करने का उत्साह हुआ.
कौन था बेचू ?
वेस्ट इंडियन इतिहासकार प्रो. क्लेम सीचरन ने बेचू के ब्रिटिश गयाना प्रवास की अवधि के जीवन पर 1999 में “बेचू: बाउंड कुली रेडिकल इन ब्रिटिश गयाना 1894 – 1901” किताब लिखी जो उसके जीवन और काम पर केंद्रित एकमात्र अध्ययन है.
उन्होंने लिखा कि बेचू ने दस्तावेजों में खुद को ‘बेचू कुर्मी’ बताया था. उसने अपने बारे में यह बताया कि कलकत्ता का रहने वाला है और बचपन में ही अनाथ हो गया. एक अंग्रेज मिशनरी स्त्री ने उसे अपने पास रख कर लालन-पालन किया और अच्छी खासी अंग्रेजी शिक्षा दी. स्कूल कॉलेज में बेचू की औपचारिक शिक्षा का कोई प्रमाण नहीं मिलता है. गयाना में रहते हुए 7 जून 1899 की एक चिट्ठी पर बेचू ने अपने हस्ताक्षर ई बेचू (E Bechu) किए हैं पर नाम में ई किस शब्द के लिए लिखा गया है यह नहीं मालूम.
कैरीबियन देशों में भारतीयों के इतिहास पर काम करने वाले कई अध्येता मानते हैं कि बेचू बोशुनाथ चट्टोपाध्याय का नाम धर कर 1894 में शीला नाम के जहाज से कलकत्ता से ब्रिटिश गयाना पहुंचा था. उसका इमिग्रेशन नंबर 68157 था. ऐसी आशंका जताई जाती रही है कि बेचू को गयाना भेजने के पीछे एनी बेसेंट की फ्रेंड्स ऑफ इंडिया या मदाम ब्लावट्स्की की थिओसोफिकल सोसायटी का हाथ था.
गयाना के राजनयिक ओदीन इश्माइल ने अपनी बहुचर्चित किताब ‘द गयाना स्टोरी : फ्रॉम अर्लिएस्ट टाइम्स टु इंडिपेंडेंस’ (2013 ) में बेचू के बारे में लिखते हुए उसका असली नाम बोशुनाथ चट्टोपाध्याय और अंग्रेजी साहित्य में उसकी गहरी रुचि के बारे में बताया है.
वह खुद को बाउंड कुली (करार की शर्तों से बंधा हुआ कुली) कहता था. वह गिरमिटिया कुली बन के कलकत्ता से त्रिनिदाद जाना चाहता था और उसी के लिए आवेदन किया था लेकिन उसे त्रिनिदाद के बदले ब्रिटिश गयाना भेज दिया गया. देश छोड़ने के समय उसकी उम्र 34 साल थी और वह 1894 से 1901 तक गयाना में रहा- डेमेरारा के एनमोर प्लांटेशन में मजदूर के तौर पर उसकी तैनाती हुई पर शारीरिक तौर पर वह कड़ी मेहनत करने लायक नहीं था सो अंग्रेज मालिकों ने उसे असिस्टेंट ड्राइवर का काम दे दिया और घर के नौकर (बटलर) की तरह रखा. वह पढ़ा लिखा था और खाली समय में चुपचाप बैठे रहना उसे नहीं भाता था. काम निबटने के बाद उसके पास पर्याप्त समय होता था सो उसने खाली समय में अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने की अनुमति माँगी. उसकी योग्यता और लिखाई पढ़ाई की रुचि को देखते हुए एस्टेट के अधिकारियों ने बेचू को लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ने की सुविधा दे दी जहां तरह-तरह की पत्रिकाएं और प्रमुख अखबार आते थे.
अंग्रेजी भाषा का उसका ज्ञान और तर्कशक्ति और अपनी बात को प्रभावी ढंग से लिख और बोल सकने की उसकी क्षमता को देखकर किसी के लिए भी यह विश्वास करना मुश्किल था कि वह गिरमिटिया कुली के तौर पर मजदूरी करने अपने देश से इतनी दूर गयाना आया है. क्लेम सीचरन ने बेचू के बारे में अपनी किताब में लिखा है कि उसके बात व्यवहार को देख कर यह विश्वास करना असंभव था कि वह खेती-बाड़ी करने वाली कुर्मी जाति से आया है. इस बात की पर्याप्त आशंका है कि बेचू ने उसने गिरमिटिया कुलीगिरी के अनुबंध पत्र पर नाम पता और सारे विवरण फर्जी लिखे हों .वे लिखते हैं कि अनेक शिकायतों के बाद दस्तावेजों की जाँच किए जाने पर उसके द्वारा दिए गए सारे विवरण फर्जी पाए गए.
सीचरन मानते हैं कि जैसा दस्तावेजों में बताया गया था बेचू हिंदू नहीं था बल्कि क्रिश्चियन था. उसका जीवन क्रिश्चियन मूल्यों में रचा बसा था इसी लिए अपनी चिट्ठियों में वह कई बार बाईबल के संदर्भ दिया करता था. वे यह बात कहते हुए ऐसा तर्क देते हैं जिसपर बहुत लोगों को आपत्ति हो सकती है- सीचरन कहते हैं कि बेचू की क्रिश्चियन पृष्ठभूमि ही उसे उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के आधुनिक भारत का औरों की तुलना में बेहतर नागरिक बनाती है.
सीचरन अपनी किताब में बेचू को कभी हार न मानने वाला अनथक कुकुरमाछी,एक दब्बू कुली का एंटी थीसिस जैसे विशेषणों से विभूषित करते हैं और कहते हैं कि तत्कालीन शासन और प्लांटर चाहे कुछ भी कर लें बेचू को बोलने से, विरोध करने से और अपनी आवाज़ सर्वोच्च स्तर तक पहुंचाने से रोक नहीं पाए.
गयाना के पूर्व सरकारी अधिकारी राम परसाद तिवारी अपनी गहन छानबीन का हवाला देकर कहते हैं कि अपने गिरमिटिया अनुबंधों से मुक्त होने के बाद बेचू बहुत बीमार हो गया था और इलाज के लिए भटकते हुए अलग-अलग जगहों पर उसकी उपस्थिति की खबरें मिलती रहीं. ऐसा प्रतीत होता है कि बेचू बीमारी से ही चल बसा और गयाना के ही किसी कब्रगाह में दफना दिया गया. अपनी स्थापनाओं के लिए तिवारी स्व पी एम बर्चस्मिथ, रुद्रनाथ और रबीद्रनाथ शिवानंद जैसे अपने जानकारों के साथ हुए संवाद का हवाला देते हैं- यह सभी बेचू को व्यक्तिगत तौर पर जानते थे.
राम परसाद तिवारी के आजा (दादा) बेचू के दोस्त थे. वे अपने एक लेख में 1956 की एक घटना का हवाला देते हैं जब सुरीनाम से गयाना आए हुए किसी भारतीय यात्री (यह कह कर ही उनका परिचय कराया गया था) ने उन्हें बताया कि बेचू कलकत्ता के कुलीन ब्राह्मण परिवार का सदस्य था जिसका संबंध सरोजिनी नायडू के परिवार से था. उसने बेचू का संभावित नाम बोशुनाथ चट्टोपाध्याय बताया. तिवारी बंगाल के सांस्कृतिक इतिहास के जानकारों के साथ बातचीत करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बेचू उच्च शिक्षा प्राप्त विद्वान थे जिनका दर्शन और धर्म को लेकर उदारवादी दृष्टिकोण था यही कारण है कि ईसाई और अन्य धर्मों में आस्था रखने वाले लोगों के साथ उनका खुला और बराबरी के स्तर पर संवाद होता था. भारत के एक ईसाई पादरी को यह लगा कि उदारवादी दृष्टिकोण रखने वाले ईसाई परिवारों के साथ (चाहे वे भारत में रह रहे हों या गयाना में रह रहे हों) काम करने के लिए बेचू जैसे पढ़े-लिखे और खुले विचारों के इंसान को लगाया जाए तो अच्छा होगा. लंबे समय तक पीढ़ी दर पीढ़ी गयाना में रह रहे दो बंगाली डॉक्टरों के हवाले से तिवारी ने यह बताया कि यदि बेचू का संबंध सरोजिनी नायडू के परिवार से है तो उनका टाइटिल चट्टोपाध्याय होना चाहिए (सरोजिनी नायडू के पिताजी का नाम अघोरनाथ चट्टोपाध्याय था) और वह कोई मामूली नहीं बल्कि खूब पढ़े लिखे इंसान ही रहे होंगे.
डॉक्टरों में से एक ने तिवारी को यह बताया कि बेचू कलकत्ता के भवानीपुर इलाके के रहने वाले थे जहां बड़ी संख्या में अंग्रेजों और गुलामी का विरोध करने वाले बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट रहा करते थे.
कुछ तत्कालीन लोगों की राय थी कि बेचू दरअसल एक हिंदू समाजसेवी था जो गिरमिटिया मजदूर बन कर गयाना आया जिससे यहां रहने वाले भारतीय मजदूरों के हितों की रक्षा का काम कर सके. गयाना में उसके किए कामों का लेखा-जोखा करें तो वह किसी भी तरह से अपराधी नहीं लगता बल्कि भारतीय मजदूरों की भलाई उसका प्रमुख लक्ष्य था.
गयाना के तत्कालीन गवर्नर सैंडाल को भी बेचू के घोषित परिचय को लेकर शक शुभहा था यही कारण है कि उसने ब्रिटिश उपनिवेशों के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को 19 जुलाई 1899 को लिखी चिट्ठी में बेचू के बारे में यह लिखा :
“गयाना में बेचू क्यों आया इसका सबसे ज्यादा संभावित जवाब यह है कि भारत में कानून के शिकंजे से बचा रहे इस लिए देश छोड़कर भाग गया. अच्छी शिक्षा और भरपूर योग्यता वाला कोई इंसान भला किसी गंभीर और निहित उद्देश्य के बिना अपना देश छोड़कर वेस्टइंडीज में गिरमिटिया कुली बन कर मजदूरी करने चला जाए, यह कैसे हो सकता है.”
एक वेस्ट इंडियन इतिहासकार ने बेचू को कैरीबिया का एक रहस्यमय,शरारती और चालाक जननायक बताया है. बेचू ने गयाना में रहने वाले भारतीयों के बीच बगावत और अखबारों और ऊंचे ओहदों पर बैठे अंग्रेजों को चिट्ठी लिख कर विरोध प्रदर्शित करने की भावना प्रज्वलित की जो बेचू के वहां से चले जाने के बाद भी जारी रही.
शोषण की पोल खोलने वाली चिट्ठियां
गयाना के सबसे प्रभावशाली अखबार “द डेली क्रॉनिकल” में तथ्यों पर आधारित और विचारपूर्ण चिट्ठियां लिख लिखकर उसने गन्ना प्लांटर्स की ज्यादतियों को उजागर किया और अत्याचार के नीचे दबे हुए मजदूरों के पक्ष में माहौल बनाया जिससे प्लांटेशन मालिकों ने उसे अपने हितों का दुश्मन मानकर तरह-तरह से प्रताड़ित किया.
द डेली क्रॉनिकल अखबार में बेचू की पहली चिट्ठी 1नवंबर 1896 को छपी जिसमें उसने 13 अक्टूबर 1896 को नॉन परील प्लांटेशन पर पुलिस की गोलीबारी में पाँच भारतीय कुलियों के मारे जाने और 59 के घायल होने का हवाला देते हुए भारतीयों के दमन की भर्त्सना की थी. उन्होंने बताया था कि प्लांटर ने गिरमिटिया अनुबंधों का पालन नहीं किया और तय राशि से कम वेतन का भुगतान किया जिससे मजदूर भड़क गए और उन्हें दबाने के लिए पुलिस ने हिंसा का प्रयोग किया.
इस पहली चिट्ठी में बेचू ने अपने कॉन्ट्रैक्ट का हवाला देते हुए लिखा था कि
“कानूनी रूप से तय वेतन में किसी तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता- ठीक-ठाक कद काठी वाले पुरुष कुली को प्रतिदिन एक शिलिंग(24सेंट), महिलाओं और 16 साल से कम के पुरुष कुली को 16 सेंट से कम दिहाड़ी नहीं दी जा सकती. यदि उन्हें अलग-अलग कामों के लिए भुगतान करना हो तो वह दैनिक वेतन के अतिरिक्त होगा, उस से कम नहीं हो सकता.”
बेचू ने अखबार को लिखी चिट्ठियों में प्रासंगिक तथ्यों के साथ इतने महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए कि जब कैरीबियन देशों में गिरमिटिया मजदूरों को भारत से लाने की नीति की समीक्षा करने के लिए वेस्ट इंडियन रॉयल कमीशन(जिसे नॉर्मन कमीशन भी कहते हैं) बनाया गया तो उस ने अपनी छानबीन के दौरान गयाना में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की दशा पर अपना पक्ष रखने के लिए बेचू को आमंत्रित किया. बेचू ने गिरमिटिया मजदूरों की दुर्दशा खास तौर पर स्त्री कुलियों के दैहिक शोषण के बारे में कई उदाहरण देते हुए अपना पक्ष रखा. ऐसा एक उदाहरण बेचू ने भारत से जहाज पर अपने साथ आए एक जहाजी भाई का दिया जो एक भारतीय कुली स्त्री से शादी करना चाहता था लेकिन एस्टेट के ओवरसियर का दिल उस पर आ गया और तमाम कोशिशों के बाद भी वह अपनी पसंद की स्त्री का साथ हासिल नहीं कर पाया…
ओवरसियर उसपर बहुत भारी पड़ा, उसने कुली स्त्री को अपने घर बिठा लिया. बेचू ने अपनी गवाही में कमीशन को बताया कि शक्तिशाली ओवरसियर मजदूर स्त्री की आज़ादी को खरीदने में कामयाब हो गया. कमीशन की रिपोर्ट में यह बात उल्लिखित है.
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि किसी रॉयल कमीशन के सामने अपने विचार प्रस्तुत करने वाला वह भारत का पहला प्रतिनिधि था,वह भी एक मामूली गिरमिटिया मजदूर (फरवरी 1897 में).
बेचू की चिट्ठियों के कुछ और नमूने
“जब मजदूरों को 12 घंटे काम करना पड़े, कीचड़ जैसी भारी और गाढ़ी चीनी को एक पेनी प्रति घंटे की मजदूरी पर ढोना पड़े, एक फीट गहरी क्यारी में बगैर किसी मजदूरी के 3 – 3 सरिए गाड़ने पड़ें, जब हाड़ तोड़ कड़ी मेहनत के बाद बरसात उनके किए काम को धो कर बराबर कर दे और ओवरसियर उसके किये काम को कोई काम ही न माने तो क्या इन सारी परिस्थितियों में किसी आदमी को गुस्सा नहीं आएगा, उसका मन कड़वा नहीं होगा?”
(16 दिसंबर 1900 को लिखी चिट्ठी)
जब गयाना के प्लांटर इस बात की शिकायत कर रहे थे कि बेचू अन्य कुलियों की तरह कोई अनपढ़ मजदूर नहीं है बल्कि पढ़ा लिखा हुआ है तो उनकी इस शिकायत के जवाब में बेचू ने अपनी चिट्ठी में लिखा:
“मुझे नहीं मालूम कि ज्यादा पढ़ा-लिखा होने से उनका क्या आशय है लेकिन जो थोड़ा बहुत ज्ञान मुझे है वह बचपन में हर उपलब्ध अवसर का लाभ उठाने की मेरी कोशिशों के कारण है. जब बंदरों को शिक्षित किया जा सकता है तो मनुष्य को बंदरों के साथ जोड़ने वाला जो संपर्क सूत्र है उस पर क्यों न भरोसा किया जाए?”
(12 जनवरी 1897 की चिट्ठी)
13 सितंबर 1898 की चिट्ठी में बेचू ने स्थान और व्यक्ति का नाम लिए बगैर एक दुखद घटना का जिक्र किया. 1894 में गिरमिटिया बन कर गयाना आए 29 वर्षीय भारतीय मजदूर भागरी की बीमारी के बाद प्लांटेशन के अधिकारियों और डॉक्टर द्वारा बार-बार अनदेखी करने, धक्के मार कर अस्पताल से निकाल देने और बीमारी में भी डंडे के बल पर काम करवाने के कारण भागरी की बेहद दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में असमय मृत्यु हो गई. बेचू के शब्दों को उद्धृत करें तो ‘
“एस्टेट के अफसरों द्वारा बुरी तरह से प्रताड़ित करने के बाद आखिरकार मौत उसे बचाने के लिए आगे आई और इस तरह अत्याचारियों के शिकंजे से उसकी मुक्ति हो पाई.”
यह ईस्ट कोस्ट डेमेरारा के प्लांटेशन कोव एंड जॉन का मामला था. इस मामले में बेचू ने अखबार में जो चिट्ठी लिखी उस को आधार बनाकर इमीग्रेशन एजेंट एफ डी सीली ने जांच की और भागरी की मृत्यु का कारण प्लांटेशन के अधिकारियों की उपेक्षा और उचित चिकित्सा न मिलना बताया.
जब इस एस्टेट के मैनेजर ने बेचू के खिलाफ मुकदमा कर दिया तो 6 महीने तक मुकदमे की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने बेचू को अखबार में चिट्ठियाँ लिखने से मना कर दिया गया. पर बेचू का आंदोलनकारी मन भला चुप कहाँ बैठने वाला था. उसने भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड हैमिल्टन को चिट्ठी ( 27 अप्रैल 1899) लिखकर प्लांटेशन के एक गिरमिटिया कुली काली को चीफ इंजीनियर डेनियल स्पेंसर द्वारा मारने की घटना की शिकायत की. इस घटना के कई महीनों बाद पता चला कि ईस्ट डेमेरारा के इमिग्रेशन एजेंट ने इस मारपीट की घटना की रिपोर्ट इमिग्रेशन एजेंट जनरल को की थी. बेचू ने लॉर्ड हैमिल्टन को यह भी लिखा कि अपने कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार करने की शिकायतों के बाद भी इस एस्टेट में नए गिरमिटिया कुलियों का आगमन जारी है.
बेचू ने लॉर्ड हैमिल्टन से शिकायत की कि गयाना में उसके खिलाफ मुकदमे की सुनवाई करने वाले जज पूरी तरह से प्लांटेशन मालिकों के प्रभाव में हैं और उनके हितों के लिए काम करते हैं इसलिए भागरी की मृत्यु के कारणों का पता लगाने के लिए सख्त जाँच की जाए.
एनमोर एस्टेट का एक ओवरसियर जब एक कुली लड़की को बहला-फुसलाकर बुरी नीयत से अपनी कोठी पर ले गया तो इसकी खबर बेचू को लग गई. बेचू की निर्भीक और बेवाक चिट्ठियों का तब इतना आतंक था कि इमीग्रेशन एजेंट ने आनन फानन में घटना की जाँच की और गयाना के अपने सबसे बड़े अधिकारी को ओवरसियर की कारस्तानियों के बारे में लिखा- उसे डर था कि यदि उसने ऐसा नहीं किया तो बेचू सीधे भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को चिट्ठी लिख कर इस घटना की शिकायत कर देगा. नतीजा यह हुआ कि लड़की को भगाकर ले जाने वाले ओवरसियर को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.
अखबार को लिखी एक चिट्ठी में बेचू ने एक मजिस्ट्रेट की यह कहते हुए पोल खोली कि जब वह प्लांटेशन पर ही पड़ा रहता है और वहां के मैनेजर के साथ उसके बेहद दोस्ताना संबंध हैं, उनका आपस में रोज़ का मिलना जुलना और खाना पीना है तो ऐसा कोई व्यक्ति वहां काम करने वाले गिरमिटिया मजदूरों के हितों की सुरक्षा क्या करेगा?(अखबार में छपी 8जुलाई 1898 की चिट्ठी)
बेचू ने भारतीय मजदूरों की परेशानियों का विश्लेषण करते हुए पाया कि मालिक मजदूर के बीच संवाद की अलग-अलग भाषा होने और दोनों को एक दूसरे की भाषा की समझ न होने के चलते शोषण, दमन, अत्याचार और पुलिसिया हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं. इसी संदर्भ में बेचू ने अपनी एक चिट्ठी में सुझाव दिया कि
“मजदूरों की बहाली के एक साल के अंदर इमीग्रेशन एजेंट्स और ओवरसीयर्स के लिए colloquial हिंदी को अनिवार्य कर देना चाहिए. इससे अधिकारियों और कुलियों के बीच मतभेद की गुंजाइश बहुत कम हो जाएगी और प्लांटेशन के औद्योगिक माहौल में ज्यादा सौहार्द्र बनेगा. यह कितनी अजीब बात है कि एक जाहिल अशिक्षित कुली को यहां आकर एक विदेशी भाषा सीखनी पड़ती है जबकि एक पढ़े लिखे यूरोपियन के लिए यह अपेक्षाकृत बहुत आसान है कि वह उन लोगों की भाषा सीख ले जिनके बीच उसे काम करना है.”
(28 जुलाई 1898 की चिट्ठी)
नवंबर 1897 में बेचू ने गिरमिटिया प्रणाली के बारे में विस्तार से ब्रिटिश राज के सेक्रेटरी को लिखा.
तत्कालीन गिरमिटिया कानून की कमियों और पक्षपातपूर्ण स्थापनाओं की धज्जियां उड़ाने में बेचू ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. एक चिट्ठी में उसने लिखा:
“मुझे ब्रिटिश गयाना का इमीग्रेशन लॉ अब तक लिखा गया सबसे ज्यादा आपत्तिजनक कानून लगता है. जो कोई भी उस के पन्नों पर निगाह डालेगा तो पहली नजर में उसे यह स्पष्ट तौर पर समझ आ जाएगा कि इस कानून को बनाने वाले तत्कालीन समय में सर्वशक्तिमान नीति नियंता प्लांटर्स के अंगूठों के नीचे दबकर काम कर रहे थे. यह कानून और ऐसा कानून भारत के हम नागरिकों को ब्रिटिश राज के अन्य नागरिकों की तुलना में कमतर और अलग नस्ल का समझता है. यही कारण है कि वह हम पर सर्वाधिक कष्टकर और दमनात्मक प्रतिबंध लगाता है.
जैसे कांटों भरी किसी झाड़ी से कोई इंसान अंगूर नहीं तोड़ सकता, उसी प्रकार उन अधिकारियों और तंत्र से किसी तरह के सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती जिसने अपनी कार्यप्रणाली से ही उन सुधारों की जरूरत को जन्म दिया हो. इसलिए मेरे मन में किसी तरह का कोई मुगालता नहीं है कि हमारा इमीग्रेशन सिस्टम पुरानी झाड़ू से साफ किया जा सकता है, उसके लिए पूरी तरह से नई झाड़ू ही चाहिए. नौकरी देने वाले प्लांटर गरीब भारतीय मजदूरों को कानूनी रूप से तय वेतन से कम भुगतान न करें इसकी पूरी तरह से चाक चौबंद व्यवस्था करनी होगी.”
अपनी एक अन्य चिट्ठी में बेचू ने भारतीय मजदूरों के ऊपर हिंसक अत्याचार की हालिया घटना के संदर्भ में लिखा:
“जब कुली खुश और संतुष्ट रहते हैं, जैसा अक्सर सार्वजनिक रूप से बताया जाता है, तब बर्बाइस में सशस्त्र पुलिस बल को कुछ दिनों पहले भेजने की जरूरत आखिर क्यों पड़ी? यह लगभग एक रिवाज़ सा बन गया है कि स्थानीय अधिकारियों से न्याय न मिलने पर जैसे ही कुली किसी बात के लिए अपनी शिकायत इमीग्रेशन एजेंट जनरल को दर्ज कराना चाहते हैं वहां उन्हें दबाने के लिए हथियारबंद लोगों की टुकड़ी रवाना कर दी जाती है.”
आत्मसम्मान से कोई समझौता नहीं
भले ही बेचू एक कुली बनकर गयाना गया हो पर उसे अपने आत्मसम्मान का भरपूर ध्यान रहता था.
बेचू ने अपनी एक चिट्ठी में लिखा है कि इस ब्रिटिश उपनिवेश में हम अंग्रेजी साम्राज्य में जन्मे नागरिकों को एक मामूली गुलाम समझा जाता है इसीलिए हमें संबोधित भी अपमानजनक ढंग से किया जाता है.
दरअसल 24 नवंबर 1897 की एक चिट्ठी में इमीग्रेशन एजेंट जनरल ने बेचू को सिर्फ़ बेचू कह कर संबोधित किया था.
रॉयल कमीशन ने बेचू को अपनी गवाही देने के लिए आमंत्रित किया तो लेकिन अपनी रिपोर्ट में उसके नाम के आगे “मिस्टर” नहीं लिखा. जितने गवाह वहां बुलाए गए थे यह दुर्व्यवहार सिर्फ एक व्यक्ति के साथ किया गया और वह था बेचू. अपना पक्ष रखने के लिए आमंत्रित किए जाने वाली चिट्ठी पर संबोधित व्यक्ति का नाम सिर्फ़ बेचू “Bechu” लिखा था जिसपर बेचू को आपत्ति हुई और अपनी बात उसने अगली चिट्ठी में दर्ज़ कर दी.
“मुझे यहाँ जिस तरह से संबोधित किया जाता है उसे मैं अपमानजनक कहने के सिवा कुछ और नहीं कह सकता. सामान्य शिष्टाचार का तकाज़ा है कि किसी इंसान को चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, संबोधित करते हुए उसके नाम के आगे मिस्टर लगाना ज़रूरी है.”
(गयाना के इमीग्रेशन एजेंट जनरल को लिखी चिट्ठी का अंश)
यहां ध्यातव्य है कि द डेली क्रॉनिकल अखबार में बेचू की लिखी चिट्ठियाँ इतनी प्रामाणिक होती थीं कि संपादक ने बेचू को सम्मानपूर्वक यह विशेष सुविधा दे रखी थी कि वह अपनी चिट्ठियाँ बगैर टिकट लगाए उनके पास भेज सकते हैं.
गयाना में बेचू के अंतिम दिन
वैसे बेचू का अनुबंध तो पाँच वर्षों का था लेकिन गयाना में गिरमिटिया प्रथा के व्यावहारिक स्वरूप पर उसके निरंतर आक्रमण और ब्रिटिश राज द्वारा इसे औपचारिक तौर पर ख़त्म कर देने की घोषणा के बाद दासता प्रणाली का ही दूसरा रूप बन कर सामने आने के दमदार आरोपों और उन आरोपों को ब्रिटिश राज के सबसे ऊँचे पायदान तक पहुँचा देने की घटनाओं के चलते गवर्नर ऑगस्टस हेमिंग ने उसे करार के आधे समय से भी कम अवधि में मुक्त कर दिया- वह दिसंबर 1994 से फरवरी 1897 करार से बँधा रहा.
गवर्नर ने बेचू का इंडेंचरशिप 26 फरवरी 1897 को खत्म कर दिया पर यह आदेश दिया कि उसे 5 साल गयाना में ही रहना होगा. बेचू आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने की इजाजत मांग रहा था जो गवर्नर ने दी नहीं. गवर्नर ने उसे सूचना दी कि यदि वह इंग्लैंड जाना ही चाहता है तो पहले भारत से गयाना तक लाने का पूरा खर्चा जमा करना होगा. बेचू ने इस पर यह कहा कि मैं यह खर्चा जमा करने को तैयार नहीं हूं और मेरा अनुबंध खत्म होने के बाद भी मुझे यहीं रहने के लिए बाध्य करना मेरा समय बर्बाद करना है.
1901 में बेचू के भारत लौट जाने की बात कही जाती है पर वह भारत लौटा या नहीं लौटा इस बारे में इतिहासकारों में मतभेद है. दरअसल 1901 के बाद उसके जीवन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती.
मारिया कलादीन ने जांच पड़ताल करने के बाद अपनी थीसिस(2000) में लिखा है कि 1901 में बेचू के गयाना से चले जाने के बारे में क्लेम सीचरन ने अपनी किताब में लिखा है पर उसके बाद बेचू का क्या हुआ इसकी कोई जानकारी नहीं है. मुझे 1902में बेचू की दो चिट्ठियों के बारे में पता चला जो द डेली क्रॉनिकल ने छापीं पर उनपर पता भारत का नहीं बल्कि फिजी का था. इस रोशनी में देखने पर इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि बेचू गयाना से भारत न आकर फिजी चला गया.
वेस्टइंडीज के इतिहासकार प्रो केनेथ रामचंद का बेचू के बारे में कहना है कि 1901 में गयाना से निकलने के बाद वह इंग्लैंड चला गया.
विडंबना यह है कि भारतीय अध्येताओं ने सुदूर भूमि पर रहते हुए भारतीय समुदाय के हितों की रक्षा करने के लिए कलम का इस्तेमाल करने वाले इस जानकार,प्रखर और निर्भीक एक्टिविस्ट की कोई सुध नहीं ली…वह इतिहास के पन्नों से लगभग विस्मृत हो गए. पर इससे कैसे इनकार किया जा सकता है कि उनका काम गयाना जा कर बस गए भारतीयों का जीवन आसान बनाने में नींव का पत्थर साबित हुआ.
(बेचू के जीवन के जिन छः सात वर्षों की जानकारी हमें मिलती है उस दौर में भारतीय फोटोग्राफी अपने शैशव काल में थी इसलिए उनकी कोई तस्वीर हमें नहीं मिलती.)
यादवेन्द्र जन्म: 1957, आरा (बिहार) |
Bharateey girmitiya itihas ke is ujjwal charitr se parichay karvane ke liye anek saadhuvaad.
Is disha mein aur kam darkaar hai.
ज्ञान-विज्ञान की नई खोज के लिए भी समालोचन को जाना जाएगा। पिछले कुछ दिनों से मेरे जैसे ज्ञान-व्याकुल लेखकों के लिए आप सामग्री दे रहे हैं। हम समृद्ध हो रहे हैं।
बेचू को पूरा पढ़ गया। यह एक अदृश्य और उपेक्षित इतिहास है। जिस पर थोड़ी सी जानकारी भी महत्त्वपूर्ण लगती है। बेचू गिरमिटिया मजदूरों के इतिहास का एक जीवंत पात्र हैं। जो मजदूरों के हक की लड़ाई में शरीक है। जाहिर है संभावना यही बनती है कि बेचू के नाम से किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति को भेजा गया।
बहरहाल, दास्तान दिलचस्प है जिसे इंसान की आज़ादी के संघर्ष में शामिल एक जागरूक इंसान के योगदान के रूप में स्मरण किया जाना चाहिए।
यादवेंद्र जी का यह कार्य उल्लेखनीय है।
जिन्हें बेचू नाम से सम्बोधित किया गया है वह अपने समय के जागरुक गिरमिटिया मज़दूरों में से एक थे । उन्होंने कम मज़दूरी मिलने के विरोध के लिखा । विरोध किया । जज का एक रसूखदार सेठ से परिचय है और जज उसी के प्रभाव में आकर फ़ैसले करता है । भारत में आज भी सत्तारूढ़ दल के प्रभाव में आकर फ़ैसले सुनाते हैं । सर्वोच्च न्यायालय ने चार धाम यात्रा के लिए 10 मीटर चौड़ी सड़क के निर्माण को सही बताया है । और निर्माण करने की अनुमति दे दी । मोदी सरकार का कहना है कि इस मार्ग से सशस्त्र बलों के वाहनों के आवागमन से दुश्मन देशों पर नज़र रखी जा सकेगी । जबकि यह मार्ग उत्तराखंड के पर्यावरण के लिए यह प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और डाल भी रहा है । सुशील बहुगुणा स्वयं उत्तराखंड के रहने वाले हैं और एनडीटीवी के एंकर हैं । उन्होंने वहाँ जाकर, सड़कों के चौड़ीकरण के दुष्प्रभावों के परिणाम भी दिखाये थे । बेचू मज़दूर ने गुयाना में एक ओवरसीयर द्वारा एक भारतीय स्त्री पर बुरी नज़र से देखने पर आपत्ति जताई थी ।
वास्तव में बेचू महोदय का विवरण पत्रकार और लेखक सुश्री गैयुत्र बहादुर (Gaiutra Bahadur) की चर्चित पुस्तक ‘कुली वुमन : द ओडिसी ऑफ़ इंडेंवचर में लिखा हुआ है । बेचू की पहचान एक हिन्दू बालक का ईसाई मिशनरी में लालन-पालन हो, या उन्हें सरोजिनी नायडू के परिवार से संबंध रखने वाला बताया गया हो, चट्टोपाध्याय या कुछ और, वे पढ़े लिखे गिरमिटिया हैं । इन्होंने ब्रिटिश गयाना में बेशक सहायक ड्राइवर का काम मिला था, लेकिन अपनी अंग्रेज़ी भाषा की जानकारी से अख़बारों में चिट्ठियाँ लिखे जाने के लिए सिद्धहस्त माना गया । वे इंग्लैंड में जाकर पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन उन्हें मज़दूर होने के लिए भेज दिया गया ।
गयाना के राजनयिक ओदीन इशमाइल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘फ़्रॉम अर्लिएस्ट टाइम्स टू इंडिपेंडेंस में बेचू का नाम बोशू चट्टोपाध्याय बताया गया है । बेचू स्वयं को बाउंड कुली (क़रार शर्तों पर काम करने वाला कुली) बताते हैं ।
कुल मिलाकर ये व्यक्ति अख़बारों में लिखें गये मुखर पत्रों के कारण या बातचीत में निडर होकर बोलने वाले हैं ।
बेचू के बारे में इस शोधपूर्ण आलेख के लिए धन्यवाद।
बिल्कुल नई जानकारी है मेरे लिए. बेचू जी बिल्कुल अलग तरीके से स्वतंत्रता का संग्राम लड़ रहे थे. हमारे गुमनाम सेनानियों में से एक. उनको शत शत नमन. यादवेन्द्र जी का आभार है और अरुण भाई का भी.
भाषा को शोषण से जोड़ना बेचू को अद्वितीय व्यक्तित्व सिद्ध करता है । बेहतरीन प्रस्तुति है
बेचू की चिट्ठियों से पूरी दुनिया के सामने भारत से गये गिरमिटिया मजदूरों पर हो रहे शोषण की जैसी व्यथा-कथा उजागर होती है, वह अभावग्रस्त मानव समाज के इतिहास का एक दुखद अध्याय है।अपनी जमीन और जड़ों से उखाड़े गये मनुष्यों की बेबसी की ये दास्तान उस औपनिवेशिक बर्बरता के अमानवीय चेहरे को उजागर करती है। ऐसा लगता है कि इस बेचू में हम एक और गाँधी को देख रहे हों। इस आलेख के लिए साधुवाद !
बेहतरीन प्रस्तुति। बेचू जैसे चरित्रों की खोज इतिहास के
आंखों से ओझल अध्याय को नये सिरे से जानने-समझने के सूत्र हमारे सामने प्रस्तुत करती है।
Forced migration की दिल दहला देने वाली कहानियों के बीच एक चरित्र यह भी। मसीहा अवतरित नहीं होते, बंजर प्रतीत होते खेतों में उगते हैं। यादवेंद्र जी का आभार कि आपने बेचू जी से परिचय कराया।
बेचू की पहेली और उस समय के दौर पर बहुत दिलचस्प आलेख। यादवेंद्र जी व आपको शुक्रिया।
बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। बेचू के प्रयासों से धीजी के आंदोलनों की मानो पृष्ठ भूमि तैयार होरही थी। मिशनरी परिवार में रहे थे, पढे हुए थे, तभी व्यक्ति के अधिकार की बात उठा पाये। भारत से मजदूरी कराने लेजाये गये ग्याना से फिजी, मॉरीशस तक के सभी गिरमिटियों को ऐसे ही शोषण- अत्याचार होने पडे थे।
बेचू के बारे में यादवेंद्र जी का शोधात्मक आलेख मर्मस्पर्शी है।