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समालोचन

Home » महात्मा गांधी का जेल-जीवन: मोहसिन ख़ान

महात्मा गांधी का जेल-जीवन: मोहसिन ख़ान

जनवरी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की शहादत का महीना है, ३० जनवरी को उनकी शहादत के ७४ साल हो जाएंगे. इन वर्षों में गांधी का भारत बदल गया है, उनके आदर्शों और मूल्यों से दूर चला गया है. ३० जनवरी से विभिन्न संगठनों द्वारा अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध का अभियान भी आरम्भ हो रहा है. समालोचन भी इस अवसर पर महात्मा गांधी से सम्बन्धित सामग्री प्रकाशित करेगा. यह आलेख गांधी जी के जेल-जीवन पर है जिसे मोहसिन ख़ान ने लिखा है.

by arun dev
January 28, 2022
in समाज
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महात्मा गांधी का जेल-जीवन:  मोहसिन ख़ान
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महात्मा गांधी का जेल-जीवन

मोहसिन ख़ान

आधुनिक विश्व और भारत के जितने भी ऐतिहासिक महान व्यक्तित्व गांधी जी के पूर्व, समकाल और उत्तरकाल में हुए हैं, उन सब में यदि तुलनात्मक रूप में देखा जाए तो गांधीजी का व्यक्तित्व उन सबसे अधिक दृढ़, सत्यनिष्ठ, निडर और साहसी रहा है. उनका यह साहस राष्ट्र को स्वाधीन कराने का साहस था. उनकी सत्यता उनके व्यक्तित्व में और भी निडरता लाती थी तथा दृढ़ता के साथ वे उन विरोधी विचारधारा के खिलाफ खड़े होते थे जो अमानवीयता को बढ़ावा देती है. गांधी जी का प्रारंभिक जीवन साधारण सा रहा. अपनी उच्चशिक्षा प्राप्त करने के लिए वह विदेश जाते हैं और परिवार में उनसे सभी की यह अपेक्षा रही होगी कि वे बैरिस्टर बनकर अपनी आजीविका के साथ जुड़कर अपना प्रतिष्ठित जीवन गुजारें. परंतु गांधी जी को अपने जीवन में आंतरिक रूप से किसी और ही प्रेरणा ने प्रोत्साहित किया और वे बैरिस्टरी छोड़कर राष्ट्र सेवा को समर्पित हुए. यह राष्ट्र सेवा कोई मामूली सेवा नहीं थी, इसमें जीवन का ख़तरा मौजूद था, लेकिन गांधीजी ने इस ख़तरेरे को उठाना अपनी आजीविका से कहीं अधिक मूल्यवान समझा.

देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने जब-जब जिन-जिन ख़तरों को उठाया, वह ख़तरे मामूली ख़तरे न थे; जीवन और मृत्यु की एक क्षण की दूरी ही बीच में रही होगी. लेकिन वह ऐसी अवस्था से पलायनवादी नहीं हो जाते हैं और न ही वह किसी भी स्थिति में ऐसी अवस्था से घबराते हैं. अपने दृढ़ व्यक्तित्व के कारण वे निरंतर देश के लिए संघर्ष करते रहे और देश को आज़ाद कराने का संकल्प पूरा करते रहे, लेकिन इस आजादी में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. इस तरह से उनका यह जेल जाना शर्मनाक स्थिति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि यह स्थिति उनके लिए गौरव की बात थी, क्योंकि वह अपने पराधीन देश के लिए स्वतंत्रता का संघर्ष कर रहे थे और इस संघर्ष में उन्हें जेल होना स्वाभाविक था. वे जेल के भयानक वातावरण से कहीं भी विचलित नहीं होते, बल्कि दृढ़ता के साथ उस वातावरण को भी वे बदलने का प्रयास करते हैं जो वातावरण साम्राज्यवादियों ने बना रखा था. गांधी की अहिंसा और शांति की नीति ने जेल में व्याप्त अमानवीय अत्याचार को भी नए सिरे से खारिज करने का प्रयास किया और नए मानवीय मूल्यों को गढ़ने का प्रयास किया. यह उनकी वास्तविक सक्रियता काही जाएगी वे जेल में कहीं भी उदासीन नहीं होते, बल्कि ऊर्जा ग्रहण कर और अधिक सक्रिय, व्यस्त हो जाते हैं. अपने आत्मकथ्य लिखना, लेखन में सक्रिय रहना, जेल के नियमों को मानना उनके प्रमुख सक्रिय जेल जीवन को दर्शाने के साथ उनकी सकारात्मक को दर्शाते हैं. जहां अंग्रेज जेलों में भारतीयों पर अत्याचार करते रहे हैं, उस अत्याचार के विरोध में भी गांधीजी अपनी दृढ़ता और साहस का परिचय देते हैं. वह जेल में हो रही हिंसा के खिलाफ खड़े होते हैं और सुविधाओं को बढ़ाने की बात करते हैं, क्योंकि जेल में केवल पशु बंद नहीं हैं या उन पर अत्याचार हिंसक पशुतावाला नहीं होना चाहिए. इसलिए वे जेल में भी मानवीयता के उस पहलू पर विचार करते हैं; जिसमें जेल में इंसानों को ही रखा जाता है.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विशाल संघर्ष में गांधीजी ने अफ्रीका से लौटकर 1915 में पदार्पण किया और यह पदार्पण सत्य, अहिंसा और साहस के बल पर किया. देश में लौटते ही उन्होंने अपनी सक्रियता के माध्यम से अंग्रेजों से बहुत ही संयम के साथ संघर्ष किया और अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए वे कई बार, कई सालों तक जेल की कोठरी में बंद रहे. अंग्रेजों ने उन पर तरह-तरह की यातनाएं कीं, परंतु वह यातनाओं को सहते हुए अपने मूल्यों में कमी न आने देते हैं और रात-दिन स्वाधीनता संघर्ष को अपना लक्ष्य बनाकर वे अपने संकल्प पर दृढ़ नजर आते हैं.

सबसे पहले गांधी जी को जेल अफ्रीका से लौटने के बाद 1917 में हुई, जब चंपारण में नील की खेती के अन्याय के खिलाफ़ उन्होंने किसानों के साथ संघर्ष किया और उनके पक्ष में खड़े होकर वे अंग्रेजो के खिलाफ अहिंसात्मक लड़ाई लड़ने बिहार चले गए. उस समय अंग्रेजों ने नील की खेती से संबंधित कानून बनाया था, उस कानून को उन्होंने समाप्त कराने के लिए कड़ा संघर्ष किया और मुक्ति दिलाने का प्रयास किया. इस प्रयास में अंग्रेज सरकार बहुत भयभीत हो गई इस भय के कारण उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा और 2 महीने की सज़ा सुनाई. लेकिन गांधी जी के साथ हज़ारों किसानों की संवेदनाएं थीं, उनके संघर्ष के लिए हजारों किसानों के कंधे मौजूद थे और इस जन समर्थन को देखते हुए अंग्रेज घबरा गए और उन्हें कुछ ही दिनों में जेल से रिहा कर दिया गया. इससे एक बात स्पष्ट रूप से नज़र आती है कि गांधीजी जिस स्थिति को लेकर जेल जा रहे थे, वह स्थिति देश को आज़ाद कराने वाली स्थिति थी और वह अपराधी बनकर जेल जाते हुए वे गर्दन शर्म से नहीं झुकाते. वे देश की सेवा के लिए जेल जा रहे थे; यह एक बड़ा अंतर है कि जेल जाने का उद्देश्य क्या है और उसके पीछे जिस संघर्ष की कथा छुपी होगी यह बात संपूर्ण भारत उस समय जानता था.

इसके पश्चात 1922 में गुजरात में साबरमती आश्रम के नज़दीक गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया. यह गिरफ्तारी उनके लेखन के कारण हुई. यंग इंडिया नामक एक जरनल में अंग्रेज सरकार के खिलाफ़ लेख लिखने के कारण उन्हें इस गुनाह में 6 साल की सज़ा सुनाई. लेकिन 6 साल की सज़ा से पहले ही उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया, 22 जनवरी 1924 को जेल से उन्हें छोड़ दिया गया. इसके पश्चात वह नमक सत्याग्रह क़ानून के खिलाफ़ कमर कसकर खड़े हो जाते हैं. उन्होंने नमक क़ानून को ख़त्म करने के लिए एक लंबी यात्रा दांडी यात्रा निकाली जो दांडी के समुद्र तक पहुंचने के बाद समाप्त होनी थी. गांधीजी ने इस यात्रा को सफलतापूर्वक अपने नेतृत्व में प्रारंभ किया था और अंत में नमक उठाकर इस क़ानून को गांधी जी ने भंग कर दिया. यह सब देखते हुए अंग्रेज सरकार ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और गांधीजी को 8 महीने तक जेल में रहना पड़ा.

गांधी जी का यह संघर्ष निरंतर चल ही रहा था. दूसरे राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस के लौटने के पश्चात एक बार फिर अंग्रेज सरकार के खिलाफ़ उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया था और गांधी जी को इसी कारण 4 जनवरी 1932 को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और पुणे की यरवदा जेल में डाल दिया गया. इसी बीच अंग्रेज सरकार ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए अलग से निर्वाचन अधिकार की सिफ़ारिश की. गांधी जी को इस निर्णय से बहुत दुख हुआ और जेल में ही उन्होंने आमरण अनशन करना शुरू कर दिया. गांधीजी के आमरण अनशन और सत्य की लड़ाई से अंग्रेजों पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई और पूना पैक्ट के जरिए अलग निर्वाचन के फैसले को रद्द कर दिया गया. इसी दौरान उन्हें 8 मई 1933 को जेल से रिहा कर दिया गया इसके पश्चात कुछ सालों बाद भी गांधीजी को 1 अगस्त 1939 को गिरफ्तार कर लिया गया और फिर उन्हें 23 अगस्त को रिहा कर दिया गया.

16th April 1938: Mahatma Gandhi leaves the Presidency Jail in Calcutta. (Photo Courtesy by Keystone/Getty Images)

भारत में 1942 में गांधी जी ने एक विशाल भूमिका के साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रारंभ किया गया और अपने अंतिम प्रस्ताव में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारे के साथ ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने की चेतावनी दे दी. गांधीजी ने इस समय ‘करो या मरो’ के क्रांतिकारी नारे को भी प्रचारित किया. इस आंदोलन में समस्त भारत एकजुटता के साथ साम्राज्यवाद के खिलाफ़ सीना तानकर खड़ा हो गया और ऐसी स्थिति को देखते हुए फिर से गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें पुणे के आगा खान पैलेस में बंद कर दिया गया. इस बार उन्हें जेल से रिहाई 6 मई 1944 को मिली, लेकिन उनकी दृढ़ता से एक बात स्पष्ट होने लगी थी कि अंग्रेज सरकार की नींव अब डगमगाने लगी है. इसके अतिरिक्त महात्मा गांधी से जुड़े हुए और क़िस्से को भी देखा जा सकता है. जब गांधी जी नमक सत्याग्रह कर रहे थे तब सरदार पटेल को भी गिरफ्तार कर लिया गया था और जेल में उनके साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा था, लेकिन गांधीजी ने इस दुर्व्यवहार के विरुद्ध आवाज उठाई और उन्हें सुविधा प्रदान करने के लिए अपने वक्तव्य दिए; जिससे अंग्रेज सरकार पर असर हुआ और सरदार पटेल के प्रति अंग्रेज सरकार ने जेल में किए जा रहे रवैया को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा.

गांधी जी के जेल जीवन से संबंधित एक किस्सा और भी पढ़ने को मिलता है. महात्मा गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खान एक साथ जेल में थे. खान अब्दुल गफ्फार खान महात्मा गांधी दोनों अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर पर जुड़े हुए थे. जेल में महात्मा गांधी अनुशासन को सर्वोपरि मानते थे और खान अब्दुल गफ्फार खान को उनकी यह भावना पसंद नहीं आती थी. जब भी कोई जेल अधिकारी महात्मा गांधी से मिलने आता था, महात्मा गांधी उस अधिकारी से बहुत विनम्रता और सहजता के साथ मिलते थे. गांधीजी जेल के अधीक्षक को देख कर खड़े हो जाते थे और उनसे बातें करते थे. खान अब्दुल गफ्फार खान को यह बात ठीक नहीं लगती थी और उन्होंने एक बार गांधी जी से पूछा कि- “हमें पता है आप अंग्रेज अधिकारियों के आने पर उठकर क्यों बात करते हैं. गांधीजी ने पूछा क्यों भाई? वह बोले यही कि यह अधिकारी हमें और दूसरे क़ैदियों को सिर्फ अंग्रेजी या हिंदी के अखबार देते हैं और आपको गुजराती समेत कई भाषाओं की पत्रिकाएं और अख़बार देते हैं. गांधीजी मुस्कुरा दिए. अगली सुबह फिर उनके सामने कई अखबार आए. उन्होंने सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी अखबार उठाया, बाक़ी के लिए मना कर दिया.

यह सिलसिला महीने भर तक चलता रहा. अंग्रेज अधिकारी फिर आया और गांधीजी उससे उसी तरह बात करने लगे. तब खान अब्दुल गफ्फार खान को लगा कि उन्होंने गांधीजी से गलत बात कह दी है. अब खान साहब भी किसी अंग्रेजी अधिकारी के सामने खड़े होकर बात करने लगे. एक दिन गांधीजी ने कहा- हमें पता था आपके व्यवहार में भी वह आ जाएगा जो हम सोचते हैं, इसलिए उस दिन कहना ठीक नहीं लगा. आप अहिंसा में हमसे बहुत आगे निकल चुके हैं. हो सके तो जहां रहें वहां का अनुशासन मानिए ताकि दूसरों को तकलीफ न हो. उनको हम अपने मूल व्यवहार से ही सही रास्ते पर लाएंगे. बदला लेकर या दुत्कार कर नहीं.” इस घटना से स्पष्ट होता है कि गांधी जी अपने जीवन में जेल के नियमों का पूर्णत: पालन किया करते थे और जहां कहीं उन्हें लगता था कि उन पर गलत तरीके से अमानवीय अत्याचार हो रहा है तो वह उसका खुलकर अहिंसात्मक विरोध करते थे ताकि स्थितियों में सुधार लाया जा सके. वह किसी भी तरह से इस बात को मानने के लिए राज़ी नहीं थे कि अमानवीयता को चुपचाप सह लिया जाए, बल्कि वह अमानवीयता के खिलाफ़ खड़े होकर संघर्ष करने में विश्वास रखते हैं.

अब वर्तमान भारत में गांधी जी की 150 वीं जयंती मनाई जा रही है. इस 150 वीं जयंती पर गांधी जी से संबंधित उनके मूल्यों, सिद्धांतों, आचार-व्यवहार से संबंधित कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है और उनके विचारों को विश्वभर में फैलाया जा रहा है. यह एक पुनीत कार्य होने के साथ-साथ पूरे विश्व को अहिंसा के संदेश देने की एक बड़ी मुहिम है; जिसकी हर स्तर पर बड़ी सराहना की जानी चाहिए. यह सराहना इसलिए की जानी चाहिए, क्योंकि विश्व दिन-ब-दिन हिंसात्मक होता जा रहा है और ऐसी स्थिति में हमें गांधीजी के बताए हुए सिद्धांतों, मूल्यों, लोकव्यावहार की गहरी आवश्यकता है. जहां वर्तमान में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, हिंसात्मक प्रवृत्ति फिर से उभर रही है, लोक व्यवहार दिन-ब-दिन स्वार्थ केन्द्रित हो रहा है, ऐसे समय में हमें गांधी मार्ग पर दृढ़ता के साथ अहिंसा को अपनाकर आगे बढ़ना होगा. गांधी जी का जीवन केवल बाहरी जीवन की स्वतंत्रात्मक संघर्षात्मक गाथा ही नहीं, बल्कि आत्म-संयम, मानवीय नियमों के प्रति आस्था, सदाचार, नैतिकता और सत्य की वह कहानी भी है जो उन्होने जेल की दीवारों पर अंकित कर दी है. उनका जेल जीवन हर क़ैदी के लिए एक प्रेरणात्मक स्रोत है; जिसे अपनाकर हर क़ैदी अपने जीवन में रचनात्मक ऊर्जा ला सकता है और अपने व्यावहार को सहजता के साथ परिवर्तित कर स्वयं भी प्रेरणा का केंद्र बन सकता है.

वर्तमान में देखने में आया है कि गांधी जी के जीवन से संबंधित कई सारी घटनाओं के म्यूजियम बन रहे हैं. एक म्यूजियम चंडीगढ़ में भी इसी प्रकार का निर्मित हुआ है, जिसमें गांधी जी के जेल के जीवन के बारे में दर्शाया गया है. म्यूजियम में दाखिल होंगे तो हमें गांधीजी को जेल में बैठे हुए देखेंगे. जिसमें गांधीजी एक टेबल के सामने जेल में बंद है और इस म्यूजियम में गांधी जी के जेल-जीवन का संपूर्ण विवरण लिखा हुआ है. वास्तव में गांधीजी का जेल जीवन अत्यंत अहिंसात्मक नीति वाला रहा है, जिसमें सादगी भरे जीवन की झलक हमें साफ नजर आती है. गांधीजी इस मत के कभी समर्थक नहीं रहे की जेल हो जाने पर उन्हें किसी भी तरह की आत्मग्लानि रही हुई हो या वे जेल की बदहाल स्थिति से भी समझौता करते रहे हों. वह जहां की जेल में गए वहां पर उन्होंने सुधार करने का एक व्यापक प्रयास किया है और जेल जीवन को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने जेल में रहकर भी संघर्ष किया है. आज जेल की जो जीवनगत सुविधाएं हैं, उनमें कहीं न कहीं महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन और विचार और जेल-जीवन मूल्यों की बहुत बड़ी संघर्षात्मक स्थिति जुड़ी हुई है; जिन्होंने जेल-जीवन को और बेहतर बनाने के लिए अनवरत अहिंसात्मक लड़ाई लड़ी.

डॉ. मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक

जे.एस.एम.महाविद्यालय,अलीबाग-402 201
ज़िला-रायगड़-महाराष्ट्र

ई-मेल- Khanhind01@gmail.com/ मोबाइल-09860657970          

Tags: 20222022 समाजगांधीजेलमहात्मा गांधीमोहसिन ख़ान
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Comments 3

  1. शिव कुमार तिवारी says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा लेख और गजब का कवर पेज.

    Reply
  2. M P Haridev says:
    3 years ago

    गांधी का सत्य और अहिंसा पर अटूट विश्वास था । उनका समूचा जीवन इन्हीं दो सिद्धांतों पर आधारित था । मोहसिन ख़ान ने लिखा है कि गांधी की सत्यता ही उनकी निडरता थी । साहब ! सत्य की अपनी ताक़त होती है । सत्य अपने पैरों पर खड़ा होता है । कोई डगमगा नहीं सकता । ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने जेल में गांधी के साथ रहकर सीखा कि हमारे देश को अपने अधीन करने वाले अंग्रेज़ अधिकारियों से भी आदर से बात करनी चाहिये । बापू ने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा । आम आदमी, विशेषकर किसानों को ग़रीबी के कारण को घुटनों तक धोती पहने हुए देखा । तब से लेकर जीवन के अंत तक यही पोशाक धारण करते रहे । कटि से शरीर का ऊपरी हिस्सा निर्वस्त्र रखा । गोल मेज़ सम्मेलन में भाग लेने की लिये लंदन गये । वहाँ की घोर ठंड में भी पोशाक को नहीं बदला । संकल्प शरीर को ताक़त और हिम्मत देता है । यह अनुकरण करने योग्य है । आपातकाल में मैंने सत्याग्रह किया था । इमरजेंसी दूसरी ग़ुलामी थी । प्रतिरोध किया । हरियाणा में कांग्रेस की सभा में आपातकाल विरोधी नारे लगाये । पुलिस सभा स्थल से बाहर ले आयी । हम दस लोग थे । अंधाधुंध लाठीचार्ज किया । आप महसूस कर सकते हैं । कष्ट झेला । पुलिस थाने में ले गयी । वहाँ के बरामदे में बिठा दिया । दिसंबर 11, 1975 की रात थी । जो पुलिसकर्मी वहाँ से गुज़रता, हमें पीटता हुआ निकलता । रात्रि के 10 बजे हमें एस एच ओ के कमरे में ले जाया गया । मेरी आयु 20 वर्ष की थी । सभी को नंगा कर दिया गया । बारी-बारी से एक एक को ज़मीन पर उलटा लिटाकर hips पर चमड़े के बल्ले से पीटा । 4-5 बार बल्ला लगने के बाद चमड़ी सुन्न हो जाती । असंख्य बार बल्ले की बौछार की गयी थी । फिर टाँगों की पिछली तरफ़ पिंडलियों और जाँघों के बीच लकड़ी का बना हुआ सोंटा रखकर पाँवों को नितम्बों तक मिलाये जाने के लिये पुलिसकर्मी ज़ोर लगाता । तीसरी सज़ा में पेंसिल को हाथों की उँगलियों के बीच फँसाकर उँगलियों को दबाया जाता । 15 दिनों के बाद पुलिस हम में से 3 व्यक्तियों को रिमांड पर ले आयी । सत्र न्यायाधीश की अदालत में पेश किया गया । ज़िला लघु सचिवालय में वरिष्ठतम और लोहिया के विचारों को मानने वाले वकील शाम लाल सरदाना ने स्वेच्छा से हमारी पैरवी की । हमें उलाहना भी दिया कि पिटाई के बाद किसी वकील को क्यों नहीं बताया । हम पुलिस पर इस्तग़ासा दायर करते । बहरहाल, पहले हमारा मेडिकल टेस्ट करवाकर तीन दिनों तक रिमांड पर ले जाने की सत्र न्यायाधीश ने इजाज़त दी । वह कथा भी भयभीत करने वाली थी । हम तीनों को अलग-अलग पुलिस चौकी में ले जाया गया । तीन दिनों तक भोजन नहीं दिया और न ही सोने दिया गया । हमने क़त्ल या अन्य अपराध नहीं किया था । यरवदा जेल पर लिख रहा हूँ । दो-तीन साल पहले History Channel पर Banged Up Abroad कार्यक्रम में देखा था । यरवदा जेल का भवन जर्जर हालत में है । भारत की बात छोड़ दें तो दुनिया की सभी जेलों की ख़स्ता हालत है । उपर्युक्त कार्यक्रम के अलग-अलग एपिसोडों में देखा था । विदेशी जेलों में नशीले पदार्थों की तस्करी के आरोप में गिरफ़्तार व्यक्तियों को क़ैदियों को रखा हुआ था । जेलों की आवासीय क्षमता से दोगुना संख्या में आरोपी और अपराधी क़ैद होते हैं । मुजरिम और मुलज़िम जेल में रहते हुए भी अपराध करते हैं । वहाँ नशीले पदार्थ बेचते हैं । उगाही करते हैं । मारपीट करते हैं । कमरों में क़ैदी ठूँसें हुए होते हैं । शौचालय और स्नानघर नर्क से कम नहीं होते ।

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    गाँधी हमारे समय में कई दशक बीतने के बाद भी कितने प्रासंगिक एवं एक तरह से अपरिहार्य हो चुके हैं कि उनके विरोधियों और शत्रुओ को भी उनकी जरूरत पड़ती है।उनके बगैर उनका काम भी नहीं चलता।सबही नचावत राम गोसाईं।अब इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि कोई उपाधि,कोई सम्मान और कोई कविता जो उन पर लिखी गयी हो,उनके सामने बौनी हो जाती है।गाँधी जैसे इतिहास पुरुष पर लिखा गया यह आलेख उनके संघर्षशील और विराट व्यक्तित्व पर एक संक्षिप्त गाथा है।मोहसिन जी को साधुवाद !

    Reply

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