भारतीय यथार्थवाद
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शिव की तीसरी आंख का मिथक, भविष्य के रूपांतर की संभावना को समझने के लिये, कुछ गौरतलब इशारे करता है. लेकिन इस मिथक की संभावना के प्रकट होने का वक्त, अब कहीं जाकर आया लगता है.
तीसरी आंख उसे कहते हैं, जो मनुष्य की दाएं बाएं में विभाजित दृष्टि का समन्वय करती है. और ज़रूरत पड़े तो रास्ते की रुकावटों को हटाने के लिये प्रलय भी मचा सकती है.
वैज्ञानिक बताते हैं कि मनुष्य की दोनों आंखें, एक ही दृश्य को दो कोणों से अलग-अलग रूप में देखती हैं. हमारे दिमाग तक हर चीज़ के दो बिंब पहुंचते हैं. फिर वह उन्हें एक बिंब में ढाल कर हमें दिखाता है. इसका मतलब है, हम सब देखते तो किसी तीसरी आंख ही से हैं. अगर ऐसा है, तो शिव की तीसरी आंख के खुलने का संबंध किस अन्य गहरी बात से है?
वह गहरी बात यह है कि आम तौर पर हम जो देखते हैं, वह दाएं बाएं के कोणों का ‘सम्यक समन्वय’ नहीं होता. इसका मतलब है, दृष्टि के सकारात्मक रूपों का समन्वय और नकारात्मक पक्षों का उन्मूलन. बस यही फर्क है.
इस फर्क को साफ करने के लिये बुद्ध ने कहा, ‘सम्यक दर्शन’, यानी वह जो ‘मध्य’ में है, उसे देखना. इसे बाद में ‘माध्यमिक दर्शन’ का नाम दे दिया गया.
क्राइस्ट को भी लगा कि उस तरह देखना, अलग तरह का देखना है. तो उसने कहा, ‘वे जिनके पास आंखें हैं, बस वे देखेंगे’.
यह जो अलग तरह की आंख है, उसे खोलने की बात, अलग-अलग समय में, अलग-अलग तरीके से बार-बार की जाती रही है. इस संदर्भ में हम यह देखेंगे कि आधुनिक काल में इस तीसरी आंख के खुलने की संभावना किस बात में निहित है.
आधुनिक काल को, भविष्य के रूपांतर की भूमिका बनाने के नुक्ते निगाह से देखना, तीसरी आंख के खुलने की संभावना के रूबरू होना है. इस संदर्भ में भूमिका बनाने वाले लोग वे हैं, जिन्होंने मध्य कालीन सोच की सीमाओं को तोड़ा और हमें एकदम नयी तरह से सोचना सिखाया.
बात तीसरी आंख को खोलने की है, तो ज़ाहिर है कि हमारी निगाह के केंद्र में ‘दर्शन’ को होना चाहिये. यानी हमें आधुनिक काल की ऐसी आमूलचूल भिन्न विचारधारा के गठन का विवेचन करना होगा, जो हमें मध्यकालीनता की सीमाओं से बाहर निकालती हो और एक नया भविष्य गढ़ना चाहती हो.
इस संदर्भ में जिस पहले दार्शनिक पर हमारी निगाह टिक सकती है, वे हैं कार्ल मार्क्स. उनके बाद इस सूची में दो और नामों को जोड़ा जा सकता है, एल्बर्ट आइंस्टीन और गांधी को. बेशक ये दोनों चिंतक विधिवत दार्शनिकों की कोटि में नहीं आते, फिर भी इन्होंने बतौर वैज्ञानिक और सत्याग्रही के रूप में जो किया, उस से आधुनिक मनुष्य के सोचने के तरीकों में गुणात्मक बदलाव पैदा हुआ.
इन तीनों ने आधुनिक काल के अंतर्विरोधों की अपने-अपने तरीके की व्याख्या की और यथार्थ को, दाएं बाएं के विभाजन से उबारने के लिये, यथासंभव प्रयास किये. इस तरह वे तीन तरह के समन्वयों के मुमकिन होने की उम्मीद जगाने में कामयाब हुए.
ये समन्वय तीन युगांतरकारी सपनों की तरह हमारे सामने खुलते हैं. ये तीन सपने हमें साम्यवाद, सापेक्षवाद और सर्वोदयवाद की ओर ले जाते हैं. इन रास्तों पर चल देने का मतलब है, हालात के अंतर्विरोधों का तीन तरह का समन्वय.
पहला रास्ता हमें साम्यवाद की ओर ले जाता है. वह इतिहास के तल पर सत्ता के पूंजीवादी स्रोतों तक जाता है. फिर पूंजी पर वर्चस्व की वजह से पैदा हुए प्रगति के अंतर्विरोधों का समन्वय करता है.
दूसरा रास्ता सापेक्षवाद का है. वह ज्ञान विज्ञान के एकांगी अथवा यांत्रिक विकास से पैदा हुए हालात से जूझता है. वह सृष्टि के सत्य की खोज के लिये चेतना की आज़ादी को महत्व देना सिखाता है. वह उन अंतर्विरोधों का समन्वय करना चाहता है, जो व्यक्ति की निजता को सार्वजनिक क्षेत्र की बलिवेदी पर भेंट चढ़ाने की कोशिश करते हैं.
दूसरा रास्ता सर्वोदय का है. वह मानव सभ्यता के तल पर मनुष्य के नज़रिये से विचार करता है. फिर प्रकृति के विरोध में जाकर खड़े हो गये विकास के अंतर्विरोधों का समन्वय करना चाहता है.
संभावित समन्वयों के ये तीन रूप, तीसरी आंख से देखने में मदद करने वाली तीन विश्व दृष्टियों की तरह हमारे सामने खुलते हैं.
ये तीनों, मानव समाज को, तीन तरह से दाएं बाएं में विभाजित होकर रह जाने से, अपनी-अपनी तरह से उबारते हैं.
पर ऊपर प्रस्तुत निष्कर्ष इतने भी सीधे और सरल नहीं हैं, जितने पहली नज़र में दिखाई दे सकते हैं. पेंच ये है कि साम्यवादी इतिहास दृष्टि, जिस समन्वय की ओर ले जाती है, उसे ‘वाम की चिंतन धारा’ कहा जाता है. इसी तरह वह जो सापेक्षवादी समन्वय है, उसे ‘दक्षिण पक्ष की सोच’ का पर्याय माना जाता है. तो ले दे कर एक सर्वोदयी समन्वय बचता है, जिसे हम अपनी चिंतनधारा से पैदा हुए मध्यमार्ग का आधुनिक रूप कह सकते हैं. लेकिन इस नज़रिये के पास जैसे अपनी कोई ज़मीन नहीं है. गांधीवाद की ज़मीन प्रकृति है, परंतु उससे उखड़ जाने के बाद, उसमें वापसी के हालात अभी तक ठीक से नहीं बने हैं. इसलिये हम इसे वर्तमान के संकट के लिये भविष्य की उम्मीद का दर्शन कह सकते हैं. यों साम्यवाद और सापेक्षवाद भी अभी तक भविष्य की उम्मीद ही हैं, तथापि उन्हें थोड़ा व्यावहारिक बनाना मुमकिन दिखाई देता रहा है. इसलिये सर्वोदय की बात उनकी तुलना में कुछ अव्यावहारिक मानी जाती है.
साम्यवाद जिस समन्वय तक ले जाना चाहता है, उसकी कर्मभूमि ‘वाम’ है. वह, वंचित समाजों को उनके मानवीय अधिकार दिलाने की कोशिश करता है और इस नुक्ते निगाह से यथार्थ के अंतर्विरोधों का समन्वय करता है. वह वंचित समाज का ‘समय’ आ जाने की बात को, इतिहास का निर्णय बनाने की कोशिश करता है.
इसके मुकाबले, सापेक्षवाद की कर्मभूमि ‘दक्षिण’ से ताल्लुक रखती है. वह पूंजीवादी संसार को कल्याणकारी और मानवाधिकारवादी बनाता है. अपने व्यावहारिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिये वह, निजी क्षेत्र को अधिकाधिक स्वतंत्रता देता है. इस तरह वह सबकी ‘सापेक्ष जगह’ को ‘लोकेट’ करके ‘स्पेस’ देने की कोशिश करता है.
इसका मतलब ये है कि वाम और दक्षिण को प्रस्थान बना कर ये दोनों दर्शन, मनुष्य को उसके ‘सम्यक समय और स्थान’ में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं.
इन दोनों की तुलना में गांधी दर्शन की ज़मीन थोड़ी अलग है. वह प्रकृति के अनुकूल जीवन शैली का विकास करना चाहता है. वह मनुष्य को उसकी खोई हुई अंतर्चेतना या आत्मा को लौटाने की कोशिश है. पर वह समय और स्थान के मुकाबले कुछ अमूर्त सी चीज़ मालूम होता है. इसका मतलब यह है कि ये तीनों दर्शन हमें उस महा समन्वय में नहीं ले जाते, जिसे हम तीसरी आंख से देखने के यकीनी उदाहरण की तरह पेश कर सकें.
अलबत्ता अगर हम इन तीनों दृष्टियों और उनके द्वारा प्रस्तुत समन्वयों को एक दूसरे के पूरक की तरह किसी एक महा दृष्टि में ढाल सकें, तो बहुत मुमकिन है कि वहां अपने युग बोधक द्वंद्वों के समाहार की कोई झलक हमें मिल सके. तथापि इसके लिये माकूल वक्त और हालात अभी बनने ही आरंभ हुए हैं.
प्रकृति और पर्यावरण का संकट गहरा रहा है. महामारियों ने जीवन को बचाये रखने की ज़रूरत को सर्वाधिक ज़रूरी मुद्दे में बदल दिया है. यह मुद्दा अब हमें पूंजीवाद और उत्तर पूंजीवाद के विकास माडलों का विकल्प खोजने की ओर ले जा रहा है. प्रकृति को बचाना पृथ्वी और जीवन को बचा ने का पर्याय होता जा रहा है. पूंजीवादी विकास ने आदमी को उसके ‘वक्त’ और उसकी ‘जगह’ तक पहुंचने में मदद की थी. पर उससे यह भी हुआ कि प्रकृति के संकटग्रस्त होने की वजह से, आदमी की ‘रूह’ उससे छिनती चली गयी. कुदरती जीवनशैली को अपनाने से हम जिस समन्वय को हासिल कर सकते हैं, वह तभी मुमकिन हो सकता है, जब पूंजीवादी विकास का मॉडल मुनाफा वसूली न रह कर मानवीय सरोकारों को अपनाने के लिये राज़ी हो. ये एक बड़ी तबदीली होगी. हो सकता है, कुदरत को बचाने के रास्ते पर चलते ही पूंजीवादी विकास, बुनियादी तौर पर खुद ही बदलने की ज़रूरत महसूस करे. पर अगर ऐसा होता है, तो साम्यवाद तक पहुंचने के लिये, सत्ता परिवर्तन वाली क्रांतियों को करने की, ज़रूरत ही न बचेगी. तब हम एक वर्गविहीन समाज में ‘कुदरती विकास के नये मॉडल’ के साथ सहज रूप में ही पहुंच जाएंगे.
सामाजिक विषमता, शोषण और दमन की मुख्य वजह समाज का गैर कुदरती विकास है. फिर सापेक्षवाद का भी एक नया कुदरती रूप व्यावहारिक होने लायक हो जायेगा.
कुदरत ने छोटे से छोटे जीवों को भी विकास करने की बेशुमार संभावनाएं दी हैं. पृथ्वी पर राज करने के लिये किसी का बड़ा और ताकतवर होना ज़रूरी नहीं है. नहीं तो डायनासोर युग का कभी अंत ही न हुआ होता. सापेक्षवादी विज्ञान हमें बता रहा है कि मनुष्य देह में मनुष्य की कोशिकाएं दस प्रतिशत से अधिक नहीं हैं. बाकी सब परजीवी बैक्टीरिया और वायरस हैं. सब जीवों के आपसी मैत्री वाले गठबंधन जीवन को चलाते हैं. सापेक्षता मैत्री के दर्शन का दूसरा नाम है.
बरास्ते गांधी, साम्यवाद और सापेक्षवाद के कुदरती रूपों तक पहुंचने से, हम देख सकेंगे कि मार्क्स और आइंस्टीन की दृष्टियां, मानवजाति की भविष्य दृष्टि में कैसे बदल सकती हैं.
यह अध्ययन मार्क्सवादी दृष्टि से खुल सकने वाली, उन संभावनाओं को खोजने के लिये किया गया है, जिनका सापेक्षवाद और गांधीवाद की मदद से अंतर्विकास मुमकिन है.
इसके लिये यहां हमने एक खास क्षेत्र चुना है. यह तीसरी दुनिया और भारत के संदर्भ को अपना मुख्य आधार बनाता है. इसी संदर्भ में, मार्क्सवाद की अंतर्दृष्टि की अहमियत और सीमाओं को समझने की कोशिश की गयी है.
हम जानते हैं कि कार्ल मार्क्स ने हीगेल के द्वंद्वात्मक आदर्शवाद की दिशा को उलटा कर अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के लिये रास्ता बनाया. यूरोप के चिंतन के विकासक्रम में यह एक लंबी छलांग थी. हीगेल मानवजाति के इतिहास को विचारों के इतिहास की तरह प्रस्तुत करने में कामयाब हुए थे. इससे पहले के यूरोप के चिंतन में ‘इतिहास की कार्य कारण मूलक व्याख्या’ नहीं मिलती. इतिहास के वैज्ञानिक चिंतन का विषय होने से, यह बता पाना मुमकिन हो सका कि दुनिया किधर जा रही है. उस दौर तक विज्ञान ने, ‘विकास की अवधारणा’ को, कुदरत के बुनियादी नियम की तरह स्थापित कर दिया था. डार्विन के ‘उद्विकास’ ने साबित कर दिया था कि जीवन, अल्प विकसित प्राणियों से आरंभ होकर, मनुष्य जैसे अधिक विकसित प्राणियों की दिशा में आगे बढ़ा है. कुदरत की अभिव्यक्ति विकास मूलक होती है, यह तय हो जाने से इस विचार को पनपने में मदद मिली कि मानवजाति का इतिहास भी अग्र विकास करता है.
धर्म इसके उलट, ‘कुलीन विचारधारा’ का प्रचार करता रहा है. वह मानव समाज में आयी तबदीलियों को मनुष्यों के नैतिक पतन की वजह मानता रहा है. यह सोच, दुनिया के लगभग सभी धर्मों की सोच की तरह, आज भी दिखाई देती है. धर्म, दुनिया को पहले के समाजों के मुकाबले में नैतिक रूप में अधिक पतित समाजों की तरह, देखते दिखाते रहे हैं.
भारत में भी चतुर्युगी विकास की धारणा इसी पर मोहर लगाती है. पहले सतयुग था, जो सबसे अच्छा था. चलते-चलते अब हम कलियुग में आ गये हैं, जिसकी पतनशीलता का कोई ठिकाना नहीं है.
हीगेल और मार्क्स की दुनिया के चिंतन को एक बड़ी देन है, वह यह है कि वे धर्म दृष्टि के उलट, ‘इतिहास की विकास मूलक व्याख्या’ करते हैं. हम पीछे के मुकाबले लगातार आगे जा रहे हैं, यह विचार हमें एक बेहतर भविष्य की उम्मीद देता है.
हीगेल, भौतिक जगत के अंतर्विरोधों का समाहार, उच्चतर चेतना के स्तरों के प्रकट होने के रूप में होता देखते हैं. उच्चतर चेतना पलट कर भौतिक यथार्थ को बदलती है. फिर उससे और गहरी व ऊंची चेतना में छलांग संभव हो जाती है.
कार्ल मार्क्स अपनी निगाह भौतिक यथार्थ के अंतर्विरोधों पर टिकाते हैं. समन्वय के लिये वे भौतिक जगत के हालात में ही मानवीय रूपांतर की संभावनाओं को खोजते हैं. इससे चेतना के उच्चतर स्तर खुद ब खुद प्रकट होते जाते हैं. अपनी इस सोच को वे इतिहास के उत्तरोत्तर विकास की अपनी व्याख्या तक ले गये. उन्हें लगा कि मानवजाति के विकास के लिये, पहले से बेहतर उत्पादन पद्धतियां बुनियादी भूमिका निभाती हैं. उनके मुताबिक मानवजाति के इतिहास का विकास, पहिये से हाथ के उपकरण और फिर यंत्र तक आने, फिर यंत्र से स्वसंचालन की तकनीकी तक आने के परिणाम स्वरूप हुआ. आज हम इस विकास क्रम में उच्च तकनीकी को आधार बना कर अगले विकास चरण की व्याख्या की कोशिश कर सकते हैं.
आप इस तरह की इतिहास की अब तक मुमकिन हुई व्याख्याओं से सहमत असहमत दोनों हो सकते हैं, पर इस बात को नकार नहीं सकते कि असल मुद्दा इतिहास की तर्क संगत व्याख्या का है. जब तक आपके पास अपनी कोई अन्य विश्वसनीय व्याख्या नहीं आ जाती, तब तक हमें इतिहास की, अब तक उपलब्ध, इसी तरह की व्याख्याओं से काम चलाना पड़ेगा.
हीगेलवाद और मार्क्सवाद, दोनों की निगाह उस इतिहास पर है, जिसे यूरोपीय नवजागरण रच रहा था. इस इतिहास को जन्म देने वाली वस्तु है, उस दौर की नयी वैज्ञानिक चेतना. इसके सहारे नैतिक मूल्यों तक की तर्कसंगत व्याख्या मुमकिन हो पा रही थी. जनतांत्रिक आज़ादी, समानता, भाईचारा और सबके लिये समान न्याय की बातें एक नये मनुष्य और एक नयी सभ्यता का हेतु बन कर सामने आयी थीं.
हीगेल को इससे यह लग रहा था कि मानवजाति किसी सार्वभौम (यूनीवर्सल) चेतना के ऐसे चरण पर पहुंचने जा रही है, जो सही माने में वैश्विक (ग्लोबल) कहा जा सकता है.
यंत्र आधारित उत्पादन पद्धति की मदद से जो तीव्र विकास हो रहा था, उससे मार्क्स को भी यह लगा कि इसकी मदद से पूरी दुनिया की आधारभूत ज़रूरतों की पूर्ति हो सकेगी.
इसलिये यह कहना असंगत नहीं होगा कि असल समस्या, पूंजीवाद के मुनाफा वसूल लालच पर लगाम लगाने की है. अगर ऐसा हो पाया, तो दुनिया एक नयी विकसित और प्रगतिशील चेतना वाली सभ्यता के दौर में दाखिल हो सकती है. मार्क्सवाद और सापेक्षवाद से संबद्ध विचारधाराएं, इस दिशा में अपने-अपने तरीके से आगे बढ़ीं. इसलिये ये दोनों दृष्टिकोण एक हद तक तर्कसंगत किस्म की मानवीय उम्मीद जगाने वाले भी लग रहे थे. पर ये दोनों ही इस बात को नहीं देख पा रहे थे, कि पूंजीवाद के गर्भ से जो औपनिवेशिक साम्राज्यवाद पैदा हो गया है, वह उनकी उम्मीदों और सपनों में सेंध लगा रहा है. ये सपने यूरोप के वंचितों, श्रमिकों, प्रवासियों और हाशिये के जनसमूहों की उम्मीद तो अवश्य बन पा रहे थे, पर वे शेष मानवजाति के इतिहास को पहले से अधिक गहन अंधकार में धकेलने का काम भी कर रहे थे.
बात अगर वंचितों को उनके अधिकार दिलाने और न्याय देने की थी, तो उसके पहले हकदार थे, तीसरी दुनिया के उपनिवेश. जब मार्क्स यह कह रहे थे कि ‘दुनिया भर के मज़दूरों! एक हो जाओ और अपने पैरों की जंजीरों को काट दो’, तो उस दुनिया में गुलाम उपनिवेशों के मज़दूर हाशिये पर लगभग उपेक्षित पड़े रह गये थे. उनकी दरिद्रता के लिये ये महान यूरोपीय चिंतक खुद उन्हीं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे. उन्हें लगता था कि भारत समेत तमाम तीसरी दुनिया के उत्पादनशील तबके, अपने दकियानूसी परंपरावाद से चिपटे रहने की वजह से, पिछड़ेपन के शिकार थे. इसलिये उनकी नज़र में साम्राज्यवाद उतना दोषी नहीं था.
मार्क्स जब भारतीय साम्राज्यवाद की आलोचना करते हैं, तो उसकी ‘अतिशय असंतुलित भूख’ को ही आलोचना का विषय बनाते हैं. जबकि इस बात के लिये उसे जायज़ ठहराते हैं कि वह भारत को आधुनिक सभ्यता के एक नये दौर में ले जाने का भी हेतु बन रहा था. इसे वे ‘इतिहास का फैसला’ मान रहे थे.
इस असंगति का थोड़ा खुलासा तब होता है, जब लेनिन ने ‘साम्राज्यवादी पूंजी’ को ‘पूंजीवादी विकास के शिखर’ की तरह देखना आरंभ किया.
तो, ले देकर मार्क्सवादी चिंतन इससे आगे नहीं आता कि साम्राज्यवादी पूंजी के मुनाफे का भी न्यायपूर्ण वितरण होना चाहिये.
और कोई मार्क्सवादी चिंतक इससे आगे बढ़ कर यह नहीं कहता कि यूरोपीय नवजागरण, अपने साम्राज्यवादी और नव साम्राज्यवादी रूपों को अपने गर्भ से जन्म देने की वजह से, अपने ही मानवीय सरोकारों और लक्ष्यों के विरोध में जा खड़ा हुआ है.
इसलिये मानवजाति को एक और अधिक मानवीय नवजागरण की ज़रूरत है.
औपनिवेशिक इतिहास, यूरोप का ब्लाइंड स्पाट है. उसकी इस आत्म अंधता से पर्दा उठाने का काम कुछ हद तक एडवर्ड सईद तथा कुछ अन्य नव वाम चिंतकों ने अवश्य किया है. एजाज़ अहमद मार्क्सवाद के भीतर से प्रकट हो रहे इस आत्मालोचन को अपने ‘तृतीय विश्ववादी सिद्धांत’ तक ले आये हैं. नोआम चोम्स्की अमेरिका के नव साम्राज्यवाद का साहसिक विरोध करने की दिशा में सक्रिय हैं.
इससे मार्क्सवादी चिंतन की यह दिशा खुल पा रही है कि अगर मामला वंचितों को न्याय देने और समान अधिकार प्रदान करने का है, तो उस दृष्टि से दुनिया का असल वामपक्ष, तीसरी दुनिया है.
दूसरी ओर वह जो सापेक्षवाद है, उसके रास्ते पर अगर हम ठीक से आगे बढ़ सके, तो हम एक बहु-केंद्रित दुनिया के दौर में प्रवेश कर जायेंगे. अभी हम विकेंद्रीकरण की प्रक्रियाओं के शुरुआती दौर में हैं. इसे एक चुनौती मान कर दुनिया के बहुत से देश, फिर से राष्ट्रवादी आत्म-संकेंद्रण की ओर रुख कर रहे हैं. परंतु अब विकेंद्रीकरण की बढ़ती ज़रूरत को बहुत दूर तक काबू में रखना मुमकिन नहीं होगा. बहुराष्ट्रीयता के गर्भ से वैश्वीकृत दुनिया को देर सवेर प्रकट तो होना ही है. राष्ट्रीय मुद्राओं के समांतर विकेंद्रित मुद्राएं चलन में आनी आरंभ हो गयी हैं. उसका एक उदाहरण ‘क्रिप्टो’ जैसे ‘बिट क्वायंज़ हैं. इससे बिखराव और अराजकता का दौर भी आ सकता है. लेकिन अगर हम पूंजीवादी विकास मॉडल के विकल्प को खोजने जैसी बड़ी बात करना चाहते हैं, तो वह तब तक मुमकिन नहीं, जब तक पूंजीवादी व्यवस्था में न पाटी जा सकने वाली दरारें न पैदा हो जायें.
यहां यह बात गौरतलब है कि जब हमारे निशाने पर साम्राज्यवाद और नव साम्राज्यवाद होता है, तो यूरोपीय वाम और दक्षिण विचारधाराएं, अपने-अपने गठबंधनों के हित को देखती हैं, न कि दुनिया के नक्शे पर वंचितों की श्रेणी में रखी जाने वाली अधिकांश तीसरी दुनिया को. उनकी दिलचस्पी वाम अथवा दक्षिण पंथी सरकारों के गठन में मदद करने तक सीमित रहती है. ये वाम और दक्षिण दोनों, अब पूरी दुनिया से गरीबी, भुखमरी, पिछड़ेपन और शोषणकारी हालात का अंत करने वाली, वैश्विक विचारधारा के पर्याय नहीं रह गये हैं. वाम विचारधाराओं के इस कदर सीमित हो जाने की वजह से अब पूरी दुनिया को रूपांतरित कर देने की बात सैद्धांतिक तौर पर भी कोई नहीं करता. वाम और दक्षिण, दोनों के पास पूंजीवादी विकास मॉडल का विकल्प नहीं है. इसलिये जिन देशों में समाजवादी क्रांतियां हुईं भी हैं, वे भी पूंजीवादी देशों की तरह व्यवहार करने की हद तक चले गये हैं. रूस और चीन इसके उदाहरण हैं. लातीन अमरीकी देशों में वाम का उभार उत्तरी अमेरिका के प्रभुत्व के समांतर सत्ता संतुलन से अधिक गहरा नज़र नहीं आता. क्रांतियों का मतलब सत्ता पर काबिज़ होने तक महदूद होकर रह गया है. मानव सभ्यता के विकास की दिशा में गुणात्मक तबदीली की बात अब कोई नहीं करता.
वाम का दक्षिणपंथी संस्कार और दक्षिण का मानवाधिकारवादी और कल्याणकारी राज्य मूलक अंतर-वाम, ये दोनों बातें अब दुनिया को शीतयुद्ध वाले दो ध्रुवीय हालात से बाहर ले आयी हैं. इससे तनाव कम हुआ है,, वह अच्छी बात है. लेकिन इससे नुकसान ये हुआ है कि वह जो एक अन्य तीसरी आंख के खुलने की संभावना थी, वह स्थगित हो रही है.
इस संभावना का संबंध प्रकृति मूलक विकास मॉडल के विकास से था. लेकिन हम देखते हैं कि प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के जो सरोकार हैं, उन्हें लेकर दक्षिण और वाम, दोनों का रवैया, बराबर ढुलमुल है.
ये जो नये हालात हैं, उन्हें मैं दक्षिण और वाम का ‘अपवित्र गठबंधन’ (अनहोली अलाएंस) मानता हूं. यह वैश्विक रूप में सत्ताधर्मी विचारधारा के केंद्र में आ जाने से जुड़ी बात है. केंद्र में सत्ता पर जैसे भी हो, काबिज़ होने की बात रहती है. विचारधारा, सत्ताकेंद्र के वाम या दक्षिण की तरह, अपना अलग चेहरा बचाये रहती है.
जैसे कहने को चीन अब भी एक मार्क्सवादी देश है, लेकिन उत्तर पूंजीवादी बहुराष्ट्रीय उत्पादन तंत्र का ‘हब’ भी वही है. इतना ही नहीं, सबसे बड़ा पूंजीवादी देश अमरीका, चीन की पूंजी का सबसे बड़ा कर्जदार भी है.
इससे वाम और दक्षिण दोनों खुद को बचाये रखने में तो कामयाब हो जायेंगे, लेकिन जीवन बदस्तूर संकट में पड़ा रहेगा और प्रकृति पूर्ववत बलात्कृत होती रहेगी.
(दो)
यहां मेरी नज़र अपने यहां मौजूद दो मिथकों की ओर जाती है. पहला मिथक है, जरासंध का. उसका जन्म, एक देह के वाम और दक्षिण में विभाजित, दो टुकड़ों की तरह हुआ. फिर जरा नाम की राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों की संधि करके उसे जीवन दिया. इसलिये उसका नाम जरासंध हो गया. जरा का अर्थ होता है, बुढ़ापा या क्षरण.
इस मिथक का निहितार्थ यह है कि समाज जब बूढ़ा होने लगता है, तो उसके भीतर से जरासंध पैदा होते हैं. वे लगभग निष्प्राण हो गये अपने वाम और दक्षिण खंडों की राक्षसी संधि से न केवल मरने से बच जाते हैं, इतने बलशाली भी हो जाते हैं कि कृष्ण जैसा अवतारी पुरुष भी, उन्हें हरा न पाने की वजह से, ‘रनछोड़’ होकर द्वारिका भाग जाता है. वह ऐसी निरापद जगह खोजता है, जहां वह एक मानवीय समाज को विकसित करने के अपने सपने को चरितार्थ कर सके.
पर ऐसे जरासंध का मरना भी ज़रूरी है, नहीं तो विकास रुक जायेगा. तो भीम से उसका द्वंद्व युद्ध कराया जाता है. भीम हिडिंबा का पति है. यानी वह उस समाज से अपना नाता जोड़ चुका है, जो हाशिये पर पड़ा है. वह पूर्व के हाथियों के प्रदेश से संबंधित है और खुद भी एक हाथी की तरह ताकतवर है. पर जरासंध को पराजित करने में उसे बहुत वक्त लगता है. आखिरकार वह जरासंध को फिर से वाम और दक्षिण खंडों में विभाजित कर देता है. लेकिन ये वाम और दक्षिण खंड, अलहदा होने के बावजूद, फिर से आपस में आ जुड़ते हैं.
यानी जब तक यह संभावना बनी रहती है कि वाम और दक्षिण में गठजोड़ हो सकता है, तब तक जरासंध अपराजेय रहता है.
आखिरकार कृष्ण भीम को सलाह देते हैं कि वह जरासंध के दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशाओं में फेंक दे. इस तरह वाम और दक्षिण के अपवित्र या राक्षसी गठबंधन का अंत होता है.
यह मिथक इस बारे में हमें नहीं बताता कि वाम और दक्षिण, जब कुदरती रूप में एक दूसरे के पूरक होते हैं, तब वे ‘अलहदगी’ पसंद नहीं होते. इस मिथक का संबंध इस अलहदगी से है. यह अलहदगी बड़े विचित्र रूप में अपना काम करती है. समाज के पतनशील अथवा बूढ़ा हो जाने पर वाम और दक्षिण परस्पर विरोध में दुनिया को उलझा देते हैं और खुद अपनी-अपनी सत्ता को अपराजेय बना कर खड़े रहते हैं.
जैसे यूरोप में हुआ. जनतंत्र और समाजवाद, दोनों औद्योगिक क्रांति के विकास मॉडल के गर्भ से पैदा हुए. पर दोनों खुद को एक दूसरे से बेहतर घोषित करते हुए, दक्षिण और वाम की तरह अपने-अपने साम्राज्य का विस्तार करते रहे. दक्षिणपंथी राजनीति ने प्रजातांत्रिक क्रांति करने का बहाना बना कर, अधिकांश तीसरी दुनिया को अपना उपनिवेश बना लिया.
वामपंथ समाजवादी क्रांतियां करने का दावा करता हुआ पूर्वी यूरोप के अधिकांश देशों तक अपने साम्राज्य का विस्तार करने में कामयाब हुआ.
अब मामला चीन की पूंजी के कर्जदार हो रहे देशों पर, उसकी सत्ता के विस्तार तक पहुंच गया है. इस परिदृश्य को अपनी निगाह में रखते हुए, अब इसी मिथक में लौटते हैं.
कृष्ण का मैत्री का दर्शन दर ब दर होकर अपने पनप सकने के माकूल समय और स्थान की तलाश में है.
वह एक विकल्प है, पर वाम और दक्षिण दोनों की सत्ता लोलुपता से पर्दा उठे बगैर यह मुमकिन नहीं, कि शेष दुनिया एकजुट होकर अपना मैत्री पूर्ण गठबंधन बना ले. प्रकृति मूलक विकास मॉडल के अपरिहार्य हो जाने तक इस विकल्प का खुलना संभव भी नहीं है.
गांधी उस ओर इशारा कर गये थे, पर उसकी सैद्धांतिकी का प्रकट होना अभी बाकी है.
नेहरू ने गुटनिरपेक्ष देशों के ‘मैत्रीपूर्ण सह अस्तित्व’ वाले गठबंधन की जिस संभावना को खोला था, वह इसी दिशा में आगे बढ़ने जैसा था. पर वह संभावना जरासंधी हालात के शक्तिशाली होने की वजह से वक्त से पहले ही दम तोड़ गयी.
दरअसल वह जो वाम और दक्षिण के विभाजन है और वह जो गहराई में इन दोनों के चाहे अनचाहे आपस में संधि करके खुद को बचाये रखने की व्यावहारिकता है, उससे छुटकारा इतना भी आसान नहीं है.
इसके लिये हाशिये पर पड़े देशों को एकजुट होकर अपनी ‘भीम शक्ति’ को जगाना होगा और वाम और दक्षिण को एक दूसरी की विपरीत दिशाओं में इतनी दूर फेंकना होगा कि वे फिर से जुड़ न सकें.
ऐसा करने से वाम और दक्षिण की कुदरती परस्पर पूरकता अपने आप, भीतर से प्रकट हो जायेगी. यह उसी तरह होगा, जैसे शिव और शिवा के मिथक में, उनके अर्धनारी और अर्धपुरुष रूप, उनके भीतर से प्रकट होते हैं.
शिव के मिथक की सामाजिक और सभ्यतामूलक व्याख्या, हमें आदिम दौर के विकेंद्रित सत्ता परिदृश्य में ले जाती है. शिव का संसार हाशिये की दुनिया का आत्म स्वायत्त संसार है. उनकी पत्नी दक्ष पुत्री है, जो नागर सत्ता के केंद्र को पीछे छोड़ आयी है. इस संबंध से किसी समाज के पौरुषेय होने और दूसरे के स्त्रैण होने के समीकरण का अंत हो जाता है.
आधुनिक दौर की बात करें, तो एडवर्ड सईद उस मानसिकता की आलोचना करता है, जिसके तहत पश्चिम खुद को पौरुष से जोड़ता है और पूर्व को स्त्रैण मानता है.
शिव शिवा का समागम इस तरह के द्वंद्व के पार जा कर ऐसे मानवीय समन्वय की तलाश करता है, जिसमें शिवा के भीतर से शिव और शिव के भीतर से शिवा प्रकट हो सकती है. पर सत्ता के केंद्र इसे बर्दाश्त नहीं करते. नतीजतन शिवा सती हो जाती है और शिव प्रलयंकर. सहज प्राकृतिक समन्वय को अस्वीकार करने से सिवाय एक पक्ष के आत्मघात और दूसरे के ध्वंस के, और कोई विकल्प नहीं बचता.
जिसे हम तीसरी आंख का खुलना कह सकते हैं, उसका संबंध, कुदरती समन्वय और समरसता से ही नहीं, रास्ते की रुकावटों के विनाश की संभावना से भी है.
हमारे समय में अब मानवजाति के पास ‘प्रकृति पूरक विकास मॉडल’ का कोई विकल्प नहीं बचा है. अगर भविष्य उस ओर रुख करता है, तो वह युग-बोधक तीसरी आंख के खुलने की विरल घटना होगी. वह मानवजाति को समावेशी विकास के अभूतपूर्व दौर में ले जायेगी. तथापि उसे रोकने वालों के विनाश के हालात भी उसी के दूसरे पहलू की तरह हमारे सामने प्रकट हो सकते हैं.
इससे हमें इतना अनुमान तो हो ही सकता है कि गांधीवाद इस महा परिवर्तन के एक पहलू की ओर ही संकेत करता है. उसका यंत्र आधारित विकास के प्रति संशय भी इतिहास सम्मत नहीं लगता. प्रकृति में विकासधर्मी वापसी के मूल कारक के रूप में अगर कोई चीज़ सर्वाधिक सहयोगी हो सकती है, तो वह उच्च तकनीकी ही है. परंतु उसके मूल चरित्र को बदले बिना यह मुमकिन होने वाला नहीं है. उसके इस तरह के बदलाव का हेतु वही हो सकता है, जो उसके अपने भीतर बीज की तरह मौजूद हो.
यह बीज कौन सा है? इसे देखने के लिए बीज की प्रकृति को समझना होगा. उसके खोल के भीतर दो दल होते हैं. दाएं बाएं, दक्षिण वाम खंडों की तरह. प्रकृति का यह मूल चरित्र है. बीज से ले कर मस्तिष्क तक, सारा विकास दक्षिण वाम खंडों में विभाजित रहता है. पर इस ‘दुई’ से, या कहें, द्वंद्वात्मकता से उबरना पड़ता है. प्रकृति ने इन दोनों के परस्पर समन्वय में ही, विकास की संभावना को छिपा कर रख दिया है. तो, भविष्य के लिये जो चीज़ बीज का काम करेगी, वह दक्षिण वाम के दलों के संयुक्त होने और आत्म विलय से अंकुरित होने की घटना होगी.
चिंतन के तल पर वह मार्क्सवाद और आइंस्टीनवाद के, साम्यवाद और सापेक्षवाद के, परस्पर पूरक होने का परिणाम होगी.
लेकिन इन दोनों के यांत्रिक गठजोड़ से बात नहीं बनेगी. अपने-अपने सत्ता साम्राज्य के विस्तार के लिये अब तक ये दोनों पक्ष, एक दूसरे से लड़ते रहे हैं. पर इन दोनों की दौड़ सत्ता के संतुलन तक ही रहती है. इस तरह परोक्ष तरीके से इनकी लड़ाई इन्हें और ताकतवर बनाती है. नतीजतन ये दोनों मिल कर हमारे समय के जरासंध हो गये हैं.
अब इनकी सकारात्मक संभावनाओं के परस्पर संयोजन का, एक दूसरे के पूरक होने का वक्त आ रहा है. नकारात्मकता का परोक्ष पोषण इन्हें जरासंध बनाता है. सकारात्मकता की आपसदारी इन्हें भविष्य का बीज बना सकती है.
जहां तक इस अध्ययन का संबंध है,, यहां हम मार्क्सवाद पर केन्द्रित हैं. पर हमारा मानना है कि वाम पक्ष की सीमाओं और संभावनाओं की समझ हमें दक्षिण पक्ष की बाबत भी अंतर्दृष्टि तक ले जा सकती है. गांधीवाद की संभावनाओं को यहां केवल संकेत रूप में ही दिया जा सका है. इससे हमें भविष्य में किये जा सकने वाले कार्यों का एक नक्शा तो मिल ही सकता है. शुरुआती रूप में यहां कुछ ज़रूरी मुद्दों, बहसों और चिंतन सूत्रों की बाबत संक्षेप चर्चा ही की जा रही है.
मार्क्सवाद से लेकर उत्तर मार्क्सवाद तक: कहां है तीसरी दुनिया और भारत?
मार्क्सवाद और उत्तर मार्क्सवाद के संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि इस पूरी चिंतन धारा में तीसरी दुनिया के यथार्थ की व्याख्या, जो इसके हाशिये पर पड़ी है, किस रूप में की गई है?
दूसरा सवाल यह है कि उसमें भारत का, जो इस हाशिये के हाशिये पर दिखाई देता है, कहां और कितना स्थान है?
तथापि ये सवाल, एक अन्य सवाल से जुड़े हुए हैं कि वाम चिंतन के भीतर से नव तथा उत्तर वाम का जन्म किन कारणों से होता है? वह कौन सी चुनौतियां हैं जिनके जवाब मार्क्सवाद के शास्त्रीय रूप के पास नहीं थे?
इसके बाद हम इस सवाल पर आ सकते हैं कि क्या हमें भारत के उन चिंतकों या संघर्षशील लोगों की ओर नहीं देखना चाहिए, जिनकी मदद से हम ‘भारतीय यथार्थवाद’ का, अपनी जमीनी यथार्थ के मुताबिक, नव गठन कर सकें?
अपने शास्त्रीय रूप में मार्क्सवाद ऐतिहासिक भौतिकवाद का द्वंद्वात्मक सिद्धांत है. वह उत्पादन पद्धतियों के विकास, समाज की वर्ग संरचना और औद्योगिक पूंजी के न्यायपूर्ण वितरण को अपने चिंतन का मुख्य विषय बनाता है.
फायर्बाख, कर्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगल्स और प्लेखानोव से होती हुई यह चिंतन धारा, जब रूस तक पहुंचती है, तो लेनिनवादी मार्क्सवाद का रूप ले लेती है. यूरोप में इस तरह विकास करती हुई यह चिंतन धारा लातीन अमेरिकी देशों तक पहुंचती है. पर फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा आदि के क्रांति चिंतन से मार्क्सवाद का कोई विशिष्ट लातीन अमेरिकी रूप सामने नहीं आता.
सिद्धांत के विकास की दृष्टि से यूरोप में प्रकट विश्व युद्ध कालीन ‘आलोचनात्मक यथार्थवाद’ अवश्य अगली छलांग है. फ्रैंकफर्ट स्कूल की इसमें विशेष भूमिका है.
यूरोप से बाहर मार्क्सवाद, चीन में माओवादी मार्क्सवाद के रूप में एकदम अलग पहचाना जा सकता है.
चीन के अतिरिक्त एशिया में वियतनाम और उत्तरी कोरिया जैसे देशों में भी समाजवादी क्रांति हुई है, परंतु वे इस सिद्धांत के विकास की दिशा में अधिक दूर तक नहीं जातीं.
एशियाई उत्पादन पद्धति पर गुन्नार मिर्डाल जैसे चिंतकों का योगदान अवश्य गौरतलब है.
जहां तक भारत का सवाल है, उसमें मार्क्सवाद, रूसी क्रांति के उत्तर काल से लेकर अब तक निरंतर अलग-अलग रूपों में जमीन पकड़ता दिखाई देता है. परंतु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ‘भारतीय यथार्थवाद’ नाम की कोई विशिष्ट चिंतन पद्धति हमारे यहां विकसित हो सकी है.
इस संदर्भ में एम एन राय, डी डी कोसांबी, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, महात्मा गांधी, भगत सिंह, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, एजाज अहमद, आर एस शर्मा, एम पाणिकर, इरफान हबीब , रोमिला थापर , रणजीत गुहा, ज्ञानेंद्र पांडे जैसे अनेक लोग हैं, जिन्होंने ‘भारतीय मार्क्सवाद’ के अंतर्विकास को रेखांकित कर सकने में, सीधी या परोक्ष भूमिका अवश्य निभाई है.
बेशक इस चिंतन विमर्श के ‘इतिहास’ को समझने के अनेक प्रयास सामने आ चुके हैं. पर इसकी ‘वैचारिकी’ और ‘सिद्धांत भूमि’ के अपर्याप्त अंतर्विकास का जायज़ा तक लेना अभी बाकी है.
अतः प्रयास किया जायेगा कि कम अज़ कम इस ‘वैचारिकी’ की एक भूमिका बना कर, एक शुरुआत की जाये.
पहले उन कारणों पर विचार करते हैं, जिनकी वजह से ‘भारतीय यथार्थवाद’ के ‘सिद्धांत’ का अंतर्विकास, हो हो कर भी, बार-बार मुल्तवी होता आया है.
इस भारतीय परिदृश्य का दुखांत यह है कि यहां जिन लोगों में मौलिक चिंतन की सामर्थ्य थी, उन्हें भारत के राजनीतिक पार्टी केंद्रित वामदलों के द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इनमें एम एन राय और एस ए डांगे के नाम खास तौर पर लिए जा सकते हैं.
तथापि मार्क्सवादी सिद्धांत के मौलिक अंतर्विकास में कुछ भारतीय विद्वानों की सीमित भूमिका तो रही ही है. हालांकि यह काम पश्चिमी विद्वानों के द्वारा लगातार किया जाता दिखाई देता रहा है.
इस संदर्भ में पुनर्विचार का मुख्य क्षेत्र संस्कृति की व्याख्या से जुड़ा है. एडोर्नो ने संस्कृति को एक उद्योग की तरह देखा. इससे औद्योगिक पूंजीवाद की व्याख्या में एक नया अध्याय जुड़ गया.
दूसरी गौरतलब बात औद्योगिक पूंजी के भीतर से ‘साम्राज्यवादी पूंजी’ के प्रकट होने से जुड़ी है. यह बात व्याख्या की मांग करती है कि जहां साम्राज्यवादी पूंजी इकट्ठी हो रही थी, वहां समाजवादी क्रांतियां नहीं हुई.
दूसरे, जिन देशों में समाजवादी क्रांतियां घटित हुई, वहां की संस्कृति मैं तदनुरूप तबदीली देखने को नहीं मिली.
जैसे जब चीन में समाजवादी इंकलाब हुआ, तो उसे लगा कि संस्कृति को बदलने के लिए हजार साल तक इंकलाब को गहराना पड़ सकता है.
यह समस्या और भी बुनियादी है कि समाजवाद के पास भी विकास का मॉडल पूंजीवाद का ही है. वह केवल उसके अधिक न्यायपूर्ण वितरण की बात तक आगे बढ़ता है. जबकि उसे विकास के वैकल्पिक मॉडल की खोज की ओर आना चाहिए था.
एक सबक जर्मनी के फासीवाद ने भी दुनिया को दिया. वह यह था कि फासीवादी मूल्यों के निर्माण के लिए संस्कृति का कच्चे माल की तरह इस्तेमाल मुमकिन है.
यह बात बाद के दौर में सूचना क्रांति की नई व्याख्या तक ले गई. चेतना के उत्पाद के लिए भाषा का कच्चे माल की तरह इस्तेमाल मुमकिन हो गया.
इस तरह यथार्थ की जमीन की व्याख्या में भाषा और संस्कृति को भी जगह मिलने लग पड़ी. पर इससे वाम चिंतन के कुछ रूप, दक्षिणपंथ के बहुत करीब आ गए. यह भी कहा गया कि नव हीगेल बाद ही शक्ल बदल कर मार्क्सवाद में घुसपैठ करने लग पड़ा है.
इस तरह का नव और उत्तर वाम चिंतन करने वालों में मुख्य हैं: हरबर्ट मार्कयूज़, थिओडोर एडोर्नो, लियो लेवेंथल, मैक्स वेवर, हैबरमास और वाल्टर बेंजामिन.
तीसरी दुनिया के चिंतकों में एडवर्ड सईद ने साम्राज्यवादी यथार्थ के अंतर्विरोधो पर निगाह जमाई है. इस संदर्भ में वे साम्राज्यवादी पूंजी की निर्मम और मुखर आलोचना करने की जरूरत तक चले जाते हैं.
इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए एजाज अहमद इस बात पर गौर करते हैं कि संस्कृति उद्योग, एक खास तरह के नव उपनिवेशन को लाने का हेतु होता है. ये सवाल इससे पहले वाम चिंतन में हाशिए पर पढ़े दिखाई देते रहे हैं.
पश्चिम के नव वाम चिंतन में अंतोमियो ग्रामशी जैसे लोग भी सबाल्टर्न और हाशिए के समाज के संकटग्रस्त होने का तो जायजा लेते हैं, परंतु पूर्व उपनिवेश वहां भी चिंतन के केंद्र में नहीं आ पाते.
सबाल्टर्न की आवाज़ को सुनने की बात भी मुख्यतः यूरोप के समाज से ही संबंधित है. गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक इस सवाल को उठाती है. तथापि पूर्व उपनिवेशों की दुनिया का, और उसे सुने जाने का सवाल अब तक भी हाशिए पर है. गायत्री चक्रवर्ती और एडवर्ड सईद के द्वारा जो आवाज़ उठाई गई है, उसके केंद्र में भी यूरोप का प्रवासी जनसमूह ही अधिक है.
तीसरी दुनिया के नव वाम सिद्धांत का विकास होना अभी भी एक चुनौती की तरह ही दिखाई देता है.
मीडिया और सूचना क्रांति के दौर में भाषा के उत्पादों का उपभोक्ता बाजार खड़ा हो गया है. विचारधारा प्रतिबद्धता और रूपांतर की बात को भी एक भाषिक उत्पाद में बदल लिया गया है. ये भाषा उत्पाद तीसरी दुनिया के नव उपनिवेशन का मुख्य अस्त्र हो गए हैं. पर वाम सिद्धांत इस बाबत गंभीर विमर्श प्रस्तुत करने के लिहाज से संक्रमण काल में ही दिखाई देता है .
ग्रामशी का चिंतन उत्तर पूंजी के संस्कृति उद्योग की आलोचना करता है. पर वह तीसरी दुनिया के नवोपनिवेशन का विरोध करने के सिद्धांत का रूप लेने तक नहीं जाता.
लुकाच की चिंता यह है कि संस्कृति उद्योग के उत्पाद एक बिकाऊ वस्तु में बदल गए हैं. उसकी खपत की सबसे बड़ी मंडी तीसरी दुनिया है. पर उस बाबत यह चिंतन अधिक गंभीर नहीं है.
रेमंड विलियम्स का ध्यान सत्ता के सांस्थानिक रूपों की ओर जाता है, परंतु उसकी जमीन मुख्यतः पश्चिमी समाज से संबंधित है. तीसरी दुनिया वहां भी हाशिये पर है. वे भावों तक के इस तरह संरक्षित होने तक चले आते हैं, जो उनका इस सिद्धांत को मौलिक अवदान है.
ऐसा लगता है कि मार्क्सवाद में जो बात ‘भौतिकवादी संस्कृति’ से जुड़ी थी, वह उलट कर ‘सांस्कृतिक भौतिकवाद’ तक चली आई है. तीसरी दुनिया का परिदृश्य संस्कृति केंद्रित है. सांस्कृतिक भौतिकवाद की मदद से उसकी बेहतर व्याख्या हो सकती है. परंतु अध्ययन का यह क्षेत्र अभी तक अपनी शैशवावस्था में पड़ा नज़र आता है.
जिसे हमने यहां ‘भारतीय यथार्थवाद’ कहा है, वह इसी ‘सांस्कृतिक भौतिकवाद’ को आधार बना कर, अपने समय में अलग तरह का हस्तक्षेप करने की ‘वैचारिकी’ का, अंतर्विकास करता है. उसे हम ‘भारतीय मार्क्सवाद’ का दार्शनिक या विचारधारात्मक पक्ष कह सकते हैं.
मौजूदा दौर में ‘सांप्रदायिक राष्ट्रवाद’ के उभार की एक बड़ी वजह यह है कि हम अपने ‘सांस्कृतिक भौतिकवाद’ का ठीक से अंतर्विकास करने से चूक गये हैं. कुछ हम चूकें हैं, कुछ हमें भटकाया गया है. इस तरह की सोच के विपथन में, पश्चिम के समकालीन वाम चिंतन की भी थोड़ी बहुत भूमिका तो है ही.
मिखाईल बाख्तींन विविध बहुल भाषा पाठो के बीच संवाद की बात करते हैं. इससे ‘द्वंद्वात्मक’ यथार्थ ‘संवादात्मक’ भाषा पाठ में बदल जाता है. यह सिद्धांत जटिल यथार्थ की व्याख्या तो करता है, परंतु उसके इंकलाबी रूपांतर को स्थगित भी करता है.
स्लोवाय जिजेक का उत्तर वाम चिंतन मनोविश्लेषण की ओर चला गया है. वे जैक लाकां को आधार बनाकर आगे बढ़े हैं. तीसरी दुनिया की बाबत उनका मत है कि वहां नव उपनिवेशन के लिए पश्चिम एक हद तक ही जिम्मेवार है. गुलामी की मानसिकता से भारत जैसे सभी तीसरी दुनिया के देशों को खुद आजाद होना पड़ेगा.
फ्रेडरिक जेम्सन का ध्यान तीसरी दुनिया की ओर अवश्य गया है, परंतु वे इस दुनिया को विश्व का राजनीतिक अचेतन मानते हैं. यथार्थ को मनोविश्लेषण की एक कोटि भर बना देने से रूपांतर की संभावनाएं कमजोर पड़ती हैं. इसलिए हमारे वाम चिंतक एजाज अहमद ने उनकी कड़ी आलोचना भी की है. वे अपने वाम चिंतन को ‘तृतीय विश्ववादी सिद्धांत’ के रूप में विकसित करने का प्रयास करते हैं.
नव और उत्तर वाम का चिंतन चाहे जितना विविध बहुल क्यों ना हुआ हो, उसे तीसरी दुनिया के यथार्थ की व्याख्या के लायक हम, अभी तक ठीक से नहीं बना पाए हैं. पर इसकी भूमिका तो भारत में अवश्य बनी है. इतना ही नहीं, वहां से एक कदम आगे बढ़ा कर, हम अपने ‘यथार्थवादी सिद्धांत’ के गठन की, भूमिका बनाने तक भी आ गये लगते हैं.
कार्ल मार्क्स और भारत
भारत के संबंध में कार्ल मार्क्स ने जो फुटकल टिप्पणियां की हैं, वह भारत के संबंध में पश्चिम में प्रचलित धारणाओं पर अधिक आधारित हैं.
अंग्रेजी साम्राज्य भारत के बेहिसाब दोहन शोषण को छिपाने के लिए, उसे पिछड़े हुए, अंधविश्वास ग्रस्त और यथास्थिति वादी मानसिकता वाले देश के रूप में प्रस्तुत कर रहा था. ऐसा करके वह यह श्रेय ले सकता था कि वह भारत को आधुनिक सभ्यता के रास्ते पर ले जाने की कोशिश कर रहा है और इसलिए वह नैतिक रुप में सही है. मार्क्स अंग्रेजों के इस प्राच्यवादी दुष्प्रचार से पूरी तरह सहमत प्रतीत नहीं होते. वे यह देख पाए कि अंग्रेज भारत से उसकी कुल ‘जीडीपी’ से भी कहीं अधिक धन बटोर कर अपने देश ले जा रहे थे. इससे उन्हें लगा कि ऐसा करने से भारत मृतप्राय होकर आखिरकार दम तोड़ देगा. इस संदर्भ में वे अंग्रेजी साम्राज्य की आलोचना करते हैं.
परंतु भारत की संस्कृति और उसकी उच्चतर मानवीय एवं प्राकृतिक चेतना के मर्म को ठीक से समझ नहीं पाते. भारत के गांवों की स्वायत्त अर्थव्यवस्था को देखते हुए उन्हें लगा के यह भारत के यथास्थिति वादी होने और पिछड़ेपन का शिकार होने की एक वजह है. इस संदर्भ में वे अपने इस नतीजे पर इसलिए पहुंचे क्योंकि उन्हें भारत के गांव सामंती जकड़बंदी से गिरे हुए दिखाई देते हैं. इसके अलावा वे भारत के पिछड़ेपन की एक वजह जाति और धर्म के परंपरावादी रूपों के प्रभाव को भी मानते हैं. उन्हें लगा कि यूरोप दुनिया की अर्थव्यवस्था का केंद्र होता जा रहा है और बाकी दुनिया उसे कच्चा माल मुहैया कराने वाली पिछड़ी हुई दुनिया में बदलती जा रही है. इसे वे दुनिया का दो दुनियाओं में विभाजन कहते हैं. वे इस समस्या की ओर देखते अवश्य हैं परंतु इसके समाधान की बात नहीं उठाते. इसके लिए यूरोप को कटघरे में खड़ा करना जरूरी हो सकता था. फिर भी कार्ल मार्क्स की चिंता में ‘तृतीय विश्ववादी’ सोच के बीज तो खोजे ही जा सकते हैं.
दूसरे प्रकृति के साथ परस्पर पूरक होने से संबद्ध भारत की संस्कृति की मानवीय भूमि को भी वे ठीक से समझ नहीं पाए. उनकी इस संदर्भ में एक टिप्पणी यह है कि भारत प्रकृति पर विजय पाने की बजाए हनुमान जैसे वानरों के सामने नतमस्तक दिखाई देता है और उनके विश्वमित्र जैसे ऋषि, एक गाय के लिए शोकाकुल होते दिखाई देते हैं. इससे उन्हें लगा कि भारत प्रकृति के सम्मुख पराजय बोध और नियतिवाद का शिकार है, जबकि विकास के लिए मनुष्य को प्रकृति पर विजय हासिल करते हुए आगे बढ़ना होता है.
कार्ल मार्क्स की इस दृष्टि के पीछे यूरोपीय पुनर्जागरण के प्रभाव को जिम्मेवार माना जा सकता है. वह विज्ञान की मदद से प्रकृति पर विजय पाने के अभियान की तरह सामने आया था. पर आज हम इस दृष्टि की सीमाओं से वाकिफ हो रहे हैं. औद्योगिक पूंजीवाद के द्वारा किए गए प्रकृति के दोहन शोषण में पर्यावरण को ही नहीं, पृथ्वी पर समस्त प्राणियों के जीवन को भी संकटग्रस्त बना दिया है.
यहां गांधी अर्थ पूर्ण होते दिखाई देते हैं. कार्ल मार्क्स की भारत संबंधी दृष्टि की जो सीमाएं हैं, उनसे हम गांधी की ‘प्रकृति में वापसी’ से संबंध रखने वाली अंतर्दृष्टि की मदद से कुछ हद तक उबर सकते हैं.
लेनिन से नव लेनिनवाद तक
लेनिन साम्राज्यवादी पूंजी को पूंजीवाद का उच्चतम शिखर मानते हैं. आज दुनिया उससे भी आगे के नव साम्राज्यवादी पूंजी के दौर में पहुंच चुकी है. पूंजी के विकास के इस चरण की व्याख्या के लिए हमें, लेनिनवाद से नव लेनिनवाद तक आने की जरूरत है.
साम्राज्यवादी पूंजी वाला यह शिखर यूरोप में प्रकट हुआ है. तथापि यह सवाल उठाना संगत है कि उस का स्रोत क्या है? जाहिर है, वह तीसरी दुनिया के वे देश हैं, जिन्हें साम्राज्यवाद ने अपना उपनिवेश बनाया था.
उपनिवेशित संसार के अर्थतंत्र को साम्राज्यवादी औद्योगिक पूंजी ने, कच्चे माल की आपूर्ति का माध्यम भर बनाकर, तबाह कर दिया है.
तब विकल्प क्या है? विकल्प है, तीसरी दुनिया का अर्थतांत्रिक गठबंधन.
लेनिन इस ओर नहीं आते. विमर्श का यह क्षेत्र हमें इस संदर्भ में नव लेनिनवाद की संभावनाओं को खंगालने की ओर ले जाता है.
नेहरू ने तीसरी दुनिया के गुटनिरपेक्ष देशों के गठबंधन की बात की थी. नेहरू की सोच दुनिया के सभी देशों के शांतिपूर्ण सह अस्तित्व तक सीमित थी.
लेनिन और नेहरू की इन अंतर्दृष्टियों को एक दूसरे से जोड़ लिया जाए, तो हम एक नए सिद्धांत तक पहुंच सकते हैं.
इस सिद्धांत की आधार भूमि है तीसरी दुनिया के देशों का अर्थ तांत्रिक गठबंधन.
साम्राज्यवादी पूंजी का विकल्प खोजते हुए हम नेहरू के गुटनिरपेक्ष देशों के गठबंधन के सिद्धांत तक पहुंचे थे.
अब दुनिया पर नव साम्राज्यवादी उत्तर पूंजी का वर्चस्व है. इस का विकल्प ‘नव नेहरूवादी सिद्धांत’ के विकास के रूप में आना चाहिए. इसका मतलब है कि अब हमें तीसरी दुनिया के अर्थ तांत्रिक गठबंधन की ओर आगे बढ़ना होगा.
भारत समेत अधिकांश तीसरी दुनिया के देशों में संस्कृति की भूमिका केंद्रीय है. भारत में सांस्कृतिक क्रांतियों का एक लंबा सिलसिला दिखाई देता है. हमें अब एक और सांस्कृतिक क्रांति की जरूरत पड़ेगी. उस के माध्यम से हम ‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई के समन्वय’ वाले एक नए जीवन दर्शन तक पहुंच सकते हैं. ऐसा करने से तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की आपसदारी के लिए एक व्यापक सांस्कृतिक आधार भूमि निर्मित हो सकती है. फिर उसे अर्थतांत्रिक गठबंधन के लिए प्रेरणा स्रोत की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है.
अक्टूबर क्रांति के 100 वर्ष पूरे हो जाने के बाद अब हम इस नई संभावना पर विचार कर सकते हैं.
लेनिन, एम एन राय और हम
लेनिन को लगता था कि भारत में पूंजीवादी विकास के उच्च शिखर की गैर मौजूदगी के बावजूद समाजवादी इंकलाब संभव था. वे उदार बुर्जुआ नेतृत्व की अगुवाई में हो रही साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई की ओर उम्मीद से देखते थे. वे उन्हें विकसित देशों की क्रांतिकारी शक्तियों से जोड़ना चाहते थे.
पर त्रात्सकी की बोली बोलने वाले भारत के वामदल, साम्राज्यवाद विरोधी उच्च और मध्यम वर्ग के नेतृत्व को समझौतावादी कहकर खारिज कर रहे थे.
लेनिन के पोलितब्यूरो के सदस्यों में से एक एम एन राय मानववादी विचारक थे. वे भारत के प्रगतिशील उच्च और मध्य वर्ग के नेतृत्व के प्रति संदेह से भरे थे, पर इतना कड़ा रुख नहीं रखते थे कि उनसे परहेज़ करें. अन्यथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक यह शख्स, अपने ही लोगों के द्वारा निष्कासित हो जाने के बाद, थोड़े समय के लिये कांग्रेस में शामिल न हुआ होता..
एम एन राय का महत्व इस बात में है कि उन्होंने मार्क्सवादी चिंतन धारा में मौलिक योगदान दिया है. वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को भारत के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे. उन्हें लगता था कि हमारे यहां भौतिकवाद, यथार्थ के रूपांतर के लिए पर्याप्त सामर्थ्य रखता है. द्वंद्वात्मकता मैं जिस निषेध के निषेध की जरूरत पड़ती है, वह भारत के लिए जरूरी नहीं है. वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की जगह, ‘मानववादी भौतिकवाद’ वाले मौलिक सिद्धांत तक पहुंच गए थे. एक दार्शनिक के रूप में एम एन राय के विचारों का अभी तक भारत में ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ है.
एम एन राय ने हमारे यहां अपने अलग और विशिष्ट व्यक्तित्व वाले भारतीय यथार्थवाद के गठन के लिए जरूरी भूमिका तैयार कर दी थी. भारतीय यथार्थवाद के विकास का काम एम एन राय ने जहां छोड़ा था, वहीं पर लटका हुआ मुल्तवी पड़ा है. क्या हम इसे अपना नव प्रस्थान बना सकेंगे?
‘गांधीवादी मार्क्सवाद’ का घोषणा पत्र
‘दास कैपिटल’ के रूप में सामने आया कार्ल मार्क्स का चिंतन, औद्योगिक पूंजीवाद के शोषण तंत्र की वैज्ञानिक आलोचना है, जो समाज के वर्ग विभाजन पर चोट करती है.
महात्मा गांधी की इस संदर्भ में व्याख्या थोड़ी अलग है. वे यंत्र आधारित औद्योगिक पूंजीवाद को, मानव जाति के अब तक के इतिहास में प्रकृति पर हुए सबसे बड़े हमले की तरह देखते हैं.
कार्ल मार्क्स का विवेचन विश्लेषण मुख्यतः यूरोप केंद्रित है. जब कि गांधी के यहां केंद्र में, दक्षिण अफ्रीका और भारत समेत, तीसरी दुनिया के उपनिवेश हैं.
कार्ल मार्क्स साम्राज्यवाद को, अविकसित तीसरी दुनिया के सभ्यताकरण के हेतु की तरह देखते हैं, जो नवजागरण की चेतना से लैस पश्चिम की वजह से मुमकिन हुआ.
जबकि गांधी पश्चिमी सभ्यता को प्रकृति के साथ अमानवीय व्यवहार करने का दोषी पाते हैं. वे इस आधार पर पश्चिमी सभ्यता के पैशाचिक चेहरे को बेनकाब करते हैं.
इसका मतलब यह है कि मार्क्सवाद जिस लड़ाई को आर्थिक और सामाजिक धरातल पर लड़ता है, उसे महात्मा गांधी सभ्यता मूलक प्रतिरोध की शक्ल देने में सफल होते हैं.
महात्मा गांधी ने औद्योगिक पूंजीवाद की व्याख्या ‘हिंसा के तंत्र’ के रूप में की है. उसके मुनाफे का सबसे बड़ा आधार युद्ध का साजोसामान है. इसके गर्भ से दो विश्व युद्ध तक प्रकट हो चुके हैं. गांधी इसका प्रतिरोध करने के लिए अहिंसा के दर्शन का सभ्यता मूलक इस्तेमाल करते हैं.
इस तरह गांधी मार्क्सवाद की जमीन का, तीसरी दुनिया के यथार्थ के मद्देनजर, मौलिक नवविकास और विस्तार करते हैं.
विश्लेषण के पैमाने अलहदा होने पर भी, सरोकारों की एकता के कारण, गांधी एक अलग तरह के ‘भारतीय यथार्थवाद’ के गठन की आधार भूमि बनाते हैं.
गांधी का अंध विरोध करने वाले अधिकांश भारतीय कामरेडों को, मार्क्स और गांधी के समन्वय की बात अटपटी लग सकती है. परंतु अगर हम गांधी के रोम्या रोला से हुए संवाद के साक्ष्य को अपने सामने रखते हैं, तो हमें याद आ सकता है कि खुद गांधी ने अपने आप को मार्क्सवादी कहा था.
भगत सिंह का इंकलाबी विवेक
भगत सिंह मार्क्सवाद से प्रभावित थे, तथापि उनका इंकलाबी विवेक मौलिक, प्रयोग शील और भारतीय सांचे में ढला था.
वे अपने इस विवेक को पाने के लिए कार्ल मार्क्स और लेनिन तक ही नहीं गए, उन्होंने अराजकतावादी कहे जाने वाले बैकुनिन को भी अपनी खोज का आधार बनाया.
अराजकतावाद की ओर गांधी ने भी रुख किया था. वे थोरो से ‘सविनय अवज्ञा’ की धारणा को, ‘अहिंसक सत्याग्रह’ का रूप देकर, अपने यहां ले आए थे. पर भगत सिंह ने, साम्राज्यवादी सत्ता के प्रतिरोध के लिए, अराजकतावादियों में से बैकुंनिन की और देखा.
बैकुंनिन राज्य सत्ता के सभी रूपों को दमनकारी मानते थे. वे कार्ल मार्क्स के सहयोगी भी हुए थे, पर उनके सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत का विरोध करने की वजह से उनसे अलग हो गए थे.
भगत सिंह ने अंग्रेज सत्ता की साम्राज्यवादी तानाशाही को ही नहीं, प्रजातांत्रिक होने के दिखावे को भी आलोचना का विषय बनाया था. इस तरह वे भारत में समाजवादी इंकलाब के नए रूपों की तलाश कर रहे थे.
भारत के वाम दलों से वे अपने इन विचारों के कारण कुछ दूरी रखते थे, जिस वजह से उन्होंने किसी पारंपरिक साम्यवादी या समाजवादी राजनीतिक दल की सदस्यता को स्वीकार नहीं किया था.
वे अलग तरह से सोचते हुए भारत में समाजवादी प्रजातांत्रिक इंकलाब करना चाहते थे. यहां वे भारतीय वाम चिंतन के परिदृश्य में, किसी अन्य की बजाए, एम एन राय के अधिक करीब प्रतीत होते हैं.
उनके भौतिकवादी चिंतन ने नास्तिक होने की दिशा पकड़ी. उनका आलेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’, मार्क्सवाद से अधिक, बैकुनिंनवाद के करीब नजर आता है. ईश्वर की परम सत्ता को वे सत्ता का ही एक रूप मानते थे. उस वजह से चेतना के दमन की बात उन्हें स्वीकार नहीं थी.
अपने विचारों में गांधी से असहमत होने के बावजूद, वे उनकी जन संगठनकारी सामर्थ्य को अनुकरणीय मानते थे.
साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई लड़ने वाले उस दौर के नेताओं में से वे, नेहरू की ओर अधिक उम्मीद से देखते थे.
भारत के उदार प्रगतिशील बुर्जुआ के प्रति लचीला दृष्टिकोण रखने की वजह से वे, भारत के वाम दलों की तुलना में, एम एन राय के अधिक करीब हैं.
नास्तिक भौतिकवादी विचारधारा की भारतीय परंपरा को मानववादी तरीके से ग्रहण करने की दृष्टि से भी, उन्हें एम एन राय के ही अधिक निकट माना जा सकता है.
जहां तक समाजवादी इंकलाब को भारत में मुमकिन बनाने की व्यावहारिक योजना का सवाल है, वहां भगत सिंह कुछ मौलिक प्रस्थान करते भी दिखाई देते हैं. मजदूरों और छोटे किसानों को संगठित करने की बात को वह भी महत्व देते हैं, परंतु उन्हें भारत के युवा वर्ग की सामर्थ्य पर अधिक भरोसा है. इस तरह वे भारत में समाजवादी इंकलाब को ‘युवा शक्ति के इंकलाब’ की शक्ल देने की दिशा पकड़ते हैं.
भगत सिंह ने बहुत गहरा दार्शनिक चिंतन नहीं किया है. परंतु उनके जितने दस्तावेज मिलते हैं, उस आधार पर कहा जा सकता है कि वह ‘भारतीय यथार्थवाद’ के अंतर्विकास में, एम एन राय की तरह, मौलिक योगदान करने वाले क्रांतिकारी हैं.
नेहरू का गुटनिरपेक्ष यथार्थवाद और तीसरी दुनिया
गांधी के सहयोगी और वारिस माने जाने वाले नेहरू कि समाजवाद में निष्ठा असंदिग्ध है. परंतु राजनीतिक व्यवस्था के रूप में वे जनतंत्र की ओर अधिक झुकाव रखते थे. तथापि उन्होंने भारत में ऐसे जनतंत्र की स्थापना की ओर रुख किया जिसके सरोकार समाजवादी थे. गांधी के साथ स्वतंत्रता संग्राम में वे साम्राज्यवाद विरोध की अपरिहार्यता को समझ पाए थे. इसलिए आजादी मिलते ही उन्होंने यह प्रयास आरंभ कर दिया कि साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे के तहत तीसरी दुनिया को संगठित किया जाए. इस सोच के तहत वे गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जन्मदाता के रूप में सक्रिय दिखाई दिए. उस समय दुनिया अमेरिका और रूस के दो ध्रुवों में विभाजित थी. साम्राज्यवादी मानसिकता, शक्ल बदल कर अब रूस और अमेरिका की सरपरस्ती में आगे बढ़ रही थी.
भारत की आजादी के साथ औपनिवेशिक दौर के अंत का आरंभ हो गया था. इसके बाद के दौर को हम नव साम्राज्यवाद के दौर के रूप में पुनर्गठित होता देखते हैं. इसका मुकाबला करने के लिए वे तीसरी दुनिया के ‘शांतिपूर्ण सह अस्तित्व’ के लिए काम करते दिखाई दिए.
लेनिनवादी मार्क्सवाद में साम्राज्यवाद विरोध, भविष्य के कार्यक्रम का हिस्सा हो सका था. हालांकि वहां इस तरह के संघर्ष की भूमिका केंद्रीय नहीं थी, क्योंकि इसे वर्ग संघर्ष वाले मुख्य अंतर्विरोध की तुलना में दूसरे स्थान पर रखा गया था. वह बात यूरोप के संदर्भ में सही थी.
परंतु नेहरू की सोच तीसरी दुनिया को केंद्र में रखकर आगे बढ़ रही थी. इसलिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन उनके लिए वरीयता क्रम में सबसे ऊपर चला आया था.
विश्व के संदर्भ में वे गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अगुआ की तरह काम कर रहे थे और भारत के संदर्भ में अपनी अर्थव्यवस्था को खड़ा करने के लिए मिश्रित नीति को इस्तेमाल में ला रहे थे. मिश्रित अर्थतंत्र का अर्थ है वाम और दक्षिण का समन्वय. यहां वे मार्क्सवाद से आगे झांकने का प्रयास कर रहे थे.
परंतु उनकी विश्व नीति को हम ‘गुटनिरपेक्ष यथार्थवाद’ के रूप में भी देख सकते हैं. इस नज़रिए से देखेंगे तो यह भारतीय यथार्थवाद के विशिष्ट गठन के एक अगले चरण की तरह दिखाई दे सकता है.
भारतीय यथार्थवाद उर्फ भारतीय मार्क्सवाद
भारत में मार्क्सवाद के ‘इतिहासकार’ अधिक हैं, उसकी ‘वैचारिकी’ के मौलिक ‘अभियंता’ (इंजीनियर) बहुत कम.
इसलिए हमारे यहां यह काम विविध मार्क्सवादी राजनीतिक पार्टियों ने अपने जिम्मे में ले लिया है. वे समय-समय पर भारतीय यथार्थ की व्याख्या के संबंध में पार्टी के दृष्टिकोण की बाबत दस्तावेज प्रकाशित करते हैं, परंतु मार्क्सवादी सिद्धांत और दृष्टि के बुनियादी सवालों पर किसी तरह का मौलिक चिंतन वहां दिखाई नहीं देता.
एम एन राय और भगतसिंह जैसे कुछ विरल अपवाद हैं, जिनके लेखन में मार्क्सवाद के बुनियादी प्रश्नों धारणाओं और सिद्धांतों पर कुछ मौलिक विचार प्रस्तुत किए गए हैं. लेकिन उनका भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों से संबंध प्रश्नांकित दिखाई देता है.
भारत में खुद को कम्युनिस्ट या कॉमरेड कहने वाले लोग भी, अपने चरित्र और व्यवहार में, अन्य राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं से कुछ खास अलग नज़र नहीं आते. कहीं कोई ऐसी अलग कम्युनिस्ट जीवन शैली या मूल्य विधान दिखाई नहीं देता, जो हमारे यहां के जमीनी यथार्थ की उपज हो.
जब भारत में प्रजातंत्र को लाया गया, तो नेहरू ने कहा था कि यह हमारी जरूरतों की पूर्ति तभी कर सकेगा, जब लोग जनतांत्रिक होंगे. जो बात हमारे जनतंत्र पर लागू होती है, ठीक वही बात हमारे यहां मौजूद समाजवादी व्यवस्था की बाबत भी सही है. यह सब सत्ता की व्यवस्था की तरह ऊपर से लागू होने वाली चीजें हैं, जिनकी हमारे सामाजिक यथार्थ और लोगों की जीवनशैली में कोई खास जड़े नहीं है.
भारत एक समाजवादी जनतंत्र है. इसका अर्थ यह है कि हमारे यहां समाजवादी व्यवस्था के जनतांत्रिक रूप को चरितार्थ होना है. परंतु इसका मतलब केवल यह हो गया है कि समाजवाद को, वोटों की राजनीति के द्वारा हासिल करने वाली, सत्ता की संभावना भर मान लिया गया है.
यह बात यूरोप से एकदम उलट है यूरोप में पहले फ्रांसीसी क्रांति के बाद जनतंत्र आया फिर उसकी कमजोरियों को दूर करते हुए समाजवाद को लाने के प्रयास किए गए. जबकि हम अपने यहां जनतंत्र के आरोपित रूप को समाजवाद तक पहुंचने के रास्ते की तरह अख्तियार करके बैठ गए हैं. नतीजा सामने है. समाजवाद भारतीय यथार्थ के हाशिये के हाशिये पर पड़ा रह गया है.
मार्क्सवादी चिंतन के विकास के संदर्भ में हम यह देख सकते हैं कि चीन ने रूस से थोड़ा अलग दिशा पकड़ते हुए उसे सांस्कृतिक क्रांति से जोड़ दिया था. हमारे यहां रूस और चीन के समाजवादी मॉडल विवेच्य तो हो सकते हैं. पर आदर्श नहीं. हमें अपना रास्ता खोजने की जरूरत है. इस अलग रास्ते की खोज में एमएन राय और भगतसिंह एक हद तक आगे बढ़े थे.
अपनी ज़मीन के रास्तों की खोज, भारतीय समाजवादी दल के संस्थापकों में शुमार एम एन राय के प्रयासों से लेकर, अब तक जारी है. कुछ चिंतकों ने इस संबंध में कुछ जरूरी सवाल उठाए हैं. रूस और चीन के मॉडल को एक तरफ रखने की जरूरत को महसूस करते हुए, रणधीर सिंह ने मार्क्स में वापसी का रास्ता सुझाया है. वे लेनिनवाद या माओवाद के बजाय, शास्त्रीय मार्क्सवाद को भारतीय यथार्थ की व्याख्या के लिए अधिक संभावनापूर्ण मानते हैं.
मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय यथार्थ की समुचित व्याख्या के लिए कुछ विद्वानों ने भारत के प्राचीन दर्शनों की पुनर्व्याख्या के रास्ते को चुना है. एम एन राय और देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लोकायत के चार्वाक दर्शन में ‘भारतीय भौतिकवाद’ की आधारभूमि को मौजूद पाया है. लेकिन इन दोनों की व्याख्या एक-दूसरे से काफी अलग है.
एम एन राय को लगता है कि भारतीय समाज यूरोप की तरह तीखे रूप में विभाजित नहीं है, इसलिए हमें द्वंद्वात्मकता को अपने दर्शनों पर जबरदस्ती आरोपित नहीं करना चाहिए. एम एन राय और डी डी कोसाम्बी इस संदर्भ में एक दूसरे के काफी करीब हैं. उनकी निगाह में यह बात आई कि अपने शुरुआती दौर में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप काफी लचीला था. सभी वर्णों के लोगों की दूसरे वर्णों में आवाजाही मुमकिन थी. यह व्यवस्था बाद में जब कर्म के बजाए, जन्म आधारित हो गई, तब उसके भीतर पतनशीलता के तत्व दिखाई देने लगे.
जबकि देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ब्राह्मण और शूद्र के बीच तीखे विभाजन को देखते हैं. वे ब्राह्मणवादी संस्कृति की ‘समाजार्थिक सरप्लस’ की तरह व्याख्या करते हैं. इससे व्याख्या द्वंद्वात्मक तो हो जाती है, परंतु वह भारतीय यथार्थ के शुरुआती दौर के लचीलेपन की उपेक्षा करने वाली भी होकर रह जाती है.
हमारे समय में एम एल ठाकुर जैसे चिंतक चार्वाक के बजाय न्याय और सांख्य की भौतिकवादी ज़मीन को, इस संदर्भ में अधिक प्रासंगिक मानते हैं.
जहां तक मेरी अपनी दृष्टि जाती है, मुझे लगता है कि हमें अपने शास्त्रीय दौर के दर्शनों में से, योग की भौतिक यथार्थवादी संभावनाओं को फिर से खंगालने की ज़रूरत है. वहां हमें मनुष्य के ‘जैव सामाजिक भौतिकवाद’ की जमीन मिलती है. वह हमें नव मार्क्सवाद की उस चिंतन धारा के करीब ले जाती है, जिसे ‘विकासवादी मार्क्सवाद’ कहा जाता है. हमारे यहां इसका विकास आगे चलकर सिद्धों, नाथों से होता हुआ कबीर जैसे निर्गुणियो तक होता चला आता है. कबीर जितनी साफगोई से हमारे समाज सांस्कृतिक यथार्थ की आलोचना करते हैं, उसके पीछे कसौटी की तरह उनकी वही जैव सामाजिक जमीन खड़ी दिखाई देती है, जिसकी जड़ें योग दर्शन में है.
भारतीय मार्क्सवाद के मुमकिन हो सकने के संदर्भ में इरफान हबीब और रोमिला थापर जैसे इतिहासकार इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसके लिए कार्ल मार्क्स और महात्मा गांधी के बीच संवाद और समन्वय का पुल बनाना जरूरी है. इस दिशा में अपने तरीके से आगे बढ़ते हुए मैनेजर पांडेय जैसे आलोचकों का यह भी मत बन रहा है कि भारतीय यथार्थवाद की भूमिका बनाने के लिए हमें कार्ल मार्क्स और अंबेडकर के बीच आपसदारी के कुछ कॉरीडोर तलाशने होंगे.
स्पष्ट है कि हमारे यहां मौजूद अधिकांश वाम चिंतन, ‘भारतीय मार्क्सवाद’ की रूपरेखा बनाने और खोजने में तो दिलचस्पी दिखाता है, पर उसके ‘सिद्धांत’ का अंतर्विकास कर के, उसे ‘भारतीय यथार्थवाद’ की ‘वैचारिकी’ खड़ा करने तक नहीं ले जाता. हमारे पास वाम इतिहासकार इतने हैं कि उनकी भीड़ में दार्शनिक खोजने पर भी कम ही मिलते हैं.
इस अध्ययन का उद्देश्य भारत में मार्क्सवादी चिंतनधारा के अंतर्विकास का एक जायज़ा लेना है. इसके भीतर से उन संभावनाओं को खोजने का प्रयास किया गया है, जिनकी मदद से हम भारतीय यथार्थवाद के रूप में पहचानी जा सकने वाली विशिष्ट चिंतनधारा के गठन तक पहुंच सकें.
परंतु बात इतनी भी नहीं. यह इससे भी आगे बढ़कर भविष्य के रूपांतर की संभावनाओं को खोजने की बात है.
सवाल यह है कि हमारा यह जो संभावित ‘भारतीय यथार्थवाद’ है, क्या वह इतना अंतर्दृष्टिपूर्ण है कि वाम और दक्षिण के समन्वय की तदबीर निकाल सके?
विश्व के रूपांतर के लिए न वाम अनिवार्य है और न दक्षिण अपरिहार्य. हमारे समय में इन दो विचारधाराओं का यह जो संघर्ष है, वह हमें औद्योगिक और उत्तर औद्योगिक पूंजीवाद के विकास मॉडल का ही विकल्प खोजने की ओर ले जा रहा है. वाम और दक्षिण दोनों पूंजीवादी विकास मॉडल के भीतर मौजूद उसी के अंतर्विरोध हो कर रह गए हैं.
इनके सम्यक समन्वय का रास्ता है, प्रकृति पूरक विकास मॉडल तक पहुंचना. गांधीवादी मार्क्सवाद, जिसे हम ‘प्रकृति पूरक मार्क्सवाद’ भी कह सकते हैं, उस दिशा में आगे बढ़ने की आधारभूमि हो सकता है.
अगर हम ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि प्रकृतिपूरक मार्क्सवाद और गुटनिरपेक्ष मार्क्सवाद, दोनों में परंपरागत वाम विचारधाराओं की सरहदें टूट कर दक्षिणपंथ की ओर खुलने लगती हैं और दक्षिणपंथ लचीला होकर वामोन्मुख होता नज़र आ सकता है.
तथापि इन दोनों के महासमन्वय का समीकरण अभी भविष्य के गर्भ में है.
लेकिन उस समीकरण की ‘आउटलाइन’ को हम उस वक्त देखने लायक हो सकेंगे, जब साम्यवादी वर्ग विहीनता के पदचिन्ह, राजनीतिक धरातल पर ‘गुट विहीनता’ में दिख सकें. और दूसरी ओर, प्रकृति पूरक होकर अर्थतंत्र, ‘प्राकृतिक पूंजीवाद’ की शक्ल ले सके.
पर अगर ऐसा होता है, तो क्या वह अपनी अंतर्वस्तु में साम्यवाद से भिन्न या उलट माना जायेगा?
हमने भारत के वामपंथी राजनीतिक दलों अथवा प्रगतिवादी लेखक संघ आदि के इतिहास में सीधे उतरने के बजाय, विचारधारा और दार्शनिक चिंतन के विकास क्रम को पहचानने और रेखांकित करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. हमारी दृष्टि व्यापक सामाजिक रूपांतर के संभावित नक्शे बनाने से ताल्लुक रखती है. इस नजर से देखेंगे तो आपको यह कार्य मार्क्सवाद और भारत के संदर्भ में अभी तक उपेक्षित स्थगित पड़ी रह गई चिंतन मूलक चुनौतियों से जूझने का एक विनम्र प्रयास अवश्य लग सकता है.
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विनोद शाही
संपर्क: ए 563 पालम विहार, गुरूग्राम-122017 |
विनोद शाही के लेख का फ़लक व्यापक है । यह टेढ़े मेढ़े रास्तों से होता हुआ अपनी मंज़िल तक पहुँचकर भी नहीं पहुँचता । क्योंकि विनोद शाही ने मार्ग को प्रशस्त करने का कार्य सभी के लिये खुला छोड़ दिया है । ताकि बुद्धिजीवी वर्ग इस पर प्रकाश डालें । मानव समाज के लिये ग्राह्य बना सकें । शाही साहब का लेख कसी हुई रस्सी के समान है । इस मुश्किल स्थिति में ले गया है । यहाँ क्रियान्वयन की स्वतंत्रता न के बराबर है । परंतु आगे बढ़ने के लिये अत्यंत सावधान रहना होगा । पूँजीवाद का मॉडल मुनाफ़ाख़ोरी की बजाय मानवीय मूल्यों के संरक्षण में योगदान करना आवश्यक है । परंतु आधुनिक युग में पूँजीपति वर्ग निरा मुनाफ़ाख़ोर हो गया है । भुखमरी बढ़ी है । परिणाम स्वरूप आसानी से कहा जा सकता है कि यह कैसा आधुनिक काल है । जिसमें लोगों को दो वक़्त की रोटी मुहैया नहीं होती । उच्च शिक्षा महँगी हो गयी है । वर्तमान शासन ने इसका समाधान निकालने की बजाय मुश्किलें खड़ी की हैं । रशिया के यूक्रेन पर बलात् आक्रमण ने दुनिया के सामने नयी चुनौती खड़ी कर दी है । लेख में मार्क्स, Albert Einstein और गांधी के विचारों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया गया है । नेहरू का गुट-निरपेक्ष आंदोलन अपनी परिणति तक नहीं पहुँचा । परिवारवाद और जातिवाद ने भारतीय लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया है । मुझमें कम बुद्धि है । दो बार लेख को पढ़ा । विनोद शाही का यह गंभीर लेख बताता है कि उनका अध्ययन व्यापक है । विनोद जी का अध्ययन भारतीय समाज ही नहीं बल्कि समूची मानव जाति के लिये कल्याणकारी हो । मेरी शुभकामनाएँ ।
मिथकों के इस्तेमाल से बहुत ही रोचक और बेधक तरह से शाही जी आधुनिक काल के भविष्य के रूपांतर की संभावना को इस लेख में टटोलते हैं। उनकी वाम और दक्षिण पंथ की कामयाबी– नाकामयाबी की समझ अचूक है। वे ही इतनी साफगोई से यह कह सकते हैं कि , ” औपनिवेशिक इतिहास यूरोप का ब्लाइंड स्पॉट है।” वे इन दोनों के इस तरह इतिहास में साथ आने को ” अनहोली एलायंस ” भी कहते हैं। लेकिन, फिर भी उनके किसी अन्य कल्याणकारी रूप में समन्वित होने की उम्मीद पर कायम रहते हैं। बीज के अपने प्रिय रूपक में भी वे उसकी मूल संरचना में दो दल के होने की बात करते हैं। वनस्पति जगत में बहुत बड़ी संख्या ऐसे पादपों की है जो एक दल के बीज से उगते हैं। और उनसे भी बहुत बड़ी संख्या ऐसे पादपों की है जिन्हें अपनी संतति के लिए बीज की ज़रूरत ही नहीं है! उन पादपों में हर कोशिका नई संतति को जन्म देने में सक्षम है। प्रकृति में एक नहीं, दो नहीं, असंख्य संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं। दर्शन और चिंतन धाराओं को भी वाम और दक्षिण से इतर कई कई संभावनाओं की खोज करनी होगी जो अफ्रीकी, दक्षिण अमरीकी और न जाने किन किन समाजों में पहले से खोजी और बरती जा चुकी हैं। ☘️ शाही जी अपने लेख में तीसरी दुनिया के गठजोड़ में उम्मीद शायद इसी कारण देखते हैं☘️☘️☘️
बौद्धिक श्रम और अंतर्दृष्टि संपन्न पठनीय लेख, मगर आख़िर तक आते- आते फिर वही’मार्क्सम् शरणम गच्छामि’।गाँधीवादी मार्क्सवाद! जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिर जहाज पर आवे…..
विनोद शाही जी का लेख पढने में सुव्यवस्थित, वृहद् एवं संगठित है जो ज्ञानवर्धन में सहायक है तथा लेखक की व्यापक जानकारी को भी दर्शाता है | परन्तु लेख में जिस अवधारणा का उल्लेख किया गया है वह अपने आप में ही मृतप्राय है | गांधी ने अपने दर्शन में न तो वो गहराई ही दी न ही धरातल पर उतारने के लिए वह कार्य किया जो समाज में आमूलचूल परिवर्तन के लिए सहायक हो | हाँ देश को जोड़ने के लिए जिस मार्ग पर वो चले वो काबिलेतारीफ अवश्य है परन्तु अधूरी है | शायद यही कारण था की भगत सिंह गांधी के विचारों एवं दर्शन से बहुत प्रभावित नहीं हुए | अब जिस दर्शन की नींव अधूरी हो वो समाज में एक वैचारिक क्रांति तथा धरातल पर उसका क्रियान्वयन करने में अक्षम रहती है | इस स्तर की क्रांति के लिए चेतना का उच्चतम स्तर पर जाना एवं समाज में उसका प्रवाहित होना अति आवश्यक है | गाँधी की चेतना में उस बल का आभाव प्राप्त होता है | इस बल के स्तर को ऐसे समझ सकते हैं जैसे की बुद्ध या जीसस ने एक नए मार्ग की स्थापना की | या मार्क्स ने अपने सिधान्तों के लिए किया | यहाँ मैं सिध्ध्न्तों के पक्ष या विपक्ष की बात न करके अपने दर्शन के लिए लागे जाने वाले बल एवं चेतना की बात कर रहा हूँ | और प्राकृतिक रूप से समाज हमेंशा ही सर्वाइवल मोड में रहा है जिससे सभी तरह की अराजकता का जन्म होता है | इस अराजकता को चेतना की ऊंचाई से ही समझा जा सकता है | परन्तु गांधी में ऊंचाई होने के बावजूद उस उच्चतम ऊंचाई का आभाव रहा जिसकी मांग सामाज के ढांचें में आमूलचूल परिवर्तन के लिए रहती है …