छोटके काका और बड़के काकासत्यदेव त्रिपाठी |
हमारे बड़के काका न होते, तो हम (मां, दोनों बड़ी बहनें और मैं) न होते. और यदि होते भी, तो ऐसे न होते, कैसे होते, पता नहीं !!
बड़के काका यानी स्व. पिता के छोटे भाई स्व. जयनाथ त्रिपाठी. वे इतने जिम्मेदार व कर्मठ रहे कि हमें पिता की कमी रंचमात्र भी खलने न दी. हाँ, पिता को याद करने और उनके न होने को महसूस करने से तो कैसे रोक सकते थे? अलबत्ता उन्होंने हम सबका पालन-पोषण ऐसा किया कि कोई पिता भी उससे अच्छा क्या करेगा??
सातवीं तक पढ़ते हुए मुझे वे अपनी गोद में लेके सोते, अपनी थाली में अपने हाथों खिलाते…. उसके बाद भी यह करना इसलिए रुका, क्योंकि उनकी दमा की बीमारी का प्रकोप बहुत बढ़ गया, जिससे मुझे छूत (इन्फेक्शन) लगने का आतंक सब पर- और सबसे ज्यादा बड़के काका पर- तारी हो गया, जिसके चलते उन्होंने ही समझा-बुझा के अपनी थाली में मेरा खाना बन्द कराया, पर अपने हाथ से खिलाते रहे…. साँसों की हवा से उनकी बीमारी मुझे न लग जाये, इसलिए अपनी खाट पर सुलाना छुड़ाया, पर मेरी खाट के पास अपनी खाट लगाके रात भर मुझे बेना डुलाते (हाथ का पंखा झलते) रहते, ताकि पसीना होने व मच्छर काटने से बचकर मैं सुख से सो सकूँ….
काका पहलवान थे और उनके द्वारा मेरी देखभाल के मामले को उसी रूपक में कहूँ, तो…पहलवान अखाड़े में जैसे अपने प्रतिद्वन्द्वी की हर अदा-ऐक्शन, भौंहों की वक्रता, हाथ-पैरों की भावी गति, माँसपेशियों की फड़कन…आदि पर चौकन्नी नज़र रखकर उनके दाँव व आक्रमण का सन्धान करते रहते हैं, उसी चौकन्नेपन से वे मुझे देखते. हम न अपने घाव छिपा पाते उनसे, न भाव.
मैं खेलने-कूदने (जो बहुत करता था) में लगी अपनी चोटें (जो बहुत लगती थीं) मां तक से छिपा ले जाता, लेकिन काका पकड़ लेते– ‘यहर आवा, ऊ अंगुरी में का भयल हौ’? और देख के पहले डाँटते, फिर समझाते, फिर दवा लाते-लगाते….
ऐसे ढेरों सलूक हैं…कितना गिनाऊँ!! यह सार-सम्हार बाबा के शब्दों में ‘जियनमूरि जिमि जोगवति रहेऊं’ ही था. और इसके आगे ‘दीप बाति नहिं टारनि कहेऊं की ही तरह घी की गगरी भले ढरक जाये, मेरे बड़के काका उसे सीधा करने के लिए मुझे नहीं कह सकते थे. मैं खुद सीधा करने चलूँ, तो आके थाम लें– ‘तू रहे दा, हम हई न’. सो, उनके रहते मेरा जीवन रईसी व प्यार-दुलार में किसी राजकुमार से कम न था. और यह सब करने के साथ बात-बात में मेरे सर पे हाथ फेरते हुए ‘हमरे भइया के निसनियां’ कहना उनकी सुमिरनी था….
उनके भइया यानी मेरे पिता स्व. रामनाथ त्रिपाठी जब १९५३ में हैज़े से अचानक चल बसे, तब मैं एक साल का था. छोटी बहन साढ़े तीन तथा बड़ी छह साल की थी और मां भी महज़ २९ साल की. जिस उम्र में आज लड़कियों की शादी तक नहीं होती– मेरी माँ हम तीन बच्चों की जननी होकर विधवा भी हो गयी थी. बड़ी बहन को शायद पिता की शक्ल की कुछ धुंधली-सी याद हो, छोटी बहन की तो उम्र ही न थी याद करने लायक़ और मैं तो जनुक उन्हें देख पाने लायक़ भी न था. बड़े होके सुना- जाना कि उन्हीं के चलते उनके तीनों भाई अपनी-अपनी मस्ती में रहते– बड़े भाई सधुक्कड़ी में और दोनों छोटे पहलवानी में. और इन्हीं शौकों के चलते उन लोगों ने शादी भी न की, तो परिवार भी (हम लोग) पिता का ही था. वे सब कुछ सम्हाल भी लेते…. ज्योतिष के अच्छे विद्वान थे. उनकी बनायी दर्जन भर ऐसी कुंडलियाँ, जिनके अनिष्ट योग थे, इसलिए देने न गये, मैंने बड़े होने पर ले जाके गंगा में बहायी हैं– वे जातक तो कब के मर गये थे.
यज्ञादि सारे कर्मकांड विधिवत कराते. खेती भी अच्छी कराते और देहात में उनकी बड़ी मानजान थी. इसके प्रमाण भी मिलने लगे, जब मैं देहात में आने-जाने लायक़ हुआ. अपने गाँव से एक-डेढ़ किमी. दक्षिण है तंबरपुर गाँव, जहां से पिता ने ज्योतिष की पढ़ाई की थी और बाद में अपने गुरु ज्योतिषाचार्य पंडित रघुनाथ उपाध्याय की सेवा में उनकी खेती-बारी भी सम्हालने में लग गये थे, क्योंकि उनके एकमात्र बेटे बहुत छोटे थे. इस तरह उनका वहाँ काफ़ी रहना भी होने लगा था. लिहाज़ा उस घर से हमारा घरेलू रिश्ता बन गया था, जो मेरे आठवीं में पढ़ने यानी छोटी बहन की शादी (१९६६) तक रहा… और अच्छा रिश्ता तो आज भी है. होश सम्हालने के बाद मैं उस गाँव में जब पहली बार गया, तो मुझे देखते ही धीरे-धीरे चर्चा फैली और शोर-सा मच गया था…. मेरी शक्ल पिता से मिलती है, यह तो सुनता था, लेकिन देखा वहीं. जो भी मुझे देखता, चिहाके चिल्ला पड़ता– ‘हे देखा, रामनाथ के बेटउवा आय गयल’…और देखते-देखते पिता के गुरु के घर पे मुझे देखने वालों का अच्छा ख़ासा मजमा जुट गया.
सब अपनी-अपनी तरह पिता को याद कर रहे थे, अपने लिए किये गये उनके कामों के साथ सराह रहे थे. मेरे अनाथ हो जाने और एकमात्र होने पर अपरम्पार अयाचित अनुग्रह बरसा रहे थे. कई लोग, जिनमें ज्यादा महिलाएँ थीं, तो माथा-पीठ सहला भी रहे थे और कुछ तो आँचल मुँह में दबाये हुए फफक-फफक के रो भी रही थीं….
फिर मैं दर्जा छह से बारह तक पढ़ने तीन-चार किमी दूर पूरब बिजौली गया. उस गाँव के लल्लर पांड़े से भी हमारे घर के दोस्ताने रिश्ते थे. वे मरणोपरांत के कर्मठ वाले हमारे महाब्राह्मण पुरोहित हुआ करते थे और उनके बेटे राम किसुन पांडेय १२वीं तक मेरे सहपाठी रहे. सो, वे भी हमारे ‘लल्लर काका’ थे.
२.
इस लेख के नायक हमारे पहलवान बड़के काका व लल्लर पांड़े काका का साथ लठियाही का भी था- वे लोग साथ मिलकर किसी के लिए किन्हीं लोगों से लाठी चलाने जाते थे रातों को. मेरे होश में तो लाठी कभी चली नहीं, लेकिन काका के दाहिने हाथ के अंगूठे में नाखून न था. वहाँ फूल कर जमा हुआ मांस लाठी चलाने में लगे घाव का था– नाखून फट के निकल गया था. उसमें न दर्द था, न उससे काम का कोई नुक़सान होता. ख़ैर,
लल्लर काका के घर जिस दिन कुछ भी अच्छा बना होता, खिलाने के लिए मुझे शाम को जबरन रोक लेते…. ऐसे में काफ़ी बातें भी होतीं…. उसी में कभी बात-बात में उन्होंने कहा था– बेटा, तुम्हारे पिता तो सम्मौपुर (मेरे गाँव) की गड़ही (छोटा तालाब) में खिले कँवल (कमल) थे, जिसे भगवान ने असमय तोड़ लिया– ‘रामनाथ भइया के बिना भगवानों ना रहि पवलें…हमन त मनई बाटी- बेबस’. और आँखें छलछला आयी थीं उनकी. सो, इन तमाम रूपों में अपनी यशगाथा लिये पिता मेरे साथ जीवन के आरम्भिक दिनों में काफ़ी समय तक ज़िंदा रहे…. सूक्ति है- ‘नास्ति येषाम् यश: काये ज़रा-मरणजं भयं’…(यश को जन्मने, पुराने होने, मरने का भय नहीं होता).
पिता के चारों भाइयों में सबसे बड़े…, इसलिए हमारे बड़के बाबू कुबेर त्रिपाठी सबसे अंत तक मेरे साथ रहे- बहुत बाद में दिवंगत हुए, जब मैं चेतना कॉलेज, मुम्बई में पढ़ाने लगा था. वे खुद बड़े होते-होते घुमंतू साधु हो गये थे, लेकिन तुलसी वाले वो नहीं कि ‘नारि मुई घर सम्पति नासी, मूँड मुँड़ाइ भये सन्यासी’. क्योंकि न उन्होंने मूँड मुँड़ाया, न जटाजूट रखे…, न पूरे (फ़ुल टाइम) सन्यासी हुए. हाँ, पूजा-पाठ ज्यादा करते…. सो, ‘पुजारी’ नाम ही पड़ गया था. उनका पूरा चरित्र इतना रोचक व बहुरंगी रहा कि मैं उन पर अलग से काफ़ी लम्बा लिख चुका हूँ….
तो बच गये पिता के दोनो छोटे भाई- बड़के काका, छोटके काका. ये दोनों मूलतः पहलवान थे. मेरे गाँव में उस दौरान पहलवानी का अच्छा प्रचलन था. लेकिन पहलवान के रूप में थोड़े ही दिनों के लिए सही, अच्छा नाम हुआ छोटके काका का. उनका नाम तो था शालिग्राम त्रिपाठी, पर बुलाये गये वे सालिक नाम से, तो जाने भी गये सालिक पहलवान नाम से. वरना शालिग्राम तो कुल देवता ठाकुरजी के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार होते हैं– हमारे घर की सात मूर्तियों में पाँच शालिग्राम ही हैं. फिर गाँव में परिपाटी के अनुसार सालिक पंडित थे, हमारे लिए दूसरों की तरफ़ से सालिक काका, लेकिन हमारे लिए तो छोटके काका ही रहे….
अपने भाइयों में सबसे छोटे होने के कारण छोटके काका बड़े दुलरुए रहे होंगे, इसलिए वे घर का कुछ काम न करते, बल्कि बड़े शाकाहारी क़िस्म की आवारागर्दी करते, जो थोड़ा-बहुत तो मैंने देखा, लेकिन बहुतेरे क़िस्से काफ़ी बड़े होने पर सुने. ये कुछ पढ़े-लिखे थे, इसका क़यास मुझे इसलिए है कि बड़ी दीदी की शादी (१९६१) में कन्यादान करते हुए मंत्र बोल रहे थे. मैंने खुद देखा-सुना, क्योंकि कन्यादान के ठीक पहले भाई को वर-वधू के जुड़े हाथों पर लोटे से बिना धार टूटे पानी गिराना होता है, जिसके लिए दो-तीन बजे रात को मुझे जगाके मंडप में लाया गया था और कन्यादान-विधि के बाद व हवन के पहले लावा परिछने (लाजाहुति:) के लिए मंडप में ही बिठा लिया गया था. छोटके काका के कभी मन में आ गया, तो नहाके पूजा भी करते…भर माथे चंदन लगाते और श्लोक भी बोलते थे. कभी ‘रामचरितमानस’ की पंक्तियाँ भी बोलते… ‘कौसल्या जब बोलनि जाई, ठुमकि-ठुमकि प्रभु चलहिं पराई’ पंक्ति मुझे उनसे सुनकर ही याद हुई है– इसलिए कि ‘ठुमकि-ठुमकि प्रभु चलहिं पराई’ पर वे अपने ऊपर-नीचे के दांत बिठाके सिर्फ़ जीभ के परिचालन व होंठों के सहाय के साथ अजीब-सी आवाज़ में आँख-हाथ नचाते व गरदन हिलाते हुए इस अंश को कई बार दुहराते…. उनकी यह अदा मुझे बड़ी भाती.
आज मुझे इस पंक्ति की उनकी प्रियता के लिए यह कयास भी होता है कि इसमें उन्हें अपने बचपन की शरारतें याद आती रही होंगी, जो वे अपनी मां के बुलाने पर इधर-उधर भाग के करते रहे होंगे…. शरारत तो वे बड़े होने पर भी- बल्कि आजीवन- करते रहे…. इस प्रकार अपने सबसे छोटे होने को सार्थक करते रहे, बल्कि उसका फ़ायदा उठाते रहे– बड़े कभी हुए भी नहीं…. वे उम्र में सबसे छोटे, पर क़द में सबसे लम्बे थे, जबकि बड़के बाबू उम्र में सबसे बड़े होकर भी क़द में सबसे छोटे थे, पर नाटे कदापि नहीं. छोटके काका कभी मुझे गोद में उठाके खेतों में चले जाते. कंधे पर बिठाये खूब घूमते…. कोई गाना भी गुनगुनाते, जिसके बोल तो आज बिलकुल याद नहीं, पर कुछ पनघट जैसा था. उस वक्त मौसमी फसलें- कच्चा मटर-चना, गाजर-ककड़ी…आदि- जो खेतों में मिलता, मुझे खिलाते. बड़ी देर बाद लेके वापस आते…और बड़ा मज़ा आता मुझे….
जैसा कि उल्लेख हुआ, छोटके काका पहलवान अच्छे थे. अपनी देहात के बीस कोस के मान में होते दंगलों के वे सरनाम पहलवान हो गये थे. उनसे (कुश्ती के लिए) हाथ मिलाने में लोग हदसने लगे थे. उनको कुश्ती सिखाने वाले गाँव के ही हमारे बड़के बाबू ठाकुर राम किसुन सिंह भी आगे चलके इनसे सीधे भिड़ने में सहमते, ऐसा सुना है मैंने. फिर तो वे मुम्बई तक दंगल लड़ने चले जाते थे और जीत के आते थे.
जब १९७१ में मैं मुम्बई गया, तो मुम्बई सेंट्रल स्थित उस घर गया, जहां छोटके काका ठहरते थे और वहीं रहकर बड़के काका ने कुछ दिन नौकरी भी की थी. उस परिवार के एक भाई किसी मिल में मुकादम (सुपरवाइज़र) थे, तो जो भी गाँव से आता, उसे काम पे लगा देते. वहाँ से भी छोटके काका का एक किस्सा मिला….
पहले मुम्बई में पुरानी शैली की इमारतें हुआ करती थीं, जिन्हें ‘बैठी चाल’ कहते थे. १९७० के दशक में जब मैं मुम्बई पहुँचा, वैसी ढेरों इमारतें मौजूद थीं– बहुत बाद तक रहीं. लेकिन अब सब उजह (निर्मूल हो) गयीं…. फिर भी मिल जायें शायद कहीं देखने के लिए इतिहास की साक्षी की तरह आज भी…. उसमें अंदर जाने के लिए लम्बा गलियारा (पैसेज) होता था और दोनों तरफ़ सबके कमरे होते थे. गलियारे में भी लोग खाट डाल के सोते. जो क़िस्सा सुनने को मिला, उसमें छोटके काका उसी गलियारे में सो रहे थे. कोई निवासी मिल से दूसरी पाली (अपराह्न साढ़े तीन से रात बारह बजे) की ड्यूटी करके आया और संकरी जगह में अंधेरा होने से काका की खाट को धक्का लग गया. उनकी नींद टूट गयी. उन्हें ऐसा ग़ुस्सा आया कि उसे पकड़ के बाहर ले गये और पीतल का लोटा सर पर दे मारा– आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कैसे ‘पिनकी’ (शॉर्ट टेम्पर्ड) और कितने मनबढ़ू रहे होंगे वे!! उसके सर से खून बहने लगा. इनका हट्टा-कट्टा बदन देखकर उसके लोग लड़े नहीं, पुलिस में जाने लगे. काकाश्री वहीं पालथी मारके बैठके घोषणा की– ‘आने दो– तुम्हारी पुलिस को भी देख लूँगा’. वह तो मुकादम भैया का ऐसा औरा था कि उन्होंने पुलिस में न जाने दिया. समझा-बुझा के तत्ता-थम्मा करा दिया….
अपने उसी छुटपन में गाँव (वालों) से मैंने खूब सुना था कि छोटके काका की यह पहलवानी देह उनकी माताश्री यानी मेरी दादी कुलवंता देवी की देन है. उन्होंने उस अपने सबसे छोटे बेटे को खिलाया-पिलाया था खूब. सबकी चोरी रातों को दूध पिलाती थीं. लोगों की ही ज़ुबानी ‘उनका शरीर आईने की तरह झलकता था’. लेकिन मैंने उनका वह रूप, वह जलवा नहीं देखा. जो देखा, उसमें वे घर में पड़े रहते या सुर्ती मलते हुए निकल लेते और गाँव में किसी के दरवाज़े बैठ के गप्प मारते…. कहने पर भी कोई काम न करते…. उनके काम न करने के दो रोचक वाक़ये सुनाऊँगा– एक आँखों देखा, एक कानों सुना. पहले आँखों देखा–
मैं कुछ दो-तीन में पढ़ता रहा होऊँगा उन दिनों. घर में ठीक-ठाक अमीरी थी. अभाव तो बहनों की शादियों के बाद शुरू हुए. तब अच्छी खेती होती थी. काम करने वाले आते थे, लेकिन रोज़ पशुओं के चारे की व्यवस्था तो गाँव का हर किसान खुद करता था. और बड़के काका की तो काम करने की आदत थी. सो, उस दिन बड़के काका हंसिया हाथ में लिये घर में से आये- साँवा (शामक) काटने ज़ा रहे थे, ताकि मौसमी खाने के रूप में उसका भात परिवार भी खाये व पशु भी हरा चारा पायें. छोटके काका ओसारी में तखत पर बैठे मस्ती कर रहे थे…. बस, बड़के काका ने यूँ ही कहा– ‘क्या दिन भर मटरगशती करते रहते हो, चलो मेरे साथ साँवा काट लायें.
छोटके काका का जवाब – ‘ये सब मेरा काम नहीं. तुम्हारा शौक़ है. जाओ काटो, ले आओ’.
‘तो तुम्हारा क्या काम है– सिर्फ़ खाना ढाई सेर और करना कुछ नहीं’? – काका ने तंज से पूछा.
‘वो तो तक़दीर है अपनी-अपनी. मैं लिखा के लाया हूँ आराम. सो, कर रहा हूँ’….
इसी तरह दो-चार सवाली-जवाबी जुमले चलने के दौरान बड़के काका पास आके हाथ से खींच के छोटके काका को उठाने लगे और वे न उठने के लिए तख़्त पर अड़ने लगे…. इसी खींचा-खींची में ज़ोर-आज़माइश होने लगी और फिर दोनों पंजा मिलाने चले…कि बड़के काका के हाथ का हंसिया लग गया छोटके काका के ललाट पे– भौहें के ठीक ऊपर. लगा खून बहने…. बस, उन्होंने कहा– जा रहा हूँ थाने पर रपट (रिपोर्ट) लिखाने…जेल खटाऊँगा तुमसे. कहके वे दक्खिन की तरफ़ थाने की दिशा में गये और बड़के काका ‘जो-जो देखी ला तोर थाना-पुलिस’ कहते हुए पूरब दिशा में खेतों की तरफ़ चल पड़े. यह बोलबाज़ी सुनके दो-चार पड़ोसी जुट आये थे, वे भी अपने-अपने घर चले गये. रह गया मैं परेशान, डरा हुआ कि अभी पुलिस आयेगी और बड़के काका को ले जाके थाने में बंद कर देगी….
एकाध घंटे में बड़के काका एक बोझ साँवा काट के लाये. उसे लतिया (दोनों पैरों से रगड़) के दाना अलग किया. बाल के बैलों का चारा तैयार किया. ‘बालने’ को आज बताने की दरकार है. लकड़ी का मोटा बोटा ज़मीन के अंदर दो फ़िट गाड़ देते. आधा फ़िट ऊपर रहता– चिकना-गोल. उसे ‘नेसुहा’ कहते. मुट्ठी-मुट्ठी भर चारा पकड़ के उस पर रखते और दूसरे हाथ में गंडासा लेके आधा-आधा इंच के टुकड़े करते जाते…, ताकि पशु खा सकें. इस पूरी प्रक्रिया को ‘कोयर बालना’ कहते…. कोयर बालने की मशीन तो मैंने ख़रीदी १९६९ में. उसके पहले ८-१० महीने मैंने भी सिरे से यह काम किया है…. बहरहाल,
काका फिर बैलों के लिए बनी हौद में दो-दो घड़े पानी भरते, उसमें कोयर (चारा) डालके पशुओं को खाने के लिए वहीं बांध देते. इस पूरे कार्य को ‘सानी-पानी करना’ कहते– दो घंटे तो लगते यह करने में…. पानी डालके बैलों को नादे (खाने में) लगाया और नहाने चले गये…. मां भी खाना बनाने में लगी थी…. यानी सबके सारे काम बड़े इत्मीनान से चल रहे थे. किसी को कुछ पड़ी ही नहीं!! काका ने आके ठाकुरजी को नहलाना – यानी पूजा करना शुरू किया…. उनका यह काम बड़ा यांत्रिक होता – नहलाते, चंदन लगाते रहते…और मन में कुछ चलता भी रहता…कुछ पूछते-कहते भी रहते – निश्चित ही खेती-बारी के काम…. बहरहाल, पूजा करके उठते हुए मां से कहा– ‘भौजी खाये के निकारा…बड़ी भूख लगल हौ’. फिर औचक पूछ बैठे – ‘औ सलिका (सालिक – सलिका) कहाँ हौ? लौकत ना हौ’!! अब मुझे बोलने का मौक़ा मिला– ‘काका, ऊ त तबे थाने चलि गइलें न– पुलिस बोलावे– सिपाही लेके अउते होइहें’….
मेरी गमगीन आवाज़ सुनते ही काका हंसे और कहा– ‘पुलिस न फुलिस… जो, गाँव में देख… किसी के द्वार पे बैठा होगा. कह दो कि काका बुला रहे हैं…आके खा ले. वरना अभी आके मारते हुए लाऊँगा’. और वही हुआ– वे रामराज काका की मंडई में बैठे गप मारते मिले. घाव पर किसी ने हल्दी-प्याज़ पीस-चुरा के लगा दिया था. मेरे कहते ही चल पड़े और दोनों भाई यूँ बैठ के साथ खाने लगे– जैसे कुछ हुआ ही न हो– मैं हैरान…!! धीरे-धीरे जान-मान पाया और अब समझ में आता है कि उस वक्त का यही जीवन था. यही जीवन-पद्धति थी कि जो भी हो, कह-कहा लो, लड़ लो. पर रहो निछद्दम भाव से– बिना किसी रंज-गम-गाँठ के…. उन दिनों के ऐसे ढेरों वाक़ये आज भी याद हैं मुझे. तभी आज देखता हूँ, तो सारी पढ़ाई-लिखाई, आधुनिकता-प्रगति…आदि पर तरस आता है!!
कानों सुना दूसरा किस्सा मेरे जन्म के पहले कभी का है. इसलिए यह पेश है- अपने ख़ानदान के बड़े भाई रामाश्रय त्रिपाठी से सुनकर– भरसक उन्हीं की ज़ुबानी, जो इस गुर के उस्ताद व रसिया थे. कोई भी घटना ऐसा ठह-ठह के और मढ़-मठार के सुनाते कि गोया आप देख ही रहे हों सब कुछ…. और उसी में हर कथा-वाचक की तरह अपना कुछ जोड़ देते, जिसे उस घटना को अपनी आँखों देखा हुआ शख़्स भी मान ही लेता कि हाँ, ऐसा ही हुआ था. तो, वे सुनाते…जैनाथ बाबा (बड़के काका) और पुजारी बाबा (बड़के बाबू) घूरे से खाद निकालकर खेत में ले जा रहे थे और सालिक बाबा उधर झांक भी नहीं रहे थे. खर-मेटाव (‘ब्रेक फ़ास्ट’ का सटीक शब्द- यानी नाश्ते) का टाइम हुआ. दोनों घर आये. नाश्ता करते-करते सालिक बाबा को धिक्कारा इन लोगों ने कि इतनी मज़बूत देह लेके तिरुन उसकाते (तृण भी उठाते-हिलाते) नहीं हो. बस, सालिक बाबा उस दिन न जाने क्यों ताव में आ गये और कहा– चलो, तुम लोगों का खिलाया सब तार देता हूँ आज. दो-ढाई घंटे में जितनी खाद तुम दोनों ने फेंकी है, उतनी मैं एक ही बार में फेंक दूँगा. और सच ही जाके कहाँरों का बड़ा वाला खाँचा माँग लाये, जिसमें वे लोग भरसाँय (भाड़) में जलाने के लिए पतई (गन्ने व पेड़ों की पत्तियाँ) लाते. उसमें २५-३० झौआ खाद तो आती ही– यानी उतनी खाद, जितनी ये लोग एक-एक करके अब तक इतने ही चक्करों (राउंड) में ले गये होंगे…. खुद ही खाँचे में खाद भरवायी और इतने में वही हम छ-सात लोगों को बुला भी लाये- सर पे उठाने के लिए. हम सबको थोड़ा कयास भी था कि पहलवानी देह है, शायद ले जा सकें…. खाँचा बारी (किनारे) बराबर भर गया. उन्होंने सर पे पगड़ी बांध ली और सबको उठाने के लिए बोले…. लला-पला करके खाँचा पहुँचा छाती की ऊँचाई तक…कि खुद ही खाँचे को ऐसा ढकेला कि सारी खाद घूरे में गिर गयी…और लगे सबको फटकारने– ‘तुम लोग आदमी हो कि घनचक्कर? इतना बड़ा बोझा दुनिया का कोई आदमी कैसे ले जा सकता है अकेले? तुम लोग सब मेरे दुश्मन हो– मेरी जान लेने पर तुले हो…!! कहते हुए हाथ झाड़ते चल पड़े घर की ओर… और हम सब तो सन्न!!
क़िस्सा कई दिनों तक गाँव की बैठकों-चौबारों में गूंजता रहा…बाद में भी कभी-कभार फिर मौक़े-मुहाल सुनाया जाता रहा…और हर फिर घटना की तरह इतिहास में समा गया…
लेकिन छोटके काका के अंतिम दिन बड़े ख़राब गुजरे, जो मुझे बहुत साफ़ याद है– तब तक मैं संज्ञान हो गया था. कुदरत के दो आक्रमण उन पर एक साथ हुए. दाहिने हाथ की केहुनी में फोड़ा निकला, जिसका वैद्यकीय व गवईं इलाज, जो उस वक्त उपलब्ध था, बहुत हुआ, पर ठीक न हुआ. हाथ टेढ़ा हो गया…. दूसरा हमला दिमाग पर हुआ. कभी हफ़्ते-पंद्रह दिनों के लिए पता नहीं कैसी सनक सवार हो जाती कि रातों को उठके घर से भाग जाते…. कई-कई दिन नहीं आते. उस दौरे के दिनों में कई बार दिन में आते, पर खेतों-सिवानों में घूमते, घर न आते. एकांत पाकर कभी अपना ही आलू खोदते या अपने ही खेत से छिप-छिप के मटर तोड़ते…और कोई देखे ले, तो भाग जाते…. घर के हम सभी ही नहीं, पूरे गाँव के लोग जाते- तरह-तरह से बुलाते, पर वे इन्हें देख के और दूर भाग जाते…. फिर दौरा शांत होता, तो लौट आते.
उस दौरान कभी दिन में मेरे स्कूल में आ जाते…. इसीलिए मुझे याद है कि वह १९६२ का साल था, क्योंकि मैं दर्जा चार में अपने ठेकमा बाज़ार के स्कूल में पढ़ने गया ही गया था. पहली बार तो मैं डर गया, लेकिन डरते-डरते पास गया, तो उन्होंने खूब सहलाया-प्यार किया और कुछ पैसे हाथ पे रख दिये. बोले– ‘पकौड़ी खा लेना. घर पे मत बताना किसी को’. मैं तो घर में मां को बताये बिना कैसे रहता, लेकिन एक बार के बाद फिर डर ख़त्म हो गया, बल्कि मुझे इंतज़ार रहता कि छोटके काका कब आयेंगे…!! क्या पकौड़ी के लिए?
प्रसंगत: याद आ गया है कि ४-५ की पढ़ाई के दौरान ही मेरे एक मौसा भी दो-तीन बार स्कूल में मुझसे मिलने आये और हर बार पैसे दे गये– और काका के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा. आज सोचता हूँ कि कितना प्यार, कितनी ममता भरी रही होगी उन लोगों के मन में कि विक्षिप्ति में भी छोटके काका को मैं याद रहता और मौसा तो अपनी बस छोड़ कर आते. बाद में जाना-भोगा कि घंटे-दो घंटे में बस आती…तो मौसा एक बस छोड़कर मुझसे पाँच मिनट मिलने के लिए कितना कष्ट उठाते रहे होंगे…!! इसके बरक्स आज के अपने व अपने समाज पर नज़र डालता हूँ, तो मन पूछता है – कहाँ ‘अलोप’ (लुप्त) हो गये वे लोग… कहाँ चला गया वह समय …कहाँ से आते थे वैसे लोग…आज क्यों नहीं आते? और शर्म से सर झुक जाता है!!
छोटके काका की यह विक्षिप्तावस्था ज्यादा दिन न चली. ठीक हुए और पहले की तरह रहने लगे. लेकिन हाथ के फोड़े के बाद उनका शरीर तरह-तरह के रोगों से ग्रस्त होता गया. सुना था कि पहलवान लोग जब कुश्ती-कसरत छोड़ देते हैं, तो तरह-तरह के रोग साथ हो लेते हैं और सिद्ध होता है– ‘शरीरं व्याधि मंदिरं’. यही हुआ छोटके काका के साथ. वे काफ़ी जल्दी अशक्त हो गये…. तब मुस्तकिल घर ही रहने लगे. ऐसा याद आता है कि तब सीधे-सरल भी हो गये थे. लेकिन यह काल भी ज्यादा लम्बा न था और इतने अशक्त कभी न हुए कि उठाना-बैठाना पड़ा हो. चलते-फिरते रहे, तो नित्य-क़्रिया…आदि स्वतः करते रहे….
उनका अंतिम जाना ऐसा हुआ, जैसा मैंने अब (७० साल की उम्र) तक किसी का न देखा. वह १९६३ का भादों (भाद्रपद) का महीना था. मैं दर्जा पाँच में पढ़ रहा था. मुझे खूब याद है कि उस दिन घर में मैं और बड़के बाबूजी ही थे. मां गयी थी नानी के यहाँ और बड़के काका गये थे उसे लाने. शायद मेरी दोनों बहनें भी वहीं गयी थीं…ठीक याद नहीं आ रहा. उस शाम बग़ल वाले बिसराम दादा (विश्राम चौरसिया) के घर से कुनरुन (मुम्बई का टिंडोला) आया था. उनके भींटों (पान उगाने के ऊँचे स्थित खेतों) में परवर एवं कुनरुन खूब होते थे और अक्सर वे लोग दे जाते थे. छोटके काका ने लाते हुए देखा था और कहा था– ‘भइया, आज कुनरुन बनाया, हम खाब’. लेकिन ८ बजे के आसपास (यही तब के गाँवों में खाने का समय होता था) जब खाने को कहा गया, तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया– ‘भइया, खाये के तनिको मन ना क़हत हौ. तोहन लोगन जाके खाय ला, आवत के हमके एक लोटा पानी लेहले आया’….
बड़के बाबू खाके घर में कुछ करने लगे और पानी लेके मैं बाहर आ गया. ओसारी के लगभग बीच में दक्षिणी दीवाल के पास पूरब-पश्चिम रुख़ से उनकी खाट लगी थी. सिर पश्चिम था, जिसके पीछे एक तख़्ता था. मेरे कहते ही छोटके काका ने खाट पे लेटे ही आधा उठ के लोटा हाथ में लिया और गरदन पीछे लटकाके गट-गट करके (यही पानी पीने की उनकी सामान्य आदत थी) आधा लोटा पानी पी गये. फिर तुरत उतान (पीठ के बल) लेट के लोटा अपने सीने पर टिका दिया. मुझसे बोले– लोटा तख़्ते पे रख दो. मैंने उठाया और अभी तख़्त पे रख भी न पाया था कि उनकी गरदन बाईं तरफ़ झूल गयी…मैं ज़ोर से चिल्ला उठा– ‘बाबू-बाबू…आवा देखा ई छोटके काका के का हो गयल…’!! चीत्कार ऐसी थी कि बाबू दौड़े-दौड़े आये और हाथ से सीने-माथे पर सहला के देखते हुए साँस बन्द पाके धाड़ मारके रोने लगे…मैं भी पुक्का फाड़ के रो पड़ा… और इतने में तो पड़ोसी आ पहुँचे और फिर दो मिनट में पूरा गाँव जुट गया….
यही छोटके काका की मेरी आँखों देखी और थोड़ी अतीत की सुनी ज़िंदगी थी. मेरे या किसी के जीवन में उनका शायद ही कोई योगदान रहा हो…. उनके होने से मेरी स्वर्गीय दादी- यानी उनकी अपनी माँ- के अलावा किसी पर कोई ख़ास फ़र्क़ न पड़ा, तो उनके न होने से किसी पर भला क्या फ़र्क़ पड़ता…लेकिन जिन कारणों से उनका होना नितांत मामूली था, उन्हीं कारणों से उनका न होना मेरे लिए अविस्मरणीय बन गया है!!
3.
अब आइए एकाग्र हों- इस आलेख के मुख्य नायक अपने बड़के काका जयनाथ त्रिपाठी पर…. जैसा कि कहा गया– वे भी मूलतः पहलवान थे, लेकिन मेरे पिता के मरने के बाद उन्होंने पहलवानी का शौक़ छोड़के गृहस्थी सम्हाल ली. हमारे पालन-पोषण में लग गये. तब के सामाजिक संस्कार व पारिवारिक रिश्ते ऐसे ही थे कि सम्मिलित परिवार में कोई बच्चा माता-पिता दोनों के मरने पर भी अनाथ नहीं होता था– मेरे तो सिर्फ़ पिता मरे थे. इस प्रकार इस व्यवस्था का सबसे बड़ा उदाहरण और लाभार्थी हूँ मैं. आज देश के विभिन्न भागों से लेकर कुछ विदेशों तक के अनुभवों-सूचनाओं के आधार पर सोचता हूँ, तो लगता है कि संवेदन-संस्कार से भरपूर वह हम जैसों के लिए भाग्यशाली देश-काल था.
बहरहाल, अखाड़ा मेरे ही दरवाजे पर था, जिसकी मुझे बड़ी हल्की-हल्की याद आती है, जिसमें शामों को आते तो १४-१५ जवान व्यायाम व कुश्ती का अभ्यास करने, लेकिन बड़के काका को पलटू साहु भइया और परगास मौर्या भइया के साथ कुश्ती लड़ने का अभ्यास करने की धुंधली-धुंधली-सी याद रह गयी है मेरे मानस में…. उस दौरान परगास भैया आस-पास मुझे देखकर चिढ़ाते भी थे– ‘देखा, तोहरे काका के पटक देहले हई’. और काका कहते – ‘नाहीं बेटा, इन्है हम लड़ावत हई’. वे परगास भइया बहुत जल्दी काल-कवलित हो गये. पलटू भैया अवश्य बहुत दिन ज़िंदा और अकेले रहे. खेत उनके पास एक धूल न था. पिता के मरने के बाद कोल्हू (तेल पेरने) का काम उन्होंने बंद कर दिया. दिल्ली कमाने जाने लगे. एक कमरे का घर बंद करके जब वे सुबह ५ बजे के आस-पास दिल्ली के लिए निकलते, तो हम दर्जन भर लोग उन्हें सरहद पार चेता पोखरे तक पहुँचाने जाते…. लौटने लगते, तो पलटू भैया पूरे गाँव के लिए धार-धार रोते…. बहुत बाद में नावल्द (निस्संतान) ही मरे, तब मैं मुम्बई-वासी हो चला था.
उस अखाड़े में मैं भी लोटा-पोटा हूँ– कभी खुद ही खेलते हुए, कभी कोई पकड़ के मिट्टी से देह-मालिश कर देता– इस विश्वास के साथ कि काकाओं की तरह मुझे भी बाद में तो अखाड़े में आना ही है. तब कौन जानता था कि मेरे लिए अलग कुश्ती का अखाड़ा मुम्बई में बनेगा…!! गर्मी के दिनों में शामों को ‘पियरवा माटी’ (पीले रंग़ की मिट्टी) भी कई बार बदन में रगड़े जाने की याद है. न जाने कहाँ से काका वह मिट्टी सर पे ढोके लाते थे. उनके बाद वह मिट्टी कभी आयी नहीं. माना जाता था कि वह मिट्टी गर्मी व गर्मी के चलते हुई घमौरी-खुजली…आदि चर्म रोगों के लिए फ़ायदेमंद होती है. पहलवानी के लिए ज़रूरी दूध-घी का अच्छा इंतजाम घर में हमेशा रहता…३-४ गायों से कम की याद तो आती ही नहीं…. और इन सबसे बने-मंजे काका के पक्खड बदन का हर हिस्सा हमें खूब याद है…. पैर के मोटे-सघन पंजे व मज़बूत मुद्धे (एड़ी के ऊपर का हिस्सा) दोनो एक में सटी जितनी मोटी जाँघें, विशाल-निर्लोम छाती व भरा-भरा गरदना से लेकर सुती हुई श्यामल मांसलता के ऊपर छोटे-छोटे बालों वाला बड़ा सा कपार, कड़े-चौड़े-अचिक्कन माथे के नीचे दो सामान्य आँखें. बहुत कम दांतों के बावजूद खिले गालों से पोपला न दिखता मुख, आवाज़ ऊँची और शब्द एकदम स्पष्ट व भाव उतने ही खरे…. इस देहयष्टि को खूब-खूब महसूसा तो तब था उनकी गोद में चिपके तथा बलिष्ठ बाहों पर सर रखके सोने में, लेकिन उस बलिष्ठता में समाये-निखरे सौंदर्य का पता तब लगा, जब धीरे-धीरे साहित्य से पाला पड़ा.
इंटर के बाद १९७१ में कार-दुर्घटना में घायल होके मुम्बई के शींव अस्पताल में पड़े-पड़े ‘कामायनी’ पढ़ने का मौक़ा मिला, तो मनु की ‘अवयव की दृढ़ मांसपेशियाँ’ में सबसे पहले काका ही याद आये थे. एम॰ए॰ करते हुए ‘अलग अलग वैतरणी’ के देवल पहलवान में और काका के श्याम रंग़ के चलते देवल से ज्यादा उस नट के वर्णन में काका दिखे थे. निरालाजी के राम और लोगों द्वारा लिखे-कहे निरालाजी के व्यक्तित्व में, फिर कुछ बाद में रुद्रजी की ‘बहती गंगा’ के कई चरित्रों के वर्णनों में बड़के काका बार-बार साकार होते रहे– गोया स्मृति में बसी अपार-गहन व किंचित अमूर्त होती जा रही अनुभूतियों को प्रबल-स्थायी आधार मिल गये हों….
अखाड़ा बंद क्या हुआ, वह संस्कृति ही गाँव से अनायास उठ गयी, जिसमें चार लोग कुश्ती लड़ते होते, तो आठ बैठे रहते और दो-चार आते-जाते रहते… ‘इक प्रबिसहिं, इक निर्गमहिं भीर भूप दरबार’ का समाँ रहता…. ढेरों बातें होती रहतीं…. गाँव के सारे लोगों व गाँव में घटी हर घटना पर मज़ेदार टिप्पणियाँ होतीं, चुहल चलती…. एक कुश्ती-उस्ताद नट भी पर्यवेक्षक की तरह कभी-कभी आते. उनका बड़ा आदर होता…. लेकिन अखाड़ा बंद होने पर भी काका कुश्ती न सही, कसरत तो करते ही रहे…. वह छूटी मरने से दो साल पहले १९६६ में, जब दमा ने उन्हें काफ़ी अजलस्त कर दिया…. अखाड़े चलाने के प्रयत्न कई बार हुए…, पर चले नहीं!!
लेकिन उस अजलस्त हालत में भी खेती में उनका काम करना बदस्तूर चलता रहा…. गति कम हुई, पर स्थिति वैसी ही बनी रही…. उनका खेतिहर (खेत-धर – खेत को धारण करने वाला यानी किसान) रूप ही सबसे प्रधान व अपने समय में खूब जाज्वल्यमान व परिवार के लिए जीवनदायी रहा…. खेतिहर का समवाचक शब्द मराठी में धनगर है, पर वह गड़ेरिया (भेड़ पालने वाली जाति) के लिए रूढ़ हो गया है. काका को अपने अंतिम दिनों में जब खेत में काम करते-करते खांसी का दौरा पड़ता, खेत में ही या मेंड़ पर बैठ जाते. खूब सारा कफ गिरता…. कुछ देर बैठे रहते…, लेकिन फिर कुदाल-फावड़ा…यानी जो भी काम होता रहता, उस कृषि-साधन को लिये उठते और हकर-हकर हाँफते हुए भी काम में लग जाते. जब दोपहर होने पर वापस घर जाने लगते, तो अपने हलवाहे या बग़ल के खेत वाले, जो अक्सर हमारे पट्टीदार भाई (वही रामाश्रय) हुआ करते या जो भी वहाँ मौजूद होता, उससे यही कहते जाते – ‘अब कल ज़िंदा रहा, तो यह काम आगे होगा, नहीं तो भगवान ही मालिक है…’. उनका यह वाक्य गाँव में लतीफ़ा बन गया था. भाई रामाश्रय तो उसमें पेबंद भी लगा देते– ‘ऐसा कह के जयनाथ बाबा जाते, और दूसरे दिन आके एक फ़िट मेरे खेत में भी बढ़ा के डांड़ (बॉर्डर) मार देते’. यह कथन काका की कर्मठता की बड़ाई और अपनी तबीयत के साथ उनकी ढिठाई… दोनों के लिए उद्धृत होता. परंतु यह भी सच है कि उनकी कर्म-निष्ठा व जंगरैती (लग कर काम करना) तथा खेती के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर कोई दुश्मन भी शिकायत नहीं कर सकता था – कृषि-कर्म को लेकर ऐसा प्रताप तो था उनका…. खेती के साथ किसान के सलूक पर उनका सूत्र वाक्य भी काफ़ी लोकप्रिय हुआ था–
‘जो खेती के साथ मज़ाक़ करता है, वो समझो अपनी बहन-बेटी के साथ मज़ाक़ करता है’.
खेती-किसानी में उनके पगे होने के ऐसे परथोक-प्रमाण हैं कि मेरे साथ व सामने न हुआ होता, तो मैं भी विश्वास न करता – फिर आप न करें, तो क्या अजीब!! बैसाख-जेठ (मई-जून) की दोपहरी बड़ी त्रासद रूप में ख़ास होती तब उत्तर भारत में. खूब लू (सन स्ट्रोक) चलती, जो उसके मुक़ाबले अब नहीं के बराबर हो गयी है. दिन के दस बजे से लेकर शाम के ४-५ बजे तक बाहर निकलना मुहाल रहता. सभी लोग खाके सो जाते, लेकिन हम बच्चों को नींद न आती. हम बाहर खेलने न निकल जायें, हमें गर्मी-लू न लग जाये, के डर से अपने बड़े-बुजुर्ग हमें घरों में बंद कर देते और दरवाज़े के बाहर खुद सोते, ताकि हम दबे पाँव भी भाग न पायें. और इस मायने में काका की नींद कुकर-निंदिया (वही श्वान-निद्रा) थी– ज़रा भी कुछ खटके कि जाग जायें, उठके देखे लें…और फिर तुरत सो जायें. अपने घर में हम जहां बंद होते, वह खूब बड़ी-सी दालान थी, तो हम पड़ोसी बच्चों को भी बुला लेते और कौड़ी-गोली जैसा अंदर खेल सकने वाला खेल (इनवर्ड गेम) खेलते…. उसी के बाहर बड़ी ओसारी में रखवाले स्वरूप काका सोते…. बाहर मक्खियाँ बहुत उड़तीं-काटतीं, जिन्हें सोते में काका उड़ाते और पट्ट से उनकी हथेली अपने ही देह पे बज जाती. ऐसे में वे जाग जाते. उठ के बैठ जाते. और कभी तो जागते ही चिहुंक (चौंक) के कहते – ‘अरे गोरू ऊख खात हुउएँ’ (पशु गन्ने की फसल खा रहे हैं). और झट से गमछा सर पे रख चल देते…. फिर ग़ज़ब यह कि सचमुच पशु खाते हुए पाये जाते. यह दूरानुभूति (टेलीपैथी) कृषि व फसल के साथ उनके आत्मीय जुड़ाव की ही सिद्धि थी. घर से बमुश्किल ५-७०० कदम पर हमारा गन्ने का खेत होता. फागुन (मार्च) का बोया गन्ना तब इतना ही बड़ा होता कि दूर से ही खेत में पशु दिख जाते. गन्ने की हरी-कंचन पत्तियाँ दोनो किनारों की तरफ़ तो तेज होतीं– हमें चीर लेतीं, लेकिन पशुओं के लिए खाने में नरम-स्वादिष्ट होतीं.
इस दूरानुभूति की हद तो यह कि एक बार गाँव से पश्चिमी सीमा पर जो खेत था, उसमें काका पक के सूख गयी मटर उखाड़ने जाते हुए मुझसे कह के गये थे कि सर पे मटर का बोझ उठाने के लिए एक घंटे बाद आ जाना. मैं गया और उठाते हुए बोझ उनके सर पे पहुँचा न था, गरदन तक ही था…कि बोले – दौड़ के जाओ…कोई बगीचे में आम तोड़ रहा है…. सर पे बोझ रखाके मैं दौड़ा…. बगीचा वहाँ से एक-डेढ़ किमी तो था– गाँव से पूरब. मैं अच्छा धावक था – ८वीं-९वीं दर्जा में पढ़ने तक १०० मीटर की दौड़ का चिर अव्वल. रास्ते में शंका करता रहा कि बेमतलब ही काका दौड़ा रहे हैं. इतनी दूर से वहाँ किसी के आम तोड़ने का उन्हें क्या मालूम पड़ेगा…!! लेकिन वहाँ पहुँचा, तो तीन छोटे-छोटे लड़के बगीचे में कंकड़-डंडा मारके आम (तब तक टिकोरा (अति छोटा) ही था) तोड़ते हुए मिले. मेरा बालमन काका का क़ायल हो गया– सम्मान तो बहुत ज्यादा यूँ भी था. अब आप विश्वास करें, न करें– मेरा तो यह देखा-किया हुआ है. इसी को कहते हैं– खेती की नींद सोना, खेती की नींद जागना, जो काका की सहज वृत्ति थी.
उनके काम करने की क्षमता का एक ही प्रसंग, जो मेरा सुना हुआ है, क्योंकि गाँव का वह मानक उदाहरण बन गया था. उम्र में काका से थोड़ा बड़े थे ठाकुर जमुना सिंह- हमारे जमुना काका, क्योंकि तब गाँव के किसी अपने से बड़े का सिर्फ़ नाम लेना एकदम वर्जित था. हमारे हलवाहे भी ‘मंतू भैया’ थे. क्या मजाल कि भैया के बिना सिर्फ़ मंतू कह दें!! आज तो एक आधुनिकता ऐसी भी चली है कि आप सबको सिर्फ़ नाम से बुलाएँ – छोटा सा बच्चा भी अपने अध्यापक-प्राचार्य…सबको सिर्फ़ नाम से बुलाये. तो उसी जमुना काका की उस दिन शादी थी और उनका गन्ने की फसल का खेत ठनक (सूख के कठोर हो) रहा था. शादी से तीन दिन बाद लौटने तक तो उस गर्मी में मिट्टी पत्थर हो जाती और गन्ना सूख के लकड़ी…. बस, राय करके उन्होंने मेरे काका को लिया और पलटू भैया- वही पहलवानी करने वाले को. तीनों ने दोपहर तक एक बीघा (आधा एकड़ से ज्यादा) खेत गोड़ डाला और उसके बाद नहा-धो के जमुना काका दूल्हे बने और ये दोनों बाराती. आप दोपहर तक तीन लोगों को मिलाकर एक बीघे गोड़ने के इस पैमाने का मर्म न समझ पा रहे होंगे…, तो बता दूँ कि जब दसवीं में पढ़ते से लेकर तीन साल मैंने खेती की और घर में मज़दूरी में देने के लिए अनाज की कमी के चलते अपनी एक बीघा ऊख (गन्ना) अकेले ही गोड़ता, तो ८-९ दिन लगते. यानी एक ने तीन आदमी का काम किया…और शादी के दिन. खेती के प्रति उस पीढ़ी का ऐसा समर्पण, ऐसी मेहनत तब हमारे लिए एक नज़ीर होती. आज भी वे यादें काम के लिए बड़ी प्रेरक बनती हैं, मुतासिर करती हैं.
सबसे अधिक यादगार (क्योंकि मज़ेदार) होता – खलिहान का जीवन – जौ-गेहूं की दँवाई का काम. हमारे टोले के ६-७ लोगों के खलिहान गाँव के पूरब आबादी से सटे हुए मेरे (गड़वा के) खेत में ही होते, जिनमें हमारे भाई के साथ ५ घर मौर्य लोग होते. यूँ तो मेरे छोटे से गाँव में उन दिनों सब लोग सबका सबकुछ जानते- कमाई-खर्च, खाना-पहनना, झगड़े-लड़ाइयाँ, रुचियाँ-अरुचियाँ, बुराइयाँ-अच्छाइयाँ…आदि-आदि, लेकिन अपने टोले में तो रात को किसके घर कितनी रोटियाँ बनीं, कितनी बचीं…तक का पता सबको होता…. लिहाज़ा खलिहान में खूब गप्पें होतीं… हँसी-मज़ाक़, खिंचाई-चिढ़ाई, क़िस्से-कहानियाँ– कभी कुछ झगड़े-तकरार भी…सब चलते रहते. यहाँ पहले यह बताऊँगा कि खलिहान के मौसम भर हम सबके बीच गुप्त रूप से काका का नाम (निकनेम) होता – ‘जा-आ-टाऑ’. कैसे और क्यों, के लिए बताना पड़ेगा कि तब (थ्रेशर व फिर ट्रैक्टर आने के पहले) दँवाई के लिए ३०-४० बोझ डाँठ (दाने सहित पौधे) एक जगह गोलाई में बिछा दिए जाते, जिन पर दो-तीन-चार…जितने सुलभ हो जायें, बैल गोल-गोल चलते और बग़ल से लेकर पीछे तक से कोई एक हमेशा हांकता रहता…. वहाँ काका के बैलों को हांकने की एक आवाज़ निकलती – बड़ी अजीब और अद्भुत. हांकने के लिए यूँ तो चल-हट-नौ-बौं…आदि कई-कई आदेशों में बोल-चाल की तरह का यह भी था- ‘चलो बेटा’, ‘जा बेटा’….
इन दो शब्दों को कभी चलते-चलते अनजाने में काका संक्षिप्त (शॉर्ट) करके बड़े ज़ोर से बोल देते ‘जा-टा’ या और मस्ती में ‘जा-आ-टाऑ’. इसकी हम सब लोग नक़ल (कॉपी) या अनुसरण (फ़ॉलो) करना चाहते, लेकिन आजीवन कोई कर न पाया. काका भी जब चाहें, नहीं बोल सकते थे. चलते-चलते अनजाने में, मौज में अचानक ही निकल जाता, लेकिन हर दिन दो-चार बार तो हो ही जाता.
खलिहान में काका की दो बातें भी किंवदंती के रूप में ऐसी यादगार हुई थीं कि आने वाले एकाध दशक के दौरान (जब तक मशीन-युग नहीं आया) वे बातें लतीफ़े की तरह दुहराई व याद की जाती रहीं…. पहली यह कि किसी के बुख़ार आने की बात चल रही थी और काका ने कहा– अरे छोड़ो उसको, वो तो महा अहदी (आलसी) है – ‘मुझे तो ८०-८५ डिग्री बुख़ार हमेशा रहता है’…और सुनते ही हम सबका तो हंसते-हंसते ‘पेट पाका हो गया’.
जहां यह बात काका के नये आरोग्य-विज्ञान की जानकारी के अभाव से उपजी थी, वहीं दूसरी का सम्बंध उनकी पहलवानी से था. हुआ यूँ कि एक विशाल भैंसा ऐसा परक गया कि बार-बार खदेड़ने के बाद भी खलिहान में अनाज खाने आ जाता…. जब एक दिन नहीं आया, तो उसकी चर्चा आने पर काका ने बताया – ‘अरे अब कैसे आयेगा साला, कल मैंने उसके ऐन माथे पर एक गोज़ी ऐसी मारी कि वो भागा और सोहौली जाके खड़ा हुआ’. फिर हम सबका हंस-हंस के बुरा हाल…क्योंकि सोहौली कम से कम आठ किमी पश्चिम है. उसका वहाँ जाना कैसे हुआ और जाके वहाँ खड़ा होना इन्हें कैसे दिखा!! लेकिन बाद में पता चला कि वह भैंसा उसी रात सोहौली में पाया गया, जो किसी राहगीर ने हमारे गाँव से गुजरते हुए किसी से बताया…और काका के पहलवानी अति विश्वास (ओवर कॉनफ़ीडेंस) ने उसे अपने मारने के असर जोड़ लिया…. इसी तरह उनकी पहलवानी का एक अति विश्वास हमने अपनी आँखों देखा बचपन में. हमारे विशालकाय करियवा बैल का तीन चौथाई शरीर कुएँ में चला गया था और पूँछ पकड़े काका इस विश्वास के साथ उसे खींच रहे थे- गोया निकाल ही लेंगे…. पड़ोसी बिसराम दादा चिल्लाए न होते, तो काका भी अंदर जाते…!! यह घटना भी सालों तक चर्वण का विषय बनी रही….
बड़के काका ऐसे सच्चे व पक्के किसान थे, जिनका जीवन खेती के साँचे में ढल गया था. दोपहर को आधे-एक घंटे और रात को सोने के साथ उनकी पूरी दिनचर्या खेती-संचालित होती…. हमारे यहाँ कहा गया है – ‘ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत, धर्मार्थौ चानुचिंतयेत्’. याने सबह ४ बजे उठ जाओ और धर्म-अर्थ…आदि का चिंतन करो. शायद यह ऋषियों के लिए रहा हो, पर तब का यही मर्म रहा कि ऐसा सब कहा हुआ जन-जीवन तक पहुँचता था. बुद्धिजीवी और आम आदमी के बीच आज जैसा अंतराल न था. लेकिन पहुँचने के कई संस्करण हो जाते. और काका के यहाँ इसका संस्करण यूँ था कि वे ४ बजे उठ जाते. यदि जुताई के महीने हैं, तो बैलों को चारा डालके वरना बैल सोते रहते और नित्य-क़्रिया के बाद काका ‘धर्मार्थौ चानुचिंतएत्’ के बदले ‘गृहस्थ-कर्मानुरक्तयेत्’ (गृहस्थी के कार्यों में अनुरक्त रहना चाहिए) हो जाते.
ढेबरी या लालटेन के मद्धम उजाले में करने के लिए मौसम के अनुसार उनके कई काम होते. जैसे मक्के के दाने निकालना, उड़द की फलियाँ तोड़ना, पीट-पीट के पौधे से धान अलग करना…आदि. टूटे-फूटे कृषि-साधनों-झउआ-पलरा-छींटा-खाँची (बांस के छिलकों व रहट्ठे (अरहर के सूखे डंठल) से बने साधन, जिनसे सामान यहाँ से वहाँ ले जाया जाता)…आदि की मरम्मत करना. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण व कभी भी चलते रहने वाला काम होता- रस्सी बरना (बटना). यह किसान-जीवन के लिए जितना उपयोगी होता, काका को उतना ही प्रिय भी. मोटी रस्सियाँ, जो खेती के साधनों व घर के जोड़ों में बन्हन (बांधने) के काम आतीं, दोनों हथेलियों व दोनों हाथों की उँगलियों से बटी-बनायी जातीं. और हर जगह बांधने के काम आने वाली पतली रस्सियाँ, जिसे ‘बाध’ (बांधने वाला) कहते, जिनसे खाट वग़ैरह भी बीनी जाती…, इसे ढेरे (लकड़ी की चार खूँटियों (पत्तियों) वाला गोलाकर साधन) पर काता जाता. इस काम को ‘सुतली कातना’ कहते. यह काम किसी भी बैठउकी (ख़ाली समय, जब बैठे रहते) – जैसे बरसात व पाला पड़ने आदि…में भी हो पाता. लेकिन सुतली की लूँड़ी काँख में दबाके चलते-चलते या खड़े-खड़े व एक दूसरे से बात व हँसी-ठट्टा करते हुए भी बाध कातने का काम होता रहता….
इन सारे कामों के साथ ही ब्रह्म मुहूर्त में एवं रात को खाने के पहले जब प्राय: कोई न होता– सब अपने-अपने घर होते, तो काका धीमे-स्वर में कुछ जपते व कभी गाते रहते – राम राम कहु बारम्बारा, चक्र सुदर्सन है रखवारा. राम राम कहु राम सनेही, पुनि कहु राम-लखन-बैदही…जैसी पंक्तियाँ उनकी सुमिरनी होतीं…. ‘हे सीता-राम’-‘ हे राम-जानकी’ तो उठते-बैठते का ठेका ही होता. यही उन (किसान) का ‘धर्मार्थ-चिंतन’ होता – ग्रामीण या किसानी संस्करण. निरालाजी के उस किसान को याद कर लीजिए, जो इतना ही करके सदा नारायण जपने वाले नारद से बड़ा भक्त हुआ.
इस गुनगुनाने से याद आया कि मुंबई से ‘जिया बेक़रार है’ नामक उनकी लायी फ़िल्मी गाने की किताब भी मैंने देखी ही नहीं, पढ़ी भी थी. उस गीत व उसके संगीत का विस्तृत ब्योरा तो मुंबई आके फ़िल्मों से थोड़ा जुड़ने के बाद जानने को मिला, जो सब यहाँ लिखना अवांतर होगा. इस गीत का एक बंध उन्हें याद भी था, जिसे कभी मौज में आने पर बोलते भी– ‘जिया बेकारार है, छाई बहार है. आजा मोरे बालमा तेरा इंतज़ार है’. इससे कयास होता है कि मुम्बई में रहते हुए ज़रूर उन्होंने कुछ फ़िल्में भी देखी थीं. इसका एक प्रमाण यह भी कि जब नानी के यहाँ की ज़मीन मौसी को दी गयी और इसके बाद काका वहाँ के रहिवासी रूप को छोड़कर चलने लगे, तो पड़ोसी ठाकुर अउधू (अवधराज) सिंह नाना से ख़ास मिलने गये – विदा-मिलन. उन दोनों की यह संगति भी पहलवानी वाली ही थी– अखाड़िया. उस वक्त मैं वहीं खेल-वेल रहा था. पहुँचते ही खड़े-खड़े काका को कहते सुना था– ‘चलत की बेरिया नज़र भर के देख लो’. मुम्बई की एक बात वे बार-बार बताते कि वे सोते रहते और उनके सिरहाने से रेल गुजरती रहती, जिससे लगता है कि पीछे उल्लिखित मुकादम भैया के आवास के सिवा प्लेटफ़ॉर्म पर न सही, मुम्बई में बड़के काका को रेलवे स्टेशन के आस-पास कहीं तो सोना अवश्य पड़ा था.
प्रसंगत: बता दूँ कि उसी मुंबई-निवास के दौरान बड़के काका खेमराज श्रीकृष्णदास से छपा वृहदाकार तुलसीकृत रामचरित मानस (रामायण) लाये थे, जिसे पढ़-पढ़ के मेरा बचपन युवा हुआ. अब वह प्रति जीर्ण-शीर्ण हो चुकी है, पर बस्ते में बांध के याद के रूप में सँजो के रखी है. कभी किसी पंक्ति का विस्तृत ब्योरा दरकार होता है, तो सहा-सहा के खोलता भी हूँ. मैंने दर्जा दो से उसे पढ़ते हुए ज़िंदगी में इतना कुछ उससे पाया है, मेरे बनने में उसका इतना बड़ा हाथ है कि बने तो किसी भी क़ीमत पर बनवाऊँगा और नहीं भी बनी, तो नातियों को सौंप के जाऊँगा कि सारस्वत विरासत का यह कुल-प्रतीक सदा रहे….
पढ़े-लिखे न थे बड़के काका, लेकिन अक्षर-ज्ञान होने के कुछ सुपरिणाम उन्होंने ज़रूरतन विकसित कर लिये थे. पढ़ तो लेते सबकुछ. बहुत ज़रूरी होने पर चिट्ठी भी लिखते- कौए की टांग जैसे अक्षरों में. जब हमारी ज़िम्मेदारी ली कंधों पर, तो पैसों के लिए यजमानी में कथा बांचने हेतु सत्यनारायण व्रत-कथा वाली पोथी रियाज़ कर-कर के पढ़ी. मैंने होश सम्भाला, तो उन्हें कथा बांचते हुए ही पाया था. उनके दांत बहुत जल्दी टूट गये थे. इससे शंख न बजा पाते वे– फूंकते हुए हवा बनती ही नहीं. कुछ बचे दांतों में जाड़े के मौसम में पानी इतना लगता कि काका बेचारे गर्म पानी पीते…. उससे प्यास न बुझती, तो दिन में एकाध बार बांस की पतली डाली की बनी फ़ोंफ़ी (देसी स्ट्रा) से ठंडा भी पी लेते. ख़ैर, कथा के दौरान ७ बार शंख बजानी होती है, जो आम व अशिक्षित यजमानों व प्रसाद की आस में जुटे बच्चों के लिए कथा होने से ज्यादा महत्त्व का होता है. इसके लिए जब उन्होंने मुझे खेल-खेल में शौक़िया शंख बजाते हुए देखा, तो उन्हें सुविचार आया और एक-दो दिन मुझसे शंख बजवायी. फिर ठीक बजाते देखकर साथ ले जाने लगे – तब मै ३-४ में पढ़ता रहा होऊँगा. वे बांचते और अध्याय ख़त्म होने पर मैं शंख बजाता. इस तरह काका के ही चलते मेरे बड़े होने में कथा के संस्कार भी शामिल हैं.
इस प्रकार होम-कथा तो काका ने करा लिया, लेकिन विवाह कराना सीख पाना उनके लिए आसान न था. उसमें दक्षिणा ज्यादा मिलती है, तो कराने में मंत्र भी ढेरों बोलने होते हैं. लम्बा ‘स्वस्तेन’ (स्वस्तिन: इंद्रो वृद्धश्रवा…) होता है. शाखोच्चार व अभिषेक भी लम्बे होते हैं. सब याद न कर सकते थे पहलवानी संस्कारों वाले काका. सो, अपने यजमानों के व्याह में गाँव से लेकर अग़ल-बग़ल के गाँवों के पंडितों से आग्रह करते. ज़्यादातर तो मिल जाते– कुछेक बार नहीं भी मिलते. न मिलने पर यजमान नाराज़ होता और मिलने पर भी आधी दक्षिणा बँट जाती. काका की यह सब साँसत और घर में पैसों की बहुत ज़रूरत को देखते-देखते मेरे बालमन में ऐसा आया कि क्यों न कराना सीख लिया जाये…. कहना होगा कि इस इच्छा को मेरी पट्टेदारी के बड़े भाई जगदीश त्रिपाठी, जो मेरे पिता के सहपाठी व ठीक-ठाक पंडित थे, ने बढ़ावा ही नहीं दिया, सिखाया भी और पूजापाठ की बेदी पर एवं शादी के मंडपों में अपने साथ बिठा के अभ्यास (प्रैक्टिकल) भी कराया. इन सबके परिणाम स्वरूप मैं छह में पढ़ने से तो कथा बांचता ही था, सातवीं में पढ़ते हुए यजमानी में पहला विवाह अकेलेदम कराया. इतना छोटा बच्चा देख के उस समाज में बड़ा स्नेह-सम्मान मिलता. तब से काका को मुक्ति मिली पंडित खोजने से. फिर मैं अपने यजमानों के अलावा भी कुछ के विवाह कराने लगा, जिससे काका के लिए आमदनी भी थोड़ी बढ़ी …,पर वही ‘ऊँट के मुँह में जीरा’!!
इतने अच्छे, मेहनती व कुशल किसान होने और अपनी ठीक-ठाक खेती को बहुत अच्छी तरह करने के बावजूद १९६१ में बड़ी बहन की शादी व १९६३ में उसके गवने के बाद धीरे-धीरे बढ़ते अभाव और छोटी बहन की १९६५ में हुई शादी के बाद सुरसा बन गयी घर की गरीबी की दशा मेरे ही नहीं, समूचे किसान-जीवन की दुर्दशा की करुण कथा है…. बड़ी बहन की शादी जब हुई, तो उसके पहले एक जमाने (पिता-माता की शादी के बाद) से घर में कोई ऐसा काम न हुआ था. सो, इतने दिनों से खर्च के लिए बेचते रहने के बावजूद इकट्ठा किया हुआ गल्ला इतना था कि उसके भार से कोठों के टूट जाने के ख़तरे की बात घर में चलती थी. चावल को सड़ने-घुनने से बचाने के लिए उसमें नीम की पत्तियाँ डालके रखते काका को मैंने खूब देखा है. हर साल-दो साल पर उसे बदला जाता. बड़ी दीदी की शादी में उसके जन्म के साल के धान का भात बना था. यह एक दस्तावेज (रेकॉर्ड) भी था और इसे रईसी व किसानी मर्यादा माना जाता था. यूँ पुराने चावल के भात को स्वादिष्ट की मान्यता दी गयी थी– हालाँकि उसी साल के नये चावल का भात ज्यादा टटका व मीठा होता है. उधर ख़ानदानी मर्यादा के तहत काका को लगा कि शादी के पहले घर के अगले भाग में ईंटे के पाए वाली खम्हिया (बड़ा बरामदा) भी बन जानी चाहिए. शादी में इतने लोग दरवज्जे आएंगे…फूस का छप्पर अच्छा नहीं लगता. मकान पिता ने बनवाया था, खम्हिया रह गयी थी. खम्हिया बनते हुए काफ़ी होहरत (शोहरत से ज़्यादा तेज) मची थी गाँव-गिराँव में– पंडितजी की खम्हिया बन रही है…जिसकी छाप आज भी है मेरी यादों में. लेकिन गल्ले के भाव और खम्हिया व शादी के खर्च में बड़ा अंतर था. फिर भी क़र्ज़ थोड़ा ही लेना पड़ा– सामान भी पहले से काफ़ी इकट्ठा कर लिये थे मां ने धीरे-धीरे….
तब काका ने सोचा था कि शादी के बाद दिल्ली जाके कमायेंगे. यह क़र्ज़ा भी दे देंगे और कमाते रहेंगे, तो छोटी बहन की शादी भी कर पायेंगे…. इसी योजना के तहत शादी बड़ी रज-गज से हुई. उसके इंतजाम व स्वागत-सत्कार की चर्चा खूब हुई. और सब तो जो भी था, ऐसे कामों में कभी न बनने वाली सूरन की भाजी बनी रस्से वाली. यह कमाल था ख़ानदान के भागीरथी काका का, जिन्हें रसोईं के काम में महारत हासिल थी. उन्होंने ही कहा था– घर का सूरन है, वही बनवाइए. ऐसा बना दूँगा कि बाराती उँगली चाटते रह जायेंगे और वही हुआ– सालों तक बहन के गाँव वाले चर्चा करते रहे…. एक पीढ़ी बाद घर में शादी होने का आवेग ऐसा था कि दीदी के ससुर के भात खाने की रस्म (भत खवाई) में रुपए…आदि थाली के किनारे रख के भोजन करने का निवेदन करते हुए पूरा ख़ानदान हाथ जोड़ के खड़ा हो गया.
बाबा (ससुरजी) बैठकबाज थे. ५ मिनट न खाने की मुद्रा बनाये बैठे रहे – गोया कोहाँए (रूठे) हों…और सभी लोग घबरा गये कि शायद और कुछ – गाय-भैंस…आदि चाहिए. लेकिन फिर उन्होंने मूँछों में मुसकुराते हुए बड़ी अदा से कहा था – ‘भाइयो, दाल तो रखिए– खाऊँ किससे’? और फिर हो-हो करके हंस पड़े थे. यानी अकुलाहट में दाल बिना रखे ही आठ लोग विनती करने खड़े हो गये थे…!!
लेकिन दुर्दैव अब शुरू होना था. शादी के बाद काका दिल्ली गये, पर एक महीने में ही बीमार होकर चले आये – इस सत्य के साथ कि अब वे बाहर कमाने लायक़ नहीं रहे. सो, पहले की सारी योजना एवं भविष्य पर पानी फिर गया. इसी को कहते हैं – मेरे मन कुछ और है, कर्त्ता के कुछ और…॰. हमारी भोजपुरी ने ज्यादा मारक कहा है – ‘बंदा जुटावै घरी-घरी, ख़ुदा ले जायँ एक्के घरी’. शादी के तीसरे साल बड़ी दीदी की ससुराल से गवने (द्विरागमन) का प्रस्ताव आया. यह उनका भी पहला लड़का था. सो, गवने में भी बारात लेकर आने के शौक़ का संदेश था, जो पुन: अच्छे खर्च का कारक था. उसी बारात में कव्वाल आया था, जिसका गाना सुनते हुए मुझे याद हुई पंक्तियों में एक अटक गयी थी – ‘ऐसी बन आए कुछ उस पे कि बनाये न बने’ – ८ साल अटकी रही…. फिर इंटर में पढ़ते हुए जब पहली बार प्रकाश पंडित का संग्रह मिला, तो अनपढ़ कव्वाल द्वारा ‘इ’ की एक मात्रा के खा जाने का रहस्य खुला – ‘बिन आये न बने’. इस तरह हमारे प्रियतम चचा (ग़ालिब) से अनजाने में पहली भेंट उसी गवने में हुई थी, जिसके कारण दीदी के गवने का इतिहास मेरे लिए गाढ़े साहित्यिक रूप में भी यादगार बन गया है…. बहरहाल,
बारात के लिए ‘ना’ कहने का प्रश्न ही न था– इज्जत की बात थी. अभी नयी-नयी नताई में क्या सोचेंगे वे लोग…! और यही भाव व तथाकथित इज्जत ही हमारे समाज के पतन-दारिद्र्य का प्रमुख कारण रहा…. फ़र्क़ इतना ही है कि तब मान-मर्यादा बचाये-बनाये रखने की बात थी, आज तो सब दिखावा (शो ऑफ़) है – देखो दुनिया वालों, हमारे पास ‘ये-ये, ऐसा-ऐसा’ है…. ख़ैर, गवने में फिर क़र्ज़ लिया गया और तभी पहली बार खेत बंधक रखा गया, पर थोड़ा ही….
लेकिन बकरे की मां कब तक ख़ैर मनाती…दो साल के अंदर छोटी दीदी की शादी पड़नी ही थी. इस बार कम खर्च (लो बजट) की शादी देखनी पड़ी, लेकिन संयोग से छोटे बजट में ज्यादा अच्छी शादी मिल गयी. सबने कहा– लड़की का भाग्य…! फिर भी उसी में लगभग आधे खेत रेहन हो गये. तब रेहन का दर (रेट) भी कम था. फ़िर लेने वाला अच्छा वाला खेत लेता– गोइंड़े (आबादी के पास) वाला…. अतः खेत ज्यादा गये और इसके बावजूद शादी के खर्च के मुक़ाबले पैसे इतने कम जुटे कि सारा पैसा आँगन की उत्तर वाली ओसारी में रखकर काका को माथा पीटते और ‘इतने ही पैसे में कैसे नैया पार लगेगी’ कहते देख-सुनकर पूरा परिवार सिसकने लगा था– बड़के बाबू तो बड़े रोवने थे – भोंकर-भोंकर के रोने लगे थे. छोटी दीदी की शादी आषाढ़ में हुई, मैं दर्जा ८ में पढ़ने जाने लगा था. सब कुछ देख ही नहीं रहा था, समझ भी रहा था तथा काम में कुछ-कुछ हिस्सा भी बँटा रहा था. शादी ठीकठाक ही निपटी. छोटी दीदी विदा हो गयी शादी में ही, तो गवने में साधारण-सी विदाई हुई. खर्च की बड़ी राहत हो गयी.
अब दोनो बहनें चली गयीं. घर सूना हो गया. इधर अच्छी उपज वाले खेत- नहरवा-चौदहो… आदि – रेहन पर चले गये, जिनमें उपज ज्यादा होती. खेती के समय काका पछताते, अपने खेतों में दूसरे की फसल लहलहाते देखकर सिहाते, कभी-कभी उनके आंसू बह जाते…. यह सब देखकर हम सबका कलेजा फटने लगता…. काका ने सोचा था कि फसल अच्छी होगी, तो अनाज बेचकर एकाध खेत तो छुड़ा लेंगे…, लेकिन सूखा पड़ गया. धान हुआ ही नहीं. उधर गवने के साल भीतर ही छोटी दीदी के बेटा हुआ. बाबू-काका की तीसरी पीढ़ी की पहली संतान…असीम ख़ुशी. नाती को देखने जाना था. लेकिन कुछ कपडों के साथ कोई नेग (आभूषण) लेके जाने के जुगाड़ में काका को महीना लग गया – उधर से उसकी सास का ताना सुन पड़ा…. कैसी साँसत के दिन थे!! जब काका आए नाती को देख के, तो कहा– बच्चे का पैर बिलकुल भैया (मेरे पिता) जैसा है– उन्हें सारी दुनिया में अपने भैया ही दिखते थे– या उनकी निसानी बनकर मैं दिखता था. ऐसी ‘भायप भगति भरत आचरनू’ भी दुर्लभ ही होगी…!!
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इतने अभाव एवं बढ़ती घरेलू झंझटों ने काका को बाहर से पस्त कर दिया और अंदर से दमा का घुन तो चाल ही रहा था. इस दोहरी मार से काका बिलकुल अशक्त होते जा रहे थे…. मैं नौ में पढ़ने लगा था. सब कुछ जान-समझ रहा था, पर असहाय थे सभी…कहीं कोई मार्ग सूझता न था. काका की हालत देखी नहीं जा रही थी. गज भर का सीना सिमट गया था. ठठरियाँ दिखने लगी थीं. पर ज़ेहन ऐसी खरखर थी कि बैठ नहीं सकते थे. पैसे के अभाव व किसान-स्वभाव के कारण खर्च की सारी कटौती वे सबसे पहले अपनी दवा में ही करते…. यूँ तब तक कोई ख़ास दवा थी भी नहीं दमा की. अपने पुराने वैद्य ने पिपरमेंट-मधु चाटने के लिए बता दिया था. सबसे सस्ती दवा थी. फ़ौरी राहत देती थी…. वही करते…. कभी बहुत ज़्यादा होता, तो उन दिनों स्थानीय बाज़ार ठेकमा में मशहूर हो चले कल्ला डाक्टर (डॉ. लाल बहादुर राय, जो अब भी हैं) से कोई दवा मंगा लेते. आज बार-बार मन में यही आता है- काश मेरे कमाने तक जीवित होते, तो मुम्बई लाके इलाज कराता…काफ़ी दिनो तक जिला तो लेता, क्योंकि भूत-प्रेतों की तरह दमा का मर्ज़ भी सता सकता है, जान जल्दी नहीं ले सकता. यही पछतावा ज्यादा सालता है कि जिसने हमारे लिए अपनी जान लड़ा दी– जान दे दी, उसके लिए हम कुछ न कर पाये…!! सबके हित में सब कुछ करने के लिए ही बना था उनका जीवन. और उनकी अकूत मेहनत से मिले अभावों ने यह सिखा दिया कि अब चहूँ ओर के अपनों- ख़ास कर भांजों-भांजियों, नाती-नातिनों …आदि- के लिए सब कुछ करता हूँ- पत्नी उसमें दिल खोल के सहारती हैं, लेकिन मन में बैठे काका के अभाव हैं कि पूरते ही नहीं. अपनी विवशता से आये उनकी आँखों के आंसू हैं कि सूखते ही नहीं…. दिनों-दिन उनकी यादों के साथ बढ़ते जाते हैं. उनसे मिली यही वे निधियाँ हैं, जिन्होंने हमें दुःखों व दुखियारों से द्रवित होना सिखा दिया है– कुछ मनुष्य बना दिया है.
जिस दिन उनका जाना हुआ, रोज़ की तरह सुबह उठे, नित्यक्रिया की. लेकिन बार-बार आके लेट जाते. कुछ बेचैन से लग रहे थे. ज्यादा विरल यह हुआ कि काफ़ी बुख़ार में भी खेत पे काम करने चले जाना उनका स्वभाव था, पर कार्त्तिक की बुवाई के मौसम में भी उस दिन वे गये नहीं– बेचैनी ने शायद जाने की याद ही न आने दी. आठ-वाठ बजे से हम सब चौकन्ने हो उठे…. बड़के बाबू ने अपनी वैद्यकी शुरू कर दी – कुछ सुंघनी सुँघाने व कोई बूटी खिलाने लगे…. एक-दो घंटे में विह्वल होकर मैं अचानक सायकल उठा के ठेकमा चला गया. तब मैं दसवीं में था और रोज़ आते-जाते डाक्टर कल्ला का कुछ मुँहलगा हो गया था. बस, उसी अधिकार से उन्हें लेके आ गया. आते-आते ११ बज गये थे. और आके देखा, तो काका की ज़ुबान लरबराने लगी थी. जो बोलना चाह रहे थे, बोल न पा रहे थे…अटक जाते थे…कुछ और बोल जाते थे. डाक्टर ने देखते ही कोई सुई दी और कुछ दवाएं भी खाने का तरीक़ा बताते हुए रख दीं, लेकिन बिना कोई फ़ीस व दवा का दाम बताये ही यह कह के चले गये – ‘घबराने की बात नहीं. शाम को आके बताना और जो माँगे, जी कड़ा करके खिला-पिला देना…’.
सबको अंदाज़ा हो गया, लेकिन मुझे ही ऐसा कुछ ध्यान में नहीं आया. शायद इसलिए कि मैं अनुभवहीन बच्चा था, लेकिन बाद में समझा कि मेरे लिए उनका होना ऐसा आश्वस्तकारी बन गया था कि उनके न होने की कल्पना ही न होती थी…. सुई के असर से काका सो गये, तो मुझे और निश्चिंतता-सी आ गयी. इधर डाक्टर को आया सुन के, जैसा कि गाँव का स्वभाव है, आधा गाँव इकट्ठा हो गया था, किंतु काका के सो जाने पर अधिकांश लोग चले गये– फिर भी गाँव में इतने लोग आते-जाते हैं कि दो-चार-छह लोग तो सदा रह ही जाते हैं….
लेकिन आधे घंटे में ही काका जाग गये…और आँख खुलते ही खाट से उठके बरामदे से बाहर जाने लगे. मुझे लगा कि पेशाब करनी होगी, लेकिन वे लड़खड़ाने व इधर-उधर चकबकाने लगे. हमने पकड़ के लौटाया व खाट पे बिठाने लगे, तो लरबराती हुई आवाज़ आयी – ‘एतने दिन बाद भाई आयल हौ, मिलै जात हई…जाये देया हमैं…’. सुनते ही याद आया कि अंत समय में पित्र लोग याद आने लगते हैं और मुझे सदमा-सा लगा. मैं अचानक रो पड़ा… बस, भीड़ लगनी शुरू हो गयी…. अपने भैया के प्रति काका का आत्मिक लगाव अर्ध चेतनावस्था में मुखर होने लगा था…वे बार-बार वही ‘भाई आया है, मिलना है’ कहते हुए उठते… और हम पकड़ कर लिटा देते… तो जाने के लिए उनकी कुछ जबरदस्ती करने की कोशिश भी दिखती….
इस बीच सदा के आतुर बड़के बाबू ‘हमके छोड़ के जा जिन जैनाथ, हम बहुत अकेल हो जाब, कैसे रहब…’ आदि कह-कह के रोने लगे थे…. मां का भी बयान ‘हमें किसके भरोसे छोड़ रहे हो, मैं कैसे रहूँगी’…आदि कह-कह के रोना शुरू हो गया…. मैं अवसन्न काका को पकड़े उनके पैताने (पाँव के पास) बैठा रहा…. उठकर ‘अपने भैया’ से मिलने जाने की उनकी कोशिश दसेक बार तो हुई होगी…फिर पस्त होकर पड़ रहे…शायद पितरों की यादों के रूप में मृत्यु-पूर्व की पीड़ा थी वह – ‘जनमत-मरत दुसह दुःख होई’ या ‘निकसत प्रान काया काहें रोई राम?’ …वाली. इसके ५-७ मिनट बाद बंद आँखों व बेहोशी की हालत में एक हाथ से जनेऊ खोजने और दूसरे हाथ से धोती हटाने की कोशिश करने लगे…पूरे जीवन का रियाज़ ही था कि जनेऊ कान पर नहीं, पर कान तक तो पहुँच ही गया और धोती भी हटी…तो पेशाब हो गयी…. यही उनके भौतिक शरीर की आख़िरी क्रिया थी…. ऐसा होते ही जो अचेत हुए, तो फिर चेत न आया. साँसें तेज हो गयीं…घर-घर की आवाज़ आने लगी, जिसे ‘साँस बढ़ना’ कहते हैं – बुझने के पहले दिए की लौ बढ़ने जैसा…. हम बाहर की ओसारी से उठाके उन्हें दालान में ले गये….
लगभग तीन घंटे दालान में उसी हालत में पड़े रहे. बहनों को खबर कर दी गयी थी. नज़दीक हैं दोनों के घर, तो जल्दी आ गयीं दोनों. काका से बात नहीं हो सकी, पर वे काका को जीवित देख तो सकीं. विदा-समय होने जैसी बात तो हमारी भी न हुई. अपेक्षित के बावजूद आकस्मिक ही हो गया उनका जाना…. मैं वहीं पाटी पर बिल्कुल चुप बैठा रहा…इतना ही याद है. क्या सोच या मन में क्या चल रहा था…कुछ याद नहीं. उस दौरान गंगाजल व तुलसी के पत्ते…आदि सबने मुँह में डाले…. क़रीब चार बजे गले से कुछ टूटने जैसी ‘खट’ की आवाज आयी और साँस टूट गयी – प्राण-पखेरू उड़ गये…. मेरे दुःख का सोता इसके बाद फूटा…मृत शरीर को अंकवार में पकड़ कर रोना शुरू हुआ, तो चुप होना हो ही नहीं रहा था…सब लोग चुप करा रहे थे…बाद में किसी ने बताया था कि जमुना काका ने उस वक्त कहा था – मत चुप कराओ. रो लेने दो. उनके सुख को वही जानता है और आने वाले दुःख को भी समझ रहा है…सारा अमरख निकल जाने दो, खुद ही चुप होगा…. शायद वे सही थे. लेकिन शव तो उतारना था खाट से. आगे की क़्रिया करनी थी…तो ३-४ लोगों ने मुझे पकड़ कर खींचा…मैं चिल्लाता रहा -काका हमन के छोड़ के ना जाय सकतें, अपने काका के हम कत्तों (कहीं) ना जाये देब…हमहूँ इनके साथे जाब…आदि.
घर के कर्त्ता-धर्त्ता कर्मठ व्यक्ति के जाने से उस दौरान ऑसुओं की गंगा-जमुना तो हम बच्चों की आँखों में भी अविरल बहती रही, लेकिन माँ ‘मोर हथिया कहँवा चलि गइलैं रे रमवाँ’…जैसे अनगिनत विलापों के साथ पछाड़ खा-खा कर गिरती…. वह साफ बताता कि काका की करनी से घर-परिवार के अतीत का जितना गहरा अहसास और उनके अभाव से हमारे भविष्य का जितना अफाट अन्दाज़ माँ को हो रहा था, किसी को नहीं….
शव जब जाने लगा…मैं शांत हो चुका था…कंधा दे रहा था, लेकिन उस वक्त बहनों के चीत्कार व मां का बयान कर-कर के बिलखना-चिल्लाना उसका करुण क्रंदन ज़मीन फाड़े दे रहा था, आसमान तोड़े दे रहा था…. किसी से सहा न जा रहा था. मैं दाह में सुरुज घाट (जौनपुर) जाना चाह रहा था, लेकिन पूरे गाँव ने मिलकर नहीं जाने दिया, तो नहीं जाने दिया… और गाँव इस तरह एक हो जाये, तो सम्पूर्ण क्रांति की तरह कुछ भी कर सकता है. लेकिन उस दिन न जा पाने की वह कसक तो जायेगी मेरे जाने के बाद ही…!!
काका की अर्थी क्या निकली, हमारी दुनिया ही वीरान हो गयी…. दाह करके आने पर समूचा गाँव जब दुआर पर बैठकर नीम की पत्ती कुटकुटाने की रस्म अता कर रहा था, गाँव के सबसे मानिन्द व्यक्ति ठाकुर जमुना सिंह काका ने मेरी तरफ मुखातिब होकर कहा – बचवा, (बचपन का मेरे लिए पूरे गाँव का सम्बोधन) त्रिरात्रि कर दो, वरना कातिक ख़राब हो जायेगा, तो साल भर का मुँह का निवाला जाता रहेगा’. असल में मरणोपरांत का आयोजन 13 दिनों का होता है और उधर किसानी के लिए कहावत है– ‘तेरह कातिक, तीन असाढ़…’ याने आषाढ (ख़रीफ़ की फसलें– मक्का-बाजरा-साँवा-सनई…आदि) की खेती में तीन दिन और कार्त्तिक यानी रबी (जौ-गेहूं-मटर-चना…आदि) की खेती में तेरह दिन जो किसान खेती से विमुख रहा, उसका परिवार साल भर भूखों मरेगा. काका ने दोनों बहनों की शादी कर दी थी, लेकिन क़र्ज़ चुकाना – रेहन खेत छुड़ाना शेष था. यह सभी को पता था. और हमारी धार्मिक व्यवस्था बडी नमनीय है. हमेशा विकल्प देती है – ‘अभावे शालिचूर्णं च शर्करा वा गुडं तथा’ की तरह. यानी सत्यनारायण की व्रतकथा में चाहिए तो शालिचूर्ण, लेकिन उसके न होने पर शक्कर या गुड़ से काम चल जायेगा. सो, इस ‘तेरह दिनी व्यवस्था’ का भी आपातकाल के लिए शास्त्र-सम्मत विकल्प है– त्रिरात्रि, जो तीन रातों में ही निपट जाती है.
जमुना काका की बात सुनकर दो मिनट का अफाट मौन छा गया- सबकी निग़ाहें मुझ पर टिकी थीं…और मेरे मुँह से अचानक निकला था– ‘काका, कातिक तो हर साल आयेगा, पर मेरे काका फिर नहीं आयेंगे…’. यह जवाब तब तो मात्र गलदश्रु भावुकता में ही निकला था, पर अब समझता हूँ कि जमुना काका का कहना भले बेहद व्यावहारिक व उपयोगी था, उनकी व पूरे गाँव की सौ की सौ प्रतिशत नेकनीयती (जो तब थी हमारे गाँवों में) सही थी, लेकिन इन सबके के बावजूद यदि वह सुझाव मान लिया जाता, तो ताजिन्दगी हम अपने को माफ़ न कर पाते. तभी तो मेरे जवाब पर पूरा गाँव चुप रह गया था और दालान से माँ का व्यग्र चीत्कार मेरे लिए असीस बनकर फट पड़ा था…वह भी यही चाहती थी….
जन्म भले पिता ने दिया हो, पर वे जैविक पिता भर ही थे. शेष सब हमारे जीवन में काका का किया हुआ है. इसके लिए इस देह का रोम-रोम काका का ऋणी है. और हमारे काका बिल्कुल आम आदमी थे – ‘मोस्ट सिंपल’. शिक्षा-कला, देश-समाज सेवा-कार्य…जैसा कोई काम समझकर उन्होंने हमारा पालन-पोषण नहीं किया, जो करके लोग महान होते हैं या महान होने के लिए करते हैं…. उन्होंने तो बस, अपने भाई के परिवार को प्राणपण से व्रत-अनुष्ठान की तरह आजीवन पाला. सहज स्फूर्त प्रेरणा से हमें ही अपना जीवन माना…. इस सबके लिए उनको अहर्निश याद किया जा सकता है, करते भी हैं हम – सबसे अधिक मेरी माँ करती रही आजीवन – हर बात पर हमरे बबुआ ऐसा करते…वैसा करते हमरे बबुआ…ऐसे खाते-पीते, ऐसे रहते… आदि-आदि. बबुआ के ज़िक्र के बिना उसकी कोई बात पूरी ही न हुई कभी….
और आज भी हम जीवन के हर मुक़ाम, हर अवसर पर पिता के रूप में काका को ही याद करते हैं. पिता का नाम तो सिर्फ़ काग़ज़ों में हैं. दुनियादारी के नाते हम काका कहते रहे…वरना जीवन-मन में तो काका ही पिता हैं – प्रणाम पिता!!
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यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त की जा सकती है.
![]() सत्यदेव त्रिपाठी सम्पर्क |
बेहतरीन संस्मरण। इस तरह का एक न एक व्यक्तित्व हम में से अधिकांश के जीवन में किसी न किसी रूप में रहा है। जो अपने साथ स्मृतियों की एक पूरी दुनिया को समेट ले गया।
उस दशक के ग्रामीण जीवन को समझने के लिए एक बेहतरीन संस्मरण l ‘काका ‘अविस्मरणीय है l
जो खेती के साथ मजाक करता है, वो समझो अपनी बहन बेटी के साथ मजाक करता है
सत्यदेव त्रिपाठी का संस्मरण ‘छोटके काका और बड़के काका’ का कैनवास बहुत बड़ा और व्यापक है। यह संस्मरण अपने रूप में औपन्यासिक विन्यास लिए हुए है| ख़त्म होती जा रही पारिवारिक संरचना के बीच एक ऐसा परिवार ज़िंदा सच है जो न सिर्फ आकर्षित करता है बल्कि हर व्यक्ति अपने हिस्से के पारिवारिक भाईचारे को खोजने लगता है. समाज और परिवार में यह कहावत आज भी सुनाने को मिल जाता है कि ‘बाप के बदले बाप बनकर कोई खडा था.’ ‘वही मेरी माँ बनी’ आदि. ‘छोटके काका और बड़के काका’ उल्लेखित संस्मरण में भी पिताजी और छोटके काका के मरने मात्र से परिवार ढहता नहीं है, बल्कि उस परिवार में एक नए किरदार का जन्म होता है जो सबकुछ बिखर जाने से पहले सबको संभाल लेता है, बड़का काका उसी का नाम है। आज जब गांव बदल रहा है, लोगों के बीच का आपसी सौहार्द्र ध्वस्त हो रहे हैं ऐसे वक्त में ‘लड़ लो पर रहो निछद्म भाव से बिना किसी रंज गाम ठाम’ यह महज एक वाक्य नहीं है बल्कि इस वाक्य में टूटते नाते रिश्ते की महाकाव्यात्मक पीड़ा है। भारतीय गांवों की सबसे बड़ी दिक्कत है द्वेष और बर्चस्व की भावना का बढ़ते जाना। बड़के काका इससे न सिर्फ मुक्त है बल्कि सामंजस्य और सद्भाव का एक विलक्ष्ण उदाहरण हैं।
संस्मरण का एक पक्ष है घर के भीतर का जीवन-संघर्ष. दूसरा पक्ष यह है कि एक गांव किन लोगों के बलबूते अपनी विराट परंपरा जैसे कि भाईचारा, आपसी सौहार्द इत्यादि को बनाए रखता है। आज अगर सुदूर गांव में बड़के काका का अस्तित्व जिंदा है तो वह कई तरह के प्रतीक रूप में हमारे सामने है- खेत खलिहान से प्यार करने वाला, अपने कार्यों के प्रति निष्ठावान बेबाक किसान के रूप में है, जो यह कहता हो कि ‘जो खेती के साथ मज़ाक करता है , वो समझो अपनी बहन बेटी के साथ मज़ाक करता है’ वर्तमान में जब किसानों की आत्महत्या बढ़ती जा रही है, सत्ताधीश किसानी और किसानों को दो कौड़ी के मनुष्य तक न मानता हो ऐसे में यह वाक्य कितना महत्त्वपूर्ण है इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। लेखक जितने बधाई के पात्र है उससे कहीं अधिक बड़के काका और छोटके काका हैं। लेखक लल्लर काका और पलटू भैया को याद कर बिगड़ती हुई सामाजिक संरचना को पुनः कयाम होते देखने की ज़िद्द पालते नज़र आते हैं।
इस संस्मरण को लेकर जितना भी लिखा और कहा जाय वह कम ही होगा ।