यह दीप अकेलाक्षण का नाच |
अज्ञेय
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो.
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा.
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो.यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत : इसको भी शक्ति को दे दो.
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो.यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़ुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा.
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो :
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो.
गाँधी जी के कुछ ऐसे छायाचित्र हैं जिनमें वे एक विशाल जनसमुद्र के बीचों-बीच, किसी आम सभा में बैठे हुए नितांत अकेले नज़र आते हैं. सिर कुछ झुका हुआ, दृष्टि भीतर की ओर मुड़ी हुई. वे एक साथ उस जन सैलाब का हिस्सा भी हैं और उससे छिटक कर, अपने आप में अवस्थित, सिर्फ और सिर्फ अपने से संवादरत एक सत्ता भी हैं. इन से लगी-लगी एक और छवि उभरती है- महाभारत के युद्ध के शुरू होने में अभी कुछ पलों की देरी है. शंखनाद, रणभेरियों की गूंज के बीच दोनों ओर की सेनाओं के नायक, महानायक, योद्धा हज़ारों-हज़ारों की संख्या में पंक्तिबद्ध खड़े हैं. किंतु, आगे बढ़ने, संग्राम में कूद पड़ने, धमनियों में दौड़ते लहू के जोश को उन्मुक्त छोड़ देने के ऐन इस क्षण में अर्जुन का रथ दो सेनाओं के बीच स्थिर खड़ा है. अर्जुन पलट कर अपनी ही बृहत्तर आत्मा से संवादरत है. यह स्पंदित गर्भकाल, अज्ञेय जिसे ‘जीवन्त क्षण’ कहते हैं, अंतिम मौका है अर्जुन के लिये आत्म साक्षात्कार का. ऐन वाह्य जगत के कर्म की ललकार के क्षण में ठिठक कर, स्थितप्रज्ञ हो, अपनी समस्त चेतना को एकाग्र कर भीतर की ओर मोड़ पाना- वैसे ही, जैसे मंच पर माइक के आगे, अपार जनराशि की ओर उन्मुख गाँधीजी की छवि है जो ठीक उस बर्हिमुख होने के क्षण में पलट कर अंतर्गुहा में उस वर्तमान क्षण को उसके समस्त विस्तार में जज़्ब करने के लिए ठिठक गई है.
अज्ञेय इसी ‘क्षण योग’ के कवि हैं. अज्ञेय ने इस ठिठकने को कुछ इस तरह साधा है कि ऐसे किसी आबद्ध क्षण को अपनी लेखनी की नोक पर पकड़ वे उसका वृत्त बढ़ाते जाते हैं, बढ़ाते-जाते हैं जब तक कि वह समूचे काल की सतह पर एकमेक हो छा नहीं जाता.
‘यह दीप अकेला’ शीर्षक कविता का उत्स और विस्तार ऐसे ही एक क्षण को कविता में साधना है. किसी नदी के घाट पर एकत्रित जनमानस द्वारा नदी के अविराम प्रवाह के आगे नत हो उसमें हज़ारों-हज़ारों दिये प्रवाहित करने का दृश्य. इस दृश्य में उपस्थित हज़ारों लोगों में से प्रत्येक का अनुक्षण स्वयं में एक सत्ता होना और फिर उस सत्ता के सर्वमयता में तिरोहित हो जाने का भाव निहित है. हमारे देश के संदर्भ में न तो यह दृश्य विरल है न स्वयं के विसर्जन का यह अनुष्ठान ही विरल है. किंतु, आत्म की सत्ता का स्वरूप कैसा हो, इसकी पहचान नई है. समूची कविता के हर पद में इस ‘आत्म’ की एक नई मूर्ति गढ़ी जाती है. कविता में मूर्ति के स्थापत्य का सूक्ष्म निदर्शन है, उसकी स्थापना, उसका श्रृंगार, उसके रूप का वैभव वर्णन, उसके वैशिष्ट्य का स्तुतिगान है. किंतु इस स्वस्तिवाचन के बीच अनुक्षण यह भान भी है कि अंततः विपुल जलराशि में पंक्तिबद्ध बहती सर्वमयता में विसर्जित होना ही काम्य है. कविता ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है उसके गर्भ में रचे जा रहे आत्म का स्वरूप, पहले ठोस, फिर तरल और फिर तरल से विरल में रूपांतरित होता जाता है.
असंख्य दियों की तैरती उतराती पंक्तियों के बीच, एक अकिंचन दीप को धरे, उसे विसर्जित करने के ऐन पहले ठिठके शब्द, ऐसे बिम्बों को पहले अपने आस-पास टोहते हैं जो अनुभूति को वहन कर सके, फिर पलट कर भीतर झांकते हैं. और तब गोता लगा देते हैं. पनडुब्बे का बिम्ब जो अपने आस-पास से शुरू में ही लिया गया था वह तो सच्चे मोती लाने का वायदा करता है किंतु अंतिम पद में यह जो अपने अंतर्गुहा का गोताखोर है वह अपनी ही थाह लेने, अपनी ही पीड़ा की गहराई को नापने का उपक्रम करता है. यह गोताखोर ‘शब्द’ अकेला भीतर उतरता है किंतु जल्दी ही भौतिकी प्रयोगशाला में चुम्बक के ध्रुवों पर संकेन्द्रित वृत्त में ‘लाइन्स आफ फोर्स’ बनाते लोहे के कणों की तरह अन्य शब्द आ-आकर जुड़ते चले जाते हैं. उसका व्यास बढ़ता जाता है और जब वह फिर ऊपर को लौटता है तो ‘यह सदा द्रवित, चिर जागरूक, अनुरक्त-नेत्र, उल्लम्ब-बाहु, चिर-अखण्ड अपनापा’ जैसा विस्तार लेकर लौटता है. वर्तमान के इस अद्यतन क्षण में लगी डुबकी से उठी तरंगें जैसा कि मैंने शुरूआत में ही कहा था काल की वृहत्तर सतह पर फैलती जाती हैं. अज्ञेय के ही शब्द लेकर कहें तो ‘यह एक निरवधि अस्ति है- आवर्ती सनातन काल के चक्र पर अविखंडनीय कलाणुओं का अजस्र क्रम.’ (1)
आत्म के इस विराट दर्शन के बाद यह ‘केवल’ क्षण काल प्रवाह में तिरोहित हो जाता है. वह अद्वितीय मूरत असंख्य अन्य झिलमिल मूरतों की पंक्ति में लीन हो सर्वमयता को प्राप्त होने के लिये व्याकुल हो उठती है.
एक अजीब साम्य गाँधी और अज्ञेय के बीच यह भी है कि दोनों के ही बारे में सबसे अधिक जानकारी उन्हीं के लिखे को पढ़कर प्राप्त होती है. दोनों ने खुद पर सूक्ष्मदर्शी यंत्र (आज के मुहावरे में क्लोज़ सर्किट कैमरा) बिठाये हुए हैं और पूरी ईमानदारी से उसमें जो कुछ भी नज़र आया उसे स्वयं दर्ज़ किया है. जो लोग उन पर अपना निशाना साधे बहुत शोर मचाने की सी मुद्रा लिये रहते हैं उन्हें अक्सर इस बात का भान ही नहीं होता, या कि याद नहीं रहता कि जिस ‘स्टिंग कैमरे’ से प्राप्त, सनसनी का परचम वे स्टिंग ऑपरेसन की तरह लहरा रहे हैं वह सनसनीखेज़ फुटेज स्वयं उसी व्यक्ति के क्लोज़ सर्किट कैमरा द्वारा उपलब्ध कराया गया है.
गाँधी और अज्ञेय की जीवन दृष्टि तथा आत्म साक्षात्कार की ज़रूरत व तरीके एक दूसरे से नितांत भिन्न हैं. लेकिन दोनों की दृष्टियॉं खांटी जीवनानुभूति के अन्दर से, उसी को पचा कर अपना सत्य प्राप्त करना चाहती है. ये दोनों ही किसी दूसरे द्वारा आविष्कृत सत्य से काम नहीं चला पाते. यदि गाँधी का जीवन उनके सत्य की प्रयोगशाला है तो अज्ञेय की कविता, उनके व्यक्तित्व- स्वाधीन मनुष्य की अपनी गरिमा, अपनी अस्मिता की लड़ाई का संग्राम स्थल है. वे एक जगह लिखते हैं ‘मानव का एक आयाम यदि आस्था है तो एक विद्रोह का भी है. दोनों ही स्वाधीनता के आयाम हैं. जैसे विद्रोह मेरी असमर्थता से बद्धमूल नहीं है, वैसे ही मेरी आस्था भी मेरी अक्षमता में बद्धमूल नहीं है. दोनों मेरे स्वाधीन कर्म की दो दिशायें हैं. वे अलग-अलग हो सकती हैं पर प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए. (2)
अज्ञेय पर लिखते हुए रमेशचंद्र शाह ने दर्शाया है कि उनकी रचनाओं में ‘परंपरा के प्रति आस्था और विद्रोह दोनों वादी-संवादी स्तर की तरह सुनाई देते हैं.’(3) अन्यत्र वे लिखते हैं-‘
‘अज्ञेय की कविता ने पाठकों की एक समूची पीढ़ी की भाव-ऊर्जा को बुद्धि-ऊर्जा से जोड़ते हुए उन्हें एक वयस्क आधुनिक भाव-बोध में दीक्षित किया. उन्हें अपनी कुंठाओं को भी समझने और उनसे उबरने का रास्ता दिखाया, उनकी जीवनानुभूतियों को स्वयं उनके लिये प्रकाशित करते हुए उसे स्वाधीन मूल्यान्वेषण की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया से जोड़ा.’ (4)
‘यह दीप अकेला’ तथा अज्ञेय की बहुत सी अन्य कविताएं हमें अपने ही अंतरतम के धुंधलके, अपने ही भावजगत् को देखने, समझने कलिये उकसाती है. कविता के आलोक में जैसे हमारे सारे अंतर्विरोध, प्रश्नाकुलताएँ, स्वप्न, कुंठाएं एक बारगी प्रकाशित हो उठते हैं. यह कविता का स्निग्ध गर्माहट वाला हाथ पकड़ कर खुद के भीतर उतरने, खुद से मिलने, आज के मुहावरे में ‘डेटिंग विथ सेल्फ’ का महाआयोजन है. अज्ञेय में सिर्फ परंपरा के प्रति ही आस्था और विद्रोह के स्वर वादी-संवादी की तरह नहीं सुनाई देते, वरन आधुनिकता और एक तरह से समस्त परस्पर विपरीत मूल्यों, और सौन्दर्य के अधिष्ठानों को एक साथ साधने की उत्कटता भी दिखती है. विपरीत ध्रुवों के चुम्बकीय आकर्षण को साधने की कामना उनकी कविता, और उनके व्यक्तित्व (अज्ञेय के काव्य और व्यक्त्वि को अलगाना कठिन है, वे एक-दूसरे की प्रतिच्छवियॉं हैं. वे कविता की शर्त पर जीवन को और जीवन की शर्त पर कविता रचते हैं.) एक संकल्प या प्रतिज्ञा के रूप में आती है. ‘प्रतिज्ञा’ या ‘संकल्प’ आज के संदर्भ में इतने मूल्यनिष्ठ, इतने भारी भरकम शब्द प्रतीत होते हैं कि कविता जैसी सरस, सहज अभिव्यक्ति के साथ जाते मालूम नहीं देते.
कविता के संदर्भ में ऐसे किसी ‘मूल्य’ का आग्रह बहुतों को काव्य-रस-सृष्टि को अवरूद्ध करने वाला बौद्धिक विलास मात्र जान पड़ता है. अज्ञेय में विपरीत मूल्यों के प्रति आकर्षण की बात करते हुए अचानक इस बात की ओर ध्यान गया कि हिन्दी जगत के एक खेमे की यदि उन पर कलावादी होने की तोहमत है तो दूसरे खेमे को इसके ठीक विपरीत उनके काव्य से यह शिकायत है कि उसमें बौद्धिक चेतना हावी रहती है जो कभी मूल्यनिष्ठता के आग्रह का स्वरूप ग्रहण करती है तो कभी कविता का एक अवधारणात्मक स्वरूप खड़ा करने की कवायद करती है जो कि काव्य रस की स्वच्छंद धारा को अवरूद्ध करता है.
दोनों ही आरोप अपनी-अपनी तरह से ठीक ही हैं. अज्ञेय की कविता का ‘जन’- ‘यह जन है: गाता गीत, जिन्हें फिर और कौन गायेगा’?’ का पाथेय लिये हुए है. अथवा
भीड़ों में
जब-जब जिस जिससे आंखें मिलती हैं
वह सहसा दिख जाता है
मानव
अंगारे-सा- भगवान्-सा
अकेला. (5)
अथवा
मानव होकर भी हम-आप
अब ऐसे घरों में नहीं रह सकते
जो प्रकाश के घेरे में हैं
पर हम
बेघरों की परस्पर हमदर्दी के
घेरे में तो रह ही सकते हैं. (6)
यह ‘जन’, यह ‘मानव’ पूरी तरह से गरिमा च्युत, दमित, सिर्फ और सिर्फ मजदूर नहीं है. मजदूर और मजबूर होते हुए भी वह किसी का बाप, किसी का बेटा, किसी का बेटा, किसी का मित्र, किसी का पड़ौसी भी है. यदि अकेलेपन में उसकी होड़ ईश्वर से है तो जीवन के कोलाहल में उसे अपने जैसे ‘बेघरों की परस्पर हमदर्दी के घेरे की ऊष्मा की आस है.
वहीं कलावादियों का उन्हें तज देना भी वाजिब लगता है क्योंकि अनुभूति के क्षण के मर्म को, उसकी निश्छाय कौंध को पकड़ लेने भर से अज्ञेय संतुष्ट नहीं होते जान पड़ते. वे उस अनुभूत क्षण की सार्थकता के फेर में पड़ते हैं और कविता के मर्म की बकौल इस दूसरे खेमे के धज्जियां उड़ जाती हैं. लेकिन ऐसे कलावाद के विरूद्ध अज्ञेय का तर्क है: ‘जीवित क्षण’, ‘वर्तमान क्षण’ की कथा की खोज में ही मूल्य संबंधी एक प्रतिज्ञा निहित है: वह खोज केवल काल-जीवी मानव की पहचान पर आधारित नहीं है बल्कि काल-जीवी मानव की सार्थकता की पहचान पर बल देती है. सार्थकता का प्रश्न मूल्य का प्रश्न है. अतएव मूलतः मूल्याग्रही यह खोज जब मूल्यवादी शब्दों के बहिष्कार को अपना सिद्धान्त बना लेती है तब ऐसे विरोधाभास का आश्रय ले लेती है जिसका परिणाम कुंठा में ही हो सकता है, क्योंकि काल का अर्थ तब केवल मृत्युन्मुख गति रह जाता है.’
अज्ञेय की नियति यही रही है कि आधुनिकता के आग्रहियों को वे परंपरा की जकड़न में दिखे, तो परंपरा के संरक्षकों को वे विरोध का बिगुल बजाते उदंड आधुनिक के रूप में दिखाई देते हैं. किसी को शिकायत है कि उनकी कविता में नागार्जुन का सीधा-सच्चा जन नहीं है, तो किसी को उनकी कविता में शमशेर की कविता के निखालिस रूप-सौष्ठव की कमी नज़र आती है. स्वयं अज्ञेय की कविता क्या है? क्यों है? कैसे है? इसे जानने की दिलचस्पी कुछ गिने-चुने लेखकों में ही दिखती है.
बहरहाल, अज्ञेय का काम सिर्फ ‘इससे’ या ‘उससे’ नहीं चलता. अज्ञेय की प्रतिबद्धता किसी भी अवधारणात्मक सत्ता के प्रति नहीं है- चाहे वह सामाजिक, सांस्कृतिक, परंपरावादी, प्रकृतिवादी अथवा मानवतावादी सत्ता ही क्यों न हो. किंतु फिर भी अज्ञेय की कविता ‘प्रतिबद्ध’ कविता है. वह ‘कला के लिये कला’ के चौखटे में फिट नहीं बैठती. अज्ञेय की कविता जीवन मात्र के प्रति, और इसलिये स्वत्व के प्रति, मनुष्य मात्र के स्वत्व के प्रति गहरी प्रतिबद्धता लिये हुए है.
ज़रा इस विडंबना पर गौर करिये- जिस हिन्दी के कवि पर घोर व्यक्तिवादी होने की तोहमत है, जिसे इसलिये नहीं पढ़ा जाना चाहिये क्योंकि उसे जन या समाज की कोई चिन्ता नहीं है, वही कवि बार-बार यह कहता है कि ‘कविता अभिव्यक्ति से भी अधिक संप्रेषण है.’(7)
वह कवि जो अपने कवि होने की प्रामाणिकता की कसौटी वहां मानता है ‘जहां कवि और पाठक के परिदृश्य परस्पर मिलते टकराते हैं.’
स्वयं अज्ञेय लिखते हैं-
‘हमारी स्मृति के परिदृश्य उस बिन्दु से बनते हैं जिस पर हम खड़े होते हैं. … हम जो कुछ लिखते हैं, वह जिस तक पहुंचाना चाहते हैं, उस पर इस बात का प्रभाव अनिवार्यतः पड़ेगा कि हम कहां खड़े होकर, किस प्रकाश में रचना कर रहे हैं, वहां से स्मृति का कैसा परिदृश्य बनता है? स्मृतियां उसकी भी होंगी. क्योंकि भाषा उसकी भी है. उसका एक परिदृश्य भी पहले से होगा, जिसे हम अपने द्वारा प्रस्तुत परिदृश्यों से प्रभावित करेंगे. हमारी प्रामाणिकता की कसौटी यही है जहां पर परिदृश्य टकराते हैं- प्रामाणिकता उसके लिये भी और स्वयं हमारे अपने लिये भी.’ (8)
जिस ‘आत्म’ का भव्य स्वरूप ‘यह दीप अकेला’ कविता में खड़ा होता है वह निश्चित ही कवि के व्यक्तिगत आत्म तक सीमित नहीं है. वह बहुत व्यापक ‘मैं’ है और इसलिये तो अकेले दीप जैसे अकिंचन किन्तु अर्थगर्भित, रूपगर्भित प्रतीक का वरण करता है. अज्ञेय की कविता निजता, अकेलेपन, सौष्ठव, विराट और अकिंचन आदि के बोध के लिये, अर्थोन्मेष के लिये फिर-फिर ‘दिये’ की ओर लौटती है. वे लिखते हैं ‘आत्म दीप कवि भी होता है. लेकिन कवि का विराट दर्शन अंतिम नहीं होता. शायद यह कहना भी अन्याय न हो कि कवि का विराट दर्शन होता भी नहीं, वह विराट के स्वरूप को नहीं देखता बल्कि केवल यह बोध प्राप्त करता है कि विराट है- और वह भी जब-तब, विरल क्षणों में. इसी बोध का प्रकाश उसके शब्द को दीप्त कर जाता है और उसकी भाषा को अपूर्वानुमेय बना जाता है.’(9)
भाषा की अपूर्वानुमेयता, उसके छंद-लय, उसकी हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभूत सचाई को पकड़ पाने और फिर उसे संप्रेषित कर पाने की क्षमता, उसके लाघव, उसके सौष्ठव, उसके संस्कार का ऐसा प्रत्यक्ष निदर्शन इस कविता में होता है कि हमारे भीतर सोये हुए अव्यक्त अमुखर शब्द जाग कर नाच उठते हैं. अलबत्ता यह तनी हुई रस्सी का नहीं अपितु गुरूत्वाकर्षण से मुक्त हो तिर रहे शब्दाणुओं का हमारे भीतर घटित होता नाच है.
सन्दर्भ सूची
1 स्मृतिछन्द-अज्ञेय, पृष्ठ-115
2 कविकर्म और स्वाधीनता, स्मृति लेख- अज्ञेय
3 अज्ञेय का कविकर्म – रमेशचंद्र शाह
4 अज्ञेय काव्य स्तबक – पृष्ठ-54, 56
5 मानव अकेला-सर्जना के क्षण-अज्ञेय, पृष्ठ-94
6 घर-5, अज्ञेय काव्य स्तबक, पृष्ठ-302
7 ‘काल का डमरूनाद’, अज्ञेय संचयिता, पृष्ठ-392
8 स्मृति और काल, अज्ञेय संचयिता, पृष्ठ-342
9 स्मृति और काल, अज्ञेय संचयिता, पृष्ठ-354
शंपा शाह प्रसिद्ध शिल्पकार हैं, उनकी कृतियाँ देश-विदेश की अनके प्रदर्शनियों में शामिल हुईं हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सिरेमिक अनुभाग से संबद्ध रहीं हैं. लोक व आदिवासी कला तथा साहित्य आदि पर लिखती हैं. मारिओ वर्गास ल्योसा तथा चेखोव आदि का हिंदी में अनुवाद भी किया है. shampashah@gmail.com
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शम्पा जी को नए दृष्टिकोण से अज्ञेय की इस बहुचर्चित रचना को व्याख्यायित करने के लिए साधुवाद।
यह व्याख्या अज्ञेय के बारे में प्रगतिशील कहे जाने वाले मित्रों द्वारा बनाई और प्रचारित धारणा का प्रत्याख्यान करती हुई उनके समाज सापेक्ष लेखन को रेखांकित करती है।
इसके प्रकाशन के लिए लिए अरुण जी और समालोचन को धन्यवाद।
बहुत तन्मयता से और डूबकर लिखा गया लेख, जो अंत आते-आते हमें शब्द-समाधि तक ले जाता है। मौजूदा दौर में ऐसी तल्लीनता, ऐसी भावमयता दुर्लभ है, स्पृहणीय भी।
अज्ञेय जी की कविता का मैं बहुत प्रशंसक नहीं। उनका गद्य ही मुझे अधिक भाता है। खासकर कथा साहित्य। पर शंपा शाह जी के शब्दों में उनके कवि की जो प्रियतर मूर्ति बनती है, उसे मैं भुला न पाऊँगा और मेरे स्मृति कोठार में वह हमेशा सुरक्षित रहेगी।
अलबत्ता, अज्ञेय जी के कवि को एक नये रूप में जानने-समझने के इस उद्यम के लिए मैं बहुत सरल और निर्मल मन से शंपा शाह जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
भाई अरुण जी के लिए भी स्नेह और साधुवाद,
प्रकाश मनु
बड़ी नाज़ुकी से कहा तुमने शंपा! वात्स्यायन जी का व्यक्तित्व ऐसा ही था! तुमने उनकी ग्रेस और खामोशी को गांधी जी से जोड़ा, बड़ा मार्मिक है। हम लोग एक व्यक्ति की खामोशी, कमज़ुबानी और ग्रेस को समझने में कितना समय लगा देते हैं!
🌷
कितने गहरे डूबकर लिखा है आपने शंपा जी। अज्ञेय जी जैसे विराट कवि की कलम की नोंक पर ठिठके हुए आत्मलीन क्षण की व्याप्ति को बहुत आत्मीयता से पहचानती हुई आपकी दृष्टि मुग्ध करती है। बहुत बधाई।
साधु! साधु!
शम्पा जी का यह लेख अज्ञेय की कविता को उसकी प्रचलित व्याख्या से इतर एक नूतन काव्य दृष्टि से देखने की अपील करता है ।
कितना शानदार लिखा है! यह कविता आत्म का अनात्म के प्रति ‘श्रद्धामय’ समर्पण है। ‘क्षण योग’ से जोड़कर मेरी अत्यंत प्रिय कविता का यहां एक और ही अर्थ उद्घाटित हुआ है। इस कविता को देखने की यह दृष्टि बहुत मौलिक और आकर्षक है! बहुत बधाई! साधुवाद शम्पा!!
-शिवदयाल