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Home » शब्दों की अनुपस्थिति में: शम्पा शाह

शब्दों की अनुपस्थिति में: शम्पा शाह

प्रसिद्ध शिल्पकार शम्पा शाह साहित्य से गहरे आबद्ध हैं. आदिवासी कला आदि पर उनका लिखा महत्व का है. गगन गिल की पुस्तक ‘इत्यादि’ पर उनका यह आलेख मोहक है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 22, 2023
in आलेख
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शब्दों की अनुपस्थिति में:  शम्पा शाह
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शब्दों की अनुपस्थिति में
(गगन गिल की पुस्तक इत्यादि पर केंद्रित)

शम्पा शाह

 

सघन अनुभूतियों से बनी देदीप्यमान स्मृतियाँ. वे वेग से उतरती हैं. उन्हें थामना आसान नहीं है.

कलम की नोक पर ठिठका हुआ है शब्द. पलट कर देखता है, कौंधते उस एक ‘क्षण’ को जो पहले कभी घटा था.

शब्द ठिठका हुआ है– ढूँढ रहा है परंपरा में अपना अक्स.

वह अभी भी ठिठका हुआ है– ढूँढ रहा है इतिहास में बहुत पहले दर्ज़ हो चुकी प्रतिध्वनि इसी एक क्षण की.

यह क्षण, जिसका अनुरणन सुनाई देता रहेगा क्या भविष्य में भी?

शब्द– वह ठिठका खड़ा है, काँगड़ा चित्र की अभिसारिका नायिका की तरह, जो पलट कर एक बार देखती है उस सुरक्षित घेरे की ओर, जिसे छोड़ इस गहन अँधियारी रात में वह निकल पड़ी है.

शब्द भी पलट कर देखता है, स्मृति को मन के स्निग्ध घेरे से बाहर खुले में सबके बीच ले आने के पहले.

उँगलियों में फँसी कलम की नोक, झुकती है काग़ज़ पर– शब्द अब एक डग भरता है.

गगन गिल का गद्य एक साधक का गद्य है– धीर, विवेकशील. वह एक कवि का गद्य है– संयत, सघन. वह एक स्त्री का गद्य है– रस-सिक्त, इंद्रधनुषी.

गगन गिल की पुस्तक– ‘इत्यादि’ स्मृति को साधने, उसे सान चढ़ाने का आख्यान है.

यह बड़े जतन से, एक-एक स्मृति पर ठिठक कर, बिलम कर, रम कर लिखा गया गद्य है.

इस किताब में संकलित आलेख संस्मरण हैं और संस्कृति व इतिहास चिंतन भी हैं. यहाँ पाठकों की मुलाक़ात हमारे समय के कुछ विद्वान मनीषियों– पॉल ऐंगल्, लोठार लुत्से, कृष्णनाथ, रिनपोछे,और शंख घोष से होगी. पीर-फ़क़ीरों की परंपरा से होगी. एक अनाम स्त्री की व्यथा से होगी. साथ ही इस पुस्तक में लेखिका के जीवन के दो विकट अनुभवों पर केंद्रित आख्यानों से होगी, जिनमें से एक का संबंध वाह्य जगत से है तो दूसरे का घोर आंतरिक संसार से है.

पहला 1984 में दिल्ली में हुए दंगे और दूसरा लेखिका का विधिवत बौद्ध धर्म की दीक्षा लेना.

इस पुस्तक में संजोए गए कुछ संस्मरण ऐसे हैं जिनमें एक मुकम्मल कहानी या उपन्यास की सम्भावना है. सवाल उठता है कि क्या लेखिका के मन में यह बात नहीं आई होगी- इन्हें कल्पना के सुपुर्द कर, कुछ और बनते देखने का ख़याल? तब दूसरा प्रश्न हाथ उठाता है– क्या कुछ बातें, कुछ अनुभव इस तरह घटे होते हैं कि उन्हें अक्षुण्ण वैसा का वैसा ही कहने का दायित्व होता है एक लेखक का- एक ज़िम्मेदार रिपोर्टर की तरह?

यह महज संयोग नहीं है कि गगन गिल एक लम्बे अरसे तक पत्रकारिता से जुड़ी रहीं और बड़ी शिद्दत से जुड़ी रहीं. जिस काम को कभी हमने साधा होता है, वह फिर हमारे साथ हो लेता है. वह हमारा हिस्सा बन जाता है.

इस पुस्तक में श्रद्धेय ‘रिनपोछे’ पर केंद्रित अध्याय में एक बड़ी बेधक बात आती है,

“ऐसा कोई देव, कोई गुरु नहीं जिन पर आपने एक बार आस्था की, तो वह आपको त्याग दें. इसका मर्म मुझे बाद में पता चला, जब मैं दूसरी ओर पहुँच गई.”

यहाँ दूसरी ओर पहुँचने से तात्पर्य लेखिका के बौद्ध धर्म में बाक़ायदा दीक्षा लेने से है. दीक्षा पर्व नाम के अध्याय में यह समूची अंतर-यात्रा दर्ज़ है. दीक्षा पर्व एक कन्फ़ेशन है. उस लेखक का, जो ख़ुद से झूठ नहीं बोलता. जो हर क्षण ख़ुद को देख रहा है– भोक्ता और साक्षी बन कर.

एक संस्कारित, आधुनिक और प्राचीन परंपराओं में समान रूप से रुचि लेने वाला खोजी मन, जो इस संसार में नितांत अपनी एक डगर खोज रहा है.

बौद्ध जीवन दर्शन के प्रति उनका तीव्र आकर्षण बहुत पहले से था. बहुत लम्बे चिंतन और कुछ विलक्षण अनुभवों के बाद लेखिका बौद्ध धर्म की बाक़ायदा दीक्षा लेने का निर्णय करती हैं. यह किसी बाहरी दबाव से मुक्त, बिल्कुल एक निजी निर्णय था. लेकिन दीक्षा के उपरांत, जब यह कहा जाता है कि अब आप बुद्ध की शरण में आ गए हैं, और अब किसी अन्य देवता के स्मरण की ज़रूरत नहीं है, तो लेखिका पर सहसा जैसे वज्रपात होता है.

जिनका बचपन से साथ रहा– शिव, नानक, वे तमाम पीर-फ़क़ीर, उन्हें अब छोड़ देना होगा, यह तो सोचा ही नहीं था लेखिका ने.

दीक्षा लेते ही वे पिछले तमाम देवता, गुरुजन, जिन पर भरोसा किया था कभी, आ घेरते हैं लेखिका को. कैसा हाहाकार मचता है तब इस लेखिका के मन में– शांति की तलाश में भटकता एक मन लौटता है उत्तप्त, पहले से कहीं अधिक अशांत. पढ़ते हुए रुँध आता है गला, धुँधला जाते हैं शब्द लेखिका की इस कातर पुकार पर,

“गुम गई हूँ मेले में. मुझे मालूम नहीं कौन हूँ मैं. बच्ची ही तो हूँ दारजी…”

यह अनुभव कितना सच्चा है, एक अकेले मनुष्य की इस विराट ब्रह्मांड में गूंज कर लौट आती पुकार- ‘दारजी..’

पिता से परम पिता तक की यात्रा एक ही डग में हो गुजरती है और फिर निविड़ अकेली लौट आती है.

दूसरे धर्म के प्रति ऐसा खिंचाव महसूस करना, उसे स्वेच्छया से अंगीकार करना और फिर अपने बचपन, किशोर, युवा दिनों के देवताओं के साथ विश्वासघात करने की पीड़ा से घिर जाना– यह एक बहुत बड़ा और जटिल अनुभव है, इससे गुज़रना और उबरना आसान नहीं था. इस अनुभवजनित सत्य के घेरे में खड़ी लेखिका तब कहती हैं,

“किसी दूसरे के देखे तीन दृश्यों से दुनिया नहीं छूटती. अपने स्वयं के देखे दृश्यों के कारण ही मुक्ति मिलती है. तीन हों या तीस. पालकी से दिखे या अपने भीतर की कोठरी से.”

वे आगे एक जगह लिखती हैं,

“अपनी आस्था और संशय का रास्ता अकेले पार करना होता है, बाहर भी और भीतर भी.”

इस सत्य से सबका साबका नहीं पड़ता. जिनका पड़ता है, वे भी इसे बहुधा पठन-मनन से जानते हैं. बिरले कवि-कलाकार होते हैं जिन्हें अनुभव की काल कोठरी से गुज़र कर इस सत्य को जानना होता है. गगन गिल उन्हीं में से एक हैं.

इस पुस्तक में संकलित ‘दीक्षा पर्व’ और ‘रिनपोछे’ नामक आख्यानों में वे अपने जीवन के घटनाक्रम के समानांतर बौद्ध धर्म से जुड़े कुछ स्थान, रिनपोछे के जीवन से जुड़ी खास घटना को रखती हैं तो अनायास कुछ पैटर्न्स उभरते हैं.

1959: वे अभी माँ के गर्भ में कुल दो महीने की हैं तब, महज़ उन्नीस बरस के रिनपोछे ड्रेपुंग गुम्पा में अपनी सात बरस की पढ़ाई कर, एक रात तिब्बत छोड़ने और जीवन पर्यंत शरणार्थी बनने को विवश होते हैं. गगन गिल लिखती हैं,

“क्या मुझे पता था- मिलूँगी उस भिक्षु से?”
और तब ख़ुद ही जवाब देती हैं,
“मुझे पता था. कुछ बातें मुझे रिनपोछे से ज़्यादा मालूम रही आई हैं.”

2007 में लेखिका तिब्बत प्रवास के दौरान उसी ड्रेपुंग गोम्पा जाती हैं. लौटते समय वे उसके परिसर में लगे शुक्पा पेड़ की छाल भी लाती हैं और वहाँ की मिट्टी भी. इसी तरह से बचपन में उनके सपरिवार मनाली जाते हुए पद्मसंभव के स्मृति स्थान– खालसार गोम्पा के बाहर ठहरने और वहाँ, उसके भीतर से आते संगीत-नृत्य आदि का उन पर जादुई प्रभाव छोड़ने का भी ज़िक्र है.

बौद्ध धर्म के प्रति उनके भीतर यह खींच पुरानी थी, जिसका उन्होंने अपने पिता से ज़िक्र भी करना चाहा था. तब वे नहीं जानती थीं कि वह क्या है, जो उन्हें अपनी ओर खींच रहा है?

बहुत बाद में दलाई लामा, रिनपोछे के सम्पर्क में आने के बाद, कई बौद्ध ग्रंथ पढ़ने के बाद वे इसे जान पाई थीं. वे रिनपोछे के साथ के एक अनुभव का ज़िक्र करती हैं, जिसने उनके जीवन को बदल के रख दिया,

“प्रकाश की एक सुरंग सी मैंने देखी, अपने- उनके ऊपर से पीछे जाती हुई. जैसे टॉर्च की रोशनी हो. वहाँ तिब्बत का पठार था, पहाड़ियाँ थीं. मेरे सात जन्म एक क्षण के लिए कौंधे और ग़ायब हो गए. मैं भौचक खड़ी की खड़ी रह गई.”

ये अनुभव ऐसे हैं जिनका ज़िक्र ‘धर्म-निरपेक्ष’, ‘वैज्ञानिक’ सोच के दौर में चलन में नहीं हैं. यह आपको संदिग्ध तक बनाता है. किन्तु, लेखिका को इसकी परवाह नहीं है. उसके लिए ये जन्म-मरण के प्रश्न हैं, उसकी अंतर-यात्रा के ज़रूरी पड़ाव. वे लिखती हैं,

“मैंने रिनपोछे और बौद्ध धर्म को अपनी भावना से जाना है. शब्दों के लगभग अभाव में.”

यह भी कि

“रिनपोछे से मिलकर साहित्य से मेरा संबंध बदल गया और मुझे पता भी नहीं चला. भाषा में मौन ही उसका सबसे ज़रूरी अंग है, अपने नपे-तुले शब्दों में उन्होंने समझा दिया था.”

गगन गिल के समूचे लेखन में इस ‘मौन’ को साधने की आकांक्षा को महसूस किया जा सकता है.

शंख घोष का एक वाक्य आता है इसी पुस्तक में,

“क्या शब्द ही मौन को नहीं रचते?”

गगन गिल के सम्मुख यह वाक्य आधार स्तम्भ बन कर खड़ा रहता है.

ऊपर उल्लिखित संयोग, जिनका तार हमारी अदृश्य नियति से जुड़ा महसूस होता हैं, पुस्तक में अन्यत्र भी आते हैं.

‘चिनिले न आमारे कि?’ में शंख घोष के साथ कोलकाता में बिताई शाम को दोनों को ही लगता रहता है की वे पहले मिल चुके हैं एक दूसरे से. पता चलता है 1974 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के मॉडर्न इंडियन लैंग्विज के कोर्स में दो माह के लिए बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर आए थे शंख घोष. यह वही डिपार्टमेंट था जहाँ गगन गिल की माँ अपनी पी.एचडी. के सिलसिले में उन दिनों जाती थीं. उनके साथ उनकी चौदह बरस की बेटी भी कई बार आती थी. चालीस बरस बाद, अब तक बहुत बड़ी हो चुकी वह बालिका शंख घोष को वहाँ डिपार्टमेंट में लगी रवीन्द्रनाथ की आदमकद तस्वीर की याद दिलाती है, जो तब उसे ठिठक कर उसकी ओर देखती ही महसूस होती थी. वह कहती है कि मैं आपसे वहीं मिली थी, पहले-पहल!

आमतौर पर हम इस तरह से चीज़ों, घटनाओं को देखने के आदी नहीं होते, लेकिन जीवन को ध्यान से देखो, तो उसमें कैसे मानीख़ेज रहस्य छुपे रहते हैं.

जहाँ यह सही है कि हर किसी को ‘अपनी आस्था और संशय का रास्ता स्वयं पार करना होता है’ वहीं, यह भी सच है कि ऐसे कई अकेले यात्री पृथ्वी पर सदा से चलते आए हैं, चलते रहेंगे. गगन गिल को भी मिलते हैं ये यात्री, भले ही गिने-चुने.

कृष्णनाथ, प्रो. सरन, गोविंदचंद्र पांडे, दयाकृष्ण, शंख घोष, दलाई लामा, रिनपोछे और हाँ, रवींद्रनाथ.

वे सबको गुहार लगाती हैं और सब चले आते हैं उनकी गुहार पर.

सब करते हैं अपने पाथेय का साझा उनसे.

इस पुस्तक में ऐसे ही एक यात्री, कृष्णनाथ पर एक संस्मरण है जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों को आलोकित करता है. कृष्णनाथ के यात्रा वृतांतों का आज के समय में क्या ज़बरदस्त योगदान है उसको रेखांकित करते हुए गगन गिल लिखती हैं कि

“वे हमारे तीर्थ-स्थानों का हमारी तात्कालिक स्मृति में पुनर्स्थापन करते हैं.”

यह एक ज़बरदस्त काम है. लेकिन, विस्मृति की जिस गर्त में हम हैं, वहाँ से आज न इस रिक्तता को महसूस किया जा सकता है जो मिथकों, तीर्थ-स्थानों की स्मृति के अभाव में हमारे सामने खाई बन खड़ी है और न कृष्णनाथ के उस योगदान को, जिसकी बात गगन गिल कर रही हैं. फिर भी, हर काल में कोई कृष्णनाथ, कोई पॉल एंगल चुपचाप ये काम कर रहा होता है और किसी को तो आखिर उन्हें लक्षित भी करना होता है.

गगन गिल कृष्णनाथ की ‘धड़कती हुई मनीषा’ की क़ायल हैं, लेकिन, जो चीज़ उन्हें उनके बारे में सबसे अधिक खींचती है वह है,

“वे अपने पर जीवन को घटित होने देते हैं. अपने वस्त्र पर उसके छींटे आने देते हैं. मुझे अच्छा लगता है, मेरे भीतर की स्त्री को. .. वे अपने लेखन में बार-बार मानव से सन्यासी, सन्यासी से मानव बनते हैं.”

अपने कृष्णनाथ जी के साथ के संबंध पर चिंतन करते हुए वे एक और बात लिखती हैं जिससे इस लेखिका की त्रिवेणी अंतश्चेतना का संसार और भी मुखर हो कर सामने आता है.

वे लिखती हैं,

“मैंने उनसे जीने के बारे में जो सीखा, वह मेरे गुरु भी मुझे नहीं बता पाए– जीवन को रसिक की तरह, मधुमक्खी की तरह, तितली की तरह जीना. पीना.
विचित्र है, मेरे गुरु रिनपोछे मुझे मित्र की तरह लगते रहे और कृष्णनाथ, सारे अपनापे के बावजूद, गुरु की तरह!”

दिखती है न त्रिवेणी अंतश्चेतना– एक ओर अध्यात्म है, तो दूसरी ओर कविता और फिर अपने भीतर की स्त्री जो हर दहलीज़ पार करती है, हर दहलीज़ पर ठिठकी है. तीनों पुकार में बराबर का खिंचाव है इस पुस्तक की लेखिका के लिए. वे तीनों को ही नहीं छोड़ सकतीं. गलफाँस है यह उनके लिए. वरदान भी.

जैसा कि ऊपर भी ज़िक्र हुआ, ‘चिनिले न आमारे कि?’ में शंख घोष के साथ बिताई एक शाम है. नहीं, यह कविवर रवीन्द्रनाथ के साथ बिताई एक शाम है. नहीं, दरअसल यह तीन कवियों– शंख घोष, प्रयाग शुक्ल और गगन गिल के अपने एक पुरखा कवि के साथ बिताई एक शाम है. वे लिखती हैं,

“इस तरह एक दिए से दूसरा दिया जलता है? एक मन से दूसरा मन प्रकाशित होता है? कोई अदृश्य जीवन हमें बुलाता है?
इस तरह हमारे पंचभूतों से यह विश्व प्राणवान बनता है?” (यह रवीन्द्रनाथ के गीत की पंक्ति है.)

पुरखा कवि का लेखन, उनका समूचा दाय अभिभूत करता है गगन गिल को, वे लिखती हैं,

“गुरुदेव. महात्मा बुद्ध से भी ज़्यादा उनकी जीवंत ऐतिहासिक उपस्थिति ने मथा है मेरे दिल को.”

उनके उपन्यास, कहानियाँ, शांति निकेतन बना कर शिक्षा की नई बुनियाद रखता, ‘पराधीन भारत को राष्ट्रवाद की अनूठी परिभाषा देता आधुनिक मनीषी-रूप, सब घेरता है लेखिका को किन्तु, उनके गीत तो जैसे प्लावित ही कर देते हैं उसके हृदय को. ऐसा मित्र-हमजोली का सा तादात्म्य स्थापित होता है अपने इस पितर कवि से, कि वे शंख घोष से कह उठती हैं–

“कुछ बातें मैं सिर्फ़ टैगोर से ही कह सकती हूँ– सिर्फ़ वही हैं संसार में जो मेरी बात समझ पाएंगे.”

यह रिश्ता–कवि का कवि से, बाद में बनता है. इसके पहले वे एक पाठक के बतौर रवीन्द्रनाथ से अपने संबंध को खँगालती हैं. लिखती हैं,

“एक पाठक के एकांत में कब, कैसे, एक लेखक इतना जीवित हो उठता है? शेष समस्त दुनिया से अधिक निकट, उसका आत्मीय?”

प्लेनचेट से आत्माओं को बुलाने के रवीन्द्रनाथ के साथ जुड़े प्रसंग को भी वे शंख घोष से छेड़े बग़ैर नहीं मानतीं. उनका स्त्री मन, कवि मन जानना चाहता है, विस्तार से प्लेनचेट के दौरान एक रोज़ बिन बुलाए चली आई उस गुमनाम स्त्री की आत्मा के बारे में, जो आ कर गुरुदेव की एक काव्य पंक्ति को वहाँ लिख देती है– क्योंकि मरते समय उसके होठों पर वही पंक्ति थी.

कैसा प्रसंग है! साहित्य-कला में रस लेनेवाले के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं कि प्लेनचेट आदि कुछ होता है या नहीं, क्यों कि, साहित्य-कला में तो सब सम्भव है. कुछ भी त्याज्य नहीं.

गगन गिल उस डूब कर मर गई, स्त्री की व्यथा से तादात्म्य होते हुए लिखती हैं,

“क्या सचमुच ऐसा होता है? एक लेखक की तरह, एक पाठक की भी दूसरी ज़िंदगी होती है? कभी-कभी तीसरी ज़िंदगी भी– मृत्यु के परे?”

‘इत्यादि’ नाम की इस पुस्तक को इतिहास की तरह भी पढ़ा जाना होगा. या कहें इतिहास में ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह. पिछले वर्षों में सबाल्टर्न इतिहास का बड़ा बोलबाला रहा है. किन्तु हमारे जीवन में ‘घटनाओं’ के ‘इतिहास’ में रूपांतरण पर, यानी उनके यूँ इतिहास के रूप में दर्ज़ किए जाने पर क़ब्ज़ा इतिहासकारों का ही है. प्रश्न उठेगा कि इसमें क्या ग़लत है? यदि, सब कुछ इतना ठीक होता तो ‘सबाल्टर्न’ की भी क्या ज़रूरत पड़ती?

अवधारणात्मक दिमाग़ खाँचों के अलावा सोच ही नहीं सकता, उसकी तो विशेषता ही खाँचे बनाने में होती है. लेकिन, जीवन एक जटिल, अनंत गुंजलक है.

वह कभी, किसी छोटी-सी कविता या उपन्यास में तो पूरा का पूरा समा सकता है, लेकिन किसी अवधारणा के खाँचे में पूरा का पूरा नहीं अटाता.

इसीलिए हमारे समकाल को सिर्फ़ इतिहासकारों के भरोसे छोड़ना ठीक नहीं. लेखक को भी इस भूमिका में उतरना होगा– सचेष्ट, जैसे गगन गिल करती हैं इस पुस्तक में. जैसे सिमोन वेल करती हैं अपनी डायरी में. जैसे विक्टर फ़्रैंकल ने किया था– कॉन्सेंट्रेशन कैम्प में. यंत्रणा सहने के दौरान, एक अदृश्य जनमानस को संबोधित हो, वे उन्हें कॉन्सेंट्रेशन कैम्प के भीतर घट रहे मनोविज्ञान के बारे में मन ही मन बता रहे होते थे!

ये उन्होंने वहीं जाना था कि मनुष्य से उसकी अंतिम स्वतंत्रता नहीं छीनी जा सकती. उसके साथ किए गए बर्ताव के प्रत्युत्तर में वह क्या करेगा, इसे वह स्वयं तय करता है, कर सकता है..

कम ही सही, पर वहाँ– कॉनसेंट्रेशन कैम्प में उन्हें ऐसे लोग मिले, जिन्होंने अपने अंतिम निवाले से दूसरे की जान बचाई.

‘स्मृति और दंश’, ‘दीक्षा पर्व’, ‘रिनपोचे’ आदि ऐसे ही कुछ आलेख हैं जो इतिहास भी रचते हैं. ‘स्मृति और दंश’ में 1984 के दंगों का भूगोल है. कोई टी. वी. अख़बार की रिपोर्टिंग, कोई इतिहास की पुस्तक आपको इन दंगों का ऐसा अनुभव नहीं करवा सकती जैसा चंद पन्नों का यह आलेख. डर कैसे निर्मित होता है, कैसे आस पास के लोग भीड़ में बदलते हैं (और हाँ, कुछ लोग ऐसे भी जो मनुष्यत्व को उसकी गरिमा लौटाते हैं).

एक ओर वे झुग्गी बस्ती के गुंडे से नज़र आते लड़के जिन्होंने इनके पिता– दारजी, और फिर कितने ही दंगा पीड़ित घायलों को बचाया और दूसरी ओर वे जो इसी मौक़े की ताक में बैठे थे– ख़ून से होली खेलने को बेताब. ऐसे ही एक दोराहे पर खड़ी लेखिका पूछती है,–
“हम कहाँ जा कर खड़े हों? विश्वास की ज़मीन पर? या संदेह के दलदल में? “

हाथ में पत्रकार को मिलने वाले प्रेस का कार्ड लिए, कर्फ़्यू लगे शहर में अपनी माँ के साथ शहर भर में भटकती, अपने पिता को ढूँढती वह पूछती है,–

“क्या इसी तरह इतिहास बनता है? उजाड़ सड़कों और लुके-छिपे लोगों के बीच?

एक तारीख़ सब तारीखों से अलग हो जाती है? बरसों बाद हम वहाँ से गुज़रते हैं, तो कैलेण्डर से उखड़ी वह तारीख़ वहीं खड़ी मिलती है, इतिहास के चौराहे पर, अपने रक्त में नहाई, गर्भनाल हाथ में लिए?”

परिवार के साथ अनजान नियति की ओर बदहवास भागते हुए लेखिका के हाथों से पहले अँधेरे में घर की चाबी गिरती है, फिर चप्पल; माँ सारे काग़ज़ात और ज़ेवर पहले ही मेज़ पर भूल चुकी है,

“यह दृश्य हमेशा से इसी तरह घटता आया होगा? भागते हुए लोगों की चीज़ें यों ही पीछे छूट जाती होंगी?”

पीड़ा के इस आख्यान में एक-एक कर इतिहास के कई टुकड़े आ जुड़ते हैं. 1984 के दंगे माँ और सिद्धू अंकल को 1947 में पहुँचा देते हैं. बँटवारे के बाद भारत आई माँ ने, जो तब बच्ची थी, नंगी, स्तन कटी औरतों का जुलूस देखा था, जिसका साझा वह एक कठिन दौर में अपनी बच्चियों से करती है. सिद्धू अंकल अचानक उस अंधे फ़क़ीर की हत्या करने की बात क़बूलने को विवश हो उठते हैं. पूछने पर कि ‘गाँधी जी की हत्या याद है?’

दादी के आगे वह रात खड़ी हो जाती है, जब गाँव की सारी औरतें चरखा कातने घर पर जुटी थीं, कि तभी गाँधी की हत्या की ख़बर आई थी. दादी के लिए वह रात फिर-फिर वर्तमान हो जाती है. उनका विलाप रुके नहीं रुकता. सन 2002 के गुजरात दंगे होते हैं तो लेखिका के आगे 1984 के दिल्ली में हुए दंगे आ खड़े होते हैं. टी वी स्क्रीन, अख़बार, हर पत्रिका के मुखपृष्ठ पर आँसुओं से अँधाया चेहरा, हाथ जोड़े खड़ा है. गगन गिल पूछती हैं, –

“वह किसके आगे खड़ा है?
तस्वीर में नहीं दिखता चेहरा लेकिन, चेहरा कैसा है सामने वाले का?
हत्यारे का है? कि ईश्वर का?
उसे कुछ पता है? बिलबिलाते खड़े, डर और पीड़ा से अंधे उस आदमी को?”

इसी तरह अपनी माँ द्वारा देखे गए उस नंगी, क्षत-विक्षत औरतों के जुलूस को सिर्फ़ याद कर, या उससे आक्रांत हो रुक नहीं जाती लेखिका. वह एक ज़बरदस्त प्रश्न उठाती है जो पूछा ही नहीं जाता–

“कहाँ गई वे स्त्रियाँ… धरती लील गई उन्हें? आँधी ले गई उड़ा?”

और तब इससे भी हिला देने वाला प्रश्न,

“उस शाम चौराहे से वे सब घर लौटे होंगे- आततायी, तमाशबीन. इतिहास में किसी की छवि दर्ज़ नहीं, सिवाय उन स्त्रियों के.
विचित्र नहीं?”

यह इतिहास और समाज के मुँह पर जड़ा गया एक विकराल प्रश्न है. क्या गार्गी के प्रश्न-सा, अति-प्रश्न?

यह प्रश्न बिना पूछे ही हमेशा से ‘सम्मिलित’ मान लिया जाता रहा है. आख्यान अक्सर इसी तरह से गढ़े जाते हैं इतिहास में. कभी तो इसका रुख़ बदलना चाहिए. जो न पूछा जाए प्रश्न तो उस ‘विचित्र’ चुप्पी को तो दर्ज़ होना चाहिए, जैसे कि वह इस पुस्तक में हुआ.

विश्व में लेखकों, विशेष कर स्त्री लेखकों ने ये प्रश्न उठाए हैं. पर उन्हें विस्मृत कर दिया जाता है. ये प्रश्न बार- बार उठाने होंगे, इन पर पसरी चुप्पी को भी बार-बार रेखांकित करना होगा.

पहले एक जगह ज़िक्र आया था पत्रकार गगन गिल का, और यह प्रश्न उठा था कि इस पुस्तक में से कुछ आख्यानों में छिपे बैठे उपन्यास या कहानी को क्यों उन्होंने आकार देने की बात नहीं सोची. बात हुई थी कि जिस काम को कभी शिद्दत के साथ साधा हो फिर वह आपका अनिवार्य हिस्सा बन जाता है. उसे काट कर अलग नहीं किया जा सकता. बात ऐन इस जगह कहीं और मुड़ गई थी. अब उसका रुख़ दुबारा से इस ओर मोड़ते हैं.

पुस्तक में संकलित संस्मरण ‘एक छोटा सा दिलासा’ अपने में पूरी कहानी लिए हुए है. लेखिका यदि उस गुमनाम स्त्री जिसका शरीर रोज़ तिल-तिल कर मर रहा है, को किरदार की तरह नहीं देखतीं हैं, तो यह शायद उनके भीतर का ज़िम्मेदार रिपोर्टर है जो सिर्फ़ उन्हें जस का तस रिपोर्ट करने की इजाज़त देता है.

अलबत्ता यह रिपोर्टर एक संवेदनशील कवि और स्त्री भी है इसलिए वह सिर्फ़ उसके मरते शरीर को ही नहीं, उसके पति, बेटा,बहन, से सूखते जाते संबंधों को भी दर्ज़ करती हैं. एक-एक कर वे तमाम सम्बंध उस गुमनाम स्त्री के जीवन से सूखे पत्तों की तरह झड़ जाते हैं. वह स्त्री लेखिका से पूछती है कि उसे क्या करना चाहिए– जीना या कि मर जाना चाहिए? लेखिका उस हतभाग स्त्री को, उसके सुंदर मन का दिलासा देती हैं. यह भी जोड़ती हैं कि,

“मरा तो कभी भी जा सकता है, फ़िलहाल इस सुंदर मन का इस्तेमाल वे जीने के लिए करें.”

लगता है लेखक होने से इतर, कुछ दायित्व हमारे मनुष्य होने से होते है. उनका हिसाब लिख कर नहीं, मनुष्य हो कर ही चुकाया जाना होता है. इसीलिए दक्षिण अमेरिकी देशों व यूरोप के कई लेखक एक समय पर सक्रिय राजनीति में तक उतरे. इसीलिए रवींद्रनाथ सिर्फ़ लेखन ही नहीं, शांति निकेतन जैसा शिक्षा संस्थान स्थापित करते हैं.

नज़दीक से देखी, भोगी गई पीड़ा चाहे दूसरे की हो या अपनी, यूँ ही बयाँ नहीं की जा सकती. उसके साथ रहना होता है. एक लम्बी यात्रा करनी होती है, तब जा कर वह सह्य और फिर साझा योग्य होती है. अक्सर हमें उस पीड़ा से मुक्ति किसी से साझा करके भी नहीं मिलती. इस पुस्तक में एक जगह आता है-

“क्या इसीलिए हमें अक्सर अपने जीवन में सत्य के बजाय फ़क़ीर की ज़रूरत पड़ती है?
सच्चा पीर हमें इस संसार से नहीं, इस संसार की पीड़ा से छुटकारा दिलवाता है.”

अपने और समाज के प्रति ज़िम्मेदार एक लेखक अपने जीवन में बाहर और भीतर की यात्रा करने को विवश होता है. उसके पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं होता. यदि होता तो तपेदिक के शिकार, अपनी मृत्यु के मुहाने पर खड़े चेख़व के लिए सखालिन में शून्य से बीस-पच्चीस डिग्री नीचे तापमान में क़ैदियों की बस्तियों में भटकने, उनसे बातें कर दस्तावेज़ीकरण की क्या ज़रूरत हो सकती थी? तब तक वे कहानीकार और नाटककार के रूप में पर्याप्त ख्याति पा चुके थे.

मनुष्य होने का दाय दिए बग़ैर हम क्या लेखक, कलाकार होने का दाय चुका सकते हैं?

अपने को ख़तरों में फेंकना- फिर वह बाहर मानसरोवर या तिब्बत की चुनौतीपूर्ण यात्रा हो अथवा अपने भीतर की काल कोठरी की दहलीज़ पार करनी हो, गगन गिल वे तमाम ख़तरे उठाती हैं. वे अपनी सीमाओं के प्रति भी सजग हैं और इसीलिए उन्हें पार करने का साहस भी जुटा पाती हैं.

हम क्या हैं, से हम क्या हो सकते हैं के बीच की दूरी अक्सर अपाट्य बनी रहती है. यही वह कठिन यात्रा है जो हर मनुष्य के लिए ज़रूरी यात्रा है, लेकिन, जिसे बिरले कुछ लोग करते हैं. यह पुस्तक अपने पाठकों को ऐसी ही कुछ यात्राओं से मिलवाती है. यह उन्हें ऐसी ही किसी यात्रा के लिए प्रेरित भी करती है.

शंपा शाह प्रसिद्ध शिल्पकार हैं,  उनकी कृतियाँ देश-विदेश  की अनके प्रदर्शनियों में शामिल हुईं हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सिरेमिक अनुभाग से संबद्ध रहीं हैं. लोक व आदिवासी कला तथा साहित्य आदि पर लिखती हैं. मारिओ वर्गास ल्योसा तथा चेखोव आदि का हिंदी में अनुवाद भी किया है.

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Comments 10

  1. कुमार अम्बुज says:
    4 days ago

    शम्पा शाह ने मनोयोग से लिखा है।
    पठनीय गद्य।

    Reply
  2. Deepak Sharma says:
    4 days ago

    We meet two profound thinkers in this review:Shampa Shah n Gagan Gill.
    Deeply committed to human values and metaphysical musings.
    Shampa Shah’s review of Gagan Gill’s book ‘Itiyaadi’ brings out not only the author ‘s wide spiritual spectrum and insightful study of events and people but also exhibits her own vast reading and high moral ethic.
    A rewarding experience indeed.
    Thank you,Arun Deb ji,for presenting it.
    Deepak Sharma

    Reply
  3. एम पी हरदेव says:
    4 days ago

    लिखते नहीं बन रहा । शम्पा शाह शिल्पकार हैं । इस आलेख के अनेक वाक्य छोटे-छोटे हैं । वाक्यों के शब्द भी शिल्प हैं । मैं शिल्पों को नहीं समझ पाया, लेकिन इन शिल्पों से मेरा तादात्म्य स्थापित हो गया ।
    गगन गिल ने लिखा-हम जिस काम को पहले कर चुके थे उन्हें काफ़ी अर्से: बाद करते हुए अपने आप रास्ते खुलते जाते हैं ।
    रिनपोछे से पहली मिलना मानो कई वर्षों पहले मिलना है । जितना मुझे याद है सात जन्मों के रिश्ते अर्थात् पुनर्जन्म पर विश्वास न करने वाले बुद्धिजीवियों के लिए गगन गिल ने तंज किया है ।
    रोबो अर्थात् रवींद्र नाथ टैगोर के शान्ति निकेतन की स्थापना पर भी गगन जी ने प्रभावी वाक्य लिखा है ।
    अरुण देव जी, शम्पा जी शाह और यहाँ स्क्रीन पर दिखाई दे रहे कौशलेंद्र सिंह जी तथा ७ अन्य व्यक्तियों को भी धन्यवाद ।
    समालोचन का यह अंक संजो कर रखने योग्य है ।
    मैं एक युवक अखिल जिससे पहले कुछ अंकों को अपनी ईमेल में सम्मिलित कराया है, उससे इस अंक का प्रिंट निकलवा लेता हूँ ।

    Reply
  4. Kiran says:
    4 days ago

    शम्पा शाह को पढ़ना दिलचस्प है।

    Reply
  5. प्रेमशंकर शुक्ल says:
    4 days ago

    बहुत सुन्दर गद्य पर उतनी ही बढ़िया टिप्पणी। शम्पा जी ने गगन जी की पुस्तक की अन्दरूनी दुनिया को बहुत संजीदगी से खोला है। समालोचन और अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद इस खूबसूरत यत्न के लिए। सुन्दर पाठ, वाह

    Reply
  6. अलका सरावगी says:
    4 days ago

    अद्भुत लिखा है शम्पा ने! संयोग से मैं भी लिख रही थी एक टिप्पणी इत्यादि पर। इसे पढ़कर उसे फाड़ने का मन हो रहा है

    Reply
  7. मिथलेश शरण चौबे says:
    3 days ago

    सुन्दर लिखा है, किताब पढ़ने की आतुरता को बढ़ाता ।

    Reply
  8. सुशील कृष्ण says:
    3 days ago

    रोशनी की कितनी सुरंगें ऊपर से पीछे जाती हुयीं …

    Reply
  9. दयाशंकर शरण says:
    3 days ago

    मेरी दृष्टि से धर्म भी प्रेम का ही एक रूप है। इसलिए सारी वर्जनाएं और निषेध अधर्म हैं।अंततः यह हमें मुक्त करता है सारे बंधनों से।इसकी परम सिद्धि मोक्ष है।सच तो यह है कि इस संसार में जितने मनुष्य हैं,उतने ही धर्म हैं। यह आत्मीय संस्मरण मन की सांसारिक और आध्यात्मिक यात्राओ के कई अनदेखे प्रदेशों और पड़ावों से होकर गुजरता है जिसे पढ़ना सुखद है।इसमें अपनी शंकाओ का समाधान भी है और आध्यात्मिक तृप्ति भी।आलेख उन सारी मनःस्थियों को एक-एककर छूता है।सभी के लिए साधुवाद!

    Reply
  10. कुलजीत सिंह says:
    1 day ago

    जितनी संवेदनात्मक गहराई गगन गिल के लेखन में होती है उतनी ही गहराई से शम्पा शाह ने उस पर लिखा है।

    Reply

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