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Home » नगालैंड भी यही देस है महाराज: यादवेन्द्र

नगालैंड भी यही देस है महाराज: यादवेन्द्र

किसी समाज को महसूस करने का एक तरीका उसके साहित्य को पढ़ना है. बाहरी हलचलों का पता तो दूसरे माध्यम दे सकते हैं, भीतरी परतों के बीच जो कुछ चल रहा है उसे जानना हो तो कथा-साहित्य प्रामाणिकता के साथ सामने आता है, यहाँ तक कि इसे आधार बनाकर उक्त समाज के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी होते रहते हैं. नगालैंड भारत का हिस्सा है, इसके अतिरिक्त उस समाज के विषय में हमारी दिलचस्पी और जानकारी न्यूनतम है. नगालैंड की वरिष्ठ लेखिका तेमसुला आओ की आठ कहानियों का संग्रह-‘लेबर्नम फॉर माय हेड’ का प्रकाशन 2009 में हुआ था और इसे साहित्य अकादमी सम्मान भी मिला था. इन कहानियों की विवेचना के माध्यम से उस समाज की बनावट और उसके मनोभावों से आपका परिचय करा रहें हैं वरिष्ठ लेखक अनुवादक यादवेन्द्र.

by arun dev
June 2, 2022
in आलेख
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नगालैंड भी यही देस है महाराज: यादवेन्द्र
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नगालैंड भी यही देस है महाराज
यादवेन्द्र

हिंदी समाज इतना आत्मकेंद्रित है कि सम्पूर्ण उत्तर पूर्वी समाज उसकी चेतना से बाहर ही नहीं बल्कि दूसरा या पराया है- शायद ही इन समाजों की धड़कनों की बात हमारे विमर्श में आती है, सिवा आतंकवादी घटनाओं और कुछ-कुछ सालों बाद रोजी रोटी की तलाश में देश के दूसरे हिस्सों में रह रहे उत्तर पूर्वी युवाओं के ऊपर हमलों के.

इधर हिंदी में लिखने वाली अरुणाचल की कुछ युवा लेखकों की किताबें सामने आई हैं पर नगालैंड, मिजोरम और मणिपुर का समकालीन साहित्य हिंदी में अत्यंत दुर्लभ है. इन दिनों मैं नागालैंड की वरिष्ठ और सम्मानित कवि लेखक और नृवंशशास्त्री तेमसुला  आओ  (1945 में जन्म, पद्मश्री और केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कृत) का कहानी संकलन “लेबर्नम फॉर माय हेड” पढ़ रहा हूँ.

यह  मूल रूप में अंग्रेजी  में लिखी आठ कहानियों का संकलन है जो पेंगुइन बुक्स ने 2009 में छापा है. महज  107 पृष्ठों की  दुबली पतली सी यह किताब जिस तरह के विविध मानवीय रंगों से सजी हुई है ऐसा दुर्लभ संयोग आसानी से नहीं मिलता.

नगा समाज में स्त्रियों  के आम जीवन के चित्रण  के साथ साथ नगालैंड के लंबे हिंसक राजनीतिक  संघर्ष और छापामार युद्ध के दिनों की कुछ शानदार कहानियां भी  इस संकलन में शामिल हैं.

मुझे इस संकलन की सबसे अच्छी और रेखांकित की जाने वाली कहानी लगी  “ए सिंपल क्वेश्चन” यानी “एक मामूली सा सवाल”. एक अधेड़ घरेलू स्त्री इमडोंगला के इर्द-गिर्द यह कहानी बुनी गई है जो वैसे तो अनपढ़ है लेकिन अपने समाज के इतिहास और राजनीति से भलीभांति परिचित है. उसका पति तेकाबा गाँव बूढ़ा है (अंग्रेजों के समय से चली आ रही परिपाटी में गाँव  में हुक्मरान  किसी बड़े बूढे को अपना प्रतिनिधि बना कर गाँव  बूढ़ा का दर्जा दे देते हैं जो मुफ़्त कोट कंबल और लाठी जैसी मामूली  सुविधा के बदले गाँव  वासियों पर सरकारी हुक्म तामील कराते थे और आसपास के समाज की गतिविधियों की खबर अफसरों को दिया करते थे) इमडोंगला अपने  काम धाम न करने वाले नाकारा पति से अक्सर दुखी रहती थी लेकिन पति पति होता है, वह अपनी पत्नी को कुछ समझता ही नहीं था. परिवार चलाते रहने को कृतसंकल्प पत्नी एक तरफ सरकारी कारिंदों के अत्याचार से दुखी रहती थी तो दूसरी तरफ नगा विद्रोहियों की आए दिन बढ़ती और नाजायज माँगों  से.

वह कितनी चतुराई के साथ जीवन जीती है इसका एक उदाहरण- एक बार नगा विद्रोही गाँव में आते हैं और  पड़ोसी को मारना पीटना शुरू कर देते हैं,  उनका आरोप है कि विद्रोहियों ने जो टैक्स निर्धारित किया है उसने उसका उल्लंघन करते हुए उन्हें टैक्स के तौर पर कम चावल दिया है. जब उसकी मिन्नतों से कोई रास्ता निकलता हुआ नहीं दिखाई दिया तो इमडोंगला अपने घर के अंदर गई और चुपचाप थोड़ा सा चावल लेकर आई और विद्रोहियों को दे दिया. चावल देते वक्त उसने यह कहा कि मुझे पड़ोसी को यह चावल लौटाना था, चलो उन्हें नहीं लौटा रही हूँ वही चावल तुम्हें दे दे रही हूँ. चावल देते हुए उसने देखा आसमान में बादल छा रहे हैं तो विद्रोहियों को संतुष्ट भी किया और बरसात का भय दिखाकर जल्दी चलता भी कर दिया. अनपढ़ स्त्रियों की इस तरह की हाज़िर जवाबी संकलन में कई जगह दिखती है.

जब सैनिकों को यह बात पता चली तो उन्होंने दंड स्वरूप उस गाँव  में एक आर्मी कैम्प बनाने का फैसला किया. इस कैंप में गाँव  के संदेह के घेरे में आए सभी पुरुषों को उनके घरों से निकालकर बंधक बना कर रख दिया जाता है, 24 घंटे उनके कामकाज उनके बर्ताव पर निगरानी रखी जाती है और उन्हें अपने खेतों में या जंगल में जाकर जीविका के लिए काम करने से रोक दिया जाता है. यह बहुत बड़ी सज़ा  होती है जो होती तो एक जेल है लेकिन जेल का नाम दिया नहीं जाता. इस तरह गाँव वाले एक तरफ सैनिकों  के दमन  का निशाना बनते  और दूसरी तरफ विद्रोही नगाओं  के रोष का शिकार बनते थे. असहायता की स्थिति देखकर तेकाबा को लगने लगा कि बेहतर हो वह गाँव  बूढ़ा के पद से इस्तीफा देकर रोज़ रोज़ के तनाव से मुक्त हो जाए लेकिन उसकी पत्नी इमडोंगला ने ऐसा न करने की सलाह दी क्योंकि तब सैनिकों के मन में यह पक्का हो जाएगा कि उसकी सहानुभूति विद्रोहियों के साथ है. दूसरी तरफ गाँव  वाले उसे कायर कह कर मज़ाक  उड़ाएंगे.

Temsula Ao

आर्मी कैंप में पकड़ कर रखे गए बुजुर्ग गाँव वासियों में तेकाबा भी शामिल था- उनके ऊपर विद्रोही नगाओं को पैसे और सामानों से मदद देने का आरोप था. जब इमडोंगला दिन भर खेतों में काम करके घर लौटी तो इस घटना का पता चला. उसने देखा कि इतनी सर्दी में तेकाबा का लाल कंबल तो घर पर ही पड़ा रह गया- वह बगैर कंबल के रात कैसे काटेगा, यह चिंता लगातार पत्नी को खाए जा रही थी.

इमडोंगला ने आव देखा न ताव, कंबल उठाया और कैंप की तरफ चल पड़ी. बाहर पहरेदार ने जब उसे रोकने की कोशिश की तो अपनी भाषा में जोर-जोर से अपने पति को कुछ कहती हुई जबरन आगे बढ़ती गई. पहरेदार को लगा कि शायद कैप्टन को कोई गोपनीय सूचना देने आई है इसलिए उसे कैप्टन के कमरे के पास तक जाने दिया. जब वह कैप्टन के पास पहुँची तो  देखा कि सभी बुजुर्ग एक साथ बैठे हैं लेकिन उसका पति अलग गुमसुम सिकुड़ा हुआ बैठा हुआ है. उसने दूर से ही निशाना लगा कर लाल कंबल तेकाबा के सामने फेंक दिया जो सीधा उसकी गोद में जाकर गिरा. यह सब इतने झटके के साथ हुआ कि कैप्टन को कुछ समझ ही नहीं आया. तेकाबा ने फौरन कंबल अपने ऊपर डाल लिया, जान में जान आई. तब इमडोंगला ने कैप्टन के पास जाकर  निर्भीकता पूर्वक कहा कि वह अपने पति को साथ ले जाने  आई है और तब तक वहाँ से नहीं जाएगी जब तक उसके निर्दोष पति को छोड़ा नहीं जाता. यह कहते हुए वह वहीं जमीन पर धप्प से बैठ गई. इसके बाद उसने जोर-जोर से अपनी भाषा में कुछ चिल्ला कर अपना रोष प्रकट किया. युवा कैप्टन घबरा गया, उसे लगा कि यह बावली औरत शायद कोई ज्यादा ही हंगामा न कर दे सो कोई बेज़ा  हरकत नहीं की.

बैठे-बैठे  इमडोंगला  ने अपने कपड़े के अंदर रखा हुआ पाइप निकाला और तंबाकू डाल डालकर पीना चाहा लेकिन उसके पास माचिस नहीं थी. सामने कैप्टन जहाँ  बैठा था उसके सामने की टेबल पर उसे माचिस की डिबिया दिखाई दे रही थी. वह उठी और उसने माचिस की तीली निकालकर अपनी पाइप सुलगा ली. उसे लग रहा था कि जब तक वहाँ  ऐसे बैठी है, कम से कम तब तक कैंप के सैनिक उसके सामने उसके पति के साथ मारपीट नहीं ही करेंगे.

वहाँ  बैठे-बैठे उसने कैप्टन की आँखों  में आँखें  डाल कर सवाल किया:

“देखो यह सभी तुम्हारे पिता की उम्र के हैं. तुम्हारे पिता को भी ऐसे पीटा जाए तो तुम्हें  कैसा लगेगा? इन सब को एक तरफ तुम पीटते हो दूसरी तरफ नगा विद्रोही प्रताड़ित करते हैं, गाँव  में आकर इन्हें अपमानित करते हैं. साफ-साफ बताओ, तुम आखिर हमसे चाहते क्या हो?”

बिल्कुल सामने बैठकर नज़र मिला कर  सवाल जवाब करती इस दृढ़ निश्चयी औरत के किसी सवाल का कैप्टन के पास जवाब नहीं था. उसने उसी पल अपने सैनिकों को बुलाकर उन दोनों को रिहा करने का हुक्म दिया.

जाते जाते इमडोंगला ने झटके में सामने पड़ी माचिस उठा ली और जेब में डाल कर घर चली गई. कैप्टन ने अपनी माचिस की डिबिया ढूंढी लेकिन मिली नहीं. उसे भान हो  गया कि जाते-जाते वह बूढ़ी औरत ही उसे उठाकर ले गई होगी- उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे एक फूहड़ गँवार और अनपढ़ औरत ने कैप्टन के संपूर्ण सैनिक कॉन्फिडेंस की चूलें हिला कर उसकी सत्ता को चुनौती दे डाली.

यह कहानी इस  बिंदु पर खत्म होती है जहाँ  उस युवा सैनिक अफसर के मन में भी यह सवाल गूँजता है कि क्या उसे अपने घर से दूर आकर एक अपरिचित इलाके में  अपना जीवन अपनी पारम्परिक शैली में जीते नगा ग्रामीणों के जीवन में ऐसा क्रूर हस्तक्षेप करने का अधिकार है?

पर क्या इमडोंगला का पूछा  यह सवाल सचमुच इतना मामूली है? क्या मुश्किल और नैतिक सवाल  सिर्फ़ पढ़े लिखे ज्ञानी ही कर सकते हैँ? दैनिक जीवन में ईमानदारी से मेहनत मजूरी कर स्वाभिमान से जीवन जीने वाले लोगों के बुनियादी सवाल कई बार बड़े से बड़े पराक्रमी को निरुत्तर कर देते हैं- यह अलग बात है कि ऊपरी सत्ताजनित अहंकार की जकड़न में इंसानियत या तो मर चुकी होती है या डर से कुछ बोलने की औकात में नहीं होती. पर इन सवालों से देर सबेर आमना सामना तो होना ही है. यह कहानी मनुष्यता से पूछे गए ऐसे ही एक बुनियादी सवाल से रूबरू कराती है जिसके असर से देर तक निकलना मुमकिन नहीं हो पाता.

यहाँ मैं बिलकुल अलग पृष्ठभूमि पर लिखी दूसरी एक बेहद खूबसूरत कहानी  की बात भी करूँगा- “लेबर्नम फॉर माय हेड” शीर्षक कहानी जिस  को मैं “अमलतास की छाँव ” कहता हूँ- इसमें अच्छे संपन्न परिवार की बूढ़ी मालकिन लेंटिना के मामूली से दिखने वाले पर हजार तरह की अड़चनें पार कर पूरे होने वाले जीवन भर संजोए एक सपने के पूरा होने का कदमवार ब्यौरा है- कि जब वह मरे तो उसके माथे के ऊपर पीले फूलों से गदरा जाने वाले अमलतास का पेड़ हो. उसके पास सुख सुविधा के लिए सब कुछ है पर बरसों बरस से संजोकर रखी यह अपूर्ण ख्वाहिश भी है जो बार-बार की कोशिशों के बाद भी कभी पूरी न हो सकी. परिवार के लोग अमलतास के प्रति उसके ऐसे गहरे  (दुरा) आग्रह को देखकर उसे बावला कहने लगे थे. जिस दिन उसके पति का निधन होता है वह ज़िद  करके उसके जनाजे के साथ कब्रगाह तक जाती है पर वहाँ खड़े-खड़े यह सोच कर अनायास मुसकुरा पड़ती है कि अब जल्दी ही कब्र के हवाले किए जाने की उसकी बारी है सो उससे पहले उसे यह सुनिश्चित कर लेना है कि घर में तो नहीं संभव हो पाया पर कब्र के ऊपर अमलतास के फूलों का साम्राज्य हो.

अगले दिन से ही वह अपने लिए कब्रगाह में अनुकूल जगह ढूंढने की मुहिम शुरू कर देती है, जहाँ पेड़ लगाने की जगह और गुंजाइश हो. उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपनी मृत्यु के पहले अमलतास को फलता फूलता देखने का इंतजाम करना रह गया था और इसमें उसने अपने बेटे बहू को शामिल नहीं किया बल्कि गोपनीयता के साथ सारा इंतज़ाम पूरा करने के लिए उसे सबसे विश्वस्त बूढ़ा ड्राइवर बाबू लगा. कब्रों से भरे  कब्रगाह में ऐसी जगह मिलना मुश्किल था सो उस  के पड़ोस में लगी हुई जमीन खरीद कर (जो इसी कब्रगाह का विस्तार हो) लेंटिना  अपनी पसंद की खुली जगह में अपनी कब्र बनाना चाहती है जिसके आसपास पत्थरों से बने स्मृति निर्माण न हों बल्कि उसके प्रिय अमलतास के अलावा अन्य प्रजातियों के पेड़ हों और कब्रों के ऊपर नाम और परिचय लिखने वाले पत्थर भी न हों. जगह की कमी से जूझते कब्रगाह की  इंतज़ामिया कमेटी को लेंटिना की बगैर पैसा लगाए अतिरिक्त जमीन  मिल रही थी सो उसकी निर्दोष सी शर्तें मानने में क्या एतराज़  होता. बाबू ने नर्सरी से लाकर अमलतास का पौधा लेंटिना की  पसंद की जगह पर रोप दिया,वह धीरे-धीरे बढ़ने लगा. दिनों दिन अशक्त होती जा रही लेंटिना का चलना फिरना सीमित होता गया पर बाबू नियमित तौर पर उसे प्रगति का ब्यौरा देता रहता.

एक दिन जब बाबू ने आकर अमलतास में पहली बार खिले फूलों की इत्तिला उसे दी तो लेंटिना उन्हें खुद जाकर अपनी आँखों से निहारने को उतावली हो गई. जैसे तैसे गदराये फूलों को  देख कर लौटी तो बिस्तर पर निढाल पड़ गई,सुबह हुई तो पर वह फिर कभी उठी नहीं. कैसी विडंबना है कि  एक हर तरह से सक्षम स्त्री का जिंदा आँखों से देखा सपना जीते जी नहीं पूरा हो पाया, मरने पर ही पूरा हुआ.

संकलन की सबसे छोटी कहानी फ्लाइट यानी उड़ान है जिसमें एक छोटा बच्चा एक दिन खेत में एक केटरपिलर को पकड़ लेता है और  घर के अंदर लाकर एक बड़े से गत्ते के डिब्बे के अंदर बंद कर देता है. यह कवितानुमा कहानी केटरपिलर की जुबानी ही कही गईं है. यह कीड़ा तो बच्चे का खेल है पर अंधेरे में कैद कीड़े को कैसा लगता है, उस छटपटाहट को अभिव्यक्त करती यह कहानी अपने शिल्प में अनूठी है. बच्चा बीमार पड़ जाता है और अपनी परेशानियों के बीच कीड़े से उसका साथ धीरे-धीरे छूटने लगता है.

अंततः केटरपिलर के पंख फड़फड़ाती तितली बनने पर जब अंधेरी कैद से उसे मुक्ति मिलती है तो उसकी उड़ान कितनी उल्लास पूर्ण होती है, यही कहानी का कहन है.

द बॉय हु सोल्ड द एयरफ़ील्ड यानी हवाई पट्टी बेच देने वाला लड़का. यह विनोद पूर्ण तरीके से एक नगा युवक के बारे में कही गई बेहद दिलचस्प कहानी है जो किन्हीं कारणों से अपने घर से निकल कर असम के जोरहाट में पहुंच जाता है और किसी असमी परिवार में काम करने लगता है. एक दिन गोरे  सैनिकों की गाड़ियों के काफ़िले को देखकर उसे बड़ा मज़ा आता है और वह उनकी गाड़ी में सवार होकर उनके कैंप पहुंच जाता है. यह वह समय है जब विश्व युद्ध समाप्त हो चुका है और  अमेरिकी सैनिक वापस लौटने की तैयारी कर रहे हैं. वह बड़ी खुशी  से उनके साथ जो भी काम कहा जाता वह दौड़-दौड़कर कर देता है और वे जो कुछ भी खाने पहनने को दे देते हैं उनसे खुश रहता है. थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी उसने उनके साथ रहकर सीख ली और उनका बेहद विश्वासपात्र बन गया. जब अमेरिकी सैनिकों के अंतिम रूप से जाने का समय आया तो उन्होंने सेवा भाव से खुश होकर इस विश्वासपात्र युवक के लिए कुछ करने की सोची- वे अपने साथ न ले जाए जाने वाले सारे साजो सामान, कबाड़ और खाने पीने का बचा हुआ राशन उसके हवाले करने के बाद एक सादे कागज पर उसे यह लिखकर दे गए कि यहां कैंप के पास अंदर जो हवाई पट्टी बनी हुई है उसका मालिक अब से वह रहेगा.

भोले भाले नगा युवक को यह बहुत बड़ी संपत्ति लगी और वह कैंप के आसपास के गांवों में जाकर वह कागज दिखा-दिखा कर लोगों को अपने कब्ज़े की जमीन बेचने की पेशकश करने लगा. भोले वाले ग्रामीण जो शायद उस कागज पर क्या लिखा है यह पढ़ भी न पाते, उसकी बातों में आ गए और थोड़े मोल तोल के बाद सौदा पक्का हो गया. नगा युवक ने पैसे लिए और उन्हें कागज थमा कर चलता बना. कुछ दिनों बाद जब सरकारी अफसर वहां आए और हवाई पट्टी पर कब्जा करने के लिए नाप  जोख करने लगे तो गांव वालों ने कागज दिखाकर  जमीन खरीदने की बात बतायी. पर उस सादे कागज की वैधता क्या थी?  हवाई पट्टी के भू स्वामी नगा युवक को बहुत ढूँढा गया पर कोई अता पता नहीं चला.

अपनी कहानियों के बारे में तेमसुला आओ किताब की भूमिका में लिखती हैं कि स्मृति का मामला सरल नहीं पेचीदा है- यह  अपने आप फ़ैसला करता है कि किस चीज को संजोना है और किस बात को त्याग देना है. कभी-कभी बेहद मामूली सी बात बहुत बड़ी और अपूरणीय क्षति  को फिर से स्मरण करने की प्रक्रिया चालू कर देती है. मुझे याद है कि कैसे मेरी माँ  की बनाई  धूप में सुखाई मछली की खास तरह की करी उनकी मृत्यु के बहुत सालों बाद तक मुझे उनकी याद दिलाती रही. दरअसल हमारे पारिवारिक भोजन में उस पकवान की अनुपस्थिति ने किसी और बात से ज्यादा माँ  की मृत्यु को अमली जामा पहनाया. जब मैं बड़ी और परिपक्व हुई तब मुझे यह समझ आया कि कैसे अदृश्य छन्नियाँ  स्मृतियों को बड़ी सावधानी से चुन-चुन कर छानती हैं कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है… और इन तमाम स्मृतियों के इस विशाल भंडार में से क्या संभाल कर रखना है और किससे मुक्त हो जाना है.

मुझे लगता है जीवन अपना घर संसार साफ़ सुथरा और सलीके से रखने के लिए खुद ही अपना एक इनबिल्ट मेकैनिज्म विकसित करता है जिससे इंसान सुकून और शांति के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सके.

पर जब ऐसी स्मृतियाँ  आप की नहीं बल्कि आपके आसपास किसी अन्य की होती हैं तब आप उसके साथ क्या सुलूक करते हैं- और खास तौर पर तब जब यह स्मृतियाँ  क्लेश और यंत्रणा की और सिर्फ क्लेश और यंत्रणा की ही हों? क्या आप उसे परे झटक देते हैं यह कहते हुए कि यह मेरी यंत्रणा नहीं है, इस से मुझे क्या लेना? मैं मान भी लूँ  कि आप ऐसा कर सकने में कामयाब हो जाते हैं तो बाद में भी क्या आप वही व्यक्ति बने रहेंगे जो अपने साथ के इंसान के दुख दर्द जानने के पहले हुआ करते थे? मुझे इस पर कतई यकीन नहीं है कि कोई ऐसा कर सकता है.

अपनी कहानियों में मैं लोगों के जीवन की ओर फिर से पलट कर देखने की कोशिश करती हूँ  जिनके दुख दर्द अब तक सार्वजनिक होने से बलपूर्वक दबाए छुपाए और अस्वीकार किए जाते रहे. कई लोग यह कहते हैं कि इस तरह की यंत्रणा उन्होंने कभी झेली ही नहीं इसलिए उन्हें इससे लेना-देना क्या हो सकता है- यह बिल्कुल उसी तरह का तर्क  है जैसे अब कई लोग कहने लगे  हैं कि होलोकास्ट कभी हुआ ही नहीं. जब लोग यह कहने लगें कि इन सब से उनका कुछ लेना-देना नहीं कोई सरोकार नहीं तो इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य के मन के किसी कोने में यह निष्ठुरता छुपी बैठी है जो अन्याय और मनुष्य विरोधी अत्याचार तब तक देखती और बर्दाश्त करती रहती है जब तक इसके पंजे सीधे उस तक नहीं पहुँचते.

हम नागाओं का अन्तर्भूत जातीय ज्ञान हमेशा से मनुष्य के खुद दूसरे मनुष्य(पड़ोसी) के साथ शांति पूर्वक मिलजुल कर और प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठा कर रहने पर बल देता है. जब नगा इस जीवन दृष्टि को अपने जीवन में पूरी तरह फिर से उतार लेंगे और भविष्य में एक नई इबारत लिखेंगे तब हम यह कह सकते हैं कि पिछले दशकों की बेहद उथलपुथल भरी स्मृतियां  अपनी भूमिका अच्छे ढंग से निभाने में कामयाब हुई हैं.

तेमसुला आओ की कृतियों के अनुवाद भारत की अनेक भाषाओं में तो हुए ही हैं, जर्मन और फ्रेंच जैसी विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं. उन्होंने  फुलब्राइट फेलोशिप के अंतर्गत अमेरिका के अपने प्रवास में इंडियन जनजातियों की परंपराओं को जीवित रखने के महत्वपूर्ण कामों को देखा और भारत लौटकर अपने समाज के लिए उसका उपयोग करने का संकल्प लिया. 12 वर्षों तक नगालैंड के ग्रामीण इलाकों में घूम-घूम कर नगा संस्कृति और परंपरा की वाचिक सामग्री एकत्र की जिसे “आओ नगा ओरल ट्रेडिशन” शीर्षक संकलन में शामिल किया. नगा समाज का यह बेहद प्रतिष्ठित दस्तावेज माना जाता है.

ऊपर चर्चित संकलन के अतिरिक्त ऑन बीइंग नगा, बुक ऑफ सॉन्ग्स: कलेक्टेड पोएम्स  1988-2007, सॉन्ग्स  फ्रॉम  हिअर एंड देयर, ओसेनलाज़ स्टोरी,  वंस अपॉन ए लाइफ: बर्न्ट करी एंड ब्लडी रैग्स; ए मेमॉयर ,दीज़ हिल्स  कॉल्ड होम : स्टोरीज़  फ्रॉम ए  वार जोन, द टॉम्बस्टोन इन माय गार्डन: स्टोरीज़ फ्रॉम नगालैंड उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं.

भारतीय समाज को समग्रता में समझने के लिए उत्तर पूर्व का, खास तौर पर हिंसा और टकराव से लम्बे समय तक जूझते नगालैंड और मिजोरम का साहित्य जरूर पढ़ना चाहिए- इसमें न सिर्फ़ एक अलग गंध, स्वाद है बल्कि यह हमें संकट से बेहतर ढंग से उबरने और बेहतर इंसान बनने की राह दिखाता है.

यादवेन्द्र
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर – सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना – 800014/ मोबाइल – +91 9411100294

Tags: 20222022 आलेखतेमसुला  आओनगालैंड का साहित्ययादवेन्द्र
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Comments 6

  1. Daya Shanker Sharan says:
    3 years ago

    नागालैण्ड के बारे में हमनें यही सुना था कि वहाँ की जंगली जनजातियां भोजन के लिए कुत्ते-बिल्ली तो दूर आदमियों का भी शिकार करती हैं।मुझे नहीं पता यह कहाँ तक सच है पर कुछ ऐसी ही धारणा या भ्रांतियाँ मन में बैठी हैं।वहाँ के कथा साहित्य पर यह आलेख पढ़कर तसल्ली हुई।जीवन की हलचल हरजगह एक जैसी है।साधुवाद !

    Reply
  2. अरुण कमल says:
    3 years ago

    यादवेन्द्र जी हिन्दी के खाते में लगातार
    इतर मुद्राएँ जमा करके हमें समृद्ध करते हैं।तेमसुला विशिष्ट कथाकार हैं जिन्हें बहुत चाव से पढ़ा गया है।आपको भी आभार।

    Reply
  3. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    3 years ago

    पूर्वोत्तर में बहुत अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है लेकिन उसकी खबर हमें नही मिलती । आपकी समीक्षा बहुत अच्छी है । कोई प्रतिनिधि कहानी पोस्ट करे तो मजा आ जाय ।

    Reply
  4. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    अपने ही देश की एक श्रेष्ठ लेखिका की कहानियों से परिचय कराता बेहतरीन आलेख। यादवेंद्र जी और समालोचन का आभार।

    Reply
  5. अशोक अग्रवाल says:
    3 years ago

    हम विश्व साहित्य की बात करते हैं लेकिन अपने देश के बारे में कितना कम जानते हैं, विशेषकर पूर्वोत्तर भारत के प्रांतों के नागरिकों और उनके साहित्य के बारे में। इसका एहसास मुझे वर्ष 2000 के आसपास पूर्वोत्तर यात्रा के दौरान मिजोरम के प्रसिद्ध लेखक जेम्स डेकुमा से लंबी मुलाकात के बाद हुआ था और मैं चकित रह गया था कि चाहे उन्हें हम भारत के अन्य प्रांत के निवासी जानते भी नहीं हो लेकिन अकेले मिजोरम में उनकी किताब के छपते ही पांच हजार प्रतियों का पहला संस्करण मात्र 1 सप्ताह में खत्म हो जाता था। पूर्वोत्तर के प्रांतों का साहित्य कम महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन हमारे यहां यादवेन्द्र जैसे गिनती के प्राणी होंगे जो हमें वहां के साहित्य के बारे में परिचित करा महत्वपूर्ण कार्य संपन्न कर रहे हैं। यादवेन्द्र जी को बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने नागालैंड की एक प्रमुख लेखिका से हमें परिचित कराया।

    Reply
  6. Jamuna Bini says:
    3 years ago

    तेमसुला जी मात्र पूर्वोत्तर की ही नहीं बल्कि देश की बेहतरीन लेखिकाओं में से एक हैं। उनकी कहानियों की उत्कृष्ट विवेचना के लिए आपको बधाई। उम्मीद है आपकी समीक्षा के माध्यम से हिंदी जगत पूर्वोत्तर के विशिष्ट समाज-संस्कृति से किंचित परिचित हो सकेंगे। पूर्वोत्तर और हिंदी जगत के बीच मात्र भौगोलिक दूरी ही नहीं, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक दूरी भी अधिक है।

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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