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समालोचन

Home » वर्चस्व और अमीरी की रुग्णता का संधिवात: कुमार अम्‍बुज

वर्चस्व और अमीरी की रुग्णता का संधिवात: कुमार अम्‍बुज

महत्वपूर्ण चेक लेखक बोहुमिल ह्राबाल के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म ‘I Served the King of England’ (2006) आपने शायद देखी हो. ‘विश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज’ की यह कड़ी इसी पर आधारित है. अमीरों की दुनिया अपनी सघन विद्रूपता के साथ इस आलेख में अचूक ढंग से खुलती है, विडम्बनाएँ इसे और नुकीला बनाती हैं. पार्श्व में नाज़ीवाद का अतिरेक इसे हमारे समय से जोड़ देता है. व्यंग्य की छीलती हुई तेज धार है. भाषा की तरलता इसे गद्य की ऊंचाई देती है. अमीरी का ऐसा प्रतिपक्ष हिंदी में तो अपूर्व ही है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 4, 2022
in फिल्म
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वर्चस्व और अमीरी की रुग्णता का संधिवात:  कुमार अम्‍बुज
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इदं मम! इदं मम!!
वर्चस्व और अमीरी की रुग्णता का संधिवात

कुमार अम्‍बुज

हमारे नायक के लिए पंद्रह बरस बाद सुधार-गृह का दरवाज़ा खुलता है और वह अपराधी बाहर आता है जिसके पास सुधार के लिए कुछ बचा नहीं था. अब वह केवल असंभव संयोगों, वैभवपूर्ण आकांक्षाओं, अकंपित चालाकियों, मौक़ापरस्‍त चुप्पियों और कुछ विस्‍मयकारी क्षणों की निर्मिति से भरे अपने औपन्‍यासिक जीवन को याद कर सकता है. यही उसकी अंतिम ख़ुशी है. सबक़ है. प्राप्य विवश शग़ल है. पश्चाताप है.

किसी स्थिति का सौभाग्य में बदल जाना उतना रोमांचक नहीं जितना उस सौभाग्य का दुर्भाग्य में बदल जाना. उसका यही जीवन रहा. यह भी हुआ कि अयोग्यताओं के बावजूद, उसे वह सब मिलता रहा, जिसकी कामना उसने की थी. क्योंकि वह अपने अस्तित्व और मनुष्यता की कीमत पर भी उसे पाना चाहता था. लक्ष्‍य स्‍पष्‍ट था: ‘मुझे अरबपति होना है.’

रेलवे स्‍टेशन पर हॉकर होते हुए वह इतना तो कर ही सकता था कि लोगों को सैण्‍डविच बेचकर, खुल्ले रुपये-पैसे देने में इतनी देर कर दे कि ट्रेन ही चल दे. फिर कुछ लोग ग़रीब या अनाथ समझते हुए भी पैसे छोड़ सकते हैं. लेकिन इससे कोई अरबपति नहीं बन सकता. किसी अमीर की लोलुपता, मूर्खता की हद तक दानशीलता या अप्रत्याशित दया के दुर्लभ संयोग ही सहायता कर सकते हैं.

पैसे में आख़िर कितनी ताक़त है, जानने के लिए उसने एक दिन मुट्ठी भर पैसे हवा में उछाल दिए. जब वे सिक्के नीचे ज़मीन पर गिरे तो उसने चमत्कार देखा. उन्हें उठाने के लिए हर कोई तत्पर था. कोई आँख बचाकर, कोई एकदम लपककर, कोई बेपरवाह होने का अभिनय करते हुए, कोई बेशर्मी के साथ. सुंदर स्त्रियाँ, सभ्य दिखते पुरुष, ग़रीब, अमीर, फटेहाल, बाबू, बनिया- सब लोग झुककर, रेंगकर, एक-दूसरे को धकियाते, उन पैसों के लिए तत्पर, जो उनके नहीं थे. जिन पर उनका कोई हक़ नहीं था, जिसके लिए उन्होंने कोई श्रम नहीं किया था. जो उनका पारिश्रमिक नहीं था. उन्हें बस इतना ही तो करना था: झुको. और झुको. और पैसे उठा लो.

इस ज़रा से प्रयोग से उसे पता चला कि पैसा चुंबक है. और इस धनचुंबक में केवल एक दिशा की तरफ़ घूमनेवाला ध्रुव नहीं है. इसके ध्रुव दसों दिशाओं में घूर्णन करते हैं. यह बहुध्रुवीय चुंबक है. आकार में छोटा. प्रभाव में विशाल. इसमें कोई विकर्षण नहीं. सिर्फ़ आकर्षण है. एक पैसा भी फेंको तो घुटनों के बल लोग उठाएंगे. ज्‍़यादा के लिए धूल-मिट्टी में हाथ सानकर. कालिख में लिपटकर भी. सोचकर कि पैसा तो हर कलंक मिटा देगा. गिरे हुए पैसे पर, गिरे हुए आदमी का पहला अधिकार है.

गिरो और उठाओ. मध्‍यवर्गीय, उच्‍चवर्गीय, विजित-पराजितवर्गीय, भिक्षावर्गीय, निम्‍नवर्गीय, सभी लोग रास्‍ते में पड़े, मुफ़्त के पैसे उठा लेते हैं. होड़ लगाकर, जान जोख़‍िम में डालकर, जैसे वह उनकी ही संपत्ति थी जो खो गई थी और अब योग-संयोग से उन्‍हें रास्‍ते में अचानक वापस मिली है. राह में गिरे हुए धन के वे ही सच्‍चे उत्तराधिकारी हैं. इस लपक के बिना अमीर नहीं बना जा सकता. प्रारंभ में वह ख़ुद भले एक वेटर ही बन पाएगा लेकिन उसे पंचसितारा होटल के मालिक होने का स्वप्न जीवित रखना है.

छोटी आँखों में भी बड़े स्वप्न आ सकते हैं.
उनका मिनिएचर तो आ ही सकता है.

(दो)

बियर के खाली काँच के गिलासों को आँखों के आगे रखकर बार में बैठे लोगों का ज़रा जायज़ा लें. लोगों के विरूपित चेहरे दिखेंगे. गैर आनुपातिक नाक, माथा, भवें, जबड़े, कान, मूँछें, होंठ. भद्दे, हास्‍यास्‍पद. जैसे अवतल, उत्तल और उनके मेल से बने किसी विशाल आईनाघर में सभ्‍यता की असभ्यता प्रतिबिम्‍बित होने लगी है. हम एक हँसीघर में आ गए हैं. चेहरे, गरदन और लंबोदर की चर्बी, जिसकी फ़िक़्र अमीरेज़ादे सबसे कम करते हैं, वही सर्वाधिक विद्रूप दिखती है. आड़े-तिरछे ये चेहरे ही उनके व्यक्तित्व के वास्तविक परिचय हैं. परोक्ष भीषणता प्रत्यक्ष हो रही है.

ये रईस पूरी दोपहर से रात के तीन पहर तक शराब की चुस्कियाँ लेते हुए एक ऐसे पेड़ पर बातचीत कर सकते हैं जो अहाते में है लेकिन उनके लिए प्रकृति का हिस्सा नहीं है. बातचीत यानी चीख़ना, चिल्लाना. और वह हँसी जो मादकता से ही मुमकिन है. जो आपको अपने समय-समाज से उन्मुक्त ढंग से निरपेक्ष और विलग कर देती है. फिर आप ख़ुद की निगाह में विशिष्ट गर्वीले हो जाते हैं. जो आपको भरोसा दिलाती है कि आप पूँजीआश्रित विकास के पिरामिड की नुकीली लेकिन चमचमाती ऊँचाई पर बैठे हैं. कभी यह विमर्श संसार की सर्वश्रेष्ठ शराब के निर्णय पर केंद्रित हो जाता है या रेस्तराँ में बैठी नवयौवना पर. कि वह किस कदर सुलभ और प्राप्य है.

वे लोमहर्षक अमीर थे.
जो अपनी टपकती लार की एक बूँद में पूरे शहर की काम्‍य स्त्रियाँ को डुबो सकते थे. दूसरी बूँद में उपलब्ध संसार के सारे श्रेष्ठतम भोज्‍य-पेय पदार्थों को. जिनके अट्टहास के आगे साधारण आदमी की घिग्‍घी बँध जाती थी. जिनके पास हर चीज़ का उत्तर पैसा था. और यह विश्वास था कि पैसा अनश्वर है. बाक़ी सब नश्‍वर है. ऐसी रईसी से लथपथ लोगों के सामने भी वह कुछ पैसे फ़र्श पर चुपचाप फेंककर देखता था. अप्रत्याशित रूप से वे भी ज़मीन पर पड़े लावारिस चंद सिक्कों के लिए, विपन्‍न लोगों की तरह लपकते थे. पहले मैं, पहले मैं. इदं मम! इदं मम! की प्रतियोगिता करते हुए. उनमें से कोई नहीं कहता था- इदं न मम, इदं न मम‼ मुफ़्त का पैसा अमीरों को हमेशा चाहिए. इसमें क्या लज्जा. बल्कि उन्हें सबसे ज्‍़यादा चाहिए. यही उनके जीवन का सुभाषित था.

इन कुबेरों को ईश्वरीय अनुकंपा भी अनुदान की तरह चाहिए. अन्यथा वे बोली लगाकर ईश्वर को अपने पक्ष में कर सकते हैं. वे किसी को याद नहीं रखते, सिवाय ख़ुद के. दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण वे स्वयं हैं या उनका पैसा. यही अमीरी का प्रधान चरित्र है. उसने यह सब देखा और प्रेरित हुआ. संसार में जिसे जैसा होना है, वैसे उदाहरण और प्रेरणाएँ भी वह अपने आसपास से उपलब्ध कर लेता है.

नशे में अति उदार हो जानेवाले धनिकों को ठगने का मौका भी वेटर्स को मिल सकता है. अन्‍यथा उनसे सीखने का. रुपयों से अधिक सुंदर क्या हो सकता है. बैंक नोट अगर फ़र्श पर, बिस्‍तर पर, सोफ़े पर बिछाए जा सकें तो मनोरम दृश्य बनता है. अनुपम कलाकृति की तरह. जिसे यह दृश्य नहीं लुभाता, वह असुंदर होगा. दुनिया उसके लिए बदसूरत ही बनी रहेगी. लेकिन हमारा नायक ऐसा नहीं है. उसके सौंदर्यबोध में बैंक नोट्स पर आसक्ति प्रधान है. वह धन का उपासक है.

आप चाहें तो सेल्‍समैन से भी सीख सकते हैं.
याद रखें कि एक अमीर आदमी कभी न कभी सेल्‍समैन होता है. ग़ैर ज़रूरी चीज़ों का प्रचारक होना, धनवान हो सकने की पहली सीढ़ी है. जि‍स तरह संवेदनशील बने रहने के लिए ज़रूरी है कि आप अपने भीतर एक बच्‍चा बचाये रखें. इसी तरह धनपति होने के लिए आवश्यक है कि आप अपने भीतर एक सेल्‍समैन बचाये रखें. ऐसा विक्रेता जिसमें सब कुछ बेचने का आत्‍मविश्‍वास हो. बेचने के लिए जिसकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध हो. वही उसकी आधार योग्यता हो. जो भरोसा रखता हो कि मैं ऐसा हठी, दूरदर्शी सेल्‍समैन हूँ कि एक दिन दुनिया बेचकर सबसे बड़ा आदमी हो सकता हूँ. ‘क्‍या बेचना है’ के साथ जिसे यह भी पता हो कि ‘किसे बेचना है’. फिर वह सर्वोच्च पद तक पहुँच जाएगा. इस प्रतिभा के साथ आप महज़ एक आधुनिक तराजू बेचकर भी रईस हो सकते हैं, ऐसी तुला जो कर्क रेखा और भूमध्‍य रेखा पर एक सरीखा वज़न लेकर दिखा सके. जो उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव पर एक-सा सटीक भार ले सके. जो गुरुत्वाकर्षण को धूमिल कर दे.
तब पैसा आपके क़दमों में संसार को डाल देगा.
वरना आप संसार के क़दमों में पड़े रहिए.

‘I served the king of england’ फ़िल्म से एक दृश्य

(तीन)

हमारे नायक को अमीर बनना था इसलिए वैसी हरकतें भी करना था. मानो महत्वाकांक्षा को याद रखने की यह कोई तरकीब थी. एक रात उसके हाथ में कुछ ज्‍़यादा रकम आई तो वह अपनी प्रिया के पास चला गया. उस पण्‍यकामिनी के पास जो जब उसके रेस्तराँ में आई थी तो वहाँ मद्यपान करते रईसों में खलबली मच गई थी. झीनी, बारिश में भीगी पोशाक में उसकी देहयष्टि ने जर्जर हृदय के मालिक धनपतियों को अपलक कर दिया था. देह के कामुक दर्शक से पददलित करके, उन्हें निरीह याचक में बदल दिया था.

वह गणिका, नायक के प्रेमिल नवोन्‍मेष के आगे पराजित हो गई. उस आनंदातिरेकी अनुभव के बाद जैसे वह उत्तुंग शिखर पर विराजमान हो गया. उसकी सुराही सम ग्रीवा में पड़ी मनकों की चुस्‍त माला, उससे उठती नीलाभ रोशनी भला कैसे विस्मृत की जा सकती है. और वह पीतवर्णी उज्ज्वल देह, जिसकी सज्जा उसने ही की. वह वल्‍लभा नहीं, उसका पहला प्रेम थी. एक पुष्पित डाली जो किसी भी वृक्ष की शोभा बन सकती थी. जो किसी भी उद्यान में असमय वसंत के आने की उद्घोषणा कर सकती थी. हवाएँ जिसकी सुगंधित सूचना दूर तक ले जा सकती थीं.

पूंजी से लिथड़े समाज में सम्मानित नागरिक बने रहने के लिए अर्हता होती है: ‘अपने दुराचार को गोपनीय रखो.’ लेकिन हमारे नायक के प्रगल्‍भ आचरण ने उसे अभिजात्‍यवर्ग की ईर्ष्या और क्रोध का पात्र बना दिया. उसे अपनी नौकरी गँवाना पड़ी. मगर जैसे यह उसके किसी सौभाग्य की अनुशंसा थी. अब वह और अधिक वैभवपूर्ण होटल में वेटर बन गया. इस होटल में मालिक की ‘अमीरी की तूती’ बोलती थी. उसकी सीटी की आवाज़ पर सब कुछ तत्क्षण सक्रिय होता था- नृत्‍य, संगीत, स्‍वागत और पटाक्षेप.
जितना बड़ा रईस, उतनी बड़ी विद्रूपताएँ.

यह होटल बुज़ुर्ग हो चुके अनिंद्य अमीरों का प्रिय क्रीड़ा स्‍थल था. वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्राहक थे. जो एक नग्न पिंडली, जंघा या कुचाग्र पर सब कुछ कुर्बान कर सकते थे. उच्चतम मूल्य की मुद्रा को जलाकर उससे सिगरेट सुलगा सकते थे. तन-मन से क्लांत इन रईसों के लिए नाज़ुक हाथों से शैम्‍पेन का एक गिलास पीना, जीवन का चरमानंद था. उनके पास अपार पैसा था लेकिन बाक़ी वह सब उनमें से निचुड़ गया था जो उन्हें मनुष्य बनाए रखता. चरम अमीरी किसी को मनुष्य नहीं रहने देती.

ये वयोवृद्ध अमीर होटल की ललनाओं के साथ अपनी उम्र और बीमारियाँ भूल जाते थे. हमारे नायक ने इन अमीरों से अधिक ख़ुश और क्रीड़ाप्रेमी किसी को नहीं देखा. ये रईस श्रेष्ठ नस्ल के श्‍वानों की तरह, उनके साथ कूदने-फाँदने तैयार रहते थे. ये इतने साधन संपन्न थे कि ग्रीष्‍म में हेमंत का और शरद में वसंत की शामों का आनंद ले सकते थे. ऋतुएँ उनकी अधीनस्थ थीं. इनमें सबसे कर्मठ, अपने समुदाय में ईर्ष्या पैदा करनेवाले वे अमीर थे जो रात भर शराब पी सकते थे, लड़कियों को अपनी गोद में बैठाकर कुछ खा-खिला सकते थे. जो दिखावे के लिए सेकंड के दसवें भाग में ही असीम धनराशि खर्च कर सकते थे. उनकी समस्या यह थी कि आख़‍िर इतने पैसे का क्‍या किया जाए. वे हर तरह से बीमार थे. लेकिन युवतर अबलाओं में अपनी चिकित्सा खोजते थे. मानो उन्हें अपनी बीमारियों को और अधिक असाध्य बनाने का कार्यभार मिला हो.

रईसों की इस ऐशगाह में, बार की टेबल पर मिनट भर में पूरे शहर की संपत्तियों के सौदे हो जाते थे. इनकी अमीरी, जीवन-जगत के दो-तिहाई हिस्से को क़ब्‍ज़े में लेती हुई, समुद्रों की तरह अथाह थी. अंतरिक्ष की तरह असीम थी और रोज़-रोज़ विस्तृत होती चली जाती थी. वे सितारों की तरह जगमग थे. कुछ सूर्य से भी अधिक विशाल थे. कई ग्रह उनकी परिक्रमा करते थे. लेकिन ये दैदीप्यमान सितारे ज़मीन पर पड़े पैसे देखकर कुछ देर के लिए भूल जाते थे कि वे धनाकाश के चमकते नक्षत्र हैं. कहीं भी अयाचित, लावारिस पैसा देखकर उनकी लालसाएँ अंगारों की तरह चमक उठती थीं.

पैसे के अलावा यदि वे किसी अन्य चीज़ पर प्रबल वासना के साथ झपट सकते थे तो वह सुंदरियों का अंत:वस्‍त्र ही हो सकता था. जितना अधिक धनवान, जितना अधिक वार्धक्‍य, उतना ही अधिक कामुक और अशक्त. कोई भी सुंदरी उन्हें गले में लटकी टाई से पकड़कर खींच सकती थी. जैसे वह अपने पालतू कुत्‍ते से खिलवाड़ कर रही हो. यह कृत्य उन्‍हें क्रोधित नहीं, पुरस्कृत बना देता था.

‘I served the king of england’ फ़िल्म से एक दृश्य

(चार)

इन धनिकों की दीप्ति केवल उच्च सैन्‍य अफ़सर के आगे फीकी पड़ जाती थी. सत्ता की शक्ति संरचना हर अमीरी को फीकी कर सकती है. वह हर जगह अपनी ताक़त का बुलडोज़र चला सकती है. उसके पास नष्ट करने की पाशविक शक्ति होती है. वह हर जलवे को दोयम कर सकती है. इसी सैन्‍य अधिकारी से नायक को टिप में अचानक इतनी भीमकाय राशि मिलती है कि उसे फिर एक नया होटल जॉइन करना पड़ता है. अब बाक़ी ईर्ष्यालु सहकर्मी उसे वहाँ रहने भी नहीं दे सकते. इस तरह उच्चतर संस्‍थानों में जाने की उसकी यह अनायास मगर अनवरत यात्रा जारी है. जैसे वह अनजाने ही किसी ऐलिवेटर पर सवार है.

इस ऐश्‍वर्यशाली होटल में सिर्फ़ ‘असाध्‍य अमीर’ ही प्रवेश कर सकते थे. किसी के लिए लिखित मनाही नहीं है लेकिन वैभव का एक अपना सूचना-पट्ट होता है. भाषा और व्याकरण से परे. महँगा फ़र्श देखकर धूल भरे पाँव सकुचाते हैं. उत्कृष्टतम वॉशरूम में सामान्‍यजन को सहज मूत्रावरोध हो जाता है. यहाँ उसका वरिष्ठ इस क़दर अनुभवी और नफ़ीस है कि उसने इंग्‍लैंड के सम्राट को खाना परोसा है. वह उसे ग्राहक पहचानने की चुनौतियाँ और प्रशिक्षण देता है ताकि स्त्री या पुरुष किसी भी ग्राहक को दरवाज़े से प्रवेश करते ही जान सको कि उसकी इच्छाएँ, उसका मेन्‍यु क्‍या हो सकता है. उसके स्वाद को तुम अपनी जिव्‍हा पर महसूस कर सको, यही कला है. तब तुम उसे महज़ ग्राहक से एक ‘बंधक ग्राहक’ में तबदील कर लोगे.

हमारा नायक देखता है कि यहाँ धन-शापित लोगों की अतृप्त कामनाएँ उनसे क्या कुछ नहीं करातीं. एक असमर्थ रुग्‍ण आकांक्षा की पूर्ति के लिए वे अपना ‘ईसीजी और टीएमटी में अनुत्तीर्ण’ हृदय लेकर सदैव प्रस्तुत हैं. उनकी आँखों में कामुकता की चाह मिथकीय कथाओं को हतप्रभ कर सकती है. वे सोचते हैं कि सब कुछ ख़रीदा जा सकता है. लेकिन कॉलगर्ल भी उस तरह नहीं ख़रीदी जा सकती, उस तरह उपभोग नहीं की जा सकती कि अमीरी सर्वोपरि हो जाए. जबकि वे उस उम्र में हैं कि नग्न सौंदर्य निहारते हुए, मुंह से गिरती हुई लार के बीच भी उन्हें नींद का झपका आ जाता है.

इसी बीच अवसरवादी युवा नायक उन सबको किनारे करते हुए चरमानंद में डूबता है. टेबल पर भोज्य पदार्थों से भरी जूठी प्‍लेट्स अपना मुंह बाए इस प्रसंग की साक्षी बनती हैं. वह चरम सुख से श्‍लथ पुष्पित देह को वनस्पतियों से इस तरह सजाता है कि नग्नता किसी नवीन सौंदर्य में बदलकर ख़ुद ही गर्वित हो जाए.

हमारे नायक की कथा इतनी अविश्वसनीय है कि जीवन में उत्सुकता पैदा हो सकती है. इसलिए ही तो उसे इथोपिया के सम्राट की तरफ़ से श्रेष्ठ भोजन सेवा का वह पदक भी मिल जाता है जो वस्‍तुत: उसके लिए नहीं था.

(पाँच)

क्षेपक:
वह याद कर रहा है और विशृंखल कड़‍ियों को जोड़ रहा है. परदे पर, स्मृतियों में, ग्लानि की स्लेट पर बीत चुकी तस्वीरें दर्ज हो रही हैं :

फ़ासिज्‍़म का दौर. सर्वश्रेष्ठ जाति के अभिमानी वायदे तुरुप के इक्कों की तरह फेंके जा रहे हैं. लेकिन वे ताश के पत्ते हैं. बाद में उसी तरह ढह जाते हैं. लेकिन अभी तो एक अलगाववादी भाषण किसी भी शहर में तहलका मचा सकता है. एक विभेदकारी राजनीतिक समर्थन, जनता को अराजक बना सकता है. कि हम हर इमारत, हर जगह को विवादित कर देंगे, यही हमारी ताक़त है. आत्‍मनिर्णय का अधिकार किसी क्षेत्र को नहीं. किसी शहर के निवासियों को नहीं. यह निर्णय तो अब एक शक्तिशाली, आततायी तय करेगा. कमज़ोर नहीं. अन्यथा फिर कभी, कहीं भी कोई एकीकृत देश संभव नहीं होगा.

कारागार से निकलने के बाद वह इस उजड़े गाँव में विस्थापित है. यहाँ के निवासी पहले ही अज्ञात में विस्थापित हो चुके हैं. यह मारक उदासी की सुंदरता से लबरेज उन यहूदियों के सूने घर हैं, जिन्हें खदेड़ दिया गया. जला दिया गया. या दूसरे तरीक़ों से मार दिया गया. अब ये घर परित्यक्त हैं- ABANDONED. लेकिन इनमें जीवन के निशान बाक़ी हैं. कि यहाँ धड़कते हुए, जीवंत लोग थे. यह उनके घर थे और अब वे नहीं है. इस अनवरत और दुखित अहसास के साथ ही हमारे नायक को अपने शेष जीवन में यहाँ रहना है. एक नया विस्थापित, विस्थापन से ख़ाली हुई पुरानी जगह में ठौर ढूँढ़ रहा है.

यह अभी सुबह की ही तो बात है जब उसने सोचा था कि जीवन भर पैसे जमा करूँगा, लक्ष्मीपति होने का असीम सुख उठाऊँगा लेकिन अब सांध्य बेला में वह इस उजाड़ में गिट्टियाँ इकट्ठा कर रहा है. चलने लायक सड़क बना रहा है. जैसे बीत गया वह जीवन कोई और जीवन था. किसी और का जीवन था. जैसे वह अय्याशी, वह सौभाग्य किसी और को नसीब हुआ था. लेकिन वैभव तो ईथर है. कपूर है. क्षणांश बाद जिसकी सुगंध, तल में बची कालिमा के निशान में रह जाती है.
फिर इसी जन्म में कई जन्म लेना पड़ते हैं.

अपने सांध्‍यकाल में वह देख रहा है कि वाद्ययंत्र बनाने के लिए एक आदमी चुन-चुनकर पेड़ काट रहा है और ख़ुद को संगीत का वैज्ञानिक बता रहा है. वह पेड़ के तने पर ट्यूनिंग फोर्क, स्‍वरित्र रखकर देखता है कि किस वृक्ष से वह ध्वनि, वह आवृत्ति निकलती है जो उसे एक बेहतर अनुनाद दे सकने वाले वाद्ययंत्र में बदलने के लिए उपयुक्त होगी. यही उस वृक्ष को काटे जाने के लिए, उसकी हत्या के लिए समुचित तर्क होगा. नयी होती सभ्यताओं में वृक्षों और मनुष्यों को काटने के नये तर्क निकलते हैं. फ़र्क़ यह है कि वृक्ष तो वाद्ययंत्रों में कुछ हद तक शेष रहेंगे मगर असमय मार दिए गए मनुष्य का संगीत उसी समय मिट्टी में मिल जाएगा. राख हो जाएगा.
फ़ासिज्‍़म जारी है.

नैसर्गिक अरण्‍य की हरीतिमा में घिरी इस उजाड़ बस्ती में उसे एक स्‍त्री मिलती है. वह अपनी भंगिमाओं से, उसे पुरानी हरीतिमाओं की याद दिलाती है. अलाव से उठती आँच में हवा विरल होकर ऊपर उठकर बीच-बीच में कंपित होती है तो लगता है सामने बैठी स्‍त्री की देह ही कंपित हो रही है. यह कितनी स्मृतियों के पास जाना होता है. उसे याद आता है कि वह अपना यहूदी होना भूलना चाहता था. ताकि अमीर होने के स्वप्न में बारीक़ सा व्यवधान भी न आए.

लेकिन यहाँ रहते हुए उसे यह ख़याल बना रहता है कि इस घर में, इस गाँव के जीवन में क्‍या कुछ नहीं था? हलचल, संगीत, जिजीविषा, आग, आकाश, मिट्टी. इस जगह के सारे रहवासी रातों-रात गायब हो गए. अब कबाड़, तहख़ानों और धूल में दबी चीज़ों में उनकी सूचनाएँ हैं. घरों के छप्परों में, दीवारों पर जीवन के चिह्न दमक उठते हैं. क़ब्रिस्‍तान में उनके नष्‍ट होने के अधिक विश्वसनीय साक्ष्य हैं. नाम पट्टिकाओं के साथ. इन्हीं नामों की वजह से लोगों को अपने घर छोड़कर, क़ब्रों में रहना पड़ा.

जातीय गौरव और नृशंसता सहोदर हैं.
अब युद्ध आ रहा है. अप्राकृतिक आपदा की तरह.

‘I served the king of england’ फ़िल्म से एक दृश्य

(छह)

इसी बीच अचानक उसने एक लड़की को, गली की मुठभेड़ में बचाया. मगर वह लड़की तो नाज़ी थी. औचित्य की सीमाओं से बाहर की निवासी. लेकिन उसे इस युवती में से एक राह नज़र आई. अपने जीवित बचे रहने की. अमीरी का दुस्‍वप्‍न साकार करने की. इसलिए उसे इस लड़की की रक्षा करनी होगी. हालाँकि यह लड़की अब इस यहूदी नायक को रक्त की शुद्धता के बारे में ज्ञान देगी. कि उच्च रक्त में मिश्रण नहीं होना चाहिए. अन्‍यथा सर्वश्रेष्‍ठ प्रदूषित हो जाता है. कि प्राग को जर्मन की निगाह से देखो. फिर किसी को भी अपना शहर जर्मनी का ही कोई शहर लगेगा. एक दिन आर्य-रक्‍त रक्षक आएगा और सब कुछ जर्मन हो जाएगा. वह पारस है, जिसे छूएगा वह स्वर्ण हो जाएगा. जर्मन यानी स्वर्ण.

यह यौवना आक्रमणकारी जमात से है लेकिन अब उसका स्वार्थ है. उसकी ओट है, जिसमें उसे रहना है. इसी लड़की से विवाह करना है. वीर्य पुष्‍टता की परीक्षा देना भी मंजूर है. मक्षिकामूँछों को अंगीकार करना भी स्वीकार है. उसे पता है कि जो भुजा उठाकर ‘हे हाइल’ नहीं कहेगा वह नष्ट हो जाएगा. बल्कि उसे तो आगे बढ़कर आर्य जाति की वंशवृद्धि में सहयोग देना है. एक ऐसे सैनिक की तरह जो शयनकक्ष में है लेकिन लाम पर है.

बिस्तर के सामने दीवार पर हिटलर की तसवीर है, और उसके सामने दर्पण में भी वही प्रतिबिंबित है. किसी भी दिशा में मुंह करके लेटो, हिटलर दिखेगा. इसी चित्र को अपने मन में बसाकर वह उसके लिए समर्पित होगी. इसलिए उसने अपने ऊपर आरूढ़ नायक के चेहरे को कुछ तिर्यक करके एक तरफ़ कर दिया है. वह उसका सिर बार-बार अपनी दायीं तरफ़ धकियाती है ताकि संसर्ग के पूरे समय उसे फ्यूहरर की तस्वीर दिखती रहे. कमतर नस्‍ल के प्रेमी का सिर व्यवधान न बने और उसे महसूस होता रहे कि समागम को महान फ्यूहरर ही अंजाम दे रहा है.

फिर वह राष्‍ट्र की नाज़ी पुकार पर युद्ध में चली गई.
अपनी पत्नी को फौज़ी ट्रेन में विदा करने के बाद यकायक वह देखता है कि पटरियों के उस पार एक ट्रेन और है. उसमें यहूदी हैं. बेहाल और बेबस. वह उनकी प्यास के लिए एक बूँद पानी नहीं दे सकता. उनकी भूख के लिए ब्रेड का एक टुकड़ा नहीं दे पाता. पहली बार उसने महसूस किया कि अपनी वासना, लोलुपता के लिए वह कैसे-कैसे नारकीय कर्म में जुटा रहा. वह लु‍टेरों, हत्यारों और रक्‍तपिपासुओं का हिस्‍सा हुआ. कि जब लोग यातनाओं और त्रासदियों से गुज़र रहे थे, वह जर्मन लड़कियों हेतु श्रेष्ठतम जाति के गर्भ-संधारण कार्यक्रम में संलग्न था. बुलडॉग की तरह. जो कि वह वाकई था. वह जर्मन नहीं, जर्मन स्त्री का पति था. वे सब यौवनाएँ तो उसके सामने अपनी छपाक नग्‍नता में भी सहज थीं. उनके लिए उसका अस्तित्व कुछ था ही नहीं. वे कॉकरोच, मेंढक या छिपकली का संज्ञान ले सकती थीं, उसका नहीं. वह तो एक सेवक था, ब्रीडर. महज़ प्रजनक.

अंततः पत्‍नी हारे हुए युद्ध से, साथ में बेशक़ीमती डाक टिकट लेकर लौट आती है. जब मुद्राओं का, आभूषण और क़ीमती धातुओं का मूल्य कुछ भी नहीं रहता तब ये डाक टिकट उसे ख़रबपति बना देते हैं. वह उस विशाल होटल को ख़रीद लेता है, जिसमें वह नौकर था. लोग रुपये बिछाकर कालीन बनाते हैं, उसने नोटों से वॉलपेपर बनाया. एक म्‍यूरल. लेकिन जब फ़ासिस्‍ट हार गए तो ‘जन सरकार’ ने उसका सब कुछ ज़ब्‍त कर लिया. जो भी रईस थे, पूंजीपति थे, धनस्‍वामी थे, अब सब जेल में थे. उसे केवल यही ख़ुशी थी कि वह करोड़पतियों के साथ कारागार में था. सारे अमीर वहाँ बैठकर मुर्गियों के पंखों से रूई बनाने के काम में लगे थे.

अपार पैसा आते ही वह जेल में पहुँच गया.
यह भी जादू हुआ.

‘I served the king of england’ फ़िल्म से एक दृश्य

(सात)

आदमी जब तक ज़‍िंदा है, नष्ट नहीं होता. रूपांतरित होता रहता है. इसे ही वह अकसर नष्ट होना समझता है. कई बार रूपांतरित भी नहीं होता और सोचता है कि वह नष्ट नहीं हो रहा है. यह आत्मा से परे का भौतिक दर्शन है. बेधक और सच्‍चा. मानवजाति ने जैसे इतना ही अर्जित किया है कि वह बुराइयों को अपनी संततियों की तरह जन्म देता रहे. इसलिए हर मनुष्‍य स्‍वयं में गौरवभाव देखता है और दूसरों में शर्मिंदगी की छाया. या अवमानना.

लेकिन ऐसा भी होता है कि आदमी को अपनी इच्‍छा के विरुद्ध, ‘आदमी’ बनने की प्रक्रिया से भी गुज़रना पड़ जाता है. इच्छाएँ नहीं, अनिच्‍छाएँ मनुष्य को हाथ पकड़कर अनजान जगहों पर ले जाती हैं. तब विचार में निमग्न होना पड़ता है. तब उसे जीवन की अर्थवत्‍ता नहीं बल्कि निरर्थकता मालूम हो जाती है. तब वह संपन्नता के, ऐश्वर्य के सारे रूपकों, प्रतीकों और बिंबों को तितलियों की तरह वापस हवा में उड़ा देता है. उनसे ख़ुद को आज़ाद होते हुए देखता है. प्राप्त उपाधियों, मेडल्‍स को बकरियों, पालतू मवेशियों के गले में लटकाकर प्रसन्न होता है. और एक बिल्‍ली के बच्चे के आगे अपना हृदय हार जाता है. तब साधारण, प्रिय पेय पदार्थ का एक गिलास उसे वे सारी ख़ुशियाँ प्रदान कर देता है जिनके लिए वह जीवन में वे सब काम करता रहा, जिन्हें करने की ज़रूरत किसी मनुष्य को कभी नहीं होती.

नायक याद कर सकता है कि तथाकथित अच्छे दिनों की चाह में हम अकसर दुर्दिनों की कमाई करते हैं. अब वह एक ध्वस्त कमरे में बैठकर, किसी प्रक्षालित आदमी की तरह, आईनों के सामने बियर की चुस्कियाँ लेते हुए अपने हो सकने के अनेक प्रतिबिंब देखता है. हर प्रतिबिंब पर कुछ आरोप तय करता है. प्रतिवाद करता है. ख़ुद ही वादी है. कहीं कोई न्यायाधीश नहीं है. सब आरोपी हैं और प्रतिवादी हैं. लेकिन जल्दी ही इस नतीजे पर पहुँचता है कि वह अपने इन रूपाकारों पर, अपनी ही दिखती छायाओं पर इल्‍ज़ाम तो लगा सकता है, उनका बचाव नहीं कर सकता. यही उसका न्‍याय है. यही दण्ड.

अकरणीय का कोई बचाव होता भी नहीं. वह अकरणीय ही रहा चला आता है. अकथनीय को कितना भी कहा जाए, वह अकथनीय ही रह जाता है. जीवन-सिक्‍त कलाएँ हमें यही सब बताने में अपना जर्जर जीवन बरबाद करती हैं.

I Served the King of England, 2006/Director: Jiri Menzel.

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’, ‘उपशीर्षक’ और कहानी-संग्रह- ‘
इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com

Tags: 20222022 फ़िल्मI Served the King of Englandविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 18

  1. राघवेन्द्र सिंह says:
    8 months ago

    आलेख पढ़कर विस्मित हूँI यह समय का दस्तावेज़ है l सिनेमा पर ऐसा नहीं पढ़ा है मैंने कहीं l देखने की दृष्टि मिलती है l प्रस्तुति अद्भुत है l संपादक महोदय जितना आप काम कर रहें हैं आपको तो पद्मश्री मिलना चाहिए.

    Reply
  2. श्रीविलास सिंह says:
    8 months ago

    हमेशा की तरह बेहतरीन आलेख। कुमार अम्बुज जी और समालोचन का शुक्रिया। एक फ़िल्म को देखने समझने और उसके बहाने जीवन को समझने की दृष्टि देता आलेख।

    Reply
  3. शशिभूषण says:
    8 months ago

    कहना चाहूँगा कि कुमार अंबुज जी पिछले कुछ महीनों से लिख तो फ़िल्मों पर रहे हैं मगर वे इस लेखन के बहाने हिंदी का वह गद्य भी लिख रहे हैं जिसे महान कहने में मुझे कोई संकोच नहीं.

    कहना ही चाहिए कि कुमार अंबुज जी इन दिनों हिंदी को श्रेष्ठतम गद्य रूप में बरत रहे हैं.

    इस भाषा की तुलना हिंदी के कुछ पुरखे लेखकों की भाषा से ही की जा सकती है.

    यहीं आकर लगता है भाषा अंततः विचार, विश्व दृष्टि और मानवीय सरोकार का ही जीवित रूप होती है. वह कौशल या प्रतिभा ही नहीं.

    शशिभूषण

    Reply
  4. रमेश अनुपम says:
    8 months ago

    कुमार अंबुज का गद्य चमत्कृत करता है । उनके चटक काव्य बिम्ब जैसे पूरी फिल्म को एक महाकाव्यात्मक आभा से दीप्त कर देते हैं । कुमार अंबुज की यह भाषा हिंदी में कम ही देखने और पढ़ने को मिलती है। चेक लेखक बोहूमिल हरबल के उपन्यास पर आधारित फिल्म ’ I served the king of england’ पर कुमार अंबुज द्वारा लिखी गई यह समीक्षा लाजवाब है । मुझे नहीं लगता है फिल्म पर किसी ने इस तरह से कभी कुछ लिखा हो जो हमारी चेतना को इस कदर झंकृत कर दे और हृदय को रस की अनुभूति से द्रवित कर दे । कुमार अंबुज और ’समालोचन’ को बहुत बहुत बधाई । कुमार अंबुज जी शीघ्र स्वास्थ्य हों यही हम सबकी कामना और प्रार्थना है।

    Reply
  5. ajay bokil says:
    8 months ago

    लाजवाब गद्य, लाजवाब समीक्षा.. समूची चेतना को झिंझोड़ने वाला, हिंदी साहित्य मे एक नई और जरूरी आहुति..

    Reply
  6. teji grover says:
    8 months ago

    कुमार अम्बुज के फ़िल्म-लेखन में आप हिन्दी गद्य के को भी फ़िल्म की तरह देख रहे होते हैं। ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं कि वे अपने लेखन में आपको फ़िल्म का मज़ा दे पाएं और वह लेखन , अलावा इस गुण के, अन्तर्दृष्टिपूर्ण भी हो।।

    फ़िल्मों से जैसा प्रेम कुमार को है, वह जूनूनी है और उस जुनून को वे इतने सहज ढंग से और फिर भी इतनी सूक्ष्मता से भाषा प्रदान कर सकने में सक्षम हैं कि उनसे ईर्ष्या की जा सकती है। लेकिन जिनके स्वभाव में ईर्ष्या न हो, वे तो केवल आनन्द कण बटोरेंगे!😊

    जिस लेखक के उपन्यास पर यह फ़िल्म आधारित है उसकी कहानियों को भी ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। वे इतनी विलक्षण हैं कि उनका अनुवाद यदि हिंदी में न हुआ हो तो किसी बढ़िया अनुवादक को ज़रूर करना चाहिए।

    बस बार (bar) और जारी, इन दो शब्दों को ठीक कर लीजिएगा अरुण जी। जारी में नुक़्ता नहीं लगेगा।

    Reply
  7. लीलाधर मंडलोई says:
    8 months ago

    मैं इसे समीक्षा में रिड्यूस न करूंगा।यह पुनर्रचना अथवा उसके समकक्ष कुछ हो सकती है।
    पटकथा के अवधारणात्क नोट्स की तरह या पोएटिक नरेटिव्ह।
    फिल्म सेल्र्यूलाइट पर कविता होती है जिसमें कई कलाओं की
    भूमिका होती है।सब कुछ दृश्यों में घटित होता है और पार्श्व में
    संगीत,प्रकाश, नाट्य,प्रापर्टी ,पेंटिंग ,ध्वनि ,मौन आदि शिल्प निर्देशक के अचेतन व अवचेतन से चेतन में प्रकट होकर फिल्म के हमसफ़र हो जाते है।

    फिल्म बहुपर्तीय कला है और उसका दिखना ही काफी शायद न हो।वह बहुपर्तीय कला भाषा की मांग करता है।यह मैं ज़रूर पढ़ता हूं।
    प्रशंसक हूं और नेक अनेक साधुवाद कहता हूं।

    Reply
  8. नेहल शाह says:
    8 months ago

    शुक्रिया Arun जी!
    कुमार अम्बुज जी को पढ़ना सदैव ही चेतना को पोषित करने जैसा होता है। पढ़ते हुए इब्ने इंशा की दो लाइनें याद आयीं-

    हैं लाखों रोग ज़माने में क्यूँ इश्क़ है रुस्वा बे-चारा
    हैं और भी वजहें वहशत की इंसान को रखतीं दुखियारा!

    अमीरी और गरीबी में कोई तुलना संभव ही नहीं और न ही ये शब्द एक दूसरे के विलोम कहलाने के लायक, क्यूंकि अमीरी के शब्दकोश में गरीबी इतना तुच्छ शब्द है कि उसे उसकी कल्पना तक से परहेज़ है। हाँ, अमीरी शब्द किसी जरूरत मंद को राह भटकाने में कामयाब हमेशा हो जाता है।

    आगे, ये लेख इस फ़िल्म या नावेल पर केंद्रित न भी होता तो भी अपने आप में सम्पूर्ण और सारगर्भित है, और फ़िल्म से जोड़ कर देखें तो कहना ही क्या।

    मुझे टैग करने के लिए एक बार पुनः शुक्रिया!

    शुभकानाओं सहित!

    Reply
  9. दया शंकर शरण says:
    8 months ago

    यह फिल्म देखी नहीं पर आलेख पढ़ते हुए कुछ कुछ फिल्म देखने जैसा ही एहसास हुआ ।आज की इस आवारा पूँजी का खेल इस आर्थिक साम्राज्यवादी दौर का ही एक विकृत रूप है-एक अय्यास चरित्र ।मार्क्सवाद के अनुसार यह अपने ही अंतर्विरोधों से नष्ट होगा।पर कब ? वह समय बताएगा। तबतक इसका खेल निर्बाध गति से जारी रहेगा। अम्बुज जी को साधुवाद !

    Reply
  10. विजय बहादुर सिंह says:
    8 months ago

    खूबसूरत और नायाब गद्य जो हमारी घिस पिट सी चुकी संवेदना को अपनी ताजगी के छींटों से तरोताज़ा कर देता है।
    कुमार अंबुज की प्रतिभा का यह नया चेहरा हिन्दी को नया जीवन भी देता है।
    बधाई।

    Reply
  11. Priya varma says:
    8 months ago

    पढ़कर चमत्कृत हूँ।
    कुछ कहने की स्थिति में लौटने तक मेरे भीतर गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के दृश्य उभर रहे हैं और कहीं खुद को फिट न पाकर लौट जा रहे हैं। पर वह गीत पार्श्व में लगातार बज रहा है -‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…’

    Reply
  12. मधुसूदन आनंद says:
    8 months ago

    पढ़कर मन आपकी प्रतिभा के आगे
    नतमस्तक हो गया है ।मैं ने नेत्र सिंह
    रावत,पंकज बिष्ट.विनोद भारद्वाज
    और मंगलेश डबराल आदि के विदेशी
    फ़िल्मों के रिव्यू भी पढ़े हैं और उनसे
    प्रभावित भी हुआ हूँ ।पर आप तो
    अप्रतिम हैं।और गद्य के तो कहने ही क्या ।बधाई और शुभकामनाएँ ।

    Reply
  13. हीरालाल नागर says:
    8 months ago

    हिन्दी गद्य की उपलब्धियों में कवि कुमार अम्बुज का यह आलोचना व समीक्षा गद्य अनोखा और अपूर्व है। उनकी समीक्षा के तेवर और-और नुकीले और अर्थ गर्भित होते चले जाते हैं जैस-जैसे फिल्म अपने दृश्यों में गहरे तात्पर्य छोड़ती जाती है।
    फिल्म का हर दृश्य आंखों से ऐसे तैरता हुआ आता है, जैसे हम फिल्म देख रहे हों । उसकी हर मांसल गतिविधि चकाचौंध पैदा करती है और अमीर व्यक्ति की असीमित श्लथ लालसाओं से परिचित होते चले जाते हैं।
    यह फिल्म के क्रूर यथार्थ की अभिव्यक्ति का कमाल है, जिसके साथ हम अपनी एकाग्रता स्थापित कर लेते हैं और फिल्म देखने जैसा आनंद पाते है।
    इस गद्य का कोई मुकाम नहीं। अगली फिल्म समीक्षा में अम्बुज फिर चमत्कृत कर देंगे और आप ठगे के ठगे रह जाएंगे। बहुत बधाई और शुभकामनायें।
    हीलाल नागर

    Reply
  14. M P Haridev says:
    8 months ago

    मुझे आश्चर्य होता है कि कुमार अंबुज विश्व सिनेमा के बारे में विस्तृत जानकारी रखते हैं । बहुधा इतिहास अपने को दोहराता है । विश्व के कोने कोने में नये चरमपंथी संगठन और शासक पैदा होते रहते हैं । इसलिये लिखा है ‘इदं मम ! इदं मम ! कुमार अंबुज से शब्दों की जादूगरी सीखी जा सकती है । एक एक वाक्य उद्धरण बन जाता है ।

    Reply
  15. Hemant Deolekar says:
    8 months ago

    कुमार अंबुज जी की कवि दृष्टि से ओतप्रोत यह आलेख जो महज़ एक समीक्षा नही है, सिनेमा के भीतर छुपे कई पहलुओं को उभरता है। कहानी का subtext कह सकते हैं , उसकी व्याख्या कह सकते है.. या इन सबके परे और ऊपर है अंबुज जी की यह शैली। एक दार्शनिक गद्य। एक कविता से भरा गद्य। यह काम वे ही कर सकते हैं। पुनः उनके लेखन को सलाम। फिल्म देखूंगा। शुक्रिया समालोचन।

    Reply
  16. pankaj says:
    8 months ago

    हमेशा की तरह बेहतरीन आलेख। समालोचन और कुमार अम्बुज जी का शुक्रिया

    Reply
  17. Anonymous says:
    8 months ago

    यह अब तक का अकहा गद्य है,अनूठा ।अर्थवत्ता से लबालब ।कुमार अंबुज को पढ़ते हुए लगता है मानों हमारी समझ में लगातार कुछ जुड़ता जा रहा है । हे कवि आपका गद्य अप्रतिम है, शब्दों और ध्वनियों की संगत को आप जिस तरह संभव करते हैं वह भक्क से अंदर तक समा जाता है और जो गंधर्व के संगीत की तरह बजता रहता है भीतर ।

    Reply
  18. Lalan chaturvedi says:
    7 months ago

    कुमार अंबुज को पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुजरना है। बधाई समालोचन और कुमार अंबुज को भी।

    Reply

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