रेत-समाधि
|
जैसे किसी का अचानक घर लुट जाये उसका ठीक उलटा हिंदी के साथ अभी-अभी हुआ है. दूर के विदेशी आसमान से छप्पर फाड़ कर यश और कीर्ति की जो संपदा बरस रही है वह हमारी हिंदी की मढ़ैया में समाये नहीं समा रही है. इंग्लैंड-अमेरिका में चारों तरफ धूम मची है, और भारत के अन्दर भी अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं व अन्य माध्यमों में हिंदी का जो जलवा है वह पहले कभी देखा-सुना नहीं गया. कहा जा रहा है, और केवल विनोद में ही नहीं, कि यह तो “गीतांजलि से गीतांजलि तक” की यात्रा है. भावार्थ यह कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को 1913 में जो नोबेल पुरस्कार मिला था उसके बाद किसी भारतीय भाषा के किसी भी लेखक को इतना बड़ा साहित्यिक सम्मान नहीं मिला जितना कि गीतांजलि श्री के पांचवें उपन्यास “रेत-समाधि” को दिया गया यह इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार है, जो इस उपन्यास के “टूम ऑफ़ सैंड” (Tomb of Sand) नाम से डेज़ी रॉकवेल द्वारा किये गए अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर मिला है.
यह तो रही दुनिया-जहान की खबर, पर हिंदी के अन्दर का मामला कुछ संगीन है. स्वाभाविक है कि बहुतों के मन में हर्षोल्लास है और समुचित गर्व है पर वहीं कुछ नकारात्मक, प्रश्नवाचक और अवमानना की आवाजें भी उठी हैं, ख़ास कर सोशल मीडिया पर. यह शायद इस बात का भी प्रमाण है कि हिंदी का लोक-वृत्त कितना व्यापक, बहुरंगी और मुखर है, और एक चालू किस्म की वाचालता तो शायद सोशल मीडिया की फितरत में ही शामिल है. जैसे कि एक सज्जन ने फेसबुक पर लिखा, “दो आने की किताब, एक आने का इनाम.” इसका क्या उत्तर हो सकता है सिवा यह कहने के कि इन भाई की गणित कुछ कमज़ोर लगती है जो अड़तालीस लाख रुपये को एक आना बता रहे हैं, और इनका मुहावरा कुछ ढीला है क्योंकि पुस्तक को रद्दी ही कहना था तो “दो आना” भी बहुत है, शायद “कौड़ी” या “फूटी कौड़ी” कहना बेहतर होता. पर ऐसे ओछे आक्षेपों का उल्लेख करना भी उन्हें इज्ज़त बख्शना है.
इस पुरस्कार के माध्यम से हिंदी में जो विमर्श छिड़ा है उसके तीन विशिष्ट पहलू हैं. एक तो यह विदेशी पुरस्कार और उसका महात्म्य, दूसरे यह पुस्तक और इसकी लेखिका, और तीसरे इस पुरस्कार के संभावित दूरगामी परिणाम. इस लेख में इन तीनों पक्षों पर क्रमशः कुछ कहने का प्रयास किया जायेगा, और बीच-बीच में अनेक आवंतर प्रसंग भी आयेंगे जिनका हिंदी के बाहर के, लेकिन हिंदी समाज और साहित्य से जुड़े, कुछ मुद्दों से सम्बन्ध है.
यह पुरस्कार क्या है, कैसे मिलता है
मूल अंग्रेजी में ही लिखने वाले इंग्लैंड के या उसके भूतपूर्व उपनिवेशों (अथवा कॉमनवेल्थ) के उपन्यासकारों के लिए 1969 में स्थापित किया गया बुकर पुरस्कार भारत में पर्याप्त ख्याति पा चुका है, खास कर जब से यह 1981 में सलमान रुश्दी को मिला जो ऊपर से यानी नाममात्र से हमारे अपने लगते हैं लेकिन अंदर से यानी शिक्षा-दीक्षा से, संवेदना से (और नागरिकता से भी) पक्के अँग्रेज़ हैं. उसके पहले भारत में शायद ही किसी ने इस पुरस्कार का नाम भी सुना हो, जबकि तत्पश्चात अरुंधती रॉय (1997), किरण देसाई (2006) और अरविंद अडिग (2008) को भी मिल जाने के बाद हमारे देश में इसकी “भैल्यू” कुछ कम हो गयी है.
पर इस विलायती सम्मान का ऐसा प्रताप है कि दो हिंदी फ़िल्में बन चुकी हैं जिसमें हीरो महाशय यह बुकर पुरस्कार पाते दिखाए गए हैं, एक तो “बागबान” (2003), जिसमें लेखक के किरदार में अमिताभ बच्चन हैं, और दूसरी “शब्द” (2005) जिसमें यह कारनामा संजय दत्त ने कर दिखाया है. सन 2014 में इस पुरस्कार के दायरे को विस्तृत किया गया और अब यह किसी भी देश के अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले उपन्यासकार को मिल सकता है. विवाद भी हुआ कि अगर अमेरिकी लेखकों पर भी विचार होने लगेगा तो फिर शायद खुद अँग्रेज़ लेखकों को भी इस पुरस्कार पाने के लाले पड़ जाये, तो देखिये कि अब अगले भारतीय लेखक का नसीब कब खुलता है.
जो इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार अब गीतांजलि को मिला है वह इसी नामी-गरामी बुकर पुरस्कार का भरत-सरीखा विनीत अनुज है. यह पुरस्कार 2005 में शुरू हुआ पर 2015 तक यह मूलतः अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों को भी मिल सकता था और अंग्रेजी में अनूदित लेखकों को भी; मुख्य पुरस्कार से अंतर यह भी था कि यह पुरस्कार किसी सद्य प्रकाशित कृति के बजाय किसी लेखक को उसके संपूर्ण कृतित्व पर मिलना था. इसमें हमारे उपमहाद्वीप के दो बड़े लेखक मनोनीत हुए, कन्नड़ के यू. आर. अनंतमूर्ति और उर्दू के इंतज़ार हुसैन, दोनों एक साथ 2013 में, पर दोनों को ही यह पुरस्कार नहीं मिला.
सन 2016 से इस पुरस्कार के नियम बदले और अब यह पुरस्कार केवल अनूदित पुस्तकों को मिलने लगा तथा यह भी तय हुआ कि केवल विगत वर्ष में ही छपी पुस्तकों को मिलेगा. इसके पहले इंग्लैंड के दैनिक पत्र “द इंडिपेंडेंट” द्वारा विश्व की किसी भी भाषा से अंग्रेजी में अनूदित पुस्तक को पुरस्कार दिया जाता था जिसके संचालन में वहां के वारिक (Warwick) विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद-शास्त्र विभाग की प्रोफेसर सूज़न बैसनेट का बड़ा भारी योगदान था. अब यह प्रतिष्ठित पुरस्कार भी इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार में मिला लिया गया, और मुख्य बुकर पुरस्कार की छत्रछाया तो थी ही तो इसकी प्रतिष्ठा दुगुनी हो गयी.
इस बार गीतांजलि को जब यह पुरस्कार मिला तो वहां यह कहा गया कि हिंदी से अनूदित किसी पुस्तक को यह पुरस्कार पहली बार मिला है, जबकि उचित होता यह कहना कि यह किसी भी भारतीय भाषा से पुरस्कृत होने वाली पहली पुस्तक है. “द गार्डियन” नाम के अखबार ने इससे भी बड़ी भूल करते हुए कहा कि यह हिंदी से अनूदित होने वाली पहली पुस्तक है. इसका अर्थ यह हुआ कि जैसे “गोदान,” “शेखर,” “राग दरबारी,” “आधा गाँव,” “झूठा सच,” आदि-आदि के अंग्रेजी अनुवाद हुए ही नहीं, जिनमें से सभी पेंगुइन इंडिया जैसे विदेशी नाम से अभिहित प्रकाशक ने छापे हैं.
पर यह भोली भूल नहीं है बल्कि कुटिल षड्यंत्र है. वह ऐसे कि इस पुरस्कार के नियमों में यह भी है कि अनुवाद किसी भाषा से हो, उसे छपना तो इंग्लैंड (या आयरलैंड) में ही चाहिए, नहीं तो तुरंत खारिज. इस शर्त से मुझे याद आया कि अंग्रेजों के भारत-शासन के उत्कर्ष काल में, 1860 के दशक में, जब सरकार ने किसी तरह हमारी यह माँग मानी कि भारतीयों को भी आई. सी. एस. परीक्षा में बैठने दिया जाये तो यह भी कहा कि परीक्षा तो केवल लंदन में होगी! यानी एक हाथ से उन्होंने जो दिया वह तुरंत दूसरे हाथ से जैसे छीन लिया, क्योंकि बहुतेरे मेधावी भारतीयों के लिए लंदन पहुंचना मुश्किल था और परीक्षा में पास होना अपेक्षाकृत सरल! लगता है कि इस तथाकथित उत्तर-उपनिवेशवाद के युग में वही औपनिवेशिक भेद-भाव अब भी चल रहा है. रस्सी जले ज़माना हो गया पर ऐंठ और अकड़ नहीं गई, मानसिकता नहीं बदली. शायद यह भी मंशा हो कि अनुवाद वहां छपेगा तो बिक्री से पैसा तो वहीं का प्रकाशक बनाएगा.
और भी पुरस्कार हैं भारत में उस बुकर के सिवा
इंटरनेशनल बुकर के एक और पक्ष ने कुछ अधिक ही ध्यान आकर्षित किया है और वह है इसकी धनराशि. लेखक और अनुवादक के बीच बराबर बंट कर भी अड़तालीस लाख का चौबीस-चौबीस लाख तो बनता ही है. यहाँ साहित्य अकादमी पुरस्कार 1954 के पांच हज़ार से बढ़ते-बढ़ते अब एक लाख हो गया है, और ज्ञानपीठ 1969 के एक लाख से बढ़ते-बढ़ते अब ग्यारह लाख. वैसे संपूर्ण कृतित्व के लिए दिया जाने वाला श्रीलाल शुक्ल इफ्को पुरस्कार 2011 में शुरू ही 11 लाख से हुआ था.
इसके अलावा भारत में ही दिए जाने वाले दो और पुरस्कार हैं जो कई मानो में लगभग इस इंटरनेशनल बुकर के टक्कर के हैं, भले ही हम में से बहुतों को उनकी जानकारी न हो. ये दोनों पुरस्कार भारत से सम्बन्धित मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा दिए जाते हैं. एक है JCB Prize for Literature जो 2018 में स्थापित हुआ और 25 लाख रुपये का है. यह इंग्लैंड की वह कंपनी देती है जो बुलडोज़र जैसी बड़ी मशीनें बनाती है और जिसका यहाँ फरीदाबाद में प्लांट है और अच्छी बिक्री है. प्रसंगवश, नोबेल पुरस्कार जिन नोबेल नामक सज्जन ने शुरू किया था उनका डायनामाइट बनाने का धंधा था, और वैसे ही बुकर पुरस्कार के बुकर महाशय चीनी का व्यवसाय करते थे और तब से जब इंग्लैंड द्वारा शासित अनेक देशों में पहले अफ्रीका से गुलाम बना कर लाये गए और बाद में हमारे भारत से भी ज़बरदस्ती या फुसला कर ले जाए गए “गिरमिटिया” मजदूर गन्ना उगाने के काम में अमानवीय परिस्थितियों में लगाए जाते थे. दान-दक्षिणा कुछ अधिक ही करने वाले अनेक लोग इस भाँति अपने पुराने पापों का परिमार्जन करना चाहते हैं, उन्हें धो डालना चाहते हैं.
दूसरा ऐसा पुरस्कार है DSC Prize for South Asian Literature जो 2011 में सुरीना नरूला और उनके पति मनहद नरूला ने शुरू किया था जिनके अनेक प्रकार के व्यवसाय अफ्रीका और इंग्लैंड में हैं. इसकी राशि शुरू में तो 50,000 डॉलर थी पर फिर आधी कर दिए जाने पर भी 25,000 डॉलर तो है ही. JCB और DSC यह दोनों पुरस्कार मूल अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों को भी मिल सकते हैं और भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में अनूदित पुस्तकों को भी जो चाहे भारत में छपी हों चाहे बाहर. बल्कि सिर्फ चार साल से चल रहा JCB पुरस्कार तो तीन साल अनूदित उपन्यासों को ही मिला है और संयोग देखिये कि इन तीनों उपन्यासों की मूल भाषा मलयालम थी.
अभी वर्ष 2021 का यह पुरस्कार एम. मुकुन्दन नाम के लेखक को मिला उनके विशालकाय उपन्यास पर जिसका नाम अंग्रेजी अनुवाद में “Delhi: A Soliloquy” है. इसमें भांति-भांति के ऐसे मलयाली चरित्रों की गाथा है जो 1960 के दशक से दिल्ली में करोलबाग़, सेवा नगर, विनय नगर, जंगपुरा, मयूर विहार आदि मोहल्लों के छोटे-छोटे घरों में रह रहे हैं और अपने सुख-दुःख अधिकतर अपनी ही बिरादरी के लोगों से बाँट रहे हैं. एक सरदारजी हैं जो नायक को जब भी देखते हैं तो बड़े सौहार्द से पूछते हैं, “तो क्या हाल है, मद्रासी भाई?” एक लड़की जो दिल्ली में ही पली-पुसी है अपने परिवार के अन्य सदस्यों को अचम्भे में डालती हुई कहती है कि उसे मछली खाना बिलकुल नहीं अच्छा लगता, उसे तो गोभी पसंद है, और जब उसका बड़ा भाई उसे मलयाली में बाल-कथाएं सुनाता है तो कहती है कि हिंदी में सुनाओ.
मुकुन्दन बरसों दिल्ली में रहे हैं, यहाँ फ्रेंच दूतावास में नौकरी करते थे, और हम में से कई के परिचित हैं. पुरस्कार समारोह में जब फिर मिले तो मैंने तुरंत पूछा, “तो क्या हाल है, मद्रासी भाई?” दिल्ली के इन दशकों की अनेक ऐतिहासिक घटनाओं (जैसे कि चीन से 1962 का युद्ध, या 1975-77 का आपातकाल) और विशेष आकर्षणों (जैसे लाल किला या 26 जनवरी की परेड) और इस शहर में चारों ओर विस्तार पाते नए परिवेशों को आत्मीयता से चित्रित करता इस तरह का कोई उपन्यास अगर हिंदी में भी है तो स्मरण नहीं आ रहा.
एक अन्य उपन्यास का भी उल्लेख यहाँ संगत होगा जिसे DSC पुरस्कार प्राप्त हुआ और जिसका हमारे हिंदी-प्रदेश और यहाँ तक कि हिंदी साहित्य से गहरा नाता है. यह पुरस्कार इधर दो कोरोना-ग्रस्त वर्षों से स्थगित है पर 2019 में इसके विजेता थे अमिताभ बागची जो आई. आई. टी. दिल्ली में कंप्यूटर विभाग में प्रोफेसर हैं. उनके मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे उपन्यास का शीर्षक है, “Half the Night is Gone.” यदि यह शीर्षक सुन कर आपके उपचेतन से कोई काव्यात्मक प्रतिध्वनि तत्काल आई तो आप सचमुच संस्कारी जीव हैं. जी हाँ, यह हिंदी से ही लिया गया है –
“अर्ध रात्रि गइ कपि नहिं आयउ
अनुज उठाइ राम उर लायउ.”
बड़े फलक के इस उपन्यास के सभी चरित्र हिंदी-भाषी हैं जो आगरा, दिल्ली और बनारस आदि स्थानों में रहते हैं. उनमें से एक संसार से विरक्त होकर भगत हो गए हैं, मानस पर व्याख्यान देते फिरते हैं, पर कैकेयी के प्रसंग में “मानस” की कुछ स्त्री-विरोधी लगने वाली पंक्तियों के बारे में कुछ स्त्री-श्रोता जब आवाज़ उठाती हैं तो गहरे असमंजस में पड़ जाते हैं. तभी एक और दोहे पर उनकी दृष्टि पड़ती है:
“का न करै अबला प्रबल…”
इस उपन्यास में एक बड़े मुशायरे का भी सजीव वर्णन हैं और एक चरित्र हैं जो स्वयं हिंदी में उपन्यास लिखते हैं. अमिताभ बागची बताते हैं कि इस उपन्यास के प्रेरणा-स्वरूप तुलसीदास तो थे ही पर कृष्णा सोबती भी थीं, ख़ास कर “दिल-ओ दानिश” वाली कृष्णा जी. गीतांजलि श्री की भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत कृष्णा जी थीं, बल्कि “रेत-समाधि” तो उन्हीं को समर्पित है. पर हिंदी के घेरे के बाहर भी लेखक हैं जो हिंदी पढ़ते हैं और गुनते हैं इससे लगता है कि हमें कोई मतलब नहीं है. तो क्या आश्चर्य कि अमिताभ बागची की इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद होने की बात तो दूर, इसकी इन तीन-चार वर्षों में शायद एक-आध समीक्षा भी हिंदी में नहीं निकली. हम चाहते हैं कि पूरी दुनिया तो हमें और हिंदी को तवज्जोह दे पर हिंदी से बाहर की उस दुनिया में हमको ही लेकर क्या-क्या हो रहा है इससे हम बेखबर हैं. आतिश का शेर याद आता है,
“सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ग़ाएबाना क्या”
पुरस्कारों का यह प्रसंग समाप्त करते हुए यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि साहित्य में किसी एक लेखक को सर्वश्रेष्ठ ठहराते हुए पुरस्कार देना क्या वैसा ही नहीं है जैसा कि 100 मीटर की दौड़ में किसी का प्रथम आकर गोल्ड मेडल पाना. पर यहाँ तो सभी लेखकों की दौड़ फरक-फरक है, सब अपनी ही गति से चल रहे हैं, और शायद अलग दिशाओं में भी जा रहे हैं. ओलिंपिक खेलों की पुनर्स्थापना 1896 में हुई और 1901 में नोबेल पुरस्कार भी दिए जाने लगे तो यह क्या संयोग मात्र था? अगर साहित्य में किसी प्रकार के पुरस्कार का सच्चा महत्व है तो संपूर्ण जीवन के कृतित्व को दृष्टि में रख कर दिए जाने वाले पुरस्कार का, जैसे कि नोबेल हुआ या ज्ञानपीठ हुआ, या नियमानुसार ऐसा न होने पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार हुआ जो वैसे तो किसी एक पुस्तक पर दिया जाता है पर बड़ी भाषाओं में अधिकतर सत्तर पार करने पर ही मिलता है. अमूमन एक कृति पर दिए जाने वाला कोई भी सालाना पुरस्कार कब किसको मिल जाये यह बता पाना मुश्किल है क्योंकि हरेक साल की फसल या खेप अलग होती है.
पुस्तक और लेखिका
इतनी बड़ी भूमिका और व्याख्या के बाद अब पुस्तक पर कुछ कहने का प्रारंभ हो रहा है तो इसलिए भी कि इन दिनों पुरस्कार के हंगामे और “अफरा-तफरी के माहौल में” पुस्तक कुछ ओझल-सी हो गयी है. वैसे “रेत-समाधि” छपे अब साढ़े-तीन साल हो गए तो अब तक तो बस पुस्तक ही थी हमारे सामने. जैसा कि राजकमल द्वारा इस पुस्तक के बुकर की लॉन्ग-लिस्ट में आने पर आयोजित एक समारोह में अपने वक्तव्य में मैंने कहा भी, इस उपन्यास का फ्रेंचानुवाद और आंग्लानुवाद होने के पहले से ही हिंदी में इसका गुणानुवाद तो होता ही रहा है. छपते ही इसने ध्यान आकर्षित किया, राजकमल के अशोक माहेश्वरी को स्वयं लगा कि कुछ बड़ी चीज़ आ गयी है, तो उन्होंने 2018 में ही इस अकेली पुस्तक पर एक गोष्ठी का आयोजन किया जिसमें प्रयाग शुक्ल बोले, रवींद्र त्रिपाठी बोले और मैं भी बोला.
पुस्तक की कई प्रशंसात्मक समीक्षाएं भी तब छपीं जिनमें इन दो वक्ताओं के अलावा अलका सरावगी ने भी इस उपन्यास की भाषा की मुक्त-कंठ से तारीफ की, जब कि उनका अपना भाषा-प्रयोग भी कम विशिष्ट नहीं है. बल्कि उपन्यास के अन्दर खड़े हो कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाला वाचक या नैरेटर जैसे उनकी “कलिकथा वाया बाईपास” में था कुछ वैसे ही “रेत-समाधि” में भी है. “एक कहानी अपने आपको कहेगी,” यह पहला वाक्य है “रेत-समाधि” का जिसके पीछे खड़ा वाचक सामने भी नहीं आ रहा है और छिप भी नहीं रहा है और जो कह रहा है उसका ठीक उलटा कर रहा है और मज़े ले रहा है. (अब आप चाहें तो जोड़ सकते हैं कि वह कहानी अपने आप को कह लेने के बाद अपने आप को अंग्रेजी में अनूदित भी करेगी और अपने आप बुकर पुरस्कार भी जीतेगी.)
अनुवाद के पहले ही हिंदी में “रेत-समाधि” की बढ़ती हुई ख्याति के दो और उदाहरण पर्याप्त होंगे. जनवरी 2019 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस पुस्तक पर एक सत्र हुआ जिसमें गीतांजलि ने मेरे साथ इस पुस्तक पर चर्चा की और उपन्यास के कुछ अंश भी पढ़े.
(देखिये- https://www.youtube.com/watch?v=uH3136vbUxA).
“तद्भव” के ताजा अंक में गीतांजलि का साक्षात्कार छपा है जिसमें इस एक उपन्यास के बारे में ही नहीं बल्कि अपने जीवन और सभी अन्य कृतियों के बारे में उन्होंने विस्तार में बात की है. जो पाठक “पेरिस रिव्यू” में छपने वाले विस्तृत साक्षात्कारों से परिचित हैं उन्हें यह साक्षात्कार भी कुछ वैसा ही लग सकता है.
पर इस उपन्यास में (ऐसा) है क्या? अच्छा तो यही हो कि सभी जिज्ञासु इसे स्वयं पढ़ें और अपनी-अपनी राय बनायें. मेरी तुच्छ मति में इसकी तीन प्रमुख विशेषताएं हैं. पहले भाग में अस्सी वर्ष की आयु की अभी हाल में विधवा हुई माँ के अवसन्न अनमनेपन का मार्मिक चित्रण हुआ है और उस शालीन परिवार में चलती प्रच्छन्न पारिवारिक कलह का भी एक लम्बा मनोरंजक वृत्तान्त है जिसमें हर व्यक्ति सोचता है कि हम तो इतना करते हैं जो कोई नहीं देखता, बल्कि दूसरे अपनी शेखी बघारते रहते हैं कि करते तो वे ही सब कुछ हैं. दूसरे भाग में माँ अपने बेटे के घर से बेटी के घर चली जाती हैं जो अपनी इच्छा से अविवाहित ही बनी हुई है और अपनी जीवन-शैली में कुछ सजग रूप से स्वच्छंद है. यहाँ माँ-बेटी के बीच एक नए संकोच-विहीन सखी-भाव का उदय होता है और एक नया ही रिश्ता बनता है. पुस्तक के इस भाग में एक हिंजड़े का भी प्रवेश होता है जो अरुंधती रॉय के पिछले उपन्यास “The Ministry of Utmost Happiness” में चित्रित हिंजड़े (या उभयलिंगी) से सौ गुना अधिक जीवंत है. वह पहले रोज़ी नाम से स्त्री-वेश में आती है और बाद में रज़ा टेलर-मास्टर के रूप में पुरुष वेश में भी आता है. उसकी लगभग अकारण और अकस्मात ही बड़ी दर्दनाक मौत हो जाती है, शायद इसलिए कि इस अधिक ही मोहक चरित्र से दामन छुड़ा कर उपन्यास आगे तो बढ़े.
पर तीसरा भाग तो सचमुच (सर)हद से आगे बढ़ जाता है क्योंकि माँ-बेटी अब बिना वीजा के पाकिस्तान में घूमती पाई जाती हैं. बताया जाता है कि माँ 1947 के बंटवारे के पहले उधर ही रहती थीं, वहां उनकी एक मुसलमान से शादी भी हो चुकी थी और अब साठ साल बाद उन्हें याद आई तो अपने उस शौहर को ढूंढती हुई वे यहाँ आई हैं. (यानी कि जैसा फिराक साहेब ने कहा,
“मुद्दतें गुज़रीं तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं”
माँ-बेटी पकड़ी जाती हैं, पूछ-ताछ होती है, और फिर माँ को जब गोली मार दी जाती है तो किस्सा ख़त्म हो जाता है.
लेकिन यह सार-संक्षेप तो बस कथानक का हुआ. कथन तो यहाँ और भी बुलंद है. गीतांजलि की भाषा कभी चैन से नहीं बैठती, सीधी राह नहीं चलती, बल्कि पग-पग पर तरह-तरह की कलाबाजियां खाती और करतब दिखाती आगे बढ़ती है. यहाँ यमक, वहाँ श्लेष, यहाँ लय, वहाँ तुकबंदी और यात्रा-तत्र सर्वत्र गीतांजलि के अपने गढ़े हुए शब्द- क्या नहीं मिलता यहाँ, और लगातार ऐसी चमत्कारी नयी व्यंजना और लक्षणा और भाषाई मनमौजीपन कि पाठक कहिये कथा के बजाय कथन में अधिक रमने लगे.
तो इस पुस्तक की अंग्रेजी अनुवादिका डेज़ी रॉकवेल के सामने चुनौतियों की कोई कमी नहीं थी. वैसे उन्हें अनुवाद का पर्याप्त अनुभव है. उन्होंने उपेन्द्रनाथ अश्क का अनुवाद किया है जिन पर शिकागो विश्वविद्यालय से उनकी पीएच. डी. है, और भीष्म साहनी और कृष्णा सोबती का अनुवाद भी किया है. अब यह उनकी बदकिस्मती कि “रेत-समाधि” के शीर्षक का ही जो अनुवाद उन्होंने किया, “टूम ऑफ़ सैंड” (Tomb of Sand), उसमें समाधि के बजाय किसी मक़बरे का बिम्ब अधिक उभरता है, यानी जिन्होंने अभी अनुवाद पढ़ना शुरू नहीं किया है उनको भी लगता है कि “प्रथमग्रासे मक्षिकापातः” मेरा तो विचार है कि जब बुकर की शोभायात्रा गुज़र जाए और गुबार छँट जाये तो चार-छह महीने बाद ठंढे दिमाग से इस लम्बे उपन्यास और अनुवाद दोनों को आराम से मिला-के पढ़ने का सही वक़्त आएगा.
रहीं गीतांजलि, तो उनको तो अनेक हिंदी पाठक बीस-तीस साल से पढ़ते रहे है. पहले उपन्यास “माई” (2000) से ही उनकी अलग पहचान बन गयी और उसका भी अंग्रेजी अनुवाद हुआ और उसे भी पुरस्कार मिला. एक और उपन्यास “अपना शहर उस बरस” चर्चा में आया क्योंकि उसमें दिखाया गया था कि हिंदी-मुस्लिम वैमनस्य हमारे समाज के सभी तबकों में और उदार शिक्षित-वर्ग में भी कितने गहरा धंसा हुआ है. आजकल “रेत-समाधि” की पठनीयता के बारे में जो प्रश्न उठाये जा रहे हैं वे संभवतः उसकी पचनीयता से भी सम्बन्धित हों. यह तो सही है कि गीतांजलि को सरपट नहीं पढ़ा जा सकता था और न पढ़ना चाहिए. सिनेमाई भाषा में तो कहें तो वे कुछ-कुछ मणि कौल और श्याम बेनेगल के तरह की लेखिका हैं. उनको अंतर्मुखी कहा जा रहा है जिसका एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि वे न Facebook पर हैं और न व्हाट्सऐप पर ही अधिक दिखती हैं, तो चाहने पर भी उनको “लाइक” या “फॉरवर्ड” करना मुश्किल है. आजकल के ज़माने में तो इसको शायद समाधिस्थ होना भी कहा जा सकता है. जो लोग उन्हें जानते हैं उनको लगता है जैसी उनकी विनोदी, खिलंदड़ी, और सतत प्रयोग-प्रिय भाषा-शैली है कुछ वैसा ही उनका स्वभाव भी है.
यहाँ यह कह देना आवश्यक लगता है कि मैं स्वयं उनको बरसों से जानता हूँ. कब और कैसे उनसे पहली बार मुलाक़ात हुई यह भी याद है, जो उनके कारण कुछ कम और नामवर जी के कारण कुछ ज्यादा है. सन 1980 के दशक के उत्तरार्ध में किसी वर्ष नयी दिल्ली के नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय (“तीन मूर्ति”) में आयोजित एक संगोष्ठी में एक युवा इतिहासकार ने प्रेमचंद पर एक आलेख पढ़ा; ये गीतांजलि थीं. बाद में जब सब लोग चाय के लिए बाहर निकले तो मैंने नामवर जी की तरफ देखा और उन्होंने मेरी तरफ. (तब तक “प्रेमचन्द: कलम का सिपाही” का अंग्रेजी अनुवाद मैं कर चुका था तो मुझे भी प्रेमचंद की कुछ तमीज आ गई थी.) मैंने कहा, “इनका तेवर कुछ ज्यादा ही तीखा नहीं था?”, तो नामवर जी ने पीक सटकते हुए ग़ालिब का शेर सुनाया:
“मैंने मजनूँ पे लड़कपन में ‘असद’
संग उठाया था कि सर याद आया”
वो ज़माना कब का गया और गीतांजलि इतिहास छोड़ कर उपन्यासकार बन गईं. हम दोनों दिल्ली में रहते हैं, उसी पड़ोस में भी रहें हैं, तो अनेक सन्दर्भों में मिलते रहे हैं. उनका अंग्रेजी पर उतना ही अधिकार है जितना हिंदी पर या शायद कुछ सिवा ही, उनका विश्व-साहित्य से सम्यक परिचय है, और वे कभी फ़ेलोशिप पर और कभी लेखन-वृत्ति (writer’s residency) पर बरसों से विदेश आती-जाती रही हैं. तो अभी हाल में बुकर सम्मान की घोषणा वाले समारोह में जब वे लन्दन पहुंची होंगी तो सुदामा की भाँति “रह्यो चकि-सो बसुधा अभिरामा” वाली स्थिति उनकी नहीं हुई होगी, और जब पुरस्कार मिल गया होगा तब भी वे तुरंत फूल के कुप्पा नहीं हो गईं होंगी. न उनको क्षण भर के लिए भी गुमान हुआ होगा कि उनकी कृति अकस्मात् कालजयी हो गयी है या वे अब हिंदी के समकालीन लेखकों में सहसा सर्वप्रथम हो गयी हैं. न ही उनमें यह भाव जगा होगा कि यह क्या ढोल गले में आ पड़ा जो अब उन्हें बजाते ही रहना होगा. पुरस्कार मिलने के ठीक बाद के कुछ दिनों में लंदन से ही उनके जो ईमेल मेरे पास आते रहे हैं उनसे मेरे इस आकलन की सर्वथा पुष्टि होती है. अगर किसी हिंदी लेखक के आशियाने पर यह बिजली गिरनी ही थी या किसी के सर यह बला आनी ही थी तो गीतांजलि से ज्यादा संतुलित और सुलझा हुआ सुपात्र शायद ही मिलता. याद आता है कि राजकमल के उस लॉन्ग-लिस्ट के उपलक्ष में आयोजित समारोह में वे मुस्कराते हुए मेरे पास आयीं और बोलीं, “मेरा बुकर तो हो गया!”
अब आगे…?
लेकिन फिर वे दो पायदान और ऊपर चढ़ीं और (एक और मुहावरा आजमायें तो) सहसा-अर्जित महा-ख्याति की ओखली में उन्होंने अब सर दे ही दिया है. उनके बारे में अब तरह-तरह की राय बनेगी और अच्छी या कम अच्छी बातें भी कही जाएंगी. यही आशा की जा सकती है कि इस ऐतिहासिक और अभूतपूर्व अवसर पर हिंदी-जगत अपने सामूहिक विवेक का परिचय देगा और कुछ ऐसा नहीं कहा-सुना जाएगा जिसका कोई तार्किक आधार या औचित्य ही न हो. इसका मतलब यह नहीं कि “रेत-समाधि” की अब जो भी आलोचना आये या उस पर टिप्पणी हो तो वह उस पुस्तक की तारीफ में ही हो. पिछले साढ़े-तीन वर्षों में खुद मेरी और गीतांजलि की जब भी बातचीत हुई है तो मैंने खुद उनसे कहा है कि सुनो, उपन्यास का यह प्रसंग मुझे ज्यादा नहीं जमा या यह तो निगलना कुछ मुश्किल है. इस गिले-शिकवे और नोक-झोंक के दौरान उन्होंने कई प्रसंग अपनी दृष्टि से मुझे कभी धैर्यपूर्वक और कभी ताना मारते हुए समझाए हैं और कई मैं अब भी नहीं समझा! समय आयेगा तो शायद इस पर भी वे कुछ लिखना चाहें कि यह उपन्यास लिखते वक़्त उनके मन में क्या था और इसे औरों ने कैसे (या कैसे-कैसे) पढ़ा और समझा.
कुछ प्रश्न मेरे मन में अब भी अकुला रहे हैं जिनको मैंने सार्वजनिक रूप से संक्षेप में व्यक्त तो किया है. लेकिन जिन पर कुछ और मनन आवश्यक है और जिन पर कुछ समय बाद यह उपन्यास दुबारा-तिबारा सघन पाठ (close reading) करके, या अन्य पाठकों से बात कर के और अन्य आलोचकों का लिखा हुआ पढ़ कर, मेरी समझ में कुछ और इजाफा होगा. आप सब के भी विचारार्थ मैं ऐसे तीन प्रश्नों का यहाँ उल्लेख भर करता हूँ जो मेरे मन में आये हैं.
एक, यदि भाषा खिलंदड़ी है तो क्या उससे कथ्य की गंभीरता पर आंच नहीं आएगी?
दो, यदि सहज प्रवाह में बहती और एक कसी हुई और चुस्त कथा कहने के बजाय यह उपन्यास अलग-अलग घरों या देशों में घटित होती और नए-नए चरित्रों को शामिल करती तीन कहानियां कहता है जो एक दूसरे से ढीली डोर से ही बंधी लगती हैं तो उससे इसका प्रभाव बढ़ता है कि बिखरता है?
और तीन, यदि किसी प्रकार की सीमा पार करने का साहस दिखाने पर पात्रों का अंत-काल ही आ जाता है, जैसे कि रोज़ी का आया या माँ का भी, तो इसका अर्थ क्या निकला?
संभव है कि आपके मन में भी कुछ अलग ही प्रश्न उठ रहे हों तो अगले कुछ महीनों में, आओ विचारें बैठ कर हम ये समस्याएं सभी. हिंदी लेखन ने अभी एक बड़ा किला फ़तेह किया है, तो आइये इसी बहाने और लगे हाथ हम हिंदी आलोचना की सामर्थ्य, विविधता और गरिमा बढ़ाने का भी प्रयास करें.
भारतीय साहित्य के बड़े दायरे इस में पुरस्कार का एक बड़ा प्रभाव तत्काल यह पड़ा है कि हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति लोगों की धारणा निश्चय ही बदली है. जैसे टैगोर के नोबेल के बाद बंगाली अन्य भारतीय भाषाओं से कहीं आगे बढ़ी हुई मान ली गयी थी उसी तरह का कुछ आदर-भाव अब हिंदी के प्रति भी जगा है. अनेक अन्य भाषाएँ हैं, उदाहरणार्थ मराठी, कन्नड, या मलयालम, जिनके बोलने वाले हिंदी की तुलना में एक चौथाई भी नहीं हैं पर जहां आम लोगों में साहित्य का संस्कार कहीं अधिक विकसित है. इस पुरस्कार के बाद शायद पढ़ने-लिखने वालों का एक अधिक व्यापक समुदाय बने और न केवल उसमें हिंदी का समुचित स्थान हो पर हम भी अन्य भाषाओं से कुछ सीखें.
इसी तरह अंग्रेजी अनुवाद के माध्यम से यह सम्मान हिंदी को मिला है तो शायद हम हिंदी-वालों का अंग्रेजी के प्रति रुख भी कुछ बदले. अनुवादक की भूमिका का यह प्रश्न टैगोर को नोबेल मिलने के अवसर पर नहीं उठा था क्योंकि टैगोर अपनी बंगाली कविताओं के अनुवादक स्वयं ही थे, भले ही उनकी अंग्रेजी अनुवादों की पाण्डुलिपि कई अँग्रेज़ लेखकों ने सुधारी-संवारी हो जिनमें स्टर्ज मुअर और विलियम रॉथेंस्टाइन जैसे लोग तो थे ही पर महाकवि डब्ल्यू, बी. येट्स ने भी डट के हाथ लगाया था और पुस्तक की तारीफ में लिखी अपनी भूमिका में तो कलम ही तोड़ दी थी.
गीतांजलि श्री की अंग्रेजी टैगोर की अंग्रेजी से उन्नीस तो नहीं ठहरेगी पर पुस्तक का अनुवाद उन्होंने स्वयं नहीं किया, डेज़ी रॉकवेल ने किया है, दोनों के बीच कुछ परामर्श भले हुआ हो. डेज़ी ने अपने अनुवादकीय “नोट” में यह भी ध्यान दिलाया है कि उनके अनुवाद में हिंदी के अनेक शब्द वैसे ही जड़े हुए हैं जैसे कि गीतांजलि की हिंदी में अनेक अंग्रेजी के शब्द विद्यमान थे. हो सकता है कि यह अनुवाद/पुरस्कार प्रसंग हम सब में हिंदी और अंग्रेजी के बदलते संबंधों की एक नई चेतना जगाये और दोनों भाषाओं के बीच कुछ नयी तरह की आवाजाही और पारस्परिकता का प्रस्थान-बिंदु बने.
“कोई अनुभव नितांत एक का नहीं होता, निजी से निजी भी,”
गीतांजलि ने अर्पण कुमार को दिए साक्षात्कार में कहा है, और यह पुरस्कार भी बस निजी नहीं है, इसके अनेक व्यापक और सार्वजनिक अर्थ भी खुलते रहेंगे.
अंत में एक और प्रबल संभावना तो भविष्य के गर्भ में है ही. पूरी उम्मीद है कि गीतांजलि अभी पांच-सात उपन्यास तो और लिखेंगी और हम सबको उन्हें पढ़ने का सुख देंगी. हो सकता है कि भविष्य के अध्येता उनके संपूर्ण कृतित्व को दो भागों में विभाजित करें, पहला तो पुरस्कार-पूर्व काल और दूसरा पुरस्कारोत्तर काल. अभी तो हुआ ही क्या है. उनके लिए और हिंदी के भविष्य लिये भी (ग़ालिब की तर्ज़ पर) हम कह सकते हैं:
“आता है अभी देखिए क्या क्या मिरे आगे”
हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है “अब्दुर रहीम खानखाना” पर. (वाणी, 2019). harish.trivedi@gmail.com |
रेत समाधि पर अभी तक की बेहतरीन टिप्पणी । गीतांजलि से गीतांजलि तक – यह मुहावरा सबसे पहले मैंने लिखा था जो अब चल पड़ा है । हरीश त्रिवेदी और समालोचन को साधुवाद ।
Bahut vyapak aur sarthak prashn uthae hain. In par vichar darkar hai
हरीश त्रिवेदी ने गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद इसकी व्याख्या की है । मेरी दृष्टि में यह समग्रता से लिखी गयी है । ये स्वयं अंग्रेज़ी भाषा के प्रोफ़ेसर रहे हैं । इनका अध्ययन प्रचुर मात्रा में है । श्री से इनकी मुलाक़ात होती है । ईमेल से भी पत्राचार । बहुत व्यक्ति इस समीक्षा को मुकम्मल कहेंगे । प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी ने समाधि के लिये Tomb शब्द लिखने पर मामूली सवाल किया है । मैं चाहता हूँ कि वे इसके लिये वैकल्पिक शब्द लिखें ।
इस उपन्यास के बहाने प्रेमचंद, सलमान रशदी (Rushdie), मलयालम भाषा के के उपन्यासकार, नामवर सिंह का ज़िक्र किया गया है । मलयालम के उपन्यासकार का नाम लिखने के लिये मुझे स्क्रोल करना होगा । परंतु इतना याद रहा है कि वे फ़्रांसीसी दूतावास में कार्यरत रहे हैं । नोबेल पुरस्कार की स्थापना करने वाले शख़्स ने डायनामाइट का ईजाद किया था । यदि मैं नहीं भूला हूँ तो बुकर ने जेसीबी मशीन का निर्माण किया । हरियाणा के फ़रीदाबाद में इसका कारख़ाना है । जेसीबी मशीन इन दिनों अनुचित कारणों से चर्चा में है ।
रेत समाधि का पेपर बैक संस्करण 179/ रुपये का था । यह उपलब्ध नहीं है । राजकमल से गीतांजलि श्री (पांडे) की जितनी पुस्तकें उपलब्ध हैं वे मेरी माली हालत से महँगी हैं ।
पहली बार इतनी सुचिंतित और विचारोत्तेजक जानकारी पुरस्कार और लेखक के बारे में मिलीं।
व्यवस्थित आलेख के लिए हरीश द्विवेदी जी को बधाई! गीतांजलि श्री (जी) को बुकर सम्मान के लिए हमेशा बधाई!
किसी को सम्मान मिलना उसके लिए हमेशा सुखद होता है, और फिर यह सम्मान तो पूरे देश के लिए, भारतीय भाषा हिंदी के लिए आया है, हम सभी गौरवान्वित हैं।
इस आलेख के माध्यम से पुरस्कारों की वृस्तृत जानकारी मिली एवं यह संदेश भी कि रचनात्मक आलोचनाओं का सदैव स्वागत है!
आभार एवं शुभकामनाएं!💐
बहुत सुन्दर मर्मभरा आलेख। ऐसा लेख हरीश जी की कलम से ही सम्भव था।
किसी रचना के पुरस्कृत होने का मतलब यह नहीं है कि एकमात्र वही सर्वश्रेष्ठ है।सितारों से आगे जहाँ और भी है।बहुत बार देखा गया है कि किसी लेखक की पुरस्कृत कृति से अधिक श्रेष्ठ उसकी ही कोई और कृति है। कई बार नामांकित होकर भी तोलस्तोय को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला लेकिन इससे क्या विश्व साहित्य में उनका कद छोटा पड़ गया ? रेणु की चर्चित कृति ‘मैला आँचल’ है लेकिन ‘परती परिकथा’ का क्षितिज उससे कहीं बड़ा है। रेणु बिना पुरस्कृत हुए भी एक बड़े लेखक हैं। पुरस्कृत होना अच्छा है लेकिन यह उत्कृष्टता का कोई आखिरी पैमाना नहीं है।वैसे यह आलेख बहुत बारीकी से इन चीजों पर उँगली रखता है। हरीश जो को साधुवाद ! गीतांजलि जी को एक बार फिर से हार्दिक बधाई !
अत्यंत महत्वपूर्ण विवेचन है।इस उपन्यास का कमाल इसकी खिलन्दड़ी भाषा है।
पहली बार इस विषय पर सुचिंतित और संतुलित पढा। त्रिवेदी जी और समालोचन को बधाई !
मैं हरीश त्रिवेदी सर के हिंदी लेखों को हमेशा हँसते-मुस्कुराते हुए पढ़ता हूँ। इसे भी उसी तरह पढ़ा। उनकी जैसी आलोचना-भाषा के उत्स तक पहुँचने के लिए मैं हमेशा व्याकुल रहा हूँ। रही बात लेख की, तो यह हिंदी वालों के लिए सूचना और विचार के बंद झरोखों को खोलने वाला लेख है। यह बुकर की घमासान चर्चा के क्रमशः ठहरते हुए दिनों में लिखा गया है इसलिए इसमें एक मंथर गति है, आहिस्ता से आगे बढ़ने की राहें हैं और पढ़ने का एक विलंबित आनंद है। सबसे अच्छी बात कि इसके बहाने आगे बढ़कर हिंदी आलोचना के बाहुमूल में थर्मामीटर भी लगा दिया गया है। साधुवाद।
अहा! हरीश जी को पढ़ना हमेशा सुखद और विचारोत्तेजक होता है। उनकी गम्भीरता विट में पगी होती है।
बहुत ही अच्छा पीस ! पढ़कर यह भी लगा कि हरीश सर कितने witty हैं …कई जगह मुस्कुराई पढ़ते हुए .
इस उपन्यास पर सचमुच पहली बार समझ बढ़ाने वाला आलेख पढ़ा। हिंदी पाठकों-लेखकों के लिए यह मार्ग दर्शक है।
हरीश जी ने बड़े श्रम से, बल्कि प्रेम के श्रम से, हिंदी पाठकों के लिए यह अद्भुत आलेख लिखा है।
हिन्दी में जो अतिरेक कभी कभी हिन्दी का अहित कर बैठता है, उसपर साफ सुथरी विद्वत्ता पूर्ण दृष्टि दरकार थी ही, इस संदर्भ में तो और भी ज़्यादा।
बहुत मानीखेज लेख। बुकर और दूसरे पुरस्कारों के साथ रेत समाधि के अतः सूत्रों सहित गीताजंलि जी से उम्मीद कि अभी और लिखें, पसन्द आया। हिंदी उदार हो और आलोचना के स्वस्थ विवेक के साथ हम अपने लेखकों पर विचार भी करें तो सम्मान भी,इसकी अधिक जरूरत है। हरीश जी का इस सुंदर लेख के लिए अभिनन्दन।
बहुत रोचक, जानकारी पूर्ण, तारीफ़ और आलोचना को एक विनोदी सलीके से, जिसका हिन्दी के अनेक विद्वान आलोचकों में सर्वथा अभाव रहता है, निभाता हुआ मूल्यवान लेख। हरीश जी से नियमित लिखवाइए।
इस कृति के बहाने हरीश त्रिवेदी जी ने साहित्य और समाज के बेहद जरूरी सवालों पर बात की है। हरीश जी ने बहुत ही सुंदर ढंग से रेत समाधि को समझा है और हम पाठकों को समझाया है।
बहुत सुंदर ।
गीतांजलि श्री समकालीन उपन्यास-लेखन में बुकर पुरस्कार-प्राप्ति के बाद व्यापक रूप से जितनी चर्चित हुई हैं, उनकी पुरस्कृत कृति उतनी व्यापक पाठकीय लोकप्रियता प्राप्त कर सकी या नहीं – और यदि नहीं तो क्यों ? यह भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । त्रिवेदीजी सिद्धहस्त समालोचक हैं, ओर अपनी बहुविध विशेषताओं के कारण निश्चय ही उनकी विवेचना अति-विशिष्ट है। विट की पच्चीकारी उनकी अपनी ख़ास चीज़ है । उनके विवेचन को कई बार ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है । उनके सहज प्रवाह में कितने ही प्रच्छन्न गूढ़ार्थ भी झलकते हैं। मसलन उनके तीन प्रश्न पुस्तक पाठ के पुनरावलोकन की ओर इशारा करते हैं। जो बहुत कुछ अनकहा या आधा-कहा है, उसको समझाने की कोशिश भी ज़रूरी है। ‘टूम’ और ‘समाधि’ का संकेत भी बहुत कुछ अधूरा ही छूट जाता है। एक मौलिक प्रश्न यह भी मैं जोड़ना चाहता हूँ की मूल हिंदी पुस्तक ओर अंग्रेज़ी अनूदित पुस्तक के एक-भाषी पाठक के प्रभाव क्या और किस हद तक भिन्न हो सकते हैं। सबसे बड़ी बात है की पहली बार हिंदी में उपन्यास-लेखन पर इतनी गम्भीरता से विचार हो रहा है, यह अपने आप में विशेष महत्त्व पूर्ण है।
कितना गहरा, पारदर्शी, सम्मोहक आलेख ! बिल्कुल किसी रोचक कथा सरीखा !
महत्त्वपूर्ण आलेख….ऐसी गंभीर टिप्पणी हरीश सर से ही सम्भव थी…बहुत जानकारियों से भरा…शुभकामनाएं
बहुत अच्छी रचना। यह हिन्दी भाषा साहित्य के लिए गौरवपूर्ण क्षण है क्योंकि प्रायः अंग्रेजी, मराठी, बांग्ला और मलयालम भाषी हिन्दी को कम तरजीह देते हैं। सभी लेखक संगठनों को इस पर विस्तृत चर्चा करनी चाहिए और सरकार, प्रकाशकों तथा स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा हिंदी से अन्य भाषाओं में अनुवाद के लिए हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए। इस मौके पर सभी बड़े प्रकाशक संकल्प लें कि वे अच्छी हिंदी किताबों का अनुवाद शीघ्र कराएंगे और अनुवादकों को सम्मान सहित उचित राशि पारिश्रमिक के रूप में देंगे।
सर्वथा अलग और अनूठी दृष्टि मिली हरीश सर के इस आलेख को पढ़कर।
अपने खिलंदडे़ अंदाज में हरीश जी ने बुकर और रेतसमाधि दोनों का बेहतरीन खुलासा किया है। अब शायद थोड़ा थोड़ा समझ में आए। आभार हरीश जी। – – हरिमोहन शर्मा
रेत समाधि पर प्रो हरीश त्रिवेदी का आलेख पढ़कर समृद्ध हुआ। अब तक इस उपन्यास पर जितने लोगों का लिखा मैंने पढ़ा है, उनमें यह सर्वोत्तम है।
हरीश जी को साधुवाद और गीतांजलि श्री को बधाई।
रेत समाधि पर हरीश जी की समीक्षा काफ़ी विस्तृत और सुविचारित है।
रेत समाधि पर रवींद्र त्रिपाठी के आलेख से हरीश जी की इस सारगर्भित टिप्पणी को जोड़कर पढ़ने पर पठन का वृत्त पूरा होता है।
हरीश जीको साधुवाद और समालोचन क़ौ धन्यवाद।
बहुत ही खूबसूरत और संयमित ढंग से हरीश जी ने किताब और ईनाम दोनों का विशद और बहुआयामी ब्यौरा, विश्लेषण सहित पेश कर दिया। हिंदी के चिंतन को समृद्ध करने के लिए ऐसे ही मानीखेज आलेखों की जरूरत है। हरीश जी तक हमारा धन्यवाद पहुंचा दें। रेत समाधि अभी पढ़ी जा रही है। धीरे-धीरे।
हरीश त्रिवेदी जी का यह आलेख भी ‘रेत समाधि’ की तरह ही विशिष्ट है। गहन विवेचना तो है ही, कहन का अंदाज भी इसे मूल्यवान बनाता है। आलेख के अंत में जो तीन बिंदु त्रिवेदी जी ने दिए हैं, उनसे पूरी सहमति है। इन्हें विस्तार मिलना चाहिए और भी बातचीत होनी चाहिए। समालोचन पर एक से बढ़कर एक रचनाओं के लिए बहुत बधाई।
आप सभी का हार्दिक आभार । कुछ आश्वस्ति हुई, काफी हौसला-अफजाई।
कुछ मित्रो ने जिज्ञासा प्रकट की है या पश्न पूछे हैं। तीन दिनों से यात्रा में हूँ, अब पाँच दिन एक गोष्ठी चलेगी । अगले हफ्ते घर लौट कर शायद कुछ और जोड सकूँ । फिलवक्त अनेकशः धन्यवाद!
हरीश त्रिवेदी
बड़ी अद्भुत जानकारियों से भरा हरीश जी का यह लेख खासा दिलचस्प, और एक मानी में हैरतअंगेज भी है। बुकर समेत बहुत सी चीजों के बारे में पहली बार मुझे इस लेख से ही पता चला। हरीश जी को लंबे अरसे से पढ़ता आ रहा हूँ, और उनके लेखन का मैं मुरीद हूँ। बात को सफाई से कहने की जो जादूगरी और विट उनके पास है, और एक बेहतरीन किस्सागो सरीखा खिलंदड़ा मनमौजीपन भी, हिंदी आलोचना उससे कुछ सीख ले, तो अपने ठसपने और बासीपन से काफी हद तक मुक्त हो सकती है।
अलबत्ता, इस बेहतरीन लेख के लिए भाई हरीश जी और अरुण जी को साधुवाद!
स्नेह,
प्रकाश मनु
बहुत बढ़िया लिखा है। एक शिकायत है – यदि उपन्यास का अंत नहीं बताया होता तो ज़्यादा अच्छा होता। मेरे जैसे लोग जो अब तक नहीं पढ़ पाए हैं उनको अब पहले से ही पता चल गया। बहरहाल….
हरीश जी ने लिखा है कि अमिताभ बागची के उपन्यास का हिंदी में अनुवाद नहीं हुआ है. मैं यहाँ जोड़ना चाहूँगा कि Prabhat Ranjan ने इसका बढ़िया अनुवाद बहुत पहले कर दिया था, शायद DSC सम्मान मिलने से पहले. मैंने इसकी पाण्डुलिपि भी पढ़ी थी. हाँ, यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है. यानी हिंदी में अनुवादक तो हैं, समस्या कहीं और है. याद यह भी आता है कि मदन सोनी ने ‘द नेम ऑफ़ द रोज़’ जैसे जटिल उपन्यास का अनुवाद बहुत पहले कर लिया था, लेकिन प्रकाशित काफ़ी बाद में हो पाया.
हरीश जी ने पुरस्कार मिलने से मची अफरा–तफ़री के ऐन बीचों बीच स्थिर हो कर बड़े पुरस्कारों की नियमावली व गेम प्लान, उन्हें स्थापित करने वालों की पृष्ठभूमि की ओर बड़े अर्थपूर्ण इशारे किए; इस उपन्यास के निमित्त भाषा के खिलंदड़ेपन बरक्स कथा तत्व, चुस्त कथानक के बरक्स बिखरे और अपने आप विनयस्त होने का सा भास देते कथानक, किसी भी तरह की सीमा को लाँघने के उपन्यास के कथानक में मारक परिणाम को विचारोत्तेजक रूप से प्रश्नकित किया है।
हिंदी और अंग्रेज़ी के बदलते संबंधों को गौर से देखने समझने की ओर भी यह लेख इशारा करता है। कुलमिला कर उपन्यास को पढ़ने में आए आनंद को इस लेख ने दूना किया, जैसा कि समर्थ आलोचना ही कर सकती है☘️☘️☘️
हरीश त्रिवेदी जी का लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।जिस तरह गीतांजलि श्री ने खिलंदड़ी भाषा में उपन्यास की कथावस्तु को ढीला ढाला सिलते हुए पाठकों को ओढ़ा दिया है ठीक उसी तरह हरीश त्रिवेदी ने भी ढीली ढाली लेकिन समग्र आलोचना का ढीला और बेनाप अँगरखा सिलकर रेत समाधि पर डाल दिया है। वैसे त्रिवेदी जी ने सूक्ष्म व्यंग्य की चेतना से हिंदी के लेखकों के पुरस्कारों के विषय में उनकी सोच, अनूदित साहित्य पर पुरस्कारों का प्रभाव और हिंदी के लोगों की मानसिकता —-इन सब को एक साथ ही उजागर कर दिया है।यह लेख कोई मुकम्मल आलोचना नहीं है लेकिन सीमित शब्दों में बहुत कुछ कहने के लिए प्रयत्न ज़रूर है।