तुलसी-साहित्य का पुनरावलोकन
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हाल ही में हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक, आलोचक, समीक्षक ज्योतिष जोशी की आलोचनात्मक पुस्तक ‘तुलसीदास का स्वप्न और लोक’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है. सतही तौर पर लग सकता है कि यह पुस्तक भी अन्य सामान्य आलोचनात्मक पुस्तकों की तरह तुलसीदास को संतशिरोमणि एवं भक्त कवि के रूप में अथवा धार्मिक रूढ़िग्रस्त प्रतिक्रियावादी वर्ण व्यवस्था के घोर समर्थक के रूप में चित्रित करने वाली होगी. यह भी लग सकता है कि लेखक ने तुलसीदास को सामाजिक क्रान्ति के उद्घोषक तथा समन्वयवादी भारतीय संस्कृति के उन्नायक के रूप में रेखांकित किया हो. यह विचार स्वाभाविक इसलिए है कि तुलसीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेकानेक ग्रंथ तथा शोध प्रबन्ध उपलब्ध हैं, जिनमें प्रकारान्तर से उपरोक्त विषयों को ही केन्द्र में रखा गया है.
आचार्य प्रवर पं रामचन्द्र शुक्ल, पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा, पं. परशुराम चतुर्वेदी, नगेन्द्र प्रभृति विद्वानों ने विशेष रूप से रामचरित मानस को केन्द्र में रखकर तुलसीदास की सामाजिक चेतना, प्रतिबद्धता और धार्मिक कट्टरता के अन्यतम विरोधी स्वरूप के विभिन्न पक्षों को रेखांकित किया है. दूसरी ओर, अनेक आलोचकों ने तुलसीदास को सामन्ती व्यवस्था के पोषक और संकीर्ण मनोवृत्ति के समर्थक की तरह प्रस्तुत किया है.
संभवतः प्रस्तुत पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लेखक ने दोनों परस्पर विरोधी विचारों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और अपनी मौलिक उद्भावना के द्वारा नया आयाम देने का प्रयत्न किया है. इसके लिए लेखक ने तुलसीदास के समस्त रचनाकर्म को एक समर्थ शोधकर्त्ता के रूप में खंगाला है और अनेक अनछुए तथा अनदेखे पक्षों को नए सिरे से व्याख्यायित किया है. एक ओर तो यह पुस्तक रामचरितमानस के अतिरिक्त कवितावली, दोहावली, गीतावली, विनय पत्रिका, बरवैरामायण और हनुमान बाहुक के उद्धरणों के माध्यम से भक्त कवि तुलसीदास के वैचारिक व्यापकत्व तथा समष्टिगत भावों को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है, तो दूसरी ओर सामाजिक जीवन में व्यक्ति की शुचिता, चारित्रिक दृढ़ता, मानव मूल्यों की गरिमा और पारिवारिक सम्बन्धों का आदर्श रूप प्रस्तुत करती है. लेखक के शब्दों में:
‘‘अपने महत्त् संकल्प और आदर्श की व्याख्या के लिए तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में समाज के लिए आचरण संहिताएँ निर्धारित कीं और प्रायः सबसे इन पर चलने की मांग की. इन संहिताओं में चरित्र, आचरण, रिश्ते-नातों के प्रति अपेक्षित बर्ताव, धर्माचरण, मिथ्या भाषण से परहेज, अहिंसा, दयाशीलता, स्वधर्म पर दृढ़ता जैसे मूल्य शामिल हैं जो जीवन की कृतार्थता के आदर्श हैं. यह वे मूल्य हैं जो समाज को सन्मार्ग पर ले जाते हैं और वह समाज एक ऐसी व्यवस्था में परिवर्तित हो जाता है जिसमें किसी को भी दुख नहीं होता और सब में परस्पर प्रीति रहती है. यह रामराज्य जैसी आदर्श व्यवस्था के लिए एक बुनियाद है, एक आधार है, जिस पर वह निर्मित हो सकती है.’’
(पृष्ठ- 92-93)
जोशी ने अपने इन विचारों को रामचरितमानस के अनेकानेक चरित्रों के अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में किए गए आचरण से परिपूर्ण करते हैं. अनेक स्थानों पर तुलसीदास स्वयं हैं, किन्तु मूलतः राम, सीता, भरत आदि के अतिरिक्त अनसूया, सुमंत्र से लेकर शबरी और निषाद तक को आचरण मर्यादा के संवाहक के रूप में प्रस्तुत करते हैं. तुलसी पारिवारिक सम्बन्धों के अतिरिक्त गुरु-शिष्य सम्बन्धों, पुरुष-प्रधान समाज के अतिचारों एवं समाज तथा कुशासन पर जो तीखे प्रहार करते हैं वे देखते ही बनते हैं.
तुलसीदास का समस्त साहित्य भारतीय दर्शन के द्वैत-अद्वैत, सगुण-निर्गुण, शास्त्र एवं लोक, नियति एवं कर्मयोग, समष्टि एवं व्यष्टि आदि के प्रसंगों को सम्यक दृष्टि प्रदान करता है, साथ ही साथ तत्कालीन समाज के अन्तर्विरोधों, मूल्यहीन मान्यताओं, छल, पाखंड और दुर्नीति-पूर्ण आचरण की खुलकर भर्त्सना भी करता है. तुलसीदास त्रेता युग की राम कथा का वर्णन करते हुए भी तात्कालिक सामाजिक स्थितियों का आँचल कस कर पकड़े हुए हैं और अनूठी काव्य युक्तियों के द्वारा वर्तमान कुरीतियों तथा मर्यादाहीनता पर करारी चोट भी करते हैं. तुलसीदास के वैचारिक विराट्त्व का परिचय हमें एक स्थान पर नहीं, अनेक स्थलों पर प्राप्त होता है. एक उदाहरण के द्वारा इसे पुष्ट किया जा सकता है.
लेखक ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड का एक प्रसंग चुनता है जहाँ काकभुशुण्डि और गरुड़ का सम्वाद है. काकभुशुण्डि कलिकाल का वर्णन करते हुए गरुड़ को अपने अनुभव बता रहे हैं कि त्रेतायुग में क्या था, द्वापर में क्या था और कलियुग में केवल राम ही मनुष्य का एकमात्र साध्य हैं. कलियुग में जनजीवन की जो व्याख्या काकभुशुण्डि गरुड़ को सुनाते हैं, उनको लेखक ने उदृत करते हुए कहा है-
‘‘यह चित्र तद्युगीन समाज में व्याप्त लम्पटता को दिखाता है और बताता है कि इस समाज का बण्टाधार होना निश्चित है. झूठे, मक्कार, अहंकारी, मसखरे और चोर, समाज के मुसाहिब बन बैठे हैं. जनता में उन्हीं का आदर है. मूर्ख, पंडित और आदर्श-मर्यादा से ऊपर रहने वाला राज-समाज कोई नीति-नियम नहीं मानता. जो जितना बड़ा बहुरूपिया है, वह उतना ही बड़ा तपस्वी और सिद्ध पुरुष है. ऐसे समाज को कोई दिशा भी दे तो क्या दे? और कौन उसकी सुनेगा? तुलसी का यह समाज थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ हमारे बीच आज भी मौजूद है. झूठ और फ़रेब के साथ धर्म के ठेकेदार हमारी आँखों के सामने अपने करतब करते हैं, हम तमाशा देखने को अभिशप्त हैं और हमारी प्रजा मुग्ध-भाव से धन्य-धन्य हो रही है. तुलसीदास ने समाज की इस अधोगति का चित्रण ही नहीं किया, उसकी लानत-मलायत ही नहीं की, उसका यथा संभव प्रतिरोध भी किया. इस प्रतिरोध की प्रतिक्रिया भी सही तो दाने-दाने को मोहताज भी हुए और क्षुब्ध होकर धर्म-ध्वजावाहकों को उनकी असली पहचान भी बताई.’’
(पृष्ठ-59)
तुलसीदास के विराट और व्यापक अनुभव-संसार के अप्रत्याशित रूप से दो छोर हैं- आर्थिक विपन्नता से लेकर आध्यात्मिक सम्पन्नता तक. उनकी यह अनुभव-यात्रा उनके काव्य को वैचारिक पृष्ठभूमि तो प्रदान करती ही है, उसके अतिरिक्त सामाजिक विसंगितयों, मानवीय संवेदनाओं की टकराहट और अव्यक्त मानसिक विषमताओं के सूक्ष्मतम बिन्दुओं को सागर जैसी गहनता भी प्रदान करती है. एक उदाहरण :
‘‘धूत कहां अवधूत कहां, रजपूत कहों, जोलाहा कहाँ कोऊ.}
काहू की बेटी से बेटा नहीं व्याहब, काहू की जाति बिगारि न सोऊ..
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रूचै, सो कहे कछु कोऊ.
माँगि के खैबो, मसीत में सांइबो, लैबो ना एक, न दैबे को दोऊ..’’
(कवितावली, उत्तरकाण्ड, 106)
भिक्षा के अन्न से भूख शान्त करना और रात में शरण के लिए मस्जिद में सोना आर्थिक विपन्नता का चरम है; किन्तु इस स्थिति को भी वे दीन-हीन दयनीय और तिरस्कृत जीवन के प्रसंग की तरह नहीं देखते. वे राम के गुलाम हैं और अपने सामने शहंशाह के वैभव को भी वे अस्वीकार करने में नहीं झिझकते.
‘हम चाकर रघुबीर के परौ लिखौ दरबार.
तुलसी अब क्या होहिंगे नर के मनसबदार..’
और भी-
‘घर-घर मांगे टूक पुनि भूपति पूजे पाँय.
जे तुलसी तब राम बिनु, ते अब राम सहाय..’
(दोहावली-109)
जोशी की तीक्ष्ण और व्यापक मूल्य-विवेचना उन्हें विशिष्ट आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित करती है. वे तुलसी-साहित्य के अनेक अनदेखे प्रसंगों के उनके समस्त लेखन को खंगाल कर इस विलक्षणता के साथ प्रस्तुत करते हैं कि पाठक चकित तो होता ही है, इसके साथ-साथ तुलसी के व्यापक भाव-बोध से भी साक्षात्कार करता है. इस पुस्तक में कुल पाँच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय के अन्तर्गत उस खंड के अनेक उपखंड हैं. ये अध्याय इस प्रकार हैं :
‘‘तुलसीदास का समय और समाज
सामाजिक जीवन-आदर्श की व्याख्या
लोक व्यवहार, समाज और राज
सांस्कृतिक नवोन्मेष का विराट उद्यम तथा
समन्वयकारी दृष्टि और सामरिक समरसता.”
इन अध्यायों के शीर्षक से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक ने तुलसी-साहित्य का विवेचन-विश्लेषण करते समय किन पक्षों एवं प्रसंगों को विषय-वस्तु का रूप दिया है. किन्तु इससे भी बड़ी बात यह है कि इन अध्यायों के उपखंड भी उन पक्षों की विशेषताओं को रेखांकित करते हैं. यहाँ प्रत्येक खंड के उपखंड का उल्लेख समीचीन नहीं जान पड़ता, अतः उदाहरण स्वरूप केवल एक खंड ’समन्वयकारी दृष्टि और सामरिक समरसता’ के सम्बन्ध में ही कुछ कहना श्रेयस्कर होगा. इस खंड के उपखंडों के शीर्षक हैं :
‘‘तुलसीदास की भक्ति का स्वरूप, अद्वैत-द्वैत विचारों का समन्वय, भाव-कर्म और पुरुषार्थ की परस्परता, शास्त्र तथा लोक में अभिन्नता, शैव भक्ति और वैष्णव का एकीकरण, ज्ञान और भक्ति का समन्वय, भौतिकता, अध्यात्म और मानवता का ऐक्यभाव, भारतीय अस्मिता और धर्म का समन्वय, संस्कृति, साहित्य तथा सर्जनात्मक विधानों का समन्वय.’’
यह निर्विवाद है कि तुलसी साहित्य के अनेकानेक आलोचकों, समीक्षकों तथा व्याख्याकारों ने तुलसीदास की भक्ति को दास्य-भाव के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है. साथ ही शैव और वैष्णव मतावलम्बियों में एकत्व के भाव-बोघ को अत्यन्त सुन्दर रूप से विवेचित किया है. इसके अतिरिक्त तुलसी के ज्ञान और भक्तिभाव में समन्वय स्थापित करने के अनेक प्रसंगों को भी रेखांकित किया गया है. जैसे कि आचार्य प्रवर रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में इस प्रसंग में कहा है :
‘‘गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सर्वांगपूर्णता. जीवन के किसी भी पक्ष को सर्वथा छोड़ कर वह नहीं चलती है. सब पक्षों के साथ उसका समन्वय है. न उनका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से. धर्म तो उसका नित्य लक्षण है. तुलसी की भक्ति को धर्म, ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं. योग का भी उसमें समन्वय है, पर उतने ही का जितना ध्यान के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए आवश्यक है.’’
(हिन्दी साहित्य का इतिहासः भक्तिकालः पृष्ठ-147)
इसी प्रकार कुछ अन्य शीर्षस्थ आलोचकों ने भी तुलसी की भक्ति-साधना पर यथेष्ट प्रकाश डाला है; किन्तु इस पुस्तक की संभवतः सबसे बड़ी विशेषता तुलसी के समन्वयवादी विचारों की भारतीय दर्शन की विश्व कल्याणकारी भावना के प्रति अटूट आस्था और उसकी विलक्षणता को आधुनिक संदर्भों में पुनर्प्रतिष्ठित करना है. यह वर्तमान भारतीय समाज के लिए नितान्त आवश्यक और प्रासंगिक भी है.
मध्य-युगीन भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण, द्वैत और अद्वैत आदि विभिन्न मतान्तरों के कारण कट्टरपंथियों में परस्पर विरोध जन्म लेने लगा था. कबीर ने सगुण उपासना का उपहास करते हुए लिखा :
‘पाहन पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूँ पहाड़.’’
तो दूसरी ओर सूरदास ने निर्गुणपंथी उपासना को दुरूह, नीरस और अग्राह्य बताते हुए कहा-
‘‘मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उड़ि जाहज को पंछी, पुनि जाहज पे आवै..’
ऐसी विषम स्थिति में सगुण और निर्गुण, ही नहीं, अद्वैतवाद, विशिष्ट अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद एवं शुद्ध अद्वैतवाद जैसे मत-मतान्तर प्रचलित हो गए थे. भक्ति के सम्बन्ध में तुलसीदास ने जो कुछ कहा, उसे जोशी जी कितने सटीक और हृदय ग्राही रूप में प्रस्तुत करते हैं, यह इस उद्धरण से स्पष्ट हो जाएगा :
‘‘असल बात यह है कि तुलसी दास ने अद्वैतवाद और विशिष्टताद्वैतवाद की उन सीमाओं को परख लिया था जिनमें वे दोनों अधूरे तथा एकांगी थे. अपने विभिन्न रूपों में वे लोकाश्रित धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किए जा सकते थे . .’’
‘‘इस अद्वैत-द्वैत मतवाद में निर्गुण और सगुण का विवाद भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. सभी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक सम्प्रदाय, जिनमें केवल द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी तथा शुद्धा द्वैतवादी आचार्य शंकर के मायावाद के साथ-साथ निर्गुण ब्रह्मवाद की मान्यता से असहमत थे. यह विवाद भक्ति और दर्शन दोनों क्षेत्रों में था. रामानुजाचार्य तथा वल्लभाचार्य दोनों ने अद्वैत ब्रह्म की धारणा का खंडन करते हुए उसे स्वभावतः सगुण बताया. तुलसीदास ने इन दोनों मतवादों को अभिन्न करते हुए अपने आराध्य राम को निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में देखा-
‘‘सगुनहि अगुनहि नहि कुछ भेदा. गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा..
अगुन अरूप अलख अज जोई. भगत प्रेम बस सगुन सो होई..’’उनकी दृष्टि में सगुण-निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण पंडित और वेद ऐसा ही कहते हैं. जो निर्गुण, अरूप, अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर सगुण रूप हो जाता है. ध्यान दें तो यहाँ भी भक्ति है जो निर्गुण, निराकार को भी सगुण रूप में आने को विवश कर देती है, क्योंकि वह अतिशय प्रेम है और इसकी अवहेलना ईश्वर का निर्गुण रूप भी नहीं कर सकता.’’
(पृष्ठ 330-331)
इसी उपखंड में द्वैतवाद की सम्यक मीमांसा के द्वारा तुलसीदास के माया और ब्रह्म का भी दिलचस्प विवेचन किया गया है. तुलसीदास ‘माया’ को त्याज्य अथवा भ्रमजनित अविद्या नहीं मानते. वे माया को ब्रह्म की ही ऐसी शक्ति के रूप में स्थापित करते हैं जो सृष्टि के समस्त प्राणियों को जीवनगत वास्तविकताओं और नियति चक्र की विषमताओं का बोध कराती है. लेखक ने इसे व्याख्यायित करते हुए कहा है:
‘तुलसीदास द्वारा माया की नूतन व्याख्या है, जो केवल मोह मूल ही नहीं, ज्ञान मूल भी है.’
वे इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं :
‘‘यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि तुलसीदास के यहाँ वह माया है ही नहीं, जो अद्वैतवादियों के यहाँ है. जगत् के मिथ्या होने में ही अद्वैत की माया है. यह संसार ही मायारूपा अविद्या है पर यह मायारूपा अविद्या ही तुलसीदास के यहाँ मिथ्या हो जाती है. तुलसीदास ने जिस माया को ग्रहण किया है और उसे संश्लेषित कर प्रयोग में लिया है, वह विद्या माया है जो केवल जगत की रचना या विक्षेप ही नहीं करती, मनुष्य का कल्याण भी करती है.’’
(पृष्ठ-335)
इसी संदर्भ में जोशी मोक्ष या मुक्ति के संदर्भ में तुलसीदास की अवधारणाओं का दिलचस्प विवेचन करते हैं. भारतीय परम्परा में वर्णित दो प्रकार की मुक्तियाँ हैं- जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति. वे ‘मुक्तिकोपनिषद’ में वर्णित सालोक्य मुक्ति और सारूप्य मुक्ति का उल्लेख करते हैं.
भारतीय संस्कृति के मानवतावादी लौकिक तथा अलौकिक सूत्रों को सहज, सरल, सुबोध भाषा में काव्यत्व के सभी गुणों से पूर्ण तुलसी-साहित्य के अमृत-तत्व का बोध इस पुस्तक के पठन से अनायास ही हो जाता है. पुस्तक के अन्त में ज्योतिष जोशी ‘अध्ययन का समाहार’ में विनम्रता पूर्वक कहते हैं:
‘‘यह अध्ययन एक पाठक की दृष्टि से समकालीन जीवन के प्रश्नों और परिप्रेक्ष्यों में किया गया है जिसमें तुलसीदास जैसे महानतम कवि को देखने-समझने की चेष्टा ही है, किसी आप्त निर्णय तक पहुँचने की कोशिश नहीं. इस रूप में यह अध्ययन उन्हें नए सिरे से देखने-समझने की दिशा में एक पहल हो सकता है, क्योंकि आज के समय में जिन प्रश्नों और समस्याओं के बीच हम खड़े हैं तथा मानवता जिस संत्रास को झेल रही है, उसका समाधान इस दूरदर्शी कवि के पास आज भी है.’’
(पृष्ठ-398)
सेतु प्रकाशन ने इसे मनोयोग से प्रकाशित किया है, मुखपृष्ठ पर कनु पटेल के चित्र इसे और आकर्षक बनाते हैं.
भारतरत्न भार्गव नाट्यकुलम संस्थान, कोठारी गढ़ परिसर, |
‘कवित विवेक एक नहीं मोरे’ वाली तुलसीदास की विनम्रता ज्योतिष जोशी जी के तुलसीदास विषयक पूरे अध्ययन-विवेचन-विश्लेषण में अनुस्यूत है। किंतु, उनकी पुस्तक तुलसीदास पर लिखित तमाम प्रख्यात विद्वान आलोचकों की चिंतन-परंपरा को आगे बढ़ाने में समर्थ सारस्वत कार्य है।
मैंने दो बार जोशी जी की यह किताब पढ़ी है और इस क्रम में मेरी समझ में इज़ाफ़ा हुआ है।
भार्गव जी का आलेख समकालीन साहित्य से आक्रांत पाठकों को यह पुस्तक पढ़ने की प्रेरणा देता है।
साधुवाद।
कला के प्रतिमान पर रामचरितमानस अन्यतम है लेकिन समतामूलक समाज की दृष्टि से कवितावली।यह एक तरह से उनकी आत्मकथा है जिसमें अपनी समस्त पीड़ा उन्होंने उड़ेल दी है।माँगकर खायेंगे और मस्जिद में सोयेंगे। यह एक अलग भावभूमि है जहाँ तुसली का काव्य वर्णाश्रम-व्यवस्था के तमाम रूढ़ीवादी मूल्यों को छोड़ एक विद्रोही तेवर में दिखाई देता है। ज्योतिष जी एवं भार्गव जी को साधुवाद !