मिलान कुंदेरा और निर्मल वर्मा |
मिलान कुंदेरा का अभी निधन हो गया तो हिंदी में भी इसका मातम मनाया गया, उनकी याद जगाई गयी, और यहीं “समालोचन” में उनकी एक कहानी का सुशांत सुप्रिय का किया अनुवाद प्रकाशित हुआ. साथ ही उनके एक उपन्यास “द जोक” के हिंदी अनुवाद पर केन्द्रित गरिमा श्रीवास्तव एक लेख भी छपा. यह हिंदी की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय सजगता का लक्षण है कि हमें देश-विदेश के लेखकों के महत्त्व की जानकारी है, और यह हिंदी की समृद्धि का भी द्योतक है कि कुंदेरा की कम से कम एक कहानी और एक उपन्यास हिंदी में भी उपलब्ध है.
पर इस प्रसंग में निर्मल वर्मा का नाम नहीं आया यह बड़े आश्चर्य का विषय है. कुंदेरा की जिस कहानी का सुशांत का अनुवाद “लिफ्ट लेने का खेल” नाम से यहाँ छपा है संयोगवश उसी कहानी का अनुवाद निर्मल १९६० के दशक में ही कर चुके थे “खेल खेल में” शीर्षक से ! तभी उन्होंने कुंदेरा की एक और कहानी का भी अनुवाद किया था “मैं एक पीड़ित ईश्वर” नाम से, और यह दोनों कहानियाँ निर्मल की एक पुस्तक में छपीं जो सात चेक कहानियों के उनके द्वारा किये गए अनुवाद का संग्रह थी. यहाँ कुंदेरा के उस छोटे-से परिचय को पूरा ही उद्धृत कर देना संगत होगा जो तब निर्मल ने हिंदी पाठकों की जानकारी के लिए उस पुस्तक में लिखा था:
“साहित्य की शायद ही कोई विधा उनकी कलम से अछूती बची रह गयी हो. साहित्यिक जीवन का आरम्भ कविताओं से हुआ; अभी तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. एक आलोचनात्मक ग्रन्थ “उपन्यास की कला” पर उन्हें चेक-लेखक-संघ का पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है. 1962 में उनका पहला चर्चास्पद नाटक “कुंजियों के मालिक” राष्ट्रीय-थिएटर में खेला गया. नाटक का अनुवाद अनेक भाषाओं में हो चुका है. तीन लम्बी कहानियों का एक छोटा-सा संग्रह “हास्यास्पद प्रेम-घटनाएं” 1963 में प्रकाशित हुआ; “मैं एक पीड़ित ईश्वर” कहानी उसी संग्रह से ली गयी है.”
पाठक ध्यान देंगे कि इस परिचय में उस किसी भी कृति का नाम नहीं है जिन-जिन के लिए कुंदेरा विख्यात हुए. उसका बहुत ही सरल-सा कारण है, कि जब निर्मल ने ये अनुवाद किये और यह परिचय लिखा तब तक कुंदेरा ने उनमें-से कोई पुस्तक लिखी ही नहीं थी! निर्मल ने कुंदेरा की प्रतिभा तभी पहचान ली थी जब उस पूत के पाँव पालने में ही थे.
बाद में कम्युनिस्ट शासन के अत्याचार से त्रस्त होकर कुंदेरा स्वदेश छोड़ कर 1975 में फ्रांस पलायन कर गए और अपनाए गए उस देश से उनका कुछ ऐसा तादात्म्य विकसित हुआ कि फिर वे फ्रेंच भाषा में ही लिखने लगे और उन्होंने फ्रेंच नागरिकता भी ले ली. कम्युनिस्ट देश का कोई नागरिक इस तरह पलट जाये बल्कि अपना पूरा कायाकल्प क्या मानसकल्प कर ले तो उस घोर शीत-युद्ध के समय में वह पूरे पश्चिमी गुट का लाडला तो हो ही गया. जिन विदेशी लेखकों को हम इतना महान मानते हैं उनकी प्रतिष्ठा स्थापित होने के साहित्यिक कारण तो हैं ही पर परोक्ष राजनीतिक और कूटनैतिक कारण भी रहे होंगे यह हमारी नज़रों से ओझल हो जाता है.
एक और उल्लेखनीय बात यह है कि जब सात चेक कहानियों के अनुवादों का निर्मल का वह संग्रह 1966 में छपा तब तक कुंदेरा की किसी भी कहानी का अंग्रेजी में भी अनुवाद नहीं हुआ था. निर्मल 1959 में चेकोस्लोवाकिया पहुँच गए थे (तब उस देश का यही नाम था पर अब वह दो और भी छोटे भागों में विभाजित हो चुका है). वहाँ उन्होंने चेक भाषा सीखी और सीधे चेक से अनेक पुस्तकों के अनुवाद किये. हिंदी में अनुवाद तो अंग्रेजी से ही होते रहे हैं पर किसी और विदेशी भाषा से सीधे अनुवाद करने की हिंदी में यह पहली मिसाल न भी हो तो उस औपनिवेशिक प्रथा का विरल अपवाद अवश्य है. दृष्टव्य है लगभग उन्हीं दिनों भीष्म साहनी भी छह साल मास्को में रहे पर रूसी भाषा उस रवानगी से नहीं सीख पाए. (हाँ, उनके बच्चे ज़रूर सीख गए और बड़े हो कर उनकी पुत्री कल्पना JNU में रूसी भाषा पढ़ाती रहीं.)
सीधे किसी विदेशी भाषा से अनुवाद होने पर उस अनुवाद का आस्वाद ही बदल जाता है. और जब उसी कृति का अनुवाद अंग्रेजी से छन कर आता है तो उसे एक बार नहीं दो-दो बार पिष्टपेषित समझना चाहिए. उसी कहानी के निर्मल के अनुवाद को सुशांत के अनुवाद से मिला कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा. जोड़ दूं कि सुशांत ने अपने असंख्य अनुवादों से हिंदी का खजाना भरा है और उनके प्रति मेरा विशेष सद्भाव इसलिए भी है कि जैसा उन्होंने स्वयं ही हाल में याद दिलाया, वे तो मेरे छात्र रह चुके हैं! दूसरे, तुलनात्मक साहित्य पढ़ने-पढ़ाने के बरसों के अनुभव में मैंने जो पहला सिद्धांत समझा और समझाया वह यह था कि सार्थक तुलना वह होती है जिसमें दोनों पाठ इस प्रकार पढ़े और समझे जाये कि दोनों के ही सबल पक्ष उजागर हों और यह न लगे कि आप एक पाठ को गिरा कर दूसरे को उठाना चाहते हैं. तो एक छोटी सी बानगी लेते हैं इन दोनों अनुवादों की:
[निर्मल]: पेट्रोल की सुई सहसा सिफर पर आकर ठहर गयी. दो सीटों की छोटी सी कार थी. कार चलाने वाले युवक ने खीझकर कार के पेटूपन को कोसा, “कितनी जल्दी सारा पेट्रोल भकस जाती है.”
(सुशांत]: पेट्रोल-मापक पर लगी सुई अचानक टंकी ख़ाली होने की सूचना देने लगी और स्पोर्ट्स-कार के युवा चालक ने घोषणा की कि यह पागलकर देने की हद तक ज्यादा पेट्रोल खाती है.
ध्यान रहे कि इन दोनों पाठों के बीच एक अदृश्य पाठ और भी है, जो वह अंग्रेजी अनुवाद है जिससे सुशांत ने अपना अनुवाद किया है. इस दोहरी प्रक्रिया की थोड़ी सी और बानगी लेनी हो तो अगले ही पैराग्राफ में पहले अनुवाद में जो “लड़की” है वह दूसरे में “युवती” है, पहले का “एडवेंचर” दूसरे का “रोमांच” है, और पहले में युवक “कार के पीछे” छिप जाता है तो दूसरे में बस “छिप जाता” है. पहले में लड़की अपने “सौंदर्य का इस्तेमाल” करती है तो दूसरे में युवती अपनी “खूबसूरती का दुरुपयोग” करती है, और हँसी-हँसी में युवक पहले अनुवाद में उसे “कमीनी” कहता है तो दूसरे में “धोखेबाज़”! तो समझिये कि पल-पल परिवर्तित अनुवाद-वेश.
जैसा कि मैंने पहले कहा, इन दोनों पाठों में जो छोटे-छोटे अंतर हैं उनसे बड़े-बड़े निष्कर्ष जल्दबाजी में न निकाले जाये. पूरे दोनों पाठ लेकर जिन्हें रुचि हो वे स्वयं इस दिशा में बढ़ें और तुलनात्मक आनंद लाभ करें. कुछ शायद ऐसे भी पाठक हों जिन्हें दोनों पाठ लगभग एक जैसे ही लगें पर उनका साहित्यिक विवेक आगे जा कर अधिक विकसित होगा ऐसी आशा है.
दो |
कुंदेरा और निर्मल के इस अंतर-भाषीय और अंतर्राष्ट्रीय संयोग का एक और भी अद्भुत आयाम यह है कि दोनों हमउम्र थे, न केवल उसी साल जनमे पर उसी महीने जनमे– कुंदेरा 1 अप्रैल 1929 को और निर्मल बस दो दिन बाद 3 अप्रैल को! ऐसे नितांत समवयस्क लेखक जिनका आपस में कोई नाता भी रहा हो तो पूरी दुनिया में शायद ही कहीं मिलें. पर यह संयोग ही था, क्योंकि दोनों के देश, भाषा, और इतिहास से बने संस्कार सर्वथा भिन्न थे, स्वभाव भिन्न था, संवेदना भिन्न थी. यह भी पता नहीं कि कुंदेरा ने निर्मल के लेखन का एक शब्द भी पढ़ा था या नहीं, अंग्रेजी अनुवाद में ही सही. हम ही दुनिया भर को पढ़ते रहते हैं, जो मुफीद भी है.
पर जन्म-तिथि के अलावा एक और आयाम था दोनों के जीवन का जो बड़े अर्थ में काफी कुछ एक जैसा था. दोनों ही शुरू में कम्युनिस्ट थे और फिर दोनों का ही उस विचारधारा से गहरा मोह्भंग हुआ. सोवियत रूस ने जब हंगरी पर 1956 में आक्रमण किया तभी से निर्मल की कम्युनिज्म पर से आस्था डिग गयी थी और कुंदेरा पर तो 1968 में खुद बीती जब सोवियत रूस ने चेकोस्लोवाकिया पर ही आक्रमण कर दिया तो वे सच्चाई से कैसे छिपते. एक बात कहूं जो शायद कम ही लोगों को विश्वसनीय लगे, कि 1968 के उस “Prague Spring” के दारुण प्रसंग के जो वृत्तान्त कुंदेरा और निर्मल दोनों ने लिखे हैं उनमें निर्मल वाला अधिक मार्मिक है.
निर्मल का विशेष गुण था कि हर अनुभव को अधिक शिद्दत से महसूस करते थे और उसी उद्विग्नता और आवेग से कागज़ पर उतार देते थे जिससे पाठक भी उसका साक्षात् अनुभव कर सके. कुंदेरा का मिजाज़ काफी फरक था, कि उनके लेखन में हास्य का पुट भी आता रहता है और व्यंग्य का भी, और बीच-बीच में अगर यौनाकर्षण न आता रहे तो पश्चिमी लेखन में बात ही नहीं बनती.
अंत में और परिशिष्ट के रूप में उल्लेख करना उचित होगा कि मुझे भी 2009 में चेकोस्लोवाकिया जाने का सुयोग मिला जहाँ मुझे चार अलग-अलग विभागों या संस्थाओं में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था. बीच-बीच में कई दिन खाली रहते थे तो मुझे प्राग और कुछ निकटवर्ती स्थानों में आराम से घूमने का अवसर मिला. मेरे दो चेक मित्र वहां पहले से थे जिनसे अन्य (वि)देशों में मिल चुका था, कुछ नए भी बने, और कोई यहाँ घुमाने ले गया तो कोई वहां. पर मैं तो निर्मल का “वे दिन” बार-बार पढ़ चुका था तो मैं इन मित्रों के आगे-आगे चलने लगता और कहता कि अच्छा, यह मैगज़ीन वाला गेट आ गया तो चार-पांच मिनट में ही दायें टीन-नामक चर्च आएगा, और फिर सड़क थोड़ा दायें मुड़ेगी तो चार्ल्स पुल आ जायेगा और सामने पहाड़ी पर किला दिखने लगेगा. निर्मल की परिवेश-सघनता भी उनके लेखन की विशिष्टता है– क्या प्राग, क्या शिमला, क्या दिल्ली. कुंदेरा के लेखन में भी प्राग का ऐसा अन्तरंग और प्रेम-पगा वर्णन शायद न हो.
निर्मल और कुंदेरा के ज़माने से प्राग अधिक नहीं पर कुछ तो अवश्य बदला है. पुल के उस पार “माला स्ट्राना” नामक स्थान से पहाड़ी की छोटी-सी घुमावदार चढ़ाई शुरू होती है जो किले तक ले जाती है. पर शुरू में ही ठीक सामने एक नई मूर्ति स्थापित की गयी है जहां रुके बिना आप ऊपर जा नहीं सकते. एक आदमी खड़ा है, और उसके पीछे फिर वही आदमी खड़ा है पर उसके कुछ अंग अब गायब हैं, और उनके पीछे फिर वही आदमी जिसके कुछ और अंग अब गायब हैं, और फिर वही आदमी. . . , जब तक कि आदमी के नाम का कहलाने लायक उसमें कुछ नहीं बचता. इसे वहां कम्युनिज्म का स्मारक कहते हैं, कि कम्युनिस्ट शासन ने मनुष्य की मनुष्यता किस प्रकार क्रमशः नष्ट कर दी. पता नहीं कुंदेरा ने कभी प्राग वापस जा कर वहां माथा नवाया कि नहीं पर निर्मल जीवित होते तो वहां खड़े हो कर अपना नीरव ठहाका अवश्य लगाते और हँसते-हँसते दोहरे होने लगते, कि काल की भी क्या विडम्बना है और इतिहास कैसे-कैसे भेस बदलता है.
हमारे साहित्यिक इतिहास के बड़े परिप्रेक्ष्य में एक और बात की ओर भी ध्यान जाता है और शायद कुछ और जाना चाहिए. स्वयं मेरे ध्यान में यह बात तब आई जब निर्मल के किये विदेशी साहित्य के अनुवादों का एक नया संस्करण सभी ग्यारह पुस्तकों की श्रृंखला के रूप में 2010 में आया और मुझे उन सब अनुवादों को एक साथ पढ़ने का सुयोग हुआ क्योंकि गगन गिल के कहने पर मुझे उन पुस्तकों का “प्राक्कथन” लिखना था. मैंने पाया कि निर्मल के ये सभी अनुवाद रूस, रोमेनिया और चेकोस्लोवाकिया के लेखकों के थे, यानी कम्युनिस्ट गुट के लेखकों के- इनमें इंग्लैंड या अमेरिका का एक भी लेखक नहीं था. तो धीरे-धीरे यह नक्शा मन में उभरा कि जो भारतीय लेखक भारतीय भाषाओं में लिखते और अनुवाद करते थे वे उस शीत-युद्ध के ज़माने में कम्युनिस्ट देशों की ओर आकृष्ट हुए और वहां जाने और रहने की सुविधा भी उन देशों की सरकारों की तरफ से उन्हें मिली. और हमारे जो लेखक अंग्रेजी में लिखते थे उनका मक्का-मदीना उसी तरह इंग्लैंड और अमेरिका बन गया. उनको वहां का साहित्य अनुवाद करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी क्योंकि यहाँ हम सब अंग्रेजी जानते ही थे, वे लेखक भी जो भले ही भारतीय भाषाओं में लिखते थे. तो साहित्य और अनुवाद में भी दो खेमे हो गए, एक साम्यवादी और एक पूंजीवादी.
अवश्य ही यह कुछ स्थूल अवधारणा है और इसके अपवाद तुरंत ही ध्यान में आने लगेंगे. अमेरिका गए और बसे कुछ लेखक हिंदी में ही लिखते रहे जैसे कि कृष्ण बलदेव वैद और उषा प्रियंवदा, और भारतीय भाषाओं के लेखकों का भी अमेरिका में एक नखलिस्तान तो था ही जो आयोवा राइटर्स वर्कशॉप थी– जहां हिंदी के बीसों लेखक बुलाये गए और यहाँ अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक भी यदा-कदा बुला लिए जाते थे. जो भारतीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हैं, विशेषतः विदेश में ही रह कर, उनके कारनामे तो विश्व-विदित हैं, पर हमारे जो लेखक साम्यवादी हैं या थे उनका इतिहास धूमिल होता जा रहा है, जैसे कि साम्यवादी गुट ही बिखर गया. एक-आध समर्थ मित्रों से मैंने कहा भी कि उस दौर का इतिहास लिखें जिसमें वे शामिल थे और जिसके वे साक्षी थे, जैसे कि विष्णु खरे से और गिरधर राठी से. जब मैंने स्वयं इन्टरनेट पर कुछ ढूँढने की कोशिश की तो “सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार” के विजेताओं की सूची तक तो मिली नहीं जिसकी उन दशकों में इतनी धूम थी.
मिलान कुंदेरा ने 94 वर्ष की लम्बी उम्र पायी, अपने जीवन-काल में अनेक युग मापे, और इन सभी ऐतिहासिक आरोहों-अवरोहों के भुक्तभोगी भी रहे और बाद में शरणार्थी-लाभार्थी भी. उनका स्मरण करते हुए उनके पूरे युग की याद आना स्वाभाविक है, ख़ास कर जब उनसे हिंदी का सम्बन्ध इतना पुराना हो और निर्मल वर्मा जैसे अन्यतम लेखक के माध्यम से बना हो. अनुवादों के अलावा निर्मल अपने पहले उपन्यास “वे दिन” से और चेकोस्लोवाकिया की पृष्ठभूमि में लिखी अपनी अनेक कहानियों से जैसे उस देश को हिंदी भू-भाग से मिला चुके थे. चेक रिपब्लिक की हिंदी की वरिष्ठ प्रोफेसर डाग्मार मार्कोवा के सर्वथा उपयुक्त शब्दों में निर्मल की उस देश में स्थित कृतियों को हिंदी का “आंचलिक साहित्य” माना जा सकता है! प्रोफेसर मार्कोवा ने अभी पिछले महीने ही निर्मल की ऐसी कृतियों के एक संकलन का चेक भाषा में अनुवाद प्रकाशित किया है, तो अब कुंदेरा के परवर्ती चेक लेखक यह जान सकेंगे कि एक “इंडी” या भारतीय लेखक ने उनके देश को कैसे देखा और चित्रित किया.
हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है “अब्दुर रहीम खानखाना” पर. (वाणी, 2019). harish.trivedi@gmail.com |
हरीश त्रिवेदी द्वारा मिलान कुंदेरा और निर्मल वर्मा के आलेख से मुत्मइन [संतुष्ट, जिसे इत्मीनान हो; निश्चिंत, बेफ़िक्र; आनंदपूर्वक, ख़ुशहाल] हूँ । इस लिंक का प्रिंट निकलवाऊँगा । वाक्यों की रचना ख़ूबसूरत है; मानो कलाकृति हो । प्रोफ़ेसर त्रिवेदी के लिये ‘बधाई’ शब्द छोटा पड़ता है और मुझे सूझ नहीं रहा कि विकल्प के रूप में क्या शब्द प्रयोग किया जाये ।
निर्मल वर्मा द्वारा मिलान कुंदेरा के लेखन का अनुवाद सीधे चेक भाषा से किया और सुशांत जी ने अंग्रेज़ी भाषा से । हरीश जी ने दोनों के अनुवादों की बानगी प्रस्तुत की है । पहले उदाहरण में कार में पैट्रोल भराना लिखा ।
हरीश त्रिवेदी ने समालोचन के पटल पर बेबाक़ी से मिलान कुंदेरा और निर्मल वर्मा के कम्युनिज़म से भ्रमनिरास [disillusion] को रेखांकित किया है ।
‘कुंदेरा का मिज़ाज [यहाँ मिजाज़ लिखा है] काफ़ी फरक [यों फ़र्क़ की बजाय फरक चल जायेगा जैसे गर्म की जगह गरम लिखना] था वाक्य पर अटक गया हूँ । कुछ बदल कर लिखते । राजनीतिक लिखा जाता है तो कूटनीतिक लिखा जाना चाहिये ।
प्रोफ़ेसर त्रिवेदी ने निर्मल वर्मा की रचनाओं का गहन अध्ययन किया है । इसलिये अपने मित्र के साथ वे प्राग की सड़क पर पैदल यात्रा में बताते चलते हैं कि इस जगह से आगे कौन सा लैंडमार्क आयेगा । प्रतिमा के रूपों का बदलते जाने वाला प्रसंग दिलचस्प है ।
सुन्दर लेख। हिन्दी में कोई कुंदेरा का उल्लेख करे और निर्मल याद न आएं यह असम्भव है। महत्त्वपूर्ण है निर्मल वर्मा की अन्तर्दृष्टि जिसने कुंदेरा को उनकी चर्चित कृतियों के आने के पहले ही पहचाना था। लेख से कई जानकारियां भी मिलती हैं। हरीश जी और आपका आभार।
दिलचस्प लेख जिसमें कुन्देरा हैं, निर्मल हैं, प्राग है- और राजनीति भी है. हरीश त्रिवेदी जी की नज़र से इन सबको देखना एक अलग अनुभव है. एक छोटे लेख में ही अनुवाद के अलग आयाम समझ में आ जाते हैं. त्रिवेदी जी का यह कहना कि लेखक के प्रसिद्ध होने के राजनीतिक कारण ज्यादा होते हैं जिनके कारण वे किसी खास विचार के लाड़ले बन गये यह समझने वाली बात है. वरना चर्चित का अर्थ बस बेहतरीन मान लिया जाता है, किसी एक को चर्चा में लाने वालों की यही राजनीति भी है कि दूसरे विचार को उपेक्षित किया जाये… खैर..!
ज़रूरी आलेख के लिये सर और समलोचन का आभार.
प्रो. हरीश जी का यह आलेख भी महत्वपूर्ण है। अनुवाद की दृष्टि समृद्ध हुई।
समालोचन के प्रति आभार।
इस प्रसंग में निर्मल वर्मा का नाम कहीं नहीं आया !
यह पंक्ति सही नहीं है । मिलान कुंदेरा की मृत्यु के बाद लिखी पहली ही पोस्ट में मैंने निर्मल वर्मा की चर्चा की । उनके समकालीन होने की उनके हमउम्र होने की और दोनों के समान कारणों से वामपंथ से मोहभंग की । और यह भी कहा कि दोनों समवयस्क थे । निर्मल ने कुंदेरा की कहानी का चेक से हिंदी में अनुवाद किया जो सारिका में उस वक्त प्रकाशित हुआ । इत्यादि ।
ख़ैर । पहली बार दो अनुवादित कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन पढ़ा । आभार । साधुवाद ।
कितनी दिलफरेब बात है। निर्मल ने कुंदेरा को पढ़ा, चेक सीखी, कुंदेरा का अनुवाद किया। कुंदेरा ने निर्मल को पढ़ा तक नहीं।
तो क्या? अनुवाद तो उनका अंग्रेज़ी में हुआ ही था। पर उसके माध्यम से किसी और भाषा में अनुवाद न होना ही भला है। वरना अनर्थ का और अनर्थ होता है। पर कौन मानता है। होता यही है।
मैं कुंदेरा की घोर प्रशंसक हूं पर पढ़ा उन्हें अंग्रेज़ी अनुवाद में ही है, हिंदी अनुवाद में नहीं। निर्मल का अनुवाद पढ़ना चाहिए था क्योंकि वह मूल चेक से है।
अब पढूंगी। मुझे खुशी है कि सबसे पहले मेरी हिंदी कहानियों के अनुवाद चेक भाषा में हुए। और भी जो अनुवाद हुए, जर्मन, फ्रांसीसी, रूसी या जापानी में, हिंदी से ही हुए।
अंग्रेज़ी से करने की मैंने कभी अनुमति नहीं दी ।
हरीश का निर्मल और कुंदेरा के माध्यम से भारतीय लेखकों के बारे में बहुत कुछ बतलाने के लिए आभार। कुंदेरा और निर्मल के एक ही घटना पर लिखे में निर्मल का अधिक मार्मिक था या नहीं, यह सही तौर पर तभी पता चल सकता है जब कुंदेरा को मूल चेक में पढ़ा जाए। हरीश ने तो अवश्य पढ़ा ही होगा। अफ़सोस मैं नहीं पढ़ सकती इसलिए कोई राय भी नहीं बना सकती।
बस हरीश से कुछ रश्क कर सकती हूं।
शुक्रिया हरीश त्रिवेदी
शानदार लेख।
हंस के किसी अंक में ‘खेल खेल में’ शीर्षक से निर्मल जी का अनुवाद पढ़ा था. हरीश सर का यह लेख सामयिक है और ज़रूरी भी. व्यक्तिगत तौर पर इधर के ज़्यादातर अनुवाद मशीनी होते गए देखता हूँ. लोग लिखने-पढने के साथ ढोल बजाना भी सीखकर आते हैं. ऐसे में कुछ कहना उचित भी नहीं है. दूसरे देश के साहित्य से निर्मल जी जिस गहरे स्तर पर जुड़े थे, वह आज अकल्पनीय है.
यह मलाल साल ही रहा था कि जिस लेखक ने कुंदेरा से हिंदी पाठकों को तब मिलवा दिया जब अंग्रेज़ी की दुनिया उनसे कमोबेश अनजान थी, उसकी कुंदेरा के संदर्भ में याद न आए.. हरीश जी के इस लेख ने वह संताप हर लिया☘️ ‘इतने बड़े धब्बे’ नाम से आया वह चैक कहानियों का संग्रह हिंदी के लिए विश्व साहित्य से सीधे जुड़ने की एक बड़ी घटना थी☘️ निर्मल जी की अनुदित कुंदेरा की वह कहानी जो शायद पहले ‘सारिका’ में छपी थी, इतनी लोकप्रिय हुई कि उसने सागर शहर में एक मुहावरे को जन्म दे दिया था और जिसका इस तरह का उपयोग मैंने रमेश दत्त दुबे जी और नवीन सागर के मुंह से स्वयं सुना था – ” अरे यार, तुमने खेल खेल में कुंडेरा कर दओ!!” ☘️ जिन्होंने यह कहानी पढ़ी है वे इसका अर्थ सहज ही जान जायेंगे। मज़े की बात यह कि मैंने जब यह मुहावरा सुना तब में कुंदेरा नामक इस लेखक से परिचित नहीं थी। पर, जल्द ही निर्मल जी के अनुवाद में यह कहानी पढ़ी तो राज़ खुला! निर्मल जी को जब यह मुहावरा बताया तो वे हँसते हँसते दोहरे हो गए थे और बोले, ” दिस जोक शुड रीच कुंदेरा! ही विल बी मोस्ट प्लीज़्ड!”☘️
हरीश जी, प्राग स्प्रिंग पर निर्मल वर्मा और कुंदेरा के लिखे हुए के फ़र्क की ओर भी आपने बड़ा महीन इशारा किया☘️ और ख़ैर अनुवाद में बीच की अंग्रेज़ी तह के चलते आए फ़र्क की बात तो बहुत महत्व की है ही☘️☘️☘️
बहुत सुचिंतित, सकारात्मक लेख। भाषा की खूबसूरती और विचारों की स्पष्टता केलिए इस लेख को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। सहेज कर रख रही हूँ। अभी तक जितने लोगों ने फ़ेसबुक पर लिखा कदाचित ही निर्मल वर्मा का उल्लेख किया। हंस में उनके द्वारा किया गया कुंडेरा की कहानी की याद है। लेख में कुछ नई बातें भी जानने को मिलीं। मैंने उन्हें इंग्लिश में ही पढ़ा है और बहुत थोड़ा पढ़ा है। उन पर कुछ किताबें अवश्य पढ़ी हैं।
धन्यवाद लेख साझा करने हेतु। हरीश त्रिवेदी Harish Trivedi, समालोचन Samalochan तथा Aruna Dev आपको बधाई
सहमत 👍
मेरी अपनी समझ है कि प्रो Harish Trivedi हिंदी के आदमी हैं भले ही वे सारा जीवन अंग्रेजी साहित्य पढ़ते पढ़ाते रहे। जितनी सूक्ष्मता से वे हिंदी लेखकों की रचनाशीलता और दृष्टि को पकड़ सकते हैं वह अद्भुत है। अंतराष्ट्रीय सजगता स्वदेशी भी हो सकती है इसका बोध उनमें है। निर्मल वर्मा पर तो वे अदभुत रूप से मौलिकता के साथ विचार करते हैं और हम निर्मल जी के साहित्य के वाह्य में जो विदेशी लेप है उसके पार जाकर उनमें देशीपन को महसूस कर सकते हैं यदि हम हरीश जी को ठीक से पढ़ें।
कैसे वे ऐसा कर पाते हैं!
अंग्रेजी के दो लोग हैं जो इस समय हिंदी समेत सभी भाषाओं के लिए हिंदी के लेखकों से भी ज्यादा जरूरी हैं। उनमें हरीश जी हैं।
उनको प्रणाम !🙏
हरीश त्रिवेदी हिन्दी में विश्व-साहित्य-दृष्टि के लिए प्रखरतम प्रकाश-स्तंभ हैं -यह निस्संदेह कहा जा सकता है । अनुवाद-प्रतिअनुवाद से संबद्ध उनके विचार सदा से महत्त्वपूर्ण लगे हैं। मूल भाषा की अपनी विशिष्ट भाषा-संवेदना होती है, जो सीधे अनुवाद में अधिक संवेदनशील एवं जीवंत होती है, पर इस प्रसंग में प्रतिअनुवादकार के लिये उपलब्ध सृजनात्मक आज़ादी अक्सर प्रतिअनुवादित रचना को एक नया जीवन भी दे सकती है । अनुवाद की भाषा में स्वाभाविकता के लय का निर्वाह कितना सफल हुआ है यह महत्त्वपूर्ण होता है – रचना में मूल का भाव कितना अक्षुण्ण रहा है, यह उसकी सफलता का असली प्रतिमान होता है। त्रिवेदी जी ने कुंदेरा के प्रसंग में नोबेल की बिलकुल चर्चा नहीं की है, यह विशेष ध्यातव्य है । मैं त्रिवेदीजी का सदा से मुरीद रहा हूँ । वे सुदीर्घजीवी रहते हुए साहित्य की सेवा करते रहें, मेरी यही शुभकामना है!
हम अंग्रेजी वाले हिंदी में बहुत सावधानी से उतरते ज़रूर हैं, लेकिन माँ की गोद तत्काल बहुत सहज बना देती है। 🙏
हरीश जी को पुनः बधाई 🌺
दिलचस्प और शानदार आलेख. धन्यवाद, आभार
बहुत बेहतरीन आलेख। मिलान के साथ निर्मल के सरोकारों को भी समझने का अवसर जुटाता है।
आप सब की टिप्पणियों के लिए बहुत धन्यवाद! ऐसी हौसला-अफ़ज़ाई और शाबाशी ही तो हर लेखक का संबल होते हैं.
कितना साफ लिखते हैं हरीश जी🌺