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Home » प्रतिपक्ष का बुद्धिजीवी: राजाराम भादू

प्रतिपक्ष का बुद्धिजीवी: राजाराम भादू

राजेन्द्र यादव (28 अगस्त, 1929-28 अक्तूबर, 2013) ने ‘हंस’ मासिक पत्रिका का 1986 से 2013 तक संपादन किया. हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में यह समय ‘हंस’ की केन्द्रीयता और राजेन्द्र यादव की बौद्धिक सक्रियता और साहित्य को नए क्षेत्रों तक ले जाने की उनकी कर्मठता का दौर था. राजाराम भादू ने उनके अवदान पर यह आलेख लिखा है जो गम्भीरता से उनके महत्व पर प्रकाश डालता है.

by arun dev
July 1, 2022
in आलेख
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प्रतिपक्ष का बुद्धिजीवी: राजाराम भादू
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राजेन्द्र यादव
प्रतिपक्ष का बुद्धिजीवी

राजाराम भादू

किसी व्यक्ति की महत्ता असल में उसके न रहने पर पता चलती है, कि चले आ रहे जीवन को उसकी अनुपस्थिति किस तरह प्रभावित करती है. कहने को तो हम अक्सर किसी की भी मृत्यु पर कहते रहे हैं कि उसका जाना हमारे लिये अपूरणीय क्षति है. लेकिन पाते हैं कि जीवन यथावत चलता रहता है. राजेन्द्र यादव का जाना वास्तव में एक नहीं बल्कि कई स्तरों पर प्रभावित करने वाला था. उनके बाद हिन्दी क्षेत्र के सांस्कृतिक परिदृश्य में जैसी उदासीनता व्याप्त रही है, वह अब तक टूटने का नाम नहीं ले रही है. जबकि नामवर जी उनके बाद भी रहे, अशोक वाजपेयी अभी हैं. लेकिन इन्हीं के साथ यादव जी जैसे वाद-विवाद और संवाद से विचारोत्तेजक माहौल बनाये रखते थे, वह अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है. लगता है, जैसे सब चीजों के बीच से कोई उत्प्रेरणा चली गयी है, और चुनौतियां पहले से कहीं विकराल हो गयी हैं.

राजेन्द्र यादव के अवदान को हम यहां तीन पक्षों में देखने की कोशिश करेंगे. एक उनका लेखक रूप है और उसका एक निश्चित चरण है. दूसरी दो भूमिकाएं उनके जीवन के उत्तरार्द्ध में समानांतर चलती रहती हैं. पहली हंस के संपादक के रूप में और दूसरी एक विचारक तथा सांस्कृतिक एक्टिविस्ट के रूप में. जब वे जीवन में ढलान की ओर बढ़ रहे थे, देश में हर जनतांत्रिक निकाय का क्षरण होता जा रहा था और फासीवादी शक्तियाँ बलवती होती जा रही थी. उस भीषण समय आप इस बौद्धिक योद्धा को अनवरत चौतरफा लड़ते हुए देख सकते हैं.

 

1

लेखक के रूप में राजेन्द्र यादव की पहली छवि नयी कहानी आंदोलन के सूत्रधार की है. नयी कहानी आंदोलन का वैचारिक आलोड़न इतना विस्तृत था कि उसमें कहानी की संरचना, भाषा, शैली, चरित्र, परंपरा यानी कोई पक्ष विमर्श के दायरे में आने से छूटा नहीं था. बताते हैं कि कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव की इस त्रयी में राजेन्द्र यादव वैचारिक रूप से अग्रणी थे. एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया है कि उस समय दो वैचारिक धाराएं कथा के क्षेत्र में सक्रिय थीं. एक कलावादी- परिमल- वादियों की धारा थी जो लेखन में व्यक्ति को केन्द्र में रखकर चलती थी. दूसरी प्रगतिशील धारा थी जिसके लिए लेखन में समाज ज्यादा महत्वपूर्ण था. नयी कहानी ने व्यक्ति और समाज दोनों को साथ लेकर चलने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया हालांकि इसका रुझान मार्क्सवाद की ओर था.

भारत में मध्यवर्ग का उभार आजादी के बाद तीव्र हो गया था. यह वर्ग आर्थिक गतिशीलता के साथ ही बहुस्तरीय सामाजिक संक्रमण से गुजर रहा था. इसके चलते मध्यवर्ग में एक द्वैत की मानसिकता विकसित हो रही थी जिसमें वह एक ओर पारंपरिक जड मूल्यों से चिपका हुआ था तो दूसरी ओर वाह्य तौर पर अपने को आधुनिक दिखाने की कोशिश करता था. राजेन्द्र यादव का कथा-साहित्य मध्यवर्गीय व्यक्ति और समाज के क्रमशः विघटित चरित्र और अन्तर्विरोधों का निर्मम उद्घाटन करता है. वे स्त्रियों के संदर्भ सांस्कृतिक रूढ़ियों और पिछड़ी मानसिकता को सबसे साफ प्रतिबिंबित करते हैं. उनके लेखन में स्त्रियों को इन प्रवृत्तियों से पीड़ित दिखाया गया है. साथ ही, रचनाकार की पक्षधरता सदैव स्त्रियों के साथ रही है जिसे हम सारा आकाश, एक कमजोर लड़की और जहाँ लक्ष्मी कैद है जैसी कृतियों में देख सकते हैं.

राजेन्द्र यादव मानते थे कि उन्होंने सदैव प्रदत्त सीमाओं का अतिक्रमण करने की कोशिश की है. लेखन के प्रति उनका रुझान भी इसी सोच की उपज था. राज्यसभा टीवी के इरफान से गुफ़्तगू कार्यक्रम में उन्होंने बताया था कि तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में अपने पैर में लगी चोट के बाद जब वे लंबे समय तक बिस्तर तक सीमित हो गये तो उन्होंने लेखन को ही अपनी सीमाओं के विस्तार का माध्यम बनाया. उनके पिता उर्दू साहित्य पढ़ते थे और उन्होंने देवकीनंदन खत्री को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी थी. राजेन्द्र यादव ने पहले रहस्य-रोमांच और फिर रोमांस के उपन्यास लिखना शुरू किया. लेकिन जो पहला उपन्यास छपा, पहले प्रेत बोलते हैं और फिर सारा आकाश नाम से, वह उस समय के औपन्यासिक शिल्प में आगे का प्रयोग था. चन्द्रकान्ता संतति ने लगातार उनके मन में बैचेनी बनाये रखी, उस पर किया उनका शोध विश्वविद्यालयी अनुसंधान के सामने एक उदाहरण है. खेल-खिलौने को वे अपने लेखन में प्रस्थान-बिन्दु मानते हैं.

राजेन्द्र यादव का जैसा अकादमिक रिकार्ड था, उसे देखते हुए उनका सरकारी नौकरी में न जाकर स्वतंत्र लेखन के लिए कलकत्ते जाना कोई सामान्य निर्णय नहीं था. वे शुरूआत से ही जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जीना चाहते थे और इस रास्ते में उन्होंने कभी-कोई समझौता नहीं किया. कलकत्ता उस समय हिन्दी साहित्य का ही नहीं बल्कि बौद्धिक चेतना का एक बड़ा केन्द्र था. राजेन्द्र यादव ‘ज्ञानोदय’ के संपादन से जुड़े, नयी कहानी पर बड़े संवाद और बहसें कलकत्ता में ही हुई. नयी कहानी पर सबसे ज्यादा वैचारिक लेखन उन्होंने ही किया है. वह उनके विवाह, सृजन और स्वतंत्र लेखन के अनुभव और सक्रियता का आरंभिक चरण था.

अक्षर प्रकाशन उनके स्वतंत्र लेखन के संकल्प का ही एक विस्तार था. लेकिन हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में वैसे हालात नहीं थे कि व्यावसायिक नैतिकता के साथ ऐसा कोई उपक्रम खड़ा किया जा सके. उनके लेखन में भी एक तरह का विराम आने लगा. मंत्रबिद्ध १९६८ में आया उनका आखिरी उपन्यास है. गुफ़्तगू वाले अपने साक्षात्कार में वे बताते हैं कि उन्हें लग गया था कि कहानी में भी उनके लिए अब और संभावना नहीं हैं. वे महसूस कर रहे थे कि वे रचनात्मक रूप से एक डेड एंड पर खड़े हैं और १९८० तक यह उनके सामने बिल्कुल साफ हो गया था. यहीं से हंस निकालने की पृष्ठभूमि तैयार हुई थी. आज हम देख सकते हैं कि उनके विचारक की पृष्ठभूमि उन्हीं दिनों में तैयार हो रही थी.

इसके बावजूद, राजेन्द्र यादव का लेखन परिमाण और गुणवत्ता  किसी भी दृष्टि से कम नहीं है. उसमें विविधता और प्रयोगशीलता है. उनके अनुवाद तत्कालीन हिन्दी मानस की बौद्धिक और संवेदनात्मक जरूरतों के अनुरूप हैं. उनके आलोचनात्मक लेखन में संगति और गंभीर विवेचना है. राजेन्द्र यादव के सृजन की अपने समकालीनों से तुलना करें तो पायेंगे कि उनके पात्र परिवेश और घटना-परिघटनाओं को ज्यादा आलोचनात्मक ढंग से देखते हैं. यही चीज ‘स्टेंजर आन दि रूफ’ शीर्षक से सारा आकाश का अनुवाद करने वाली रूथ वनिता ने लक्षित की थी.

राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य के शायद अकेले ऐसे रचनाकार हैं जिनका निजी जीवन भी सर्वाधिक खुला और पारदर्शी रहा है. बेशक, उनके व्यक्तित्व में कई कमजोरियां और कमियां रही हैं, सभी में होती हैं, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने पूर्वाग्रह और अन्तर्विरोधों को ढंकते हैं, या उन्हें उद्घाटित होने देकर आत्मावलोकन और सार्वजनिक विमर्श के दायरे में लाते हैं. यहाँ तक कि उनका वैवाहिक जीवन भी लोगों के बीच चर्चा में रहा है. यह सर्व विदित है कि उन्होंने प्रेम विवाह किया, दोनों में गहरा प्रेम रहा, ‘एक इंच मुस्कान’ जैसे उपन्यास को मिलकर लिखना सिर्फ एक रचनात्मक प्रयोग ही नहीं, उनके आपसी प्रेम की गहराई का भी प्रमाण है. दूसरी तरफ, परस्पर संबंध टूटने का वृत्तान्त भी दोनों की आत्मकथाओं में दर्ज है जहाँ भाषा में स्वाभाविक तलखी और आवेग के अतिरिक्त एक-दूसरे की वैयक्तिक गरिमा को क्षति पहुंचाने वाली कोई बात नहीं है.

हिन्दी ही नहीं, शायद भारतीय साहित्य में यह वैयक्तिक मतभेद और पृथक होने के संयत विवरण और संजीदा विश्लेषण का अकेला उदाहरण है. सृजन की दुनिया में इसके प्रभाव आने वाले समय में सामने आयेंगे. एक परिणाम तो हम देखते ही रहे हैं कि जो भी व्यक्ति राजेन्द्र और मन्नू जी को जानता है, उसके मन में दोनों के लिए बराबर आदर रहा है.

राजेन्द्र यादव ने अपनी आत्मकथा  ‘मुड़-मुड़ के देखता हूं’ में अपने आपसे बहुत सारे सवाल पूछे हैं:

स्वतंत्रता की छूट का मेरा आब्सेसन सच ही कहीं लंपटता की छूट का ही तो दूसरा नाम नहीं है ? मुझे घर भी चाहिए और निर्बंध उत्तरदायित्व-हीनता भी. यह अपनी रचनात्मक ऊर्जा और वैचारिक स्वाधीनता के लिए बार-बार किया जाने वाला नवीनीकरण है या अधूरे होने की हीनता-ग्रंथि से उत्पन्न दमित सेक्स की विकृत-अभिव्यक्ति, जो बार- बार दूसरे से अपनी पूर्णता का आश्वासन चाहती है ? यह मेरी निजी कुंठा है या प्राक् ऐतिहासिक आदिम पुरुष-वृत्ति, जहां वह अपने कक्षों में शत्रुओं और शिकारों के सिर सजा कर विजय के  गर्व को बार-बार जीवित रखता है? या वह सामन्त जिसे हरम में अनगिनत भोग-सामग्री चाहिए.

अपने बारे में इतना निर्मम होकर सोचने का दूसरा उदाहरण हिन्दी साहित्य में कहीं नहीं मिलता. वे आत्मकथा को सिर्फ अपने जीवन वृत्तान्त को व्यक्त करने के एक माध्यम के रूप में नहीं देख रहे हैं जिसमें  सलीके से अपना पक्ष प्रस्तुत कर सकें बल्कि वे इसे अंततः एक सृजनात्मक विधा के रूप में देख रहे हैं जिसकी अपनी कलात्मक शर्तें हैं. राजेन्द्र यादव ने पुनर्नवा पत्रिका द्वारा आत्मकथा पर आयोजित परिचर्चा में कहा कि मैं श्रेष्ठ आत्मकथा का एकमात्र गुण मानता हूं उन अंतरंग, अनछुए और लगभग अकथनीय प्रसंगों का अन्वेषण, जो व्यक्ति की कहानी को विश्वसनीय और आत्मीय बनाते हैं.

उनका अपने सभी साथी रचनाकारों से तो मित्रवत् संबंध रहा ही, युवाओं से भी उनका जीवंत संबंध और संवाद रहा. उनके समकालीन मानते थे कि वे उनमें सबसे ज्यादा पढ़ने वाले व्यक्ति थे. जाहिर है, पढ़ते थे तो उस पर बात भी करते थे तभी तो  दूसरों को यह पता चला. लेकिन उनकी विद्वता का दूसरों में आतंक नहीं था, कोई भी नया-पुराना रचनाकार उनसे अपनी रचना को लेकर सलाह- मशविरा करने में संकोच नहीं करता था. इस संदर्भ में उपेन्द्रनाथ अश्क ने कहा था कि राजेन्द्र के स्वभाव में स्पर्धा है, डाह नहीं है और इसलिए वह दूसरों की रचनाओं की प्रशंसा कर सकते हैं, उनकी सहायता कर सकते हैं.

यह दिलचस्प है कि दूसरों को उनके लिखे हुए पर अनथक परामर्श व सहयोग देने वाले राजेन्द्र यादव खुद अपने लेखन में दूसरों की सलाह लेने से गुरेज करते थे. मन्नू भंडारी  के अनुसार,  प्रकाशित हो जाने से पहले ये अपनी लिखी चीजें कभी किसी को नहीं दिखाते, मुझे भी नहीं. अपनी आत्मकथा में मन्नू भंडारी ने राजेन्द्र यादव के कृतित्व के संदर्भ में लिखा है:

‘यह तो सभी मानेंगे कि अपने चिन्तन, मौलिक नजरिये और बेहद प्रभावपूर्ण, पारदर्शी भाषा शैली के कारण ही राजेन्द्र ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है.’

 

2.

एक समय हिन्दी के सबसे प्रतिष्ठित कथाकार मुंशी प्रेमचंद और उनकी पत्रिका हंस एक- दूसरे के पर्याय जैसे रहे, फिर दूसरा दौर आया जब हंस और राजेन्द्र यादव को एक-दूसरे की वजह से जाना जाता था अथवा दोनों पर एक साथ चर्चा होती थी. प्रेमचंद द्वारा १९३० में स्थापित साहित्यिक पत्रिका हंस का पुनर्प्रकाशन राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद जयंती के दिन ३१ जुलाई, १९८६ को प्रारंभ किया. यह पत्रिका १९५३ में बंद हो गयी थी. इसके प्रकाशन का दायित्व उन्होंने अपने अंतिम समय तक उठाया. और इस पत्रिका ने समकालीन हिन्दी साहित्य में एक नया इतिहास निर्मित किया.

वह ऐसा समय था जब हिन्दी में मुख्यधारा की पत्रिकाएं- सारिका, दिनमान, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान बंद हो चुकी थीं. उन्होंने इसके पीछे घोषित कारण सिकुड़ती प्रसार संख्या को ही बताया था. भूमंडलीकरण का आरंभिक दौर दुनिया में शुरू हो चुका था जिसके प्रभाव में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा था और हिन्दी का प्रभा-मंडल फीका पड़ रहा था. सोवियत संघ के बिखराव के सदमे ताजा थे और बौद्धिक तबके पस्तहिम्मत व संशयग्रस्त थे. ऐसे प्रतिकूल समय में राजेन्द्र यादव का यह निर्णय चुनौतीपूर्ण तो था ही, अधिकतर लोग इसे उनके वापस चर्चा में आने के अल्पजीवी शगल के बतौर देख रहे थे. उल्लेखनीय है कि इससे पहले वे अक्षर प्रकाशन के रूप में हिन्दी में स्तरीय और उच्च व्यावसायिक मापदण्डों पर एक प्रकाशन चलाने का असफल प्रयोग कर चुके थे. यह अलग बात है कि हंस का प्रकाशक भी अक्षर प्रकाशन ही रहा.

मैनेजर पाण्डेय सही लक्षित करते हैं कि प्रेमचंद की प्रगतिशीलता भारत में और हिन्दी में आधुनिकता के आरंभिक काल की प्रगतिशीलता थी, उसका संबंध प्रगतिशील आंदोलन के आरंभिक दौर से  भी था जबकि राजेन्द्र यादव के हंस की प्रगतिशीलता उत्तर-आधुनिक समय की है, अस्मिता-विमर्श के दौर की‌. हंस की संकल्पना को लेकर राजेन्द्र यादव कहते हैं कि जिनकी आवाज अभी तक सुनी नहीं गयी, उन्होंने उनकी अभिव्यक्ति को मंच देने की कोशिश की है. किन्तु आप ध्यान से देखें तो ये सिर्फ दलित, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और हाशिये के लोगों की रचनाशीलता और मुद्दों को सामने लाने का मामला भर नहीं है; बल्कि उन्हें गंभीर विश्लेषण और विमर्श के दायरे में लाना है. वे जानते हैं कि इन्हें इनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए यह एक अनिवार्य उपक्रम है. इसके लिए सबसे अधिक उद्यम भी उन्होंने ही किया और वंचितों के सशक्तिकरण की सैद्धांतिकी निर्मित करने का सिलसिला शुरू हुआ.

हंस का वितान बहुत विस्तृत है. वह मूलतः कहानी की पत्रिका रही है तो कहानी वहाँ प्रमुख रही है लेकिन इस केंद्र ने किसी हाशिये को नहीं बनाया है. राजेन्द्र यादव कविता के प्रति अपने पूर्वाग्रह को गाहे-बगाहे प्रकट करते रहे लेकिन हंस में कविता को सदैव जगह मिली और किसी नये-पुराने कवि की उपेक्षा नहीं हुई. समीक्षा को तो हंस ने एक तरह से पुनर्प्रतिष्ठित किया. उस समय कई बार उनकी इस बात के लिए आलोचना होती थी कि वे एक ही किताब पर दो-तीन समीक्षाएं छाप देते हैं. आज देखें तो पायेंगे कि इससे कृति और आलोचना दोनों के सहसंबंध की महत्ता स्थापित हुई. वहाँ ज्ञान-विज्ञान पर लेखों के साथ रंगमंच, सिनेमा, पेन्टिग और मीडिया सबको शामिल किया गया. राजेन्द्र यादव का प्रयास था कि हर अनुशासन व प्रत्येक विधा के बड़े रचनाकार हंस से जुड़ें. वे सेमिनार और ईपीडब्ल्यू जैसी अंग्रेजी की अकादमिक पत्रिकाओं में लिखने वाले इतिहासकार, समाजशास्त्री और चिन्तकों को हंस की ओर लाये. जो जीवन में था, वह बौद्धिक और रचनात्मक रूपों में हंस में प्रतिबिंबित होता रहा.

हंस के विशेषांक अपने में आज भी संदर्भ-सामग्री की महत्ता रखते हैं. इनमें करीबन आधे पुस्तकाकार प्रकाशित हैं. इनमें दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक और मीडिया के अलावा कई ज्वलंत मुद्दों और विधाओं पर केन्द्रित हैं. इनके पीछे की तैयारी और सोच जुटायी गयी सामग्री और उसके सुनियोजित संयोजन में झलकता है. ये हंस की वैचारिक यात्रा के एक प्रकार से मील के पत्थर हैं. एक और विशेष बात यह है कि विशेषांक के कारण कभी सामान्य अंकों का प्रकाशन क्रम बाधित नहीं हुआ. हंस में विश्व-स्तरीय साहित्य के अनुवाद प्रकाशित होते रहे, लगभग हर अंक में एक लंबी कहानी की खास जगह थी. हंस में पाठकों के पत्रों को पत्रिका के अहम हिस्से की तरह प्रस्तुत किया गया और उनमें संपादक की प्रशंसा में लिखे पत्रों को प्रायः तवज्जोह नहीं मिलती थी.

राजेन्द्र यादव के दरबार को लेकर अनेक किस्से-कहानियां हैं. देश भर से हर दिन लेखक दिल्ली हंस के कार्यालय में आते थे. राजेन्द्र यादव सबके लिए सुलभ थे और अपने ही औपचारिक अंदाज में वे आगंतुकों का स्वागत और उनसे संवाद करते थे. इस सिलसिले का अंत सायंकालीन बैठक में होता था. कई लोगों ने इसे राजेन्द्र यादव के दरबार की संज्ञा दी है और इसे उनकी सामंती प्रवृत्ति कहा है. राजेन्द्र यादव इसे चायघरों और काफी हाउसों की पुरानी अनौपचारिक चर्चाओं और संवाद परंपराओं से जोड़ते हैं जो दुनिया भर में पायी जाती थीं लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहाँ खत्म हो गयीं. मेरे हिसाब से हंस का जैसा सोच और स्वरूप रहा, वह पब्लिक स्फियर को ध्यान में रखकर तय किया गया था ताकि वहाँ सांस्कृतिक जनमत को प्रभावित किया जा सके और इसमें उसे उल्लेखनीय सफलता मिली भी. राजेन्द्र यादव की ये सतत चलने वाली बैठकें पब्लिक स्फियर का छोटा रूप थीं.

उनकी संगत में रहे लोग बताते हैं कि वहाँ पद और कद का कोई अंतर नहीं था. जो नये लोग यादव जी के प्रति आरंभिक श्रद्धा-भाव से आते थे, वे भी कुछ दिन बाद उनके मित्र बन जाते थे. वहाँ यादव जी और हंस की आलोचना के लिए खुली छूट होती थी. इस संवाद की जनतांत्रिक प्रकृति के कारण ये बैठकें राजेन्द्र यादव और हंस के लिए प्रकारान्तर से अनवरत चलने वाले मूल्यांकन सत्र थे. हंस के लिए अनेक विचार और योजनाएं यहीं से निकले. इसी के चलते राजेन्द्र यादव हिन्दी और दूसरी भाषाओं के रचनाकारों, इतर विधाओं में सक्रिय लोगों व एक्टिविस्टों को उनके काम से जानने लगे. ऐसे हजारों लोगों ने हंस में योगदान दिया और इनके जरिये कई हजार और लोगों को बदलने में राजेन्द्र यादव और हंस को सफलता मिली. हिन्दी ही नहीं, बल्कि साहित्यकार- बुद्धिजीवियों की एक बड़ी बिरादरी बनाने का एक प्रयास इस तरह हुआ.

एक साक्षात्कार में वे बताते हैं कि दुनिया में कहीं भी वैचारिक पत्रिकाएं बाजार के आधार पर आत्म-निर्भर नहीं हैं. फ्रांस की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पेरिस रिव्यू’ के उदाहरण से वे बताते हैं कि पहले उसे आगाखां फाउन्डेशन मदद करता था. उसके मदद बंद करने के बाद पेरिस रिव्यू की प्रसार संख्या सिर्फ ग्यारह हजार रह गयी, जबकि उस समय हंस की प्रसार संख्या अठारह हजार थी. इसके बावजूद हंस की नियमितता का दबाव कम नहीं था. पुनर्प्रकाशन के पच्चीसवें वर्ष के संपादकीय में उन्होंने बड़ी वेदना के साथ लिखा है:

‘रचनात्मक लेखन एकदम छूट गया है और रह गया है सिर्फ महीने-भर झक मारकर लिखा जाने वाला संपादकीय. हंस का ताम-झाम कुछ इस तरह हावी है कि लोग यह भी भूल गये हैं कि मैं ने कुछ रचनात्मक लिखा था- शायद बहुत बुरा नहीं लिखा था.’

हंस ने जुलाई, २०११ में अपने पुनर्प्रकाशन के २५ वर्ष पूरे किये. तब हंस और राजेन्द्र यादव पर लिखते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा था :

‘मैं पिछले पच्चीस वर्षों से हंस के अंक पढ़ता रहा हूं और कभी-कभी उसमें लिखता भी रहा हूं. इस प्रक्रिया में मेरा पहला अनुभव यह है कि राजेन्द्र यादव हंस के लेखकों के विचारों का सम्मान करते हैं, उनको काट-छांट कर नहीं छापते, मतभेदों के बावजूद. दूसरा अनुभव यह है कि हंस का अंक मिलते ही सबसे पहले मैं राजेन्द्र यादव का संपादकीय पढ़ता हूं और पढ़ने के बाद संपादकीय में व्यक्त राजेन्द्र यादव के विचारों तथा सोच की उनकी शैली के बारे में अपनी असहमतियां प्रायः खरी-खरी और कभी-कभी निंदात्मक भाषा में जाहिर करता हूं. उसी भाषा में वे जबाव भी देते हैं. लेकिन उन्होंने कभी मतभेद को मनभेद नहीं बनाया, बातचीत बंद नहीं की और वैचारिक विरोध के बदले वैर पालने का प्रयत्न नहीं किया.’

इससे जाहिर है कि राजेन्द्र यादव अब हिन्दी में दुर्लभ होती जा रही उस मानसिकता के व्यक्ति हैं जिसे जनतांत्रिक कहा जाता है…. उनके बारे में ऐसी ही राय और भी अनेक लोगों ने व्यक्त की है.

 

3.

जैसा कि हमने आरंभ में चर्चा की, हंस का पुनर्प्रकाशन ऐसे समय में हुआ था, जब सोवियत संघ का पतन हो चुका था और साम्यवादी चीन भी उदार आर्थिक नीतियों को अपना रहा था. अमेरिका पूंजीवाद के विश्व-विजयी भाव के साथ इतिहास और विचारधाराओं के अंत की उन्मादी घोषणाएं कर रहा था. भारत में भी विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुरूप आर्थिक नीतियां बदल रही थी. हमारे यहाँ परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए लंबे समय से सोवियत संघ एक यूटोपिया रहा था. ऐसे में उसके ढहने से उनमें हताशा और संशय उत्पन्न होना स्वाभाविक था. दूसरे, कतिपय मार्क्सवादी लोगों ने  अपना पाला बदल कर मार्क्सवादी विचारधारा को ही खुले-आम प्रश्नांकित करना शुरू कर दिया था. उस समय राजेन्द्र यादव क्या सोच रहे थे:

आज मेरे लिए इस बात के भी बारीक ब्यौरे महत्वपूर्ण नहीं हैं कि समाजवाद कहां, किस तरह फेल हो गया था या हो रहा है. महत्वपूर्ण यह है कि समता और समानता की मानवीय आकांक्षा कहां किस तरह जीवित है. या दमन और शोषण के खिलाफ संघर्ष कहां और किस तरह चलाये जा रहे हैं- और इस विचार को दृष्टि देने में बुद्ध सहायक हैं या मार्क्स- हमारा तात्कालिक शाश्वत-सत्य यही है कि मानव कल्याण का कोई विचार कभी नहीं मरता, वह केवल कुछ समय के लिए भूमिगत होता है.

इसी सोच के साथ उन्होंने समाज की तलछट से अभी तक दबी-कुचली आवाजों को जगह देना शुरू किया. राजेन्द्र यादव को बौद्धिक वारियर, मोटिवेटर और मेंटर वगैरह कहा गया है. मुझे लगता है कि उन्हें सांस्कृतिक एक्टिविस्ट कहना काफी है क्योंकि इसमें पूर्व-उल्लिखित सभी भूमिकाएं समाहित हो जाती हैं. एक्टिविस्ट सिर्फ वही नहीं होता जो किसी समूह की झंडाबरदारी करता है, बल्कि उसका बुनियादी काम परिवर्तन के लिए व्यक्ति के भीतर चेतना के निर्माण के साथ आरम्भ होता है. समाज में समता और न्याय-संगत रूपांतरण में बुद्धिजीवी की भूमिका को एन्टोनियो ग्राम्शी ने बहुत अच्छे से व्याख्यायित किया है और इसे उतने ही अच्छे से राजेन्द्र यादव समझते भी थे. उन्होंने दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक सहित हाशिये के तमाम समुदायों में आर्गेनिक नेतृत्व और बुद्धिजीवी विकसित करने के लिए अनवरत काम किया.‌ उन्होंने हंस को जन- संघर्षों और मानव-अधिकार आन्दोलनों से जोड़ा.

वे हिन्दी के उन चंद शिखर-पुरुषों में थे जिन्होंने सबसे ज्यादा यात्राएं कीं और व्याख्यान दिए. यही नहीं, वे वहाँ उन लोगों को सबसे पहले खोजते थे जो कभी उनके कार्यालय आये हुए होते थे और उनके व उनके दूसरे साथियों के साथ अंतरंग संवाद से एक दोतरफा प्रगाढ़ रिश्ता कायम करते थे. नतीजतन लोग उनके सोच और व्यवहार की एकता से प्रभावित और प्रेरित होते थे.

राजेन्द्र यादव कभी किसी वाम राजनीतिक पार्टी के बाकायदा सदस्य नहीं रहे बल्कि इनके साथ उनके रिश्ते आलोचनात्मक रहे. मार्क्सवादी दलों से जुड़े लोग सामान्यतः व्यक्ति की तुलना में समूह, संगठन अथवा संस्था को ज्यादा अहम मानते हैं. राजेन्द्र यादव ने बिना किसी संगठन, संस्था अथवा सरकारी सहयोग के हंस जैसा उपक्रम खड़ा कर लिया, निःसंदेह समूची लोकतांत्रिकता के बावजूद इसके केन्द्र में तो एक व्यक्ति ही था. वाम पार्टियों से उनकी आरंभिक बहस जेंडर और यौनिकता के मसलों पर हुई जो आगे अस्मिता बनाम वर्ग तक गयी. किसी हार-जीत में चीजों को न देखकर सिर्फ परिणाम देखें तो पायेंगे कि उसके बाद से वाम दलों ने स्त्री प्रश्नों और अस्मिता-आधारित विभेदों को अपने ऐजेन्डा में प्राथमिकता देना शुरू कर दिया. अपनी सोच को लेकर राजेन्द्र यादव में गहरा विश्वास और साहस था:

मेरा सारा लेखकीय संघर्ष जिस निर्भीक और निष्पक्ष स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध रहा है, शायद उसमें समझौता नहीं किया. इसके पीछे सिर्फ बल यही लगता है कि न कुछ खोने का डर है, न पाने की लालसा…. कम से कम लेखन से तो नहीं ही है, हां मान्यता और स्वीकृति की आकांक्षा रही हो तो कह नहीं सकता.

(कांटे की बात, पृष्ठ-९ )

यह एक प्रीतिकर सचाई है कि उन्हें स्वीकृति और मान्यता के साथ ही वंचित समुदायों से जुड़े लोगों का अकूत भरोसा और प्यार भी मिला.

राजेन्द्र यादव पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने स्त्री की दैहिक स्वतंत्रता पर ज्यादा जोर दिया, मुझे लगता है कि असल में ये उनके समग्र दृष्टिकोण को ठीक से न समझने से उत्पन्न धारणा है. एक बार उनकी पूरी बात को देखें:

नारी को अगर स्वतंत्र होना है तो वेश्या बनने के सिवा कोई रास्ता नहीं है, तभी वह जी सकेगी. वरना उसकी लगाम पिता, पति, पुत्र के ही हाथ में है. न उसका अपना कोई व्यक्तित्व है, न नाम. आज भी बहुसंख्यक औरतें अपने इन्हीं संबंधों के माध्यम से जानी जाती हैं…. पुरुष की अपेक्षा स्त्री अपनी देह में ज्यादा कैद है. वह अपने शरीर से ऊपर उठना या उसे भूलना भी चाहे, तो न प्रकृति उसे ऐसा करने देगी, न समाज. उसका सारा सामाजिक मूल्यांकन, सबसे पहले उसके शरीर का मूल्यांकन है. गुण तो बाद में आते हैं. वह एक ऐसी दृश्य-वस्तु है जिसे अपनी सार्थकता पुरुष की निगाह से सुंदर और उपयोगी लगने में ही पानी है…. जाहिर है कि  वे अपनी नहीं बल्कि समाज के उस दृष्टिकोण की बात कर रहे हैं जो स्त्री को स्वतंत्र व्यक्तित्व और गुणों के आधार पर नहीं देखता बल्कि सिर्फ देह और उपयोगिता के नजरिये से मापता है.’

हंस द्वारा प्रति वर्ष किसी समसामयिक मुद्दे पर संगोष्ठी आयोजित की जाती थी जिसमें उस विषय या मुद्दे से जुड़े आधिकारिक विद्वानों अथवा सम्बद्ध व्यक्तियों को बुलाया जाता था. इस तरह हंस ने अपने समय के सवालों को शिद्दत से संबोधित किया. दूसरे, इसमें दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम इलाकों से लोग अपने खर्चे पर यात्राएँ करके आते थे, बल्कि अनेक लोग तो इस आयोजन की प्रतीक्षा करते थे. स्वाभाविक है कि किसी हद तक देश के कम ही सही एक तबके में प्रासंगिक मुद्दों पर एक समझ बनने की प्रक्रिया का सूत्रपात होता था.

राजेन्द्र यादव हिन्दू कट्टरपंथियों जितनी ही नफरत मुस्लिम कट्टरपंथियों से करते थे लेकिन वे चाहते थे कि उनके विरुद्ध आलोचना मुस्लिम समुदाय से ही उभर कर आनी चाहिए. इसके लिए वे निरंतर प्रयासरत रहे और एक हद तक उन्हें इसमें सफलता भी मिली. किन्नर, सम- लैंगिकों और अपाहिजों जैसे वंचितों-उपेक्षितों की प्रत्यक्ष अभिव्यक्तियों के प्रति भी उनका ऐसा ही समावेशी आग्रह रहा.

राजेन्द्र यादव के संपादकीय सबसे ज्यादा लोकप्रिय और चर्चित रहे हैं. उस दौर में, आप हिन्दी क्षेत्र में कहीं भी गये हों,  वहां थोड़े जागरूक दलितों या सचेतन महिलाओं से मिलें हों, तो आपको वहां हंस की उपस्थिति मिली होगी और चर्चा में वे लोग  राजेन्द्र यादव के विचारों का समर्थन करने  की कोशिश कर रहे होंगे. ये खुद मेरा अनुभव रहा है. मुझे यह तथ्य चकित करता था कि राजेन्द्र यादव के संपादकीय उन अपेक्षाकृत कम पढे-लिखे लोगों को साफ समझ आ रहे थे. इससे साबित है कि हिन्दी जन की समझ को हमने काफी कम करके आंका हुआ है. अन्यथा राजेन्द्र यादव कोई कथित अखबारी भाषा में नहीं लिखते थे. कई बार वे विश्व की किसी बड़ी कृति- पुस्तक, फिल्म या कला से अपनी बात शुरू करते थे. वे अपने विमर्श में  विश्लेषण को लेकर कभी कोई समझौता नहीं करते थे, शनै-शनै तत्व-मीमांसा के जरिये वे अपने कठोर निष्कर्षों की ओर बढ़ते थे. कई बार तो ये किसी कृति की शुद्ध सौंदर्यशास्त्रीय आलोचना होती थी. फिर भी हर संपादकीय रोचक और पठनीय होता था जो हिन्दी के वैचारिक साहित्य में प्राय: दुर्लभ रहा है. खुद राजेन्द्र यादव इस बारे में क्या कहते हैं, देखिये:

व्यक्तिगत रूप से मैं नहीं मानता कि विचार की संश्लिष्टता और भाषा की जटिल दुरूहता एक-दूसरे के पर्याय हैं. भाषा तभी उलझती है जब या तो विचारों में अस्पष्टता हो, या अंग्रेज़ी में सोचा गया वाक्य ज्यों का त्यों हिन्दी में उतार देने की जिद हो….  इसमें मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि पाठक से हमारी भावात्मक संलग्नता भी हमारे भाषिक प्रवाह की रचना करती है.

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की ऊंचाई का एक संकेतक यह है कि उसके पूर्व-सहयोगी उसके बारे में कैसी राय अथवा रवैया रखते हैं. हंस से निकलकर कई लोगों ने तो अपनी पत्रिकाएं शुरू की हैं. कुछ दूसरे अखबार या पत्रिकाओं में गये. लेकिन आश्चर्यजनक किन्तु सत्य की भांति न तो राजेन्द्र यादव का उनके प्रति रुख बदला और न उनकी ओर से राजेन्द्र यादव से संवाद में कोई अंतर परिलक्षित हुआ. दूसरी पत्रिकाओं के प्रति भी उनमें कोई प्रतिस्पर्धी भाव नहीं रहा बल्कि युद्धरत आम आदमी के ऊपर तो उन्होंने आदिवासी विमर्श को विकसित और संचालित करने की जिम्मेदारी छोड़ दी. हिन्दी की साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के प्रति सदैव उनका प्रोत्साहन भाव रहा. उन पर नियमित स्तंभ तो आता ही था, उनके विज्ञापनों को भी हंस में जगह मिलती थी.

इस वृहत सांस्कृतिक संघर्ष के बावजूद कुल हालात लगातार प्रतिकूल होते जा रहे थे. वास्तव में, देश में बढ़ते दक्षिणपंथी राजनीतिक वर्चस्व और उनके अनुषंगी पुनरुत्थानवादी संगठनों के विस्तार के सामने राजेन्द्र यादव और उनके चंद समान-धर्माओं के प्रतिरोध- प्रयासों की हैसियत कोई निर्णायक मायने नहीं रखती थी. उस बदतर होती स्थिति का उन्होंने इस तरह आकलन किया है :

स्तब्ध और अवसन्न चेतना के फलक पर केवल एक दूसरे को काटती रेखाएं और आपस में टकराती चीखें, नारे और दहाडें हैं. सर्पाकार अंधी सुरंग का मुहाना बंद है. सिर्फ एक रेजिग्नेशन (प्रतिरोधहीन समर्पण) है अब जो हो सो हो, शायद कुछ नहीं हो सकता. अतीत के दरवाजे बंद हैं. और भविष्य एक दुर्लंघ्य दीवार बनकर खड़ा है- क्यों अब तक का सोचा, सुना,  देखा-समझा इस तरह ध्वस्त हो गया ?…

सब न केवल ध्वस्त हो गया, बल्कि देश में राजनीतिक, आर्थिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में वे ही शक्तियां काबिज हो गयीं, जिनके आने को लेकर राजेन्द्र यादव अक्सर आशंकित रहते थे और जो दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और स्त्रियों सहित वंचितों की शत्रु हैं. ऐसे में हम राजेन्द्र यादव के महिमा-गान और छवि- प्रतिष्ठापन तक अपने को मुब्तिला कर लेते हैं तो यह उनकी छेड़ी मुहिम के प्रति धोखे के सिवाय और कुछ नहीं है.


राजाराम भादू
24 दिसम्बर, 1959 भरतपुर (राजस्थान).
 

‘समकालीन जनसंघर्ष’, ‘दिशाबोध’, ‘महानगर’ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन. ‘कविता के सन्दर्भ’ (आलोचना); ‘स्वयं के विरुद्ध’ (गद्य-कविता), ‘सृजन-प्रसंग’ (निबन्ध), धर्मसत्ता और प्रतिरोध की संस्कृति आदि कृतियाँ प्रकाशित.

rajar.bhadu@gmail.com

Tags: राजाराम भादूराजेन्द्र यादवसाहित्यिक पत्रकारिताहंस
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Comments 15

  1. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    3 years ago

    साहित्य से मेरा वास्तविक परिचय तब हुआ जब हंस पढ़ना प्रारम्भ किया, हर अंक में कम से कम एक कहानी ऐसी होती थी कि पैसा और समय वसूल हो जाता था, मस्तिष्क नवीन| जब समय न भी होता तो कम से कम संपादकीय पढ़ना जरूरी रहता| यहाँ तक कि परीक्षाओं से समय में भी संपादकीय पढ़ता रहा| जिस काल खंड में मैं हंस नहीं पढ़ सका, वह बेकार समय था और रहा|

    Reply
  2. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    राजेंद्र यादव की बौद्धिक प्रखरता और सक्रियता को रेखांकित करता यह आलेख एक ज़रूरी याद और हस्तक्षेप है। भादू जी को बधाई।

    Reply
  3. बजरंगबिहारी says:
    3 years ago

    राजेन्द्र यादव के योगदान (अवदान नहीं, ‘अव’ हीनताबोधक उपसर्ग के रूप में रूढ़ है।) को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करता पठनीय निबंध।
    भादू जी को बहुत धन्यवाद।

    Reply
  4. बटरोही says:
    3 years ago

    यह आलेख राजेंद्र जी को समग्रता में रेखांकित करने वाला आत्मीय मूल्यांकन है। इस निराले इंसान पर लिखना आसान नहीं है। उन्होंने यह जोखिम उठाया, साधुवाद।

    Reply
  5. देवेंद्र मोहन says:
    3 years ago

    नमस्कार, प्रोफेसर अरुण देव जी। राजेंद्र यादव से किसी ज़माने में मेरे भी अच्छे मरासिम रहे हैं। उन्हों ने मेरी दो तीन कहानियां पढ़ कर मेरी पीठ भी थपथपाई थी। दुर्भाग्य वश मेरी सारी छपी चीज़ें शहर बदलते समय गुम हो गईं। कुछ बचा खुचा था वह लापरवाही के कारण कबाड़िया ले गया। मेरा सवाल है कि इतने प्रबुद्ध लेखक ने संजय सहाय नामक कूड़ मग़ज़ के हाथों ‘हंस’ कैसे थमा दिया जो आए दिन प्रेमच॔द को गालियां देता रहता है? क्या इतना बड़ा हो गया है ये संजय सहाय कि उस की ऐसी हरकत की वजह से हम ने ‘हंस’ खरीदना ही बंद कर दिया है। राजेंद्र यादव ने ऐसी भूल कैसे कर दी, यही सोच कर मन में अवसाद छा जाता है…

    Reply
  6. सन्तोष अर्श says:
    3 years ago

    राजेन्द्र जी पर एक आवश्यक लेख। उनकी कमी की पूर्ति नहीं हो सकती। इस समय उनके विपुल लेखन का पुनर्पाठ होना चाहिए।

    Reply
  7. कौशलेंद्र सिंह says:
    3 years ago

    राजेन्द्र यादव जी की लेखनी का कायल हूँ सिवाय रामायण के संदर्भ में उनके जो विचार रहे हैं उनको छोड़कर। उनकी पुस्तक ‘सारा आकाश’ मेरे पढ़े बेहतरीन उपन्यासों में से एक है। एक और पुस्तक पढ़ी है मैंने जिसमें चेख़व से एक काल्पनिक इंटरव्यू है, बेहतरीन है। एक उम्दा रचनाकार। सुंदर आलेख, समालोचन का शुक्रिया और बधाई।

    Reply
  8. दयाशंकर शरण says:
    3 years ago

    साहित्य एक सांस्कृतिक कर्म है और इस माध्यम से वह सामाजिक चेतना के परिष्कार की प्रक्रिया में व्यक्ति के दृष्टिकोण को बदलता है।राजेन्द्र यादव ने साहित्य के जरिए यह काम बखूबी निभाया।यह बात दीगर है कि समाज में अपेक्षित बदलाव नहीं हुआ।लेकिन एक प्रगतिशील पीढ़ी तैयार हुई।इसका महत्व भी कम नहीं है। आलेख उनके समग्र अवदान को उन्हें याद करते हुए रेखांकित करता है।साधुवाद।

    Reply
  9. Pankaj Chaudhary says:
    3 years ago

    राजेन्द्र यादव पर ऐसे ही आलेख की तलाश थी। उनकी महत्ता अब समझ में आ रही है जब बड़े-बडे रणबांकुरे भी संघी प्रेत के डर से दड़बों में दुबक रहे हैं। हिंदी भाषा में ऐसा निर्भीक योद्धा मुझे कोई नजर नहीं आता। हमलोगो के निर्माण में हंस और राजेंद्र यादव का निर्विवाद योगदान है। राजाराम भादू को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  10. M P Haridev says:
    3 years ago

    राजेंद्र यादव के साहित्यक अवदान के बारे में लिखना आसान नहीं है । राजाराम भादू के आलेख को पढ़ना ही आनंददायक है । बक़ौल उपेंद्र नाथ अश्क़ ‘राजेंद्र के स्वभाव में स्पर्धा है, डाह नहीं ।

    Reply
  11. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    ‘हंस’ पत्रिका के संपादक , कथाकार, विचारक राजेन्द्र यादव पर राजाराम भादू जी का आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। यह आंशिक सत्य नहीं है कि आज जो हिंदी साहित्य में कथा-लेखक के रूप में सम्मान पा रहे हैं, वे सब हंस और हंस पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव के संवारे हुए कथाकार हैं। इस सचाई से कौन इनकार कर सकता है, लेकिन इस संदर्भ में कमलेश्वर आदि के योगदान को कम कर के नहीं आंका जाना चाहिए। संपादक के रूप में इन्होंने भी अपनी संपादित पत्रिकाओं में नये लेखकों को बहुत स्पेस दिया और उनको लगातार लिखने के लिए प्रेरित किया। बहरहाल, समग्र रूप से राजाराम भादू ने राजेन्द्र यादव जी के लेखन, पठन-पाठन और संपादन का बहुत अच्छा मूल्यांकन किया है।

    उन्हें बहुत बधाई और शुभकामनायें।

    Reply
    • Manish kumar shaw says:
      3 years ago

      भादू सर ने राजेन्द्र यादव जी के योगदान को बेहद सूक्ष्म दृष्टि से रेखांकित किया है। धन्यवाद सर।

      Reply
  12. विजय बहादुर सिंह says:
    3 years ago

    राजेन्द्र यादव पर राजाराम भादू का आलेख उनके बौद्धिक देय को न केवल रेखांकित करता है बल्कि उसकी ऐतिहासिक जरूरत और महत्व की याद भी दिलाता है।
    भादू जी ने इसे जिस वस्तुपरक तटस्थता से लिखा है उसके लिए वे धन्यवाद के अधिकारी हैं
    विजय बहादुर सिंह

    Reply
  13. omprakash kashyap says:
    3 years ago

    साहित्य में राजेंद्र यादव की भूमिका को रेखांकित करता हुआ महत्वपूर्ण आलेख. हालांकि इसका शीर्षक आपत्तिजनक है. राजेंद्रजी जनपक्षीय सरोकारों वाले साहित्यकार-बुद्धिजीवी थे. उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक असमानता को बढ़ावा देने वाले सत्ताकेंद्रों का लोकतांत्रिक विरोध किया था. प्रतिपक्ष का बुद्धिजीवी कहना उनके सारे योगदान पर पानी फेर देने जैसा है.

    Reply
  14. Raghvendra rawat says:
    3 years ago

    राजेंद्र यादव के साहित्य , सिनेमा और संपादक के रूप में बहु आयामी अवदान को राजा राम जी ने बेहतरीन ढंग से रखा है.

    Reply

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