झूठ और कुछ नहीं सच के साथ दग़ा है
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गद्य का जबसे प्रादुर्भाव हुआ, वह आधुनिक मनुष्य के संघर्ष का सहचर बन गया. गद्य ने ही व्यक्त किया है असीम दुःख. मानवीय यंत्रणाओं, जिनका पारावार नहीं, उसे गद्य के अलावा और किस भाषा में अभिव्यक्त किया जा सकता था ? यथार्थ को तृणमूल तक पहुँचाने में गद्य की कारीगरी ऐतिहासिक है. गद्य की इसी शक्ति को अंततः कविता ने भी अर्जित किया और इसे विनोद दास के ‘कुजात’ संग्रह (2021) की कविताओं से गुज़र कर अनुभव किया जा सकता है.
हायपर्रियालिटी को केवल यथार्थ की अतिशयता के अर्थ में नहीं समझा जा सकता. बौद्रिआर्द ने कहा है कि, ‘उत्तर आधुनिक संस्कृति कृत्रिम है, इससे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कृत्रिमता को समझने के लिए यथार्थ की भी थोड़ी समझ वांछित है.’ उसने अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ‘इस समय में हम कृत्रिम और स्वाभाविक में भेद करने की योग्यता भी खो चुके हैं.’
विनोद दास की कविताओं में यह सामर्थ्य है कि वे यथार्थ की इस अतिशयता तथा कृत्रिम और प्राकृतिक के मध्य भेद कर पाने की योग्यता खो चुके समय में भी वस्तुओं और घटनाक्रमों की पहचान रखते हैं. ‘कुजात’ संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मालूम होता है कि उनकी तीक्ष्ण वैचारिक दृष्टि कहन के शिल्प के साथ कविताओं तक चली आयी है. अपने समय को दर्ज़ करने और सत्य को उसके सहज लहजे में सामने लाने में सफल इन कविताओं की व्यंजना सचेत करने वाली है. जिस स्तर की राजनीति कविताओं में है विनोद दास को राजनीतिक कवि कहा जा सकता है.
लेखन ही लेखक की राजनीति है. निहायत कलावादी कवियों को भी अपनी राजनीतिक अवस्थाएँ प्रकट करनी पड़ी हैं, चाहे वह इस समय के हमारे वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी हों या किसी अन्य समय के कथाकार निर्मल वर्मा, जो अपने निबंध ‘अँधेरे में चीख़’ में लिखते हैं-
“एक संघर्षशील व्यक्तित्व के लिए यह राजनीति है. मुझे समझ में नहीं आता हम अगर अपने समय के महज़ दर्शक नहीं बल्कि भोक्ता रहने का साहस रखते हैं तो राजनीति से पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं? हमारी शताब्दी के लिए और उसकी संस्कृति के लिए राजनीति उतना ही जीवित संदर्भ है, जितना बायज़ंटीन संस्कृति के लिए धर्म, पुनरुत्थान-युगीन इटली के लिए क्लासिक, ग्रीक सभ्यता! आप बायज़ंटीन संस्कृति से धर्म निकाल दीजिए- बाक़ी कुछ नहीं रह जाएगा. जिन लेखकों के लिए फ़ासिज़्म या कम्यूनिज़्म कोई अर्थ नहीं रखता, उनके लिए साहित्य भी कोई अर्थ रखता है, मुझे गहरा संदेह है.”
(निर्मल वर्मा, अँधेरे में चीख़, लेखक की आस्था)
इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता ‘झूठ’ हायपर्रियालिटी से संबंधित बौद्रिआर्द्र की उत्तर-आधुनिक अवधारणा को परिपूर्णतः व्यावहारिक स्तर पर समझाने में कामयाब होती है. दार्शनिक अवधारणा को कविता में भाषिक व्यंजना के साथ मूर्त कर देना काव्य-कला का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है. इसके लिए अच्छे शिल्प की आवश्यकता होती है. दुनिया में जो कुछ भी ज्ञात-अज्ञात है उसका शिल्प अवश्य है. उस शिल्प का हासिल ऐन्द्रिक हो सकता है, सूक्ष्म पर्यवेक्षण से हो सकता है, तत्व-मीमांसा से हो सकता है. जैसे झूठ का भी एक शिल्प है, विनोद दास की इस कविता में-
झूठ का कोई पक्का साँचा नहीं होता
हर झूठ का होता है अपना अलग रंग
अपना ढब
गढ़ना पड़ता है हर बार
उसे अपना एक नया शिल्प.
(झूठ)
झूठ की एक बड़ी अक्षमता यह है कि स्वयं को स्थापित करने के लिए भी उसे सत्य का आश्रय लेना पड़ता है. सत्य बलवान है, परंतु झूठ से चौतरफ़ा घिर जाने पर वह भी अशक्त पड़ जाता है, नात्सी जोसेफ़ गोयबल्स की थियरी इसीलिए सफल हुयी थी. झूठे लोग पूरी शक्ति से सत्य का आवरण रचते हैं और झूठ और सच में फ़र्क़ कर पाने में समर्थ चेतना को कुंद कर देते हैं. तब आवश्यकता होती है सत्याग्रही चेतना की. जिस तरह भारतीय दर्शन सत्याग्रही है, विनोद दास की यह कविता भी सत्याग्रही है:
झूठ को सच का लिबास इतना पसंद है
कि न्यायमूर्ति के सामने हमेशा हलफ़ लेकर कहता है
जो कहूँगा सच सच कहूँगा
(वही)
झूठ कविता का तनाव सत्य के घेराव से उपजी चिंता से आकुल है. यही इस कविता का वास्तविक सौंदर्य है. यह झूठ का सबक़ इतना विस्तृत है कि जीवन के अनेक आयामों को छू कर लौटता है. जिसमें अपने समय में खुली हुई झूठ की डिजिटल पाठशालाएँ भी उद्बोधित हैं. उत्तर-सत्य वस्तुतः और कुछ नहीं सत्य का विभ्रम (Illusion) है. लेकिन जब झूठ प्यार के नज़दीक पहुँचता है, स्त्री की तरफ़ से, तो यह संवेदना के उस छोर पर ले जाता है जहाँ जीवन की सबसे बड़ी वंचना है. प्रेम की वंचना से बड़ी कौन सी वंचना हो सकती है ?
प्रेमिकाएँ अक्सर फूल से अधिक झूठ पर लहालोट होती हैं
धोखा खाने के बाद भी
अपने दुःख की अँधेरी कोठरी में
प्यार की तरह उसे छुपाए रखती हैं.
(वही)
ये पंक्तियाँ लिखने के लिए जीवन और प्यार की आग में पका हुआ हृदय चाहिए. अपने साथ हुई ठगी को प्यार समझ कर छिपाए रखना वह भी दुःख की कोठरी में, भाव दुर्लभ नहीं है, लेकिन कहन है. जो सच या झूठ से नहीं, इन दोनों किनारों के मध्य बह कर आए तरल प्यार के कारण है. झूठ कविता में आयरनी के साथ-साथ व्यंग्य भी है. व्यंग्य जो झूठ से सीधे-सीधे नहीं कहता कि तुम झूठ हो, बल्कि कुछ और कहता है. मगर झूठ समझ जाता है कि क्या कहा जा रहा है. जैसे कि एक कवि यह लिखे:
अमरता भी एक झूठ है
यह बात झूठे कवि नहीं जानते
और झूठी प्रशंसा के तकिए पर सोते हुए
अमरता का सपना देखते रहते हैं.
(वही)
‘चोरी’ कविता में एक लघु कथानक है. जहाँ मरहूम पिता के काग़ज़ात में पुत्र के हाथ एक लड़की की तस्वीर लग जाती है. कविता में अप्राप्य अनुभूति का सौंदर्य है. कुछ अनुभूतियों को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, वहाँ भाषा की सृजनात्मक संभावनाएँ हार मान लेती हैं. यहाँ वही बात है. ‘चोरी’ कविता में शायराना तबीयत का मजा है. धरती पर कितनी तरह की चोरियाँ की जाती हैं, प्यार की चोरी उसमें ज़ुदा है. ऐसे चोर चंद लोग ही होते हैं-
कुछ चुराकर रखते हैं चाँद
क़िताबों के सफ़ों के बीच.
(चोरी)
यह सहसा मिल गई ‘धुंधली और पीली तस्वीर’ ‘अनंत के अंधेरे की ओर चले गए पिता’ ने सबसे चुरा-छिपा कर रखी थी. उस तस्वीर में ऐसा क्या था-
बहरहाल उस तस्वीर में था
थोड़ा-सा नमक
थोड़ा-सा बाँकपन
पीठ पर खुले थे बाल
साड़ी पर नन्हे-नन्हे फूल.
(वही)
छिपाकर रखा गया प्रेम इतना ऐकांतिक होता है, कि जब कोई दूसरा इस रहस्य के सामने खड़ा होता है, यह रहस्य उसके सामने प्रकट होता है, तो वह स्वयं भी ऐकांतिक हो जाता है. इसीलिए पुरानी कविता में प्रेम को रहस्यवाद से जोड़ा गया. वह सूफ़ियाना प्रेम हो या रोमानी प्रेम या हिन्दी की छायावादी कविता जैसा अत्यंत रहस्यमयी प्रेम. इसी रहस्यमय प्रेम की अभिव्यक्ति कविता को अलौकिक रौशनी से दीप्त करती रही है. वह रहस्य जो केवल रहस्य रहना चाहता है. अकेला रहस्य. मनुष्य से निरापद. ऐसा रहस्य जिसे जानने वाला स्वयं से व्यक्त करने का साहस न जुटा सके. शिम्बोर्स्का ने ऐसे ही किसी सन्दर्भ में कहा था कि, ‘मेरा यक़ीन है रहस्य को क़ब्र तक ले जाने में.’ मगर उर्दू कवियों ने फ़रमाया कि असरार की लज्ज़त उनके खुलते जाने में है. अपने प्यार को सही ढंग से महसूस करने वाले लोग ही औरों के प्यार को महसूस कर सकते हैं. कवि की पिछली पीढ़ी का प्रेम अधिक रहस्यमय रहा होगा. वहाँ वर्जनाएँ और कड़ी रही होंगी. पहरे और गहरे रहे होंगे. वहाँ आज जैसा उन्मुक्त और स्वच्छंद प्रेम कहाँ रहा होगा? लेकिन उस तस्वीर में कवि अपनी तस्वीर देख रहा है संभवतः इसीलिए झेंप जाता है :
कुछ झेंपा
मन में उठी हल्की सी सुरसुरी
जब मैंने यह सोचा
कि वह मेरी माँ भी हो सकती थी.
(वही)
यह कविता पढ़ने पर लगता है कि कोई लंबी प्रेम-कहानी जल्दी में घट गयी हो. यही काव्य-कला का उजला पक्ष है कि एक लंबे समय को वह कुछ पंक्तियों में अभिव्यक्त कर देती है. ठिठक जाने पर विवश करती है यह कविता.
विनोद दास आलोचना-दृष्टि से संपन्न कवि हैं. उनके पास विश्व-कवितानुवाद के अच्छे अनुभव भी हैं. इस अर्जन के प्रभाव से उनकी मँजी हुई भाषा और कहन शैली प्रथम दृष्टया ही आकर्षित करती है. कविता में यथार्थ के आने से उसकी सौन्दर्यात्मकता कम होती है, परंतु व्यंग्यार्थ का विस्तार होता है. इस तथ्य को हम इन कविताओं से गुज़रने के बाद जान पाएंगे. कश्मीर पर लिखी गई कविता का वृत्तांत राजनीतिक होने के साथ-साथ कृत्रिम अनुभूतियों वाला भी जान पड़ता है, यद्यपि उसे हमारे समय की राजनीति से जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए. बिना माक़ूल भाषा और शिल्प के कविता में राजनीति का इतिवृत्तात्मक प्रवेश उसे प्रभावहीन करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है. विनोद दास का प्रस्तुतीकरण ऊपर बताए गए दोषों से मुक्त नहीं है, किन्तु ग्रस्त भी नहीं है. फिर भी-
यातनाएँ कभी चटपटे क़िस्सों की तरह
हुँकारी भरकर नहीं सुनी जा सकतीं
उन्हें ख़ून के आँसुओं के साथ रोया जाता है.
(यातनागृह)
‘देश’ कविता में इस समय घट रहे दृश्यों को दिखाने की कामयाब कोशिश है, बल्कि यह वह यथार्थ है जिसे संप्रेषित कर पाने में कविताएँ असफल ही होंगी. यथार्थ के लिए, विशेषकर इस समय के यथार्थ के लिए आख्यानपरक शैली के साथ गद्य का अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक प्रयोग काम्य है. लेकिन यथार्थ का प्रस्तुतीकरण भी कला है. निर्मल वर्मा ने एक बार कहीं लिखा था कि कला में यथार्थ की छाया होती है. संग्रह की कुछ कविताएँ सुंदर बिम्बों से आच्छादित हैं, लेकिन कतिपय शुष्क कविताओं में भी ये बिम्ब उजाड़ में खिले फूल की तरह चमक उठते हैं. जैसे ‘कोख’ कविता में निम्न पंक्तियाँ:
वह सृष्टि की पहली ख़ुशी है
और इतनी बड़ी
कि ओढ़नी या पल्लू के पीछे भी
नहीं छिप पाती
उसका उभरा बड़ा पेट
इस कायनात का सबसे सुंदर दृश्य है.
(कोख)
ऐसी ही कुछ पंक्तियां ‘ख़ुदकुशी’ कविता में भी दिखायी देती हैं:
वे बच सकते थे
जैसे बच जाती है प्रदूषित हवा में थोड़ी-सी ऑक्सीजन
जैसे बच जाता है दवा के बिना सरकारी अस्पताल में मरीज़
जैसे पेट पर लात मारने पर भी बच जाती है
गर्भ में लड़की
जैसे दु:ख के अंतरिक्ष में बच जाता है गर्म आँसू.
(ख़ुदकुशी)
उपरोक्त पंक्तियाँ पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह और उदय प्रकाश प्रभृति कवियों की काव्य-शैली स्मरण हो आती है. विनोद दास के काव्य-तत्त्व वहाँ तनिक अधिक निथर कर ऊपर उतराते हुए नज़र आते हैं, जहाँ वे यथार्थ से अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हैं. यथार्थ बहुत जटिल और पेचीदा होता है. उसे अभिव्यक्त करने की कोशिश में ज़ाहिर है कि काव्य-तत्त्व पीछे छूट जाते हैं और उसकी जटिलता कविता में प्रवेश कर जाती है, लिहाजा कविता भी सरल नहीं रह जाती. लेकिन कला तो उसमें भी रहेगी.
यहाँ नीत्शे का अमर वाक्य याद आता है कि, ‘जब हम अँधेरे, गहरे गड्ढे में प्रवेश करते हैं, तो केवल हम ही उसमें नहीं घुसते, वह भी हम में घुसता है.’ ‘बलात्कृता का हलफ़नामा’ ऐसी ही एक कविता है. जिसमें सामाजिक यथार्थ की ऐसी अभिव्यक्ति है, जो कविता की सरलता को विनष्ट कर देती है. लेकिन इस कविता में कुछ अच्छी पंक्तियाँ भी हैं. जैसे कि :
दरअसल मेरी योनि
मेरी देह का सबसे पवित्र अंग है
हर माह रक्तस्नान से होती रहती है पवित्र
यहीं से हुआ है
इस पृथ्वी पर तुम्हारा जन्म.
(बलात्कृता का हलफ़नामा)
लेकिन इसी कविता में ऐसी पंक्तियाँ भी हैं जो एक प्रकार का सरलीकरण प्रस्तुत करती हैं. कारण है दलित-अस्मिता से इनका जुड़ाव. दलित विषयों पर लिखते हुए अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है. कविता में जिसे नहीं बरता जा सकता, क्योंकि यह आवेगमय होती है.
डॉ. धर्मवीर जैसे आलोचकों ने इसे बेहतर ढंग से स्पष्ट किया है. दलितों की पीड़ा और उनकी ऐतिहासिक यंत्रणा के बारे में लिखते हुए वर्चस्ववाद की सैद्धांतिकी को समझने की बड़ी आवश्यकता है. विनोद दास जैसे वरिष्ठ और अध्यवसायी कवि इस बात को बेहतर जानते भी होंगे. क्योंकि कई बार साहित्य में दलित-पीड़ा का सहानुभूतिपरक वर्णन रोमानी आस्वाद के अतिरिक्त और कुछ प्रकट नहीं कर पाता. ऐसे में यह प्रयास ऐतिहासिक पीड़ा का रोमानीकरण साबित होता है. इस संदर्भ में भाषा की वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों का स्मरण होना भी स्वाभाविक है. इन पंक्तियों में इस असंगति को देखा जाये :
ग़रीब-दलित सखियों के बारे में क्या कहूँ
काँपता है कलेजा
यह सखियाँ ऊँची जातियों के लिए नाबदान हैं
फिर भी आम की मुफ़्त चटनी से भी ज़्यादा
सवर्णों को लगती है इनकी देह चटपटी.
(वही)
उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर कोई भी दलित बुद्धिजीवी या विचारक-लेखक बता देगा कि ये किसी सवर्ण पुरुष कवि द्वारा लिखी गयी हैं. ‘नाबदान’ और ‘आम की चटनी जैसी चटपटी देह’ जैसे उपमान अनुपयुक्त और बोदे हैं. ये फूहड़ होने के साथ-साथ समाज-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से वर्चस्ववादी ताक़तों के तरफ़दार हैं. हाँ, यह भी एक तथ्य है कि यह फूहड़ता भारतीय सामाजिकता ही से उपजी है.
उपमाएँ और दृष्टांत नख-शिख वर्णन में इतनी सावधानी की माँग नहीं रखते जितनी मनुष्य की वर्गीय स्थितियों, उसके उत्पीड़न और ऐतिहासिक शोषण के प्रसंगों के प्रस्तुतीकरण के लिए. यह सवर्ण दृष्टि है जो स्त्रियों के लिए नाबदान और उनकी देह के लिए चटपटी चटनी का उपमान प्रस्तुत करती है. और ये सब कुल मिलाकर सवर्ण वर्चस्व को परवान चढ़ाने में ही योग देते हैं. जबकि नाबदान वह दोहरे मापदण्ड वाली संस्कृति है जिसमें मनुष्य-मनुष्य में विभेद करने को कई तरह के सांस्कृतिक प्रपंचों से छिपाया जाता है.
गरज़ यह कि कवि को अपनी वर्गीय चेतना के अनुरूप भाव प्रकट करने की ईमानदारी बरतनी चाहिए. यहाँ कवि की मंशा ग़लत नहीं है, उसका उद्देश्य भावप्रवण और संवेदनशील है, किंतु दलित-पीड़ा को समझने के लिए भारतीय समाज में स्वयं को ‘डिक्लास’ कर लेने भर से काम नहीं चलता. यहाँ आपको ‘डिकास्ट’ भी होना पड़ेगा. तभी दलित पीड़ा को उसकी ज़मीन पर जाकर महसूस कर पाएंगे अन्यथा दलित पीड़ा, ललित पीड़ा जैसी जान पड़ेगी.
संग्रह की अंतिम कविता ‘चालीस साल’ बीत और रीत जाने के दुर्गम किन्तु सत्य के मार्ग से आने वाला भावोद्रेक है. इसमें दाम्पत्य जीवन का सजीला-लजीला परिपक्व सुबोध है जो स्मृति और अनुभव की बुनियाद पर स्थापत्य की भाँति खड़ा हुआ है. यह कविता पढ़ते हुए हो सकता है कि आंखें भर जाएँ, परन्तु हर जोड़े को अंत में इसी घाट ही लगना है. भारतीय गृहस्थ जीवन कितने संघर्षों से निर्मित होता है, उस जीवट का पूरा चिट्ठा इस कविता में है. सन्देह से परे यह दाम्पत्य-प्रेम की अनूठी कविता है:
चालीस साल में
हम जान पाए हैं एक-दूसरे को
थोड़ा-थोड़ा
जिस तरह पत्तियाँ जानती हैं हवा को
धीरे-धीरे डोलते हुए
(चालीस साल)
इस कविता को पढ़ते हुए लगता है कि यह इस संग्रह का उत्स तो है ही, जीवन का उत्तर-पर्व भी है. यहाँ ग़मे-रोज़गार का हिसाब-क़िताब है. और हाथ में कुछ नहीं है. ख़ाली है. ख़ालीपन का ऐसा संज़ीदा वातावरण है कि जीवन की लिप्सा धुँधली पड़ी जाती है. पूरे-पूरे जीवन का निचोड़ है यहाँ. या निराला की वह ‘सांध्य-बेला’ जहाँ सारे नदी-झरने पार हो चुके हैं. इन पंक्तियों से कैसी महाकाव्यात्मक वेदना रिसने लगती है :
निराशाएँ अब हमें हराने की प्रतिस्पर्धा नहीं करती हैं
आशा बलवती है कि अब हमें ज़्यादा दिन नहीं रहना है
(वही)
इस कविता के गहरे जल में पैठ कर यह भी लगता है कि प्रेम और संग-साथ के बिना इस पहाड़ जैसे जीवन को नहीं काटा जा सकता. इसीलिए बीतने और रीतने से शुरू हुई इस कविता का समापन प्रेम से होता है. दुनिया की तमाम क्रूरताओं को देखने-सहने (विनोद दास का ख़याल है कि दुनिया प्रतिदिन और अधिक क्रूर हुयी जाती है) के बाद प्रेम ही वह जगह है जहाँ हमें शरण मिलती है, आश्रय मिलता है, स्थिरता मिलती है :
वह मेरे होठों के कोरों में लगा चावल का एक दाना
प्यार से हटाती है
मैं उसका हाथ पकड़ता हूँ
ज़मीन से उठकर खड़े होने के लिए
हर क्षण
विरह का डर हमें सताता रहता है
और ज़िन्दगी लता-सी हमसे लिपटती रहती है.
(वही)
स्मरण होती है महान कवि पाब्लो नेरूदा की वह बहुत प्यारी बात, जो बार-बार दोहराने लायक़ है-
‘ऐसा कुछ भी नहीं जो मौत से हमें बचा सके. प्यार कम-से-कम हमें ज़िन्दगी से बचा लेगा.’
विनोद दास की इस कविता में हिन्दी का दाना, अनुभवी और मैच्योर कवि ख़ूबसूरती से नमूदार होता है जो अपनी कविता से सारी सतही बातों को दरकिनार कर देता है. जीवन की सच्ची आँच में तपा और पका आदमक़द.
विनोद दास के इस संग्रह की कविताओं की विशिष्टता यह है कि यह वर्तमान से हमें जोड़े रखती हैं और आसन्न ख़तरों के बारे में सचेत करती हैं. सारी क्रूरताओं, राजनीतिक बर्बरताओं, मानवीय अंतर्व्यथाओं, दमित जन-आकांक्षाओं को दर्ज़ करते हुए. इस संदर्भ में यह दुर्लभ या श्रम से अर्जित होने वाला काव्य-विवेक है. उत्तर-सत्य के समय में मानवीयता झूठ से होने वाली हानि से नहीं बच सकती. न्याय और सत्य के पक्ष में खड़े होने वाले मूल्यों का कम-से-कम कविता में ही बचे रहना हमारी आख़िरी उम्मीद है. ये कविताएँ पढ़े जाने के लिए ही हैं.
संतोष अर्श रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. |
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
विनोद दास की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ें.
विनोद दास के काव्य-संग्रह कुजात,पर संतोष अर्श की समीक्षा उनके प्रखर आलोचना-विवेक की परिचायक है।समीक्षा बहुत ही बारीकी से कविताओ के मर्म को छूती और उनमें अनुस्यूत यथार्थ और संवेदना को परत दर परत उघाड़ती चलती है। इसके लिए संतोष जी एवं विनोद जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ !
विनोद दास महत्वपूर्ण कवि,निर्भीक आलोचक और विश्वसनीय अनुवादक हैं।उनके कविता संग्रह का प्रकाशन एक आह्लादकारी घटना है ।अभिनंदन
युवा आलोचकों में संतोष अर्श जी एक महत्त्वपूर्ण नाम हैं।
संतोष अर्श के अध्ययन का दायरा बड़ा है। प्राच्य और प्रतीच्य दोनों साहित्य पर उनकी निरंतर पकड़ मजबूत होती जा रही है।
बढ़िया समीक्षा।
हार्दिक बधाई Santosh Arsh जी।
बेहतरीन विश्लेषण संतोष