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Home » ‘हासिल’ यानी ‘आदमी की निगाह में औरत’: राकेश बिहारी

‘हासिल’ यानी ‘आदमी की निगाह में औरत’: राकेश बिहारी

राजेन्द्र यादव की चर्चित कहानी ‘हासिल’ और उनके विवादास्पद आलेख ‘होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ के बीच क्या सम्बन्ध है? क्या यह कथा ही बाद में विचार में ढल गयी. या यह एक राजनीतिक रूपक है. राजेन्द्र यादव के स्मृति दिवस पर आलोचक राकेश बिहारी का यह दिलचस्प आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
October 28, 2023
in आलेख
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‘हासिल’ यानी ‘आदमी की निगाह में औरत’: राकेश बिहारी
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‘हासिल’ यानी  ‘आदमी की निगाह में औरत’
राकेश बिहारी

विचारों से दृढ़ और हृदय से उदार राजेन्द्र जी के रचनात्मक और सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी संवादप्रियता थी. उनकी प्रयोगधर्मी कहानियों से लेकर उनके विचारोत्तेजक संपादकीय और विभिन्न विमर्शमूलक लेखों में उनकी इस विशेषता के लक्षण आसानी से देखे जा सकते हैं. लेकिन उनकी साहसी संवादधर्मिता जब-जब उनके लिए परेशानी का कारण बनी, कुछ लोगों ने इसे उनकी विवादप्रियता का परिणाम बताया.

यूं तो राजेन्द्र जी का पूरा जीवन ऐसे विवादों, जो अपने मूल अर्थों में संवाद ही थे, के कई उदाहरणों से भरा है. पर उनकी कहानी (शायद आखिरी) ‘हासिल’ और उनके लेख ‘होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ के प्रकाशित होने पर हिन्दी समाज के एक बड़े हिस्से ने उनकी खूब लानत मलामत की और वे हमेशा की तरह अपने चेहरे पर एक लोकतान्त्रिक सार्वजनिक बुद्धिजीवी की मुस्कुराहट लपेटे सीधी रीढ़ के साथ खड़े रहे.

मुझे तब भी यही लगा था कि उन दोनों रचनाओं में अंतर्निहित अर्थ-संदर्भों को उनके आलोचकों ने ठीक-ठीक नहीं समझा या जानबूझकर उसकी उपेक्षा की. बदलते समय के साथ मेरी वह धारणा लगातार दृढ़ हुई है. प्रस्तुत आलेख ‘हासिल’ कहानी की अंतर्लय में निहित उन्हीं अर्थ-संदर्भों को खोलने-खँगालने का एक विनम्र उपक्रम है. यह भी कम दिलचस्प नहीं कि इन दोनों रचनाओं को साथ रखकर पढ़ने पर दोनों में एक दूसरे को समझने के कई मजबूत अंतर्सूत्र दिखाई पड़ते हैं.

‘हासिल’ ‘हंस’ में प्रकाशित हुई थी और ‘होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ ‘वर्तमान साहित्य’ में. अब ये दोनों रचनाएँ क्रमशः राजेन्द्र जी के अंतिम कहानी-संग्रह ‘हासिल और अन्य कहानियाँ’ तथा उनकी वैचारिक पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत’ में शामिल हैं. ‘आदमी की निगाह में औरत’ स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन संबंधी निबंधों का संकलन है. संदर्भित लेख सहित इस पुस्तक में शामिल कई अन्य लेखों में ‘हासिल’ के अर्थ-संदर्भों को समझने के कई सूत्र मौजूद हैं.

‘आदमी की निगाह में औरत’ में संकलित एक लेख ‘स्त्री गाथा’ में एक जगह राजेन्द्र जी लिखते हैं-

“लिखना कुछ जोखिम का काम भी है और सिर्फ ईमानदारी अपने आप में अधूरा मूल्य है. इसके साथ साहस शब्द भी जुड़ा है. जो महसूस किया जाये उसे साहस के साथ, लेकिन बिना कलात्मक संयम खोये कहा भी जाये. कुछ को नाराज़ न करने का अंकुश, अपनी ‘सती सावित्री’ की छवि, सामाजिक स्थिति का लिहाज, बच्चों, बड़ों का खयाल– ये सारे हिसाब-किताब ‘अहसास’ को कितना कुछ ईमानदार रहने देते हैं?”

यूं तो ये पंक्तियाँ स्त्री-लेखन के संदर्भ में उनकी टिप्पणी का हिस्सा हैं, पर अहसासों की ईमानदारी को लेखकीय साहस के साथ जोड़कर देखने की जो बात राजेन्द्र जी यहाँ कह रहे हैं, वह जेंडर या किसी अन्य खांचों की सीमाओं से इतर एक अनिवार्य और विशुद्ध लेखकीय मूल्य है.

साहस के अभाव में ईमानदारी, जिसे राजेन्द्र जी एक अधूरा मूल्य कहते हैं, रचनाकार की व्यावहारिक और भौतिक राह को निष्कंटक भले बनाए पर उससे रचना के मूल्य में कोई संवर्धन नहीं होता है. साहस और ईमानदारी का साथ जहाँ रचना के मूल्य में गुणात्मक अभिवृद्धि करता है, वहीं इसके कारण कई बार लेखकों को बहुत तरह की आलोचनाओं और परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है. ‘हासिल’ और ‘होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ संबंधी विवादों और लांछनों का सबसे बड़ा कारण मेरी नज़र में यही रहा है.

किसी रचनाकार के लिए ईमानदारी और साहस के साथ के संयोग का घटित होना तब और मुश्किल या कठिन हो जाता है जब रचना किसी वर्जित प्रदेश में प्रवेश करती हो. यह मुश्किल तब कई गुणा और बढ़ जाती है जब वह रचना ‘मैं’ शैली में हो. रचना यदि ‘मैं’ शैली में न भी हो और उसके संदर्भ लेखक की निजी ज़िंदगी या उसके कार्यक्षेत्र से जुड़ते हों तब भी ऐसी ही स्थिति होती है. पात्र और घटनाओं में लेखक को खोजे या पहचाने जाने का भय लेखकीय ईमानदारी और साहस को एक साथ नहीं बैठने देता है. स्वयं के भीतर निहित ‘खल’ और ‘अभिजन’ से लड़कर ही कोई रचना कागज पर उतरती है.

हासिल कहानी के संदर्भ में लेखक और उसके आत्म का यह संघर्ष दो हिस्से में है, जिसका स्पष्ट संकेत कहानी के आरंभ में लगी लेखकीय टिप्पणी या ‘सफाई’ में राजेन्द्र यादव स्वयं देते हैं. लगभग छः वर्षों की रचना प्रक्रिया और फिर उसके बाद लगभग डेढ़ दशक तक उसे प्रकाशित होने से रोके रखने के कारण के संदर्भ में वे कहते हैं-

“सचाई यह है कि इसे छपवाने (या छापने) की हिम्मत आज तक नहीं जुटा पाया हूँ. पात्र में लोग मुझे देखेंगे- यह डर ही रहा होगा.”

राजेन्द्र यादव का यह ‘डर’ उनेक लेखक और उनेक भीतर बैठे खालिस मर्द के बीच चलने वाला संघर्ष है. परंपरा और रूढ़ियों से स्वतः प्राप्त पितृसत्तात्मक मूल्यों से लड़ना राजेन्द्र यादव का एक बड़ा लेखकीय गुण है, जो इन्हे अपने साथ के लेखकों से अलग करता है. कहा जाना चाहिए कि ‘हासिल’ उनके उस लेखकीय संघर्ष के सबसे बड़े उदाहरणों में से एक है, जिसमें वे ‘नवल’ (‘हासिल’ कहानी का मुख्य चरित्र) में खुद को देखे जाने का जोखिम उठाकर भी पुरुष वृत्ति को परत-दर-परत अनावृत कर जाते हैं.

इससे पहले कि ‘हासिल’ कहानी के अर्थ-संदर्भों पर बात की जाये, कहानी के घटनाक्रम या कथासूत्र को संक्षेप में देख लेना जरूरी है. कहानी नवल नामक एक वृद्ध होते वरिष्ठ लेखक की है, जिसकी एक युवा प्रशंसिका– संदीप, उससे मिलने उसके घर आती है और एक रात ठहरती भी है.

यद्यपि यह उनकी पहली मुलाक़ात है, पर वे अपरिचित नहीं. इसके पूर्व उनके बीच हुये कुछ दिनों के पत्राचार के दौरान वे आपस में एक दूसरे से सहज हो चुके हैं. स्वप्ना जहाँ नवल के लेखन और उसके लेखकीय कद से प्रभावित है, वहीं नवल उसकी बौद्धिक समझदारी से. पत्रों में शनैः शनैः स्वप्ना अपनी लाचारियों, परेशानियों और दयनीय पारिवारिक स्थितियों का जिक्र करती रही है और इस तरह उनका रिश्ता औपचारिक से धीरे-धीरे ‘आत्मीय’ के अहाते में प्रवेश कर जाता है. नवल ऊपर से चाहे जितना लेखक की गंभीर छवि ओढ़ कर रखे उसके भीतर स्वप्ना को लेकर कामना का एक भाव निरंतर मुखर होता जाता है. मन ही मन वह उसे अपनी रचनात्मक प्रेरणा (म्यूज) की तरह हासिल करने का स्वप्न देखने लगता है. पर उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि स्वप्ना एक दिन सलाह मशविरा के बहाने साक्षात उससे मिलने, उसके घर तक आ जाएगी. इतना ही नहीं, वह बिना किसी तकल्लुफ़ के नवल के घर एक रात रुकने को भी तैयार हो जाती है.

अकस्मात ही उपस्थित हो चुके इस ‘अवसर’ को देख नवल उत्साहित और असहज एक साथ हो जाता है और कुछ आवश्यक काम का बहाना बना उसे अपने घर पर छोड़ कुछ देर को खुद बाहर चला जाता है.

लगभग दो पृष्ठों के इस शुरुआती दृश्य के बाद बचे बीस पृष्ठों की इस सुदीर्घ कहानी को लगभग दो बराबर-बराबर हिस्सों में बाँट कर देखा जा सकता है.

पहले हिस्से मैं घर से बाहर पार्क में बैठा नवल अपनी आशंकाओं और बेचैनियों से जूझता हुआ स्वप्ना के साथ अबतक की अपनी संबंध-यात्रा को मुड़-मुड़कर देखते हुये उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने की चाहतों को जस्टिफ़ाई करने के बौद्धिक तर्क खोजता रहता है.
दूसरे हिस्से में नवल लौटकर घर आता है और धीरे-धीरे अपनी चाहतों और हसरतों को अंजाम देने के लिए अनुकूल माहौल बनाने की कोशिशें करता है. स्वप्ना भी कोई प्रतिरोध नहीं करती और नवल का काम्य दृश्य अपने आखिरी पायदान तक आ पहुंचता है. नवल के मानसिक भूगोल की बारीक पड़ताल करती कहानी की विडम्बनाएं इसी आखिरी मुकाम पर आकार ग्रहण करती हैं जब वह यौन संबंध बनाने में खुद को असफल पाता है.

नवल का पुरुषबोध या अहं अपनी इस विफलता और यौन अक्षमताओं को स्वीकार नहीं कर पाता और मन ही मन इस स्थिति के पक्ष में तरह-तरह के बौद्धिक तर्क जुटाने की दयनीय कोशिशें करने लगता है. इस तरह यह कहानी (कथाकार के शब्दों में नवल का ‘खेल’) नवल के इस प्रश्नमूलक अहसास के साथ खत्म हो जाती है-

“सबकुछ हार जानेवाले जुआरी की छाती चीरकर निकलती सांस ही उस खेल का हासिल है…?”

कहानी नवल के ‘खेल’ के हासिल की तरफ इशारा करके खत्म तो हो जाती है, पर इसी बिंदु पर पाठक के भीतर यह प्रश्न भी उठ खड़ा होता है कि इस कहानी का हासिल आखिर क्या है?

क्या इस कहानी को वासना पीड़ित और यौन कुंठित एक लेखक के लिजलिजे आत्मस्वीकार की तरह पढ़ा जाना चाहिए?
नहीं! कहानी का यह पाठ कहानी के प्रति न्याय तो नहीं ही करेगा, बल्कि इससे सत्ता की उन दुरभिसंधियों के पहचान हेतु की गई वह शल्य क्रिया भी निष्फल हो जाएगी, जिसका परिणाम यह कहानी है.

इस कहानी में वर्णित नवल का ‘खेल’ दरअसल सत्ता के ‘खेल-चरित्र’ का बड़ा रूपक है. यहाँ सत्ता का अभिप्राय राजनीतिक, धार्मिक, या पितृसत्ता कुछ भी या एक ही साथ सबकुछ भी हो सकता है.

लगभग बाईस पृष्ठों की इस सुदीर्घ कहानी में कायदे से दो ही पात्र सक्रिय भूमिका में हैं- नवल और स्वप्ना.

स्त्री मानस में प्रवेश न कर पाने की सीमा कहें या कि पुरुष की मानसिकता को सघनतम रूप में दर्ज किया जाना, स्वप्ना का जो सक्रिय रूप कहानी में उपस्थित है, वह भी नवल की दृष्टि से ही अंकित किया गया है.

कहानी में एकाध जगह स्वप्ना की माँ, पिता और नवल के नौकर का भी जिक्र है, लेकिन वे सब लगभग निष्क्रिय हैं और किसी न किसी तरह सत्ता के प्रतिनिधि या शिकार भी. अपने हर (कु)कर्म को येनकेनप्रकारेण न्यायोचित ठहराना और अपनी हर अक्षमता और विफलताओं के पक्ष में कु(तर्क) गढ़ना सत्ता का स्थाई चरित्र है.

नवल, जो साहित्यिक सत्ता के शिखर पर है, के चरित्र में सत्ता के इस चारित्रिक लक्षण को बारीकी से महसूस किया जा सकता है. एक निरीह और मासूम स्त्री पाठक को शिकार की तरह फाँसने और अपने इस लंपट व्यवहार को तथाकथित बौद्धिक तर्कों से जस्टिफ़ाई करने के क्रम में उसके भीतर पल रही आशंकाओं और भयों के मनोविज्ञान को यह कहानी बहुत प्रभावशाली ढँग से चित्रित करती है.
अपने भीतर पल रही कुंठा और भय को न्यायोचित ठहराते नवल के तर्कों की एक बानगी देखिये

“नवल दुनिया के एक से एक बड़े कलाकार, लेखक, वैज्ञानिक, दार्शनिक (मार्क्स, आइन्स्टाइन, बर्टेण्ड) की जीवनियों से ऐसे प्रसंग निकाल- निकालकर अपने आप को बल देता रहा, नारी क्या है? सिर्फ एक बहता हुआ सोता! उसे तो बहना ही है. अगर आप कुछ मिनट उसके किनारे अपनी थकान मिटा लेते हैं, दो घूंट पानी पीकर, अगली लंबी यात्राओं पर निकल पड़ने के लिए तरोताजा हो जाते हैं तो इसमें बुराई कहाँ है? नहीं, न इसमें कुछ गलत है, न अनैतिक.”

कहानी के लगभग अंतिम दृश्य में जब नवल स्वप्ना के साथ यौन संबंध बनाने में अक्षम और नाकाम साबित हो जाता है तो उसके भीतर का अहं अपने बचाव के लिए एक बार पुनः महानता की खोल तलाशने लगता है

“उस दिन सुबह चाहे स्वप्ना से आँखें न मिला पाया हो, लेकिन यह सच है कि स्वप्ना आज उसकी बेटी ही है, वैसी ही निश्छल, वैसी ही अंतरंग, लेकिन उस समय स्वप्ना के माध्यम से क्या वह अपनी क्षमता या रचनात्मक ऊर्जा में अपने विश्वास को फिर से पाना चाहता था? या गांधी की तरह इस खतरनाक प्रयोग द्वारा अपने समाप्त हो जाने पर अंतिम मुहर लगाकर निश्चिंत हो जाना चाहता था?”

अपनी लंपटई को जस्टिफ़ाई करने के लिए मार्क्स और आइन्स्टाइन के उदाहरण देना तथा अपनी अक्षमता को ढंकने के लिए गांधी की खोल में दुबक जाने के इस दुचित्तेपन में ही विमल के माध्यम से यह कहानी सत्ता के चरित्र को बेनकाब करती है. राजेन्द्र यादव के शब्दों में नामवर जी का यह कहना कि यह एक विशुद्ध राजनीतिक कहानी है और 50 साल के भारत का रूपक है, सर्वथा उचित प्रतीत होता है.

मेरी दृष्टि में यही इस कहानी का असली निहितार्थ है. हाँ, इस क्रम में स्वप्ना के मानसिक भूगोल में बिना प्रवेश किए कहानी के अंत में नवल द्वारा अपनी मानसिकता के अनुरूप उसके व्यवहारों को निष्कर्षित करना भी अराजक सत्ता के स्वयंभू चरित्र का ही एक लक्षण है.(पितृ)सत्ता के चरित्र की आंतरिक बुनावट की शल्य क्रिया सिर्फ अहसास की ईमानदारी के अधूरे मूल्य और उपकरणों से नहीं की जा सकती. इसके लिए जिस ‘साहस’ की जरूरत होती है, वह राजेन्द्रजी के व्यक्तित्व और इस कहानी में बखूबी देखा जा सकता है.

काश इस कहानी के आलोचकों की दृष्टि भी सत्ता के चरित्र और सर्जना के इन जोखिम भरे मूल्यों की तरफ गई होती!

राकेश बिहारी
(अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)

कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रियप्रकाशन: वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह),केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी (कथालोचना) सम्पादन:  स्वप्न में वसंत, ‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’,‘पहली कहानी: पीढ़ियां साथ-साथ’, ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ आदिवर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान तथा सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य सम्मान से सम्मानित.
brakesh1110@gmail.com

Tags: 20232023 आलेखआदमी की निगाह में औरतराकेश बिहारीराजेन्द्र यादवहासिल
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Comments 1

  1. बजरंगबिहारी says:
    2 years ago

    बेहतरीन विश्लेषण।
    राकेश बिहारी जी को धन्यवाद।
    राजेन्द्र यादव की स्मृति को नमन।

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