बाघ, बकरी और कार्तिक की दुनियाविनय कुमार मिश्र |
कार्तिक की कहानी पहाड़ों के घेरे में बसे एक गाँव और उसके परिवेश की कहानी है जिसे पीयूष दईया ने कलमबन्द करने का काम किया है. इस गाँव के घरों की बनावट सुन्दर और आकर्षक है. प्रकृति की गोद में बैठे ये घर सुन्दर खिलौने से प्रतीत होते हैं. यहाँ प्रकृति और परिवेश सुरम्य हैं पर लोगों का जीवन कठिन. बारिश के दिनों में यहाँ के हालात और कठिन हो जाते हैं. दैनन्दिन कर्मों को सहेजती-समेटती स्त्रियों की कठिनाइयाँ बहुत बढ़ जाती हैं. इन संसाधन सम्पन्न पहाड़ों को लोलुप धनपशु लूटने-खसोटने के नित नए तरीके ढूँढ़कर इन प्रकृति-संतानों की मुसीबतें और बढ़ा देते हैं. धनपशुओं की निर्दयता और बर्बरता से प्रकृति अपना संतुलन खो देती है जिसके कारण बाढ़, तूफान और भूकम्प जैसी आपदाओं का जन्म होता है. सातवीं कक्षा में पढ़नेवाले कार्तिक का यह गाँव भी भूकम्प संवेदनशील गाँव है.
कार्तिक एक निडर हँसमुख, होनहार, मिलनसार, सूझ-बूझवाला, परिश्रमी, पढ़ाकू, प्रश्नाकुल, तार्किक, चिन्तनशील, सहयोगी, संवेदनशील, साहसी, नैतिक, मानवीय, जिम्मेदार और सकारात्मक सोच का विद्यार्थी है. इसकी प्रतिभा और बातें अनायास प्रेमचन्द की ईदगाह के हामिद की याद दिला देती हैं. हामिद की तरह ही कार्तिक की विशेषताओं और सर्वगुण सम्पन्नता पर भी प्रश्न उठ सकता है. पर यह नए युग के एक बच्चे को केन्द्र में रखकर लिखी गयी कहानी है. यह कहानी एक विशेष योजना और उद्देश्य के तहत बुनी गयी है. साथ ही यह भी कि कार्तिक एक आदर्श विद्यार्थी है, ऐसे विद्यार्थी संख्या में कम होते हुए भी विद्यालयों से एकदम नदारद नहीं हैं. कार्तिक साधारण दुनिया के बीच ऐसा ही एक असाधारण बालक है. इस बालक को केन्द्र में रखकर ही लेखक एक ऐसी कहानी बुनता है जो पहाड़ों-प्रकृति की हमारी समझ को संवेदनशील तरीके से विकसित कर सके.
दरअसल, कार्तिक की कहानी उत्तरांचल के सातवीं-आठवीं-नवीं के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी रोचक, सुचिन्तित, सारगर्भित और महत्त्वपूर्ण पुस्तक है. यह प्राकृतिक आपदाओं से निपटने हेतु तैयारी और बचाव के विविध सुझावों और संदेशों को सहजता से सम्प्रेषित करती है. तनिक और ठहरकर देखा जाय तो वर्तमान शिक्षण की वस्तुस्थिति से रूबरू कराती हुई नये कोण और दृष्टिकोण से शिक्षण का प्रभावी, प्रासंगिक और व्यवहारिक आयाम भी प्रस्तुत करती है. शिक्षण के साथ ही बालमनोविज्ञान, अभिभावकों की भूमिका, भाषा, गाँव-शहर का सम्बन्ध, पहाड़ी जीवन, सरकारी-राष्ट्रीय नीतियाँ, पर्यावरण नीतियों जैसे प्रमुख मुद्दों को सुकोमल स्वर में सहजता से कहती है यह कहानी.
कार्तिक की कहानी परम्परागत लीकबद्धता से टकराते हुए मौजूदा शिक्षण पर कई वाजिब सवाल ही नहीं उठाती, बल्कि परिवेश और परिस्थितिजन्य उचित विकल्प भी पेश करती है. कार्तिक के दोस्त आकाश का प्रश्न-
“ऐसा क्यों होता है कि हमारी कक्षा की सारी किताबें बड़े ही तैयार करते हैं? इन किताबों को बनाते समय हमसे क्यों नहीं पूछा जाता?… मानो हम बच्चे बड़ों के हाथों की कठपुतली मात्र हों.”
बेहद महत्त्वपूर्ण है. इस प्रश्न का सीधा सम्बन्ध विद्यालय के पाठ्यक्रम और पुस्तकों के निर्माण में विद्यार्थियों की सहभागिता से है. यह न तो सम्भव है, न ही उचित कि विद्यार्थी अपना पाठ्यक्रम बनाये और अपनी पुस्तकें लिखें .पर यह तो होना ही चाहिए कि पाठ्यक्रम निर्माण में केवल शिक्षाशास्त्र और बालमनोविज्ञान की भारी-भरकम पुस्तकों को ही आधार न बनाया जाय, बल्कि उस कक्षा के चुनिंदा विद्यार्थियों की भी सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित की जाय. साथ ही पाठ्यक्रम का सीधा सम्बन्ध क्षेत्र-विशेष की भौगोलिक-सांस्कृतिक-भाषिक परिवेश से भी हो.
बच्चों की इस कहानी के सहज-बचकाने प्रश्न बड़ों और शिक्षकों को निरुत्तरित कर देते हैं. जैसे-
“जब सब इनसान बराबर हैं तो कक्षा में हम लड़के-लड़कियों को अलग-अलग क्यों बिठाया जाता है? क्यों कुछ बच्चे स्कूल आकर पढ़ते नहीं? क्यों कुछ बच्चों को किसी ढाबे या कहीं और काम पर चले जाना पड़ता है बजाय स्कूल आने के?”
लैंगिक समानता, सर्वशिक्षा अभियान के विविध कानून और नियम एवं बालश्रम विरोधी अधिनियम से सम्पन्न इस देश में ये प्रश्न पूरे समाज और राष्ट्र से हैं. यही नहीं
“सभी बच्चों के लिए एक-सी सुविधाओं वाला एक ही बड़ा स्कूल क्यों नहीं होता ?”
जैसे सवाल भारतीय संविधान प्रदत्त ‘समानता के अधिकार’ पर पूरी सशक्तता से प्रहार करते प्रतीत होते हैं.
कहानी में कार्तिक व उसके दोस्तों की मासूमियत और स्वाभाविकता से पूछी गयी बातें अधिकतर शिक्षकों को नाराज ही करती हैं. शहर से लौटकर कार्तिक अपने गुरुजी से जब पूछता है-
“हमारे यहाँ अधिकारी अंगू को काटने से मना करते हैं. हम इसे जुआ बनाने के लिए उपयोग में लाते हैं जबकि यहाँ तो इससे खेलने के लिए बल्ले बनाये गये हैं. ऐसा क्यों?”
तब गुरुजी सकपकाते हैं और डपटते भी हैं. हकीकत यही है कि इस तरह के सीधे सवालों से बड़े वन अधिकारी व मन्त्री तक बगलें झाँकने लगते हैं. हाँ, मौका देखते ही कमजोरों पर गुर्राते भी हैं.
बच्चों के विकास और प्रभावी शैक्षणिकता में पुस्तकालय की बड़ी महती भूमिका होती है. कार्तिक अपने गाँव के पुस्तकालय में किताबें पढ़ता है.
“किताबें उसे एक ऐसी दुनिया में ले जातीं जो इतना विशाल और अपार थी कि उसके विस्मय और जिज्ञासा का तापमान बढ़ता जाता.”
प्रश्नाकुलता ही विद्यार्थियों को ढर्रेबद्धता से अलग नयी सोच और चिन्तन के लिए प्रेरित करती है. कार्तिक को अब चुन्नू-मुन्नू या परियों की कहानी में रस नहीं मिलता, बल्कि वह ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें ढूँढ़ता है.
विद्यार्थियों की वैचारिक उर्वरता को समृद्ध करने में यात्राओं, विशेषकर शैक्षणिक यात्राओं की भी विशेष भूमिका होती है.कार्तिक की कहानी में कार्तिक विविध प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता करने दूसरे गाँवों और राज्यों की यात्राएं करते हुए बहुत कुछ सीखता है. उसका अनुभव क्षेत्र बड़ा होता जाता है. यात्राओं से विविध पृष्ठभूमि (क्षेत्र, संस्कृति, भाषा आदि) के विद्यार्थियों के साथ परस्पर सम्पर्क से विचार-व्यवहार व सांस्कृतिक विनिमय होता है. इससे बुद्धिजीवी व्यक्तित्व के निर्माण सहायता मिलती है.
ऐसी ही यात्राओं के दौरान कार्तिक की मुलाकात और मित्रता राजस्थान के अरिन से होती है और वह (कार्तिक ) डायरी लिखना सीखता है. डायरी लिखना कार्तिक को बेहद नायाब और रोमांचक लगता है.
“उसे यह अपने ही भीतर छिपे-दबे ऐसे खजाने को खोज लेने सा लगता जो हर रोज नया व अनूठा होता. इससे उसकी लिखावट पहले से सुन्दर होने लगी और सोच साफ और सटीक. भाषा में भी सधाव आने लगा.”
डायरी लेखन सृजनात्मकता की पहली सीढ़ी है.
विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का उचित समाधान और शैक्षणिक व मानसिक विकास कठपुतली बनाकर नहीं किया जा सकता. उनका उचित विकास तभी होगा जब शिक्षक डांट-डपट की बजाय मित्रवत व्यवहार करें. उन्हें शिक्षण सम्बन्धी गतिविधियों और कार्यशालाओं में शामिल करें, सक्रिय रखें. सृजनात्मक और क्रियाशील बनाए. इससे विद्यार्थी नयी बातों और नये विषयों के प्रति उन्मुख होते हैं. लेखक का मूल विचार यही है कि विद्यार्थी को—
“मौलिक और रचनात्मक होना चाहिए न कि तोता जैसा रटन्तू….”
शिक्षण का यही वास्तविक उद्देश्य होना चाहिए.
कहानी में दिनेश सर का व्यवहार मित्रवत है. वे बच्चों से खुलकर बहस करते हैं. उनकी बातों को गंभीरता से सुनते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं. शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच घनिष्ठता और आत्मीयता शिक्षण की बुनियादी आवश्यकता है. यही सम्बन्ध मौलिक और सृजनात्मक प्रतिभा के अंकुरण, संवर्धन और संरक्षण में मदद करता है.
दिनेश सर सम्भावित आपदाओं के खतरों से बचाव व रोकथाम हेतु अधिकतम लोगों को जागरुक करने के लिए स्कूली बच्चों के साथ एक प्रयोग करते हैं. बच्चे आपदाओं पर आधारित एक ऐसी प्रश्नावली तैयार करते हैं ,जिससे यह पता लग सके कि उनके परिवार के सदस्य आपदाओं के बारे में कितना जानते हैं. बच्चों को घर पर उन्हें ही सबसे प्रश्नावली के सवालों को पूछना और उत्तर लेना था. इसका उद्देश्य यही है कि अभिभावकों के आपदा सम्बन्धी ज्ञान की वस्तुस्थिति को जानना और बच्चों के साथ अभिभावकों को भी सम्भावित प्राकृतिक आपदा के प्रति सतर्क, सचेत और जागरुक करना. इसके बरक्स अक्सर देखा जाता है कि महानगरों या नगरों के अधिकतर स्कूलों में बच्चों के तमाम प्रोजेक्ट्स और कई प्रश्नावलियों के प्रारूप और विषय इस तरह के होते हैं जिसे प्रायः अभिभावक या घर का पढ़ा लिखा कोई बड़ा सदस्य ही करने में सक्षम होता है. इससे विद्यार्थियों को कुछ भी लाभ नहीं होता है, ख़ानापूर्ति मात्र होती है.
इसी क्रम में दिनेश सर के प्रस्ताव पर विद्यालय में गाँव के वयस्क लोगों के लिए आपदाओं से बचाव और सावधानियों के बारे में एक खुली चर्चा शनिवार के दिन आयोजित की गयी. इसका पूरा संचालन और संयोजन विद्यार्थियों ने ही किया. शिक्षकों ने यथोचित सहायता भर की. उनकी कई टोलियाँ विभिन्न आपदाओं मसलन बिजली गिरना, भूकम्प, बादल फटना, जंगल में आग लगना आदि विषयों पर जागरुकता कार्यक्रम बनाए और आयोजित किए.
“सबको इन कामों में आनन्द आता क्योंकि इन कामों को अपनी तरह से करने की उन्हें पूरी आजादी होती. बच्चे अपने से पहल करना और बड़ो की तरह चीजों को अपने हाथ में लेना सीखने लगते.”
स्थानीय समस्याओं को पाठ्यक्रम, कार्यशाला व स्कूल के प्रोजेक्ट्स से सीधे जोड़ दिया जाय तो निःसन्देह बच्चों की रूचि और वयस्कों की जागरुकता बढ़ेगी ही. इस कहानी से यह सूत्र मिलता है कि शहरी या महानगरीय स्कूलों में जल-जमाव, डेंगू, मलेरिया, वायु प्रदूषण आदि तो वहीं सूखाग्रस्त या बाढ़ग्रस्त ग्रमीण स्कूलों में सूखा, बाढ़ जैसे विषयों पर प्रोजेक्ट्स व कार्यशालाएँ आयोजित होनी चाहिए.
कार्तिक की कहानी में कार्तिक की टोली हम शैतान एक नाटक मंचित करती है— बाघ बकरी . बाघ भूकम्प है तो बकरी गाँव के लोग. नाटक किसी भी सन्देश को प्रसारित करने का सशक्त माध्यम है. इससे बच्चों की सृजनात्मक और कलात्मक प्रतिभा का सहज विकास होता है. नाटक सर्वाधिक सामाजिक विधा है और जनतांत्रिक भी. कई लोगों के समवेत प्रयास से ही नाटक का मंचन सम्भव होता है. इसका रसास्वादन भी समूह में ही हो सकता है अकेले नहीं. बाघ बकरी नाटक में सूत्रधार की आवाज है—
“भूकम्प का दूसरा झटका भी आ सकता है. सब लोग … स्कूल की सुरक्षित जगह पर पहुँच जायें. लेकिन अपने पड़ोसियों की मदद करना न भूलें.”
परस्पर सहयोग और संवेदना का यह स्वर नाटक में ही नहीं पूरी पुस्तक में आद्योपांत है. ऐसा ही स्वर हमारी शिक्षा के मूल में भी होना चाहिये. तभी एक सुन्दर व्यवस्था व समाज का निर्माण सम्भव हो सकेगा.
नाटक का संदेश स्पष्ट है कि यदि योजनाबद्ध तरीके से विशेष तैयारियाँ की जाय और पूर्व सावधानी बरती जाय तो किसी भी आपदा से होने वाले नुकसान और संकट को न्यूनतम किया जा सकता है. चूँकि कहानी उत्तरांचल के एक गाँव की है, जहाँ भूकम्प का खतरा अधिक होता है. इसलिए भूकम्प का उदाहरण है. किसी भी क्षेत्र के स्थान विशेष की समस्याओं को पाठ और पाठ्यक्रम में शामिल कर दिया जाय तो विषय वस्तु को लेकर विद्यार्थियों की सक्रियता और बड़ों की सचेतनता बढ़ने की सम्भावना प्रबल होगी.
कार्तिक की कहानी में भूकम्प से जूझते, गाँववालों की सहायता करते परेशान लेकिन संघर्षरत कार्तिक के मन में कई प्रश्न एक साथ कुलबुलाते हैं—
“ईश्वर हमेशा अच्छी चीजें ही धरती पर भेजता है— सुन्दर बारिश, फूल-फल, सूरज-चंदा-तारों की रोशनी से लेकर सभी कुछ— तब उसने यह बुरी चीज क्यों भेज दी है? क्या अनजाने में ही?… क्या अभी के संकट की इन घड़ियों में हमारे लिये कोई मतलब व संदेश छिपा है?”
भूकम्प की तीव्रता और उससे उत्पन्न भयावहता का बड़ा कारण प्रकृति के साथ किया गया क्रूर, हिंसक और निर्दय व्यवहार है. कार्तिक संस्था वाली मेधादी से पूछता भी है—
“पहाड़ों को काटकर, बारूद के बड़े-बड़े धमाकों से उड़ाकर ही… विकास के काम किए जा रहे हैं— क्या इनका दूरगामी परिणाम घातक नहीं होगा?… धरती-माँ से इस तरह शत्रु-सा हिंसक बरताव क्या जायज है? अगर वह कभी नाराज हो गयी तो?”
प्राकृतिक आपदाएँ प्रायः प्रकृति से की गयी बर्बरता और मनमानेपन का ही दुष्परिणाम होती हैं. समुचित शिक्षण और जागरूकता इस मनमानेपन को बहुत हद तक नियंत्रित कर सकता है.
इस कहानी में शहर और गाँव के सम्बन्धों की भी सार्थक चर्चा है. कार्तिक के शहरी दोस्तों के पास देश-दुनिया की अनेकों जानकारियाँ तो हैं पर वे अपने आसपास के परिवेश और समाज से बेखबर हैं. वहीं कार्तिक व गाँव के बच्चे गाँव के परिवेश में इतना रमे हैं कि प्रायः सभी बातें – खेती-बारी से लेकर रस्सी बनाने तक— सहजता से जानते हैं. ग्रामीण बच्चों का अपने गाँव से गहरा लगाव है, आत्मीयता है. यह शहर में लगभग नहीं है. गाँव में आत्मीयता के साथ-साथ परस्पर विश्वास का भाव भी है. कार्तिक कहता है—
“हम अपने गाँवों अभी कुछ साल पहले तक ताला भी नहीं लगाते थे जबकि उसके वहाँ(शहर में) बिना ताला लगाये कोई अपने घर से बाहर निकलना अपने ख़याल तक में नहीं ला सकता था.”
शहर गाँव के संसाधनों को ही नहीं, बल्कि वहाँ की भाषा, भाव, संस्कृति व पहचान को भी लील रहा है. गाँव और शहर के अन्तर्सम्बन्ध पर मेधा दी की राय है—
“हमें आपस में एक दूसरे से सीखना चाहिए…. धीरे-धीरे गाँव शहर में और शहर गाँव तक ऐसे विस्तार ले लें कि दोनों एक हो जायें. अपनी-अपनी पहचान बनाये रखते हुए भी गाँव शहर का भेद ही न बचा रह जाय. फिर गाँव का ज्ञान शहर के काम आयेगा और शहर का ज्ञान गाँव के .”
यह लेखकीय विचार है, दृष्टि है, प्रस्ताव है. एक सुन्दर और सन्तुलित दुनिया की परिकल्पना है.
इस पुस्तक में भाषा की भी चिन्ता है. प्रभावी सम्प्रेषण व शिक्षण के लिए स्थानीय भाषा या मातृभाषा ही सर्वोपयुक्त है. अभिभावकों या वयस्कों के लिए स्कूल में आयोजित आपदा सम्बन्धी कार्यशालाओं की भाषा गाँव की स्थानीय भाषा ही थी. कार्तिक चिन्तित है कि उसके गाँव में अपने कई शब्द विलुप्त होते जा रहे हैं.
कहानी में कथा के साथ कई सूचनात्मक और तथ्यात्मक बातों का सुन्दर समायोजन है. इसमें प्राकृतिक आपदाएँ, विशेषकर भूकम्प सम्बन्धी विविध पहलुओं को रोचकता, स्पष्टता और सरलता से प्रस्तुत किया गया है. यहाँ शिक्षण प्रक्रिया के प्रति एक भिन्न, महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक नजरिया है. यहाँ समस्याओं को जीवन की स्थितियों के रूप में देखने की बात की गयी है ताकि आसानी से उसका निदान सुलभ हो सके .
कहानी में उद्देश्य को संप्रेषित करने के क्रम में कई जगह प्रश्नों की लड़ी लग गयी है. इससे कथा प्रवाह में थोड़ा अवरोध उत्पन्न होता है. सम्भवतः शब्दों की मितव्ययता का आग्रह ही प्रश्न-गुच्छों की उपस्थिति का कारण है.
कार्तिक की कहानी
पीयूष दईया
सेतु प्रकाशन नोएडा
प्रथम संस्करण 2022/ मूल्य: 160
विनय कुमार मिश्र उदय प्रकाश: एक कवि का कथा-देश (आलोचना पुस्तक),वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित |
बच्चे किसी भी समाज के भविष्य होते हैं।इस निर्माणाधीन पीढ़ी के मानसिक और शारीरिक विकास में परिवार और समाज की प्राथमिक भूमिका है।इस सामाजिक दायित्व को केंद्र में रखकर लिखी गई पीयूष जी की इस किताब की समीक्षा पढ़ने लायक है।दोनों के लिए साधुवाद !
समीक्षा पढ़ने के बाद ‘कार्तिक की कहानी’ को पढ़ने की ललक सहज ही उत्पन्न हो जा रही है।कहानी और समीक्षा दोनों ही अपने प्रभाव को कायम रख रहे हैं।