रौशनी में इतना अंधेरा क्यों है?कौशल किशोर |
‘औरत ही रोती है पहले’ मिथिलेश श्रीवास्तव का तीसरा कविता संग्रह है. इसमें उनकी 86 कविताएं संकलित हैं. कवि की चिन्ता और चिन्तन के केन्द्र में समय-समाज, देश-दुनिया, सत्ता-व्यवस्था, राजनीति-संस्कृति, आम व खास लोग हैं. इसी से कवि का सरोकार और पक्षधरता निर्मित है कि वह किन के पक्ष में खड़ा है और किन के विरोध में. कविताएं अपने ‘समकाल’ को रचती हैं. मुक्तिबोध ने भी कविता के संदर्भ में ‘काल यात्री’ की बात की है. अर्थात कविता सहयात्री की तरह काल के साथ सफर करती है. वह कालजीवी होकर ही कालजयी बनती है. वह काल से होकर ही काल के पार जाती हैं. उसका अतिक्रमण करती हैं. मिथिलेश श्रीवास्तव का ‘समकाल’ से आशय नवउदारवादी व्यवस्था का यथार्थ है जो असमानता, असहिष्णुता, शोषण, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, निरंकुशत आदि मनुष्य विरोधी संस्कृति का मुख्य श्रोत है. यहां आम आदमी को खोना ही खोना है और औरतों के हिस्से में रोना ही रोना है. यह उनकी व्यथा की कथा है जो सामाजिक है तो निजी भी है और जो निजी है, वह सामाजिक भी है.
हाल के समय में कविता में कलावाद और बौद्धिकता का आग्रह बढ़ा है. कथ्य की जगह शिल्प पर जोर है. कविता में व्यक्त यथार्थ को बोझिल और अबूझ बनाने का उपक्रम जारी है. प्रगतिशील कविता भी कलावादियों के दबाव में है. इससे एक तो कविता जनमानस से दूर हुई है, वहीं उसमें व्यक्त प्रतिरोध औपचारिक और सजावटी हुआ है. रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें
‘कला बदल सकती है क्या समाज?
नहीं, जहां बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा’.
कहने का आशय कि जहां कला अधिक होगी, वहां जीवन कम होगा. ‘औरत ही रोती है पहले’ में भी कला कम मिलेगी तो जीवन ज्यादा. और यही इस संग्रह की काव्य कला है. कवि उन विसंगतियों, विद्रूपताओं और विडम्बनाओं को सामने लाता है जो समकाल में घटित हो रहा है. जब स्थितियां क्रूर, हिंसक और बर्बरता से भरी हों, ऐसे में कवि की भूमिका प्रतिपक्ष की हो सकती है. मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताओं में हम देखते हैं कि वह साफ-साफ बात करती है. वहां कोई संकोच नहीं है. अनेक कविताओं के शीर्षक स्टेटमेन्ट की तरह हैं. इनसे गुजरते हुए धूमिल का यह कथन बरबस याद आ जाता है
‘एक सही कविता
पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है’.
वही कविता जनतांत्रिक होती है जो जनता के लिए, जनता के बारे में और जनता की भाषा में लिखी जाये. इस नजरिये से देखें तो मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताओं में जनतांत्रिकता छलछलाती हुई नजर आती है. कविताओं में ‘अंधेरा’ बार-बार आता है. यह भारतीय जनतंत्र का अंधेरा है. इसकी अनेक छवियां हैं, भाव-विचार हैं. कविता जनतंत्र के नाम पर रचे जा रह ‘अंघेरे’ को उद्घाटित करती है. जनतंत्र से मान्यता ऐसी शासन व्यवस्था से है जो जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा संचालित हो. समता, स्वतंत्रता और भाईचारा इसकी मूल्य प्रणाली है. वर्तमान में अवमूल्यन का दौर है. मूल्यहीनता की स्थिति है. कहने के लिए समय पर मतदान होता है. संसद, संविधान, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं पर जिस जनता के लिए ये हैं, वही विस्थापित है. ऐसे में जनतंत्र के क्या मायने? जिसे रोशनी कहा जा रहा है, वह छल, छद्र्म और पाखण्ड से भरा है. वह झूठ और लूट है यानी अंधेरा है. मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताओं की निर्मिति इसी रोशनी और अंधेरे के द्वन्द्व के बीच होती है. कवि इसे प्रश्नांकित करते हुए कहता हैः
‘इस रौशनी में इतना अंधेरा क्यों है
एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हुए
चौकठ से टकरा जाता हूं
लोकतंत्र है पर दम घुटता क्यों है
दोस्ती है पर खंजर क्यों दिखते हैं’
कविता इस कथित रोशनी में अंधेरे की पड़ताल करती है. इसे संग्रह की पहली कविता से ही लक्षित किया जा सकता है. शीर्षक है ‘रुको रुको संभालो इस देश को’. आखिर रुकने और देश को संभालने जैसी बात क्यों? साफ है कि देश की दशा-दिशा सामान्य नहीं है. कविता बहुत से सवालों से टकराती है. इसमें हिंसा, युद्ध, बाढ़, अकाल, महामारी, पानी का संकट से लेकर धरती का संकट, सूखा, लूट आदि शामिल है. कविता उन नीतियों की आलोचना करती है जिनकी वजह से प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर असंतुलन है. एक तरफ बाढ़ तो दूसरी तरफ सूखा. देश तीन तरफ से समुद्र से घिरा है. नदियों का जाल है. फिर इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि देश में पानी का ऐसा संकट पैदा हो जाए कि उसे पहुंचाने के लिए रेलगाड़ी का इस्तेमाल हो. ‘हमने पानी पिलाया’ इसी यथार्थ को व्यंजित करता सटीक मुहावरा है. आखिर संसाधनों की लूट कहां से हो रही है? कौन कर रहा है? इनकी अनदेखी क्यों? यथास्थिति क्यों? ऐसे तमाम प्रश्नों को कविता उठाती है. उसका ‘रुको रुको’ कहना आमजन की चेतना में हस्तक्षेप है, वहीं ‘संभालो इस देश को’ में सक्रिय और क्रियाशील होने का आह्वान है.
संग्रह में बहुत-सी कविताएं हैं जिनमें शोषक-शासक शक्तियों की पहचान है. हमारे यहां कल्याणकारी राज्य की अवधारण के साथ जनतंत्र की परिकल्पना थी. परन्तु नवउदारवादी दौर में राज्य के चरित्र में आये बदलाव से कविता रू ब रू है. इनसे गुजरते हुए एहसास होता है कि यातना की न खत्म होने वाली स्थितियां हैं और इनसे संघर्ष ही नियति है. ‘कहीं कुछ है जो मुझे खटक जाता है’, ‘चैन से बैठ नहीं सकते इस देश में’, ‘मंच खाली नहीं है प्यारे कवि’, ‘हंसने का समय नहीं है’, ‘गरीबों के लिए गरीबों की सरकार’, ‘अच्छा नहीं लगता है’ ‘सत्ता का सवाल’, ‘यह दरवाजा मैंने रौशनी के लिए खोला है’ आदि ऐसी ही कविताएं हैं जिनमें वर्तमान की द्वन्द्वात्मकता अभिव्यक्त होती है. कहा जाता है कि जनतंत्र में जनता ही मालिक है और जनप्रतिनिधि उसके सेवक हैं. पर हकीकत उलटा है. जनता राजा चुनती है और ‘राजा फैसला सुनाता है, प्रजा फैसले को मान लेती है’. राजतंत्र में ऐसे राजाओं के उदाहरण मिलते हैं जो भेष बदलकर जनता की असलियत जानने के लिए निकल पड़ते थे. जनतंत्र के ‘राजाओं’ का चरित्र ऐसा भी नहीं, भले वे जनता के द्वारा चुने जाय और अपने को ‘जनसेवक’ कहते नहीं थकते हों. यह जनतंत्र की हकीकत है जो कविता में कुछ यूं व्यक्त होती हैः
‘यही सरकार सबसे अच्छी है यही तो सरकार कहती है
सरकार लोगों से मतदान करने के अलावा कुछ नहीं कहती है
अपने हक के लिए लड़ने वालों पर गोलियां चलाती है
आज का राजा अपने आपको लोगों का सेवक कहता है
और मालिक की तरह राज करना चाहता है’
इस टकसाल में सब कुछ ढल रहा है या ढाला जा रहा है. अभी जो साथ का आदमी था, वह तिकड़म, जोड़-तोड़, फरेब कर इतना आगे चला गया कि उस तक पहुंचना दूभर है. मूल्यों का भी अवमूल्यन हो गया है. न्याय भी निरपेक्ष नहीं है. वह भी सापेक्षिक है. उस पर तुर्रा यह कि ‘गरीबों के लिए गरीबों की सरकार है’. कहने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं हैं. इन्हीं के लिए विकास का सारा संजाल है. घोषणाओं में तो आम आदमी है, गरीब जनता है, परन्तु वास्तव में गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले मनुष्योचित सुविधाओं से वंचित हैं. कविता ‘विकास’ के मिथ को तोड़ती है और उनकी बात करती है ‘जहां न नींद है और न सपने’. कवि का कहना कि ‘यह लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप नहीं हो सकता’, सच्चे लोकतंत्र की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है. वह कहता हैः
‘मैं कहना चाहता हूं
यह दुनिया वैसी नहीं है
जैसी यह दुनिया होनी चाहिए
मिथिलेश श्रीवास्तव का सृजनात्मक संघर्ष उन मूल्यों के लिए है जो लोकतंत्र का बुनियादी आधार है. इसीलिए उनका भावनात्मक लगाव उन लोगों से है जो शोषित है, उत्पीड़ित हैं. विकास की इस अंधी दौड़ में वे बाहर कर दिये गये हैं. वे इस विचार से असहमत है कि ‘जैसा राजा, वैसी प्रजा’. ऐसे विचार बदलाव से विमुख करने वाले और यथास्थितिवादी है. कवि यथास्थितिवादी नहीं है. इसीलिए वह उदास भी होता है और आक्रोशित भी. मन मस्तिष्क में प्रश्नों का गुच्छा है. घोषित जनतंत्र में वह क्या है जो अघोषित है? इसे संचालित करने वाले दल कितने जनतांत्रिक हैं? जब अस्तित्व ही संकट में है, ऐसे में आम जन की जो भूमिका होनी चाहिए, वह क्यों नहीं हो पा रही है? स्थिति क्या ऐसी बनी रहेगी? जिन्दगी के मसायल पार्श्व में क्यों? लोग उठ क्यों नहीं रहे हैं? उनका कोई सम्मान नहीं? इन्हीं प्रश्नों से जूझते हुए मिथिलेश श्रीवास्तव की वैचारिकी निर्मित होती है. कविता प्रतिवाद रचती है:
‘आप जब मुझे गरीब कहकर संबोधित करते हैं
मेरी आत्मा में आपके इस संबोधन के खिलाफ चीखें गूंजती हैं
यह मजाक नहीं क्या है कहीं गरीबों की सरकार होती है
यह तो अंधेरा है जहां मुंह छिपाए छिपा रहता हूं’
अपने को ‘गरीबों’, ‘चाय बेचने वालों’, ‘गाये चराने वालों’ आदि की सरकार कहना जनता के साथ मजाक ही तो है. कवि जानता है कि सरकार किनके हितों की सेवा कर रही है. इसीलिए उसे यह ‘मजाक’ जनता को चिढ़ाना है. वह इसके चरित्र को उद्घाटित करता है. कविता पुरजोर तरीके से जनता के पक्ष में खड़ी होती हैः
हँसने का समय नहीं है
एकजुट होने का है
सत्ता और जनता के बीच का यह द्वन्द्व उन तीन कविताओं में अधिक मुखर होकर सामने आता है जो जून-जुलाई-अगस्त 2014 शीर्षक से है. 2014 के ये महीने हैं जिनमें कवि आने वाले समय की आहट, गूंज सुनता है. जन-जन को सम्मोहित कर देने वाले नारे वातावरण में तैरते हैं. ‘अच्छे दिनों’ की बात होती है. गहरा असंतोष वातावरण में तैर रहा है. जनता बदलाव चाहती है. हालत विकल्पहीनता की है. ऐसी ही स्थितियां सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकृति का कारण बनती हैं. कवि लोक-लुभावन के नारों, प्रलोभन से भरे वायदों में आने वाले समय की भयावहता को देखता है. कविता में ‘अंधेरा’ एक रूपक की तरह है. वह कहता है:
‘अंधेरे के इतने दरवाज़े
और मुश्किल है खोज पाना
बाहर निकलने का दरवाज़ा’
ऐसा नहीं है कि जो पहले रहा है, वह बहुत सुखद था. लेकिन बेहतर की उम्मीद थीः
‘एक अंधेरा हमारे जीवन में रहा है लगातार
लेकिन एक उम्मीद भी रही है
कि एक दिन
अंधेरे से हम बाहर आ जाएंगे’
यह रोशनी सम्मोहन है, मृग मरीचिका है और भ्रम की रचना है. क्या होने वाला है, इस संबंध में मिथिलेश श्रीवास्तव की भविष्य दृष्टि साफ है. कवि देखता है कि सघन अंधेरे का घटाटोप है जिसमें बेहतर भविष्य की आशाओं को खत्म किया जा रहा है.
कवि मिथिलेश श्रीवास्तव आने वाले समय की परतें खोलते हैं. जिनके हाथ में राजनीतिक सत्ता होती है, संस्कृति की भी सत्ता उसी के पास होती है और वह अपने अनुसार उसे ढालता है. जनतंत्र लिखने बोलने की आजादी से लेकर असहमति और विरोध की स्वतंत्रता देता है. ऐसी शक्तियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता. इसीलिए कवि अलोकतांत्रिक हो जाने वाले समय को लेकर आशंकित है. वह कहता है
‘शायद अभी अभी कोई आएगा
और कहेगा बंद करो कविता
मंत्र लिखो गीत लिखो
मैं अंधेरे की ओट में छिपने लगा हूं
जैसे कि मैं हूं ही नहीं’
यदि कवि 2014 के जून-जुलाई-अगस्त के महीने में आगत भविष्य को इस तरह देख पाता है तो यह उसके वस्तुपरक और वैज्ञानिक नजरिए की वजह से है. जनतांत्रिक व्यवस्था की विशेषता के रूप में रेखांकित किया जाता है कि इसमें विचारों की स्वतंत्रता, आलोचना का अधिकार और असहमति का सम्मान किया जाता है. मीडिया व पत्रकारिता जनतंत्र का चौथा स्तंभ है. लेकिन अवमूल्यन की मार इन पर भी पड़ रही है. मिथिलेश श्रीवास्तव शब्दों को लेकर सजग हैं. ‘शब्दकोश में कैद शब्द’ को लेकर चिंता स्वाभाविक है. ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की नीति का अनुसरण करने वाले देश में हिंसा और असहिष्णुता यदि अहिंसा और सहिष्णुता का पर्याय बन जाये तो यह पहचान और बुनियाद का बदलना है. प्रेम, सद्भाव, सेवा, शांति, भाईचारा जैसे शब्द मात्र शब्दकोश में रह गये हैं. वे जीवन व्यवहार से बहिष्कृत हैं. यह सांस्कृतिक संकट नहीं तो और क्या है?
‘औरत ही रोती है पहले’, यह स्त्रियों का अव्यक्त दर्द है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उनकी नियति बना दिया है. वर्जिनिया वुल्फ कहती हैं कि इतिहास में जो अनाम है, वह सभी स्त्रियों का है. स्त्रियों की यह विशेषता है कि वे दूसरों के दुख के साथ सहज रूप से जुड़़ जाती है, संवेदित होती हैं और दुख उनकी आंखें से आंसू बन बह निकलता है. वे प्रेम, दया, करुणा, निश्छलता के भाव को जीती हैं. मनुष्यता और पर पीड़ा को महसूस करने के संदर्भ में उनके हृदय की बनावट पुरुषों से भिन्न है. मिथिलेश श्रीवास्तव ने अपनी मां के माध्यम से औरतों को समझा है. उनके जीवन की यात्रा अंधेरे से अंधेरे में गुम हो जाने की है.
स्त्रियों ने तरह-तरह की यातनाओं को सहा है और वे सह रही है. ये समय की आंखें हैं जो स्त्री-यातना को देख गहरे संवेदित होती हैं. इन स्थितियों में उनकी ‘एक बेमिसाल चुप्पी’ समकालीन स्त्री जीवन का एक पहलू है लेकिन यह संपूर्ण पहलू नहीं है. हम देखते हैं कि आज औरतें संघर्ष कर रही हैं. उनका संघर्ष सामंती बंदिशों, पितृसत्तात्मक व जाति की घिनौनी व्यवस्था से लेकर पूंजी की उत्पीड़नकारी व्यवस्था से है. संग्रह में स्त्री जीवन का यह यथार्थ अनुपस्थित है.
यह कहा जा सकता है कि मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताएं भारतीय जनतंत्र के क्षरण, आम आदमी की पीड़ा, उसका जद्दोजहद तथा मुक्ति का आख्यान रचती है. ये समकाल का मुकम्मल दस्तावेज की तरह हैं. यह ‘रोशन में अंधेरा’ की पड़ताल है. कविताओं की सृजनात्मक स्थिति इसी यथार्थ से निर्मित होती है. ये आपस में अंतर्गुम्फित हैं. समय के यथार्थ को जिस कौशल और बारीकी से मिथिलेश श्रीवास्तव ने पकड़ा है और कविता की विषय-वस्तु बनाया है, वह इनकी विशेषता है. ‘कविताओं में आग’ के रूप में यहां कवि के अंतर्मन की आग का हमें दर्शन होता है.
इसमें खुरदुरापन है. यही इसका सौदर्य है.जब आम आदमी का अस्तित्व व्यवस्था के पहाड़ के नीचे दबा हो, बड़ी आबादी हाशिए पर हो, उनकी हैसियत मात्र एक वोट में बदल जाये, ऐसे में कविता मनोरंजन की वस्तु या कोमलकांत पदावली नहीं हो सकती है. बात अधूरी रह जाएगी यदि हम मिथिलेश श्रीवास्तव की भाषा और शिल्प की बात न करें. इनका सहज, सरल और संप्रेषणीय होना खास गुण है. ऐसा तब संभव हो पाता है जब कविता जिन्दगी जीते हुए रची जाये. वही कथ्य और भाषा का श्रोत हो.
मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताओं में बिम्ब, प्रतीक और मुहावरों का भी इस्तेमाल है, परन्तु वे गढ़े गये नहीं है, बल्कि जनजीवन से लिए गये है. ये संवाद करती हैं, बतियाती हैं, जिरह करती है और सोचने-विचारने के लिए पाठकों के मन-मस्तिष्क में बहुत कुछ छोड़ जाती हैं.
कौशल किशोर |
कौशल किशोर जी ने मिथिलेश की कविता के बहाने आज के समय की बात की है । मिथिलेश जिस तरह से जीवन में सहज है उतनी सहज है उनकी कविताएं ।
मिथिलेश जी के काव्य संग्रह पर कौशल जी की समीक्षा अच्छी लगी। कविताएँ अब तक नहीं पढ़ीं लेकिन समीक्षा से लगता है कि इनकी अंतर्वस्तु समकालीन यथार्थ से मुठभेड़ करती उनके पाखंड को बेनकाब करती हैं।कवि और समीक्षक दोनों को साधुवाद !