क्या प्रेमचन्द की परम्परा इकहरी थी?विमल कुमार |
पिछले दिनों प्रेमचन्द की परंपरा को लेकर हिंदी की लेखकों में अच्छी खासी बहस हुई. कौन लेखक प्रेमचन्द की परंपरा के लेखकों की सूची में है, कौन नहीं, इसको लेकर विवाद भी हुए. जो प्रेमचन्द की परंपरा में नहीं वह प्रगतिशील नहीं, दक्षिणपंथी या कलावादी है. परम्परा बोध को लेकर इतनी संकीर्ण और सपाट समझ इधर लगातार विकसित हो रही है. परम्परा की लकीर मानो कर्क रेखा की तरह है, जो इस पार या उस पार के खांचे में लेखकों को बाँटती है. लेकिन हर साल कुछ लेखक ताल ठोंक कर कहते हैं कौन प्रेमचन्द की परंपरा में है या नहीं, यह हम तय करेंगे और इसकी एक सूची बनाएंगे. प्रेमचन्द बनाम प्रसाद की बहस उस ज़माने में भी थी जब दोनों लेखकों की अलग-अलग मंडलियां थीं.
प्रेमचन्द के अंतिम संस्कार में प्रसाद गए थे. गड़े मुर्दे उखाड़ने वाली बात पर प्रेमचन्द ने प्रसाद से माफी भी मांगी थी और एक पत्र में उन्होंने प्रसाद की तारीफ भी की. बहरहाल यह बहस आज भी जारी है कि प्रेमचन्द की परम्परा में कौन है और कौन नहीं है.
जिस प्रेमचन्द के निधन पर उनके मुहल्ले के लोगों ने कहा कि कोई मास्टर था, मर गया, जिस प्रेमचन्द की अंत्येष्टि में दस बारह लोग ही मुश्किल से शामिल हुए थे, वह प्रेमचन्द अपने निधन के 85 साल बाद भारत के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतीक बन गए हैं. गालिब, टैगोर और सुब्रमण्यम भारती की तरह आज वह भी एक राष्ट्रीय नायक हैं. एक ऐसा नायक जो अपने समय के राजनेताओं से आगे की सोचता था जिसके पास एक गहरी अंतर्दृष्टि थी और जो अपनी जनता से अथाह प्यार करता था. गरीबों, शोषितों और वंचितों के लिए जिसके मन में गहरा दर्द था. यह दर्द भी उसी तरह था जिस तरह गांधी, नेहरू और आम्बेडकर के मन में था.
प्रेमचन्द के समय पचासों लेखक कविता, कहानी, उपन्यास लिख रहे थे. पांच दस तो ऐसे थे जो प्रतिभा में उनसे कम भी नहीं थे लेकिन प्रेमचन्द की तरह कोई prolific और professional लेखक नहीं था. प्रेमचन्द का साहित्य में अपना एजेंडा स्पष्ट था. उनकी दृष्टि स्पष्ट थी. उनका लक्ष्य, संदेश और लेखकीय दायित्व भी साफ थे इसलिए कोई दूसरा प्रेमचन्द नहीं बन सका लेकिन यह सब एक दिन में नहीं हुआ.
1915 में हिंदी में छपी कहानी ‘सौत’ और ‘सेवासदन’ से लेकर ‘कफन’ और ‘गोदान’ तक उनका उत्तरोत्तर उनका विकास हुआ, ठीक राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर.
हर साल ३१ जुलाई आते ही साहित्य जगत में प्रेमचन्द जयंती देश के किसी न किसी कोने में जरूर मनाई जाती है और प्रेमचन्द की परम्परा का जिक्र भी जरूर किया जता है. प्रेमचन्द निःसंदेह राष्ट्रीय आन्दोलन के लेखकों में सबसे बड़े प्रतीक हैं. जिस तरह आजादी की लड़ाई में गांधी सबसे बड़े प्रतीक हैं, लेकिन गांधी के साथ हम नेहरु, पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह आदि को भी जरूर याद करते हैं. अब तो आम्बेडकर भी गांधी के बाद एक दूसरे बड़े प्रतीक के रूप में उभरे हैं लेकिन क्या प्रेमचन्द की परम्परा केवल प्रेमचन्द ने बनाई थी और वह पहले व्यक्ति थे जो साहित्य में यथार्थवाद के प्रणेता थे?
प्रेमचंद्र की परंपरा पर विचार करते हुए परम्परा शब्द पर भी विचार करना चाहिए. परम्परा एक व्यापक शब्द है. उमसे सभ्यता, संस्कृति, इतिहास सब शामिल है. वह किसी एक विचारधारा या एक संस्कृति या एक भाषा से नहीं बनती विशेषकर भारत में जहाँ इतनी भाषाएँ और संस्कृतियाँ हैं.
जाहिर है प्रेमचन्द की परम्परा भी इकहरी नहीं हैं लेकिन उसे केवल वाम विचारधारा तक महदूद करने की कोशिशें हुईं हैं और प्रेमचन्द का मार्क्सवादी संस्करण तथा प्रसाद का दक्षिणपंथी संस्करण बनाने की भी कोशिशें हुईं हैं. हिन्दी में दूसरी परम्परा का भी इतिहास रहा है. अगर प्रेमचन्द इस दूसरी परम्परा के प्रतीक पुरुष हैं तो उस परम्परा में उनके समकालीन और पूर्ववर्ती सब शामिल हैं चाहे भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी ही क्यों न हों.
प्रेमचन्द की परम्परा पर विचार करते हुए इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना होगा अन्यथा हम प्रेमचन्द की इकहरी और संकीर्ण मूर्ति बनायेंगे और जिन सवालों के लिए प्रेमचन्द और उनके समकालीन लड़े थे वे सवाल कमजोर हो जायेंगे. राष्ट्रीय आन्दोलन में भी उन सभी लेखकों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी इसलिए प्रेमचन्द की परम्परा भी एक सामूहिक परम्परा है जिसमें उस दौर का श्रेष्ठ साहित्य शामिल है.
हिन्दी में प्रेमचन्द की परम्परा का जिक्र होता है और उसमें उनके समकालीन लेखकों का जिक्र अमूमन नहीं होता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि प्रेमचन्द के साहित्य का जितना अधिक प्रचार प्रसार हुआ, उतना उनके समकालीन लेखकों का नहीं हुआ. उनका साहित्य अनुपलब्ध रहा. संस्थानों, प्रतिष्ठानों ने भी उन पर ध्यान नहीं दिया .
प्रेमचन्द के साहित्य ने भारतीय जनता के मर्म को जिस तरह स्पर्श किया, उस तरह अन्य लेखकों ने शायद नहीं. प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना समारोह के उद्घाटन करने की घटना को आज तक प्रगतिशील लेखक संगठन भुनाता रहा है और यह दावा करता है कि वही प्रेमचन्द की परम्परा का असली उत्तराधिकारी है और उनकी परम्परा का असली वाहक भी है.
प्रेमचन्द रूसी क्रांति से प्रभावित जरूर थे और उन्होंने १९१७ की क्रांति पर, जिसके आज सौ वर्ष से ऊपर हो रहे हैं. हंस में सम्पादकीय भी लिखा था, लेकिन और भी लेखक इस क्रांति से प्रभावित थे पर प्रेमचन्द प्रगतिशील हुए. वह राहुल सांकृत्यायन की तरह कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी नहीं थे, यह अलग बात है कि राहुल जी भाषा के सवाल पर पार्टी से निकाल दिए गए थे और बाद में वे दोबारा पार्टी में शामिल भी हुए. लेकिन हिन्दी के वामपंथी लेखक प्रेमचन्द को वाम लेखक के रूप में ही पेंट करते रहे हैं और उनकी परम्परा की अक्सर चर्चा करते रहें हैं.
सवाल यह है कि क्या प्रेमचन्द की परम्परा को केवल प्रेमचन्द ने ही बनायी थी या उसमें उनके समकालीन लेखकों का भी कोई योगदान था. प्रेमचन्द के यथार्थवाद के विकसित होने में क्या उनके समकालीन लेखन की कोई भूमिका थी.
हम परम्परा निर्माण का श्रेय किसी एक व्यक्ति विशेष को दे देते हैं जबकि उस परम्परा निर्माण में अन्य का भी योगदान होता है.
हिन्दी में प्रेमचन्द की परम्परा और विरासत से ख़ुद को जोड़ने के प्रयास हुए हैं . राजेंद्र यादव ने हंस निकलकर प्रेमचन्द की परम्परा का असली उत्तराधिकारी खुद को साबित करने की कोशिश की तो शानी ने भी श्रीपत राय की पत्रिका ‘कहानी’ का संपादक बन कर राजेंद्र यादव से प्रेमचन्द को छीनने की कोशिश की पर वे सफल नहीं हुए क्योंकि ‘कहानी’ पत्रिका जल्दी बंद हो गयी .
प्रेमचन्द पर शोध करने वाले कमल किशोर गोयनका भी आजीवन प्रेमचन्द की गैर वाम छवि बनाने में लगे रहे और दक्षिण पंथी लेखक प्रेमचन्द को अपने खेमे में घसीटने का प्रयास करते रहे.
प्रेमचन्द के लेखन में हिन्दी और मुस्लिम दोनों साम्प्रदायिकता पर करार प्रहार है. उनमें गांधीवादी नैतिकता, प्रगतिशील जीवन मूल्य, आदर्शवाद तथा राष्ट्रीय चेतना है.
प्रेमचन्द जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह बहुत व्यापक और वृहत तथा उदार भी है जिसमें उनके समकालीन लेखक भी शामिल हैं चाहे जयशंकर प्रसाद हों या राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह या सुदर्शन या कौशिक या शिवपूजन सहाय या राहुल सांकृत्यायन या पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’. लेकिन हिन्दी आलोचना ने प्रेमचन्द की इस परम्परा से राजा राधिका रमण की ‘कानों में कंगना’, या शिवपूजन सहाय की ‘कहानी का प्लाट’, प्रसाद की ‘गुंडा’ या ‘आकाशदीप’ कहानी को ख़ारिज कर दिया. उग्र का तो मूल्यांकन ही नहीं हुआ, कौशिक और सुदर्शन की कई रचनाएँ उपलब्ध भी नहीं हैं और उनपर अधिक शोध कार्य नहीं हुए.
प्रेमचन्द के जीते जी 1936 के आसपास जैनेंद्र और भगवती चरण वर्मा ने अपने उपन्यासों में प्रेमचन्द के उपन्यास के ढब को तोड़ दिया था. प्रेमचन्द की परम्परा पर विचार करते हुए इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना होगा अन्यथा हम प्रेमचन्द की इकहरी और संकीर्ण मूर्ति बनायेंगे और जिन सवालों के लिए प्रेमचन्द और उनके समकालीन लेखक जाने जाते है, वे सवाल साहित्य की चौहद्दी से बेदखल कर दिए जाएंगे. प्रेमचन्द की परम्परा सामूहिक परम्परा है जिसमें उस दौर का श्रेष्ठ साहित्य शामिल है.
हिंदी साहित्य की अधिकतर स्थापनाएं रामचंद्र शुक्ल के इतिहास से बनी हैं. लेकिन उन्होंने भी प्रेमचन्द पर कोई विस्तृत और बहुत ही प्रशंसात्मक टिप्पणी नहीं की है. वे भी प्रेमचन्द को प्रचारक लेखक ही मानते थे. प्रेमचन्द पर पहली बार गंभीर मूल्यांकनपरक कार्य रामविलास शर्मा ने किया. 1941 में उन्होंने उन पर एक पतली सी किताब लिखी जिसमें सौ-एक पेज और जोड़कर उसे प्रेमचन्द और उनका युग पुस्तक के रूप में छपवाया गया लेकिन उन्होंने भी प्रेमचन्द को हिंदी का पहला यथार्थवादी उपन्यासकार घोषित नहीं किया. उन्होंने यह जरूर लिखा कि प्रेमचन्द गोदान तक आते-आते क्रांतिकारी यथार्थवाद की तरफ मुड़ने लगे थे. लेकिन हिंदी में यह धारणा बनी की वे ही यथार्थवादी साहित्य के सूत्रधार थे जबकि उनसे पहले दो ऐसे उपन्यास आ गए थे जिनमें यथार्थवाद के बीज को देखा जा सकता है. भारतेंदु युग के अध्येता रामनिरंजन परिमलेन्दु ने बिहार के दरभंगा में 1867 में जन्मे लेखक भुवनेश्वर मिश्र के दो उपन्यासों ‘घराऊ घटना’ और ‘बलवंत भूमिहार’ को पुनर्प्रकाशित कर हिन्दी साहित्य को यह बताने की कोशिश की है कि प्रेमचन्द से पूर्व भी यथार्थवादी उपन्यास लिखे गए थे. अपने समय के प्रसिद्ध वकील भुवनेश्वर मिश्र पत्रकार भी थे और वे पटना से प्रकाशित सर्चलाइट के निदेशक भी बने थे.
1901 में प्रकाशित बलवंत भूमिहार का जमींदारों ने इतना विरोध किया कि मुज़फ्फरपुर के एक जमींदार ने बनारस में गंगा में उसकी सारी प्रतियां डुबो दीं. इसलिए हिंदी साहित्य को यह उपन्यास वर्षों तक अनुपलब्ध रहा. उससे पहले 1893 में भुवनेश्वर मिश्र ने ‘घराऊ घटना’ लिखा था लेकिन आश्चर्य है कि शुक्ल जी ने अपने इतिहास में इनका जिक्र नहीं किया जिसके कारण वर्षों तक हिंदी साहित्य इन उपन्यासों से अनभिज्ञ रहा. परिमलेन्दु जी ने पहली बार इन दोनों उपन्यासों को एक लंबी भूमिका के साथ छपवाया है और यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि प्रेमचन्द पहले यथार्थवादी उपन्यासकार नहीं थे.
अगर रामविलास जी ने प्रेमचन्द के लिए पहला यथार्थवादी उपन्यासकार पद का इस्तेमाल नहीं किया तो सबसे पहले किस लेखक ने किया इसका जवाब न तो परिमलेन्दु के पास है और न ही प्रेमचन्द विशेषज्ञ कमल किशोर गोयनका के पास है. यह शोध का विषय है लेकिन हिंदी के सभी आलोचक यह लिखते और बोलते रहे हैं कि प्रेमचन्द से पहले तिलस्मी और ऐय्यारी साहित्य लिखा जाता था और यथार्थवाद की नींव प्रेमचन्द ने रखी.
देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता का प्रकाशन 1891 से शुरू हो गया था. ‘घराऊ घटना’ 1893 में लखनऊ के मशहूर नवलकिशोर प्रेस से छपा था. इसलिए यह संभव नहीं लगता कि तत्कालीन हिंदी साहित्य समाज की नज़रों से यह ओझल रहा हो. इसका अर्थ यह हुआ कि प्रेमचन्द के हिंदी में छपे प्रथम उपन्यास प्रेमा से 14 वर्ष पूर्व भुवनेश्वर मिश्र ने ‘घराऊ घटना’ जैसा उपन्यास लिख दिया था.
प्रेमा को भी सामाजिक उपन्यास बताया गया था. पहला यथार्थवादी उपन्यास ‘सेवासदन’ बताया जाता है जो 1919 में छापा. बलवंत भूमिहार को 1901 में ही देवकीनंदन खत्री ने अपने लहरी प्रेस से छापा था. इसलिए भुवनेश्वर मिश्र कोई अल्पज्ञात लेखक नही थे.
मिश्र बन्धुओं ने भी भुवनेश्वर मिश्र का जिक्र किया है. भारतेंदु के मित्र बाबू शिवनंदन सहाय ने 1914 में घराऊ घटना का जिक्र किया था. 1919 में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता जब राजेन्द्र बाबू ने की तो स्वागत समिति के अध्यक्ष भुवनेश्वर जी थे. इसका अर्थ यह हुआ कि तब साहित्य समाज में उनकी प्रतिष्ठा एक लेखक के रूप में थी फिर वह कैसे बाद में अज्ञात रह गये यह शोध का विषय है. जाहिर है शुक्ल जी, रामविलास, या डॉ. नागेंद्र या डॉ. नामवर सिंह जैसे आलोचकों ने कभी उनका जिक्र नहीं किया. साहित्य के इतिहास में उन्हें शामिल नहीं किया गया. उनके अवदान पर संगोष्ठियां नहीं हुईं.
बिहार के महेश नारायण की कविता ‘स्वप्न’ के बारे में भी हिंदी साहित्य अनजान था जो मुक्त छंद की पहली कविता थी जबकि मुक्त छंद की पहली रचना के रूप में आम मान्यता निराला की ‘जूही की कली’ को मिली. पर परिमलेन्दु जी ने इन उपन्यासों की चर्चा न होने के कारणों पर पर्याप्त चर्चा नहीं की है. क्या ये उपन्यास कला की दृष्टि से कमजोर थे या पाठकों को बाद में प्रेमचन्द के उपन्यास अधिक सुंदर लगे या उन्हें इन उपन्यासों में कोई बड़ी दृष्टि नहीं नज़र आई हो जो प्रेमचन्द के पास थी और इस कारण ये उपन्यास अलक्षित रह गए.
इन उपन्यासों का ऐतिहासिक महत्व है. क्या भविष्य में साहित्य-समाज भुवनेश्वर मिश्र को पहला यथार्थवादी उपन्यासकार मानेगा ? हिंदी के सुधी आलोचकों को इस परिप्रेक्ष्य में भी प्रेमचन्द का विश्लेषण करना चाहिये.
हिंदी के वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार विमल कुमार पिछले चार दशकों से साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं. 9 दिसम्बर 1960 को बिहार के पटना में जन्मे विमल कुमार के पांच कविता-संग्रह, एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और व्यंग्य की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. 9968400416. |
विमल कुमार ने एकसाथ कई मुद्दे उठा दिए हैं । वे भी नए नहीं । इनके बारे में समय – समय पर चर्चा होती रही है ।प्रेमचंद की परम्परा का सवाल भी काफी जाना – पहचाना है । मधुरेश ने प्रेमचंद की परम्परा के संदर्भ में यशपाल का मूल्यांकन करते हुए उस समय अपना एक गम्भीर विश्लेषण हिंदी साहित्य समाज के सामने पेश किया था , जब मैं बच्चा था । शायद विमल कुमार भी । या विषय काफी पेरा – पकाया जा चुका है ।
एक बात और । विमल कुमार रामविलास शर्मा और नामवर सिंह को मानते तो आलोचक हैं , पर भुवनेश्वर मिश्र के बारे में उनसे साहित्य का इतिहासकार बन जाने की अपेक्षा रखते है !
‘परम्परा एक व्यापक शब्द है. उमसे सभ्यता, संस्कृति, इतिहास सब शामिल है. वह किसी एक विचारधारा या एक संस्कृति या एक भाषा से नहीं बनती विशेषकर भारत में जहाँ इतनी भाषाएँ और संस्कृतियाँ हैं’ – बेहद तार्किक, ज्ञानवर्धक एयं मानीखेज आलेख. विमल जी और समालोचन को बधाई.
बेशक, परंपरा का दायरा विस्तृत ( क्षितिजाकार) होताहै, वर्टीकल नहीं कि एक के साथ दूसरा उसी जगह अंट न सके.
बहुत ही प्रासंगिक विषयवस्तु । इसमें कोई विवाद नहीं है कि प्रेमचंद हिन्दी कथा साहित्य के एक दृष्टि संपन्न लेखक थे पर यथार्थवाद के पहले कथाकार वही थे,यह विवादास्पद है।यह आलेख कई कोणों से इस विषय को छूता है पर अंतिम निष्कर्ष सुधी पाठकों और सुविज्ञ आलोचकों पर छोड़ देता है।यही होना भी चाहिए।इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए विमल जी को साधुवाद !
हिंदी लेखकों के उनींदे जहाज का लंगर खोलकर विमल कुमार के जरिए आपने उसे जो धक्का दिया है, निश्चय ही उससे हलचल होगी और लोग अपने दायरे से बाहर जाकर साफ हवा में साँस लेंगे. लेकिन हिंदी समाज की नींद कुम्भकरणी भले न हो, मगर उसे डिस्टर्ब करना आसान नहीं है. कुम्भकर्ण तो एक था, देर-सवेर जग ही गया, यहाँ तो हर मोड़ में कुम्भकर्ण हैं. एक बोलने लगता है तो दूसरा सो जाता है, अगले के बोलते ही उसका अगला नींद में बड़बड़ाने लगता है और सबकी शुरुआत वहीं से होती है जहाँ से पहले ने शुरू किया था. मैं अपनी प्रतिक्रिया लिखने ही जा रहा था कि वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग की एक टिप्पणी पर नज़र पड़ी जिसमे कुछ धमकी के-से अंदाज़ में लिखा था,’प्रेमचंद की परम्परा में अगली उपन्यासकार मधु कांकरिया हैं. महिला हैं, कोई ऐतराज़!’फिर उन्होंने मधुजी के दो उपन्यासों के नाम गिनाए हैं और कहा है बाकी आप खोजकर पढ़ लीजिए. शिवमूर्ति और वीरेंद्र यादव की नोंकझोंक जैसी कुछ देख रहा था कि संजीव, जो प्रेमचंद के सच्चे उत्तराधिकारी हैं, उनकी 75वीं वर्षगांठ क्यों न मनाई जाये. संजीवजी शर्म और संकोच में गड़े कमर दर्द में कराहते कह रहे थे, उनसे कहिये, बंद कीजिये ये चर्चा. अब तो हर आदमी खुद को प्रेमचंद से ही जोड़ रहा है. अपने मुद्दे पर आऊँ, एक किस्सा सुन लीजिए. नया-नया मैं इलाहाबाद पहुंचा था, सिविल लाइन में तब के ‘कहानी’ कार्यालय के आगे कई मित्र खड़े थे.कई वरिष्ठ रचनाकार, मैं मटियानीजी के पीछे उनकी दुम की तरह. तीन-चार वरिष्ठों ने प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी ओर देखा तो मटियानीजी ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने आगे किया, “अरे पहचाना नहीं? ये प्रेमचंद के पोते हैं बटरोही.” सब लोग आश्चर्य से कभी मेरे और कभी मटियानीजी की ओर देखने लगे. तब उन्होंने शांत ढंग से सबको समझाया, भाई कहानी लिखता है, इसलिए प्रेमचंदजी को पोता हुआ कि नहीं?’ बिलकुल सही कहा अरुण देव ने. आज हर भाषा में प्रेमचंद का उत्तराधिकारी है. हिंदी समाज तो बहुत बड़ा है, हमारे उत्तराखंड में ही इस बात पर कब से सिर फुटव्वल है कि प्रेमचंद का सच्चा उत्तराधिकारी ‘पहाड़ी’ है, शैलेश मटियानी है, विद्यासागर नौटियाल है, शेखर जोशी है, सुभाष पन्त है या हिमांशु जोशी? (कई और नाम हैं, खैर छोड़िए!) शेष आगे … .
विमल कुमार जी का यह एक महत्वपूर्ण आलेख है। बधाई।
करीब पच्चीस साल पहले मधु कांकरिया का पहला उपन्यास ‘सलाम आखिरी’ प्रकाशित हुआ था, मैंने उसकी लम्बी समीक्षा ‘समयांतर’ के लिए लिखी थी और तब अपनी अल्प-बुद्धि से यह बात कही थी कि इस उपन्यास को सदी के बड़े उपन्यासों में गिना जाना चाहिए. मैंने मधु कांकरिया के प्रत्येक उपन्यास को पढ़ा है, और आज भी मुझे लगता है कि हिंदी रचनाकारों के बीच जिस तरह की भाषिक चैतन्यता, विषय को लेकर की गई तैयारी (शोध नहीं; यह काम लेखक का नहीं है, उससे जबरदस्ती क्यों पीएचडी स्कॉलर बनाते हैं!), अपने चरित्रों के प्रति आत्मीय लगाव, गर्भ के बच्चे की तरह थीम और पात्रों के प्रति पोषण-भाव मुझे अन्यत्र बहुत कम लोगों में दिखाई देता है. रचना को जन्म देते हुए एक दृष्टा भाव से उसे बरतना, मुझे काफी कम लोगों में यह भाव देखने को मिला. और मुझे ऐसा तो बिलकुल नहीं दिखाई दिया कि उनकी रचनाये किसी स्त्री के गर्भ से निकल रही हैं. वह वैसा ही गर्भ है जैसा प्रेमचंद का था, प्रसाद का था या अज्ञेय का. था या महादेवी, सुभद्राकुमारी चौहान का. और एक गर्भ से निकली संतानों का चेहरा, हाव-भाव, चारित्रिक गुण और सरोकार एक जैसे तो होते नहीं, फिर भी कोई अधिक प्रसिद्धि पा लेता है, कोई काल के प्रवाह में खो जाता है. मगर मधु कांकरिया के यहाँ ऐसा नहीं है. उनका हर अगला उपन्यास पहले का विस्तार है, हर बार नया, अपनी जमीन से जुड़ा और जातीय स्मृतियों की जड़ों का अहसास कराता पाठक की समझ का विस्तार करता. मैं आज भी अपनी इस बात पर अडिग हूँ कि प्रेमचंद के बाद भारतीय जातीय स्मृतियों का इतने सुगुम्फित तरीके से एक आम हिंदी पाठक की अपेक्षाओं को उन्हीं की भाषा में शिक्षित और संस्कारित करने का जो काम मधु कांकरिया ने ऊर्ध्वोन्मुख ढंग से किया है, इतने कम समय में किसी और ने नहीं किया है. मुझे उन्हें पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं जगा कि मैं एक महिला कथाकार को पढ़ रहा हूँ. तब भी नहीं जब उन्होंने हिंदी में पहली बार वैश्यावृत्ति जैसे नाजुक विषय को चुना और स्त्री मुख से. चर्चा उन दिनों खूब हुई लेकिन एक अपवाद खबर की तरह. वरना क्यों हिंदी लेखन-परंपरा की चर्चा के बीच से मधु गायब रहती हैं. वैसे तो उनका पहला उपन्यास ‘खुले गगन के लाल सितारे’ है मगर मुझे उनकी रचना-दृष्टि का प्रस्थान-बिंदु 2002 में प्रकाशित ‘सलाम आखिरी’ ही लगता है. 2008 में प्रकाशित ‘सेज पर संस्कृत’, 2012 में ‘सूखते चिनार’, 2018 में ‘हम यहाँ थे’ और पिछले ही साल किसान आन्दोलन पर लिखे ‘ढलती सांझ का सूरज’ ऐसे उपन्यास हैं जिन्होंने पहली बार हिंदी लेखन में अपनी ऐसी दस्तक दी है जिसका कायदे से विस्तार होना चाहिए था, मगर हिंदी लेखक को आत्म-वंचना से ही फुर्सत कहाँ है. वे इस अर्थ में भी प्रेमचंद की वास्तविक उत्तराधिकारी (रिणी नहीं) हैं कि उन्होंने आम लोगों की भाषा में सौन्दर्य के शास्त्रीय मानकों के बीच से ही अपनी हर अगली रचना को बुना है और न भाषा, न शिल्प और न कथ्य को ही अपने अगले उपन्यास में रिपीट किया है. प्रेमचंद की ही तरह वो आसान दिखाई देती हैं लेकिन उन्हें नक़ल कर पाना संभव नहीं है. मृदुलाजी का यह नारीवादी फतवा मुझे दलित लेखकों की उस त्प्पनी जैसा लगा जहाँ कुछ भी प्रशंसात्मक या आलोचनात्मक टिप्पणी करने के बाद प्रतिक्रिया में सिर्फ ‘जय भीम’ का झंडा दिखाई देता है. बेहतर हो, हिंदी के लेखक इस ग्रंथि से उबरें.
बेहद प्रासांगिक और महत्वपूर्ण आलेख।