दिल्ली में ग़ालिब: घर, परिवार और व्यक्तित्वसच्चिदानंद सिंह |
आगरे से दिल्ली आने पर कुछ समय तक ग़ालिब चांदनी चौक के निकट, बल्लीमाराँ मोहल्ले में अपनी ससुराल में टिके थे. वहाँ से निकलकर वे कुछ साल शाबान बेग (शाबान खाँ) की हवेली(1) में रहे जो आज अगर खड़ी रहती तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग के निकट रहती. शाबान बेग की हवेली में बिताए उन कुछ वर्षों को छोड़, ग़ालिब ने अपनी तमाम ज़िंदगी बल्लीमाराँ मोहल्ले में या उसके एकदम करीब में गुजारी.
बल्लीमाराँ मोहल्ले में पहले बल्ली-मार रहते थे, जो किश्तियों को बल्ली–लकड़ी या बाँस के लंबे डंडे से चलाते थे. उस मोहल्ले में आज रहने वाले मानते हैं कि ये किश्तियाँ चांदनी चौक जाती नहर में चलती थीं और शाहजहाँ की बेटियाँ उन किश्तियों में किले से फतहपुरी मस्जिद आया करतीं थीं.
यह बहुत विश्वसनीय नहीं लगता कि किले से हाथी पर निकल कर, सरे बाज़ार हाथी छोड़ मुग़ल शहज़ादियाँ किश्ती से फतहपुरी मस्जिद जातीं होंगी. यह भी नहीं कि उस नहर में किश्तियाँ चलतीं होंगी. शाहजहानाबाद के पुराने उपलब्ध चित्रों में नहर उतनी चौड़ी नहीं दिखती. मगर यह सच है कि शाहजहाँ ने शहर में पानी की सुविधा के लिए पुरानी पश्चिमी यमुना नहर को पुनर्जीवित किया था.
शाहजहानाबाद बसाते समय बादशाह ने शहज़ादों और सरदारों को उनके भवन निर्माण के लिए भूमि आवंटित की थी. बदलते समय के साथ नए सरदार बने और धीरे चांदनी चौक के निकट स्थित यह इलाका मिहनतकश बल्ली-मारों का न रह कर नए बने नवाबों का हो गया.
नवाब क़ासिम जान के नाम पर बनी गली में लोहारू के नवाबों की बड़ी हवेली आज भी खड़ी है, आज कल उसके एक भाग में लड़कियों का एक स्कूल चल रहा है. गली में लाल कुंआ की तरफ कुछेक डेग बढ़ने पर ग़ालिब की साली बुनयादी बेगम की संपत्ति, ‘अहाता काले साहब’, आज भी दिखती है. संपत्ति का नाम भी वही है, पर अहाता अब रिहायशी घरों से भर गया है; यहाँ भी लड़कियों का एक स्कूल है.
ग़ालिब और उमराव बुनयादी के बहुत करीब थे. यूँ भी ग़ालिब में अपने परिवार वालों के लिए या अपने रिश्तेदारों के लिए एक स्वाभाविक आत्मीयता थी. उनके ससुर इलाही बख़्शखाँ के दो बेटे और दो बेटियाँ थीं. बड़ी बेटी बुनयादी की शादी नवाब गुलाम हुसैन ‘मसरूर’ से हुई थी. गुलाम हुसैन शर्फुद्दौला नवाब क़ासिम जान का पौत्र था, जिस के नाम से बनी गली क़ासिम जान के निकट ग़ालिब ने करीब पैंतालीस साल गुजारे.
इलाही बख़्श के बेटों के नाम मिर्ज़ा अली बख़्श खाँ और मिर्ज़ा अली नवाज़ खाँ थे. मिर्ज़ा अली बख़्श की शादी ग़ालिब की भांजी (यानी छोटी ख़ानम की बेटी) अमानी ख़ानम से हुई. अपने पिता की तरह अली बख़्श भी शेरो शायरी से शौक रखता था और ‘रंजूर’ तखल्लुस से उर्दू में लिखता था. अली बख़्श खाँ रंजूर से ग़ालिब की अच्छी छनती थी.
इलाही बख़्श के बड़े भाई अहमद बख़्श खाँ के तीन पुत्र थे. सबसे बड़ा शम्शुद्दीन था और दो उसके सौतेले भाई थे– अमीनुद्दीन और ज़ियाउद्दीन. शम्शुद्दीन से ग़ालिब की कभी नहीं बनी क्योंकि ग़ालिब की नज़र में शम्शुद्दीन और उसके वालिद ग़ालिब का हक दाब बैठे थे. इसकी विस्तृत चर्चा आगे होगी. शम्शुद्दीन की दो बहनें थीं– एक, नवाब बेगम, का विवाह ग़ालिब के हमज़ुल्फ़ (साढ़ू) गुलाम हुसैन ‘मसरूर’ के बेटे ज़ैनुल आबिदीन खाँ से हुआ था. ज़ैनुल की माँ उसके ससुर शम्शुद्दीन की चचेरी बहन थीं पर अपनी ससुराल से ज़ैनुल के और पुराने रिश्ते थे. उसके परबाबा शर्फुद्दौला नवाब कासिम जान और उसकी पत्नी नवाब बेगम के परबाबा (उसकी माँ बुनयादी के बाबा), आरिफ़ जान सगे भाई थे.
ज़ैनुल के माता-पिता के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे थे. उसका पिता ग़ुलाम हुसैन अपनी पत्नी बुनयादी को कुछ संपत्ति देकर उससे अलग हो गया था. इसी तरह ‘अहाता काले खाँ’ बुनयादी की संपत्ति हो गई थी. संपत्ति के साथ पुत्र ज़ैनुल की देखरेख की जिम्मेवारी भी बुनियादी पर थी.
ज़ैनुल बहुत कम उम्र से अपने मौसा, ग़ालिब, से घुल मिल गया था और उनकी देखरेख में उसने शायरी की बारीकियां सीखनी शुरू कर दी थी. अपना तखल्लुस अपनी माँ के बाबा के नाम पर उसने ‘आरिफ़’ रखा था.
ग़ालिब और उमराव को सात संतानें हुईं पर दुर्भाग्य से कोई दो वर्ष तक भी नहीं बची. 1867 में ग़ालिब ने अपने शागिर्द मियाँ दाद खां ‘सय्याह’ के नाम एक पत्र में लिखा (2) है,
“तुम्हारे हाँ (यहाँ) लड़के का पैदा होना और उसका मर जाना मालूम हो कर मुझको बड़ा ग़म हुआ. भाई, इस दाग़ की हक़ीक़त मुझसे पूछो कि 71 बरस की उम्र तक सात बच्चे पैदा हुए, लड़के भी और लड़कियाँ भी और किसी की उम्र पन्द्रह महीने से ज़्यादा न हुई. तुम अभी जवान हो. हक़ताला तुम्हे सब्र और नेमु बदल (क्षतिपूर्ति) दे.”
अपने बच्चों के नहीं रहने से ग़ालिब और उमराव ने गुलाम हुसैन और बुनयादी के बेटे ज़ैनुल पर अपना सारा वात्सल्य उड़ेल दिया था. शम्शुद्दीन की बेटी, नवाब बेगम, जिससे ज़ैनुल की शादी हुई थी, अपने पहले प्रसव के सातवें महीने में जाती रही. ज़ैनुल भी पूर्णायु नहीं भोग सका था, मगर उसने दूसरी शादी की थी जिससे उसके दो बेटे हुए– बाक़िर अली और हुसैन अली.
ज़ैनुल की मृत्यु के बाद कुछ समय तक उसके बच्चे अपनी दादी बुनयादी के साथ रहे और बुनयादी के देहांत के बाद दोनों को ग़ालिब और उमराव ने अपने बेटों की तरह पाल-पास कर बड़ा किया था.
ये बातें अभी बहुत आगे की हैं, मगर यहाँ यह बता देना शायद बेमौका न हो कि ज़ैनुल के बड़े बेटे बाक़िर की शादी ग़ालिब के चचेरे साले ज़ियाउद्दीन की बेटी उज़्ज़मानी से हुई थी. उनके अनेक बच्चे हुए और उनमें से एक लड़की रुक़ैया की शादी कर्नल ज़लनुर अली अहमद से हुई जिनके पुत्र फ़ख़रुद्दीन अली अहमद भारत के एक राष्ट्रपति हुए(3).
ग़ालिब अपनी पत्नी उमराव के खानदान का बहुत मान रखते थे. उन्हें अपने खानदान पर भी बहुत अधिक गौरव था. वे नहीं भूलते थे कि उनके परबाबा तरसम बेग खाँ एक सुल्तानज़ादा थे. कितने ऐसे लोग होंगे जो यह दावा कर सकें कि उनके पूर्वज सुलतान रहे थे?
ग़ालिब अपने को असाधारण समझते थे– सिर्फ़ विद्वता और प्रतिभा में नहीं; वंश में, कुलीनता में भी. और आजीवन उन्होंने इसका प्रयास किया कि वे सामान्य लोगों से अलग रहें.
1859 में चौधरी अब्दुलगफ़ूर ‘सुरूर’ के नाम एक खत में ग़ालिब लिखते हैं (4):
मरा बग़ैर ज़े यक जींस दर शुमारा वुर्द
फ़ुगाँ के नीस्त ज़ परवाना फ़र्के ता मगसश
(मुझे सामान्य लोगों में सम्मिलित कर दिया गया. मैं इस बात पर रोता हूँ कि मक्खी और परवाने में अंतर नहीं किया गया.)
ग़ालिब ‘सामान्य’ लोगों से अलग दिखना भी चाहते थे. प्रायः वे ईरानी परिपाटी के परिधान पहनते थे. लंबी ईरानी टोपी तो नहीं पर उनके सर पर काले फर की ऊंची टोपी जरूर रहती थी(5).
जब मूँछें और दाढ़ी पकने को आये और उन्होंने दाढ़ी बढ़ाने की सोची तो उसी दिन सर भी घुटा लिया क्योंकि जैसा उन्होंने हातिम अली ‘महर’ को लिखा,
“इस भौंडे शहर में एक वर्दी है आम– मुल्ला, हाफ़िज़, बिसाती, नेचाबंद, धोबी, सक्का, भटियारा, जुलाहा, कंजड़ा, मुँह पर दाढ़ी, सर पर बाल” (6).
अपनी असाधारण विद्वता के चलते वे निश्चित ही सामान्य जन से अलग थे. साथ ही वे अपनी कुलीनता, अपने अभिजात्य के चलते भी अपने को जन-साधारण से बहुत ऊंचे समझते थे. यदि कम हैसियत का कोई व्यक्ति अपनी कुलीनता को आस्तीन पर लगा कर चले तो वह प्रायः कटु-हास्य का पात्र हो जाता है. ग़ालिब ने कभी इसकी परवाह नहीं की और न कभी जगहँसाई झेली.
कहते हैं, उन्होंने अपना उपनाम (तख़ल्लुस) भी इसलिए बदला क्योंकि कोई मामूली आदमी उसी तखल्लुस, असद, से शायरी करने लगा था. ग़ालिब की शायरी में उनके दो तख़ल्लुस दीखते हैं– असद और ग़ालिब. प्रचलित मान्यता है कि 1828 के बाद उन्होंने असद लिखना छोड़ दिया है. इस सन्दर्भ में गुलाम हुसैन आज़ाद ने लिखा(7) है, वे पहले असद लिखते थे. उन्हीं दिनों, झज्जर (हरियाणा) में एक और कोई इसी नाम से शायरी कर रहे थे. एक दिन किसी ने ग़ालिब को उस अनजान शायर का यह शे’र सुनाया (जैसे यह ग़ालिब का लिखा हुआ हो):
असद इस ज़फ़ा पर बुतों से वफ़ा की
मेरे शेर शाबाश रहमत खुदा की
इस शे’र को सुनते ही ग़ालिब का दिल इस तख़ल्लुस से उचट गया. वे सामान्य जन से मिलना जुलना नापसंद करते थे, और तखल्लुस साझा करना! खुदा खैर करे. इसी के चलते हि. 1245 (तदनुसार ई. 1828) में उन्होंने हज़रत अली के एक नाम असदुल्लाह उल-ग़ालिब से अपने लिए ग़ालिब तख़ल्लुस चुना. हाँ, उन ग़ज़लों को, जिनमें उन्होंने असद लिखा था, पहले ही की तरह रहने दिया.
ग़ालिब ने अप्रैल 1859 के अपने एक पत्र में भी इस की चर्चा(8) की है,
“ज़माने साबिक (कुछ दिन पहले) में एक साहब ने मेरे सामने यह मत्ला पढ़ा: (उपरोक्त शे’र). मैंने सुन कर अर्ज़ किया के साहब जिस बुज़ुर्ग का ये मतला है उस पर बक़ौल (कथनानुसार) उसके ख़ुदा की रहमत और अगर मेरा हो तो मुझ पर लानत. असद और शेर और बुत और ख़ुदा और ज़फ़ा और वफ़ा ये मेरी तर्ज़ेगुफ़्तार नहीं है. …”
आज़ाद के अनुसार झज्जर के उस वाकये के बाद ग़ालिब ने असद लिखना छोड़ दिया और बस ग़ालिब के नाम से शे’र लिखे. मगर सौ फीसदी ऐसी बात नहीं मिलती. झज्जर के पहले भी उन्होंने ग़ालिब के नाम से लिखे थे और झज्जर के बाद भी असद के नाम से लिखे.
आर्थिक रूप से वे बहुत समर्थ नहीं थे किंतु आदतें उन्होंने रईसों वाली पाल रखीं थीं, और इसे कहने से बाज नहीं आते थे कि उनके पूर्वज योद्धा थे, सुलतान और शहजादे. उनके कपड़े ‘विलायती’ तर्ज पर होते थे, कुछ तो ईरान के बने भी. (अरबी के विलायः से बना विलायत का अर्थ प्रशासनिक खंड होता था, प्रान्त. ईरान पर अरब आक्रमण के बाद ईरान भी खिलाफत का एक विलायः हो गया था और जब मुसलमान भारत आये तो ईरान हिन्दुस्तान में विलायत कहलाने लगा. समय के साथ विलायत का अर्थ प्रान्त से बदल कर विदेश हो गया.)
ग़ालिब अपने चोगों को, यदि वे ईरान में बने हों, ‘विलायती चुग़े’ ही कहते थे.
ग़ालिब कभी पैदल चलते हुए नहीं दिख सकते थे. उन दिनों घोड़ों की सवारी बस लंबी यात्रा के लिए की जाती थी. शहर के अंदर अंग्रेज घोड़े या घोड़े गाड़ियों पर चलते थे किंतु कुलीन मुसलमान या संपन्न हिंदू पालकी पर चला करते थे. ग़ालिब हमेशा पालकी पर, या हवादार (खुली पालकी, प्रायः एक कुर्सी जिसे चार आदमी अपने कन्धों पर ढोते हुए लिए चलते थे) पर ही निकलते थे.
उनका खान-पान भी रईसों सा होता था. प्रातः जलपान में वे प्रायः बादाम का शीरा (शरबत) पीते थे. एक जगह उन्होंने लिखा(9) है,
“अनाज खाता ही नहीं हूँ, आधा सेर गोश्त दिन को, पाव भर शराब रात को मिल जाती है”.
मुग़ल पाक कला का अनुसरण करते हुए, गोश्त के साथ प्रायः कुछ फलों के टुकड़े भी भुने जाते थे. मगर ऐसा नहीं था कि अनाज बिल्कुल नहीं खाते थे. खमीरी रोटी उन्हें पसंद थी, और हकीम गुलाम नज़फ़ खाँ को उन्होंने एक बार लिखा(10) था,
“पुराने और पतले चावल आयें, एक रुपए के खरीद कर भेज दो. याद रहे नए चावल क़ाबिज़ होते हैं, पुराने चावल क़ाबिज़ नहीं होते, ये मेरा तज़र्बा है.”
ग़ालिब को लगभग जीवन भर क़ब्ज़ की शिकायत रही. सब्जियां बिल्कुल नहीं खाते थे, मोटे अनाज भी नहीं. शराब को लेकर वे बदनाम थे ही.
दो |
ग़ालिब कुछ अधिक पीते थे और जानते थे कि वे बहुत अधिक पी सकते थे. इसे लेकर वे एहतियाती थे और शराब की बोतलें जिस बक्स में रखते थे उसकी चाभी अपने खास खिदमतगार कल्लू को दे रखी थी.
हाली ने लिखा है, कल्लू को निश्चित मात्रा (पाव भर) से अधिक देने की सख्त मनाही थी, चाहे ग़ालिब कितनी भी मांग क्यों न करें. ग़ालिब अपनी शराब में गुलाबजल मिला कर पीते थे. कहा जाता है कि कल्लू को यह भी हिदायत थी कि रोज शाम ग़ालिब की शराब और गुलाबजल एक मिट्टी के कटोरे (आबखोरा) में मिला कर उसे ठंढे पानी के ऊपर काफी देर रखने के बाद उन्हें पीने को दी जाए(11).
कलकत्ते जाने के पहले वे ‘कास्टेलन’ नाम की कोई शराब, शायद व्हिस्की या रम, लेते थे. कलकत्ते से आने के बाद वे जिन भी पीने लगे. कहते हैं कलकत्ते के रास्ते कभी एक नाव के सफ़र में कुछ अंग्रेज सहयात्रियों के साथ उन्होंने जिन पी थी और उस रंग-हीन पेय से वे बहुत प्रभावित हुए थे. एक मित्र को खत में उन्होंने जिन के जिन्न जैसे प्रभाव की चर्चा की थी(12). कलकत्ते से आने के बाद ग़ालिब शौक से जिन पीने लगे.
एक पत्र (13) में उन्होंने ‘ओल्ड टॉम’ की चर्चा की है जो एक जिन का नाम था. ओल्ड टॉम जिन आजकल भी मिलता है.
“दो किस्म की अंग्रेजी शराब, एक तो कास्टेलन और एक ओल्ड टॉम मैं हमेशा पिया करता था. … जाड़ों में मुझको बहुत तकलीफ़ है और ये गुड़-छाल की शराब मैं नहीं पीता, ये मुझको मज़अर्रत (हानि) करती है और मुझे उससे नफ़रत है.”
नवाबी मिजाज के ग़ालिब अच्छी चीजों से परहेज नहीं करते थे और मिलने पर उनका आनंद निस्संकोच लेते थे. जो नहीं मिलती थी, जैसे ‘पारसियों की दुकानों में सजे फ्रेंच शाम्पेन’, उसकी भी निंदा नहीं करते थे.
ग़ालिब को फ्रेंच लिक्योर पीने के शायद बहुत मौके नहीं मिले होंगे पर उसका स्वाद उनके मन में घर कर गया था. एक पत्र में उन्होंने लिखा है(14),
“लिक्वेर एक अंगरेजी शराब होती है, क़ेवाम (तरल पदार्थ, चाशनी) बहुत लतीफ़ और रंगत भी बहुत खूब और तौम की ऐसी मीठी जैसे कंद का क़ेवाम पतला”.
सर्दियों में, एक मित्र को ग़ालिब ने लिखा(15) है,
बेमय न कुनद दर कफ़-ए मन ख़ामा रवाई
सर्दस्त हवा आतिश-ए बेदर्द कुजाई
(जब मैं पीता नहीं हूँ तो लेखनी में शक्ति नहीं आती, हवा ठंढी है, शराब कहाँ है?)
“सुबह का वक्त है, जाड़ा खूब पड़ रहा है. अंगीठी सामने रखी हुई है. दो हर्फ़ लिखता हूँ, आग तापता जाता हूँ. आग में गरमी सही, मगर हाय, वो आतिशे सय्याल (शराब की आग) कहाँ के जब दो जुरे पी लिए, फ़ौरन रगों पे मय दौड़ गयी, दिल तवाना हो गया. दिमाग रोशन हो गया. नफ़्से नातिक़ा (वाक् शक्ति) को तवाजिद वहम पहुँचा.”
1853 की उनके मशहूर ग़ज़ल बाज़ीचा-ए अतफ़ाल में एक शे’र है:
फिर देखिये अंदाज़-ए गुल-अफ़शानी-ए गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए सहबा मिरे आगे
अफ़शानी-ए गुफ़्तार: वार्तालाप की बौछार
पैमाना-ए सहबा: मदिरा पात्र
(मेरे सामने मदिरा पात्र कोई रख दे फिर देखे किस अंदाज़ से मेरे मुँह से फूल बरसते हैं.)
यह सच है कि ग़ालिब रातों को शराब पीकर शायरी करते थे, हाली के अनुसार शराब ग़ालिब की रचनात्मकता को उद्दीप्त करती थी. वे शाम ढलने पर, शराब शुरू कर देने के बाद ही, ग़ज़ल कहते थे. अकेले बैठ वे नए शेर गुनगुनाते थे और जब तक उससे संतुष्ट नहीं हो जाएँ उसमें परिवर्तन लाते रहते थे.
संतुष्ट हो जाने पर, शेर की याद दिलाने के लिए रुमाल में एक गिरह (गाँठ) बाँध कर वे अगला शेर कहने लगते. किसी-किसी शाम उनके रुमाल में दस-बारह गांठें बंध जाती थीं. रुमाल की गांठों को देख उन्हें शाम कहे गए शेरों की याद अगली सुबह आती थी और याददाश्त पर जोर देते हुए वे कागज़ पर शेर उतारते थे; एक शेर उतार लेने के बाद एक गाँठ खोलते हुए!
ग़ालिब के मद्यपान और मदिरा-प्रेम को लेकर बहुत कहानियाँ प्रचलित हैं. कुछेक के उल्लेख किये जा सकते हैं. (तीनों के स्रोत हाली की किताब “यादग़ार-ए ग़ालिब”)
एक बार किसी बज़्म में ग़ालिब को सुनाते हुए एक साहेब ने कहा “शराब पीने से बड़ा कोई गुनाह नहीं”
“क्यों?” मिर्ज़ा ने पूछा “क्या होगा जो कोई शराब पीए?”
“जो शराब पीता है उस की कोई दुआ नहीं कबूल होती”. साहेब ने कहा.
“देखिये, जो शराब पीएगा उसके पास ये तीन चीजें ज़रूर होंगी”, मिर्ज़ा ने कहा, “उस के पास शराब की एक बोतल होगी, उसके अन्दर एक लापरवाही होगी, और वह तंदुरुस्त भी होगा. अब आप कहिये, जिस के पास ये तीनों हों वो भला किस चीज के लिए दुआ करेगा?”
ग़ालिब के शुभेच्छु नवाब मुस्तफा खाँ ‘शेफ़्ता’ मेरठ के निकट, जहाँगीराबाद के रईस थे, अच्छी खासी आमदनी थी और अपनी जवानी में वे दिल्ली की रंगीन गलियों में छाये रहे थे. शराब के शौक़ीन मुस्तफ़ा के रंजू नाम की एक मशहूर, खूबसूरत और मुकम्मल तवायफ़ से बहुत दिनों तक नज़दीकी ताल्लुक़ात रहे जो शहर में चर्चा के विषय थे(16).
कुछ दिनों बाद मुस्तफ़ा ने रंग और गंध की दुनिया छोड़ दी, शराब से तौबा कर ली और अपने को ईमान-ओ-दीन के कामों में लगा दिया. उन्हीं दिनों सर्दियों में एक दफे वे ग़ालिब के घर पहुंचे थे. थोड़ी देर में मिर्ज़ा ने शराब भरा एक प्याला पेश किया. नवाब साहेब कुछ देर तक ग़ालिब को घूरते रहे, फिर कहा,
“मैंने छोड़ दी है.”
मिर्ज़ा हैरान थे, “क्या? सर्दियों में भी?”
कभी एक साहेब भोपाल से घूमने के लिए दिल्ली आये थे. दिल्ली की झाँकियों को देखते-देखते वे मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली पर भी पहुंचे. देखने ही से वे कुछ अधिक संयमी और धर्मपारायण लगते थे. मिर्ज़ा ने उनकी पूरी खातिर की हालाँकि वे साहब मिर्ज़ा के शराब पीने के वक्त पहुंचे थे. मिर्ज़ा के सामने एक ग्लास और शराब की बोतल रखी हुई थी. बिचारे आगंतुक को पता नहीं था और शरबत समझ कर उन्होंने बोतल उठा ली. तब तक किसी ने कह दिया, “साहेब, ये शराब है”.
भोपाली सज्जन ने तुरत बोतल रख दी, “मैं तो इसे शरबत जान रहा था”.
मुसकुराते हुए मिर्ज़ा ने कहा, “ज़हे नसीब (अहो भाग्य), धोखे में निजात हो गयी”.
इस्लाम शराब पीने को मना करता है. ग़ालिब ने बहुत कम उम्र से, जब उनके शब्दों में उनके “कृत्य उनके केश से अधिक काले थे”, मद्यपान शुरू कर दिया था. यह आगरे में उनके संगी-साथियों के असर में शुरू हुआ होगा. दिल्ली आकर भी वह बदस्तूर ज़ारी रहा, इलाही बख़्शखाँ ‘मअरूफ़’ जैसे धार्मिक ससुर के साथ रहने पर भी. ऐसा शायद इसलिए हो पाया होगा क्योंकि तबतक वे संगठित धर्म के प्रति उदासीन हो चले थे, कम से कम उसकी अनिवार्यताओं के प्रति.
हृदय से ग़ालिब मानवतावादी थे, धार्मिक रीति-रिवाजों के प्रति बहुत सम्मान नहीं रखते थे. रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना इस्लाम का एक स्तंभ माना गया है. ग़ालिब ने नियमतः शायद कभी भी वह नहीं किया. उनके पत्रों में रोज़ा से सम्बंधित अनेक प्रसंग हैं. बानगी के तौर पर पर तीन.
एक बार लिखा(17),
“अंदर बाहर सब रोज़ादार हैं. यहाँ तक के बड़ा लड़का बाक़र अली खाँ भी. सिर्फ़ एक मैं और मेरा प्यारा बेटा हुसैन अली खाँ, ये हम रोज़ाख़्वार हैं. वही हुसैन अली खाँ जिसका रोजमर्रा है, खिलौने मंगा दो, मैं भी बाज़ार जाउंगा…”
बाक़र और हुसैन उमराव की बहन बुनयादी के पोते थे जिन्हें उनके पिता ज़ैनुल की मृत्यु के बाद ग़ालिब और उमराव ने पाला पोसा था.
मुंशी नबी बख़्श हकीर के नाम ग़ालिब ने लिखा(18) है,
“रोज़ा रखता हूँ मगर रोज़े को बहलाए रहता हूँ. कभी पानी पी लिया, कभी हुक्का पी लिया, कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया. यहाँ के लोग अजब फ़हम और तुरफ़ा रविश (अमीरों की चाल-ढाल) रखते हैं. मैं तो रोज़े को बहलाए रहता हूँ और ये साहब फरमाते हैं कि तू रोज़ा नहीं रखता. ये नहीं समझते कि रोज़ा न रखना और चीज़ है और रोजा बहलाना और बात है.”
शव्वाल का महीना रमज़ान के बाद आता है. तीस दिन रमज़ान में रोज़ा रखा जाता है. रमज़ान की मुख्य ईद के बाद फिर पाँच दिन रोज़ा रखने का विधान है. उसके बाद एक और छोटी ईद मनाई जाती है, जिसे शशह ईद कहते हैं. 1858 की मई, हिज्री कैलेंडर से शव्वाल का महीना था, 10 तारीख. मिर्ज़ा ग़ालिब अपने एक शागिर्द को लिखते हैं:
“आज 10 शव्वाल की है. शशह ईद का भी ज़माना गुज़र गया. अब कहिये, … रोज़ों के मतवाले होश में आये या नहीं?”
हाली ने एक वाक़या लिखा है. कभी रमज़ान के महीने में मिर्ज़ा अपने दीवानखाने से लगे एक छोटी कोठरी में चौसर खेल रहे थे. इत्तेफ़ाक़ से उसी समय एक मौलाना वहाँ आ पहुँचे (अन्यत्र कहा गया है कि दिल्ली के तत्कालीन क़ाज़ी मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा स्वयं आ पहुँचे थे.) रमज़ान के पाक महीने में मिर्ज़ा को जुआ खेलते देख मौलाना स्तब्ध रह गए और कुछ नाराजगी के साथ कहा, “मैं ने अहादीस में पढ़ा है कि रमज़ान के महीने में शैतान क़ैद रहता है, पर आज मुझे अहादीस पर शक़ हो चला है.”
मिर्ज़ा ने गंभीर स्वर में कहा, “हुज़ूर, अहादीस बिल्कुल सही हैं. बस आप को यह जान लेना चाहिए कि जिस जगह शैतान क़ैद रखा जाता है वह यही कोठरी है”.
इन बातों से लग सकता है कि ग़ालिब को इस्लाम में कोई विश्वास नहीं था, मगर वैसी बात नहीं थी. हाली ने लिखा(19) है कि एक दिन कभी मुसलमानों की कहीं हुई बेक़द्री की बात सुन कर ग़ालिब ने बड़े अफ़सोस से हाली से कहा था,
“मुझमे मुसलमान के कोई लक्षण नहीं हैं. फिर भी पता नहीं क्यों जब भी मैं दुनिया के किसी कोने में मुसलमानों के अपमान, अपयश की बात सुनता हूँ तो मेरे दिल पर अफ़सोस और मलाल छा जाता है”.
हाली का कहना था कि उनका मिजाज इतना ‘शोख’ (शरारती) था कि कोई ‘गर्म’ ख़याल आने पर वे उसे बेसाख्ता बोल पड़ते थे, बिना परवाह किये कि ऐसा कहने पर लोग उन्हें काफ़िर या रिंद या धर्मभ्रष्ट समझ बैठेंगे.
ग़ालिब मानवतावादी थे. अपने प्रिय शिष्य तफ़्ता को ग़ालिब ने एक बार लिखा(20) था,
“मैं तो बनी आदम को (आदम के कबीले को यानी मानव मात्र को)– मुसलमान या हिंदू या नस्रीनी– अज़ीज़ रखता हूँ और अपना भाई गिनता हूँ. दूसरा माने या न माने. बाक़ी रही अज़ीज़दारी जिसको अहले दुनिया (दुनिया के लोग) क़रावत (निकटता) कहते हैं, उसको क़ौम और ज़ात और मज़हब और तरीक शर्त हैं और उसके मरातिब (पद) और मदारिज (स्तर) हैं.”
मतलब, भाईचारा सब से है, निकटता बस अपने लोगों से, ओहदेदारों से.
तीन |
ग़ालिब के ससुर इलाही बख़्शबहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे. ग़ालिब की पत्नी उमराव भी बहुत धार्मिक स्वभाव की थीं. ग़ालिब की शराबखोरी के चलते उमराव ने उनके खाने पीने के बर्तन अलग कर रखे थे. कहा गया है कि एक बार ग़ालिब ने ज़नाने में घुसने के पहले अपने जूते उतार कर सर पर रख लिए थे, यह बताने को कि वे ज़नाने को कितनी पाक-साफ़ जगह मानते हैं.
ग़ालिब शायद अपनी गृहस्थी से बहुत खुश नहीं रहते होंगे. बच्चे नहीं रहे, पत्नी उनकी साहित्यिक अभिरुचियों में भागीदारी नहीं दे पातीं थीं. प्रायः ग़ालिब अपना अधिक समय घर के बाहर बिताते थे. घर-परिवार की तुलना उन्होंने कम से कम दो जगहों पर पुरुष के पैरों में लगी बेड़ियों से की है.
अपने चचेरे साले के बेटे अलाउद्दीन अहमद खान ‘अलाई’ को एक पत्र में ग़ालिब ने अपनी जीवन यात्रा कुछ इन शब्दों में बतायी थी(21):
“दो विश्व हैं, एक आत्मिक और दूसरा भौतिक– जल और मृदा का. जो भौतिक विश्व में अपराध करते हैं उन्हें आत्मिक विश्व में दंड मिलता है और जो आत्मिक विश्व में अपराध करते हैं उन्हें पृथ्वी पर ढकेल दिया जाता है. मुझे भी 8 रजब 1212 हि. (यानी 27 दिसंबर 1797 ई). को आत्मिक विश्व से देश-निकाला दे दिया गया. तेरह वर्षों बाद, 7 रजब 1225 के दिन मुझे कारावास मिला, मेरे पैरों में बेड़ियाँ डाल दी गयीं, और दिल्ली में आजन्म गद्य और पद्य लिखते रहने की कड़ी सज़ा मुझे सुना दी गयी. बहुत दिनों बाद उस कारा से निकल कर तीन वर्षों के लिए मैं पूर्वी प्रान्तों की ओर भाग सकने में सफल हुआ. पर कलकत्ते में पकड़ा गया और वापस दिल्ली के कैदखाने में आना पडा, जहाँ मुझे हथकड़ियां भी लगा दी गयीं. मेरे पैरों में बेड़ियाँ पहले से थीं अब हाथों पर भी हथकड़ियों के घाव उग आये. लिखने का मुश्किल काम और अधिक मुश्किल हो गया. लेकिन मेरी बेहयाई देखिये, पिछले साल मैं बेड़ियों को उतार, हथकड़ियों के साथ फिर दिल्ली से भाग मेरठ, मुरादाबाद होते हुए रामपुर पंहुच गया. दो महीने भी वहां नहीं रह पाया था कि फिर पकड़ लिया गया और वापस दिल्ली का कैदखाना … अब मैंने तय कर लिया कि भागने की कोई कोशिश नहीं करूंगा. और करूं भी तो किस दम पर? देह में ताकत नहीं बची है.”
इस रूपक में कारा विवाह, बेडियाँ पत्नी और हथकड़ियाँ संतान हैं.
पत्नी को बेड़ी इसके पहले भी ग़ालिब एक पत्र में बता चुके हैं. जब सुना था कि एक शागिर्द उमराव सिंह, अपनी दूसरी बीवी के इंतक़ाल पर अपने छोटे बच्चों की देखभाल के लिए फिर शादी की सोच रहा है तो ग़ालिब बेसाख्ता लिख पड़े(22),
“उमराव सिंह के हाल पर मुझको उसके वास्ते रहम और अपने वास्ते रश्क आता है. अल्लाह, अल्लाह एक वो हैं के दो बार उनकी बेड़ियाँ कट चुकीं हैं. और एक हम हैं के ऊपर पचास बरस के जो फांसी का फंदा गले में पड़ा है, तो न फंदा ही टूटता है न दम ही निकलता है. उसको समझाओ के तेरे बच्चे को मैं पाल लूंगा. तू क्यों बला में फंसता है?”
इसके आगे एक फारसी नज़्म भी लिखा, जिसमें एक पुत्र ने अपने पिता से पत्नी के संबंध में समर्थन माँगा. पर पिता ने कहा, विवाह मत करो; व्यभिचार करो. व्यभिचार करते समय तुम्हें कोतवाल पकड़ेगा तो छोड़ भी देगा. उसने तुम जैसे बहुतों को पकड़ा है और छोड़ दिया है. यदि तुम विवाह करोगे तो पत्नी कभी न छोड़ेगी. यदि तुम उसे छोड़ दोगे तो न जाने वह क्या कर गुज़रे.
ग़ालिब की इन बातों से कुछ लोगों ने निष्कर्ष निकाला है कि उमराव से उनकी नहीं बनती थी. मियाँ बीवी के खाने पीने के बर्तन भी अलग थे, ग़ालिब जब तब अपनी मौज में आकर कुछ बोल भी देते थे. लेकिन हाली के अनुसार ऐसी बात नहीं थी. ग़ालिब दीवानखाने में ही रहते थे और उमराव ‘महल’ (ज़नाने) में.
ग़ालिब का खाना ज़नाने में उमराव सजाती थीं और जब तक वे चलने फिरने लायक रहे, अपना खाना उन्होंने ज़नाने में ही जाकर खाया. पत्नी को वे बहुत सम्मान देते थे और हर तरह से उनका ख़याल रखते थे. जब कभी उन्हें दिल्ली से बाहर रहना पड़ा- लखनऊ, बांदा, बनारस, कलकत्ते, रामपुर आदि– वे अपने हाल चाल उमराव तक पहुंचाते रहते थे.
अपने शागिर्द हकीम ग़ुलाम नजफ़ खाँ को रामपुर से उन्होंने लिखा (23) था,
“लड़कों के हाथ के दो ख़त लिखे हुए उनकी दादी को भिजवा दिए हैं. तुम इस अपने नाम के ख़त को लेकर डेवढ़ी पर जाना और अपनी उस्तानी जी को पढ़कर सुना देना और ख़ैरो आफ़ियत कह देना”.
ऐसे ही कुछ और पत्र मिलते हैं जिनमें ग़ालिब किसी और के मार्फ़त अपनी ख़ैरियत उमराव तक पहुंचाते दीखते हैं. मगर उमराव निरक्षर तो नहीं हो सकतीं. वे एक रईस की बेटी थीं और कम से कम इतनी पढाई तो उन्होंने ज़रूर कर रखी होगी कि कुर’आन शरीफ़ नज़री पढ़ सकें.
और, इसी पत्र में ग़ालिब बताते हैं कि लड़कों के (उमराव के भतीजे ज़ैनुल के बच्चे, बाक़िर अली और हुसैन अली के, जो ग़ालिब के साथ रामपुर गए थे) लिखे ख़त उमराव को भेजे जा चुके हैं. ज़ाहिर है कि उमराव पढ़-लिख लेतीं थीं. फिर भी ग़ालिब ने खुद उन्हें लिखने की नहीं सोची. इससे यही लगता है, ग़ालिब चाहे कितना भी उमराव का सम्मान करते हों, चाहे कितना भी ख़याल रखते हों, उनसे दूर जाने पर ग़ालिब के दिल में उनके लिए कोई कशिश नहीं रहती थी. कहीं कोई ऐसे पत्र या प्रमाण नहीं मिलते जिससे यह लगे कि ग़ालिब और उमराव के रिश्ते में कभी मुहब्बत की गर्मी रही हो, चाहे विवाह के तुरंत बाद या फिर पचास साल साथ रह लेने के बाद ही.
उमराव को ग़ालिब ने एक जिम्मेदारी के रूप में देखा था, जीवनसाथी के रूप में नहीं.
दिल्ली में ग़ालिब, एक हद तक, उमराव के ऊपर आर्थिक रूप से भी निर्भर रहते थे. 1862 में उन्होंने अपने चचेरे साले के बेटे मिर्ज़ा अलाउद्दीन खाँ ‘अलाइ’ को लिखा (24) है,
“भाई को सलाम कहना और कहना कि अब वो ज़माना नहीं के इधर मथुरा दास से क़र्ज़ लिया और उधर दरबारी मल को मारा. उधर खबचंद चैनसुख की कोठी जा लूटी. हर एक पास तमस्सुक मुहरी मौजूद, शहद लगाओ और चाटो, न मूल न सूद. इससे बढ़ कर ये बात के रोटी का खर्च बिल्कुल फूफी के सर. बा ईहमा कभी खान ने कुछ दे दिया, कभी अलवर से दिलवा दिया, कभी माँ ने आगरे से कुछ भेज दिया. …”
चिट्ठी के इस छोटे से अंश से पता चल जाता है कि दिल्ली में ग़ालिब के शुरुआती दिन कैसे कट रहे थे. सबसे पहले तो आगरे से उनकी माँ उन्हें नियमित पैसे भेज रहीं थीं. ‘खान’ से तात्पर्य अहमद बख़्श खाँ से ही होगा, जो अलवर नरेश से गाहे बगाहे कुछ पैसे ग़ालिब को भिजवा देते थे. “खान ने कुछ दे दिया” से यही लगता है सालाना मिलने वाली साढ़े सात सौ की वृत्ति के अतिरिक्त भी नवाब अहमद बख़्श से कुछ मिल जाता था. अलाई को लिख रहे हैं, ‘रोटी का खर्च बिल्कुल फूफी के सर’; अलाई की फूफी उमराव हुईं. उमराव तो खैर कहाँ से अनाज-पानी के खर्च जुटाती होंगी, उनके वालिद इलाही बख़्श की जागीर के इलाकों से रसद-पानी आता रहा होगा. और यदि तब भी खर्चे पूरे नहीं हुए तो हिंदू महाजनों की गद्दियाँ थीं उधार उठाने के लिए.
ग़ालिब अपनी नौजवानी में प्रायः घर से बाहर रहे, बीवी के सुख का ख़याल तो रखा पर आत्मीयता नहीं दे पाए, अपने सभी शौक़ पूरे किये– पहनने के, खाने-पीने के और तफ़रीह के. सामान्य जन से अपने को एकदम अलग रखा. ईमान और दीन के कोई काम नहीं किये. वयस्क होने के बाद भी अपनी विधवा माँ से पैसे मंगाते रहे, और फ़ख्र के साथ ससुराल से भी आर्थिक मदद ली. दिल्ली में पहले सात-आठ वर्षों तक उन्होंने क्लिष्ट शायरी लिखी जिसके भाव उनके श्रोताओं तक नहीं पहुँच पाए, और मुश्किल पसंद शायर के रूप में मशहूर हो गए.
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सन्दर्भ
1 फरवरी 1862 को मिर्ज़ा अलाउद्दीन खां ‘अलाई’ को लिखे एक पत्र में ग़ालिब ने शाबान बेग की हवेली की चर्चा की है. श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी ईलाहाबाद (1958); पृष्ठ 472.
2 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद (1963), पृष्ठ 277
3 कहीं कहीं फ़ख़रुद्दीन अली अहमद की माता रुक़ैया को लोहारु के नवाब की पुत्री बताया जाता है; फ़ख़रुद्दीन की माता नहीं उनकी नानी, उज़्ज़मानी, लोहारू के नवाब की पुत्री थी.
4 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद (1963), पृष्ठ 324
5 गुलाम हुसैन आज़ाद, आब-ए-हयात, लखनऊ (1982); पृष्ठ 487. प्रिचेट और फ़ारूक़ी के अनुवाद से, नई दिल्ली (2001)
6 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद (1958), पृष्ठ 438
7 ग़ुलाम हुसैन आज़ाद, आब-ए हयात, पृष्ठ 481
8 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी प्रयागराज (1959); पृष्ठ 163, क़ाज़ी अब्दुल जमील जुनून के नाम
9 पूर्वोक्त; पृष्ठ 439
10 पूर्वोक्त; पृष्ठ 327
11 सैफ़ महमूद, बिलवेड देलही, नई दिल्ली (2018); पृष्ठ 173. महमूद ने इस जानकारी के स्रोत नहीं दिए हैं.
12 पूर्वोक्त; पृष्ठ 170
13 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद, (1963); पृष्ठ 442
14 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद, (1958); पृष्ठ 357
15 पूर्वोक्त; पृष्ठ 366
16 रसेल और इस्लाम, ग़ालिब लाइफ़ ऐंड लेटर्स, केम्ब्रिज, मसाचुसेट्स (1969); पृष्ठ 67
17 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद, (1958); पृष्ठ 356
18 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद, (1963); पृष्ठ 54
19 ख़वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली, यादगार-ए ग़ालिब, नई दिल्ली (1886), पृष्ठ 75
20 श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद, (1958); पृष्ठ 100
21 पूर्वोक्त; पृष्ठ 459
22 पूर्वोक्त; पृष्ठ 85
23 पूर्वोक्त, पृष्ठ 321
24 पूर्वोक्त; पृष्ठ 484
सच्चिदानंद सिंह |
बहुत सुंदर लेख। इस लेख से रिलेट करना अच्छा लग रहा है। बल्लीमारान या बल्लीमारो से पुराना रिश्ता है। छुटपन में पहले यहां की गलियां, यहां के कूचे देखे। कोयले की वो टाल देखी। नाक की सीध में वो ख़ूबसूरत लड़की देखी और फिर नियति ने छोटी उम्र में ही उसी से रिश्ता क़ायम करवाया। आज बावन साल हो चुके हैं। वे मेरी शरीक़-ए-हयात हैं। अभिनेता प्राण का भी जन्म बल्लीमारान में हुआ था। सिंह साहब उम्र में दो बरस छोटे हैं। शहर-ए-देहली का का बढ़िया वर्णन। जिन बातों का बखान उन्होंने लिख कर किया है उस का काफ़ी हिस्सा आंखों देखा है, काफ़ी चीज़ें कल्पना कर के देखी हैं। बहुत बार दिल ने वल्लाह वल्लाह किया है। लिखित चीज़ों में ये सब मिल जाए तो फिर कहने ही क्या! साधुवाद। मरहबा, मरहबा!
कहाँ जाता है कि रचना की मुकम्मल समझ के लिए रचनाकार की निजी जिंदगी से बबस्ता होना ज़रूरी है.
सच्चिदानंद सिंह जी का सुलिखित आलेख ग़ालिब के बारे में हमारी समझ में इज़ाफ़ा करता है.
साधुवाद.
अत्यंत रोचक आलेख। सच्चिदानंद जी ग़ालिब के जानकार हैं। उनसे यही उम्मीद थी।
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
खुद ग़ालिब की शायरी बताती-बतियाती चलती है, ग़ालिब को कई चहेतों-चितेरों ने, मनीषियों ने अपने-अपने अंदाज़ों से पढ़ा, सुना, देखा य, लिखा चुनाँचें ग़ालिब का छोर नहीं आया वे अछोर है -अम्बर की तरह.
सच्चिदानंद सिंह ने उनके रहवास से लेकर पारिवारिक यात्रा को लिये उस जमाने की आबोहवा ,उस व्यतीत की, उस अतीत की परतों को खोलते चले गये,असंख्य क़िस्सों,जानकारियों का लेखा-जोखा को वे पठनीयता के बरकस रखते हुए आगे बढ़ते रहे.
कौतुकास्पद उनके बयानों को रसमय होते पढ़ते-बढ़ते-चलते रहे.ये प्रतीति अनोखी है.
सच्चिदानंद जी ने अथक परिश्रम से ग़ालिब-यात्रा के अनेकानेक पड़ावों और ग़ुबारों को गहराई के साथ इस आलेख में परोसा है :—-
‘होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है ‘.
सच्चिदानंद जी ने जाना और जनवाया है.
ग़ालिब का जीवन काँटों में उलझता बढ़ता रहा बहुत कुछ खोया अपने ग़मों की बारिश में भीगते रहे-लिखते रहे .सात संतानों की बिदा विदारक है. और भी कई प्रसंग संग चलते रहे.उनमें नज़ाकतें भी बेशुमार भरी थी,अपने को अलहदा मानते,परिधान भी सर्वदा अलग -थलग,कहीं भी जाते तो पालकी में चार लोगों के चार कंधों पर सवार होकर जो उनके आभिजात्यपन को दर्शाताहै उसी तरह उनके विचार किसी से मेल-मिलाप नहीं खाते थे.
वे बिलकुल परे ही रहे.
अंत मैं सच्चिदानंद जी,अरुणोदय जी को धन्यवाद के साथ इस शेर ( बब्बर ) से अपनी बात को विराम देना चाहूँगा:—
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है.
वंशी माहेश्वरी.
वाह ! नयी बातें जानने को मिली…बधाई!
ये बहुत बहुत मेहनत का काम था। ये पूरी कड़ी पढ़ी। इस मेहनत, इस लगाव, इस लगन को बहुत बहुत सलाम। मैंने जामिया के दौर में ग़ालिब की धज्जियां उड़ती देखी हैं।
मुहब्बत, लातमाम मुहब्बत ऐसे हर काम के लिए।
Sir lovely words…ghalib ko samajhna mushkil kaam h… Aasan kehne ki karte h Farmaish…Goyam mushkil vagarna Goyam mushkil..
ग़ालिब मेरे बेहद पसंदीदा रहे हैं शुरू से जब गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल बनाया था। हालांकि तब मेरी समझ उतनी नहीं थी ,आज भी कोई बहुत ख़ास नहीं है। इतना ज़रूर है कि मीठे को मीठा कह सकता हूँ और उस हिसाब से ग़ालिब की शायरी बेहद शीरीं है। ग़ालिब के शेरों में मुहब्बत के सिवा भी पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है। उनके शेर हर उस आदमी के ज़ेहन में रहते हैं जो उर्दू शायरी को थोड़ा बहुत भी जानता है। यही ग़ालिब की ख़ूबी है कि वो ज़हीन लोगों के साथ साथ आम आदमी के बीच भी घुलमिल जाते हैं। ग़ालिब की शायरी पेचीदा भी है और आसान भी, बस बात इतनी है कि जो जिसको मुफ़ीद लगता है वो उसको चुन लेता है।
आलेख उनकी ज़िन्दगी से जुड़ी बारीकियों पर है, बेशक ज़रूरी और उम्दा है।
उनके सृजन के साथ साथ जीवन को भी जानना ज़रूरी है।
बल्लीमारान एक अरसे पहले गया था, सुनता हूँ अब तो उनकी हवेली भी काफी बदल दी गई है।
वो गली वो कूचा मेरे भीतर झुरझुरी पैदा कर देता है। एक ऐसी जगह जिसे ताज़िन्दगी सहेजना चाहूँगा। अपनी ज़बान में उनके लिए कई बरसों से हर साल एक नज़्म लिखता आ रहा हूँ। मिर्ज़ा की शख़्सियत उनकी ज़िन्दगी से भी बड़ी है, उनके जैसा कोई नहीं। नमन🙏
लेखक और अरुण सर को बहुत बधाई🙏
अत्यंत सूचनाप्रद और रोचक आलेख
वाह….श्रध्दा और आस्था बगैर इतना शानदार ग़ालिब पर नहीं लिखा जा सकता। बहुत बधाई।
कल ही श्री Animesh kumar ji का ग़ालिब की नज़म “आह” पर लिखा लेख पढ़ा।आप को शेयर करता हूँ।
क्यों कि सुरैया ने गाया इसीलिए सुनते है लेकिन ग़ज़ल के अर्थों को गहराई से जाना तो साहिर, शकील बदायूं, जावेद अख्तर, कमाल अमरोही बौने लगने लगे। आह को चाहिए क्या इक उम्र असर होने तक? ग़ालिब की इस गजल का तात्पर्य क्या है?
इस ग़ज़ल की गहराई अनंत है, अथाह । जितने गहरे डूबेंगे उतने ही अच्छे मोती मिलेंगे । शुद्ध काव्यामृत का आस्वादन !!
जिन ढूंढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
कबीर का यह दोहा इस ग़ज़ल पर बिल्कुल फिट बैठता है।
मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग खान “असद’ “ग़ालिब” का नाम ,किसी परिचय का मोहताज़ नहीं हैं . प्रेम की तलाश में वे प्रेम से भी परे निकल गए।
यूँ तो प्रेम ही जिंदगी का सबसे गहरा भाव है – और जो प्रेम से भी गहरा हो उसे क्या कहेंगे ? उसके दर्शन इस ग़ज़ल की गहराई में है।
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होने तक
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता’लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक
ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
शब्दार्थ
सर होना: काबू पाना – सीधा होना
दाम: जाल
मौज: लहर
हल्का : वृत्त, फांस
सद : सौ
काम : जबड़ा
निहंग : मगरमच्छ
कतरे : पानी की एक बूँद
गुहर : मोती
सब्र-तलब: सब्र की मांग
तग़ाफ़ुल: नज़रंदाज़
परतव-ए-ख़ुर: रौशनी की किरणें
खुर : खुर्शीद का संक्षिप्त रूप = सूरज
शबनम: ओस
इनायत: मेहरबानी
बेश: ज्यादा
हस्ती: अस्तित्व , जीवन
बज़्म: महफ़िल
रक़्स-ए-शरर: अग्नि नृत्य , चिंगारी का नाच
ग़म-ए-हस्ती: जिंदगी के ग़म
जुज : सिवाय
मर्ग: मौत
सहर : सुबह
शेर दर शेर – विवेचना
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
प्यार की जो आह निकलती है – मिलन की , विसाल की , उसके असर होने के लिए एक उम्र चाहिए , लेकिन इस आह को निकालने वाले प्रेमी को इस बात का भी एहसास है कि – उसकी जिंदगी – एक ज़ुल्फ़ के सीधे होने के लम्हे – जितनी ही छोटी है।
लुब्ब-ए-लुबाब यह कि प्रेमी करे तो क्या करे . मिलन की चाहत बहुत बड़ी – पर प्रियतमा – इतनी अद्वितीय और अनूठी – कि , बिना एक उम्र की साधना के सधेगी ही नहीं ? ऐसा भी भला होता है ??
यही इस शेर की गहराई है . प्रेम की प्रपत्ति और ईश्वर की भक्ति में कोई अंतर नहीं है . सूफी दोनों को एक ही मानते हैं . इश्वर की साधना में एक उम्र लग जाती है और हकीकत में वो उम्र है कितनी छोटी . इस पूरी ग़ज़ल में सूफी दर्शन बहुत ही ज्यादा उभर के आया है। राधाकृष्णन भी गीता की टीका में यही बात लिखते हैं कि प्रपत्ति और भक्ति में कोई अंतर नहीं। राधाकृष्ण तो प्रतीक मात्र है।
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक
हर लहर की जाल में सैकड़ों मगरमच्छों के जबड़ों का फांस है – जिससे बचना नामुमकिन है , पर इन सब से जो बच के सागर के गर्भ में छुपे सीप से जो बूँद फिर भी जा मिलती है – वही मोती बन पाती है . यहाँ भी गूढ़ अर्थ यही है – परमात्मा से मिलने का रास्ता – सैकड़ों खतरों से भरा है – लोभ ,लालच, अहंकार, वासना , दौलत , शोहरत अदि सांसारिक सुख रुपी मगरमच्छों के जबड़े – उसे जकड़ – ख़त्म करने को तत्पर हैं – जो एकाध शख्स इन सब भव बाधाओं से बच निकलने में सक्षम होता है – वही आत्म साक्षात्कार रूपी मोती पाता है . प्रेम और भक्ति का ऐसा समावेश – भव बाधाओं के बीच, बरबस बिहारी के इस दोहे की याद दिला देता है
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।
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आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक
प्रेम – कहता है सब्र करो – पर तमन्ना बेताब है . इन दोनों के बीच दिल का बुरा हाल है . अगर सब्र करूँ तो जान ही निकल जाएगी . सो दिल का नियंत्रण – अब संभव नहीं
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होने तक
आशिक को महबूबा पर पूरा यकीन है कि – आशिक की बेक़रारी जान कर वो जरा भी देर नहीं करेगी , नज़रंदाज़ नहीं करेगी और फ़ौरन मिलने के लिए आएगी – लेकिन दिल की ऐसी बेक़रारी की खबर उस तक पहुचने में बहुत देर हो जाएगी और तब तक तो – जान ही निकल जाएगी .
सांसारिक रूप में क्या ऐसा संभव है ????
यहाँ भी वास्तविक तात्पर्य – परमात्मा से है – जब तक ऐसी उच्च कोटि की साधना हो – जिससे प्रभु पिघलें तब तक जान न निकल जाए .
अगले शेर में शायर उत्सर्ग होने की बात करता है।
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता’लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
(परतव-ए-ख़ुर) सूरज की रौशनी से जैसे – ओस की बूँद फ़ना (ख़त्म) हो जाती है – यही ओस की बूँद की (तालीम ) शिक्षा है , यही उसे सिखाया जाता है – सूरज की ये नरमाहट वाली गर्मी – ओस के ऊपर एक मेहरबानी है – इसी से उसका जीवन चक्र पूरा होता है . मैं भी उसकी नज़र की (गर्माहट ) की ऐसी ही मेहरबानी के होने तक ही जीवित हूँ – जैसे ही ये इनायत हुई – मैं भी फना .
यहाँ भी – परमात्मा भी – अभिप्रेरित है .
प्रेम का अभीष्ट हो या भक्ति का अभीष्ट – यह शेर – दोनों पर एक रूप – प्रभावी
यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक
जिंदगी के मज़े – एक नज़र से ज्यादा नहीं है . महफ़िल का चरम तभी है – जब , आग भी नृत्य कर उठे .ऐसा – चरमोत्कर्ष – क्षण मात्र का ही होता है .
वाकई – क्षण मात्र ही। तभी moment of realisation कहा जाता है । यह क्षण ही तो चाभी है पूरे उम्र की!
ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
(असद ) ग़ालिब कहते हैं – जिंदगी के ग़म का मौत के सिवाय क्या इलाज़ है . शमा भी जिंदगी जैसी – हर रंग में जलती है ( जैसे इंसान – ज़िंदगी के हर रंग को जीता है ) रात भर – जो उसकी पूरी उम्र है (सहर ) सुबह होने तक . बात एक रात या सौ बरस की नहीं है . बात है एक उम्र की . शमा भी एक उम्र जी कर – हर रंग में जल कर – सुबह – ख़त्म हो जाती है , फना हो जाती है .
वैसे ही मनुष्य भी इक उम्र जी कर – ख़त्म हो जाता है. वह भी शमा की माफिक ज़िन्दगी के हर रंग को जी ले।
इस बेहतरीन ग़ज़ल को सुरैय्या की आवाज़ मे फ़िल्माकर चार चांद लगा