अंधेरे दौर का एक उजला दस्तावेज़
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पता नहीं यह गफलत कैसे हुई, पर मैं फरीद खां की नई पुस्तक ‘अपनों के बीच अजनबी’ को कविता संकलन मान बैठा था. शायद इसलिए कि उनका जो पहला रूप मेरे सामने आया, वह कवि का ही था, जो मुझे काफी पसंद भी था और यह भी कि उनके अन्य रूपों से मैं तब तक लगभग अनजान था. बहरहाल, ऑर्डर बुक करने के बाद मैं यह सोच रहा था कि किताब आ जाए तो उनकी नई, अपठित कविताओं का आनंद लूंगा. इस लिहाज से, पुस्तक मेरे हाथों में आई तो पहली प्रतिक्रिया हल्की निराशा मिश्रित आश्चर्य की रही कि अरे इसमें कविताएं तो हैं नहीं. मगर जब उलटते-पलटते हुए किताब के पीछे की अवधारणा से परिचय हुआ तो लगा कि इतना जरूरी, इतना महत्वपूर्ण और आज की तारीख में इतना जोखिम भरा काम वाम प्रकाशन ही कर सकता है. और, उसके लिए फरीद खां का चयन! संजय कुंदन जैसे कवि संपादक से ही इसकी उम्मीद की जा सकती है.
किताब की कामयाबी ही कहेंगे कि इसके पन्ने पलटते हुए जैसे-जैसे इसके अंदर उतरते हैं, मौजूदा दौर का अंधेरा हमारे अंदर भी उतरने लगता है. जैसे कमरे का अंधेरा आंखों में उतर आए तो फिर आंखें अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो जाती हैं और हमें कमरे के अंदर की स्थिति साफ नजर आने लगती है, कुछ वैसे ही किताब के जरिए हमारे अंदर उतरा अंधेरा इस अंधेरे दौर की सचाइयों को समझने में हमारी मदद करता है. आजादी के बाद से ही लोकतांत्रिक समाज के रूप में अपनी संस्कृति के उदार मूल्यों को सीने से लगाए आगे बढ़ते हुए कहां तो हम दुनिया के लिए मिसाल बने हुए थे और कहां ‘विश्वगुरु’ बनने का सब्जबाग दिखाते हुए हमें ऐसी अंधेरी सुरंग में घुसा दिया गया जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं दिखता. किताब हमें किसी तरह की गफलत में नहीं रहने देती. किसी भ्रम, किसी खुशफहमी के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ती. पूरी गंभीरता से, पूरे तीखेपन से अहसास कराती है कि यह ऐसा कठिन दौर है जिसमें हम खुद ही खुद के दुश्मन बने बैठे हैं. हमारे सारे रिश्ते-नाते, यार-दोस्त- सब इसकी भेंट चढ़ते जा रहे हैं.
किताब में एक मुस्लिम मन पाठकों के सामने खुद को खोलता है और उस पर लगे तमाम जख्म सामने आते हैं. उसकी आशंकाएं, उसके डर, उसका असुरक्षा बोध सब पाठक की आंखों के सामने आता रहता है और उसके दिल को भी छीलता चलता है थोड़ा-थोड़ा.
सांप्रदायिकता पर बहस अपने देश में होती रही है, आज भी हो ही रही है, लेकिन आज यह बहस काफी हद तक निरर्थक लगने लगी है तो इसकी एक बड़ी वजह यह है कि इस बहस में निहित वैचारिकता ने आम लोगों के मन तक पहुंचने की अपनी क्षमता जैसे खो दी है. सोशल मीडिया की ट्रोल आर्मी और उसके प्रभाव में आकंठ डूबे लोगों को तो छोड़िए, जिसे हम रीयल वर्ल्ड कहते हैं वहां भी, अपने घरों के अंदर और बाहर, मित्रों, पड़ोसियों और नाते-रिश्तेदारों के बीच भी, आप चाहे कितनी भी तीखी बहस कर लें, कैसी भी दलीलें देकर सामने वालों को निरुत्तर करने की कोशिश करें, ऐसा नहीं कर पाते. अपनी हर दलील दे चुकने के बाद भी धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार खुद को ठीक वहीं पाते हैं जहां बहस की शुरुआत में थे. सामने वाले पक्ष से उसी तीव्रता के साथ वही बातें, वही आरोप, वही सवाल फिर-फिर आते रहते हैं… दिनो, हफ्तों, महीनों. ऐसा लगता है कि सांप्रदायिक सोच की गिरफ्त में पहुंच चुके लोगों के अंदर ये बातें जाती ही नहीं. उनके कानों से टकरा कर लौट आती हैं, मन- मस्तिष्क के अंदर पहुंचती ही नहीं.
किताब में इस समस्या का अच्छा तोड़ निकाला गया है और यही इसकी सबसे बड़ी खासियत भी है. सांप्रदायिकता से जुड़ी मूल बहस को यह वैचारिकता के जरिए नहीं बल्कि संवेदना के माध्यम से पाठकों के मन तक ले जाती है. और, यह काम कितने सशक्त, कितने प्रभावी ढंग से करती है इसका अहसास आपको पहले पन्ने के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ही हो जाता है. इसमें लेखक ने 11 जुलाई 2006 को मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट के बाद की एक दहशत भरी रात का जिक्र किया है कि कैसे अखबारों के जरिए उसे मालूम हो चुका था कि पुलिस पास के मुस्लिम बहुल मालवाणी इलाके से लड़कों को उठा रही थी. उन्हें दो-तीन दिन हिरासत में रखकर छोड़ दिया जा रहा था लेकिन सहज कल्पना की जा सकती है कि वे दो-तीन दिन उन युवकों के लिए कैसे भयावह होते होंगे. ऐसे में एक रात करीब दो बजे किसी परिचित ने एक अनजान नंबर से कॉल किया (क्योंकि जाहिर है, वह नहीं चाहता था कि लेखक की फोन कॉल हिस्ट्री में उसका नंबर दर्ज हो) और बताया कि उसके साथ रहने वाले एक मुस्लिम मित्र से पूछताछ करने पुलिस आई थी और अब उन्हें (लेखक को) सावधान रहना चाहिए क्योंकि पुलिस वहां भी आती होगी. उस रात के अपने अकेलेपन का, मन में बैठे खौफ का और दहशत के बीच आई नींद में दिखे भीषण दु:स्वप्न का जैसा सजीव वर्णन लेखक ने किया है, वह किसी भी सामान्य, संवेदनशील इंसान को भीतर तक झकझोर सकता है. यह शुरुआती झटका एक आम पाठक की संवेदनाओं पर जमी उस धूल-धक्कड़ को कुछ हद तक झाड़ने का भी काम कर देता है जो आज के सांप्रदायिक माहौल में सोशल मीडिया के जरिए या अन्य स्रोतों से आकर अनजाने ही बैठती रहती है. इसके बाद पाठक पुस्तक के आगे के पन्नों पर दर्ज आज के दौर के इतिहास को पढ़ने, समझने और उसकी गंभीरता को महसूस करने की बेहतर मन:स्थिति में होता है.
किताब अनायास ही आपको समझाती है कि अल्पसंख्यक समुदाय पर बनाए गए जिन चुटकुलों को सुनकर आप बेसाख्ता हंस पड़ते हैं और उसे अपने सेंस ऑफ ह्यूमर का सबूत मानते हैं, वे दरअसल इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं कि आप एक इंसान के रूप में अधूरे हैं, कि आपकी संवेदनाएं भोथरी हैं कि आप अपने ही समाज के एक हिस्से से इस कदर कटे हुए हैं कि उसका सुख-दुख ही नहीं उसकी इंसानी गरिमा से जुड़े सवाल भी आपको विचलित नहीं करते. वाट्सएप नेटवर्क से फैले जिन तर्कों और दलीलों को आप अकाट्य मानते हैं, वे कितने बचकाने हैं और कैसे उनकी धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं, यह बात पुस्तक में तमाम उदाहरणों के साथ समझाई गई है.
आज के माहौल में एक समझदार, जागरूक और जिम्मेदार मुस्लिम नागरिक किस-किस तरह के अपमान चूं किए बगैर झेलता रहता है, किस तरह तगड़े तर्कों से लैस होते हुए भी बहस में चुप होकर हार स्वीकार कर लेता है और कैसे आसपास मौजूद ‘अपनों’ को ‘सांप्रदायिक सुख’ लेने देकर अपने और परिवार के लिए सुरक्षा की गुंजाइश बनाता है, पुस्तक इसके रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरणों से भरी हुई है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि लेखक या लेखक के रूप में उपस्थित हुआ मुस्लिम मन किसी भी अर्थ में निरीह या बेचारा है. परिस्थितियां प्रतिकूल जरूर हो गई हैं, जिस परिवेश में वह अब तक पला-बढ़ा है वह पूरी तरह से बदल चुका है, जिस तरह के माहौल का वादा आजादी के बाद से ही उससे किया जा रहा था वह हवा हो चुका है, जिन अधिकारों की गांरटी उसे इस देश के संविधान ने दे रखी है, वे कब के लुप्त हो चुके हैं- इन सबसे वह हैरान-परेशान है, अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह इन सबके पीछे काम कर रही ताकतों को पहचानता नहीं. उनकी ताकत और कमजोरियों से, उनकी साजिशों और उन साजिशों के पीछे छुपे मकसदों से वह अच्छी तरह वाकिफ है. अगर बराबरी की जमीन पर इन तत्वों से मुकाबला करना हो तो वह इन्हें अच्छी पटकनी दे सकता है, अपने जवाबी तर्कों से इनके कुतर्कों की चिंदियां बिखेर सकता है, लेकिन उसे मालूम है कि बराबरी की वह जमीन छिन चुकी है. इसलिए, सिर्फ इसलिए, वह उनसे उलझता नहीं, उनकी बातें सुनकर अनसुनी कर देता है. मुंह से कुछ नहीं बोलता. हालांकि सोचना नहीं छोड़ता. लड़ाई से भागता नहीं. यह लड़ाई वह लड़ता है लेकिन मन ही मन. मन में उस बहस को पूरा करता है जो प्रकट रूप में एकतरफा ढंग से सामने वाले की जीत के रूप में समाप्त हो चुकी है. मन में वह जो कुछ सोचता है, जो जवाब इन लोगों के तर्कों का देता है, वह इस किताब में व्यक्त हुआ है और बताता है कि उन सांप्रदायिक तत्वों की ऊपर से दिख रही जीत कितनी खोखली है. इस लिहाज से यह पुस्तक उन सब लोगों को आश्वस्त करती है जो मौजूदा सूरते हाल से चिंतित हैं. जो अमनपसंद होने के साथ ही इंसाफपसंद भी हैं. यह पुस्तक उन सबको तर्कों और तथ्यों का जखीरा भेंट करती है कि लो, इसे अपने पास सुरक्षित रख लो, जब सही मौका दिखे इनका अच्छा इस्तेमाल करो और अपने चारों तरफ की धुंध को साफ भले न कर सको, मगर उसे इतना न बढ़ने दो कि तु्म्हारी हस्ती ही गुम हो जाए.
यहां एक स्पष्टीकरण की जरूरत है. ऊपर कहा गया है कि पुस्तक में सांप्रदायिकता की बहस को पाठकों के मन तक पहुंचाने के लिए वैचारिकता के बजाय संवेदना का सहारा लिया गया है. यह बात सही है, लेकिन इसका मतलब कहीं से भी यह नहीं है कि बहस के वैचारिक पक्ष को अनदेखा किया गया है या उसे कम अहमियत दी गई है. पुस्तक में संवेदना आगे आगे चलती है, पाठकों के मन तक पहुंचने की राह खोलती हुई बढ़ती है, लेकिन उसके पीछे वैचारिकता भी पूरी गंभीरता के साथ चलती है और इस लड़ाई में अपनी अहम भूमिका निभाती है. तभी यह संभव हुआ है कि लेखक ने इस पुस्तक में सांप्रदायिकता की कथित वैचारिकी को प्रभावी ढंग से ध्वस्त किया है. स्पष्ट बताया है कि कैसे सांप्रदायिकता सिर्फ क्रूर नहीं होती बल्कि यह हास्यास्पद भी होती है और यह एक साथ क्रूर और हास्यास्पद दोनों हो सकती है, ज्यादातर समय होती है. दर्जनों अलग-अलग और दिलचस्प उदाहरणों के जरिए पाठकों के सामने चित्रित किया गया है कि कैसे सांप्रदायिकता हास्यास्पद होते हुए भी अपने प्रभाव में हद दर्जे की क्रूरता लिए हुए है.
यह लेखक का वैचारिक सामर्थ्य ही है जो पुस्तक में सांप्रदायिकता को उसके मुस्लिम विरोधी स्वरूप तक सीमित नहीं रहने देता. पुस्तक में व्यक्त मुस्लिम मन खुद को 84 के सिख विरोधी दंगों के सहारे सिखों के मन से भी जोड़ता है, उसे भी प्रभावी अभिव्यक्ति देता है.
मुस्लिम और अन्य धर्मों की सांप्रदायिकता या उसमें निहित अवसरवाद को भी बेनकाब करने का मौका नहीं छोड़ता. इस वजह से पुस्तक में सांप्रदायिकता का विमर्श ज्यादा व्यापक हो सका है, ज्यादा विस्तार पा सका है.
पुस्तक यह बात भी अच्छी तरह रेखांकित करती है कि सांप्रदायकिता कभी अकेली नहीं होती. ऐसा मनुष्यविरोधी भाव कभी अकेला नहीं हो सकता. वह अगर समाज में किसी अल्पसंख्यक समूह के खिलाफ नफरत की लगातार सप्लाई कर सकता है, उसके खिलाफ अमानवीयता की सभी हदें पार कर सकता है तो अन्य मामलों में इंसाफपसंद बना नहीं रह सकता. ऐसी नफरत पालने के लिए जिस तरह के दिमाग और जिस तरह की मनोदशा जरूरी है, उसमें सभी संकीर्णताएं, सभी नीचताएं अपने आप समा जाती हैं. तो ऐसा सांप्रदायिक दिलो-दिमाग इतना अहंकारी, ऐसा वर्चस्ववादी होता है कि उससे संतुलित सोच की तो उम्मीद ही नहीं की जा सकती. लिहाजा, वह न केवल जातिवादी होता है बल्कि आले दर्जे का पुरुषवादी भी होता है. यानी जिन सांप्रदायिक तत्वों से मुस्लिम को खतरा माना जा रहा है, उन्हीं से दलितों, आदिवासियों, महिलाओं आदि तमाम कमजोर तबकों को भी उतना ही खतरा है. जाहिर है, इन सांप्रदायिक तत्वों के प्रभाव वाली सरकार में कोई भी खुद को सुरक्षित मानकर नहीं चल सकता. खासकर वे सारे लोग जो औचित्य के तर्क से चलते हैं, न्याय अन्याय की चिंता करते हैं, हमेशा इसके निशाने पर रहते हैं. यही वजह है कि इन शक्तियों के राज में अखलाक की लिंचिंग होती है तो उस कांड की सही ढंग से जांच करके दोषियों को सजा दिलाने की जिद पर अड़ा इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह भी मारा जाता है. इसके बावजूद कि वह उसी बहुसंख्यक समुदाय का है जिसकी आन बान और शान के नाम पर सारे धतकरम किए जा रहे हैं.
यह सब इस पुस्तक में प्रभावी ढंग से व्यक्त हो पाया है तो उसकी वजह यह भी है कि जो मुस्लिम मन इस पुस्तक में खुलता है पाठकों के सामने, वह केवल मुस्लिम नहीं है. वह कला, संस्कृति, मनुष्यता और विचार की समूची थाती को आत्मसात किए बैठा एक संपूर्ण भारतीय मन है जो संयोग से मुस्लिम भी है. स्वाभाविक ही भारतीय समाज में पला-बढ़ा कोई भी मन उससे सहज जुड़ाव महसूस करता है और उसके अनुभवों की रोशनी में यह देख पाता है कि कैसे उसकी विडंबनाएं सिर्फ उसकी नहीं पूरे भारतीय समाज की, इस विशाल संस्कृति की, हमारी संपूर्ण विरासत की विंडबना हैं.
पुस्तक के शुरू में ही भूमिका के रूप में मौजूद हमारे दौर के उम्दा अभिनेता नसीरुद्दीन शाह का बयान न केवल पुस्तक की विषयवस्तु को स्पष्ट कर देता है बल्कि पुस्तक की गुणवत्ता में, इसकी उपयोगिता में इजाफा करता है, इसे और कीमती बनाता है.
कुल मिलाकर, मात्र 162 पन्नों की यह पतली सी किताब हमारे दौर का एक अहम दस्तावेज है. जब भी यह दौर बीतेगा, तो इतिहास और वर्तमान से सचाई के सबूत छुपाने और मिटाने की हर संभव कोशिश करते मौजूदा निजाम की करतूतों की पोल खोलने, उसे परत-दर-परत उघाड़ने वाली जो चंद यादगार चीजें होंगी उनमें एक यह किताब भी होगी. तब शायद इसे ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ा जाएगा. लेकिन वह आने वाला दौर तो जब आएगा तब आएगा. आज भी यह किताब कम उपयोगी नहीं है. मैं चाहूंगा, यह किताब एक-एक व्यक्ति तक पहुंचे और वह इसे पढ़े. बहुत संभव है कि यह किताब ही उसे कगार पर से चंद कदम पीछे खींच लाए और उसके साथ ही, एक समाज के रूप में हम सबके बचने की संभावना थोड़ी मजबूत हो जाए.
प्रणव प्रियदर्शी सम्प्रति |
‘सांप्रदायिकता सिर्फ़ क्रूर ही नहीं होती बल्कि हास्यास्पद भी होती है’ । यह पंक्ति इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जो साधारण व्यक्ति महसूस करता है इस पंक्ति में समाया गया है । प्रणव प्रियदर्शी की एक-एक पंक्ति सार्थक है ।
पुस्तक पढ़ी
हाल की सभी महत्वपूर्ण सांप्रदायिक घटनाओं के पीछे की साजिश का खुलासा किया गया है।