कथक नृत्यांगना पंखुड़ी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत |
1.
आप दुबई और गयाना में कथक शिक्षिका और नृत्यांगना या यूँ कहें कि भारत की ओर से बतौर सांस्कृतिक प्रतिनिधि कार्यरत रहीं हैं. भारत और विदेशों में कथक की कार्यप्रणाली और शिक्षण प्रणाली में क्या फ़र्क़ पाया आपने ?
मैं दुबई गुरुकुल में भी कार्यरत रहीं हूँ और गयाना में भारत के उच्चायोग की तरफ से स्वामी विवेकानंद सांस्कृतिक केंद्र में बतौर कथक शिक्षिका एवं नृत्यांगना कार्यरत रही और इन दोनों देशों में मेरी कार्यविधि २००८-२०२० तक थी. ये दोनों देश सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से बिलकुल भिन्न हैं. दुबई जहाँ पूर्णतः इस्लामिक देश है वहीं गयाना कई संस्कृतियों के सम्मिश्रण से मिलकर बना है. गयाना ६ प्रकार की प्रजातियों (RACES) अफ्रीकी, भारतीय, एफ्रो इंडियन, अमेर इंडियन, गायनीज़ इत्यादि लोगों से मिलकर बना हुआ है. वहां की संस्कृति बहु-सांस्कृतिक है.
गयाना में भारत की लोक परंपरा ज़्यादा देखने को मिलती है जिसमें यूपी, बिहार की संस्कृति प्रमुखता से दृष्टिगोचर होती है. वहां बसे प्रवासी मजदूरों ने अपनी संस्कृति को संभालकर रखा है जिससे चटनी एवं सोका संगीत विकसित हुआ जिसमें भोजपुरी और पाश्चात्य का मेडली या कॉम्बिनेशन कह सकते हैं आप जिसमें कभी-कभी अफ्रीकन ड्रम्स का भी इस्तेमाल दिखता है.
कथक वेद, पुराण, महाभारत पर आधारित है. कथक एक ऐसी भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा है जो धार्मिक और पौराणिक आख्यानों पर आधारित है पर दुबई में अपनी प्रस्तुति के लिए समकालीन विषय चुनने पड़ते हैं और इसीलिए दुबई में कथक का प्रदर्शन एब्स्ट्रैक्ट हो जाता है.
दुबई में समकालीन विषयों को चुनने के साथ ही उसमें कथक के तकनीकी पक्ष का उपयोग ज़्यादा करना पड़ता है जैसे- टुकड़ा, तिहाई, चक्कर, परण इत्यादि. दुबई में अगर हम शिक्षण प्रणाली की बात करें तो भारत की तुलना में कथक की शिक्षण प्रणाली ज़्यादा सुगठित और ढांचागत है. वहां पर एक सांस्थानिक व्यवस्था के तहत कथक के अकादमिक संस्थापना की बात है ताकि भविष्य में कथक की शिक्षण प्रणाली को एक वैश्विक परिदृश्य में देखा और बरता जा सके.
जहाँ तक गयाना में कथक प्रस्तुति और शिक्षण प्रणाली की बात है वह बिलकुल भिन्न है. कई प्रजातियों के सम्मिश्रण का प्रभाव वहां की कथक प्रस्तुतियों पर भी देखने को मिलता है इसलिए वहां की कथक प्रस्तुतियों में लोकरंजकता (चटनी और सोका संगीत का प्रभाव) और विभिन्न पाश्चात्य, अफ़्रीकी ड्रम्स और संगीत का सम्मिश्रण कथक के साथ होता है और गयाना में बॉलीवुड संगीत की बहुत मांग है इसलिए वहां की कथक प्रस्तुतियों में कथक को उसके शुद्ध स्वरूप में न बरतकर बॉलीवुड गीतों के साथ या सहायता के द्वारा कथक के प्रस्तुतीकरण को प्रभावशाली बनाया जाता है.
भाषा की विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए कभी-कभी विषयवस्तु के प्रदर्शन के लिए अंग्रेजी, पाश्चात्य और अफ्रीकी संगीत का भी इस्तेमाल करना पड़ता है. यद्यपि भारत से आये प्रतिष्ठित कलाकारों द्वारा की गई शुद्ध कथक प्रस्तुति को भी वहां के लोग समझते हैं. कथक की शिक्षण प्रणाली को प्रभावशाली बनाये रखने के लिए भारत के उच्चायोग तथा भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् के सान्निध्य में स्वामी विवेकानंद सांस्कृतिक केंद्र के माध्यम से विगत ५० वर्षों से भी अधिक अवधि से कथक की संस्थागत शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है.
मैं भाग्यशाली रही हूँ कि वर्ष २०१८-२० की अवधि में कथक के माध्यम से सांस्कृतिक सेवा प्रदान करने का सुअवसर भारत सरकार ने मुझे दिया. गयाना में कथक के प्रदर्शन और शिक्षण प्रणाली में बख़ूबी भारतीय शैली और गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह किया जाता है तथा पौराणिक और धार्मिक विषयवस्तु को संजोते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है. अतः आप देखेंगे कि किसी भी कला पर किसी समाज के क्षेत्र विशेष का तथा उसके सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश का प्रभाव पड़ता है.
२.
गयाना में आप भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् (आईसीसीआर) की तरफ से नियुक्त थीं जो लगभग सरकारी सिस्टम है. गयाना की कार्यप्रणाली दुबई की कार्यप्रणाली से कैसे भिन्न लगी आपको ?
दुबई में हमें कथक को बहुत स्ट्रक्चर्ड और फॉर्मेट में रखना पड़ता है. दुबई में भारतीय समुदाय बहुत बड़ा है और दुबई की संस्कृति और जीवन शैली कॉस्मोपॉलिटन है. अगर आप कोई पौराणिक विषय उठाते हैं तो आपको उसकी प्रस्तुति ऐसी तैयार करनी होगी जो दर्शकों को अपील कर सके. दुबई में जो चुनौतियां हैं वो प्रस्तुति के विषयवस्तु को लेकर हैं. हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि हम क्या विषय चुनें जो वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के समुचित हो. सबसे खास बात यह है कि २०१४ से अबतक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य का प्रचार-प्रसार बहुत ज़ोरों पर हुआ है कारण यह है कि भौगोलिक रूप से दुबई भारत से बहुत पास है जिस वजह से शास्त्रीय नृत्य और संगीत से जुड़े संसाधनों को जुटाना आसान है जबकि गयाना की कार्यप्रणाली ऐसी है कि वहां अपनी प्रस्तुति में यह ध्यान रखना पड़ता है कि वहां के बहुसांस्कृतिक सामाजिक परिदृश्य को हम साथ लेकर चलें. जैसे मेरी एक प्रस्तुति (नृत्य संरचना) है ‘समन्वय’ जो कैरेबियन नृत्य, अफ्रीकी नृत्य, कथक इन सबका समन्वय है. इसे गयाना में बहुत सराहा गया क्योंकि यह एक बहुसांस्कृतिक प्रस्तुति थी.
गयाना में चुनौती विषयवस्तु नहीं शिक्षण है. गयाना में हिन्दीभाषी लोग कम हैं और कथक का टेक्स्ट या कंटेंट अधिकतर हिंदी या संस्कृत में होता है. गयाना में ज़्यादातर लोग अंग्रेजी या क्रायोलीज़ बोलने वाले हैं या गायनीज़ तो उसकी वजह से हमारी जो कथक की पारम्परिक शिक्षा है उसे भी हमें अंग्रेजी में सिम्प्लीफाई करना पड़ता है.
दूसरी बड़ी चुनौती यह है कि शास्त्रीय नृत्य परंपरा के संसाधनों को गयाना में जुटाना बहुत मुश्किल है क्योंकि गयाना भौगोलिक रूप से भारत से बहुत दूर है और इसीलिए आप अगर गयाना में कथक की प्रस्तुति को देखें तो वह बॉलीवुड आधारित होता है क्योंकि कथक के पारम्परिक वाद्ययंत्रों यथा सारंगी, तबला, पखावज, सितार ये सब वहां न के बराबर उपलब्ध हैं और इन्हें वहां जुटाना भी बहुत मुश्किल है. यही कारण है कि गयाना में किसी भी शास्त्रीय नृत्य की सजीव प्रस्तुति बहुत कम या न के बराबर देखने को मिलती है.
3.
गयाना का चटनी म्यूजिक विश्वविख्यात है तो क्या उस चटनी म्यूजिक पर कथक का या वहां के कथक नृत्य पर उस चटनी म्यूजिक की छाप है ? कथक का संगीत या कथक के बोल और चटनी संगीत क्या एक-दूसरे को प्रभावित करता है ?
कथक और चटनी म्यूजिक में कोई साम्य नहीं है. कथक में शास्त्रीयता है और चटनी म्यूजिक में यूपी, बिहार के लोकसंगीत के तत्व हैं. साथ ही, चटनी म्यूजिक में कैरेबियन म्यूजिक के ड्रम का इस्तेमाल होता है तो कथक और चटनी म्यूजिक में समानता या साम्यता की दूर-दूर तक कोई गुंजाइश या संभावना नहीं है और जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कथक शास्त्रीय नृत्य है तो शास्त्रीय नृत्य में उसके शास्त्रीयता और सिद्धान्त को बरतना अनिवार्य है. चटनी और कथक को लेकर प्रयोग की संभावनाएं बहुत कम हैं फिर भी प्रयास तो किया ही जा सकता है. चटनी म्यूजिक में भाषा की विविधता की वजह से भी उसका कथक से कोई सामंजस्य नहीं बैठता क्योंकि चटनी म्यूजिक में भोजपुरी, गायनीज़ और क्रायोलीज़ भाषा की प्रधानता है.
4.
दुबई का अरेबियन संगीत और कथक एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं क्या ?
नहीं, बिलकुल नहीं. प्रभावित तो नहीं करते क्योंकि अरेबियन म्यूजिक सेल्फ़ क्रिएटेड तो है नहीं. कथक पर अरेबियन म्यूजिक का कोई ख़ास प्रभाव है नहीं परन्तु वर्षों से इस्लामिक सभ्यता-संस्कृति कथक के संगीत, साहित्य, वस्त्राभूषण तथा मंच सज्जा को प्रभावित करती रही है. अगर आप कथक को मुग़ल काल के दौर में देखें तो बख़ूबी समझ सकते हैं कि किस प्रकार इस्लामिक सभ्यता-संस्कृति ने कथक को प्रभावित किया.
5.
आपने अपनी यात्रा बिहार से शुरू की, फिर आप दिल्ली गईं और उसके बाद देश-विदेश तक कथक को लेकर गईं पिछले कुछ वर्षों से आप पुनः बिहार में हैं. अपने बचपन और युवावस्था के बिहार (जब आप पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर से नृत्य की विधिवत शिक्षा ले रही थीं) और आज के बिहार के सांस्कृतिक परिदृश्य में आप क्या फ़र्क पाती हैं ?
मैं अपने बचपन से अभी तक का सफर देखूं तो बिहार में लगभग २५ से ३० साल का सांस्कृतिक दौर मैंने देखा है. आज से २०-२५ साल पहले की चुनौतियां और संघर्ष अलग थे और वर्तमान में चुनौतियों और संघर्ष का स्वरूप कुछ अलग है. दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि बिहार में शास्त्रीय नृत्य की परंपरा अभी भी बहुत समृद्ध नहीं हो पाई है. प्रयास जारी है, भविष्य में शायद हम सांस्कृतिक तौर पर बेहतर बिहार देख पाएं.
सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में अगर हम २०-२५ साल पहले जाएँ और खुद को मैं देखूं तो पाती हूँ कि जब मैंने निर्णय लिया था कि कथक को ही मुझे अपना प्रोफेशन बनाना है, व्यावसायिक तौर पर लेना है तब हर और एक समवेत स्वर था कि इसमें क्या भविष्य है? बेटी डांसर बनेगी तो शादी कौन करेगा ?
आज मैं एक कथक नृत्यांगना के तौर पर देश-विदेश में काम करके एक लम्बी अवधि तय कर चुकी हूँ और वापस लौटने पर मालूम हुआ कि आज भी नृत्य और संगीत बिहार में मेनस्ट्रीम में नहीं है, मुख्यधारा में नहीं है चाहे हम शिक्षा की बात करें या व्यवसाय की. आज भी कला संस्कृति को हाशिये पर ही रखा गया है. एक कलाकार को अपनी कला यात्रा के संघर्ष को खुद ही सशक्त तौर पर लेना पड़ता है. आज भी परिवार और समाज से सहयोग के लिए, सपोर्ट के लिए कलाकार को जूझना पड़ता है. ज़रूरत है पारिवारिक और सामाजिक परिदृश्य में बदलाव की ताकि हम कला-संस्कृति, नृत्य-संगीत सभी को शिक्षा और व्यवसाय के सशक्त माध्यम के रूप में अपना सकें.
6.
कोविड लॉकडाउन के दौरान कला को नॉन-एसेंशियल कैटेगरी में डाला गया था. इसके कारण और प्रभाव पर आपके क्या विचार हैं ?
कोविड लॉकडाउन के दौरान जब कला को नॉन-एसेंशियल कैटेगरी में डाला गया था वह उस वक़्त की मांग थी पर मेरा यह मानना है कि कला और संस्कृति कभी भी गैर-ज़रूरी नहीं है समाज के लिए क्योंकि कला और संस्कृति समाज को एक सशक्त आधार और मजबूती प्रदान करती है. जहाँ तक हम कोविड लॉकडाउन की बात करें उस समय में हम पाते हैं कि काल और मृत्यु का तांडव अपने चरम पर था जबकि किसी भी प्रकार की कला अपने आप में उत्सव है. अगर हम मानवीय संवेदनाओं को ध्यान में रखकर देखें तो मृत्यु और उत्सव एकसाथ संभव नहीं है. परन्तु कला ही जिनका व्यवसाय है और जीविकोपार्जन का साधन है उनके लिए वह दौर बहुत मुश्किल था. रोज़गार की सारी संभावनाएं बंद हो चुकी थीं. उस दुखद दौर में कलाकारों ने एक-दूसरे को मानसिक, आर्थिक सम्बल दिया. दूसरी ओर कला जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला और वह था टेक्नोलॉजी का उपयोग. कलाकारों ने लाइव प्रस्तुतियां देनी शुरू कीं, लाइव क्लासेज़ शुरू हो गए क्योंकि जीविकोपार्जन बंदकर बैठना लम्बी अवधि तक संभव नहीं था अतः सम्पूर्ण कला जगत ने तकनीक का प्रयोग किया जो भविष्य के लिए वरदान है.
7.
बॉलीवुड कथक का पारम्परिक कथक पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
परंपरागत कथक नृत्य शैली सांस्कृतिक धरोहर है और हर कथक कलाकार की यह ज़िम्मेदारी है कि बॉलीवुड कथक के नाम पर कथक की शास्त्रीयता को आघात न पहुंचाएं. कथक अपने आप में नृत्य का एक सशक्त स्वरूप है इसलिए बॉलीवुड कथक जैसे कांसेप्ट की संभावनाएं एक कथक कलाकार की ज़िम्मेदारियों से उसे मीलों दूर ले जाती हैं.
8.
कथक गुरु-शिष्य परंपरा बनाम सांस्थानिक शिक्षा पर आपके क्या विचार हैं ?
गुरु-शिष्य परंपरा और संस्थागत शिक्षा दोनों ही अपने आप में महत्वपूर्ण है. गुरु-शिष्य परंपरा सदियों से भारत में चली आ रही है. यह गुरुमुखी परंपरा रही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है. जो भी कंटेंट होता है जो गुरु बोलते हैं या जो हम सुनते हैं उसी का हम अनुकरण करते हैं. गुरु-शिष्य परंपरा शिक्षा की मौखिक प्रणाली है जैसे कथक के टुकड़े, तिहाई जो गुरु बोलते हैं उसे हम सुनकर ही सीखते हैं और आत्मसात करते हैं. वह लिखित रूप में पहले उपलब्ध नहीं था (अब तो उपलब्ध है) इसलिए गुरु की वाणी द्वारा ही नृत्य का ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता था. गुरुमुखी परंपरा कहने का तात्पर्य ही यही है कि पाठ्यक्रम अथवा विषयवस्तु से जुड़ीं बातें, सारा ज्ञान गुरु से शिष्य को मौखिक तौर पर दिया जाता था और यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता था. हम भी अपने शिष्यों को वैसे ही सिखा रहे हैं जैसे हमें हमारे गुरु ने सिखाया है और गुरु-शिष्य परंपरा में अकादमिक गुणवत्ता के साथ-साथ गुरु अपने शिष्यों को सफल जीवन शैली के लिए एक मिशन और विज़न भी देते हैं, दुनिया को देखने का व्यावहारिक ज्ञान भी देते हैं, एक व्यावहारिक नजरिया भी देते हैं.
समय के बदलाव के साथ जीवनशैली बदल गयी. जीवन की गति बहुत ही द्रुत हो गया. इसी वजह से कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी संस्थागत शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ. आज के समय में संस्थागत शिक्षा का महत्त्व है उससे हम खुद को अलग नहीं रख सकते क्योंकि यह समय की मांग है. यद्यपि, गुरु-शिष्य परंपरा के तहत शिक्षण-प्रणाली एक सम्पूर्ण जीवन यात्रा है अपने गुरु के सान्निध्य में.
9.
नृत्य के क्षेत्र में रोज़गार की क्या संभावनाएं हैं?
नृत्य अपरंपरागत व्यवसाय है. इस विधा से सम्बंधित रोज़गार की संभावनाएं सीमित हैं लेकिन वर्तमान समय में भारत और भारत से बाहर शास्त्रीय नृत्य शैलियों से सम्बंधित असंख्य संस्थान, स्कूल और कॉलेज हैं जहाँ पर नृत्य से सम्बंधित रोज़गार की व्यवस्था है. इसके अलावा भारत में संस्कृति मंत्रालय, संगीत नाटक अकादेमी, भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् (आईसीसीआर), दूरदर्शन, कथक केंद्र, सीसीआरटी तथा स्पिक मैके के माध्यम से कलाकारों के लिए रोज़गार की संभावनाएं बढ़ीं हैं. अगर आप अपनी कला में दक्ष हैं तो अपने लिए स्वरोजगार भी उत्पन्न कर सकते हैं.
विभिन्न राज्यों में राज्य स्तर पर बहुत से कलात्मक और सांस्कृतिक कार्य हो रहे हैं जिनमें उस राज्य विशेष के कलाकारों को उच्च पारिश्रमिक पर उन कार्यों के लिए बहाल किया जाता है. इसके अलावा नृत्य और संगीत कोटा पर रेलवे में और कई अन्य सरकारी संस्थानों और क्षेत्रों में भी नौकरी मिलती है.
बच्चे यदि नृत्य या संगीत में अपना करियर बनाना चाहते हैं तो उनका मार्गदर्शन करना चाहिए. उन्हें नृत्य, संगीत या कला की जिस भी विधा में वे जाना चाहता है उसका विधिवत प्रशिक्षण दिलवाना चाहिए. ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैं खुद एक गैर-सांगीतिक परिवार से आती हूँ. यहाँ तक की यात्रा करने में मुझे भी जानकारी के अभाव में अथक परिश्रम करना पड़ा. हमारे पास कोई बना-बनाया प्लेटफोर्म नहीं था जिसपर हम दौड़ पड़ते. मैंने यहाँ तक पहुंचने के लिए अपना प्लेटफार्म खुद तैयार किया है.
नृत्य और संगीत के रियलिटी शो से भारत में नृत्य और संगीत के क्षेत्र में जागरूकता आई है लेकिन उन प्लेटफार्मों में भी शास्त्रीय नृत्य शैलियों का शुद्ध रूप देखने को बहुत कम मिलता है. कई फ़िल्मकार इन दिनों शास्त्रीय नृत्य शैलियों को लेकर उम्दा काम कर रहे हैं और अपनी फिल्मों में प्रमुखता से शास्त्रीय नृत्य शैलियों और शास्त्रीय संगीत को प्रमुखता से जगह दे रहें हैं, जिनमें संजय लीला भंसाली का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. उनकी फिल्म ‘देवदास’ इसका उदाहरण है. इस्माईल दरबार का शास्त्रीय संगीत को लेकर अच्छा काम हैं. उस्ताद राशिद खान भी फिल्मों के लिए जो गा रहे हैं उनमें शास्त्रीयता का पुट रहता है. कथक सम्राट स्वर्गीय पंडित बिरजू महाराज के योगदान को तो शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में भुलाया ही नहीं जा सकता जिन्होंने फिल्मों से लेकर आम जनता तक शास्त्रीय संगीत और नृत्य को पहुंचा दिया.
10.
तुलनात्मक रूप से भारत, दुबई और गयाना के लोगों में शास्त्रीय नृत्य और संगीत को लेकर क्या नजरिया है और क्या रवैया है?
जब मैंने इन सब जगहों की यात्रा की तो मैंने पाया कि भारत में बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी हमारी मूल संस्कृति के ज्ञान से वंचित है. कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरी संस्कृतियों का अनुकरण अवश्य करें पर अपनी समृद्ध संस्कृति पर गौरवान्वित हों और उससे सम्बंधित जानकारी अवश्य ग्रहण करें. इस ग्राह्यता का भारत में अभाव है. जबकि दुबई और गयाना में मैंने पाया कि हमारी संस्कृति को लेकर गैर-भारतीय भी गौरवान्वित महसूस करते हैं और उसे ग्रहण करने का भी प्रयास बखूबी करते हैं. आज के सन्दर्भ में अगर हम देखें तो शास्त्रीय नृत्य शैलियों और योग का प्रचार-प्रसार विदेशों में बहुत समृद्ध है.
दुबई में तो कई विद्यालय ऐसे हैं जहाँ पर भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य को विद्यालय के कोर्स में, सिलेबस में शामिल किया गया है और गयाना जैसे सुदूर देश में मंदिरों और भारतीय सांस्कृतिक केंद्रों के माध्यम से भारतीय नृत्य, संगीत की समृद्ध परंपरा को कायम रखने का अथक प्रयास जारी है.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
Pankhuri Srivastava Kathak fraternity in Gulf countries (United Arab Emirates) from 2014 to 2018. |