कुछ युवा नाट्य निर्देशक
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1.
सौरभ अनंत
मध्य प्रदेश से सौरभ अनंत जिनकी कर्मभूमि भोपाल है, देश के युवा निर्देशकों में सबसे संभावनाशील हैं. मूल रूप से पेंटर और जुनूनी फ़ोटोग्राफ़र सौरभ ने मात्र २६ वर्ष की आयु में धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ को अपने नाटक का न सिर्फ़ विषय बनाया बल्कि उसे बखूबी साधा भी, फिर विजयदान देथा की कहानी ‘सपनप्रिया’ और उसके बाद ‘बस्तर की लोक कथा’ और ‘सुभद्रा’ से यात्रा करते हुए अब ‘प्रेम पतंगा’ और तोत्तो चान तक जा पहुंचे हैं.
वरिष्ठ रंगकर्मियों हबीब तनवीर, कारंत, पन्निकर और रतन थियाम को पढ़कर और देखकर नाटक सीखनेवाले सौरभ किसी नाट्य विद्यालय से पास आउट नहीं हैं, उन्होंने ज़िन्दगी के स्कूल से नाटक सीखा है. उनकी नज़र में नाटक चुनौती है जो अपनी भाषा गढ़ने का मौका देती है और वह अपनी नई भाषा गढ़ना भी चाहते हैं, एक नई रंग भाषा. सौरभ ने धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ को नए तरीके से परिभाषित किया है, उसकी नई व्याख्याएं गढ़ी हैं.
सौरभ के नाटक स्त्री प्रधान हैं. उनके नाटकों में स्त्री का महत्व और उसकी उपस्थिति बहुत उभरकर आती है लेकिन कहीं से भी नाटक पर थोपी गई या बोझिल नहीं लगती और कहीं भी या किसी भी नाटक में स्त्री सिर्फ यूं ही नहीं है. उनके पहले नाटक ‘कनुप्रिया’ की बात करें तो उसमें नाटक की नायिका कनुप्रिया खुद में पूरी सृष्टि को समेटे हुए है, वहीं दूसरे नाटक ‘सपनप्रिया’ में सपनप्रिया सपना भी है और लक्ष्य भी, ‘सुभद्रा’ स्त्री जाति की सम्पूर्णता लिए हुए है.

सौरभ के लिए कथानक महत्वपूर्ण होता है, नाटक के प्रारंभ से अंत तक कथानक कैसे गति करेगा यह उनके लिए महत्वपूर्ण है. उनका मानना है कि नाटक का कथानक रास्ता बनाता है जिसपर चलकर दर्शक शुरू से अंत पर पहुँचता है, एक पूरी यात्रा करता है.
सौरभ के नाटक कलात्मकता से परिपूर्ण होते हैं और धीमी गति के साथ आगे बढ़ते हैं. उस धीमी गति में जो रस है, रस का जो प्रभाव है वह और गाढ़े रूप में विकसित होता है. नाटक में दर्शक की उपस्थिति और उसके नाटक से उसके जुड़ाव को वह महत्वपूर्ण मानते हैं और इसके लिए दृश्य-संरचना में कुछ भाग वह दर्शक की कल्पनाओं के लिए खाली भी छोड़ देते हैं और यही वज़ह है कि वह अपने नाटको में सेट कभी नहीं लगाते. ऐसा करने से नाटकीयता बनी रहती है. दर्शकों की कल्पनाओं के लिए छोड़ी गई खाली जगह ही सौरभ के नाटकों को सबसे अलग और विशिष्ट बनाती है.
सौरभ के नाटकों में यथार्थवाद के साथ-साथ अतियथार्थवाद भी समान रूप से विद्यमान होता है. उनके नाटकों में एक स्वप्नलोक साथ-साथ चलता है. इसका कारण पूछने पर सौरभ बताते हैं-
“कभी मैं खुद भी एक दर्शक रहा हूँ और दर्शकों की नज़र से सबसे पहले नाटक देखता हूँ यही मुझे सबसे ज्यादा सिखाता है. दर्शक कुछ अच्छा देखने आता है और मैं उसकी इस भावना के साथ न्याय करने की पूरी कोशिश करता हूँ. वह यथार्थवादी जीवन से जूझने के बाद संतुष्टि की तलाश करता हुआ दर्शक दीर्घा में बैठता है और मेरा अति यथार्थवाद यहाँ उसे तुष्ट करता है, मेरा उद्देश्य होता है कि दर्शकों का न सिर्फ मनोरंजन हो बल्कि वह कुछ लेकर जाए, वह जीकर जाए, वह कथानक के साथ खुद इन्वॉल्व हो जाए. एक और बड़ी कोशिश ये रहती है कि नाटक, नाटक बना रहे. उसका पूरा मज़ा तभी है जब वह यथार्थ की ओर न जाए.”
स्क्रिप्ट के स्तर पर सौरभ के नाटक मौलिक हैं. इनके नाटकों का संगीत पक्ष प्रबल है. गीत-संगीत से भरपूर इनके नाटकों में रिकार्डेड म्यूजिक का इस्तेमाल कभी नहीं किया गया है. यह नाटक के नाटकीय स्वभाव और हिन्दुस्तानी थिएटर से गायब होते जा रहे लाइव म्यूजिक को बचाए रखने का सराहनीय प्रयास है.
सौरभ के नाटक सशक्त रूप से आंगिक हैं. उनके नाटकों में देह-भाषा महत्वपूर्ण है और वह देह-भाषा के माध्यम से दर्शकों से संवाद करते हैं.
सौरभ ‘विहान ड्रामा वर्क्स’ नामक नाट्य समूह के संस्थापक हैं. 2011 में स्थापित ‘विहान’ उत्साही युवाओं का ऐसा संगठन है जो कला की प्राचीन और समकालीन विधाओं के साथ थिएटर को एक नई दिशा, एक नई भाषा प्रदान कर रहा है.
सौरभ की नज़रों में नाटक “साथ” होने का, “साथ” समझने का, “साथ” जीने का प्रतीक है. नाटक “साथ” का महत्व समझता है और उनके हिसाब से जो व्यक्ति या मीडियम “साथ” का महत्व समझ लेता है उसके लिए दुनिया और जीवन दोनों आसान हो जाते हैं. जीवन कठिन है पर इसे आसानी से पार किया जा सकता है “साथ” से और नाटक हमें यह “साथ” देता है.
२.
हैप्पी रंजीत
दूसरे संभावनाशील निर्देशक हैं हैप्पी रंजीत. दिल्ली से आनेवाले हैप्पी इस मायने में ख़ास हैं कि वे घिसी-पिटी लकीर पर नहीं चलते, दोहराव से बचते हैं, बार-बार हो चुके नाटकों को नहीं उठाते और हर बार अपने नाटकों में नए विषय उठाते हैं. नाटककार और निर्देशक हैप्पी रंजीत का एक नाटक है ‘अ स्ट्रेट प्रपोजल’ जो पुरुष समलैंगिकता को लेकर है. इस नाटक में समलैंगिकों के विचार, उनकी संवेदना, उनके भय, उनके हाव-भाव, उनकी आवाज़, उनके स्त्रियोचित व्यवहार और उनसे संबद्ध बीमारियों के बारे में किया गया उनका गहन शोध और अध्ययन साफ़ दिखता है. यह नाटक सच्ची घटना पर आधारित है जिसने उन्हें अन्दर तक हिलाकर रख दिया था और उस सच्ची घटना के साथ कई और केस स्टडीज और अपने शोध को आधार बनाकर उन्होंने यह पूरा नाटक लिखा और निर्देशित किया.

यह नाटक मितेश के जीवन पर आधारित है. मितेश अपने बचपन के दोस्त से लेकर स्कूल के प्रिंसिपल और अपने घर के नौकर से भी प्यार करता है लेकिन जहाँ प्रिंसिपल के माध्यम से समलैंगिक के इस भय को दिखाया गया है कि अगर समाज को पता चला तो उनकी कितनी बदनामी होगी वहीं नौकर से रिश्ते को लेकर मितेश घबराया हुआ है कि अगर समाज में यह पता चला कि उसके रिश्ते उसके नौकर के साथ हैं तो समाज क्या कहेगा. वहीं दूसरी ओर पार्क के एक दृश्य में मितेश और उसका एक समलिंगी साथी जब प्रणय-क्रीड़ा में रत हैं और उस पार्क के गार्ड द्वारा पकड़े जाने पर जब उसका दोस्त भाग जाता है तब वह गार्ड कई और लोगों के साथ मिलकर मितेश को अपने साथ वही सब करने को विवश करता है जो वह अपने दोस्त के साथ कर रहा था झाड़ी के पीछे छुपकर. यह पूरा दृश्य पुलिसिया क्रूरता और अमानवीयता को उजागर करता है और समलैंगिकों के मन की इस बात को भी उजागर करता है कि समलैंगिक दरअसल प्यार और प्रतिबद्ध रिश्ते के भूखे होते हैं न कि सिर्फ देह के और वासना के. समलैंगिक होने का मतलब यह कतई नहीं है कि वे किसी के भी साथ अपनी देह बाँट लेंगे.
वहीं नायक का दोस्त ध्रुव है जो विदेश में रहता है और सिर्फ ध्रुव है जो उसे समझता भी है और उसे प्यार भी करता है और शादी भी करना चाहता है. वह अपनी माँ से मितेश के बारे में बता भी देता है और उसकी माँ उनके इस रिश्ते को स्वीकार भी कर लेती है लेकिन वहीं मितेश के बचपन का दोस्त जिसके साथ उसने पहली बार प्यार किया था जब वह अपने घर में अपने और मितेश के रिश्ते के बारे में बताता है तो उसे घर से निकाल दिया जाता है और मितेश, उसे तो प्यार की तलाश में अंततः अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है. ध्रुव कहता है-
“हीर-रांझा’, लैला-मजनूँ’, शीरीं-फ़रहाद’, ‘रोमियो-जूलियट’, के लिए इतना कुछ और हमारे लिए कुछ नहीं.”
निर्देशक की सफलता के पीछे उनके अभिनेताओं का भी हाथ है. नायक मितेश की भूमिका में दिलीप शंकर ने अच्छा अभिनय किया है और ध्रुव की भूमिका में हैं टीकम जोशी. हमेशा की तरह टीकम ने इस नाटक में भी यादगार अभिनय किया है. टीकम एक उम्दा अभिनेता है. टीकम को उनकी इस भूमिका के लिए हमेशा याद रखा जाएगा. कमाल की नृत्य संरचना है जिल्स चुयान की. इस नाटक के गहन अध्ययन और शोध के पीछे निर्देशक के साथ जिल्स चुयान और दिल्ली के मशहूर कठपुतली कलाकार वरुण नारायण का महत्वपूर्ण योगदान रहा जोकि खुद एक समलैंगिक हैं.
नाटक के अंत में मंच पर सभी समलैंगिक पात्र आते हैं और निर्देशक गुलाबी रिबन से उन्हें घेरते हुए एक त्रिभुज बनाकर दर्शकों के सामने पेश किया है. यह त्रिभुज प्रतीक है नाज़ी यातना शिविर का. यह त्रिभुज उन पुरुष कैदियों की पहचान कराता था जो समलैंगिक थे.
3.
स्वीटी रूहेल
युवा महिला निर्देशक स्वीटी रूहेल जिनके पास वैश्विक दृष्टि है चीज़ों, तथ्यों और घटनाओं को देखने और अपने नाटक के माध्यम से उन्हें परिभाषित करने की. स्वीटी रूहेल द्वारा निर्देशित नाटक ‘सिविलाइज़ेशन ऑन ट्रायल’ (डिप्लोमा प्रोडक्शन) का ज़िक्र यहाँ ज़रूरी है जिसमें उनकी पूरी वैश्विक दृष्टि देती है, जो जॉन पर्किन्स की किताब ‘कॉन्फेशंस ऑफ़ अ इकोनोमिक हिटमैन’ पर आधारित है. स्वीटी ने इस किताब से तथ्य लेते हुए कहानी को कार्टून और नरेशन फॉर्म में विकसित किया है. स्वीटी के अनुसार कार्टून और नरेशंस इस नाटक के प्रोत्साहन के मुख्य आधार रहे और हास्य-व्यंग्य के माध्यम से इसे प्रस्तुत किया गया. स्वीटी ने बड़ी ही कुशलता से अपने नाटक में यह दिखाया कि दुकानदारों के देश से खरीददारों का देश बनने की यात्रा ने हमारे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को हिलाकर रख दिया है.

स्वीटी विश्व के राजनीतिक रंगमंच पर अमेरिका की भूमिका को अपने नाटक में रेखांकित तो करती हैं साथ ही बड़ी कुशलता से उसे भारत के निर्भया काण्ड और मुज़फ्फ़रनगर के दंगों से भी जोड़ती हैं. उन्होंने यह दिखाया है कि सुपरपावर बनने के अपने सफ़र में अमेरिका ने जहाँ भी संभव हुआ प्राकृतिक संसाधनों को अपने कब्ज़े में ले लिया. भारत ही नहीं बल्कि इराक, सीरिया और अफगानिस्तान उसके दूसरे नए शिकार हैं. इनके अलावा भी बहुत सारे देश अमेरिका की नव साम्राज्यवादी नीतियों का दंश झेल रहे हैं. इस नाटक का एक गीत ‘तेरी तो जय हो, जय हो …जय हो मेरिका बाबा…’ बहुत चर्चा में रहा जिसे कुलदीप कुणाल ने लिखा है.
यह नाटक हाशिये पर बैठे उस आदमी की बात करता है जो अभी भी शिक्षा सुविधाओं के इंतज़ार में है, जिसका दिमाग अभी भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाया है. एक ऐसा इंसान जिसे क़र्ज़ के लिए बेचा जा चुका है पर वह अपने बिकने पर खुश है, क्योंकि उसे इस ख़रीद-फ़रोख्त के बारे में जानकारी है ही नहीं.
मेरिका बाबा की भूमिका में चिराग गर्ग और कल्लू की भूमिका में नेहपाल गौतम ने उम्दा अभिनय किया है. हिजड़े की भूमिका में श्यामकुमार सहनी और योगेन्द्र सिंह जमे हैं. कॉर्पोरेट और भारतीय स्त्री की भूमिका को बड़ी ही कुशलता से अपने अभिनय से मंच पर जीवंत किया है सोनाली भारद्वाज ने.
4.
साउती चक्रवर्ती
इस वर्ष के संगीत नाटक अकादेमी से सम्मानित युवा निर्देशक साउती चक्रवर्ती में अपार संभावनाएं हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2001 में ग्रेजुएट और नाट्य विद्यालय की रेपर्टरी कंपनी में बतौर डिज़ाइनर, अभिनेता और डायरेक्टर के रूप में पिछले कई वर्षों से कार्यरत साउती चक्रवर्ती ने हाल ही में स्वतंत्र निर्देशक के रूप में अपनी पारी की शुरुआत की नाटक ‘लुक बैक इन एंगर’ से. जॉन जेम्स ओस्बोर्न की रचना पर आधारित यह नाटक साउती का डेब्यू नाटक था जिसका मंचन श्रीराम सेंटर में किया गया.

‘लुक बैक इन एंगर’ कहानी है एक ऐसे बंगाली युवा ‘अनिश्चय विश्वास’ की जो एक अजीब सा कैरेक्टर है. कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह अपने इर्द-गिर्द हरेक को प्यार करता है और कभी-कभी लगता है कि वह सबसे बहुत दुखी है, उसे पूरी दुनिया से शिकायतें हैं. वह सबसे बहुत खीझा हुआ है, फ्रस्ट्रेशन में है लेकिन वह जो भी सोचता है सम्पूर्णता में सोचता है. कभी-कभी लगता है वह स्वस्थ नहीं है और कभी–कभी लगता है वह अतुलनीय है. उसके जैसा तो कोई है ही नहीं, उसके जैसी सोच किसी की नहीं. उसकी बातें तल्ख़ होने के बावजूद सच होती हैं, कड़वा सच. इसलिए उसकी बातें बुरी लगने के बाद भी लोग उससे प्यार करते हैं.
उसकी बातें ऐसी होती हैं कि लोग समझ भी जाएँ और ना भी समझें. कभी-कभी उसके रहने से सबकुछ बहुत घुटन भरा लगता है. घर, उसके आस-पास का परिवेश, जहाँ वह है सबमें एक घुटन समा जाती है, सबकुछ धुआं-धुआं लगता है. उसे कोई समझ नहीं पाता कि वह ऐसा क्यों है चाहे वह उसकी पत्नी पारोमिता हो, उसका दोस्त राजा हो या उसकी पत्नी की दोस्त दोयल. उसके अनिश्चय को कुछ समझ पाती है तो वह दोयल है. दोयल ही पारोमिता को बताती है कि अनिश्चय को कोई इसलिए समझ नहीं सकता क्योंकि वह इस समय का है ही नहीं. दोयल का यह कहना कि –
‘ऐसे इंसान को प्यार तो किया जा सकता है लेकिन उससे आप सहारा नहीं ले सकते.’
जो संवेदनशील होते हैं वे अपने आख़िरी पलों में अकेले रह जाते हैं. अनिश्चय जैसे व्यक्ति लोगों को जटिल और अपने ही विरोधाभासों में उलझे नज़र आते हैं.
अनिश्चय की भूमिका में टीकम जोशी ने शानदार अभिनय किया है. कहीं-कहीं उनके उच्चारण स्पष्ट नहीं हैं. दोयल की भूमिका के साथ न्याय किया है मूनमून सिंह ने. राजा और पारोमिता की भूमिका में क्रमशः धीरेन्द्र तिवारी और झिलमिल हजारिका हैं. प्रकाश सज्जा हिमांशु बी.जोशी, परिधान नलिनी आर. जोशी और ध्वनि व्यवस्था सैंडी की थी. ओस्बोर्न की इस रचना का बहुत उम्दा अनुवाद और नाट्य रूपांतरण किया है भूपेश पंड्या ने. इसके लिए भूपेश की जितनी प्रशंसा की जाए कम है.
साउती ने न सिर्फ अपने पात्रों से अच्छा काम करवाया है बल्कि नाटक के हर पहलू पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया है. साउती के इस पारी की शुरुआत एक संभावनाशील निर्देशक के आगमन की पहली दस्तक है.
5.
श्याम कुमार साहनी
बिहार से आनेवाले युवा निर्देशक श्याम कुमार साहनी के नाटक ‘इन्ना जो डिप्लोमा प्रोडक्शन है और जिसके नाटककार हैं असगर वजाहत, ने ध्यान खींचा है.
इन्ना कहानी है अत्याचारी राजा द्वारा ख़रीदे हुए ऐसे गुलाम की जो अपनी जादुई आवाज़ से जनता को अपना दीवाना बना लेता है और उस राज्य में राजा से ज़्यादा लोकप्रिय हो जाता है. यहाँ तक कि राजा जब अपना महल बनवाता है तो किसी जादुई और रूहानी ताकत की वजह से राजा की जगह उसका नाम महल की दीवारों पर उत्कीर्ण होने लगता है, जबकि वह उस निर्माणाधीन महल में मजदूरी कर रहा एक आम आदमी, एक गुलाम भर है. वह राज्य के निम्न वर्ग में इतना लोकप्रिय हो जाता है कि राजा उसे अपने लिए ख़तरा महसूस करने लगता है और एक योजनाबद्ध तरीके से उसे पहले अपना वजीर-ए-आज़म बनाता है, उसे सत्ता के पक्ष में इस्तेमाल करता है और जब उसकी उपयोगिता ख़त्म हो जाती है तो उसे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक देता है. अब इन्ना इतना लाचार है कि वह वापस उन निम्न वर्ग के लोगों के बीच लौट भी नहीं सकता और सत्ता तो उसके हाथ से पहले ही छिन चुकी होती है. वह अपना वह जादुई गीत भी नहीं गा पाता है जो लोगों को उसका दीवाना बना देता था.
इन्ना के माध्यम से यह नाटक ऐसे व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्देशन है जो किसी पद पर पहुँचने के बाद अपनी ही ज़मीन को भूल जाता है और उपलब्ध सुविधाओं का गुलाम हो जाता है और अंततः वह कहीं का नहीं रहता.
‘इन्ना की आवाज़’ व्यक्ति के भीतर छिपी प्रवृत्तियों को राजनीतिक और सामाजिक स्तरों पर उद्घाटित करता है. यह नाटक दिखाता है कि अपनी सत्ता को बचाने के लिए वह क्या-क्या चालें चलता है और अपने विरोधी की आवाज़ को दबाना उसके लिए किस हद तक ज़रूरी हो जाता है.

इस नाटक में हमारे समकालीन राजनीतिक परिदृश्य का एक आयाम भी दिखाई देता है जहां सत्ता अपने विरोधी पक्ष को अपने साथ मिलाकर एक सुरक्षित खेल खेलने लगती है और फिर उसका इस्तेमाल कर उसे फेंक देती है.
इस नाटक की मंच परिकल्पना भी निर्देशक श्याम कुमार साहनी ने की है. राजा के निर्माणाधीन ऊंचे महल के नीचे गरीबों की बस्ती दिखाई गई है जो आजकल के अपार्टमेंट कल्चर और उसके आगे-पीछे या नीचे बने स्लम की ओर इशारा करता है.
इस नाटक में निर्देशक श्याम ने बुल्लेशाह, बाबा फ़रीद, कबीर और कई संतों के गीतों के माध्यम से एहसासों का नए तरीके से रूपांकन किया है और इस नाटक में सूफ़ी स्पर्श देने की कोशिश भी की है जो इस नाटक को और ज़्यादा प्रभावशाली बनाता है.
नाटक की पृष्ठभूमि उस समय के मध्य एशिया की है जब गुलामों की खरीद-बिक्री ज़ोरों पर थी और उनकी हालत बहुत दयनीय थी. श्याम कहीं-कहीं इस पृष्ठभूमि से नाटक को बाहर निकालना तो चाहते हैं लेकिन पूरे परिदृश्य में समन्वय स्थापित नहीं कर पाते. जैसे नाटक का एक संवाद है कि इन्ना को राजा ने समरकंद के बाज़ार से खरीदा था. उसके बाद राजा के साथ मलिका मंच पर प्रवेश करती है और मलिका की वेशभूषा आज की किसी आधुनिका की तरह है जबकि मध्य युगीन समाज में समय पर्दा-प्रथा प्रचलन में थी और रानियाँ हरम में रहती थी और वे परदे में ही कहीं भी आती-जाती थीं. श्याम को संवाद के अनुरूप मलिका की वेशभूषा रखनी चाहिए थी या इस संवाद पर काम करके उसे समसामयिक और आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ देना चाहिए था तब वह इस नाटक को समय सीमा से पार ले जाने में और सफल हो पाते और यह नाटक और ज़्यादा प्रासंगिक और कालजयी हो जाता.
कुल मिलाकर श्याम का प्रयास सराहनीय है और समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में प्रासंगिक भी. इन्ना की भूमिका में योगेन्द्र सिंह और सुलतान की भूमिका में रावेन्द्र कुमार कुशवाहा (गोदान) ने उम्दा अभिनय किया है. मलिका की भूमिका में सोनाली भारद्वाज का काम अच्छा है.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
आज विश्व रंगमंच दिवस☘️ पर मंजरी जी ने जिन पांच युवा निर्देशकों के नाटकों की चर्चा की है वे सचमुच महत्पूर्ण जान पड़ते हैं। मंजरी जी ने अपने आलेख से इन नाटकों को देखने की प्रबल इच्छा मन में जगा दी है। अपने शहर के चहेते निर्देशक, सौरभ अनंत☘️ और अभिनेता टीकम जोशी☘️ की तारीफों को पढ़ मन प्रफुल्लित हो गया☘️☘️☘️ सौरभ की ‘दर्शक की कल्पना के लिए जगह छोड़ने’ वाली बात बहुत महत्व की लगी☘️
विश्व रंगमंच दिवस पर न केवल रंगकर्मी साथियों को बल्कि सभी जनों को जो कला- साहित्य- नाटक के रसिक हैं, हार्दिक शुभकामनाएं।
रंगमंच उन समस्त भाविकों की वजह से आबाद है और रहेगा जो यह कला नई पीढ़ी को सिखा रहे हैं, जो निरंतर प्रयोग मे जुटे हैं, जो रिहर्सल के लिए जगह उपलब्ध करा रहे हैं, वे अभिभावक जो बच्चों को नाटक करने मे सहमति और प्रोत्साहन देते हैं, जो नाटक लिख रहे हैं, जो नाटक देखने सभागार में पहुँच रहे हैं, जो नाटक के लिए वेशभूषा बना रहे हैं, सामग्री बना रहे हैं, वाद्य सुधार रहे हैं, सेट बना रहे हैं, ध्वनि व प्रकाश के उपकरण मुहैया करा रहे हैं, जो नाटक की पत्रिकाएं निकाल रहे हैं, पत्रिकाओं में रंगमंच से जुड़े आलेख प्रकाशित कर रहे हैं, जो रंगमंच के बारे मे लिख रहे हैं, जो नाटक से जुड़ी किसी भी विधा मे सहयोग कर रहे हैं, जो रंग कर्म को प्रोत्साहित और सम्मानित कर रहे हैं, जो फेस्टिवल आयोजित करते हैं, संस्कृति विभाग, संगीत नाटक अकादमी और निजी संस्थायें जो आर्थिक सहयोग करते हैं, रेलवे विभाग जो यात्रा किराए में रियायत देता है, वे संस्थान जो प्रशिक्षित करते हैं और वे सभी जो नाटक की प्रक्रिया मे किसी भी तरह का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग करते हैं।
ख्यात युवा कला समीक्षक के. मंजरी श्रीवास्तव, जिन्होंने भारतीय रंगमंच और विश्व रंगमंच के बारे में शोधपूर्वक लिखा है, आज रंगमंच दिवस पर उन्होंने भारत के (हिन्दी भाषी) ऐसे प्रखर रंग निर्देशकों के बारे में विचारपूर्वक लिखा है जिनमें उन्हें भारतीय रंगमंच का सुनहरा भविष्य दिखाई देता है।
न केवल विहान के लिए बल्कि समस्त नाट्य प्रेमियों के लिए यह सुखद और गौरवपूर्ण बात है कि मंजरी जी के इस सम्भावनाशील चयन में विहान ड्रामा वर्क्स के संस्थापक और निर्देशक सौरभ अनंत का नाम शामिल भी है।
मंजरी जी के इतने विश्वास के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं और नाट्य विधा मे आकंठ डूबे सौरभ अनंत को शुभ कामनाएं देते हैं कि वे निरंतर और विलक्षण नाट्य प्रस्तुतियां रचे और नई पीढ़ी को कला की दिशा में प्रेरित करें।
मंजरी श्रीवास्तव के इस आलेख मे शामिल अन्य युवा निर्देशकों को भी हार्दिक शुभ कामनाएं तथा समालोचन का आभार।