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Home » साहित्य का मनोसंधान: मृदुला गर्ग

साहित्य का मनोसंधान: मृदुला गर्ग

वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग सृजनात्मक लेखन और अनुवाद में पिछले छह दशकों से सक्रिय हैं. उनकी सक्रियता का प्रमाण संस्मरणों पर आधारित उनकी पुस्तक, ‘वे नायाब औरतें’ हैं जो वाणी से इसी वर्ष प्रकाशित हुई है. इसके साथ ही आलोचनात्मक लेखन में भी उनका कार्य है. आलोचना और निबन्धों की उनके सात किताबें हैं. प्रस्तुत लेख साहित्य और मनोजगत के अंत:सम्बन्धों पर केन्द्रित है. साहित्यिक कृतियों द्वारा व्यक्ति के साथ-साथ समाज का भी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन किया जाता रहा है. यह लेख विश्व साहित्य और हिंदी साहित्य के उदाहरणों से इसे पुष्ट करता है.

by arun dev
April 30, 2023
in आलेख
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साहित्य का मनोसंधान:  मृदुला गर्ग
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साहित्य का मनोसंधान
मृदुला गर्ग

हर रचनात्मक लेखक कुछ हद तक मनोविश्लेषक का काम करता है; कम से कम उसका सम्बन्ध मनोवैज्ञानिक पड़ताल से होता है, भले व्यवहारिक रूप से प्रेक्टिस करने वाले मनोविश्लेषक, उसकी चेष्टाओं को अनाड़ी का अनाधिकार दख़ल मानें. यानी जितना अपने पात्रों के आचार-व्यवहार को गढ़ने के लिए, साहित्यकार, मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों से उधार लेता है, उतना ही मनोविज्ञान, अपने सिद्धान्त गढ़ने के लिए साहित्य से उधार लेते हैं. बल्कि साहित्यकार विश्लेषण से कुछ आगे जा कर मनोसंधान करता है.

जो ऊपरी सतह पर स्पष्ट दीख रहा हो, उससे असन्तुष्ट होने पर ही, वैकल्पिक संसार की रचना करने के ख़याल से कोई कलम उठाता है. दीखते यथार्थ के भीतर, जो परत दर परत द्वन्द्वात्मक विडम्बनाओं से लैस एक अन्य यथार्थ  है, उसका अनुशीलन करना ही रचना कर्म का सत्व है. यह अनुशीलन, व्यक्ति से भी ताल्लुक रखता है और सामान्य व असामान्य कहलाये जाने वाले व्यक्तियों से बने उस समूह से भी, जिसे हम समाज, सांस्कृतिक इकाई या राष्ट्र के नाम से जानते हैं.

एक मनोवैज्ञानिक की सबसे जटिल समस्या यह तय करना है कि मानव स्वभाव में  क्या सामान्य है और क्या असामान्य. इतिहासजनित भ्रम या अहंकार के कारण, सामाजिक व सांस्कृतिक रूढ़ि या व्यवस्था जिसे असामान्य घोषित करती है, दरअसल, वह असाधारण वैचारिक सोच और अनुसंधान हो सकता है. मनोवैज्ञानिक शोध का एक काम, असाधारण और असामान्य के बीच के महीन अन्तर को स्पष्ट करके मानव स्वभाव की जटिल संरचना को उद्घाटित करना रहा है. ठीक यही काम साहित्यकार भी करता है. कह सकते हैं, साहित्य का मूल स्वत्व, समाज व व्यवस्था के भ्रमों का निराकरण कर उसे चेताना है.

इसके विपरीत यह भी उतना ही सच है कि हर तथाकथित सामान्य व्यक्ति में कुछ न कुछ असामान्य तत्व विद्यमान रहते हैं. आप फ़्रायड के नियमों को मानें चाहे नहीं, उसका यह महत्वपूर्ण योगदान स्वीकार करना ही होगा कि पूरी तरह से सामान्य कोई व्यक्ति नहीं होता. बल्कि कहें कि सामान्य शब्द ही व्यक्ति के संदर्भ में बेमानी है. एक तरफ़, हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है, इसलिए दोनों में से किसी एक को सामान्य नहीं माना जा सकता. दूसरी तरफ़, कुछ तत्व ऐसे होते हैं, जो धर्म, नस्ल, रंग, जाति, लिंग से परे हर व्यक्ति में यकसां होते हैं, जिन्हें शाश्वत मानवीय तत्व माना जा सकता है. इन्हीं शाश्वत तत्वों का अनुशीलन करके, रचना में उनका चित्रण व  विश्लेषण, कालजयी और स्थानीयता को लांघने वाले साहित्य का लक्षण है. उदाहरण के लिए एक शाश्वत नैसर्गिक स्थापना यह है कि, सोच विचारकर वैकल्पिक कर्म के बीच चुन पाने की शक्ति, केवल मानव के पास है, पशु के पास नहीं. इसलिए वह अपने कर्म के लिए उत्तरदायी या जवाबदेह है. साथ ही सहज बोध या अन्तःप्रज्ञा भी उसके व्यवहार को संचालित करते हैं. यानी वह वैचारिक चुनाव और सहज प्रतिक्रिया के बीच की द्वण्द्वात्मक स्थिति में विचरता रहता है. दुविधा व द्वन्द्व, उसके अस्तित्व या अस्मिता का स्थायी भाव है और उसका प्रयोजन, उन से मुक्त हो कर कर्म करना है. यह तत्व जितना साहित्य का विषय है, उतना ही मनोविज्ञान का. स्वभाव या संस्कार? विरासत या पालन पोषण? मानव चरित्र को क्या अधिक प्रभावित करता है, यह प्रश्न मनोविज्ञान को हमेशा से चुनौती देते आये हैं.

यही प्रश्न, साहित्यिक रचना में ख़ुद-ब-ख़ुद प्रवेश पा लेते हैं.

देखा जाए तो मनोविज्ञान की कई मान्य प्रवृत्तियाँ, पहले साहित्यिक रचना में  मानवीय नियति के विद्रूप के रूप में अभिव्यक्त हुईं, बाद में उन्हें मनोविज्ञान में मान्यता मिली.

फ़्रायड के मनोविज्ञान दर्शन के दो आधार स्तम्भ, इलेक्ट्रा और इडीपस काम्प्लेक्स, ग्रीक नाटकों में व्याख्यायित पात्रों के जीवन में घटित असामान्य घटनाओं से उपजी विडम्बनाओं से उधार लिए गये थे.

मैं, विश्व साहित्य के, जिसमें हिन्दी साहित्य भी आता है, कुछ महत्वपूर्ण उपन्यासों के माध्यम से इन आधारभूत सिद्धान्तों को स्पष्ट करना चाहती हूँ.

पहला है कामू का स्ट्रेन्जर (अजनबी), जो उदासीनता के प्रतीक व्यक्ति के रूप में, मियरसौं की मनःस्थिति का अभूतपूर्व विश्लेषण करता है. अन्त में न्यायाधीश के पूछने पर कि उसने एक अनजान व्यक्ति की हत्या क्यों की, उसका उत्तर, “सूरज के तेज़ ताप के कारण” भीतर तक हिला देने वाला सत्य वाचन है. कोई उसे गम्भीरता से नहीं लेता. अदालत में बैठे तमाम दर्शक हँस पड़ते हैं. न्यायाधीश ही नहीं, उसका अपना वकील भी उसे एक अहमक़ाना जवाब मानता है. जो सच है, उसमें किसी की दिलचस्पी नहीं हैं, उसके अन्तःकरण में झाँक कर देखने की न किसी को फ़ुर्सत है न रुचि.

हत्या से ज़रा पहले वह कहता है,

“हर बार जब तेज़ रोशनी की धार, रेत के कणों, टूटे शीशे की कणियों और विरंजित शंखों से टकरा कर चौंध फेंकती, मेरे जबड़े भिंच जाते. मैं शिद्दत से जो महसूस कर रहा था, माथे पर धमकते सूरज के ताप के मजीरे और दूर कहीं चाकू से निकलता प्रकाश का त्रिशूल था. उसका धधकता फल मेरी पलकों को बींध रहा था, जलती आंखों को भेद रहा था. तभी सबकुछ चक्राकार घूमने लगा. मेरा सर्वांग तन गया और मेरे हाथ बन्दूक पर कस गया … “

अदालत में उसे यह सब कहने सुनने का मौका नहीं दिया जाता. वहाँ बहस वकीलों के बीच होती है, उसकी हिस्सेदारी नगण्य है.

जब-जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा, मियरसौं का बार-बार यह कहना कि फलाँ-फलाँ चीज़ उसकी नसों पर भारी पड़ रही थी, अत्यन्त महत्वपूर्ण लगा.

“सूरज का ताप, चमड़े और शवगाड़ी में जुते घोड़ों की लीद की मिलीजुली बू, लोबान और पॉलिश की गन्ध और बिनसोई कटी रात की थकान मुझे न ढंग से सोचने दे रही थी, न देखने.”

माँ के अंतिम संस्कार के वक़्त कही गईं इन पंक्तियों से ले कर, अपने मुक़दमे की अंतिम सुनवाई तक, वह, बार-बार अनेक बाह्य स्थितियों के बारे में ऐसे वाक्य दुहराता है. शोर, धूप, तेज़ रोशनी, मौन, दिखावा. सबसे ज़्यादा, दिखावा! इस हद तक कि अपने और अभियोगी वकीलों के बयान सुनने में भी उसकी दिलचस्पी नहीं रह पाती.

अन्ततः उसे हत्या के लिए मौत की सज़ा मिलती है तो उसका मुख्य कारण यह रहता है कि, उसने अपनी माँ की मृत्यु पर अतिरिक्त दुख का दिखावा नहीं किया था. जिसकी वजह से उसे संवेदनहीन और निर्मम माना गया. चूंकि उसने स्वीकृत व्यवहार के खिलाफ़ सहज व्यवहार किया था, जैसे कॉफ़ी या सिगरेट पीना; माँ की आयु न जानने पर मनगढ़न्त उम्र न बतला कर साफ़ कह देना, उसे नहीं पता; मृत माँ का चेहरा न देखना, अगला दिन एक लड़की के साथ बिताना, मज़ाहिया फ़िल्म देखना, वगैरह. ग़लत यह नहीं माना गया कि वह माँ से प्यार नहीं करता था, जो वह करता था( बार-बार माँ की कही बातें याद आना उसका परिचायक था) या उसकी मृत्यु से उसे गहरा आघात नहीं लगा था. बल्कि यह कि उसने रो-धो कर जतलाया नहीं था कि वह प्यार करता था और उसकी मृत्यु से आघात लगा था. यानी समाज सज़ा देता है, दिखावा न करने की, स्वीकृत व सामान्य व्यवहार से फ़र्क़ व्यवहार करने की.

सवाल उठता है कि यह कौन तय करेगा कि सामान्य क्या है? सरकार? समाज? क़ानून? मनोविश्लेषक? या हमें मानना होगा कि असामान्य और सामान्य को अलग करने वाला फ़ासला, बहुत धूमिल और लचीला है. यह सवाल साहित्य को जितना आड़े लेता है उतना ही मनोविज्ञान के सिद्धान्तों को.

असामान्य या असाधारण के विवाद को लें, तो जैनेन्द्र का प्रख्यात उपन्यास त्यागपत्र इसका एक प्रबल उदाहरण है.

मृणाल, उसकी नायिका, अपने पति को अपने पूर्व प्रेम के बारे में ईमानदारी से बतलाती है तो पता चलता है कि उसकी नज़र में सत्यवादिता या ईमानदारी का कोई महत्व नहीं है. भोगविलास और मानस के प्रेम के बीच का अन्तर समझने में भी वह असमर्थ है.

उससे परित्यक्त होने पर, वह अपने अहम् का परित्याग कर, एक कोयले वाले के साथ रहने लगती है और उससे गर्भवती भी हो जाती है. प्रेम या पसन्द का कोई भाव उसके भीतर नहीं है. अपनी समझ में वह स्व का विसर्जन कर रही है, जो अन्ततः आत्मा का परमात्मा में विलय करवाता है. यह प्रयोग पूरा होने पर जब बच्चे की मृत्यु हो जाती है तो वह पूरी तरह समाज सेवा में लग, समाज की जूठन के साथ रह अपना उत्सर्ग करती है.

सवाल उठता है, मृणाल मेसोकिस्ट है या त्यागी? असामान्य है या असाधारण?

क्या उस मूढ़, हिंसक और वीभत्स कोयले वाले के साथ रहने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं था?

हम जानते हैं, था. वह पढ़ी-लिखी थी, बाद में अध्यापिका बनी. फिर उसने वही मार्ग क्यों चुना? आधुनिक व वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न लोग कहते हैं, वह आत्मपीड़क या मेसोकिस्ट थी. बचपन में प्रेम होने पर, पिता-माता तुल्य भाई-भाभी से पाये त्रास के कारण, उसके भीतर ऐसी मनोग्रन्थी बन गई थी कि वह आत्म-तिरस्कार पर बाध्य थी. समय के साथ उसने समाज सेवा के माध्यम से उसका उदात्तीकरण किया और अन्त में, अपनी सहायता के लिए आए भान्जे से यह कहने लायक़ बनी कि, ” क्या तुम्हारा घर इतना बड़ा है जो समाज के इन सभी कुत्सित समझे जाने वाले लोगों को शरण दे सके? नहीं तो मुझ अकेली को तुम्हारी मदद नहीं चाहिए.”

सच क्या है, उसका पता लगाने के लिए व्यवहारिक मनोविष्लेषक होना काफ़ी नहीं है. हमें लेखक के जीवन दर्शन व नैतिकता बोध को समझना होगा और उसके गढ़े पात्र की जीवन यात्रा व जीवन दृष्टि को उसकी कसौटी पर तोलना-परखना होगा.

देखें, जैनेन्द्र का दर्शन क्या कहता है?

जैनेन्द्र के सभी उपन्यास, भोग की अथक दौड़ से उत्पन्न मोहभंग के कथानक हैं. उनका विचार था कि त्याग या अपरिग्रह ही व्यक्ति को पूरी तरह मुक्त कर सकते हैं. अगर व्यक्ति को किसी चीज़ की इच्छा या कामना ही न होगी तो आप उसका शोषण कैसे करेंगे? किस वस्तु या स्निग्धता से उसे वंचित करेंगे? किस चीज़ को खोने का भय दिखलाएंगे? जहाँ इच्छा नहीं है, वहाँ अभाव भी नहीं है. बाज़ार, उपभोग, मूल्य व्यवस्था, सम्बन्धों की ऊष्मा, सत्ता की तानाशाही, कुछ उसे प्रभावित नहीं कर सकती. अपने चुने हुए रास्ते से डिगा नहीं सकती, क्योंकि इन में से किसी की उसे न लालसा है, न उनसे भय. मोह, आकर्षण, ललक विहीन, वह सर्वथा मुक्त है. स्व का विसर्जन करके ही हम पूर्ण रूप से मुक्त हो सकते हैं.

इस दृष्टि से देखें तो मृणाल आत्मपीड़क या मेसोकिस्ट नहीं, आध्यात्मिक है. आत्म विसर्जन द्वारा आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने की प्रत्याशी है. उपन्यास के अन्त में  समाज के परित्यक्त लोगों के लिए, उसका स्नेह,सद्भाव व कर्म, उस व्यापक करुणा के प्रतीक हैं जो इस दर्शन के अनुसार, स्व के विसर्जन की सहज तार्किक परिणति है.

भोग व त्याग के बीच का द्वन्द्व,साहित्य का अनन्त विषय है तो मनोविज्ञान का भी.

इस द्वन्द्व में, जैनेन्द्र से एकदम दूसरी धुरी पर हैं, मिलान कुन्डेरा.

मिलान कुन्डेरा के प्रसिद्ध उपन्यास, द फ़ाइनल वाल्ट्ज़ का प्रमुख प्रवक्ता बर्तलफ़, जो डॉन वॉन भी है और विचारवान संत भी, कहता है,

” कोई भले वैरागी हो जाए पर श्लाघा और ख्याति पाने का मोह नहीं त्याग पाता. संसार का सबसे बड़ा सुख है, प्रशन्सित होना.”

वह ऐसे तपस्वी का दृष्टान्त देता है, जो धुर रेगिस्तान में एक छोटे से मंच पर रह कर पूरा जीवन बिता देता है. क्या है वह जीवन? आत्म विदारण और शून्य तक फैला अभाव. पर उसी के कारण उसे लाखों लोगों की अनुशन्सा और श्लाघा मिलती है. वे उसके अनन्य त्याग की गाथाएं सुन कर दाँतों तले उंगली दबा लेते हैं. वाह,  ऐसा अद्भुत त्याग! ऐसी तितिक्षा! इस वाहवाही को त्याज्य कैसे मान लें? कैसे छोड़ दे उसका मोह? कैसे लौट आए संसार में, एक मामूली, नगण्य व्यक्ति की तरह जीने के लिए? उसीसे वह शक्ति मिलती है जो आत्म विज्ञापन के लोमहर्शक कृत्य करवा देती है. बर्तलफ़ कहता है,

“श्लाघा की अदम्य लालसा में हास्यास्पद कुछ नहीं है. मुझे वह काफ़ी मार्मिक मालूम होती है. अपने समकालीनों की प्रशन्सा चाहने का मतलब है, उनसे जुड़ाव रखना, उनकी परवाह करना, उनके बिना खुद को अपूर्ण मानना.”

यह ऐसी अवधारणा है जो बेशक़, हर मनोविश्लेषक के लिए चुनौती है.

मनोविश्लेषक की बेधक दृष्टि की बात करें तो दॉस्तायव्स्की के उपन्यास, ब्रदर्स कारामज़ोव जैसा अपूर्व और बहुपक्षीय दस्तावेज़ अन्यत्र नहीं मिलेगा.

एक तरफ़, ईश्वर में आस्था, मनुष्य में करुणा और पर हित की भावना का संचार करती है तो दूसरी तरफ़, धर्म की मान्यताओं में अन्धविश्वास, मनोविकार उत्पन्न करता है. उसमें अनेक पात्रों के माध्यम से इस सत्य का अद्भुत विश्लेषण है. धर्म से संचालित व्यक्ति की मानसिकता है तो धर्म से निर्धारित संस्कृति और समाज में उत्पन्न मनोविकार का व्यापक अनुशीलन है. वह भोग और त्याग के साक्षात्कार, टकराव, विच्छेद और मिलन के हर कोण को अपने में समेटे है.

कामुक और लम्पट कारामज़ोव पिता; भोगी, कामासक्त दिमित्री, बौद्धिक, अराजकतावादी इवान, आध्यात्मिक अल्योशा, वैरागी सन्त फ़ादर ज़ौसिमा, आदिम, ग्रुशेंका, और मनोविकार से पीड़ित स्मर्दय्काव, इन सब पात्रों के अन्तर्मन की चीरफाड़, किसी विख्यात मनोविश्लेषक से अधिक एकाग्रता व कौशल से की गई है. साथ ही आध्यात्मिक दर्शन का गहन अनुशीलन है. स्मर्दय्काव का चित्रण व एक अध्याय में इवान द्वार वर्णित बच्चों पर होने वाला अनाचार, हमें एबनॉर्मल साइकोलोजी(असामान्य मनोविज्ञान) के स्वयंसिद्ध सिद्धान्त देता है.

इस पृष्ठभूमि के सापेक्ष हिन्दी कथा साहित्य की बात करें तो सबसे पहले एक  सीमा की ओर ध्यान दिलाना होगा.

हमारे यहाँ, लम्बे समय तक यथार्थवादी उपन्यासों का बोलबाला रहा है. सामाजिक वर्ग व वर्ण संघर्ष का या आंचलिक वृतान्त बुनने में, विवरणों को अधिक महत्व दिया जाता रहा, व्यक्तिगत व समाजपरक मनोवैज्ञानिक पड़ताल को कम. व्यक्ति व समष्ठि के बीच अस्वाभाविक अन्तर करने के कारण, मनोवैज्ञानिक पड़ताल को बहुधा दिमाग़ी एय्याशी करार दिया गया. बहुत से प्रशन्सित और प्रशन्सनीय उपन्यास मनोवैज्ञानिक प्रश्नों से कन्नी काटते रहे. जैनेन्द्र, अमृतलाल नागर, इलाचन्द्र जोशी,अज्ञेय, महादेवी वर्मा आदि लेखक इसके अपवाद थे.

एक दिलचस्प तथ्य यह है कि प्रेमचन्द से ले कर जगदम्बा प्रसाद दीक्षित तक अनेक ऐसे प्रतिभाशाली लेखक भी हुए हैं, जो समष्ठि का दस्तावेज़ लिखते हुए भी, अनेक ज्वलन्त मनोवैज्ञानिक प्रश्नों को कथानक में समेटे रहे हैं. प्रेमचन्द की कहानी कफ़न तथा जगदम्बा प्रासाद दीक्षित का उपन्यास, इतिवृत इसके अन्यतम उदाहरण हैं. कफ़न असमानता से उत्पन्न मनोविकार की ओर संकेत करती है. इतिवृत उस मनोवृत्ति का विश्लेषण करता है, जो महत्वाकांक्षी पर आत्मकेन्द्रित नेता की अदूरदर्शिता का बायस बनती है; और जिसके कारण, भारत के गाँव तबाह हो जाते हैं. बैंकों के कर्ज़ की अदायगी न कर पाने के कारण आज जो इतने किसान आत्महत्या कर रहे हैं, इतिवृत्त उसका पूर्वाभास देता है.

साठ के दशक के बाद, एक दिलचस्प परिवर्तन यह हुआ कि स्त्रीवादी लेखन, मुख्यधारा में आने लगा. स्त्री विमर्श का नाम पर स्त्री के व्यवहार की मनोवैज्ञानिक पड़ताल होने लगी. कह सकते हैं, स्त्रियों के बहाने लिखे गये उपन्यासों ने मनोवैज्ञानिक उपन्यास की परम्परा को वापस बहाल किया. पर सभी उपन्यास स्त्री केन्द्रित नहीं थे. कुछ ऐसे विरल उपन्यास भी लिखे गये, जो संस्कृति के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से सम्बन्ध रखते थे.

मैं उनमें से कुछ का संक्षिप्त या सांकेतिक विश्लेषण करूँगी.

मन्नु भण्डारी का आपका बन्टी और कृष्णा सोब्ती का सूरजमुखी अँधेरे के स्त्री मनोविज्ञान की पड़ताल के उपन्यास हैं.

आलोचकों द्वारा आपका बंटी, बाल मनोविज्ञान का उपन्यास बतलाया जाता रहा है. सतह से नीचे जाकर देखें तो वह, स्त्री प्रवक्ता शकुन के मनोविज्ञान का कथानक है. बंटी की मनोदशा का प्रमुख कारण यह है कि उसे, उसके जीवन की  विप्लवकारी घटनाओं के बारे में अग्रिम, संवेदनशील जानकारी नहीं दी जाती. स्कूल से लौटने पर अचानक वह पाता है कि घर का सामान बँध रहा है; वे कहीं और रहने जा रहे हैं. क्यों, किस लिए, कब तक, किन परिस्थितियों में, उसे कुछ ज्ञात नहीं. अनजान नई परिस्थितियों के किए तैयार करना तो दूर; उसकी प्रतिक्रियाओं को जानने की कोशिश दरकिनार; उसे विस्तृत सूचनाएं भी नहीं दी जातीं. यह व्यवहार एक बच्चे को संघातिक मानसिक आघात पहुँचाने के लिए काफ़ी है.

माँ के घर से पिता के घर तक का उसका विस्थापन बाद में होता है; संवाद का मानसिक विस्थापन बहुत पहले शुरु हो चुका होता है. उसकी दुर्दशा का ज़िम्मेवार, माँ-बाप का तलाक नहीं, संवेदनहीन असंवाद है. अगर उपन्यास बाल मनोविज्ञान पर होता तो इस तथ्य की ओर लेखक का, अनकहा ही सही, इशारा ज़रूर रहता. पर वहाँ पूरा बल पिता के स्वभाव, तलाक व सौतेले बाप व सौतेली माँ के साथ जिये जा रहे जीवन पर है, जिसमें बंटी के लिए जगह नहीं है. इसलिए कहती हूँ कि वह शकुन के मनोविज्ञान का उपन्यास है, जो नहीं जानती कि तलाक और पुनर्विवाह से कैसे निबटा जाए. हाँ, मनोवैज्ञानिक चाहें तो जो अनकहा रह गया, उसमें से बाल मनोविज्ञान के सिद्धान्त प्राप्त किये जा सकते हैं.

सूरजमुखी अँधेरे के उपन्यास एक बलात्कृत स्त्री, रति की पीड़ा और मनोग्रन्थी को कथानक बनाता है. ऊपरी तौर पर देखें तो लगता है, बलात्कार के बाद वह पुरुष से रिश्ता क़ायम करने में इसलिए असमर्थ है क्योंकि उसके भीतर पाप बोध घर कर गया है. और यह अपराधबोध की ग्रन्थी, समाज में व्याप्त उस पूर्वग्रह से उत्पन्न हुई है, जो बलात्कार को इज़्ज़त लुटने से जोड़ कर देखता है. अगर बलात्कार को सती-च्युत होना न मान कर हिंसा माना जाए तो अन्य हिंसा के शिकार की तरह, बलात्कृत स्त्री में आक्रोश या रोष तो होगा पर अपराधबोध नहीं. हालांकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पड़ताल करने पर हमें मानना पड़ता है कि, बलात्कार की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि उस पर कोई एकांगी तर्क लागू नहीं किया जा सकता.

बलात्कार स्त्री के स्त्री होने की अस्मिता का ही हनन नहीं करता, उसके मन में अपने तमाम भावात्मक व मानवीय सम्बन्धों के बारे में संशय पैदा करता है. उन पर दुबारा सोच-विचार करने पर बाध्य करता है. समाज में उसके स्तर, हैसियत व छवि पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है. ज़ाहिरा तौर पर स्त्री में रोष और प्रतिशोध की भरपूर चाह होने पर भी, भीतर ही भीतर, वह द्वन्द्व की स्थिति में रहती है. अपनी योग्यता और उत्कृष्टता में भले उसका विश्वास क्षीण न हो, साथी मर्दों पर संदेह और अविश्वास की भावना ज़रूर प्रबल होती है. समस्या तब और जटिल हो जाती है जब समाज में ऐसा परिवर्तन नज़र न आए कि कम से कम तथाकथित प्रगतिशील सदस्य, बलात्कार को मात्र हिंसा मानने को तैयार हों. इस दृष्टि से सूरजमुखी अँधेरे के  रति के रूप में एक साधारण स्त्री की दुविधा का सटीक आकलन करता है.

इसके साथ यह भी कहना ज़रूरी है कि समाज भले न बदला हो पर उसका पथ प्रदर्शन करने वाली ऐसी कहानियाँ ज़रूर लिखी जाने लगी हैं, जो बलात्कृत स्त्री को अपराधबोध मुक्त रहने की छूट देती हैं. दो ऐसी कहानियों के नाम हैं, चन्द्रकान्ता की आवाज़ और चित्रा मुद्गल की प्रेतयोनी .

इससे अधिक व्यापक फलक पर, संस्कृति के पतन से उत्पन्न नैतिक अवमूल्यन के मनोविकार का बेबाक और बेधक चित्रण हुआ है, मनोहरश्याम जोशी के हमज़ाद में. इस उपन्यास की विशिष्टता यह है कि लेखक अपनी तरफ़ से कोई नैतिक निष्कर्ष नहीं देता. वह अपने पतित पात्रों के साथ एकात्म हो जाता है, क्योंकि अपने समय की संस्कृति से उसका मोहभंग हो चुका है. उपन्यास इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की पड़ताल करता है कि कायरतावश पतित का साथ देते जाना और अपने पतन के लिए उस को ज़िम्मेवार ठहराना, उससे अधिक पतित होना है, कम नहीं. पर इस निष्कर्ष पर पाठक को स्वयं पहुँचना होता है. साहित्य और मनोविज्ञान के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में अंतिम बात कहने वाला, वहलीक से हटा मील का पत्थर उपन्यास है.

मनोवैज्ञानिक शब्दावली में साइकोपाथ उस व्यक्ति को कहते हैं, जिस के भीतर अपराधबोध नहीं होता. वह हत्या भी करेगा तो उसे वाजिब ठहराने के लिए तर्क ढ़ूँढ लेगा या तर्क की आवश्यकता महसूस ही नहीं करेगा. ऐसा व्यक्ति बरसों आपके साथ रह सकता है, औरआपको पता नहीं चलता कि वह मनोरोगी है. रोज़मर्रा के व्यवहार में वह निहायत ज़ेहनी, विनयशील और सौन्दर्यानुरागी हो सकता है. आपको कोई खोट दिखेगा तो केवल अतिरिक्त तार्किकता का, जो आम व्यवहार या पारिवारिक ज़िम्मेवारी की बंदिश नहीं मानता. पर भीतर ही भीतर वह इंसान तमाम समाज से बदला लेने की योजना बनाता रह सकता है.

जब मैंने अपने उपन्यास मैं और मैं में कौशल कुमार नाम से ऐसे एक पात्र को चित्रित किया तो उसे स्वीकार करने में लोगों को दिक्कत हुई. शायद इसलिए कि हिन्दी-उर्दू की उत्कृष्ट कृतियों में भी,जब मनोविकार का चित्रण हुआ है तो अधिकतर  स्किज़ोरेनिया के अंतिम चरण पर पहुँचे पात्रों का हुआ है. उदाहरण के लिए मंटो के टोबा टेकसिंह और निर्मल वर्मा के रात का रिपोर्टर देख सकते हैं. साइकोपाथ का चित्रण बहुत कम हो पाया है.

सच यह है कि ख़ुद मुझे भी अपने पात्र का मनोविज्ञान पूरी तरह समझने में वक़्त लगा. आज कह सकती हूँ कि बतौर लेखक, उसे चित्रित करने के काफ़ी समय बाद, जब उपन्यास को बतौर पाठक पढ़ा, तब जा कर उसकी असलियत मुझ पर खुली. इसका जो कारण मेरी समझ में आया, कौशल कुमार केवल साइकोपाथ नहीं है; उसके अन्य विभिन्न प्रभावी आयाम हैं. वह एक प्रतिभाशाली लेखक है; विज्ञ व रसिक पाठक और समालोचक है, समाजशास्त्र व दर्शन का अध्येता है. लेखक से पाठक तक की यात्रा में जो समय लगा, उसके फलस्वरूप मेरे सोच और सप्रेषण में जो अन्तर आया, मनोसंधान के संदर्भ में वह अत्यन्त महत्वपूर्ण था. उसने मेरे सामने रचनाकर्म की एक महत्वपूर्ण सच्चाई प्रकट की.

चूंकि रचनाकार अपने जीवन की त्रासद सच्चाइयों से साक्षात्कार करने से नहीं कतराता; उनका रचना में इस्तेमाल करने से कन्नी नहीं काटता, इसलिए वह अनायास विश्लेषण से आगे जा कर मनोसंधान कर जाता है. इसीलिए रचनात्मक साहित्य का मनोविज्ञान के सिद्दान्तों पर गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ता है.

मृदुला गर्ग  

प्रकाशित पुस्तकें : ‘उसके हिस्से की धूप’, ‘वंशज’, ‘चित्तकोबरा’, ‘अनित्य’, ‘मैं और मैं’, ‘कठगुलाब’, ‘मिलजुल मन’ और ‘वसु का कुटुम’ (उपन्यास); कुल प्रकाशित कहानियाँ—90, जिनको लेकर 2003 तक प्रकाशित 8 कहानी-संग्रहों की सम्पूर्ण कहानियों की पुस्तक ‘संगति-विसंगति’ नाम से प्रकाशित; ‘एक और अजनबी’, ‘जादू का कालीन’, ‘साम दाम दण्ड भेद’, ‘क़ैद-दर-क़ैद’ (नाटक); ‘रंग-ढंग’, ‘चुकते नहीं सवाल’, ‘कृति और कृतिकार’ (निबन्ध-संग्रह); ‘मेरे साक्षात्कार’ (साक्षात्कार), ‘कुछ अटके कुछ भटके’ (यात्रा-संस्मरण); ‘कर लेंगे सब हज़म’, ‘खेद नहीं है’ (व्यंग्य-संग्रह).

अनूदित कृतियाँ : ‘चित्तकोबरा’  ‘द जि‍फ़्लेक्टे कोबरा’ नाम से जर्मन में तथा ‘चित्तकोबरा’ नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित. रूसी में ‘कोबरा मोएगो रज़ूमा’ नाम से अनूदित. ‘कठगुलाब’ ‘कन्ट्री ऑफ़ गुड्बाइज़’ नाम से अंग्रेज़ी में, ‘कठगुलाब’ शीर्षक से मराठी और मलयालम में और ‘वुडरोज़’ नाम से जापानी में प्रकाशित. ‘अनित्य’ ‘अनित्य हाफ़वे टु नोवेह्यर’ नाम से अंग्रेज़ी में और ‘अनित्य’ नाम से मराठी में प्रकाशित. अनेक कहानियाँ अंग्रेज़ी, जर्मन, चेक, जापानी व भारतीय भाषाओं में अनूदित. ‘मिलजुल मन’ उर्दू, पंजाबी, राजस्थानी, तमिल और तेलुगू में अनूदित. ‘मैं और मैं’ मराठी में अनूदित.

पुरस्कार/सम्मान : अनेक पुरस्कारों के साथ ‘कठगुलाब’ को ‘व्यास सम्मान’, ‘मिलजुल मन’ को ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘उसके हिस्से की धूप’ को मध्य प्रदेश का ‘अखिल भारतीय वीरसिंह सम्मान’, ‘जादू का कालीन’ को मध्य प्रदेश का ही ‘अखिल भारतीय सेठ गोविन्द दास सम्मान’.

‘कठगुलाब’ दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. पाठ्यक्रम तथा कई विश्वविद्यालयों में स्त्री-रचना/विमर्श पाठ्यक्रमों में शामिल है.

ई 421 (भूतल) ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली- 110048
फ़ोन 9958661937

Tags: 20232023 आलेखमृदुला गर्गसाहित्य और मनोविश्लेषण
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Comments 9

  1. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    2 years ago

    मृदुला जी को पढ़ना हमेशा ही सरल और बेहद ज्ञानवर्धक रहता है। इस आलेख में जो लय था वह पढ़ने समझने में बहुत सहायक रहा। यह लय यदि सप्रयास थी तो बहुत महत्वपूर्ण है कि असाधारण मुद्दे पर साधारण पाठक तक अपनी बात पहुंचाने में मृदुला जी ने बहुत सहजता प्राप्त की है। बहुत धन्यवाद।

    Reply
  2. दयाशंकर शरण says:
    2 years ago

    मनुष्य के मनोविज्ञान पर केंद्रित यह आलेख महत्वपूर्ण है।

    Reply
  3. विजय बहादुर सिंह says:
    2 years ago

    बरसों बाद ही सही,मृदुला जी ने कतिपय स्मरणीय कृतियों को केन्द्रित कर कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं।उनके द्वारा किया गया यह विश्लेषण निस्संदेह मार्गदर्शी है।

    Reply
  4. लल्लन चतुर्वेदी says:
    2 years ago

    करीब दो घंटे तक इस आलेख पर चिन्तन – मनन करता रहा।यह जितना गंभीर है,उतना ही मूल्यवान और महत्वपूर्ण भी।इसके प्रभाव से मैं निकल नहीं पा रहा हूं।जीवन को इस दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है।ऐसे ही कोई बड़ा रचनाकार नहीं बन जाता। मृदुला जी ने इतनी बारीकी से कुछ कृतियों के माध्यम से जीवन और समाज की पड़ताल की हैं कि मैं दंग रह गया।ऐसे लेख को जरूरी कहा जा सकता है, अन्यथा उस समय तो जरूरी, अद्भुत जैसे शब्द आभासी दुनिया में अपनी अर्थवत्ता को चुके हैं।

    Reply
    • Anonymous says:
      2 years ago

      Ham jaisey pathak ke liye aap aison ke comments Padhna aur uspe gaur karna bhi pathak ki ek Uplabdhi hai.
      Lallan ji thanks.

      Reply
  5. कुमार अम्बुज says:
    2 years ago

    आलेख विचारोत्तेजक है।
    आरंभ तो बेहद सुगठित है।

    Reply
    • डॉ. सुमीता says:
      2 years ago

      महत्वपूर्ण और सारगर्भित आलेख। मृदुला गर्ग मैम को पढ़ना समृद्धतर हो जाना है।

      Reply
  6. Madhu Kankaria says:
    2 years ago

    बेहद महत्वपूर्ण और गंभीर आलेख।दो बार पढ़ा। चिंतन करने को मजबूर करता आलेख। कुछ क्लासिक कृतियों की जीवन और समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की सूक्ष्मता से पड़ताल की है मृदुला जी ने।

    Reply
  7. राजाराम भादू says:
    2 years ago

    मृदुला जी ने बहुत महत्वपूर्ण पक्ष को गंभीरता से रेखांकित किया है। यह सही है कि यथार्थवाद के बहाव में मनुष्य की आभ्यंतर दुनिया की व्यापक अनदेखी की गयी है। लेकिन मुझे इसका एक कारण लेखकीय अक्षमता भी लगती है। साहित्य में मनोजगत के प्रश्न संभवतः दर्शन के रास्ते से आते हैं जिसमें लेखकों की प्रायः गति नहीं है। यहाँ तक कि कविता में भी यह पक्ष बहुत कम परिलक्षित होता है। तथापि, हमारे साहित्य में मनोसंधान जहां और जितना भी है, उसे मृदुला जी की तरह विश्लेषण के दायरे में नहीं लाया गया। वैसे नाटकों में इसके बेहतरीन रूप देखने को मिलते हैं।

    Reply

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