प्रसाद आधुनिक भारतीय साहित्य के अभिनवगुप्त हैं |
जयशंकर प्रसाद की तुलना यदि संस्कृत परम्परा के किसी आचार्य और कवि से की जा सकती है, तो अभिनवगुप्त से. अभिनवगुप्त (दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी) एक रहस्यदर्शी, तन्त्रविशारद, मेधावी चितंक, दार्शनिक, कवि और सौन्दर्यशास्त्री थे. उन्होंने भारतीय चिन्तन परम्पराओं- विशेष रूप में दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र और काव्यशास्त्र की परम्पराओं को आमूलचूल रूपान्तरित कर दिया था. शैवदर्शन और काव्यशास्त्र पर जो उन्होंने लिखा वह उनके बाद के एक हजार वर्षों तक अन्तिम शब्द के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है.
अभिनवगुप्त और प्रसाद दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है यह भी सही है. पर दोनों में समानताएँ भी हैं और कुछ बहुत गहरी समानताएँ भी, जिनके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि प्रसाद आधुनिक भारतीय साहित्य के अभिनवगुप्त हैं. दोनों में एक हजार साल का फर्क है, दोनों के जीवन, परिवेश और समकालीन विश्व की स्थितियाँ बहुत भिन्न रही हैं. अभिनवगुप्त का समय अलग था, उनका जीवन प्रसाद से बहुत अलग धारा में प्रवाहित हुआ. प्रसाद उनसे बहुत दूर हैं.
पर मोटे तौर पर दोनों में समानताएँ देखने चलें, तो यह तो सत्य मानना ही चाहिये कि अभिनवगुप्त की तरह प्रसाद काव्य-चिन्तन व दर्शन में अपनी मौलिक व्याख्याओं से पूरा परिदृश्य बदल देते हैं, हालाँकि प्रसाद का काव्य और कला पर जो चिन्तन है, उस पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया. हमारे समकालीनों में विजयबहादुर सिंह जी ने अवश्य इस दृष्टि से प्रसाद को देखा है. प्रसाद बहुत कुछ ऐसा कह रहें हैं जिनसे सारा परिदृश्य बदल जाता है.
अभिनवगुप्त अपने जीवन काल में योगिनीभू और महामहेश्वर माने गये. अभिनवगुप्त में महामहेश्वर और योगिनीभू के लक्षण उनके जन्म होने के तत्काल बाद या उनके शैशवकाल में ही पहचान लिये गये थे. योगिनीभू और महामहेश्वर शैवतन्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं.
योगिनीभू को योगिनियों के मेलक या सम्मेलन में पहचान की जाती है. अभिनवगुप्त बताते हैं कि उनके समय में काश्मीर में योगियों और योगिनियों के मेलक हुआ करते थे. मेलक को आज की भाषा में कन्वेंशन या कान्फ्रेंस कह सकते हैं.
गुरुनाथपरामर्श में मधुराज योगी बताते हैं कि अभिनवगुप्त के जीवनकाल में ही देशी योगिनियों के एक मेलक में योगिनियों ने एक स्वर से अभिनवगुप्त से कहा कि बच्चा आज से सारे गुरुओं की परम्परा तेरे ही कंठ से मुखरित होगी.
अभिनवगुप्त की पहचान उनके जीवनकाल में एक महामहेश्वर के रूप में की गई. शैवदर्शन में महामहेश्वर की एक सुपरिभाषित अवधारणा है और महामहेश्वर की पहचान उसके जन्म होने के पहले ही लगभग इस तरह से कर ली जाती है जैसे तिब्बत के लामाओं की परम्परा में भावी दलाई लामा को उसके जन्म के पहले या जन्म होते ही पहचान लिया जाता है.
जयरथ अभिनवगुप्त के कुछ समय बाद हुए. वे अभिनवगुप्तकृत तन्त्रालोक के प्रसिद्ध टीकाकार, प्रख्यात शैवदार्शनिक और काव्यशास्त्र के आचार्य हैं. महामहेश्वर के पाँच लक्षण जयरथ ने बताये हैं, जो इस प्रकार हैं–
1-शिव में सुनिश्चल भक्ति
२-सद्यःप्रत्यकारिका मन्त्रसिद्धि
3-सर्वतत्त्ववशित्व
4-प्रारब्धकार्यनिष्पत्ति और
5-सालंकार मनोहर कवित्व.
इस लक्षणों को बता कर जयरथ कहते हैं- ‘इस ग्रन्थकार (अभिनवगुप्त) में शैवशास्त्रों में बताये गये ये सारे लक्षण जन्म लेने के साथ साफ दिखाई देते थे’- यह बात प्रसिद्ध है.
प्रसाद में क्या महामहेश्वर के लक्षण रहे होंगे ? रहें भी हों तो कौन अभिज्ञान और प्रत्यभिज्ञान करताॽ प्रसाद के साहित्य को देखते हुए तो लगता है कि वे महामहेश्वर रहे होंगे. किसी बच्चे में महामहेश्वर होने की सम्भावना हो और उसे वक्त पर न पहचाना जाये, उसे कविता लिखने से रोका जाये, उसे तमाख़ू की दुकान पर बैठना पड़े, तो उसका क्या होगा? उसका वही होगा जो प्रसाद का हुआ. जिन्होंने प्रसाद को देखा है वे बताते हैं कि अद्वितीय आभा मण्डल उनका था.
शिव में सुनिश्चल भक्ति, सद्यःप्रत्ययकारिका मन्त्रसिद्धि, सर्वतत्त्ववशित्व, प्रारब्धकार्यनिष्पत्ति, सालंकार मनोहर कवित्व ये लक्षण प्रसाद में भी घटते लगते हैं.
अभिनवगुप्त के ४५ ग्रन्थों का पता चलता है. उनमें से अभिनवभारती नाट्यशास्त्र पर उनकी टीका है, जो कलाशास्त्र का एक बड़ा मौलिक ग्रन्थ भी है. केवल अभिनवभारती टीका में ४५० ग्रन्थों से अभिनवगुप्त ने उद्धरण दिये हैं. प्रसाद भी सैकड़ों मूल संस्कृत के ग्रन्थों के उद्धरण देते हैं. पोथियों का बड़ा भंडार अभिनवगुप्त के पास था. प्रसाद के पास भी था. पोथियाँ जैसे दोनों के मानस में विहरती हैं. असाधारण मेधा के कारण उनसे मूल ग्रन्थ स्फुरित होते हैं- अभिनवगुप्त के प्रबन्धों से यह प्रकट है और प्रसाद के निबन्धों से भी यह जाहिर है.
अभिनवगुप्त अपने समय के शास्त्रजगत् और साहित्यजगत् के सूर्य हैं, प्रसाद भी अपने समय के वैचारिक विश्व और साहित्यिक विश्व के सूर्य हैं.
अभिनवगुप्त और प्रसाद दोनों गहरी वेदना से गुजरे- अवर्णनीय और अथाह वेदना. अभिनवगुप्त बच्चे ही थे कि माता विमलकला चल बसीं. माँ से बहुत लगाव बालक अभिनवगुप्त को रहा होगा. उनके अवसान ने कहीं बहुत गहरी पीड़ा उन्हें दी थी. तन्त्रालोक में एक पंक्ति में इसकी झलक देते हैं –
माता व्यूयुजदमुं किल बाल्य एव
दैवो हि भाविपरिकर्मणि संस्करोति l
(तन्त्रालोक, १२.४१३)
(उस [अभिनवगुप्त] की माता उसे बचपन में ही छोड़ गई. नियति मनुष्य को उसके भावी कर्म के लिये संस्कारित या तैयार करा देती है.)
इसके आगे और भी निर्मम हो कर अभिनवगुप्त यह कह जाते हैं –
‘यह प्रवाद है कि माता सबसे बड़ी बन्धु होती है. माँ का स्नेह पाशों (माया के बन्धनों) को बहुत अधिक जकड़ देता है. इस (अभिनवगुप्त) के बंधन का तो वह मूल ही गल गया, तो फिर मैं मानता हूँ कि इससे जीते जी ही मुक्ति मिल गई.’
अभिनवगुप्त को उनके जीवनकाल में ही अकारण शिव स्वरूप नहीं मान लिया गया था, अपने जीवन में उन्होंने कितनी ही बार हालाहल पिया होगा. पिता नरसिंह गुप्त को या तो पत्नी के निधन का आघात लगा होगा या उनका मन ही सहज वैरागी रहा हो. अभिनवगुप्त किशोर ही रहे होंगे कि उन्होंने भी संन्यास ले लिया. काश्मीर पर भी तो उस समय संकट के पहाड़ टूट रहे थे. इन सब के बीच अभिनवगुप्त फक्कड़ और अवधूत बन कर रहे. अपनी रामकहानी में अभिनवगुप्त बचपन के अभिनव के लिये कहते हैं–
‘दारात्मजप्रभृतिबन्धुकथामनाप्तः l’
(जिसे पत्नी, बच्चों आदि बन्धुजनों की कथा ने छूआ ही नहीं)
और
स्वात्मारामस्तदयमनिशं तत्त्वसेवारसोऽभूत् II
(तो फिर वह आत्माराम और सतत तत्त्वसेवा के रस में मगन रहने वाला बन गया)
मद से मदत्त हुई भक्ति से इसे स्वयं आ कर अपने आगोश में ले लिया.
तथा
साहित्यसान्द्ररसबोधपरो महेश-भक्त्या स्वयंग्रहणदुर्मदया गृहीतःll
स तन्मयीभूय न लोकवर्तनी-मजीगणत् कामपि केवलं पुनःl
(वह अभिनवगुप्त साहित्य सान्द्र या गाढे रस के बोध में सराबोर था, स्वयं साथ लग कर मतवाली हो गई महेश की भक्ति से उसे पकड़ लिया था, वह उसमें ऐसा तन्मय हुआ कि लोकव्यवहार को कुछ समझता ही न था.)
अभिनवगुप्त तो माता और पिता दोनों का साया बचपन में ही सर से उठ जाने के बाद उनके भाई बन्धुओं या महामहेश्वर के रूप उनकी पहचान समझने वाले भक्तवृन्दों के द्वारा अपना लिये गये. वे फक्कड़, मस्त मलंग और अवधूत होते गये, उनका भक्त समाज उन्हें सेलेब्रिटी बनाता रहा. जिस तरह एनी बेसेंट और उनकी थियासोफिकल सोसायटी के लोगों ने बालक कृष्णमूर्ति को भावी धर्म गुरु के रूप में बचपन में ही पहचान कर उन्हें अपने साये में रखा, उस तरह अभिनवगुप्त की भी उनके शुभेच्छूओं ने भविष्य की एक बड़ी निधि मान कर सालों साल सँभाल की.
प्रसाद को भी कचोट और वेदनाएँ तो मिलीं, पर उन्हें किसी ने शायद इस तरह सँभाला नहीं. वे घनीभूत पीडाएँ बन कर उनके मस्तक में स्मृतियों की तरह छाई रहीं, दुर्दिन में आँसू बन कर वह कविता में बरसतीं रहीं. प्रसंगवश प्रसाद की तरफ मेरे खिंचने का एक कारण प्रसाद की यहाँ सन्दर्भित पंक्तियों में ‘दुर्दिन’ शब्द का प्रयोग हैं, जो बताता है कि संस्कृत साहित्य की परम्पराओं से वे कितनी गहराई से जुड़े हुए हैं, जहाँ दुर्दिन का अर्थ केवल ख़राब दिन नहीं होता. दुर्दिन उसे भी कहा और कविताओं में तो उसे ही कहा जाता है रहा है जिसमें वर्षा (झड़ोंदा) कई-कई दिनों तक टूटने का नाम नहीं लेती.
अभिनवगुप्त शैवदर्शन के सबसे बड़े व्याख्याकारों और मौलिक चिन्तकों में से एक माने गये. प्रसाद शैव दर्शन के एक बड़े अध्येता और व्याख्याकार हैं. आचार्य नवजीवन रस्तोगी के अनुसार शैवदर्शन को कुल तीन लोगों ने ही हमारे समय में ठीक-ठीक समझा है- एक तो उनके गुरु कान्तिचन्द्र पाण्डेय थे, दूसरे म. म. गोपीनाथ कविराज और तीसरे जयशंकर प्रसाद.
आचार्य रस्तोगी प्रत्यभिज्ञा का अभिप्राय समझाने के लिये प्रसाद को उद्धृत भी करते हैं. प्रसाद शैवशास्त्र को उस मुकाम से कुछ और आगे ले जाने का यत्न करते हैं, जहाँ उसे अभिनवगुप्त छोड़ कर गये. प्रसाद वेदों के इस काम को शैवदर्शन के स्पन्दन और उन्मीलन से जोड़ देते हैं. तब वेद के कवि ने जिसे काम कहा है, वह लीलामय आनंद से उपजता है वह विश्व का अभिराम उन्मीलन हो जाता है. उसमें से अनुराग जन्म लेता है.
कर रही लीलामय आनंद, महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त।
विश्व का उन्मीलन अभिराम, इसी में सब होते अनुरक्त।
(श्रद्धा सर्ग पृ. ६१)
इच्छा ज्ञान क्रिया इन तीनों के मूल में भी काम है –
काम-मंगल से मंडित श्रेय, सर्ग इच्छा का है परिणाम।
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल, बनाते हो असफल भवधाम”
(श्रद्धासर्ग, पृ. ६१)
अभिनवगुप्त कवि पहले थे शैवसाधक, तन्त्रविद्, दार्शनिक, सौन्दर्यशास्त्री आदि बाद में. अभिनवगुप्त स्वयं चाहते रहे हैं कि उन्हें कवि के रूप में पहचाना जाये, और वे थे भी बहुत बड़े कवि, हालाँकि उनके कवि रूप को लगभग विस्मृत कर दिया गया. प्रसाद के साथ उलटा हुआ. उनको कवि, कथाकार, उपन्यासकार और नाटककार के रूप में अधिक पहचाना गया, वे संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित हैं, एक गम्भीर दार्शनिक और सौन्दर्यशास्त्री भी हैं– इस रूप में कदाचित् वे उतने चर्चित नहीं रहे हैं. पर अभिनवगुप्त और प्रसाद ये दोनों शैवदर्शन की ओर क्यों झुके होंगे इसका कारण स्पष्ट है. शैव दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जिसमें कविता और कला के लिये भरपूर स्पेस है, एक मुकम्मल सौन्दर्यशास्त्र इस दर्शन से निकलता है.
दो |
मुझे वेदान्त, न्याय, मीमांसा या अन्य किसी दर्शन से सन्तोष नहीं होता, शैवदर्शन से सन्तोष होता है या रामावतार शर्मा के परमार्थदर्शन से. जिस दर्शन में जगत् को एक विवर्त या मुलम्मा मान लिया जाये उससे हम जैसे लोगों को सन्तोष कैसे हो सकता है जो जगत् के सारे सौन्दर्य में रम रहे हैंॽ जिस दर्शन के परम तत्त्व को जगत् के अलग करके रख दिया जाये, उससे कैसे सन्तोष हो सकता हैॽ शैव दर्शन में परम शिव जगत् की सृष्टि भी करते हैं और वे इस के कण-कण में रम भी जाते हैं. वे अपने स्वातन्त्र्य से इसे रचते हैं.
शैवदर्शन के सृष्टिविमर्श में केंद्रीय तत्त्व स्वातन्त्र्य का सिद्धांत है. अभिनवगुप्त कवि या कलाकार स्वातंत्र्य के संदर्भ में इसकी पुनर्व्याख्या करते हैं. शक्ति अपने को अनंत रूपों में व्यक्त करती है या शिव उसके माध्यम से अनन्त रूपों में व्यक्त होते रहते हैं. शिव शक्ति से संवलित हो कर जगत् को रचते हैं यह उनका स्वातन्त्र्य है. यह स्वातन्त्र्य आनन्दरूप है.
‘आनन्दोच्छलिता शक्तिः सृजत्यात्मानमात्मना’
आनन्द में उमगती शक्ति स्वयं को स्वयं से रचती है- यह शैवदर्शन का सृष्टि प्रक्रिया का मर्म है. चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया- शक्ति के ये पाँच रूप हैं. शिव आत्मप्रकाशन की शक्ति के साथ अवस्थित हैं. आनंद का दूसरा नाम स्वातंत्र्य भी है. तंत्रालोकसार में अभिनवगुप्त कहते हैं –
स्वातन्त्र्यमानन्दशक्तिः
स्वातन्त्र्य के सिद्धान्त की कवि और कलाकार के स्वातन्त्र्य से जैसी समाकारिता शैव दर्शन में बनती है वैसी वेदान्त, न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों में नहीं बनती.
स्वात्मोच्छलता या भीतर का उच्छलन इस सृष्टिप्रक्रिया की पहचान है, और स्वातंत्र्य उसका स्वभाव. स्वात्मोच्छलता को स्पन्द भी कहा गया है. स्पन्द के द्वारा संकोच और विकास या उन्मीलन और निमीलन होता है. अभिनवगुप्त शैवशास्त्रों की सृष्टिप्रक्रिया की ये सारी अवधारणाएँ काव्य या कला की सर्जनाप्रक्रिया पर भी समान रूप में लागू करते हैं. प्रसाद इन अवधारणों की पुनर्निष्पत्ति अपने सर्जनात्मक कर्म में करते हैं.
कविप्रतिभा को शिवरूप कहा गया, शिव जिस तरह प्रकाशविमर्शमय हो कर स्वातंत्र्य से संसार की सृष्टि करते हैं, वैसे ही कवि अपनी प्रतिभा के स्वातंत्र्य से काव्य की सृष्टि करता है. जिस तरह शिव शक्ति से संवलित हो कर विश्व रचते हैं, उसी तरह रचनाकार भी प्रतिभा की शक्ति से संवलित हो कर कविता का विश्व रचता है.
इस दृष्टि से शिव या महेश्वर और कविप्रतिभा के बीच भी समाकारिता हो जाती है. शिवदृष्टिकार सोमानंद और उत्पलदेव जैसे शैव दार्शनिकों ने कला के विमर्श के लिये ऐसे महाद्वार खोल दिये, जो अन्य किसी भारतीय दर्शन ने नहीं खोले, कदाचित् संसार में अन्य किसी तत्त्वचिन्तन या धर्मदर्शन कलाविमर्श को यह जगह नहीं दी होगी, जो शैव दर्शन ने दी. परमतत्त्व के अनुभव को समझाने के लिये कलानुभव को उपमान बनाया गया तथा कलानुभव को समझाने के लिये शिवानुभव को उपमान बनाया गया.
शैवशास्त्रों की आधारभूमि पर जो सौन्दर्यशास्त्र निर्मित होता है, वह शक्ति का सौन्दर्यशास्त्र है. कामायनी के अन्तिम सर्गों में प्रसाद अनस्तित्व में अस्तित्व के स्पन्दित होने का वर्णन करते हुए बार-बार शक्ति के उच्छलन की बात करते हैं. अहंप्रत्यवमर्श या अपने होने का विमर्शात्मक बोध उसकी अनिवार्य शर्त है. वेदांत और वैष्णव भक्ति से जुड़ी दार्शनिक परम्पराएँ जहाँ अहं को निर्मूल करने पर बल देती हैं, शैवतन्त्र व प्रत्यभिज्ञा के दर्शन इस अहं को साधना का मूल स्वीकार करके आगे बढ़ते हैं.
अभिनवगुप्त शैवदर्शन की सृष्टिप्रक्रिया और काव्य या कला की सृष्टि प्रक्रिया में समाकारिता तो स्थापित करते ही हैं, वे शैवानुभूति और काव्यानुभूति में भी समाकारिता देखते हैं. इसके साथ ही अपने से पहले हो चुके वसुगुप्त, सोमानन्द, उत्पलदेव आदि महान् शैव दार्शनिकों की आगममूलक चिन्तन प्रस्थान को वे वैदिक विश्वबोध से जोड़ कर निगमगम का समन्वय करते हैं.
प्रसाद अपने वैचारिक लेखन में और काव्यरचना में विशेषतः कामायनी में अभिनवगुप्त के इस उपक्रम को एक परिणति तक ले जाने का प्रयास करते हैं, वे उसमें वैदिक आनन्दवाद या मधुबोध से जोड़ देते हैं. कामायनी शिव और शक्ति के सामरस्य का ही नहीं, वैदिक आनन्दवाद तथा जीवन की मधुमयता का उद्घोष बन जाती है. प्रसाद में आ कर इच्छा-क्रिया-क्रिया के समन्वय से जन्मी सृष्टि में औपनिषदिक आनन्द का मधु घुल जाता है.
तीन |
शतपथ ब्राह्मण में बताई गई कामायनी की कथा को चुनने के पीछे प्रसाद का अभिप्राय यही लगता है. शिव इस जगत् मे समाये हुए हैं, तो यह जगत् दुःखमय कैसे हो सकता है. सारा आनंद यहीं है.
उपनिषदों में मनुष्य की सत्ता के पाँच स्तर बताये गये. इन को पाँच कोश कहा गया.
1-अन्नमय
२-प्राणमय
3-मनोमय
4-विज्ञानमय और
5-आनन्दमय
ये इन पाँच कोशों के नाम हैं. मनुष्य की चेतना इन पाँच संसारों से गुजरती है या किसी एक में विश्राम लेती है.
पहला स्तर आधिभौतिक संसार का या दिखाई दे रही दुनिया का है. दूसरी दुनिया हमारी ऊर्जाओं की वासनाओं की दुनिया है. यह प्राणमय कोश है. तीसरा कोश मनोमय है. मनु मन के प्रतीक हैं, वे मनोमय जगत् तक अटक गये हैं. इड़ा उन्हें पकड़ कर विज्ञानमय तक ले जाती है श्रद्धा उसके आगे आनन्दमय तक पहुँचाती है. इस तरह कामायनी की यात्रा अन्नमय से आरम्भ हो कर आनन्दमय तक पहुँचती है.
प्रसाद चेतना के सुन्दर इतिहास की बात करते हैं. क्या कामायनी के अन्तिम सर्गों की रचना करते हुए वे उस भूमा या आनन्दमयी दशा का अनुभव कर रहे हैं जिसका अनुभव और निर्वचन तथा व्याख्यान अभिनवगुप्त करते रहे? वहाँ पहुँच कर अभिनवगुप्त के शब्दों में शिवमयी दशा हो जाती है क्यों कि सब कुछ शिवमय लगने लगता है.
वस्तुतश्शिवमये हृदि स्फुटं सर्वतश्शिवमयं विराजते l
नाशिवं क्वचन कस्यचिद्वचः तेन वश्शिवमयी दशा भवेत् ll
शिवमय यदि हो हृदय तो
शिवमय सब कुछ साफ-साफ हो जाता है
किसी का कुछ भी कहा नहीं अशिव होता फिर
और हम सब की दशा हो जाती है शिवमयी.
शिव इस जगत् में समाये हुए हैं. वे ही भोक्ता हैं, वे ही भोग्य और वे ही भोग भी हैं. विश्वोत्तीर्ण चैतन्य के द्वारा अपनी विश्वात्मकता का अनुभव करना भोग है. भोग और मोक्ष की साम्यावस्था पूर्णता है.
महोपदेशविंशतिकम् में अभिनवगुप्त कहते हैं
तुम तुम ही हो, मैं मैं ही हूँ
तुम ही हो मैं नहीं हूँ
यह सारा भेद का प्रपंच
यह मेरा होना और तुम्हारा होना
ये दोनों ही जिसमें नहीं होते
इसको नमन, उसको नमन II
काया के भीतर नित्य ही
मैं ने ढूँढा तुम को भी, अपने को भी
न तुम दिखे न मैं दिखा
फिर जो दिखा वह तुम भर थे II
मैं भक्त था तुम्हारा,
अब तुम्हारा रूप मैं हूँ I
तुम मेरे रूप हो गये
तुम्हें देख देख कर
मैं नमन करता हूँ तुमको,
मैं नमन करता हूँ अपने को I
यह सब केवल वचनचातुरी भर है
कि मैं तुम में लय हुआ, तुम मुझ में
यह भी तुम्हारी माया से उपजती है
सचमुच तो कौन किस में लय होता है? II
तुम्हारा स्वरूप उभरता है सामने
तब तुम होते हो, मैं होता हूँ
और जगत् होता है सारा
उसका तिरोधान होने पर
न तुम होते हो, न मैं, न जगत् I
यह शैवी अनुभूति है. प्रसाद क्या क्षयरोग से जर्जर होती अपनी काया से ऊपर उठ कर आणव मल और कायीय मल आदि शैवशास्त्रों में बताये गये मलों को त्याग कर इस शिवानुभूति तक पहुँच रहे हैंॽ
इसका उत्तर मेरी दृष्टि से हाँ होगा क्यों कि प्रसाद को यहाँ आ कर सारी सृष्टि चेतना का सुन्दर इतिहास लगती है-
चेतना का सुंदर इतिहास अखिल मानव भावों का सत्य;
विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य।
(श्रद्धासर्ग, पृ. ६६)
प्रसाद की दृष्टि में कामायनी ‘श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के समयोग से मानवता का विकास-रूपक’ तथा ‘मनुष्यता का मनौवैज्ञानिक इतिहास’ भी है. जल प्लावन की घटना भी उनके लिये इतिहास है.
आशा शीर्षक सर्ग अनस्तित्व में हो रहे उस स्पन्द के स्पन्दनों की कथा प्रस्तुत करता है. इस अनस्तित्व में
जैसे कोलाहल सोया हो, हिम शीतल जड़ता-सा श्रांत।
(आशा, पृ. ३२)
इसके आगे तो प्रसाद ऋग्वेद के हिरण्यगर्भसूकत और नासदीय सूक्त ‘कस्मै देवाय हविषा’ की सुन्दर काव्यात्मक अन्यच्छाया प्रस्तुत कर देते हैं.
महानील इस परम व्योम में, अंतरिक्ष में ज्योतिर्मान,
ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण किसका करते-से संधान!
(आशा, पृ. ३४)
तथा
हे अनंत रमणीय कौन तुम? यह मैं कैसे कह सकता,
कैसे हो? क्या हो? इसका तो, भार विचार न सह सकता।
(आशा, पृ. ३४
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में कहा है- ‘तम आसीत् तमसा गूळ्हम्’– सृष्टि के पहले कुछ भी नहीं था, अँधियारे की परतों में लिपटा अँधियारा केवल था. प्रसाद नासदीय सूक्त की गूढ़ गंभीर कविता को अपनी कविता में अवतरित कराते हैं
‘आह शून्यते चुप होने में, तू क्यों इतनी चतुर हुई?
इंद्रजाल-जननी रजनी तू,क्यों अब इतनी मधुर हुई?’
(आशा सर्ग पृ. ४६)
प्रसाद शैवदर्शन की स्पन्दकारिका को उपनिषदों के भूमा और वेद के मधुबोध से संवलित करते हैं.
‘विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान;
यही दु:ख सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान।‘
(श्रद्धासर्ग, पृ. ६२)
कामायनी वस्तुतः आगम और निगम के समागम का भी आख्यान है.
अनुत्तराष्टिका में अभिनवगुप्त कहते हैं –
आनन्द है यह, पर न धन के मद वाला
आनन्द नहीं, मद्य के मद वाला आनन्द नहीं
अंगना के संग वाला आनन्द नहीं
प्रकाश का उदय है यह, पर दीप की, सूर्य की
चंद्र की प्रभा के प्रकार सरीखा प्रकाश का उदय नहीं है
यह हर्ष है,
जो भेद भीतर भरा है उससे मुक्त हो जाने का
भार के उतर जाने का
जो निधि पास थी और बिसर गई थी,
प्रकाशोदय है यह उसको फिर से पाने का.
प्रसाद कामायनी के अन्तिम सर्गों में इस आनन्द भावना का काव्यात्मक आख्यान रचते हैं. अपने निबन्धों में भी वे कहते हैं –
“आनन्दभावना, प्रियकल्पना और प्रमोद हमारी व्यवहार्य वस्तुएँ थीं. आज की जातिगत निर्वीर्यता के कारण उसे ग्रहण न कर सकने पर, यह सेमेटिक है- यह कह कर संन्तोष कर लिया जाता है.”
प्रसाद की इस कल्पना को स्वैराचार नहीं समझा जाना चाहिये, न उनकी आनन्दभावना प्रिय कल्पना और प्रमोद को आधुनिक अर्थ में भोगवाद कहा जाना चाहिये. अभिनवगुप्त ने रस के स्वरूप की व्याख्या में ‘आनन्दाद्धेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते’– इत्ययादि उपनिषद् वचन उद्धृत किये हैं, प्रसाद भी इन्हीं वाक्यों को आनन्द के स्वरूप की अवतारणा में उद्धृत करते हैं. इसी आनन्द से उच्छलित शक्ति स्वयं को स्वयं से रचने लगती है. प्रसाद आत्मा के उल्लास की दशाओं के रूप में इन्हें समझ रहे हैं.
यही आनन्द काम या प्रेम का ही रूप है. प्रसाद कहते हैं कि आगमपरम्परा में “काम की उपासना सौन्दर्य, आनन्द और उन्मद भाव की साधनाप्रणाली” थी (वही, पृ. ४६५).
दर्शन सर्ग में प्रसाद को सारा विश्व लीला में थिरकता प्रतीत होता है, पर वे इसे अपने अनुभव की भाषा में व्यक्त करते हैं
चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत, वह रूप बदलता है शत-शत,
कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत उल्लासपूर्ण आनंद सतत
इस सर्ग का समाहार करते हुए प्रसाद शैवशास्त्रों के अपने अध्ययन को कविता में उतारते हुए लगते हैं. उत्पलदेव और अभिनवगुप्त की अवधारणाएँ यहाँ काव्यबिम्बों में रूपान्तरित होती लगती हैं.
अनुभवनिवेदन में अभिनवगुप्त कहते हैं
जो कोई भी शब्द निकलता है मुख से
वह ही बन जाता है मन्त्र अलौकिक
जो भी स्थिति सुख में दुख में काया की होती है
वह ही मुद्रा बन जाती है
प्राणों का अपने रस में बहते रहना
वही योग अद्भुत हो जाता है
यही शाक्त धाम परम है
मेरे अनुभव के भीतर क्या यह चमक नहीं रहा है?
प्रसाद इसी भूमि पर पहुँच कर नटराज को नृत्यनिरत देखते हैं —
अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित थी शून्यभेदिनी सत्ता चित्
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत, था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल, थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पन्दित आह्लाद वह प्रभा पुंज चितिमय प्रासाद
आनन्दपूर्ण ताण्डव सुन्दर झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर
बनते तारा, हिमकर, दिनकर उड रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद- गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल, युग ग्रहण कर रहे तोल,
विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर, कंपित संसृति बन रही उधर,
चेतन परमाणु अनंथ बिखर, बनते विलीन होते क्षण भर
यह विश्व झुलता महा दोल, परिवर्त्तन का पट रहा खोल।
(दर्शन सर्ग पृ. २६०-६१)
मनु नर्तित नटेश को निहारते हैं, श्रद्धा को पुकारते हैं कि वह उन्हें उनके चरणों तक ले चले , जहाँ
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल, पावन बन जाते हैं निर्मल,
मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,समरस, अखंड, आनंद-वेश” ।
(दर्शन सर्ग पृ. २६२)
प्रसाद की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए शैव शास्त्र के अध्येता को अभिनवगुप्त के शैवानुभूति के संवलित स्तोत्रों या लल्लद्यद के वाखों का स्मरण आ सकता है. ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि प्रसाद ने अभिनवगुप्त की कविताओं को पढ़-पढ़ कर उनकी छायाएं ले कर कामायनी रची है, जैसे अभिनव को मद से मतवाली भक्ति ने खुद आ कर अपने आगोश में ले लिया था, ऐसे ही कामायनी के आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर अभिनव की एक हजार साल पुरानी उक्तियाँ खुद उतर- उतर प्रसाद की पंक्तियों में उनकी भाषा में अपने आप को ढालती जाती हैं.
दर्शन सर्ग में इस सृष्टि विमर्श को आनंद के विमर्श में ढाला गया है.
कामायनी में आभ्यंतर जगत् और बाह्य जगत् एकमेक हो जाते हैं– ‘बाहर भीतर उन्मुक्त सघन, था अचल महा नीला अंजन.’ इस ऐक्य में अनन्त समा जाता है – ‘इतना अनन्त था शून्य सार, दीखता न जिसके परे पार.’ ‘सत्ता का स्पंदन आवरण पटल की ग्रंथि खोल’ देता है. तब केवल प्रकाश किलोल करता है, मधु किरणों की लहरें उठान भरती हैं. यह लीला का स्पन्दित आह्लाद है, प्रभापुंज का चितिमय प्रासाद है. इसमें आन्दपूर्ण ताण्डव सुन्दर उज्ज्वल श्रम सीकर झरते हैं.
दर्शन सर्ग में श्रद्धा मानव से कहती है
‘यह विश्व अरे कितना उदार, मेरा गृह रे उन्मुक्त द्वार.’
सृष्टि के सारे भाव इसी इंद्रिय गोचर जगत् में हैं,
उत्थान-पतनमय सतत सजग, झरने झरते आलिगित नग,
उलझन मीठी रोक टोक, यह सब उसकी है नोंक झोंक।
तथा
अपनी सुषमा में यह झलमल, इस पर खिलता झरता उडुदल,
अवकाश-सरोवर का मराल,कितना सुंदर कितना विशाल
वह अनंत चेतन नचता है उन्मद गति से, तुम भी नाचो अपनी द्वयता में-विस्मृति में ।
क्षितिज पटी को उठा बढ़ो ब्रह्मांड विवर में, गुंजारित घन नाद सुनो इस विश्व कुहर में ।
यह सब इड़ा के मुख से प्रसाद जी ने कहलवाया है. इड़ा उनके अपने जीवन दर्शन की ही अभिव्यक्ति यहाँ कर रही है. फिर श्रद्धा और इड़ा में फर्क ही कितना रह गया.
अभिनवगुप्त और उनके दो कदम आगे बढ़ कर प्रसाद आगम को निगम से जोड़ रहे हैं.
कर रही लीलामय आनंद, महा चिति सजग हुई सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम इसी में सब होते अनुरक्त।
प्रसाद ने स्पंद न कह कर उन्मीलन कहा है, जिसमें महाचिति व्यक्त हो गई है.
आगे श्रद्धा कहती है –
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान;
यही दु:ख सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान।
तप नहीं केवल जीवन सत्य करुण यह क्षणिक दीन अवसाद;
तरल आकांक्षा से है भरा सो रहा आशा का आह्लाद।
पुरातनता का यह निर्मोक सहन करती न प्रकृति पल एक;
नित्य नूतनता का आनंद किए हैं परिवर्तन में टेक।
कामायनी के अन्तिम सर्ग में प्रसाद बार-बार सकल विश्व में चिति के विद्युत्कणों की थिरकता हुआ देखते हैं. क्वाण्टम् भौतिकी भी जगत् के कण कण में अणु को थिरकता हुआ देखती है. पर प्रसाद भौतिकी की जड़ता को तोड़ते हुए नटराज के महानृत्य से उसे जोड़ते हैं.
प्रसाद के चिन्तन और कविकर्म में शैवदर्शन की स्वातन्त्र्य की अवधारणा गाँधी के स्वराज की अवधारणा के साथ सुमंजस हो जाती है.
प्रतिभा की परम सत्ता के स्तर पर परम्परा में कवि और मनीषी में, साहित्य के सर्जक और चिन्तक में, कलाकार और आचार्य में तात्त्विक अन्तर नहीं किया जाता. वेदों के ऋषि कवि भी हैं. कालिदास शैवदर्शन के बडे आचार्य हैं, उनके मेघदूत और शाकुन्तल अनुपम काव्य या नाटक होते हुए शैवशास्त्र के ग्रन्थ भी हैं. अभिनवगुप्त एक बड़े आचार्य ही नहीं बड़े कवि भी हैं. उसी तरह प्रसाद एक बड़े कवि होते हुए अभिनवगुप्त की तरह शैवदर्शन के आचार्य भी हैं.
(कामायनी को पढ़ते हुए: शीर्षक अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में प्रदत्त वक्तव्य)
बहुत सुंदर लिखा है। राधावल्लभ त्रिपाठी जी तो हमारे समय के अभिनव गुप्त ही हैं। परंपरा के नैरंतर्य में आधुनिकता की सूक्ष्म गतियां देख लेना, अद्भुत है।
महत्वपूर्ण है यह आलेख।
जयशंकर प्रसाद की कामायनी का अन्त:स्वर सभ्यता समीक्षा का है। औद्योगिक विकास के भीतर क्षरण की उपस्थिति देखने वाली उस कृति को समझने की नई नज़र का संघर्ष मुक्तिबोध में था।
ये ज़रुरी आयाम हैं अकादमिकी से अधिक भारतीय चिंतन धारा की क्षमता समझाने वाले।
बहुत ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण आलेख
महत्वपूर्ण आलेख जो जयशंकर प्रसाद के रचना कर्म की सांस्कृतिक अंतर्वस्तु को ठीक से समझने में हमारी बहुत दूर तक सहायता करता है।
प्रसाद को शैवागम से तो सतत जोड़ा ही जाता रहा है पर उसका विधिवतऔर सम्प्रेषणीय विधि से उसका बोध और साक्षात्कार तो त्रिपाठी जी ही करा सके।यह एक कठिन समस्या थी जो अब अपना तर्कसंगत समाधान पा सकी है।
मेरे गुरुदेव आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी जयशंकर प्रसाद(1939) शीर्षक अपनी पुस्तक में यह तो लिखते रहे कि प्रसाद शक्ति के कवि हैं पर यह गूढ़ बात मेरी समझ में त्रिपाठी जी के इस गंभीर व्याख्यात्मक उद्यम के बाद अब आई।
यहाँ मै आचार्य वाजपेयी का वह वाक्य प्रसाद प्रेमियों के लिए उद्धृत करना चाहता हूँ—-
“मैं प्रसाद जी को हिन्दी का सबसे प्रथम और सबसे श्रेष्ठ शक्तिवादी और आनंदवादी कवि मानता हूँ।”पृष्ठ 21
जयशंकर प्रसाद—नन्ददुलारे वाजपेयी।
आनन्द में उमगती शक्ति स्वयं को स्वयं से रचती है- यह शैवदर्शन का सृष्टि प्रक्रिया का मर्म है. चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया- शक्ति के ये पाँच रूप हैं. शिव आत्मप्रकाशन की शक्ति के साथ अवस्थित हैं. आनंद का दूसरा नाम स्वातंत्र्य भी है.”’
लेख की यह पंक्ति ‘कामायनी’ के बुनियादी मर्म को खोल देती है. आनेवाले समय में यह लेख कई-कई बार पढ़ा जाएगा.
बहुत ज्ञानवर्धक और समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग
बहुत गंभीर सुविचारित और अंतर्दृष्टि संपन्न आलेख ।
इस तरह के आख्यान लम्बे अध्ययन के बाद ही संभव होते है । अदभुत है अभिनव गुप्त और प्रसाद का तुलनात्मक अध्ययन ।
लेख निश्चित ही सुंदर लिखा गया है चूंकि मैंने अभिनव गुप्त को नहीं पढ़ा इसलिए उनके विषय में जानना रोचक लगा। अब मैं उनके विषय में या उनका लिखा शायद पढ़ सकूँ।
एक बात और, आज मैंने इसे सुना और ये निश्चित ही बहुत अच्छा लगा। अगर ये मशीनी आवाज़ है तो भी बहुत अच्छी है, उच्चारण भी। अरुण सर तीव्रता से चीज़ों को समझते और उसका क्रियान्वयन करते हैं। उनकी अभिरुचि समालोचन के अंक चित्रों से समझी जा सकती है जिसे वो स्वयं बनाते हैं👍🙏
राधावल्लभ त्रिपाठी जी को पढ़ना ज्ञानसमृद्ध होना होता है। पूर्व मध्यकालीन अभिनव गुप्त और आधुनिक हिन्दी कवि जयशंकर प्रसाद का तुलनात्मक अध्ययन ऐसा विशद विमर्श है जिसे इसमें डूब कर ही समझा जा सकता है। स्तुत्य प्रस्तुति।