राष्ट्रप्रेम, भूमि अधिग्रहण और प्रतिरोध रोहिणी अग्रवाल |
जयशंकर प्रसाद की ‘पुरस्कार’ कहानी पढ़ने के लिए
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“रास्ता अंधेरे से ढका हुआ … सिर्फ अट्टालिकाओं पर गिरी हुई चांदनी से कुछ-कुछ प्रत्यावर्तित प्रकाश से रास्ते का आकार सूझ रहा है.
युवक कैसे तो भी चल रहा है. नींद के गरम लिहाफ में सोना चाहता है.… युवक के पैरों में कुछ तो भी नरम-नरम लगा- अजीब, सामान्यतः अप्राप्य, मनुष्य के उष्ण शरीर सा कोमल. उसने दो-तीन कदम और आगे रखे. और उसका संदेह निश्चय में परिवर्तित हो गया. उसका सारा शरीर कांप गया. उसकी बुद्धि, उसका विवेक कांप गया. वह यदि कदम नहीं रखता है तो एक ही शरीर पर ….न जाने वह बच्चे का है या स्त्री का, बूढ़े का या जवान का- उसका सारा वजन एक ही पर जा गिरे. वह क्या करे? वह भागने लगा किनारे की ओर. परंतु कहाँ – वहाँ तक आदमी सोए हुए थे. उनके शरीर की गर्म कोमलता उसके पैरों से चिपक गई थी. वहाँ एक पत्थर मिला, वह उस पर खड़ा हो गया, हाँफता हुआ. उसके पैर कांप रहे थे. वह आंखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था. परंतु अंधेरे के उस समुद्र में उसे कुछ नहीं दीखा. यह उसके लिए और भी बुरा हुआ. उसका पाप यों ही अंधेरे में छिपा रह जाएगा. उसकी विवेक-भावना सिटपिटा कर रह गई. उसको ऐसा धक्का लग गया कि वह संभलने भी नहीं पाई. वह पुण्यात्त्मा विवेक-शक्ति केवल कांप रही थी.
युवक के मन में एक प्रश्न बिजली के नृत्य की भांति मुड़-मुड़ कर, मटक-मटक कर घूमने लगा – क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जग कर, जाग्रत होकर उसको डंडे मारकर चूर कर देते हैं? क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया?”
(कहानी ‘अंधेरे में‘, मुक्तिबोध)
1.
प्रस्थान-बिंदु ही यात्रा की दिशा तय करता है
जिंदगी, इतिहास और संस्कृति की तरह साहित्य में भी राजनीति की हस्तक्षेपकारी भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. न, मैं साहित्य में राजनीतिक खेमेबंदियों और मठाधीशों के दांव-पेंचों की बात बिल्कुल नहीं कर रही जो तात्कालिक लाभ-लोभ के चलते सत्तासीनों के सामने कोर्निश बजने में भी परहेज नहीं करते. वह साहित्यिक कृतियों की रचनात्मक दुनिया से परे साहित्यकार बिरादरी की अंदरूनी गलियों की राजनीति है जो व्यक्ति साहित्यकार के निजी भौतिक-व्यक्तित्व को रचती-विघटित करती है.
मैं बात करना चाहती हूँ वृहत्तर परिदृश्य की उस राजनीति की, जो राज्य के परिचालन एवं जनकल्याण हेतु नीति-नियमों-संहिताओं का निर्माण करती है और आम आदमी की जिंदगी को ही नहीं, अपने समय, समाज और आगत भविष्य को भी दूर तक प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है. सकारात्मक ढंग से भी, नकारात्मक ढंग से भी. जैसे तीन कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लामबंद हुआ किसान आंदोलन, जो एक स्तर पर जन-आक्रोश एवं जन-प्रतिरोध को अभिव्यक्ति देकर अपने मानवीय अधिकारों के लिए लड़ रहा है, तो दूसरे स्तर पर अपनी सांगठनिक ताकत के बल पर सत्ता की चूलें हिलाने की ताकत भी रखता है.
जन-प्रतिरोध दरअसल संचित जन-आक्रोश की मुखर अभिव्यक्ति है जो बुनियादी तौर पर राज्य की नीतियों के आम आदमी की जिंदगी पर पड़ने वाले दु:सह प्रतिकूल प्रभावों को संकेतित करता है. लेकिन जरूरी नहीं कि प्रतिरोध हमेशा किसी आंदोलन का रूप ही ले. वह भीतर ही भीतर सुगबुगाकर दम तोड़ने वाली भयावह असमर्थता में भी विघटित हो सकता है, या कभी-कभी सत्ता की जनविरोधी नीतियों के निहित मंतव्यों को समझने में असमर्थ रहने के कारण फौरी तौर पर उनका प्रशंसक भी बन सकता है जैसे सेज (SEZ) की परिकल्पना और उद्योग-धंधों व रोजगार के विकसित अवसरों के आश्वासन से बहुसंख्य किसानों द्वारा सरकार की भूमि-अधिग्रहण नीति का समर्थन. हालांकि बंगाल के सिंगूर में इसका प्रबल विरोध हुआ जिस कारण टाटा मोटर्स को नैनो कार फैक्ट्री गुजरात स्थानांतरित करनी पड़ी. लेकिन देश के कई राज्यों विशेषकर हरियाणा में इसका अधिक विरोध नहीं हुआ. संभवतया इसके मूल में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार और एवज के तौर पर मिलने वाला लुभावना मुआवजा.
उपभोक्ता संस्कृति ने आम आदमी के मन में भौतिक प्रलोभनों और चकाचौंध के प्रति बेहिसाब तृष्णा बढ़ा कर श्रम को ईजी मनी और संतोष को हवस में तब्दील करने का बड़ा काम किया है.
सत्यनारायण पटेल की बेहद प्रभावशाली कहानी ‘लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना‘ बहुत गहरे उतर कर सरकार की आर्थिक-राजनीतिक नीतियों के कारण समाज और मनुष्य के मनोविज्ञान में आए इन परिवर्तनों की प्रामाणिक थाह लेती है.
साहित्य में राजनीति हमेशा अंडर करंट की तरह मौजूद रहती है. लेकिन साहित्य को उसकी विविध ध्वन्यात्मक व्यंजनाओं के साथ न पढ़ने की आदत एक ऐसे साहित्य-संस्कार का विकास करती है जो रचना के ऊपर-ऊपर तैरते पाठ/अर्थ से ही संतुष्ट हो जाती है. बेशक रचना में लेखक का युगीन यथार्थ ही प्रतिफलित होता है, लेकिन यह भी सत्य है कि रचना की अंतर्ध्वनियाँ लिखे जाने वाले कालखंड तक ही सीमित नहीं रहतीं. वे चौहद्दियों में बंधने से इंकार करती हैं और सीधे अंतरिक्ष तक अपनी परिधि और सीमा का विस्तार कर हर बदलते कालखंड के अनुरूप अपनी ध्वन्यात्मक व्यंजनाओं को संवर्धित करती रहती हैं. वे तलाशती हैं एक अदद पाठक, जो पहले बंट कर अलग हुए दो भिन्न कालखंडों पर सृजनात्मक विश्लेषण का पुल बनाये. फिर, परखे कि समय की निरंतरता में गतिमान मनुष्य की मनोकांक्षाएँ कहाँ और क्यों यकसां रहती हैं? कि कैसे राजनीति के विविध तत्व- अहम, सत्ता-लिप्सा, वर्चस्व, मैनिपुलेश- व्यक्ति-मानस के भीतर भी गहरी घुसपैठ बनाए रखते हैं.
पाठक यह भी देखे कि दरअसल जिसे वह अस्तित्व की लड़ाई कहता है, वह एक स्तर पर यदि खंडित अहम् की किरचों से निकलती है तो दूसरे स्तर पर दमन (अमूमन भावनात्मक एवं नैतिक) के सहारे अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रपंच ही अधिक होती है. वर्णाश्रम व्यवस्था से लेकर पितृसत्ता, और धर्म से लेकर घरेलू राजनीतिक छल-छंद तक इसका साम्राज्य फैला हुआ है. ऐसे में अपने ही आवृत्तिपरक एकल (बासी) पाठ के संकरे घेरे में घेर दी गई कोई रचना जब अनायास हमारे समय के किसी ज्वलंत राजनीतिक मुद्दे से टकराती है तो वह न केवल परंपरागत पाठ के नॉस्टैल्जिया में खोई आत्म-संकीर्ण आत्ममुग्धता को धता बता कर स्वयं को ‘नया‘ करती है, बल्कि समय को समझने की ‘तीसरी आंख‘ भी बनती है. यही साहित्य की ताकत है कि रचा जा चुकने के बावजूद वह बार-बार रचता है – स्वयं को, समय को, समाज को, और पाठक के संवेदन को. साथ ही रचनाकार को भी, जिसके व्यक्तित्व की छुपी परतें क्रमशः उद्घाटित होती चलती हैं.
मैं यहाँ इस आलेख में भूमि-अधिग्रहण के संदर्भ में जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘पुरस्कार‘ पर बात करना चाहती हूँ. जानती हूँ, बहुत सी भौंहें टेढ़ी हो जाएँगी. दो वजहों का अनुमान लगा सकती हूँ.
२.
कहानी पुरस्कार
एक, आपत्ति दर्ज करते हुए कहा जा सकता है कि ‘पुरस्कार‘ प्रेम और दायित्व, राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह के द्वंद्व में फंसी बेहद खूबसूरत कहानी है जो अंततः राष्ट्रप्रेम की अवधारणा को पुष्ट और परिभाषित करती है. अतः इसके निष्कलुष उदात्त संवेदनात्मक सौंदर्य पर मैं अन्य किसी संकुचित/उच्छृंखल अर्थ का आरोपण न करूं.
दूसरे, प्रसाद और प्रेमचंद दोनों को दो भिन्न प्रशाखाओं का लेखक सिद्ध करके रेखांकित किया जा सकता है कि प्रसाद मूलतः भारतीय संस्कृति और इतिहास के गायक रहे हैं. उनके नाटकों में राजनीतिक विमर्श है, पर वह केवल वाह्य संघर्ष का रूप लेता है. राजनीतिक चेतना बन कर सतह के नीचे ‘पेनिट्रेट‘ नहीं करता. फिर भी, यदि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता पर बात करना जरूरी हो ही जाए तो उन्हें पुनरुत्थानवादी परंपरा का लेखक ही कहा जाएगा जो सीधे बंकिमचंद्र चटर्जी से जा जुड़ती है. इसलिए अनायास नहीं कि वह अमूमन हर रचना में हिंदुत्व की गौरवशाली परंपरा का गुणगान करते हुए प्रच्छन्न भाव से वर्णाश्रम व्यवस्था और पितृसत्ता को स्वीकृति देते हैं. ऐसे में जमीन से जुड़े ठोस यथार्थपरक मुद्दे उनके रचनात्मक संवेदन का हिस्सा कैसे बन सकते हैं? यह अधिकार क्षेत्र तो प्रेमचंद का है.
हो सकता है यह सुझाव भी दिया जाए कि भूमि अधिग्रहण पर बात करनी ही है तो ‘पुरस्कार‘ से पहले 1900 में रची गई कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी‘ (माधवराव सप्रे) को याद करना ही काफी है. डेढ़-दो पृष्ठों में फैली यह कहानी अपनी ही झोंपड़ी से बेदखल कर दी गई बुढ़िया के नैतिक साहस की कहानी है जो जमींदार से महज इतनी-सी प्रार्थना करती है कि वह झोंपड़ी की एक टोकरी भर मिट्टी उसे नये ‘ठिकाने‘ पर ले जाने दे ताकि इससे चूल्हा बना कर वह ‘अपने घर‘ में होने की महक पा सके. जमींदार उसे खुश करने के लिए निवेदन स्वीकार कर लेता है. तब बुढ़िया मिट्टी इकट्ठा करने लगती है और जमीन पर रखी उस टोकरी को ज़रा सा हाथ लगा कर सिर पर धरवाने का दूसरा अनुरोध करती है.
‘उदार‘(?) ज़मींदार उसे भी स्वीकार कर लेता है. लेकिन शोषक को श्रम करने का अभ्यास कहाँ? वह पूरी ताकत लगा कर भी बुढ़िया का इतना-सा काम नहीं कर पाता. तब आती है कहानी की पंच लाइन –
“महाराज, नाराज़ न हों, आपसे एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती है, और इस झोंपड़ी में तो हज़ारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है. उसका भार आप जन्म-भर क्योंकर उठा सकेंगे?”
यह तय है कि सोद्देश्यपूर्ण लेखन नैतिक प्रभाव की अंतिम गूंज बन कर पाठक की चेतना पर अंकित हो जाता है. इसलिए मानवाधिकार के पक्ष में रची गई एक उत्कृष्ट नीति-कथा के रूप में इस कहानी का महत्व निर्विवाद है. लेकिन यह भी सत्य है कि साहित्य में सपाटबयानी चल नहीं सकती. वहाँ चरित्र ठहरे हुए-से अडोल नहीं बने रहते, बल्कि चरित्रगत दुर्बलताओं और अंतर्विरोधों के बावजूद अनायास द्वंद्व को संघर्ष का और संघर्ष को स्वप्न का रूप देने लगते हैं. जाहिर है इस क्रम में जीवन-स्थितियाँ गतिशील होने लगती हैं और पारस्परिक घात-प्रतिघात में चरित्र को भी नये सिरे से रचती हैं. साहित्य की सृजनात्मकता यही है कि वह अवरुद्ध कर दिए गए समय के भीतर धंस कर वहाँ गुड़ीमुड़ी पड़ी विकसनशील संभावनाओं को मूर्त करता है.
बहरहाल ऊपरी तौर पर ये तमाम तर्क वाजिब जान पड़ते हैं, लेकिन वस्तुसत्य यह है कि प्रसाद राजनीतिक गतिविधियों पर केंद्रित नाटकों से कहीं ज्यादा अपनी उन रचनाओं में व्यक्ति और समाज पर राजनीति के प्रभावों का आकलन करते दिखाई देते हैं जो पूरी तरह से अ-राजनीतिक हैं.
उदाहरण के लिए ‘कंकाल‘ उपन्यास में हिंदुत्व और हिंदू धर्म की नि:संग पड़ताल के क्रम में भिखारियों, वनवासियों, दलितों की त्रासदी को उभारना जो विषम सामाजिक संरचना और दमनकारी अर्थ-नीतियों के कारण सदियों से सम्मानपूर्वक जिंदगी से बेदखल किए जाते रहे हैं. या ‘कामायनी‘ में मनु की नीतियों और इड़ा के यौन-शोषण की चेष्टा के खिलाफ प्रजा का लामबंद हो जाना. बेशक यहाँ प्रसाद जन-आक्रोश की भीतरी तहों के कारण और निदान का विश्लेषण करने की बजाय तेजी से मनु को ‘लार्जर दैन लाइफ‘ सिद्ध करने में जुट जाते हैं. लेकिन जबरन अदृश्य कर दिया गया पक्ष अनुपस्थिति के बावजूद श्रव्य तो रहता ही है. तब सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु के विधान यानी ब्राह्मणवाद असीमित शक्तियों से युक्त राजतंत्र और वर्णाश्रम व्यवस्था को जनता ने स्वीकार नहीं किया है.
साहित्य दरअसल शब्दों में नहीं, शब्द को शब्द से जोड़ती रिक्तियों के बीच पैठ बनाता है. वह पाठक-आलोचक से अपने समय, स्पेस, स्वायत्तता, संवेदनशील वैचारिकता और स्वप्नदर्शी विजन के साथ कथा में उतरने का आह्वान करता है. इन्हें मैं कहानी की सर्जनात्मक पाठ-प्रक्रिया की अर्हताएँ या अनिवार्य टूल कहती हूँ. यह पाठ-प्रक्रिया सबसे पहले आलोचक को निष्क्रिय ग्रहीता की नेपथ्यकारी भूमिका से मुक्त कर कृति का सह-सर्जक बनाती है. दूसरे, यह अपेक्षा करती है कि वह कहानी की आंतरिक लय को रागात्मक सहृदयता के साथ ध्यानपूर्वक सुने. यह आंतरिक लय शब्दों के शोर को दरकिनार कर अक्सर एक बिंब या अनुभूति के रूप में मूर्त होती है. जैसे चेखव की कहानियाँ सीने पर घन की चोट का बिंब रचती हैं तो वॉन गॉग की कलाकृतियाँ पेट के भीतर उमड़ते आक्रोश और करुणा के गोले की अनुभूति कराती हैं.
कहानी के सृजनात्मक पाठ का अर्थ है कथा के लिखित पाठ के भीतर एक समानांतर पाठ रचित करना जहाँ आलोचक की संश्लिष्ट वैचारिकता पूरे उत्कर्ष के साथ मौजूद हो. कहानी के पात्र या घटनाएँ, कहानी में गुंथी व्यंग्यात्मक विडंबना या गहन वैचारिक प्रतिबद्धता, कहानी के भीतर से फूटती अपराजेय संघर्षशीलता या तिल-तिल घुटती पीड़ा जीवंत मनुष्य का वेश धर कर उसके सामने आ विराजती हैं. तब शुरू होती है संवाद की अनिवार्यता. संवाद की संभावनाएँ जितनी मुखर और प्रखर होती हैं, रिक्तियों के भीतर छिपी कहानी की अतल गहराइयों से उतनी ही अर्थव्यंजनाएँ सामने आने लगती हैं.
यही वह बिंदु है जहाँ लेखक के समानांतर आलोचक के तनाव, संशय, सवाल, अंतर्दृष्टि और स्वप्न समय के आर-पार गूंजती राग की बंदिश का रूप लेकर मनुष्य और व्यवस्था को सिरजने वाले मनोविज्ञान, षड्यंत्र और सत्ता-समीकरणों को विश्लेषित करने लगते हैं. आलोचक की रचनात्मकता समय के भीतर झांकती खदबदाहटों को वैचारिक व्यग्रता बनाकर बाहर निकलना है. ठीक इसी जगह आंतरिक प्रभावान्विति में गुंथी कहानी बेहद सांकेतिक ढंग से युगीन विडंबनाओं और लेखकीय अंतर्दृष्टि को उजागर करते हुए कालातीत हो जाती है.
३.
यह कौन विकास के वायदों को रौंदता हुआ चला आ रहा है?
बेशक परंपरागत आलोचना के अनुसार ‘पुरस्कार‘ प्रेम-कहानी है. बेशक प्रेम जीवन के अथ और इति के बीच बहुत-सी जगह घेरता भी है. लेकिन जीवन उसके पार और भी गहन, और भी सघन है. बल्कि सत्य तो यह है कि यही गहनता बेहद संश्लिष्ट सूक्ष्म भाव से क्रियात्मक होकर प्रेम के स्वरूप को रचती है. प्रेम, जो आकांक्षा है. प्रेम, जो तरलता है. प्रेम, जो समर्पण, त्याग और औदात्य है. प्रेम, जो गाली, कलंक और प्रवंचना है. प्रेम, जो समाज-संस्कृति के अप्रतिरोध्य दबाव तले स्वयं अपना गला घोंटने की व्यवस्था है. या पूरी तरह से अपरिभाषित है प्रेम क्योंकि सदियों से अर्जित सामाजिक संस्कार भारतीय मानस को इतना स्पेस ही नहीं देते कि वह स्वयं को मुक्त कर प्रेम की पाती पढ़ सके.
लेकिन अभी इस बिंदु पर विचार नहीं क्योंकि कहानी के प्रभाव से बाहर निकलने पर भी मेरे चित्त में बार-बार जो मधूलिका अटकी रहती है, वह मगध के निर्वासित राजकुमार अरुण की प्रणयिनी नहीं है. वह है मितभाषी आत्माभिमानी संकल्पदृढ़ कृषक कन्या.
मधूलिका जो अपनी अकिंचनता में भी चट्टान-सी उन्नत है. कृषक कन्या की बिसात नहीं कि वह राजकीय उत्सव में राजा को करारी टक्कर देकर नेपथ्य में धकेल दे और स्वयं ढेर सारे सवालों, संशयों, मनोभावों और संकल्पों के साथ केंद्र में स्थित हो जाए. मधूलिका जानती है, राजतंत्र की ताकत और नियम-विधान से टकराना आम आदमी के लिए संभव नहीं. कि सब्र और त्याग जैसे प्रबोधन प्रजा के नैतिक दमन के लिए गढ़ी गईं सांस्कृतिक-नैतिक संरचनाएँ हैं. वह जानती है, राज्य के अनुदेश पर जिस राजकीय उत्सव में प्रजा हर्षोल्लास के साथ भाग ले रही है, वह दरअसल तमाम धूमधाम, गरिमा और औदात्य के पाखंड के साथ प्रतिवर्ष राज्य द्वारा ली जाने वाली नरबलि है.
कोशल देश में नियम है कि इंद्र-पूजन के वार्षिक समारोह में राजा खेत जोतेगा. इसके लिए राजतंत्र की ओर से स्वर्णजड़ित हल की मूठ, सुंदर पुष्ट बैल और राज्य का सर्वाधिक उर्वर खेत की व्यवस्था की जाती है. राजा के पास राजकीय स्वामित्व वाले अनगिन खेत हैं, लेकिन नियम है कि पूजा-समारोह के लिए प्रजा के ही खेत का अधिग्रहण किया जाए. नियम यह भी है कि किसान को इस अधिग्रहण का वाजिब ‘पुरस्कार‘ (?) दिया जाए, जैसे भूमि के वास्तविक मूल्य से चौगुना दाम; समारोह के दौरान बीजारोपण करते राजा को बीज देने का सम्मान और राजकीय संरक्षण पाने का आश्वासन.
(आलोचना में शेक्सपियरन नाटक की तरह स्वगत-कथन (soliloquy) की कोई सुविधा नहीं होती कि कथा-प्रवाह और संवाद को बीच में रोक कर अभिनेता की तरह आलोचक प्रतिक्रियास्वरूप उपजी टिप्पणी को दर्ज करा सके. पर अब जब विश्लेषण-प्रवाह को अधबीच रोक ही दिया है तो चाहती हूँ कि मधूलिका की जिस ढीठ दबंगई पर मेरा रोम-रोम झूम गया है, उसे आपसे साझा कर लूं.
महामंत्री ने जब उसे ‘राजकीय रक्षण की अधिकारिणी‘ होने के अहसान से दबाना चाहा तो वह तत्काल कहती है –
‘राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है मंत्रिवर!‘
अपने मानवाधिकारों के प्रति सजगता की यह चेतना राजतंत्र में कौन कहे, लोकतंत्र में भी खासी विरल है. खैर.
उत्सव के दौरान भले ही सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे- विस्मय से, कौतूहल से; लेकिन लेखक चाह रहे हैं कि पाठक पार्श्व में अघट भाव से घटने वाली घटनाओं पर नजर केंद्रित रखे और गौर से मधूलिका की प्रत्येक प्रतिक्रिया और मुख-भंगिमा को देखे. वह जाने कि प्रत्यक्ष में “सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर मंद मुस्कुराहट के साथ सिहर उठते हैं”, लेकिन उसी पल उसके अंतस् में उठती हूकों को भी सुने –
“आज मेरी स्नेह की भूमि पर मेरा अधिकार छीन लिया गया है. मैं दुख से विकल हूँ. मेरा उपहास न करो.”
यानी अंतर्लोक की हलचलों को जानने के लिए एम्पैथी को ‘तीसरी आंख‘ बनाना ही होगा.
तब देखती हूँ, कहानी कहानी न रहकर जीवन का नाट्य रंगमंच बन जाती है. दृश्य और संवाद एक्सरे किरणें बन कर चरित्र को रेशा-रेशा उधेड़ रहे हैं. महाराज थाल में कुछ स्वर्ण-मुद्राएँ पुरस्कार (मुआवजा) स्वरूप मधूलिका को दे रहे हैं, मधूलिका राजा की ताकत को सलामी देने के लिए वह थाल सिर-माथे लगाती है,लेकिन भीतर के हाहाकार का क्या करे? हाहाकार दूने-चौगुने वेग से बढ़कर उसकी चेतना को मथे जा रहा है कि यह कैसी बेबसी! जो पेट पर लात मारे, उसी की खिदमत! कि जो दिन-दिहाड़े सर्वस्व लूट ले जाए, उसी से मुट्ठी भर अन्न की भीख पा वह उसे असीसती चले? मधूलिका की चेतना लौ की तरह फड़फड़ा कर बुझने की बजाय प्रखरतर होने लगती है, और अपने को विवेकशील प्रतिरोध की लपट में ढाल लेती है.
वह सम्मानपूर्वक उस ‘भीख‘ को महाराज के चरणों में न्योछावर कर देती है, मानो कह रही हो – होता होगा राजा ईश्वर का लौकिक प्रतिनिधि! वह मेरा भाग्य विधाता तो कतई नहीं. शायद इस नाटक की स्क्रिप्ट वह रंगशाला में प्रवेश करने से पूर्व ही लिख चुकी थी. इसलिए बड़े ठसके और नजाकत के साथ अपना और महाराज दोनों का सम्मान संभाल कर ले जाती है कि –
“देव! यह मेरे पितृ-पितामहों की भूमि है. इसे बेचना अपराध है. इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है.”
नकार में प्रतिरोध की टंकार कि सामने वाले को ‘अन्यायी‘ होने का एहसास दिला दे.
‘अन्यायी! ‘
अबोले शब्द सबसे ज्यादा मर्मांतक मार करते हैं. राजा ही नहीं, राजा का समूचा अमला खौंखियाने लगता है. लेकिन पता चलता है कि यह उद्धत बाला काशी-युद्ध के सेनापति सिंहमित्र की कन्या है जिसने कोशल को मगध सेना से पराजित होने से बचाया था. (अजब संयोग है कि ऐतिहासिक काल से भारतीय किसान-परिवार ही सीमा की रक्षा के लिए जवान भेजते हैं.)
राजा के पास प्रजा के लिए फालतू वक्त नहीं होता. उसके शिकायतों की जांच करके अपनी नीतियों की पुनर्समीक्षा की उदारता तो और भी नहीं. कहानी के महाराज को, लोकतंत्र के तमाम शहंशाहों की तरह,
“विचार संघर्ष से विश्राम की अत्यंत आवश्यकता थी. महाराज चुप रहे. जय-घोष के साथ सभा विसर्जित हुई.”
लेकिन यह क्या! इस समय तो कहानी की मांग पर मधूलिका को मंच पर अकेले होना चाहिए था. फिर यह आसमान अचानक तैर कर आती धुंधली आकृतियों से क्यों भर गया है? अरे! ये आकृतियाँ तो एक विशाल जन सैलाब का रूप लेकर रंगमंच के प्रकाश वृत्त के बीचोबीच उन्मादिनी सी खड़ी मधूलिका की ओर उमड़ी चली आ रही हैं.
दीन मालिन! हरिद्वार से! काशी से! देश के जाने किस-किस भाग से! हवाओं में कैलेंडर के कितने ही पन्नों की फड़फड़ाहट गूंज बन कर घुल गई हैं. मैं कहानी से निकलकर अपने ही समय से मुखातिब हो गई हूँ. अब ये आकृतियाँ अखबार की खबरें नहीं हैं कि नजर चुराकर अपने और अपने-जैसे मध्यवर्ग के (अ) नैतिक भौतिक विलास में डूबी रहूँ. उन सबके दर्द में मधूलिका का साझा दर्द घुला है. किसी का घर छिना है, किसी की जमीन, मंदिर, दुकान, खेत- यानी सिर छुपाने का ठीहा और पेट पालने का जरिया. घर या खेत जमीन का टुकड़ा भर नहीं है. वह जीविका है, वंश-परंपरा का मान और पहचान है. वह स्वाभिमान है और श्रम की नैतिक सनद भी.
कोई भी ताकत राजा होने के मद में परंपरा, उत्सव, मंदिर, कॉरिडोर, रोजगार, निवेश के नाम पर उनके सीने पर कैसे चढ़ाई कर सकती है? राजा क्या सिर्फ राजतंत्र में ही है? राजनीतिक व्यवस्थाएँ चोला कोई भी पहन लें, चरित्र वही रहता है- जनकल्याण के चोले में आत्ममुग्धता का चरम. ठगी-पिटी जनता के पास विकल्प ही क्या है? आंसुओं को धधकता लावा बनाकर सीने में अवस्थित कर देना; और यहाँ-वहाँ हाड़तोड़ मेहनत-मजदूरी कर रोटी का जुगाड़ करना.
मनुष्य की सबसे बड़ी बेबसी उसका पेट है. मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत उसका मस्तिष्क है – उधेड़बुन! संकल्प-विकल्प! प्रतिशोध-प्रतिरोध! रुदन-हास!
निरंतर द्वंद्व ग्रस्त क्योंकि विचार की रणनीतियाँ और क्रियान्वयन की व्यवहारिकताएँ यहीं जन्मती हैं.
यह जन सैलाब मधूलिका की तरह राज्य-सत्ता से कहना चाहता है कि “महाराज (तंत्र) को भूमि समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है”, लेकिन साथ ही दो सवाल भी पूछ लेना चाहता है. एक, यदि बुलडोजर-न्याय को ही निजाम अपनी पहचान बनाना चाहता है तो फिर क्यों ‘सबका साथ सबका विश्वास‘ की घोषणाएँ कर अपने दुर्दांत चेहरे को जनकल्याण के मुखौटे तले छुपाना चाहता है? निहत्थी पारदर्शी जनता से ऐसा क्या डर कि उन्हें दो पालों में बांटकर बीच में झूठ और उन्माद के समंदर बहा दिए जाएँ? दूसरे, यदि विकास-परियोजनाओं के लिए भूमि-अधिग्रहण की जरूरत है तो पहले सबके साथ मंत्रणा कर विकास की अवधारणा को तो परिभाषित कर लिया जाए. किसका विकास? कैसा विकास? विकास का एक मॉडल वह है जो अपनी मूल प्रकृति में उत्पादक और जन-कल्याणकारी है.
यह मॉडल बांध, नहर, रेल, कल-कारखानों, छोटे-बड़े उद्योगों, शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों के जरिए बुनियादी जरूरतों के अलावा रोजगार और उत्पादन के अवसर बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को समुन्नत करता है. दूसरा मॉडल आर्थिक विकास का उपभोक्ता-केंद्रित मॉडल है जो चौड़ी सड़कों, फ्लाईओवरों, बुलेट ट्रेनों, स्मार्ट शहरों, भव्य मंदिरों, विशाल कॉरिडोर, मल्टीप्लेक्स-मॉल, सौंदर्यीकरण की शेखचिल्ली परियोजनाओं में परिलक्षित होता है. दोनों जून रोटी की जुगाड़ में पसीना-पसीना होती जनसंख्या के बहुत बड़े भाग के लिए विकास का यह मॉडल बेमानी है. चमचमाती सड़कें धूलधूसरित पैदल यात्री के लिए नहीं रह गई हैं. न ही बुलेट ट्रेन की गति उसे रोमांचित करती है. वह विकास की मृग मरीचिका में जनरल बोगी वाले उस रेल नेटवर्क को बिसरा नहीं पाता जो सस्ते और सुरक्षित भाव से उसे गंतव्य तक ले जाता था.
उसके लिए विकास का एक ही अर्थ है- भूख और बेरोजगारी का अंत; शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएँ; सामाजिक सद्भाव और मजबूत आर्थिक आधार; राज्य की अनुकंपा से मुफ्त मिलने वाले अन्न की जगह श्रम करने के अधिकार की रक्षा जो बदले में उसकी रीढ़ और स्वाभिमान की रक्षा करता है. इसलिए यह तय करना जरूरी है कि विकास का लाभार्थी कौन है. और वह लाभ नागरिक के तौर पर उसके व्यक्तित्व-विकास, जीवन-स्थिति और चेतना को समुन्नत करने में कितना सहायक है.
सत्ता नहीं जानती कि लुट-पिट कर ज़र्रा-ज़र्रा हुआ व्यक्ति ही सृष्टि का सबसे ताकतवर प्राणी है क्योंकि खोने को उसके पास कुछ नहीं. पाने को अनंत संभावनाएँ हैं. या शायद वह तब जान पाती है जब व्यक्ति का एकल प्रतिरोध जन सैलाब बनाकर विद्रोह की दिशा में कदम बढ़ाता है और उसके सिंहासन की चूलें हिला देता है.
कोशल देश और श्रावस्ती दुर्ग!
प्रसाद कहानी के लोकेल को एक निश्चित भूगोल में बांधते हैं और मैं 2024 की तमाम राजनीतिक उठा-पटक के नतीजे पर नज़र गड़ा कर विस्मित होती चलती हूँ कि कोशल (अयोध्या) और मगध (पटना) प्राचीन काल से ही भारतीय राजनीति और संस्कृति में इतनी निर्णायक भूमिका में क्यों रहे हैं?
जिंदगी का अक्स होते हुए भी कहानी जिंदगी जितनी जटिल और अन-अनुमानित नहीं होती. जिंदगी अदृश्य-अघट को न जान पाने की बेबसी है, जबकि कहानी में एक सुनिश्चित अंत की परिकल्पना के साथ मानवीय मूल्यों/ विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का गहन बोध भी होता है जो घटनाओं और चरित्रों को मनमाना मोड़ देकर गढ़ता चलता है. जिंदगी में लार्जर दैन लाइफ कुछ नहीं होता. केवल परीक्षाओं और संघर्ष का अनंत सिलसिला है जिंदगी. इसलिए मधूलिका के प्रकाश-वृत्त में घिर आई भीड़ धीरे-धीरे अपनी नियमित जिंदगी में लौट जाती है. वह जानती है, मधूलिका की तरह अवसर घोड़े पर सवार होकर राजकुमार अरुण के रूप में उसके द्वार पर दस्तक नहीं देगा. मधूलिका थालभर स्वर्ण मुद्राएँ (जिंदगी की कुल भौतिक संपदा) न्योछावर करके भी आत्माभिमानिनी बनी रह सकती है. लेकिन असल जिंदगी मनुष्य की हिम्मत, हौसला और आत्म-सम्मान तोड़ने की जिद में उसे कहाँ-कहाँ ले जाकर नहीं मारती? इसलिए राजकीय मुद्राओं (मुआवजा) को लेकर भी कहानी की दुनिया से बाहर के वास्तविक बाशिंदों के दैहिक-दैविक-भौतिक क्लेश नहीं कटते; बल्कि रोजी-रोटी के लिए नए सिरे से कुआं खोदकर प्यास बुझाने के जतन शुरू हो जाते हैं.
ऋण और श्रम उनकी जिंदगी को रचने वाली दो निश्चयात्मक प्राथमिकताएँ हैं.
4.
यात्रा में संग-संग चलती हैं कई-कई यात्राएँ
दो-दो कालखंडों को तर्जनी पर लपेटकर कहानी के भीतर-बाहर की आवाजाही आसान नहीं होती. बेख्याली में महत्वपूर्ण सूत्रों के छिटक जाने का भय बराबर बना रहता है. कहानी में लौटते हुए याद करती हूँ, उस आत्माभिमानिनी कृषक बाला के समक्ष प्रणय-निवेदन करने और बदले में स्पष्ट इनकार पाकर मगध का वह सजीला राजकुमार अरुण अपने देश लौट गया है. उत्सव के उल्लास और अवसाद को धो-पोंछ कर मधूलिका साथी कृषक-समुदाय के खेतों पर मजदूरी कर रही है. चूंकि यह कहानी घोषित तौर पर प्रेम कहानी है, इसलिए कामना करती हूँ कि अब जब कथा में प्रविष्ट होऊँ तो दुष्यंत के ख्यालों में खोई आत्मविस्मृता शकुंतला-सी मधूलिका को हाथ मलते पाऊँ कि हाय! प्रेम को कैसे पारे की तरह फिसल जाने दिया! लेकिन प्रसाद कालिदास नहीं. वे सौंदर्य के चितेरे जरूर हैं. प्रेम के उपासक भी, पर कालिदास की तरह डूबकर प्रेम की कसीदाकारी करना नहीं जानते. शायद इसलिए कि मानते हैं, प्रेम है तो बस है. वह अभिव्यक्त हो ही जाएगा- भाव से, भंगिमा से, संकेत से. इस मामले में बेहद मितभाषी हैं प्रसाद. काम, भोग और मांसलता उनके प्रेम की अवधारणा से बाहर की चीजें हैं. मानते हैं, कल्पना की पूंजी हाथ में हो तो संयोग की गोटियाँ बैठाने में क्या देरी!
प्रसाद अवसर की तलाश में हैं. वे कथा में तीन बरस के अंतराल की नियोजना करते हैं कि पाठक समेत नायक-नायिका दोनों विरह और मिलन की आकांक्षा में प्रेम की मद्धिम आंच को पक कर तपने दें. फिर अकस्मात प्रतीक्षा को नाटकीय उत्कर्ष पर ले जाकर मूसलाधार बारिश में शीत से कंपकंपाती रात की कल्पना करते हैं और अरुण को मधूलिका की जर्जर झोंपड़ी के समक्ष ला खड़ा कर देते हैं. मिलन का चिर-प्रतीक्षित पल, स्तंभ, विस्मय, आह्लाद और तिमिर को बींधती आशा की चकाचौंध! बस, इतना ही.
संयम प्रसाद की आभिजात्यपूर्ण गरिमा को रचता है. बदले में अपने कथा-चरित्रों के अंतर्मन में बड़ी आंत की तरह गुड़ीमुड़ी पड़े संशयों, हूकों और सपनों की पोटलियों को खोलने का अवकाश भी देता है.
प्रसाद इतिहास के अन्वेषक हैं, अतीत के पुरोहित नहीं. अरुण का अतीत महज एक सूचना के साथ वर्तमान को सौंपते हैं कि अब वह मगध का विद्रोही निर्वासित राजकुमार है और सौ सैनिकों के साथ ठिकाना (जीविका) खोजने कोशल आया है. प्रसाद की रुचि समय के पार भविष्य को एक निश्चित आकार देने में अधिक है. वर्तमान उस भविष्य तक पहुंचाने की सीढ़ी भर है. इसलिए वे अरुण को प्रेम की मीठी फुसलाती बातें करने का अवकाश नहीं देते. वे निरंतर उसे भविष्य की रणनीतियाँ बनाने में व्यस्त रखते हैं. मधूलिका की भांति मिट्टी में मिट्टी होकर जीते चलने की नियति अरुण का जीवन-लक्ष्य नहीं. वह दोनों की सोच, जीवन-पद्धति और दृष्टि के भीतर पाए जाने वाले अंतर को बार-बार रेखांकित कर अपने असंतोष को मधूलिका तक संप्रेषित करने में भी नहीं चूकता कि
“भूल न करो, मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ. नए राज्य की स्थापना कर सकता हूँ. निराश क्यों होऊं?”
प्रेम में अभेद की स्थिति के विपरीत दो ध्रुवों-सा यह प्रेमी-युगल! गौर से देखती हूँ, प्रसाद ने इस पूरी प्रक्रिया में मधूलिका के अंतर्मन को गोपन ही रखा है. ‘आषाढ़ का एक दिन‘ (मोहन राकेश) की मल्लिका की तरह उसके हाथ में सिले हुए कोरे पृष्ठ नहीं थमाए कि आंसुओं की रोशनाई से उस पर स्त्री-जीवन के कितने ही महाकाव्य लिख डाले. शायद इसलिए कि इस छूटे हुए कार्य का निष्पादन करने का गौरव वे सर्जक-पाठक को देना चाहते हैं. मैं उनकी इस प्रत्याशा के अनुरूप मधूलिका के भीतर उतरने का प्रयास करती हूँ कि वहाँ भी द्वंद्व, संशय,हूकें और सपने जरूर होंगे. जानती हूँ, प्रसाद अपने चरित्रों की मनोभूमि इस संपदा के बिना तैयार कर ही नहीं सकते. आश्वस्त हूँ कि अरुण की गहन आशा, अपराजेय जिजीविषा और दुर्धुर्ष संघर्ष-चेतना ने मधूलिका को भी अपने अतीत-भविष्य को नए सिरे से री-विजिट करने की प्रेरणा अवश्य दी होगी.
खेत छिनने का दुख, किसान से मजदूर बनने की त्रासदी, ‘मनुष्य‘ होने के बावजूद कृमि-कीट की तरह व्यवस्था के रहमोकरम पर रेंगते रहने की नियति … और क्षण-क्षण, दिन-रात, सालों-साल अकर्मण्य हताश पराजय के इसी बिंदु पर टिकी जिंदगी को जीकर राख हो जाने की अंतिम परिणति! मनुष्य के भीतर ‘मनुष्य‘ का आलोक रचता है उसका ऊर्जस्वित कर्त्ता-भाव! कर्त्ता-भाव में समाहित है आगे बढ़ने की ललक; स्थितियों का विश्लेषण करने की चेतना; निर्णय लेने की क्षमता; और फिर निर्णय के क्रियान्वयन (संघर्ष) के हर संभावित परिणाम को स्वीकारने की पारदर्शी निर्भीकता. इस बिंदु पर पहुंच कर निश्चय ही मधूलिका के सामने जीवन के कितने ही पन्ने फड़फड़ा कर खुलने लगे होंगे. जैसे अरुण का प्रतिलोम बनाकर पिता सिंहमित्र का सामने आ जाना. वीर सेनापति सिंहमित्र जिनके शौर्य की मिसालें दी जाती हैं. लेकिन उनकी खड़्ग तो भीष्म की तरह राज्य-सिंहासन की निष्ठा के प्रति प्रतिबद्ध थी. तो क्या व्यक्ति में इतनी ताकत है कि वह राजा और उसकी बेजा राज-नीतियों से टकराकर अपने ‘होने‘ को साबित कर सके? कल्पना करती हूँ, संशय को संज्ञान का बिंदु बनाकर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि लड़ाई सिर्फ साम्राज्यों की रक्षा करने के लिए ही नहीं लड़ी जाती.वह अपने वजूद के किले पर सेंध लगाने वाली हर बाहरी ताकत को प्रतिकार-योग्य शत्रु के रूप में चिन्हित करती है. मधूलिका देखती है, अरुण नहीं, वह स्वयं भी अपनी जमीन और जड़ों से निर्वासित की जा चुकी है. बस, विद्रोही नहीं थी क्योंकि न्याय-चेतना नहीं थी. न्याय-चेतना से संपन्न होना ही दृष्टिवान होना है.
मैं अकस्मात् ठिठक जाती हूँ.
न्याय का अधिकार और चेतना का प्रसार …! पाती हूँ कि मधूलिका को रीक्रिएट करते-करते मैं एक बार फिर अपने समय से ही संवाद करने लगी हूँ. नहीं जानती, आगे कहानी में सौ सैनिकों के साथ अरुण अपनी और मधूलिका की साझा जंग को क्या अंजाम देगा, लेकिन इतना जानती हूँ कि अयोध्या से शुरू हुए इस प्रतिरोध-आंदोलन ने अपने एक-एक सैनिक (वोट) के साथ अधिनायकत्व के दुर्ग पर करारी चोट की है. खैर!
कहानी में चुप्पियाँ और रिक्तियाँ पनडुब्बी की तरह सतह के नीचे सदैव सक्रिय रहती हैं.वे क्रमश: भाव-तरंगों को विचार-स्फुलिंगों में तब्दील करती हैं, और फिर घटनाओं एवं चरित्रों को समन्वयात्मक अन्विति में पिरोकर शब्दों को ओज का रूप देने लगती हैं.
प्रसाद को सर्जक पाठक पर विश्वास हो न हो, कथा-नायक अरुण पर भरपूर विश्वास है. वह एक साथ कई स्तरों पर क्रियाशील है. नए राज्य की स्थापना उसका लक्ष्य है लेकिन ‘नया राज्य‘ स्थापित कहाँ करे? राजतंत्र की रवायत के मुताबिक किसी पुराने साम्राज्य का ‘अधिग्रहण‘ ( विजय) करके? यदि हाँ, तो कौन-सा ऐसा राज्य है जो निर्बल है या जिसे निर्बल किया जा सकता है? भितरघात के बिना ताकतवर को शक्तिहीन नहीं किया जा सकता. फिर, भितरघात के लिए उपयुक्त पात्र, समय, स्थल की तलाश कैसे? अरुण की महत्वाकांक्षाओं की तरह अचूक हैं उसकी कैलकुलेशंस. छिने हुए खेत को लेकर जख्मी शेरनी-सी हिंसक मधूलिका की छवि बार-बार स्मृति में कौंधती है. साथ ही राज्य की ओर से मधूलिका को दिए जाने वाला ‘स्पेशल स्टेटस‘ भी कि वह जब चाहे दरबार में उपस्थित हो सीधे महाराज के सामने गुहार लगा सकती है.
क्या मधूलिका को ‘कब्जे‘ में करके बड़ा दांव खेला जा सकता है? कहानी के सब-टेक्स्ट से ध्वनित होता पाठ! यहीं राजनीतिक संघर्ष का केंद्र-स्थल भी निश्चित हो जाता है – कोशल! अब अरुण की निगाह के सामने कोशल की एक-एक गतिविधि है – पड़ोसी देशके साथ संबंध… देश की आंतरिक स्थिति … शत्रुओं/ दस्युओं का उत्पात… सेना की पोजिशनिंग .. दुर्ग की ‘रेकी‘ ताकि जाना जा सके कि दुर्ग का कौन सा हिस्सा कमजोर है और कहाँ से आक्रमण करना सही रहेगा. जाहिर है अरुण का कोशल-आगमन कोई सामान्य घटना नहीं. मधूलिका के साथ प्रेम-व्यापार उसकी सैन्य-टुकड़ी का एक अतिरिक्त सैनिक भर है. हो सकता है, वह मधूलिका से सचमुच प्रेम करता हो, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वह उस राज्य-परंपरा का वारिस है जहाँ स्त्री, प्रेम और विवाह को राजनीतिक शतरंज पर मोहरे की तरह चला/पाया जाता है. लोहा गरम होने पर ही वह धैर्यपूर्वक हथौड़े की चोट करता है.
“तुम अपने छिने हुए खेत की चिंता करके भयभीत न हो … तुम्हारी इच्छा हो तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल सिंहासन पर बिठा दूं. मधूलिके! अरुण के खड्ग का आतंक देखोगी?” वह उसे अभयदान भी दे रहा है और आतंकजड़ित भी कर रहा है. जानता है, इस समय प्रतिशोध की ‘दारुण भावना से (मधूलिका का) मस्तिष्क विकृत‘ हो चुका है.इसके बाद सहमत-सम्मोहित मधूलिका के जरिए हमले की स्क्रिप्ट लिखना शेष है जिसके अंत में निश्चित विजय श्री है. मधूलिका का काम है महाराज के सामने उपस्थित होना और अधिग्रहीत जमीन के बदले श्रावस्ती दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप जंगल में खेत जितनी भूमि की मांग करना. राजकीय संरक्षण में सैन्य अड्डा बनाने की इससे बेहतर जगह अरुण के लिए और हो ही क्या सकती थी?
भीतर-बाहर बेहतरीन रणनीतिकार!
मैं अरुण में प्रेमी की स्निग्धता नहीं देख पाती. लेकिन इससे क्या? उसकी ‘कला‘ पर मुरीद होना तो तब भी बनता है न!
५.
यात्रा वही जो मंज़िल को भी हमसफर बनाकर साथ ले चले
मधूलिका की ओर देखती हूँ तो क्षुब्ध हो जाती हूँ कि ऐसे अकेले प्रेम-राग को छक कर कैसे पी सकता है कोई? तो क्या प्रेम आत्मछलना का पर्याय भी है? रुष्ट हूँ कि क्यों मधूलिका अरुण की कारगुजारियों की महीन पड़ताल नहीं कर पाई? बल्कि वह तो उसके दुस्साहस पर चकित है और वाग्जाल पर मुग्ध –
“चार प्रहर और. विश्वास करो, प्रभात में ही इस जीर्ण कलेवर कोशल राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतंत्र राष्ट्र का अधिपति बनूंगा.”
प्रसाद की स्त्रियाँ, चाहे देवसेना हो या विजया, कार्नेलिया, कोमा या फिर चंपा, तारा, गाला, घंटी- सब प्रेम की आकांक्षिणी स्त्रियाँ हैं और अगरबत्ती की तरह धीमे-धीमे सुलगती रहती हैं.
मधूलिका के साथ प्रसाद यह खेल नहीं खेलते. उसे लेकर उनके इरादे किंचित उदात्त किस्म के हैं. वे उसके जरिए राष्ट्रप्रेम और नागरिक-चेतना जैसे तात्कालिक महत्व के मुद्दों को अभिव्यक्ति देना चाहते हैं.
दरअसल प्रसाद का समय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का संघर्षशील समय रहा है जब जातीय अस्मिता और राष्ट्र की अवधारणा के इर्दगिर्द राजनीतिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आंदोलन चलाया जा रहा था.
‘तितली‘ उपन्यास की तितली और ‘कंकाल‘ की गाला-यमुना खासतौर पर रची ही इसलिए गई हैं कि उनकी मार्फत स्वच्छंद प्रेम की अवधारणा को राष्ट्रप्रेम के औदात्य में ढाल दिया जाए. इसलिए कहानी जैसे ही आदर्शवाद की छतरी तले आती है, प्रसाद के पास ‘रचने‘ को कुछ नहीं रहता.
वह पूर्वानुमानित और सपाट हो जाता है. अभिधात्मक! यानी अब अरुण के सैन्य-अभियान को असफल होना ही है और मुखबिर के रूप में राष्ट्रभक्त मधूलिका को राज्य की ओर से पुरस्कृत भी किया जाना है.
यह प्रसाद के कथा-शिल्प की खास तकनीक है कि राष्ट्रप्रेम और आत्म-सुख को वे ऑपोजिट बाइनरी की तरह कहानी में बुनते हैं और द्वंद्वग्रस्त कथा-चरित्र को बाध्य करते हैं कि वह इनमें से किसी एक विकल्प को चुने. अपने स्त्री पात्रों के इस द्वंद्व को वे अक्सर पितृ-स्नेह से जोड़ते हैं. मधूलिका की तरह ‘आकाशदीप‘ की चंपा के अनिर्णय के मूल में भी यही पितृ-ग्रंथि है. पिता या प्रिय? पिता, जिसने जीवन दिया. प्रिय, जिसने पिता का वध किया. यानी असामान्य स्थितियाँ. यानी विकल्प के वरण की स्वतंत्रता नहीं. स्पष्ट पक्षपात जहाँ मोरलिस्ट होने के आग्रह निजी आकांक्षाओं को बौना बना देते हैं. मधूलिका के सामने पितृ-ग्रंथि पितृ-भूमि का बृहत्तर दायित्व लेकर आती है. इसलिए उसे निर्णय भी उतनी ही त्वरा से करना है.
चंपा की तरह उसके सामने सुविधा नहीं कि ‘टू बी ऑर नॉट टू बी‘ के द्वंद्व में अपनी क्षमताओं और समय को कुतर कर स्वयं को स्थगित करती चले. “तो मुझे भी प्राण-दंड मिले” कहती हुई वह बंदी अरुण के पास जा खड़ी हुई.
स्पष्ट सुनिश्चित अंत! इसके आगे संभावनाओं के द्वार नहीं खुलते.
लेकिन यह भी तय है कि कल्पना के द्वार कभी बंद नहीं होते. बेशक अंतिम दृश्य के बाद अब कोई संशय नहीं रह जाता कि मधूलिका सचमुच प्रेम में आकंठ डूबी मुग्धा नायिका ही थी. लेकिन सवाल उठता है कि क्यों वह प्राणदंड की मांग करती है? और क्यों प्रसाद अपने स्त्री पात्रों के स्वच्छंद प्रेम को विवाह/मिलन की सुखद परिणति की ओर नहीं ले जाते? क्या इसलिए कि पितृसत्ता के कठोर विधान में स्त्री के लिए स्पेस और स्वायत्तता की कोई जगह नहीं? और सत्ता कोई भी हो, वह मनुष्य को कुचल कर ही अपनी प्रभुता बनाए रखना जानती है?
मैं सहसा विचार की कौंध से आप्लावित हो जाती हूँ- प्राण-दंड की याचना …यानी तिल-तिल अपने को मारते चलने के सामाजिक अभिशाप का प्रत्याख्यान.
कथा के साथ पाठक का संबंध इतना उथला नहीं होता कि पात्र की त्रासदी से अछूता वह अपनी दुनिया में खुश-खुश लौट आए. कथा-चरित्र की विडंबना उसे गहरे तक बींधती है. वह देर तक तादात्मीकरण की प्रक्रिया से स्वयं को बाहर नहीं ले आ पाता. वैचारिक एवं संवेदनात्मक अभिन्नता की उस स्थिति में वह कथा-चरित्र की तरह मृत्यु/त्रासदी को नि:शंक भाव से गले नहीं लगा सकता.
उससे उबरने के लिए छटपटाता है; उन आप्लावनकारी विडंबनात्मक स्थितियों की तह में जाकर पड़ताल करने की कोशिश करता है जो मनुष्य को इतना बेबस और ‘वल्नरेबल‘ बना देती हैं. क्या वह उनसे लड़ नहीं सकता?
अकेले न सही, संगठित होकर? प्राण घुटने की प्रतीति जिजीविषा और संघर्षशीलता बन कर देह में सांस का प्रसार करती है. तब पाती हूँ कि अपनी इस कथा-युक्ति को प्रभाव की सघन विकलता बना कर प्रसाद पाठक से स्वयं कथा के मर्म का उत्खनन और आस्वाद करने का आह्वान करते हैं. वे इस अर्थ को दूर तक ध्वनित करते हैं कि मृत्यु पुनर्जन्म का दार्शनिक रूपक भर नहीं, वह मृतप्राय संभावनाओं को हरा करने की संघर्षाकुल पुकार है.
अच्छी कहानी भावुकता से परहेज करती है. वह आधारभूत इकाई के रूप में भाव या संवेग को लेती है. फिर उसमें विचार, विवेक और तर्क का सम्मिश्रण कर संवेदना का रूप देती है. संवेदना में ममत्व (मैं) का परिहार है, और नि:संगता का अतिरिक्त गुण अख्तियार कर दूसरों के संग निजता बनाने का भाव. भावुकता के रेशे पूरी तरह से ममत्व में लिथड़े हैं. इसलिए वे जिन घेरों को बनाते हैं वे आत्मपरक और संकीर्ण हो जाते हैं.
प्रसाद की मेधा भावुकता नहीं, संवेदना के साथ अपना प्रसार और परिष्कार करते हुए उसे उदात्त विश्व-दृष्टि का रूप देती है. तब अनिवार्य हो जाता है कि कहानी के अंतिम दृश्य में प्राणदंड की याचना करती उस ‘बेचारी‘ प्रणयिनी को देखकर भावुकता का जो अदम्य रेला कंठ को अवरूद्ध कर रहा है, उसे परे फेंक मैं संवेदना, तर्क और विवेक के सहारे एक उदात्त बृहत्तर जीवन-दृष्टि पाऊं.
तब मधूलिका को प्रतिरोध की गहन गूंज के रूप में पाती हूँ. सिंहमित्र की दिलेर कन्या के रूप में उसने जिस द्वंद्व को जिया है, प्रसाद उसे प्रत्यक्ष करते हैं; पर बहुत कुछ अनकहा भी तो छोड़ देते हैं पाठक-आलोचक के लिए.
उस अनकहे में बहुत से दृश्य हैं. दृश्य के भीतर गतिमान छल-प्रपंच की महीन दृश्यावलियाँ हैं. मधूलिका जान जाती है, सत्ता का कोई एक चेहरा नहीं. पक्ष भी वही है, विपक्ष भी वही है. इसलिए सिर्फ सत्तासीन ही व्यक्ति का आखेट नहीं करते, सत्ता का प्रतिपक्ष भी अवसर मिलते ही उसका आखेट कर लेना चाहता है.
दोनों तरफ फुसलाहटें हैं, प्रलोभन हैं. फिसलन भरी जमीन पर अडिग खड़े रहना ही व्यक्ति का ‘मनुष्य‘ होना है. प्रसाद भले ही मधूलिका की प्राणदंड की याचना को राष्ट्र-प्रेम से जोड़ कर पुनरुत्थानवादियों की राष्ट्रवादी विचारधारा से जा जुड़ें, लेकिन अच्छी कहानी अपने उद्दाम वेग में जब जीवन की घुटी चीत्कारों को सुनने लगती है, तब लेखक की गिरफ्त से परे निकल स्वयं अपनी दिशाओं का संधान करने लगती है.
उस समय अनुपस्थिति और चुप्पी प्रत्यक्ष और वाचाल हो जाते हैं. जल्द ही मधूलिका पर जबरन ओढ़ाया गया राष्ट्रवाद का लबादा गिर जाता है; और वह अन्याय की प्रतिरोधी ताकत बन जाती है. तब लगता है मिथ्या राष्ट्रवाद की आचार-पुस्तिका के तमाम पन्ने फाड़ कर वह प्रतिरोध का स्वरचित पाठ दर्ज करती है कि- मनुष्य यानी संघर्ष और स्वप्न का सारतत्व!
मधूलिका के पाठ में एक पन्ना मैं भी जोड देना चाहती हूँ कि पराजय हमेशा नकारात्मक नहीं रहती. वह मनुष्य के संघर्षाकुल स्वप्न के विकास की एक कड़ी भी बन जाती है. ठीक वैसे, जैसे 73 ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य का आदिविद्रोही गुलाम स्पार्टाकस असफल विद्रोह के बाद साथियों समेत सूली पर टांग दिए जाने के बावजूद गुलाम प्रथा समाप्ति के लंबे अनथक संघर्ष का पुरोधा बना. ठीक वैसे, जैसे साल भर दिल्ली बॉर्डर पर डेरा जमाने के बाद पिछले पांच माह से सीमेंटेड बैरीकेडिंग से बंद कर दिए गए पंजाब-हरियाणा बॉर्डर पर डटे किसान भूमि-अधिग्रहण नीति और संशोधित कृषि अधिनियम का विरोध कर रहे हैं. ठीक वैसे, जैसे देश भर में जगह-जगह घर, दुकान, खेत, मंदिर, जमीन पर चलाए गए बुलडोजर या घरों पर चिपकाए गए सरकारी नोटिस आम जन की बेबसी को बैलेट-पेपर-लड़ाई का रूप दे रहे हैं.
पुनश्च : मुक्तिबोध की कहानी
‘अंधेरे में‘ के नैरेटर का सवाल अभी तक कानों में गूंज रहा है कि
“क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जग कर, जाग्रत होकर उसको डंडे मारकर चूर कर देते हैं? क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया?”
पचास के दशक में रची गई यह कहानी पिछले सत्तर साल से इस सवाल को दोहरा रही है. लेकिन हर बार इन्हें कभी कोई बीएमडब्ल्यू, कभी को पोर्श कार कुचल कर आगे बढ़ जाती है और गूंगी-बहरी-लंगडी न्याय-व्यवस्था वास्तविक अपराधी को छोड़कर उसकी जगह बलि-पशु के रूप में खड़े किए गए किसी शैडो प्राणी को दंडित करती है.
विकास के आधारभूत मानकों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, स्वस्थ सामाजिक परिवेश और सुरक्षा के अतिरिक्त अभिव्यक्ति की आजादी, न्याय की सर्वसुलभता और संसाधनों पर समान अधिकार भी है. चमचमाती सड़कों पर अंधी होकर दौड़ती गाड़ियाँ फुटपाथ पर सोए घरविहीन लोगों को कुचलें या सड़क से दूर पगडंडी पर आंदोलन करते किसानों को- विकास के सही अर्थ को समझकर इसके मानवीय चेहरे की प्रतिष्ठा के लिए सबको संगठित होकर लड़ना ही होगा. सर पर कफ़न बांधे बिना आजादी को दूसरों के पैरों चल कर नहीं पाया जा सकता.
रोहिणी अग्रवाल
कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ सम्मान एवं पुरस्कार : हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पर तीन बार, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथा आलोचना सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, डॉक्टर शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान, डॉक्टर रामविलास शर्मा स्मृति सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, श्रेष्ठ महिला सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी rohini1959@gmail.com |
बिल्कुल, प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल ने पुरस्कार कहानी को नए आलोक में देखने के लिए पाठकों को स्पेस मुहैया कराया है। इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे हमेशा लगता रहा, देश बनाम व्यक्ति का अंतर्द्वंद्व तो इस कहानी में है ही. उसके साथ ही भूमि और खेती– किसानी का सवाल इस कहानी के पाठ को और व्यापक करता है. स्त्री जीवन के संघर्ष और जीवटता के नजरिए से भी इस कहानी को देखा जाना चाहिए. पुरस्कार कहानी बचपन से मेरी प्रिय कहानियों में से है. इस पर लिखने का बड़ा मन था.
युगीन वैश्विक परिदृश्य और परिस्थितियों को देखते हुए आज प्रत्येक रचना के पुनर्पाठ की आवश्यकता है। रोहिणी अग्रवाल मैम ने इस आवश्यकता को बखूबी समझते हुए पुरस्कार कहानी को सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसे उदात्त स्वरूप में देखने – समझने की एक नई दृष्टि विकसित की है। सचमुच यह एक सार्थक पहल है। साधुवाद और शुभकामनाएं।
यह लेख ‘पुरस्कार’ कहानी को प्रेम, त्याग और समर्पण की निर्धारित आलोचना के फ्रेम से बाहर निकालता है। मधुलिका के सामने तीन मौके आए थे- भूमि के बदले मूल्य (प्राइस), प्रेमी के षडयंत्र में शामिल होकर राजरानी होना और देश को गुलामी से रक्षा में (और सिंहमित्र की कन्या होने का गौरव बढ़ाने के लिए) राजा से मुँह मांगा पुरस्कार। पर उसने सबकुछ ठुकरा दिया। चरित्र उत्कर्ष की बहुप्रचलित मान्यताओं के आधार पर भी कहानी को पढ़ा जाता रहा है। सचमुच प्रेमचंद के बरक्स प्रसाद स्कूल की तर्ज पर इकहरे पाठ से परे देखने की संभावनाएं इस कहानी में मौजूद हैं। रोहणी जी उन्हें बेहद तार्किकता से, कोई सौ साल पहले लिखी रचना को हमारे समकाल तक ले आईं हैं। यही नहीं कथा में निहित प्रसादीय दृष्टि यानी भारतीय गौरव की ऐतिहासिकता के परिप्रेक्ष्य और स्वाधीनता आंदोलन के जरुरी संदर्भों के साथ, किसानी और भूमि के संकेतित मसले को बहुत दूर ले जाकर खोला है। भले ही मधूलिका प्रेमचंद के किसान पात्रों की तरह विश्वसनीय न लगे, पर उसकी उपस्थिति से उठाए गए सवाल उतने ही खास हैं। रचना के ऐसे अनजाने आशयों को प्रत्यक्ष करना ही आलोचना के पुनर्पाठ की जिम्मेदारी है, जो कि यहाँ किया गया है। इस क्रम में आलोचक ने कहानी के आलोचकीय पाठ के लिए कतिपय सिद्घांतिक नवाचार का संकेत भी कर दिया है। बहुत बधाई स्वीकार करें।
विश्लेषण बहुत गम्भीर है, लेकिन इसे समझने वाले कितने है?
दुर्दांत चेहरे को जनकल्याण के मुखौटे तले छुपाना चाहता है?
आलोचक रोहिणी अग्रवाल जी ने बहुत गम्भीर विश्लेषण के साथ कहानी में मानव सभ्यता के अस्तित्व, भूमि अधिकरण व राजनीति सत्ता के दोगले चेहरे को दिखाने का सही प्रयास किया।
संकल्प-विकल्प! प्रतिशोध-प्रतिरोध! रुदन-हास!
निरंतर द्वंद्व ग्रस्त क्योंकि विचार की रणनीतियाँ और क्रियान्वयन की व्यवहारिकताएँ यहीं जन्मती हैं.
“यह जन सैलाब मधूलिका की तरह राज्य-सत्ता से कहना चाहता है कि “महाराज (तंत्र) को भूमि समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है”, लेकिन साथ ही दो सवाल भी पूछ लेना चाहता है. एक, यदि बुलडोजर-न्याय को ही निजाम अपनी पहचान बनाना चाहता है तो फिर क्यों ‘सबका साथ सबका विश्वास‘ की घोषणाएँ कर अपने दुर्दांत चेहरे को जनकल्याण के मुखौटे तले छुपाना चाहता है? निहत्थी पारदर्शी जनता से ऐसा क्या डर कि उन्हें दो पालों में बांटकर बीच में झूठ और उन्माद के समंदर बहा दिए जाएँ? दूसरे, यदि विकास-परियोजनाओं के लिए भूमि-अधिग्रहण की जरूरत है तो पहले सबके साथ मंत्रणा कर विकास की अवधारणा को तो परिभाषित कर लिया जाए. किसका विकास? कैसा विकास? विकास का एक मॉडल वह है जो अपनी मूल प्रकृति में उत्पादक और जन-कल्याणकारी है.
यह मॉडल बांध, नहर, रेल, कल-कारखानों, छोटे-बड़े उद्योगों, शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों के जरिए बुनियादी जरूरतों के अलावा रोजगार और उत्पादन के अवसर बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को समुन्नत करता है. दूसरा मॉडल आर्थिक विकास का उपभोक्ता-केंद्रित मॉडल है जो चौड़ी सड़कों, फ्लाईओवरों, बुलेट ट्रेनों, स्मार्ट शहरों, भव्य मंदिरों, विशाल कॉरिडोर, मल्टीप्लेक्स-मॉल, सौंदर्यीकरण की शेखचिल्ली परियोजनाओं में परिलक्षित होता है. दोनों जून रोटी की जुगाड़ में पसीना-पसीना होती जनसंख्या के बहुत बड़े भाग के लिए विकास का यह मॉडल बेमानी है. चमचमाती सड़कें धूलधूसरित पैदल यात्री के लिए नहीं रह गई हैं. न ही बुलेट ट्रेन की गति उसे रोमांचित करती है. वह विकास की मृग मरीचिका में जनरल बोगी वाले उस रेल नेटवर्क को बिसरा नहीं पाता जो सस्ते और सुरक्षित भाव से उसे गंतव्य तक ले जाता था.”
आज के समय में जब आलोचना केवल प्रशंसा का पर्याय बनकर रह गई है। प्रो. रोहिणी अग्रवाल बिना किसी टोलेबाज़ी के चुपचाप अपने हिस्से का कर्म कर रही हैं।
उन्होंने बार – बार हमें पाठ को नई दृष्टि के साथ उसके आलोक में झांकने को मजबूर किया है। पुरस्कार, अंधेरे में (कहानी) और वापसी जैसी अनेक कहानियों को कम से कम मैं उनकी दृष्टि से कभी नही समझ पाता।
नये लेखकों की बात तो छोड़िये, उन्होंने हमेशा लगभग सबसे बड़े रचनाकारों को लेकर हमें जो दृष्टि दी है, उसे चमत्कृत होकर स्वीकारने का अलावा हमारे पास कोई चारा नही रहता।
आलोचना को में हमेशा मुश्किल काम मानता हूँ क्योंकि आलोचक, लेखक से बहुत आगे की सोचता है। रोहिणी जी कि अपनी प्राथमिकताएं हैं और धीरे – धीरे उन पर काम सामने आ भी रहा है। अगर बड़ी कहानियों पर पुनर्पाठ को लेकर उनकी कोई पुस्तक आ गई तो कितनी ही धारणाएँ बदल जायेंगीं।