सर्व सेवा संघ सुमीता ओझा |
1.
वाराणसी में राजघाट स्थित
सर्व सेवा संघ परिसर हमारा घर है
विनोबा और जेपी की क्रान्तिधर्मी साधनास्थली
यह गांधी के विचारों का घर है
प्रकाशन, पुस्तकालय, बालवाड़ी और
गांधी विद्या संस्थान का घर यह
आँखभर वनस्पतियों का घर है
सैकड़ों पशुओं, पंछियों, कीटों का घर
यह हिन्दुस्तान के मन का घर है
आज, साल दो हज़ार तेइस की सत्ताइस जून की दोपहर
ये सभी अवैध अतिक्रमणकारी हो गए हैं
इसकी दरों दीवारों पर जहाँ-तहाँ चस्पां है सरकारी आदेश
ढाई दिन बाद यह ध्वस्त कर दिया जाएगा
बुलडोजर चल जाएगा
गांधी और उनके विचार पर
विनोबा और जेपी की क्रान्तिधर्मी साधनास्थली पर
प्रकाशन, पुस्तकालय और बालवाड़ी पर
वनस्पतियों, पशुओं, पंछियों, कीटों के घर पर
हमारे घर पर
गंगा तट पर काशीखण्ड के अविमुक्तेश्वर क्षेत्र में
पिछले छह दशकों से वैधानिक विधि से अवस्थित
यह परिसर जनान्दोलनों की भूमि रहा है
सत्ता को चारण बना सकने की अकूत ताक़त और
मौक़ों के बावजूद इसके सर्वोदयी नेतागणों ने
हमेशा ही चुना सत्ता से रहना बाहर ताकि
बचा रहे अनीति और अन्याय के प्रतिरोध का नैतिक साहस
गंगाविलास* करने वाले विकास के तन्त्र ने
ढाई दिन बाद बुलडोजर चलाने की नोटिस चिपकायी है
नोटिस है कि बस तन्त्र का अस्तित्व रहेगा, लोक का नहीं
जबकि विदेशों में गांधी की मूर्तियों का अनावरण कर
वाहवाही बटोरते हैं देश के सबसे बड़े जनसेवक
प्रशासन के मन्तव्य के आगे आज से
गांधीयन विचारों और संस्थानों की
ऐतिहासिक भारतीय धरोहरों को
अक्षुण्ण रहने देने के लिए
सविनय अवज्ञा सत्याग्रह पर बैठेंगे सर्वोदयी.
(*गंगाविलास- बनारस में गंगानदी पर हाल ही में उतारे गए नए क्रूज का नाम)
2.
परिसर की दरों-दीवारों पर चिपका हुआ नोटिस जैसे
अचानक आया बवण्डर
तीव्र वायुदाब और अतितीव्र गति के साथ जैसे
वाशिंग मशीन में निचुड़ते हैं कपड़े
पलक झपकते ऐसे ही झन्नाके में झूले
हमसभी परिसरवासी
मिनटों में इंची फीते से माप लिए गए सभी भवन
सरकारी दयानतदारी थी कि छुट्टियों के दौरान
दी गई थी पूरे ढाई दिन की मोहलत
हिन्दू धर्म के नियमों का भी पूरा रखा गया था मान कि
विध्वंस की कार्रवाई के लिए
सभी देवताओं के शयन पर
चले जाने के एक दिन बाद का
समय हुआ था मुक़र्रर
3.
सवाल इस परिसर के ध्वंस का नहीं है केवल
जगत प्रसिद्ध गंगाधर अपरूप शिव द्वारा
विपरीतों के समन्वय के आदिस्वरूप से लेकर
वर्त्तमान भारतीय लोकतंत्र के अद्वितीय कोलाज
वाराणसी के विध्वंस का है
जिसके पहले सिरे पर अभी
त्वरित तोड़क कार्रवाई का विशेषादेश है
यहाँ, जहाँ गंगा भी गतिपथ बदल
हो जाती है उत्तरवाहिनी
क्या दक्षिणवाही विकास को पसन्द नहीं
गंगा की यह मनमर्जी?
या परिवर्तनशील काल की धीरता है नागवार
कि इसे द्रुतगामी करने
आ रहा बुलडोजर का प्रहार ?
4.
वाराणसी नगरी के पहले सिरे पर
स्थित है सर्व सेवा संघ परिसर
जहाँ मिलती है गंगा से वरुणा
काशीखण्ड का यही संगम है
अतिपौराणिक अविमुक्तेश्वर क्षेत्र
वैदिक कथा है कि वनाच्छादित इस संगम पर
विष्णु ने स्वयं स्थापित किया आदिकेशव मन्दिर इसीसे
यह घाट कहलाया आदिकेशव
जिसके हाथों में हाथ डाल स्थित आदिसखा राजघाट
आदि महादेव भी प्रथमतः आए थे यहीं किन्तु
विष्णु के विराजित होने का मान रखते हुए
कुछ दूर जाकर टाँका अपना त्रिशूल
जगतप्रसिद्ध हुआ शूल टंकेश्वर
बीचोंबीच काशी विश्वनाथ धाम
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रसिद्ध
जहाँ कंकड़-कंकड़ में शंकर का निवास
इसी वनपथ में रोपते अपने पाँव
गौतम बुद्ध पहुँचे थे बगल के गाँव सारनाथ
प्रथम पाँच शिष्य यहीं हुए दीक्षित
यहीं से लहराया बौद्ध धर्म का परचम
धर्म, दर्शन, शिक्षा और संस्कृति की
अक्षुण्ण बहती गंगधार के साथ
नवोन्मेषी सनातनता के आधुनिक दार्शनिक
जिद्दू कृष्णमूर्ति ने सदी भर पहले यहीं बसाया
विद्यालय और बेसेंट महिला महाविद्यालय
इसी शृंखला में यहाँ आए गांधी, विनोबा और जेपी
बना गांधी विद्या संस्थान और सर्व सेवा संघ कि
सद्भाव और मैत्री का उजियाला
प्रसारित होता रहे
जन-जन में, जगत भर में
इस नगरी के दूसरे सिरे पर गंगा से मिलती है असि नदी
जिसके मुहाने पर महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय ने
पिछली सदी में बसायी
विज्ञान, कला, अध्यात्म और दर्शन सहित
सर्व विद्या की राजधानी यानी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
जबकि एक सिरे से दूसरे को सूत्रबद्ध किए ही रहे
महापण्डित, महामनीषी, चिन्तक और
क्रान्तिद्रष्टा कविगण
वरुणा और असि के दो छोरों के पार-अपार
हज़ारों सालों के विस्तार में
हज़ारों हज़ार कथाएँ बिना भूले सुनाती रहती है गंगधार-
डोम राजा के सौजन्य से सतयुगी राजा हरिश्चन्द्र के
सत्यवाद की लौ रह सकी निष्कम्प
यहीं हुए कबीर, यहीं जन्मी तुलसी की थाती
जन्मी यहीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
यहीं जगमगायी भारतेन्दु ने
‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ की रोशनी…
गंगा किनारे मृत्युञ्जय शंकर के त्रिशूल पर
अहर्निश प्रज्ज्वलित महाश्मशान पर बसी
माता अन्नपूर्णा की नगरी
अद्भुत इस काशी में
मृत्यु से ही आलोकित है जीवन इसीलिए
सतत रहा संस्कृति और परम्परा का सहज प्रवाह
लेकिन अब
इस नगर के ठीक इसी आदि सिरे पर
सदियों से संरक्षित
आदिविष्णु, बुद्ध, कृष्णमूर्ति और गांधी की
सतत चली आ रही
ऐतिहासिक, पुरातात्विक व शैक्षणिक विरासतों की
कब्र की पूँजी पर
निर्मित होना है पाँच सितारा होटल, मॉल, हेलीपैड
बस अड्डा, मालवाही पानी के जहाजों का यार्ड या
और न जाने क्या
हैरान है जन-मन, हैरान है नगर
समय की किताब में जुड़ते जाते नए पृष्ठों के चिर वर्तमान को
अतीत-व्यतीत करने उपस्थित होने वाला है जो बुलडोजर
जब सबकुछ ध्वस्त कर देगा तो
यहाँ किस गौरव की लहराएगी पताका?
यहाँ का भूगोल बदलकर रचेगा कैसा इतिहास नया?
5.
परिसर में आशंकाओं की पहरें हैं
प्रश्नों की गूंजायमान लहरें हैं:
संरक्षक के वेश में
किस देश से आए तुम?
कौन देश के वासी?
किसके हो पुत्र?
किसके ध्वजाधारी?
क्यों रौंदकर उलट-पलट कर देना चाहते हो
पुरातन इस नगरी की परतों-परत धरती?
क्यों कुचलना चाहते हो इसकी आत्मा
इसका चरित्र और अस्तित्व?
स्वच्छता के नारे के साथ
गंगधार में पेट्रोलियम क्यों घुलाया जा रहा?
क्या इसीलिए कि सभी कुछ याद रखने वाले जल की
हज़ारों बरस पुरानी स्मृति/संस्कृति की
जब चाहे जलायी जा सके चिता?
सनातन गौरव का राग
और इसकी आत्मा पर प्रहार?
क्यों आधी रात कहीं काटे गये सैकड़ों पेड़?
कैसे गिरा काशी विश्वनाथ धाम का अक्षय वट?
क्यों भग्न हुए हज़ारों बरस पुराने
दुर्मुख और सन्मुख विनायक?
क्यों तोड़े गये सैकड़ों मन्दिर और देवमूर्तियाँ?
क्यों नष्ट की गयी कारमाइकल लाइब्रेरी और यहाँ तक कि
भिखारियों का बनवाया भिखारी महल भी?
कहाँ विलुप्त हुआ कछुआ अभयारण्य?
क्यों गंगा में दिखती नहीं मछलियाँ और डॉल्फिन?
गांगेय संस्कृति-परम्परा के मलंग रस में
कुरस घोलते
आस्था को अंधे उन्माद में बदलते
लोक और जीवन को तार-तार करते
श्रमशील निरुपाय गांगेय संतानों को
जीवन के रेगिस्तान में धकेलते
संरक्षक के वेश में
अयाचित, आयातित कहाँ से आए तुम?
सर्व सेवा के बदले स्वयं सेवा की राह चल
यह कैसा रंग जमा रहे कि
रंग-बिरंगी डिजिटल चाकचिक्य में
रंग उड़ता ही जा रहा काशी का?
6.
परिसर में शोकहरण अशोक वृक्ष
सीधे तने सावधान ध्यानस्थ
भाँति-भाँति के गाछ-बिरिछ
सबसे प्रिय सेमल और चुलबुली चिलबिल
आज भी उन्मुक्त, उल्लसित, ख़ूब खिलखिल
मैं सोच रही हूँ कि क्या ये वृक्ष
बुलडोजर के लिए भी उसी तरह फैला देंगे
अपनी शाखाएँ जिस तरह फैला देते हैं
चिड़ियों, मधुमक्खियों, तितलियों, चींटियों या कीटों के लिए?
परिसर के मध्य से गुज़र रही
अपने चार बच्चों के आगे-आगे गर्वीली चाल चलती
मानिनी मोरिन
तीन नन्हें चूजों को उड़ना सिखा रही खंजन
कनेर की डाल पर एकदूसरे को रगेदती
धमाचौकड़ी मचा रही गिलहरियाँ
सहजन की डालों से पत्तियाँ कुतर रही नीलगायें
अपने सफ़ेद अण्डे उठाए जाती चींटियाँ, पागुर करती गाएँ
घातक सरकारी मंसूबों की लिपि पढ़ना नहीं जानती हैं
इन्हें पता नहीं कि इनका संसार बुलडोजर के भरकम
लौह पहियों की जद में आकर बस नष्ट हो जाने वाला है
मैं सोच रही कि क्या ये सभी माँएँ भी
मेरी तरह सोच रही होंगी कि
यदि रोका न जा सका बुलडोजर तो
कैसे बचाएँगी बच्चे, परिवार या ख़ुद को?
क्या बचा पाएँगी?
या ध्वस्त हो जाएँगी हमारे साथ?
ध्वन्स के नीति-विरुद्ध सरकारी आदेश का
प्रतिपक्ष स्पष्ट है हमारा कि
संरक्षित हो परिसर
उजाड़ने के विरुद्ध बचाने वालों की जमात में
खड़ी पायी जाऊँ मैं, मेरा कवि परिवार कि
भारतीय चिन्तनबोध की काव्य परम्परा से निकल
आ जाएँ कभी कोई कवि-ऋषि या
पक्षधरता की बात ही पूछ लें कभी
आधुनिक कवि मुक्तिबोध
तो आत्मदीप्त आत्मविश्वस्थ
उनकी कतार में खड़े रह सकने का ताब सलामत रहे
उनसे ससम्मान नजरें मिलाने में
चुरानी न पड़े अपनी नज़र
7.
बारह घण्टे में आएँगे बुलडोजर
सभी देवतागण जा चुके शयन पर
जब नहीं मिला कोई सुननिहार तब
गांधी विचारों से संचालित
इस परिसर ने
प्रतिरोध में
सविनय अवज्ञा सत्याग्रह की घोषणा की
सुर मिलाती
वर्षा ऋतु भी आज रिक्त किए दे रही
अपनी कलशी
शमशीरें भाँज रही बिजली
घटाटोप बादलों के तुमुल निनाद से गर्जित है आकाश
सत्याग्रह का बल कामयाब रहा है
फिर हो कामयाब
8.
वर्षा इतनी हुई कि
परिसर में पीढ़ियों से बसे साँप भी
निकल आए हैं बिलों से बाहर
परिसर के ध्वस्तीकरण की
आशंका की तरंगों पर
बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे रेंगते लम्बे सुनहले साँप को
ज़रा ऊँचाई वाली झाड़ियों में चुपचाप जाता
बिना कौतूहल, बड़े प्यार से देख रही एक नीलगाय
यह दृश्य देख रही हूँ मैं
इस दृश्य के संकेत बूझने की कोशिश कर रही हूँ मैं
9.
आज तीस जून है
आज ही की सुबह नौ बजे से
अनीतिपूर्ण ध्वस्तीकरण का सरकारी आदेश है
परिसर में हलचल है
बनारस के इर्द-गिर्द गाँवों से
चंपारण, आरा, छपरा, पटना और बेतिया से
लखनऊ, कानपुर, मेरठ और बलिया से
झारखण्ड, मध्यदेश,
उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम से
राजधानी दिल्ली से
और न जाने कहाँ-कहाँ से
लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले
गांधी की वैचारिकी में विश्वास रखने वाले
आमजन आ रहे हैं
नाविक और किसान आ रहे हैं
संरक्षण के उलट ध्वंस की नीति के प्रतिपक्ष में
लोकतंत्र पर अमानवीय आघात के प्रतिपक्ष में
अपनी आवाज़, अपनी उपस्थिति दर्ज करने
युवा छात्र-छात्राओं के साथ
बुजुर्ग गांधीवादी पधार रहे हैं
शहर की महिलाएँ और विद्यार्थीगण आ रहे हैं…
परिसर के द्वार पर हम सभी जन
शान्तिपूर्ण सत्याग्रह पर बैठ गए हैं
इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में
गांधीयन परिसर से एक बार फिर
सविनय अवज्ञा आंदोलन घोषित है
पिछले बरस इसी परिसर में
जन्मी काली श्वान
ब्लैक मैजिक जिसका नाम
वह भी आ बैठी है धरने पर
10.
भारतीय वाङ्गमय, चिन्तन और चरित्र की
सत्य के लिए निर्भीक अडिगता की
भारतीयता की
आदि ऋषियों से बुद्ध, गांधी और जयप्रकाश के
ज्वलन्त विचारों की सुदीर्घ परम्परा की
सुवास प्रसारित करने वाला
सस्ती पुस्तकें प्रकाशित कर लोक में
ज्ञान का आलोक फैलाने वाला
दुखियों, वंचितों और सर्व साधारण की सेवा
निःशुल्क बाल शिक्षा
निःशुल्क आरोग्य उपचार से करने वाला
सर्व सेवा संघ आजकल
राष्ट्रीय समाचारों में है
बाख़बर आमजन के चिन्तित विचारों में है
बुलडोजर पर सवार होकर आते विकास के विध्वंसक
प्रहार के प्रतिपक्ष में
प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद,
लालबहादुर शास्त्री व
बाबू जगजीवन राम के प्रयत्नों और
विनोबे, जेपी को भूदान में मिली ज़मीनों से
पक्के ख़रीद-फ़रोख्त के बाद
सरकारी ख़जाने में ख़रीदी राशि जमा करने के
मय दस्तावेजों के साथ
वैधता प्रमाणित करता
अपने अस्तित्व के लिए अटल सत्याग्रह पर
न्यायालय के गलियारों में है
11.
सत्य के जाज्वल्यमान प्रकाश की लौ
निष्कम्प जलती है आत्मा के दीवट पर जिसे अनदेखा कर
आत्महीन झूठ के प्रपञ्च का असीमित होता है प्रसार
अत्यधिक होती है चकमकाहट
अत्यधिक रोशनी अंधत्व का कारक है
अत्यधिक विकास, विध्वंस का
अत्यधिक अहम, विनाश का
ऐतिहासिक इतिव्यथा यही है कि
भूतल पर आतातायी विध्वंस और उलटफेर के
सदियों बाद भी
आपके कर्मों की छाप मिटती नहीं
सत्य और सात्विक फूट पड़ता है
अन्धकारकाल के युगों बाद भी
सर्व सेवा संघ परिसर में
ठहरी हुई है उमसाई हवा
पीपल के पत्ते मुस्कुराते आश्वस्तिदायी
झूलना सुना रहे हैं
झूठ के अति भव्य, अति चमकदार कंगूरे पर भी
उग आता है सत्य का अश्वत्थ.
सुमीता ओझा
गणित विषय में ‘गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्ध’ पर शोध. पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका “स्टारडस्ट’ में कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक ‘समाधान’ नामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन. सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास. सर्व सेवा संघ परिसर |
आज सुबह सुबह मैने ये कविताएं पढ़ीं।मन व्यथित हो गया।कितनी कारुणिक पुकार और आक्रोश है इन कविताओं में।सच है, कविताओं को पढ़कर दिल के तार झनझना रहे हैं बिल्कुल उसी आशंका मे कि कविताएं श्राप भी देती होंगी। उस श्राप से फिर कौन बच पाएगा।कितनी बेचैनियां समेटे हैं अपने भीतर ये कविताएं। किसी का हृदय है इनमें।विचलित करती कविताएं।सुमिता ओझा जी की ये पुकार दूर तक जाने वाली है।बधाई । आभार आपका पढ़वाने के लिए
बनारस यहीं से बसा था, उजाड़ने वाले यहां पहुंचे हैं,मय बुलडोजर। इसका व्यंग्य यह है कि वे अब यहीं से उजड़ने वाले हैं। यह तय है।
बनारस में देवता भी बनारस की शर्तों पर बसे।
अंग्रेजों ने गृहकर लगाया था।
बनारस के सारे गृहस्थ सड़कों पर रहने लगे। एक एक ने अपना घर छोड़ दिया था।चकरा गई थी ब्रिटिश सरकार और हिल गई थी।
उसे गृहकर वापस लेना पड़ा था।
झूठ के कंगूरे पर उग आता है सत्य का अश्वत्थ ।
सुमीता की कविता पर इसलिए भी लिख रहा हूँ कि प्रबंधित लालसाओं और गिरोहवादी पारस्परिकताओं के इस मुंहझंउसे समकाल में इस कविता पर लगभग सन्नाटा है। जो विषय पत्रकारिता के गिद्धों के लिए छोड़ दिया जाता है , उस बुलडोज़र आतंक की छाया में पैदा भय और फिर विद्रोह को न्याय बोध और काव्य बोध में बदलना दुस्साहस का काम है । विवरणों, सूचनाओं में जाते हुए और इस तरह काव्य त्व को खोने का खतरा उठाते हुए भी सुमीता अंततः एक काव्यात्मक रिपोर्ताज पेश कर ही देती हैं। यह नैतिक ज़िद अलक्षित भी नहीं रह जाती। आप इसे न माने कविता तो काव्यात्मक निबंध की नई प्रविधि मानिए लेकिन जो दुर्घटित घट रहा है उससे विमुख मत होइए और संवेदित होने के भूले औजारों को फिर से पैना कीजिए – सुमीता का यह आग्रह अविदित नहीं रह जाता। तमाम सांस्कृतिक और सामाजिक स्मृतियों से संवलित कविता वर्चस्व और अधीनता और निरुपायता और फिर प्रतिकार की जिन आकांक्षाओं का वितान रचती है, इसे देखकर स्त्री कविता की यह नई दिशा मन को नई तड़प से भर देती है। ध्वंस के समानांतर दंश कविता कर्म की संरचना में समाया हुआ है लेकिन उसे इस तरह एनसाइक्लोपीडिक बना पाना विवेक और विन्यास की जो मांग करता है, सुमीता उसे अचूक तरीके से हासिल करती दीखती है। यह कविता लिखकर सुमीता पुरुषवाची नव्य पवित्रतावाद के विरुद्ध खड़ी होती हैं और इस तरह स्री कविता के एक नये महत्वाकांक्षी कार्यभार की जानिब गहरा इशारा कर देती हैं। बरसों पहले बंबई की सामुद्रिक उपनगरीय हरीतिमा में सुमीता और अनुपम के साथ दोपहर के खाने की याद भी हो आई जो स्वप्नशील संवादिता का संस्मरण है।
बहुत मार्मिक, अर्थपूर्ण टिप्पणी है।
यह कविता एक मार्मिक पुकार नहीं, चीख़ है। कातर नहीं, क्रोधित। अनिवार्य दुख को देखती। उसका नामकरण करती है। वरदान की ओट में, उसके मुखौटे के पीछे छिपे अभिशाप को लक्ष्य पर लेती है। हमारे समय में प्रस्तुत तथा आसन्न नर्क को चित्रित करती हुई। इसे किसी एक स्थल तक सीमित नहीं किया जा सकता। अपनी स्थानिकता के बावजूद इसकी व्याप्ति व्यापक है। यह इतनी आवेगमयी है कि इसकी गद्यात्मकता लय से भर गई है। यह एक साक्षी का बयान है।
कविता से बाहर भी।
कविता में पीड़ा और आक्रोश का स्वर बहुत मारक है l बहुत शार्प ऑब्जर्रवेशन है आसपास बदलती स्थितिओं पर l और तंत्र पर जो मनुष्य की मूल मानवीय संवेदना पर प्रहार कर रहा है l
सुमीता ओझा की कविताओं को पढ़कर मन और मस्तिष्क में एक अजीब सी झनझनाहट ने घर कर लिया है। कवयित्री वर्तमान परिस्थितियों से आक्रोशित होकर देश के तथाकथित बड़े जनसेवकों पर गहरा व्यंग्य करती हैं। विकास के पंजों तले खत्म होती विरासतों का शोक मनाती कविता संरक्षक के वेश में आए विध्वंसकारियों का बड़ी ही सजकता से प्रतिरोध करती है। स्थानिकता के बावजूद भी कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है। पीड़ा और आक्रोश से उपजी ये कविताएं अपने आस-पास का गहन निरीक्षण करती हुई, बिना लाग-लपेट के मारक तंत्र की गवाही देती हैं।
सुमीता ओझा को हार्दिक बधाई एवं समालोचन का हार्दिक आभार कि उन्होंने सुमीता ओझा के वैचारिक संसार से परिचय करवाया।
आज भी सत्याग्रह की ताकत को झुठलाया नहीं जा सकता फिर कोई बुलडोजर लेकर आये या तोप. सुमिता ओझा की कविता नहीं अपने समय का यथार्थ है. स्वयं को जनसेवक बताने वालों के मुंह पर करारा तमाचा है ये कविता.
इस मारक दौर में अपने शब्दोद्गारों से इन कविताओं की वेदना का हाथ थाम लेना भी कम साहस की बात नहीं है। आप सबों की टिप्पणियों ने मेरा आत्मबल बढ़ाया है। वरिष्ठ कवि देवी प्रसाद मिश्र जी, कुमार अम्बुज जी, केशव तिवारी जी, हमारी प्रिय चंद्रकला त्रिपाठी मैम, पूनम मनु जी, ममता पंत जी व अन्य सभी सुधी पाठकों को हार्दिक धन्यवाद।
साथ ही, अरुण देव जी और समालोचन को मेरा हार्दिक आभार।
नीलम शंकर
गद्यात्मक कविता में गजब का आक्रोश। इतिहास और संस्कृति को समेटती हुयी। ऐतिहासिक स्थल के अनाधिकृत तरीके से गिराए जाने का बुलडोजर संस्कृति के खिलाफ़ भी तेवर क्रोध से भरी रचना।
ये कविताएँ अपनी ही आँच में तप रही हैं, और तप रहा है एक मन जिसे सहज ही अपने आस-पास से स्नेहिल सरोकार है। क्या कहा जाए इन पर, ये इतनी खरी हैं, अपनी वेदना में चमकदार। जब कोई रचना सत्य के लिए खड़ी होती है तो उसे किसी तारीफ़ या प्रोत्साहन की ज़रूरत नहीं होती। ये ऐसी ही रचनाएँ हैं।
“अत्यधिक रोशनी अंधत्व का कारक है
अत्यधिक विकास, विध्वंस का
अत्यधिक अहम, विनाश का…”
की गूंज लगातार सुनाई दे रही है। सत्य का अश्वत्थ समय के कंगूर पर मुस्कुराता उस क्रंदन को सुन रहा है जिसके खारे आंसुओं में धुल कर ही वह मैल शायद कटेगा जिसने शासन की चेतना को कुंद कर रखा है। सुमिता जी को साधुवाद इस अद्भुत भावों और व्यंजना से भरी कविता के लिए!👏👏💐💐
मुझे आशंका जिस बात की है वह यह है कि हमारे समय की गति को देखते हुए “गंगाविलास” की ज़रूरतें अन्य सभी ज़रूरतों से भारी पड़ेंगी । कवियों की भावनाओं की फ़िक्र आज के समय में कितने लोगों को हो सकती है ?
बुलडोज़ करने वाली मानसिकता के विरुद्ध एक कवि का सत्याग्रह!
कवि जो शब्दों के बल पर जनता तक पहुँच बना पा रही हेै। अभी तो सारा मीडिया बुलडोज़र के आका के पास है।
यह निर्विवाद है ।
गांगेय पृष्ठभूमि पर इस सदी की सबसे मारक प्रहारक कविताएं लिखने वाले ज्ञानेंद्रपति के बाद वाराणसी के किसी कवि की ऐसी कविता पढ़ कर लगा कि लगभग उसी प्रखरता से सविनय अवज्ञा की यह कविता कही गई है। लगा कि उनके अलावा भी बनारस में कोई कवि हितैषी है जो प्राच्य सांस्कृतिक गांधीवादी और सर्वोदयी मूल्यों के जीर्ण शीर्ण प्रतिष्ठानों को धूलिसात करने पर आमादा हुक्मरानों के विरुद्ध ऐसी प्रतिरोधकारी कविता लिख सकता है। शुरुआती कुछ चरणों में साधारण उठान लेती और सामान्य नैरेटिव रचती हुई कविता का उच्च सूचकांक छठें सातवें चरण से प्रबल होता है और अंत तक यह सिद्ध हो जाता है कि वाकई यह एक मार्मिक कविता है।
देवीप्रसाद मिश्र की अतिशय प्रशस्ति के बाद लगा कि इसे सावधानी से पढ़ना चाहिए और पढ़ कर लगा कि वाकई यह कविता जिस मकसद से लिखी गई है, उसमें कामयाब है।
यह जान कर अच्छा लगा कि इस कविता को सर्व सेवा संघ परिसर में ही रहने वाली एक स्त्री कवि ने लिखा है लेकिन निजता की पीड़ा से उठ कर इसे सार्वजनिक चिंता में बदल दिया है। मुझे लगता है इन दिनों झारखंड के अपने गांव में रह रहे कविवर ज्ञानेंद्रपति भी इसे पढ़ कर प्रसन्न होंगे क्यों वे ऐसे ही मुद्दों के जाने पहचाने कवि हैं।
इस कविता प्रतिरोध का स्वागत और अभिनंदन।
“जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध!”