मूलधन तो डूब गया उज़्मा कलाम |
छोटे-छोटे ज़मीन के टुकड़ों पर तले ऊपर घरौंदे बनते और बढ़ते जा रहे है. ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अपने अंदर समा लेने का यही एक तरीक़ा है. साँप जैसी गलियां जो चौड़ाई में तो सिकुड़ती जा रही और लम्बाई मानो गहरी खोह. बंद कमरों और सिकुड़ती गलियों में सूरज की रौशनी और मदमस्त हवा कोशिश करके अपना कुछ हिस्सा अब भी पहुँचाती है. बिना खिड़की और रौशनदान के बस एक दरवाज़ा जिससे आप भी आएं, रौशनी और हवा भी साथ ही कीड़े-मकौड़े, छिपकली, चूहे भी. वैसे यहाँ सबको साथ रहने की कुछ आदत ही है. छिपकलियां कीड़े-मकौड़े खाती रहती है और उमस, सीलन में वह लगातार पैदा होते रहते है. यानी जीवन चक्र चलता रहता है.
चूहे भी बिल बनाने के लिए इन्हीं घरों में आसरा ढूंढते है. यहाँ फैली लापरवाही और बिखराव में उन्हें आसानी से कुछ भी कुतरने और खाने को मिल जाता है. कुछ भी पड़ा मिला तो वह फ़ौरन बेधड़क आगे के दोनों पैरो से पकड़कर कुतर-कुतर खाने लगते है. बिल्कुल गिलहरी जैसे प्यारे-प्यारे. समीना का घर भी इन्हीं सिकुड़ी गलियों में ख़ुशी से सांस लेता है. बाकी घरों की तरह उसके घर में भी इन सभी नन्हे जीवों का बसेरा है. चाहे जितना भगाओ या मारो वह लौटकर फिर आते है, बार बार. समीना के हिसाब से चूहे एक काम ठीक करते है. जब पुराने कपड़े कुतर देते है, तब नए कपड़े बनवाने के रास्ते खुल जाते है. लेकिन जब इनका आतंक हद से बढ़ जाए और यह स्कूल की कॉपी किताबें कुतरने लगे तब गुस्सा आना लाज़मी है. यह किताबें तो बेहतर ज़िन्दगी की उम्मीद है इनका नुकसान कैसे झेला जाए. खैर फिर भी वह कई बार इन्हें माफ़ कर चुकी है.
पल भर में एक चूहा फुदकता हुआ समीना के पैरो पर से कूद कर निकल गया. “उफ़्फ़..! हमसे तो इन्हें कोई डर नहीं. उल्टा हमें ही डरा देते है. हमारी तो मजबूरी है इन गली कूँचों में रहना. यह खुली जगह में जाकर क्यों नहीं रहते. इन्हें कौन रोकेगा. कम्बख़्त यहीं मरेंगे” चूहे के पंजो से पैरो पर होने वाली गुदगुदी की जगह पर सहलाते हुए वह बोले जा रही थी,
“जीव विज्ञान का पहला चैपटर इसी ने खाया था. खैर वह तो मुझे अच्छे से आता था. हिंदी की किताब से महादेवी वर्मा की गिल्लू कहानी भी चट कर गया. उसके लिए भी माफ़ किया. गिल्लू तो पूरी तरह ज़हन में छपी है. मेरा सबसे बड़ा दुश्मन. पिछली बार इसे चूहेदानी में पकड़ कर दूर मैदान में छोड़ आयी थी. वापस कैसे आया यह..?”
“तुझे कैसे पता यह वही है.”
“मार्कर का निशान है इसकी खोपड़ी पर, मैंने लगाया था.”
कैसे…!”
“जब यह चूहेदानी में कैद था.”
“उफ़्फ़…! यह लड़की, घर में ऐसे दो चूहे और घूम रहे. उन्होंने तो तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा? सुबह से चूहेदानी लगा रखी है कोई फँस नहीं रहा.”
“लाओ कुछ बढ़िया खाने की चीज़ रखूँ. खुशबू सूंघ कर अंदर जायेंगे. तुमाइ सूखी रोटी पर यह दस्तक़ ना देने वाले.”
“दो दिन बाद गणित का इम्तेहान है तेरा, उस पर ध्यान लगा. यह काम मुझ पर छोड़.”
“अम्मी..यह सालाना इम्तेहान गर्मी में क्यों होते है? इसके पीछे क्या राज़ है?”
“ऐ..हमें नहीं मालूम. अपना काम कर राज़ मत खोज.”
“कैसे पढ़ूँ? बिजली नहीं आ रहीं.”
“बिजली का क्या भरोसा..आये, ना आये . इम्तेहान तो परसो ही होगा.”
“बाहर दरवाज़े पर बैठ जा, थोड़ी रौशनी और हवा दोनों मिलेगी. नहीं तो दिन ढलते ही गुप् अँधेरा…”
“और जो यह पसीना बहे जा रहा है उसका का करें.”
“पानी पीती रह और पसीना बहाती रह” ख़दीजा मुस्कुराई.
“गणित, उफ़्फ़! ख़तरनाक.” गणित की कॉपी किताबें लेकर वह घर के एक मात्र दरवाज़े के चौखट पर जा बैठी, “अंकगणित तो भूत है!….…” कॉपी किताब को ऊपर नीचे पलटते हुए, “वह कॉपी कहाँ है? जिसमें ब्याज वाला चैपटर किया था, सबसे मुश्क़िल है. अभी भी ढंग से समझ नहीं आया.”
“वही देख मेज़ के नीचे रैक पर, सारी कॉपी किताबे वही है.”
समीना चौखट से उठकर मेज़ के नीचे गणित की कॉपी खोजने लगी. आसमान मटमैला है. “ऐ अम्मी आंधी आयेगी या बारिश होगी.” ख़दीजा आसमान की तरफ़ देखती है. “लगता तो है. आंधी के साथ बारिश भी आ जाए तो इस गर्मी से थोड़ी राहत मिले.”
“हाँ, मिल गयी….यह..!!” अचानक एक चीख़ कमरे में गूँज गयी .
“आएं…..का….?” ख़दीजा चौंकी.
“ओह…..!”
“क्या हुआ….?”
आँखों से आँसू नहीं टपक पाए. उससे पहले गले से निकला रूदन दूर तक पहुँचा.
“हुआ क्या? बोल भी?”
“देखो…..” बस उँगलियाँ बीच के बुरी तरह कुतरे हुए पंद्रह बीस पन्नो पर टिक गयी. अब आँखें बहने लगी और रूदन की दहाड़ कम हुई.
ख़दीजा ने कॉपी के साथ-साथ, समीना को थाम लिया. कुछ देर बाद भरे गले से धीमी आवाज़ फूटी, “साधारण ब्याज, चक्रवृद्धि ब्याज.”
आँखें पोंछने की नाक़ाम कोशिश हुई.
“मूलधन, मिश्र धन…..”
“हाँ.. हाँ..” कहते हुए ख़दीजा ने गले लगाया.
फिर दर्द भरे गले से आवाज़ निकली, “दर, समय.. सब खा गया.” हिचकी बंध गयी.
अब हिचकियों ने जुमलों को धकेलना शुरू किया, “बहुत मुश्किल से किया……“था”. हिचकी के बीच जुमले टूट रहे थे. “इसी से समझकर….प्रैक्टिस करनी थी. अब कैसे होगा…..फ़ेल…….बस फ़ेल अब कुछ भी नहीं….. बचा.” हिचकी उभरती और डूबती रही आँखें बहती रही.
माहौल बेतरह ग़मगीन हो चुका था. एक तो चक्रवृद्धि ब्याज, ऊपर से प्रैक्टिस किये हुए सारे पन्ने ऐन इम्तेहान के डेढ़ दिन पहले ग़ायब. समीना को सिर्फ़ पास हो जाना मंज़ूर ना था. इतने सालो की बनायीं हुई इज़्ज़त धराशायी होती दिख रही थी. सिर्फ़ एक नाचीज़ चूहे की वजह से. अचानक कमरे के एक कोने से खट्ट ट ट…..की आवाज़ आयी. ख़दीजा और समीना दोनों के कान आवाज़ की तरफ़ मुड़ गए. समीना के आँसू, हिचकी, रुदन यकायक बंद हो गए. चेहरे पर ख़ुशी और गुस्सा एक साथ उभरे. लाल-लाल आँखों के साथ वह खट्ट ट ट…..की आवाज़ वाले कोने की तरफ़ लपकी.
इस रुआंसे माहौल में भी चूहा अपने पेट की फ़िक्र में ही फिर रहा था. पराठे के टुकड़े पर चुपड़े हुए आचार के तेल की ख़ुशबू ने ना चाहते हुए भी आख़िरकार उसे खींच लिया. सुबह से चूहेदानी के चारो तरफ़ घूमने के बावजूद, वह उसमें नहीं घुस रहा था. मानो वह चूहेदानी की तकनीक और इस घर के लोगो की चालाकी से पूरी तरह से वाक़िफ़ हो चुका था. लेकिन पराठे की ख़ुशबू ने उसे मजबूर कर दिया और अब वह क़ैद में बैठा पराठे का टुकड़ा कुतर-कुतर खा रहा था.
“अब क्या?”
“आह…मज़ा आ गया…..”
“क्या ….?”
“वाह……”
“उफ़्फ़… क्या हुआ?”
“यह…” उँगलियों ने चूहेदानी की तरफ़ इशारा किया. “मार्कर के निशान वाला चूहा.”
“फिर?”
“इसी का काम है.”
“कैसे.”
“इसकी आँखों से मेरे लिए दुश्मनी टपकती है.”
“पागल!” ख़दीजा मुस्करायीं, “छोड़ इसे, तू चक्रवृद्धि ब्याज कर यह हमको दे.”
“नहीं, अब तो इसका मिश्र धन करना है.”
दुःख कुछ थमा और दिल दिमाग़ पर दबाव कम हुआ. तब वह चूहेदानी लिए घर से निकली. दो गलियाँ पार कर वह खुले मैदान में पहुंची. मटमैले आसमान के बीच में से भी सूरज निकल-निकलकर चमक रहा था. चूहा चूहेदानी में भी फुदक रहा था. वह बेफ़िक्र लग रहा था. मानो सोच रहा हो कि कुछ पल की क़ैद से भला क्या दिक़्क़त. वह इत्मीनान से था कि अभी आज़ाद हो जायेगा और शाम तक थोड़ी जद्दोजहद के साथ ठिकाने पर पहुँच ही जायेगा. ख़ैर वह पराठे का टुकड़ा खाकर ख़ुश दिख रहा था.
समीना ने मैदान पर नज़र दौड़ाई फिर घुर्राती नज़रो से चूहे को देखा. चूहा ग़ुनाह क़ुबूल करते हुए दुबक कर कोने में हो गया. समीना बुदबुदाई ‘खुले मैदान में छोड़कर क्या फ़ायदा. यहाँ से तो यह खूब रास्ता पहचानता है. पहले भी तो यहीं छोड़ा था लौट आया’ वह आगे बढ़ती गयी. मैदान ख़त्म होने लगा. चूहे ने उचककर चूहेदानी की जाली में से झाँकने की कोशिश की और फिर सहमा सा कोने में दुबक गया. मानो सोच रहा हो ‘शायद…….इस बार ग़लती बड़ी हो गयी. सज़ा तो मिलेगी.’
आगे मैदान के सामने पक्की सड़क बन रही है. समीना बनती हुई सड़क के किनारे-किनारे आगे बड़ी. ‘अबकी बार कहाँ छोड़ू जहाँ से यह वापस घर ना लौटे.’ कंक्रीट धड़ा-धड़ गिराया जा रहा है. रोलर में डामर अच्छी तरह मिक्स हो रहा है. उसमे से गरम-गरम भपका सा आ रहा है. उसके गुस्से भरे कदम वहीं थम गए और अगले ही पल बिना कुछ सोचे, चूहेदानी का मुँह रोलर के अंदर बढ़ाकर खोल दिया.
चूहा आज़ाद होने की उम्मीद के साथ कूदा और रोलर में घूमते डामर में जा गिरा. गिरते ही डामर में धसने से बचने के लिए उसके नन्हे-नन्हे पैरो ने कोशिश करनी शुरू कर दी. घूमते रोलर में गाढ़ा-गाढ़ा डामर और इस मुसीबत से लड़ता नन्हा सा चूहा. अचानक ही आयी मौत से ज़िन्दगी बच निकलने की जद्दोजहद में लग गयी. उस नन्ही सी जान के आगे ज़िन्दगी और मौत बराबर आकर खड़ी हो गयी और वह पूरी शिद्दत से ज़िन्दगी को पकड़ने की कोशिश करने लगा.
बस इस बीतते पल ने समीना के गुस्से को अचानक ही पिघला कर उसे ठंडा कर दिया. उसके दिल की गहराई में एक टीस उठी. कुछ ही पल में कई बार उस चूहे ने घूमते रोलर के अंदर डूबने से बचने की हर मुमकिन कोशिश की. घूमते रोलर के हर एक घुमाव के साथ पूरा घूम जाने के बावजूद भी वह लगातार पैरो को ऊपर खींच रहा था, जो बराबर डामर में चिपके जा रहे थे.
दिल से उठी आह को सुनते ही, वह हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ने बढ़ी ही थी कि उसने मौत के सामने घुटने टेक दिए. हारकर अपनी थूथनी और दो आगे के पैर ऊपर किये हुए लाल-लाल आँखों से उसे देखते हुए वह डामर में डूब गया. गरम डामर, गरम आसमान और गरम हवा. समीना की आँखें डबडबा गयी. पूरे जिस्म से अचानक ही गर्मी निकली और हाथ पैर ठन्डे हो गए. रोलर का डामर कंक्रीट पर फैला दिया गया. मौत और ज़िन्दगी के बीच की लड़ाई के कुछ ही पलों ने उसे ज़िन्दगी का चक्रवृद्धि ब्याज समझा दिया. घर लौटने के लिए वह मुड़ी. लेकिन उसके पैर हिल नहीं रहे थे. पीठ के पीछे चल रहा रोलर उसे अपनी ओर खींच रहा था.
डबडबायी आँखें और उदास चेहरा देखकर, ख़दीजा पूछने लगी “अब क्या हुआ? कहाँ चली गयी थी? कितनी देर कर दी? रानी आयी थी वह तेरी कॉपी में चक्रवृद्धि ब्याज के तीन चार सवाल कर गयी है. उसी को देख कर समझ ले. अब पढ़ने बैठ जा बिजली भी आ गयी. मूलधन और मिश्रधन सब समझ ले. कुछ बोलती क्यों नहीं?”
समीना ने पलके उठाकर ख़दीजा से नज़र मिलाई. मुश्किल से कुछ बोल फूटे, “मूलधन तो डूब गया”, आँखों से चुपचाप आँसुओं की लड़ी बह निकली.
उज़्मा कलाम |
गिल्लू के बाद किसी कहानी ने इस कदर मन को छू लिया कि वर्षों तक ज़ेहन में रहेगी।
प्रिय संपादक, आपको आभार एवं हृदय से साधुवाद!
उज़्मा कलाम की कहानी ‘मूलधन तो डूब गया’ पढ़ी। हमारी प्रतिक्रिया कई बार क्षणिक और आवेगी अधिक होते हैं। कुल जमा हम ठहरकर अपने ही फ़ैसले पर पुनर्विचार करने लगते हैं। अपने किए-धरे पर खुद ही पश्चताप करने लग जाते हैं। यह कहानी भी कुछ ऎसी ही है। अंत से अचंभित करने वाली। सचमुच भाषा की लय और संवेदना बाँध लेती है। किशोरी मन की अंतश्चेतना को जिस मार्मिकता व बालमन की प्रकृति के साथ पकड़ने की चेष्टा लेखिका ने की है वह महत्त्वपूर्ण है। कहानी की भाषा रवादार, खुरदुरी और बहुपरतीय है। छोटे-छोटे ब्यौरे में उभरते बिंब और दृश्य-चित्र कहानी की बड़ी उपलब्धि है जो पाठक को अनायास ही जोड़ लेती है। भाषा में आए अंतराल भी बेजोड़ अर्थ सिरजते हैं और पाठक को उद्वेलित करते हैं। कहानी में वर्णित संवाद दिनचर्या में घटित हैं लेकिन उसमें मनोवेगों और शीलगुणों को पकड़ने की क्षमता भरपूर है। ऎसी कहानियाँ आंतरिकता के जुड़ाव के साथ पाठक की संवेदना को झिंझोड़ देती हैं। यह कहानी पाठक को संवेदनशील बनाती हैं और हमारी मनुष्यता में इज़ाफा करती हैं।
‘समालोचना’ हमारे शब्द-अर्थ को सोए से जगाने का साहित्यिक उपक्रम है।
दिली आभार अरुण देव जी!
Betreen kahani aur us se bhi behtreen Uzma ka kahan….full of natural flow and tenderness. Bus ek baat….poori kahani me chooha ghar ke ek shaitan bachche jaisa treatment pata hai aur apni vaisi hi ek galti ke liye saza e maut. yeh baat khal gai
.Umr qaid se kam chal jaata. Munsif ki kya majboori rahi hogi!
अंत तक कहानी ने बांधे रखा। बढ़िया कहानी, चूहे के पात्र के हिसाब से और अन्य पात्रों के हिसाब से भी। मानव और चूहे/जीव जगत के अंतर संबंध पर इस पढ़ा जाता रहेगा।
Bahut hi sahaj aur dil ko chhu lene vali kahani, balman ka gussa aur dayaluta ko bayan karti kahani, ak baar padhna suru Kiya tau puri kahani padhakar hi ruka, yesa laga sakuchh aankho ke samane ghatit ho raha hai, atisundar….,……