जीवनानन्द दाश |
जीवनानन्द दाश बाँग्ला साहित्य में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद दूसरे सबसे बड़े कवि हैं. उनकी अनूठी कविताओं की तरह उनकी लोकप्रियता भी अलग किस्म की है. बँगाल के बच्चे जीवनानन्द की कविताओं की आवृत्ति (पाठ) करते हुए बड़े नहीं होते, जैसे कि वे रवीन्द्रनाथ, काजी नजरुल इस्लाम या सुकान्त भट्टाचार्य की कवितायें पढ़ते हुए बड़े होते हैं.
जीवनानन्द की कविता वयस्क मन की कविता है. उनकी कविता पाठ करने से ज्यादा अनुभव करने के लिए है. जीवनानन्द की कविता प्रकृति और प्रेम की वैसी अभिव्यक्ति नहीं है, जैसी कि रवीन्द्रनाथ की कविता है. इनकी कविता नजरुल की कविता की तरह साम्य के गीत नहीं गाती, सब कुछ तोड़-फोड़ देने की बात नहीं करती. जीवनानन्द की कविता प्रेम की कोमल अनुभूति की, विरह की स्मृति की कविता है. यह बाँग्ला भाषा की भावुकता, स्निग्धता और हरीतिमा की सम्भवत: सबसे जादुई, सबसे मार्मिक और सबसे मखमली अभिव्यक्ति है.
रवीन्द्रनाथ की तरह जीवनानन्द भी ब्रह्म समाज के अनुयायी थे. जीवनानन्द के दादा सर्वानन्द दाशगुप्त बरिशाल में ब्रह्म समाज की दिग्गज शख़्सियत थे. जीवनानन्द के पिता शिक्षक, आध्यात्मिक चिन्तक, निबन्धकार और वक्ता थे, तो माँ कुसुम कुमारी दाश ने कलकत्ते के ब्रह्म बालिका बोर्डिंग में रहकर चर्चित बेथुन स्कूल से पढ़ाई की थी. कुसुम कुमारी दाश कवयित्री थीं, जो भोजन बनाते हुए कविता लिख सकती थीं. स्कूल में कविता पाठ के लिए उन्होंने एक ऐसी कविता लिख डाली थीं, जिसकी शुरुआती दो पंक्तियाँ बँगाल के घर-घर में पढ़ी जाती थीं-
‘आमादेर देशे हबे शेई छेले कबे
कथाय ना बड़ो होये काजे बड़ो हबे?’
(‘हमारे देश में वह लड़का कब होगा, जो सिर्फ बातों का धनी न होकर काम में बड़ा होगा?’).
जीवनानन्द की पत्नी लावण्य दास ने ‘मानुष जीवनानन्द’ नाम की पुस्तिका में कवि के बालपन के बारे में लिखा है कि बरिशाल में लम्बी-चौड़ी जमीन में फैले घर, आम और कटहल के पेड़, रात में ओस गिरने की आवाज, आधी रात को सुपारी के लिए चूहों की छीना-झपटी, मछली पकड़ने के कौशल, दादी की कहानियों, नदी और तालाब-इन सबने मिलू यानी जीवनानन्द को कविता लिखने की पृष्ठभूमि दी.
मिलू अपने बड़े मामा प्रियनाथ दाशगुप्त के बहुत प्रिय थे. ननिहाल जाने पर वह बड़े मामा के साथ छत पर चटाई बिछाकर बैठते और आसमान के तारे देखते. जीवनानन्द की कविताओं में तारों की बात बार-बार होती है. उनके एक कविता संग्रह का शीर्षक ही है- ‘सातटि तारार तिमिर.’
बड़े मामा नाव से जाते तो मिलू को साथ ले जाते. कम उम्र में ही मिलू को बरिशाल की ग्राम्य प्रकृति की जानकारी हो गयी थी. बारिश के मौसम में जब आँगन में घास बड़ी होकर फैल जाती, तो पिता घास काटने के लिए एक फकीर को बुलाते थे. हरी मखमली घास कटते देख मिलू व्याकुल हो जाते. तब फकीर उन्हें समझाते कि चिन्ता मत करो, थोड़े दिनों बाद ही यहाँ फिर कोमल दूब जम जायेगी.
लेकिन जीवन के कठिन संघर्ष में जीवनानन्द की कोमल भावनाएं सूख गयीं. वह अँग्रेजी के प्राध्यापक थे, पर किसी कॉलेज ने उन्हें स्थायी नौकरी नहीं दी. वर्ष 1926 में कोलकाता के सिटी कॉलेज से उन्होंने अध्यापन की शुरुआत की. लेकिन 1928 में वह नौकरी चली गयी, क्योंकि आर्थिक समस्या खड़ी होने पर कॉलेज प्रबन्धन ने सबसे कम उम्र के जीवनानन्द को नौकरी से निकाल दिया. एक साल बेरोजगार रहने के बाद बागेरहाट स्थित प्रफुल्लचन्द्र कॉलेज में उन्होंने नौकरी शुरू की, पर तीन महीने बाद इस्तीफा दे दिया. फिर अश्विनी कुमार दत्त के भतीजे सुकुमार दत्त की, जो दिल्ली के रामजस कॉलेज के उपाध्यक्ष थे, कोशिशों से जीवनानन्द रामजस कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक बनकर आये.
दिसम्बर, 1929 से मार्च, 1930 तक वह दिल्ली के रामजस कॉलेज में रहे. इसी कॉलेज में रहते हुए उनकी शादी की बात चली, और वह होनेवाली पत्नी लावण्यप्रभा दाश को देखने ढाका गये. उसी साल मई में उनकी शादी हुई. लेकिन वह लौटकर दिल्ली नहीं आये. रामजस कॉलेज की नौकरी गयी या उन्होंने खुद छोड़ी, यह स्पष्ट नहीं है.
जब जीवनानन्द को अपनी जन्मभूमि बरिशाल के ब्रजमोहन कॉलेज में नौकरी मिली, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. विभाजन से पहले साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए, तो वह छुट्टी लेकर छोटे भाई अशोकानन्द के पास कलकत्ते चले आये. भीषण दंगे के बीच अगस्त, 1947 में उन्होंने ब्रजमोहन कॉलेज की नौकरी से इस्तीफा दिया, अपने प्रिय शहर बरिशाल से विदा ली और शरणार्थी के रूप में कलकत्ता चले आये.
किशोरावस्था में अपनी परिचित लड़की से, जिसे कुछ लोग उनका रिश्तेदार बताते थे, बिछड़ने की मजबूरी, जिसका असर उनकी चर्चित कविता ‘बनलता सेन’ में है, और रोजगार के लिए भटकने की पीड़ा के अलावा अपने प्रिय शहर बरिशाल के भीषण साम्प्रदायिक दंगे ने उनके कवि-मानस को झकझोरा.
बरिशाल शहर ने जीवनानन्द को गढ़ा था. ढाका और चटगाँव के बाद बरिशाल आज बाँग्लादेश का तीसरा बड़ा वाणिज्यिक शहर है, जिसे कभी ‘बँगाल का वेनिस’ कहा जाता था. राष्ट्रीय नेता और शिक्षाशास्त्री अश्विनी कुमार दत्त बरिशाल के थे, तो पाकिस्तान के पहले कानून मन्त्री जोगेन्द्रनाथ मण्डल, भाकपा नेता गुरुदास दासगुप्त और कांग्रेस नेता प्रियरंजन दासगुप्त बरिशाल में पैदा हुए थे. उत्पल दत्त, बुद्धदेव गुहा, अनिल विश्वास, एशिया की पहली महिला डॉक्टर कादम्बिनी गांगुली और पिछले दिनों दिवंगत हुए रणजीत गुहा-बरिशाल के थे.
जिन लोगों ने बरिशाल को देखा है, वे उसकी प्राकृतिक सुन्दरता की प्रशंसा करते रहे हैं. बरिशाल की प्रकृति और खासकर कीर्तनखोला नदी ने जीवनानन्द को मुग्ध कर दिया था. बरिशाल में ही अपने ननिहाल बामनकाठी गाँव के पास से बहती धानसिड़ि नदी के सौन्दर्य ने उनका मन मोह लिया था. इस धानसिड़ि नदी को अपनी कविता में वह अमर कर गये. उनकी एक चर्चित कविता की शुरुआती पँक्तियाँ हैं-
‘आबार आशिबो फिरे, धानसिड़िटीर तीरे, एई बाँग्लाय’.
(इस बँगाल में, धानसिड़ि के किनारे मैं फिर आऊँगा).
छोटे भाई अशोकानन्द ने बड़े भाई जीवनानन्द के प्रकृति प्रेम के बारे में लिखा है-
‘भैया प्रकृति के सौन्दर्य के उपासक थे. बरिशाल में हमारे घर के पीछे एक कच्ची सड़क थी. उस सड़क पर आगे बढ़ते ही दोनों तरफ धान के खेत दिखते थे. अलग-अलग ऋतुओं में उन खेतों का दृश्य अलग-अलग हो जाता था. कभी धान की बालियाँ हवा में झूमती दिखतीं, तो कभी पीले पके धान के खेत दिखते. जाड़े के समय जब धान काट लिया जाता, तब दूर-दूर तक खाली खेत दिखते थे. कभी-कभी वहाँ कोई चूहा भागता दिख जाता था.’ 1.
वर्ष 1927 में उनका पहला काव्य संग्रह ‘झरा पालक’ (बिखरे पँख) आया, जिसमें तरुणाई का उल्लास था. लेकिन 1933 तक आते-आते उनके साहित्य में व्यक्तिगत जीवन की असहायता, गरीबी और मानसिक द्वंद्व के चित्र मिलने लगे थे. वर्ष 1936 में उनका दूसरा काव्य संग्रह ‘धूसर पाण्डुलिपि’ प्रकाशित हुआ. वर्ष 1944 में आए उनके कविता संग्रह ‘महापृथ्वी ‘में विश्वयुद्धकालीन हिंसा के चित्र थे.
जीवनानन्द का बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने साहसपूर्वक अनेक नई तकनीकों और शैलियों के जरिये बाँग्ला कविता को आधुनिक स्वरूप प्रदान कर उसे रवीन्द्रनाथ के प्रभाव से मुक्त किया. बीती सदी के 30 के दशक में बाँग्ला साहित्य में जो ‘कल्लोल युग’ उभरा था, वह मूलत: रवीन्द्रनाथ के विकल्प के तौर पर ही उभरा था और युवा बुद्धदेव बसु ने रवीन्द्र युग के खत्म हो जाने की दुस्साहसी घोषणा की थी. यह अलग बात है कि रवीन्द्रोत्तर आधुनिक बाँग्ला कविता जीवनानन्द की कविताओं में जिस प्रभावी रूप में सामने आयी, वह उनके समकालीन दूसरे कवियों में नहीं दिखी.
जीवनानन्द अँग्रेजी के प्राध्यापक थे और 19वीं सदी के फ्रेंच कवियों-वॉल्देयर और रैम्बो से प्रभावित थे. यह अद्भुत संयोग है कि जीवनानन्द के समकालीन दूसरे कई बाँग्ला कवि अँग्रेजी के प्राध्यापक थे, चाहे वह सुधीन्द्रनाथ दत्त हों,विष्णु दे हों या बुद्धदेव बसु. इन सभी कवियों की कविताओं पर यूरोपीय कविता का प्रभाव था. जीवनानन्द के काव्य ग्रन्थ ‘धूसर पाण्डुलिपि’ पर इलियट के ‘द वेस्टलैण्ड’ का असर बताया जाता है. लेकिन ज्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि शेक्सपियर और कीट्स समेत दूसरे ब्रिटिश रोमान्टिक कवियों का असर जीवनानन्द की कविताओं में कहीं ज्यादा है. वे यह भी रेखांकित करते हैं कि अँग्रेजी के प्राध्यापक होने के कारण जीवनानन्द के लिए इस प्रभाव से बाहर निकलना शायद सम्भव भी नहीं था. खासकर मृत्यु सम्बन्धी उनकी कविताओं में कीट्स का असर दिखता है. चित्रमयता में, स्पर्श चेतना में और पृथ्वी से मुक्ति खोजने की कोशिश में जीवनानन्द कीट्स की याद दिलाते हैं.
शब्द प्रयोगों में भी जीवनानन्द की मौलिकता दिखती है. उनकी कविताओं में संस्कृत के साथ अरबी-फारसी के शब्दों का प्रचुर प्रयोग मिलता है. इस मामले में उन्होंने अपने समकालीन नजरुल इस्लाम से प्रेरणा ली.
जीवनानन्द प्रकृति के कवि माने जाते हैं और उनकी प्रकृति कविताएँ बाँग्ला में नयी हैं. रवीन्द्रनाथ को वर्षा ऋतु सबसे प्रिय थी. वसन्त पर भी उन्होंने अनेक कविताएँ लिखी हैं. जीवनानन्द की कविताओं में ये दोनों ऋतु नहीं है. इसके बजाय उन्होंने हेमन्त ऋतु को अपनी प्रकृति कविताओं के लिए चुना. हेमन्त वस्तुत: शरद् और शीत के बीच की एक छोटी-सी अवधि है, जब कोहरा और कुहासा होता है, जब रोशनी म्लान हो जाती है और खेतों में पकी फसल कटने के लिए तैयार होती है. जीवनानन्द ने वर्षा के सौन्दर्य को नहीं चुना और शरद् व वसन्त की रंग-बिरंगी प्राकृतिक सुषमा को भी त्याग दिया, जो बाँग्ला के पाठकों के परिचित प्रकृति चित्र थे. अगर कोयल और बुलबुल रोमान्टिक कवियों के प्रिय पक्षी थे, तो जीवनानन्द ने गिद्ध, चूहे और उल्लू को चुना. वह उल्लू जिसे बाँग्ला में लक्खीपैंचा कहते हैं, और जिसे देवी लक्ष्मी का वाहन माना जाता है.
और विडम्बना यह है कि जीवनानन्द के विलक्षण प्रकृति चित्रण के बारे में बाँग्ला साहित्य को उनकी मृत्यु के बाद पता चला. उनके असामयिक देहावसान के तीन साल बाद 1957 में प्रकाशित उनके सातवें कविता संग्रह ‘रुपसी बाँग्ला’ ने प्रकृति चित्रण का मानक ही बदल दिया. इसमें जीवनानन्द ने जिस बँगाल का चित्रण किया, वह इससे पहले कम से कम बाँग्ला कविता में तो नहीं दिखा था.
‘रुपसी बाँग्ला’ में कत्थई डैने वाली मैना, तमाल की नीली छाया, बरगद के लाल फल, पीले डंठल वाले शेफाली के फूल, सुबह-शाम का नीला धुआँ, सुनहरे चील, सफेद कौड़ियों की तरह दिखते दूर के पहाड़, सिन्दूर की लालिमा वाली लीची और चाँदी जैसे बरसते वर्षा जल हैं. यहाँ बादलों के असंख्य रूप हैं-कमरख के रंग वाले, भोर के सिन्दूरी मेघ, तो कभी माघ के आसमान में काले बादल. सफेद रंग का जितना प्रयोग जीवनानन्द ने किया है, उतना बाँग्ला कविता में कभी नहीं हुआ-सफेद कनेर के झरते स्तन, बासमती चावल धोते हुए सफेद हाथ, आदि. यहाँ धानसिड़ि नदी, रूपशाली धान, धान के दूध, गड्ढे और बिल तथा मिट्टी की सोंधी गन्ध है, तारों से भरा आसमान और जाफरानी रंग की धूप है. जीवनानन्द की कविता की धूप शाम के मैदान को रहस्यमय बना देती है और उसकी गन्ध से समस्त इन्द्रियाँ जैसे सक्रिय हो जाती हैं.
प्रकृति अपनी तमाम आकृतियों, रंगों और गन्धों में तो जीवनानन्द की कविताओं में उपस्थित है ही, खुद उन्होंने प्रकृति की विराटता को जिस तरह देखा और अभिव्यक्त किया, वह भी अद्भुत है-
‘देखेछि सबुज पाता अघ्रानेर अन्धकारे हयेछे हलुद’
(मैंने अगहन के अन्धेरे में हरे पत्तों को पीला होते देखा है).
उनकी कविताओं में मृत तारों, कौड़ी की तरह सफेद चेहरों, सफेद बगुलों, थके कौओं, रेत पर बिखरी चाँदनी, भीगी शाम की विलक्षण दुनिया है. इन्हीं विशेषताओं के कारण जीवनानन्द की कविताओं को रवीन्द्रनाथ ने ‘चित्ररूपमय’ बताया था.
हालाँकि कलकत्ते में रहते हुए उनके आखिरी दौर की कविताओं में जीवन की उदासी ही ज्यादा थी :
‘शरीर रोयेछे तबु मोरे गेछे आमादेर मन
हेमन्त आशेनि माठे, हलुद पाताय भरे हृदयेर मन’
(शरीर है, फिर भी हमारा मन मर चुका है
मैदानों में हेमन्त ऋतु नहीं आयी, हृदय रूपी मन पीले पत्तों से भर गया है).
यह उदासी विभाजन और हिंसा से भी उपजी थी. विश्वयुद्धकालीन हिंसा को उकसाने वाले तत्वों को लक्षित कर लिखी गयी उनकी ये पँक्तियाँ आज के दौर में भी बेहद प्रासंगिक है-
‘अद्भुत आँधार एक एशेछे पृथिबेते आज
जारा अन्धो सब चेये बेशि चोखे देखे तारा
जादेर हृदये कोनो प्रेम नेई-प्रीति नेई-करुणार आलोड़न नेई
पृथिबी अचल आज तादेर सुपरामर्श छाड़ा’.
(आज पृथ्वी में अद्भुत अन्धेरा उतर आया है
जो लोग अन्धे हैं वही सबसे अधिक देख पा रहे हैं
जिनके हृदय में प्रेम, प्रीति और करुणा नहीं है
वैसे लोगों से सलाह-परामर्श के बगैर दुनिया का कामकाज नहीं चलता).
‘बनलता सेन’ उनकी सर्वाधिक चर्चित कविता है. कहते हैं कि इस कविता की लोकप्रियता के कारण कलकत्ते की कई युवतियों ने अपना नाम बनलता सेन रख लिया था. इस कविता ने जीवनानन्द को बँगाल के बाहर भी प्रसिद्धि दी, तो नजदीकी लोगों में बनलता की वास्तविकता के प्रति उत्सुकता पैदा की. बहुतों ने स्वयं कवि से इस बारे में पूछा था. पर जीवनानन्द इस पर मुस्कराकर चुप्पी साध लेते थे. उनके भतीजे अमितानन्द का कहना था कि बनलता रिश्ते में उनकी बहन लगती थी. जीवनानन्द उसके प्रति आकर्षित थे, लेकिन कुछ कह नहीं पाये थे. उसी के असर में उन्होंने ‘बनलता सेन’ कविता लिखी थी, जिसका अन्त बेहद दार्शनिक है –
‘सब पाखी घरे आशे-सब नदी-फुराय ए जीबनेर सब लेन-देन
थाके शुधु अन्धकार, मुखोमुखि बसिबार बनलता सेन’
(सारे पक्षी घर लौटते हैं, लौटती हैं सारी नदियाँ भी-इस जीवन के तमाम लेन-देन खत्म हो जाते हैं
सिर्फ अन्धेरा रह जाता है, जिसमें बनलता सेन के सामने बैठने की विवशता है).
जीवनानन्द की दूसरी कविताओं की तरह इस कविता में भी उनकी अपनी विवशता, कटुता और क्षोभ का असर है. यथार्थ से बचने के लिए अपनी कविताओं में वह इतिहास, मिथक, सपना और कल्पना की शरण लेते हैं, जो कि इस कविता में भी है.
लेकिन जीवनानन्द व्यापक अर्थ में रोमान्टिक कवि नहीं हैं. उनकी कविताओं में प्रेम का उच्छवास नहीं है, न ही इसकी तीव्र अनुभूति है. बनलता सेन हों या अरुणिमा सान्याल या कोई और-ये जीवन की सहयात्री नहीं हैं. जीवनानन्द की प्रेम कविताएँ सामाजिक उपस्थिति के बजाय आत्मिक उपस्थिति ज्यादा है. उनकी अधिकांश प्रेम कवितायें स्मृति निर्भर हैं, जिनमें प्रेम का उल्लास नहीं है.
जीवनानन्द की कविताओं में अपने समय-समाज की अनुपस्थिति की भी आलोचना हुई है. बँगाल के वामपन्थी आलोचकों की शिकायत रही है कि वैज्ञानिक विचार पद्धति पर जीवनानन्द की आस्था कभी नहीं रही, व्यक्ति मानस ही उनके लिए सर्वोपरि था. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने लिखना शुरू किया था. बाँग्ला साहित्य में तब काजी नजरुल इस्लाम की विद्रोही कविताओं की चर्चा थी. जीवनानन्द के प्रथम काव्य संग्रह ‘झरा पालक’ की नजरुल के प्रथम काव्य संग्रह ‘अग्निवीणा’ से तुलना करें, तो निराशा होती है.
इसके बावजूद अपने जीवनकाल में जीवनानन्द बेहद लोकप्रिय कवि थे. लावण्य दाश ने लिखा है कि लैन्सडाउन रोड स्थित उनके घर के सामने अनेक युवक-युवतियाँ जीवनानन्द से मिलने और उनसे कविता की एक पंक्ति लिखवाने के लिए आते थे. एक बार एक कवि सम्मेलन से पहले तबीयत खराब होने पर जब जीवनानन्द ने आयोजक के सामने शुरुआत में ही कविता पाठ कर घर लौट जाने का प्रस्ताव रखा, तो आयोजक ने तुरन्त कहा कि
‘मैं यह खतरा नहीं उठा सकता, क्योंकि आपके कविता पाठ के बाद हॉल खाली हो जायेगा.’
जीवनानन्द का काव्य संसार उनके व्यक्तिगत जीवन से ओतप्रोत जुड़ा हुआ है. उनकी कविताओं में व्याप्त विडम्बना वस्तुत: उनके जीवन की ही विडम्बना है. कैशोर्य का स्वप्न टूटने के बाद गृहस्थ जीवन के संघर्ष ने उन्हें जर्जर किया. नियति ने उन्हें बार-बार छला. उन्होंने प्राध्यापकी की, बीमा कम्पनी में रहे, पत्रकारिता की, होम ट्यूशन किया, लेकिन कोई भी पेशा उन्हें आर्थिक सुरक्षा नहीं दे पाया. आर्थिक दुरावस्था का जिक्र उनकी कविताओं में तो है ही, मित्रों को लिखी उनकी चिट्ठियों से भी मिलता है. कवि मित्र अचिन्त्य कुमार सेनगुप्त को लिखी अपनी चिट्ठी में उन्होंने लिखा था,
‘आजकल मैं कुछ खास नहीं कर रहा. ट्यूशन से जो थोड़े-बहुत पैसे मिलते हैं, उनसे गुजारा हो रहा है. मैंने एक जगह नौकरी के लिए आवेदन किया है, उन्हें किसी की सिफारिश चाहिए थी. मैंने आपका नाम दिया है. इस तरह की नौकरियाँ मुझे नहीं मिलनेवालीं.’ 2.
जीवनानन्द की आर्थिक स्थिति चाहे जैसी भी हो, वह अपने परिवार से, अपनी सन्तानों से बहुत प्रेम करते थे. अपनी कविताओं में तो उन्होंने अपनी बेटी का बार-बार जिक्र किया ही, बहनोई और अपर्णा सेन के पिता चिदानन्द दाशगुप्त को लिखी चिट्ठी में बेटी मंजुश्री के सुन्दर न होने के लिए अपने अनाकर्षक चेहरे को जिम्मेदार माना था. हालाँकि मंजुश्री कविता लिखती थी और पिता उन्हें प्रोत्साहित करते थे.
जीवनानन्द की पत्नी लावण्य प्रभा दाश के बारे में भी तमाम तरह की बातें कही जाती हैं. जैसे, कहा गया कि ‘बनलता सेन’ की लोकप्रियता के बाद लावण्य ने इस बारे में पति से तमाम तरह की पूछताछ की थी. यहाँ तक कहा गया कि जीवनानन्द की मृत्यु दुर्घटना नहीं, आत्महत्या थी, वह पत्नी से छुटकारा पाना चाहते थे. जीवनानन्द के भतीजे अमितानन्द ने लिखा है,
‘मेरी चाची प्रतिभाशाली थीं, और कम उम्र में सुन्दर भी थीं. बाद में वह शिक्षिका और उप-प्रधानाचार्या हुईं. लेकिन दुर्भाग्य से चाचा-चाची के रिश्ते अच्छे नहीं थे. जीवनानन्द की कविताओं में इसका प्रतिबिम्ब दिखता है.’ 3.
जीवनानन्द के अध्येता भूमेन्दो गुहा ने अपनी किताब में कवि की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी के बारे में लिखा,
‘जीवनानन्द की पत्नी लावण्य दाश मुझे पोर्टिको के पास ले गयीं. फिर उन्होंने कहा, अचिन्त्य बाबू आये थे, बुद्धबाबू आये थे और सजनीकान्त भी आये थे. इससे स्पष्ट है कि आपके भाई निश्चित तौर पर बहुत बड़े कवि थे. अपने पीछे बाँग्ला कविता के लिए वह बहुत सारी चीजें छोड़ गये होंगे. लेकिन मुझे बताइये, मेरे लिए वह क्या छोड़कर गये!’ 4.
जीवनानन्द की मृत्यु के बाद लावण्य दाश ने उन पर एक सीरीज लिखी थी, जो सम्भवत: ‘देश’ पत्रिका में सिलसिलेवार छपी थी, और बाद में जो ‘मानुष जीवनानन्द’ नाम से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई. इसमें कवि पत्नी ने व्यक्ति जीवनानन्द के बारे में विस्तार से लिखा है.
बचपन में ही अनाथ हुईं लावण्य प्रभा गिरिडीह में पली-बढ़ी थीं, और पटना से उन्होंने मैट्रिक पास किया था. जीवनानन्द से जब उनकी शादी तय हुई, तब वह ढाका के ईडन कॉलेज में पढ़ती थीं, जबकि खुद जीवनानन्द दिल्ली के रामजस कॉलेज में प्राध्यापक थे. लावण्य के माता-पिता सनातन हिन्दू संस्कारों को मानते थे, लेकिन जिस बड़े चाचा ने लावण्य को पाला था, वह ब्रह्म समाज के अनुयायी थे. अत: लावण्य की शादी ब्रह्म समाज के संस्कारों के अनुरूप हुई थी. शादी के बाद ढाका शहर में पढ़ने वाली लड़की बरिशाल स्थित अपनी ससुराल में जाकर हैरान रह गयी, जहाँ आम, जामुन, कटहल, अश्वत्थ और हिजल की छाया में मिट्टी के फर्श वाले बड़े-बड़े ठण्डे कमरे थे.
जीवनानन्द के मित्रों, परिजनों की लावण्य दाश के बारे में चाहे जैसी भी राय रही हो, खुद उन्होंने अपनी पुस्तक में जीवनानन्द को बेहद कृतज्ञता से याद किया है. उन्होंने स्वीकारा है कि शादी के बाद कवि ने अपने घरवालों को पत्नी की आगे की पढ़ाई के लिए राजी किया था. उन्होंने लिखा है कि जीवनानन्द फुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी थे. उन्हें फूल बहुत प्रिय थे और जीवन जीने को वह एक कला के रूप में देखते थे. रवीन्द्रनाथ के गीत उन्हें पसन्द थे. लावण्य के मुताबिक, जीवनानन्द को नौकरी नहीं मिलती थी, ऐसा नहीं है. लेकिन वह नौकरी करना नहीं चाहते थे, क्योंकि उसमें समय बहुत बर्बाद होता था, जो उन्हें पसन्द नहीं था.
लावण्य ने शादी के तुरन्त बाद की एक घटना का जिक्र किया है, जिससे जीवनानन्द के स्वभाव का पता चलता है :
‘मैं तब आई.ए. में पढ़ती थी. वह विनय-बादल-दिनेश का क्रान्तिकारी दौर था. मैं उस युग की लड़की थी, इसलिए अँग्रेजों की कृपादृष्टि से वंचित नहीं हुई. एक दिन सुबह आई.बी. डिपार्टमेन्ट के तीन अधिकारी मेरे नाम पर वारन्ट लेकर कुछ पुलिस वालों के साथ मेरे यहाँ आ धमके. कवि तब सामने के घर में ही थे. एक अधिकारी ने उनसे पूछा, लावण्य दाशगुप्त किसका नाम है?
कवि ने उत्तर दिया, मेरी पत्नी का नाम है.
अफसर ने कहा, उनके नाम पर वारन्ट है. आप पड़ोस के कुछ भद्रपुरुषों को बुला लीजिए. हम तलाशी लेंगे.
कवि ने चुपचाप उन्हें कमरा दिखा दिया. फिर तलाशी के नाम पर दो घण्टे तक पुलिस का जो ताण्डव चला, उससे मुझ जैसे काव्य-निरपेक्ष मनुष्य की आँखों में भी आँसू आ गये.
तलाशी अभियान चलाकर ही वे शान्त नहीं हुए. पूछताछ के लिए मुझे भी उनके सामने उपस्थित होना पड़ा. वे मुझसे एक क्रान्तिकारी का नाम जानना चाहते थे, लेकिन अपने अभियान में विफल होने के बाद उन्होंने मुझे जाने दिया.
पूछताछ के बीच मैंने एक चीज देखी. जो अधिकारी थे, वह बैठकर कवि के काव्य संग्रह ‘झरा पालक’ पढ़ रहे थे, और बीच-बीच में नजर उठाकर कवि को सम्मान की दृष्टि से देख रहे थे.
तलाशी के दौरान पुलिस को अचानक आयरलैण्ड के विद्रोह पर एक किताब मिल गयी. अब उन्होंने मुझ पर आरोपों की बौछार कर दी.
इस पर कवि ने शान्त स्वर में कहा, मेरी पत्नी का क्रान्तिकारी समूह से सम्बन्ध नहीं है.
इस पर एक ने कहा, महाशय, ये ढाका की लड़कियाँ हैं. इन्हें भला आप कितना जानते हैं!
लेकिन आखिरकार उन्हें मेरे खिलाफ कुछ नहीं मिला. मैंने देखा, पुलिस के उस अधिकारी ने जाते-जाते कवि से सम्मान के साथ ‘झरा पालक’ की वह प्रति माँग ली.
घर के लोग नाराज थे कि नयी बहू के कारण घर में पुलिस आयी और सबको इतनी परेशानी उठानी पड़ी. लेकिन कवि ने कुछ नहीं कहा. बल्कि उनके हाव-भाव से लग रहा था कि उन्हें अपनी पत्नी पर गर्व है.’ 5.
जीवनानन्द की कविता और उनके जीवन की तरह उनकी मृत्यु भी असामान्य है. 14 अक्तूबर, 1954 की शाम को वह देशप्रिय पार्क में घूमने गये थे. लौटते हुए सड़क पार करते समय ट्राम दुर्घटना हुई. जीवनानन्द को अस्पताल ले जाया गया. जो सजनीकान्त दास उनके घनघोर आलोचक थे, उन्होंने उनके इलाज के लिए भरपूर कोशिश की, और चिकित्सक मुख्यमन्त्री डॉ. बिधानचन्द्र राय को अस्पताल में लाया गया. पर जीवनानन्द को बचाया नहीं जा सका. 22 अक्तूबर को रात साढ़े ग्यारह बजे उनकी मृत्यु हो गयी.
जीवनानन्द के अन्तिम समय के बारे में उनके लेखक दोस्त सुबोध राय ने विस्तार से लिखा है, जिनसे गुजरना स्तब्ध करने वाला है :
’14 अक्तूबर, 1954 की वह शाम आज भी स्मृति में है. उस विराट प्रतिभा के सान्निध्य से मैं कृतार्थ और गौरवान्वित था…सुबह, दोपहर, शाम, रात-कभी भी उनके पास पहुँचने पर वह असहज नहीं होते थे. सिर्फ एक दिन मैं गैरहाजिर था. उस मर्मान्तक दुर्घटना के दिन. मुझे बुखार हुआ था. पत्नी ने कहा, बुखार है, तो क्या हुआ, थोड़ा बाहर घूम आइये. लैन्सडाउन रोड पर पाँव रखे ही थे कि देखा, जीवनानन्द के बेटे रंजू अस्त-व्यस्त हालत में मेरे पास आ रहा है. उसने कहा, भारी विपत्ति आ गयी, बाबा को अभी-अभी अस्पताल ले गये हैं.
मैंने पूछा, यह खबर तुम्हें मिली कहाँ? तुम्हारे बाबा ही थे, इसका पता कैसे चला?
मिठाई की दुकान वाले ने घर पर आकर बताया.
भाभी, मंजू-ये लोग घर पर नहीं हैं?
नहीं।
रंजू को लेकर तुरन्त दौड़ा.
रासबिहारी-लैन्सडाउन के मोड़ पर तब भी थोड़ी-बहुत भीड़ थी. यूनिवर्सल फार्मेसी के सामने के फुटपाथ पर पानी के धब्बे तब भी थे. आसपास खून में सनी रुई और बर्फ के टुकड़े भी थे. मैं तुरन्त शम्भुनाथ पण्डित अस्पताल भागा. बरामदे में कवि लेटे थे. उनकी कमर से पैर के टखने तक पट्टी लगी थी. चेहरा विकृत हो चुका था और पहचान में नहीं आ रहा था. उनकी बहन सुचरिता दाश बगल में थीं.
मुझे देखते ही कवि ने कहा, देखिये तो, क्या हो गया. मैं बच तो जाऊँगा न?
थोड़ी देर बाद उनकी पत्नी लावण्य दाश पहुँचीं.
अगली सुबह पहुँचा, तो छटपटाते हुए कवि कह रहे थे, मैं उल्टी करूँगा.
उन्होंने दो-तीन बार उल्टी की. खून की उल्टी.
तीसरे दिन उनकी हालत थोड़ी ठीक थी. इस बीच मुख्यमन्त्री डॉ. बिधानचन्द्र राय दो डॉक्टरों के साथ पहुँचे, तो हड़कम्प मच गया. पलक झपकते ही अस्पताल का चेहरा बदल गया.
चौथे दिन कवि को देखकर थोड़ा आश्वस्त हुआ. मुझे देखते ही उन्होंने कहा, थोड़ी देर पहले बुद्धदेव (बसु) और प्रतिभा आये थे. कवि ने और भी साहित्यकारों के बारे में बताया, जो उनसे मिलने आये थे.
फिर किसी लालची बच्चे की तरह उन्होंने मुझसे कहा, शाम को आते हुए थोड़ा अचार ले आइयेगा, खाने की इच्छा हो रही है.
मैंने कहा, यह क्या कह रहे हैं आप?
इस पर उन्होंने कहा, ठीक है, मत लाइयेगा. लेकिन जो लोग मुझे देखने आ रहे हैं, उनका नाम-पता लिखकर रखिये. लावण्य तो किसी को जानती नहीं.
अगले दिन 22 अक्तूबर था. उस दिन कवि निष्क्रिय दिखे. एक-दो बात करते ही वह सो जा रहे थे. उन्हें कुछ खिलाया नहीं जा सका. आखिरकार देर रात वह चल बसे.’ 6.
बरिशाल ने जीवनानन्द को गढ़ा था, तो इस शहर ने भी जीवनानन्द की स्मृति को जिलाये रखा है. बरिशाल में जीवनानन्द रोड है. इसी सड़क पर ऑक्सफोर्ड मिशन है, जिसे लाल गिरजा कहते हैं. लावण्य दाश ने इस मिशन के बारे में लिखा है कि जब वह बरिशाल में थीं, तब समाज के निचले तबके के लोगों में ईसाई बनने का चलन था. खुद उनकी ससुराल में काम करने वाली एक बूढ़ी महिला भी ईसाई बन गयी थीं. इस चर्च से थोड़ा आगे चलकर जीवनानन्द का घर ‘धानसिड़ि’ है. इसे उनके स्मृति सदन और पुस्तकालय के रूप में विकसित किया गया है, जहाँ उनके अनुरागी आते हैं.
ऐसे ही धानसिड़ि नदी प्रेम और रोमांस का पर्याय बन गयी है. इस नदी पर कभी स्टीमर चलते थे. लेकिन आज यह बेहद संकरी हो गयी है. लेकिन आज भी इसकी प्राकृतिक सुन्दरता और नदी के दोनों किनारे फैले धान के खेत आकर्षित करते हैं. धानसिड़ि नदी का तट अब एक पर्यटन स्थल है, जहाँ सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं. इसके दोनों किनारे दुकान और रेस्टोरेंट्स खुल चुके हैं. इस पार बँगाल में भी धानसिड़ि जीवित है. कोलकाता में धानसिड़ि प्रकाशन है.
इस साल जीवनानन्द की मृत्यु को सत्तर साल हो जायंगे. इन सत्तर साल में लावण्य दाश के अलावा जीवनानन्द की दोनों सन्तानें दुनिया छोड़कर चली गयी हैं. दुलारी बेटी मंजूश्री की (1939-95) नियति भी पिता जैसी रही, जिन्हें रोजगार की खोज कश्मीर से जर्मनी तक ले गयी, लेकिन कहीं भी वह स्थिर नहीं रह पायीं. कहते हैं कि जब मंजुश्री की मृत्यु हुई, तब पैसे के अभाव में उनका अन्तिम संस्कार नहीं हो पा रहा था. शारीरिक-मानसिक बीमारियों के कारण जीवनानन्द के पुत्र समरानन्द तो पहले ही दुनिया छोड़ गये थे.
अलबत्ता इन सबके बीच जीवनानन्द की कविताएँ अब भी प्रासंगिक हैं. उनके जीवन के बारे में बाँग्ला साहित्य में अब भी जितना कौतूहल है, उतना सम्भवत: और किसी बाँग्ला कवि के बारे में नहीं है. और अब भी उन पर किताबें आ रही हैं.
सन्दर्भ:
- उत्तरसूरी, पौष-फाल्गुन, 1955.
- लेटर्स टू अचिन्त्य कुमार सेनगुप्त, पृष्ठ-162.
- पोयट्री ऑफ जीवनानन्द इन द लाइट ऑफ यूरोपियन लिटरेचर-पार्थो गोस्वामी, पृ-385.
- अल्ख्यो जीवनानन्द-भूमेन्दो गुहा, आनन्द पब्लिकेशन, पृष्ठ-23.
- मानुष जीवनानन्द, लावण्य दाश, दूसरा अध्याय, पृष्ठ-1-3.
- आमार बन्धु जीवनानन्द, सुबोध राय, जीवनानन्द स्मृति, पृष्ठ- 225-29.
कल्लोल चक्रवर्ती |
बहुत अच्छा लिखा कल्लोल आपने. जीवनानंद दास के जीवन के अनेक पक्षो का पता लगा. जीवन. की घटनायें और जगहे कवि. की निर्मिति करती हैँ. वे बार बार पढ़े जानेवाले कवि हैं
जीवनानंद जैसे बड़े कवि पर उत्तम लेख, बहुत धन्यवाद 🌼🌼🌼
रविंद्र नाथ ठाकुर और सुकांत भट्टाचार्य के बाद जीवनानंद दास मेरे सर्वाधिक प्रिय कवियों में से है। चिल्ड्रन दास की कविताओं से मेरा सन 1975 से परिचय है। उनके सारे काव्य संग्रह मूल बंगाल में मेरे पास सुरक्षित है। लता सेन रूपसी बांग्ला मेरी सर्वाधिक प्रिय कविताओं में से है। मैं ऋषि बंगाल से
जीवनानंद दास पर लिखा कल्लोल चक्रवर्ती कि यह आलेख अपनी सम्पूर्णता में इतना अद्भुत है कि इसे पढ़ते हुए मैं खुद न जाने कहाँ कहाँ तक घूम आया। खास तौर पर फैजाबाद जिले कि वह मेरा अपना गाँव जयमलपुर जो अब मायावती की राजनीतिक धृष्टता के चलते लोहिया नगर न होकर अम्बेडकर नगर के अंतर्गत चला आया तब भी अपने सुरम्य नैसर्गिक परिवेश को बचाए हुए है। वे बाग बगीचे,पोखर और खेत ,वह बुजुर्ग बरगद ,नीम औ महुआ का दरख़्त सब पारी पारी से साथ चलने लग गए।वह कलकत्ता महानगर ,सिटी कालेज,लैंसडाउन रोड जो मेरे बचपन से लेकर आजतक मेरी अमिट यादों का हिस्सा है।१९५४में तो मैं वहीं कलकत्ते में आठवीं कक्षा में था।उसी महानगर में मैंने भी पहली बार उस भावुक प्रेम के अनुभव से गुजरा था।
जीवनानंद दास मेरे कवि मित्र शलभ श्रीराम सिंह के प्रिय कवियों में थे। वनलता सेन उनकी प्रिय कविताओं में थी। आचार्य विष्णु कांत शास्त्री इसे हमारी एम ए की कक्षा में जब तब सुनाया करते थे।
कल्लोल चक्रवर्ती ने उन्हें जिस रूप में देखा और याद किया है वह इतना तथ्य संगत ,परिपूर्ण साथ ही ललित है कि इसे बार बार पढ़ने के बाद भी अघाया नहीं जा सकेगा।
जीवनानंद दास के व्यक्तित्व और कृतित्व को भले थोड़ा ही सही पर इस आलेख के माध्यम से जान सकी यह मेरे लिए बड़ी उपलब्धि है।
एक खामोश नदी की तरह बहने वाली जीवनानंद दाश की कविता और उनके जीवन को जानना मेरे लिए बहुत अभूतपूर्व अनुभूति से गुजरने जैसा है। अपने प्रिय कवि को जानना जितना सुखद है उससे कहीं अधिक दुख उनके जीवन संघर्ष को जानकर हुई। कल्लोल चक्रबर्ती जी ने एक अलग ढंग से जीवनानन्द दाश को याद किया है जिसमें उनके कई अलग पहलुओं को एक साथ देखा जा सकता है।
यह ‘ समालोचन ‘ की खूबी ही है कि इस वेब पत्रिका में अपने लेखकों और कवियों के साथ प्रकृति को भी बहुत शिद्दत से याद किया जाता है।
प्रकृति को एक अलग रूप में प्रेम करने वाले जीवनानंद दाश पर आधारित इस बहुत सुंदर सामग्री के लिए बहुत बधाई अरुण सर💐
पढ़ कर एक उदासी से भर गया। जीवनानन्द दाश ने एक कठिन जीवन जिया जिसकी कठिनता उनके परिजनों के जीवन में भी संक्रमित हुई। कवि काव्यप्रेमियों के लिए बहुत कुछ छोड़ गए लेकिन उनकी पत्नी का यह प्रश्न बहुत मार्मिक है कि उनके लिए वे क्या छोड़ गए ?
सुंदर आलेख। कवि आज के स्वदेशी परदेसी हालात और माहौल में याद किये जा सकते हैं यह सोचकर अचंभा भी होता है। कौन सी कोमल भावना अब कितने कलेजों में शेष है जो किसी एक या अनेकानेक के शारीरिक, मानसिक, आत्मिक अथवा सामाजिक आर्थिक राजनीतिक — किसी भी तरह के उत्पीड़न को सरेआम देखते हुए भी, मुंह से उफ़ तक निकसने दे? विभाजन और विश्वव्यापी युद्धों की प्रताड़नाएं जीवनानंद दास की कविता या उन का वृत्तांत सुनने या पढ़ने के क्षणों में कौंध कर कितने जल्द उस हेमंत के कुहासे में विलीन हो जाती हैं जो कवि का प्रिय मौसम था!
जीवनानंद नजरुल न हुए। अगर होते भी ,तो कितनी दूर और देरी तक हम उन की ललकार बरदाश्त कर पाते?
कल्लोल भाई आंखें नम हैं।यही मेरी भाषा है।
प्रिय कवि के बारे में विस्तारपूर्वक पढ़कर बहुत कुछ जान सका लेकिन मन गहरी उदासी से भर गया।निराला जी की तरह जीवनानंद दास को भी पग-पग पर अच्छे कवि होने की क़ीमत चुकानी पड़ी।अच्छे कवियों के प्रति प्रकृति इतना निर्मम क्यों हो जाती है ? गहरे और दीर्घजीवी बिंबों की प्राप्ति के क्रम में शायद गतानुगतिक साधारण भौतिक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।जीवनानंद जी की पत्नी का लेखन भी हृदयस्पर्शी है।कल्लोल जी को बहुत धन्यवाद।
इस तरह मार्मिक गद्य में जीवन की कथा लिखना उपलब्धि है। विन्यस्त उत्कंठा, उमंग और अवसाद ने इसे स्मरणीय बना दिया है। कवि के प्रति रागात्मकता पूरे आलेख में साथ-साथ बहती है। इसे पढ़कर संपन्न हुआ।
बधाई। और धन्यवाद।
रबींद्रनाथ ठाकुर, सुकांतो भट्टाचार्य, जीबनानंद दास मेरे अत्यंत प्रिय कवियों में से हैं। सन 1975 से जीबनानंद दास की रचनाओं से मेरा प्रगाढ़ परिचय रहा है। मात्र तेईस वर्ष की उम्र से ही मैं जीबनानंद दास की कविताओं से प्रेम करने लगा था। बनलता सेन, रूपोसी बांग्ला मेरी अत्यंत प्रिय कविताएं है जो आज भी गाहे बगाहे मेरा पीछा करना नहीं छोड़ती हैं। बनलता सेन और रूपोसी बांग्ला की खोज में न जाने मैं कितनी बार कोलकाता की सड़कों पर अकेले भटकता रहा हूं।
मैं उस ट्राम में भी बैठा हूं जिसने सन 1954 में मुझसे मेरे प्रिय कवि को छीन लिया था। जीबनानंद दास के सारे काव्य संग्रह मूल बांग्ला में मेरी प्रिय निधि है।
बनलता सेन और रूपोसी बांग्ला मेरी रूह में इस कदर उतर गई है कि मैं रात दिन सोते-जागते कभी इससे उबर नहीं पाया। यही कारण है कि मैंने हिंदी में दो कविताएं बनलता सेन और रूपोसी बांग्ला पर लिखी है जो मेरे काव्य संग्रह में संग्रहीत है।
अग्रज कवि केदारनाथ सिंह ने मेरे काव्य संग्रह ‘ लौटता हूं मैं तुम्हारे पास ‘ के ब्लर्ब पर यह उचित ही लिखा है कि मेरी कविताओं में जीबनानंद दास का गहरा प्रभाव झलकता है।
‘ समालोचन’ में जीबनानंद दास की कविताओं पर कल्लोल चक्रबर्ती का लिखा हुआ गद्य अप्रतिम है। ‘ समालोचन ‘ और कल्लोल चक्रबर्ती को इसके लिए साधुवाद💐💐
प्रिय कवि के बारे में विस्तारपूर्वक पढ़कर बहुत कुछ जान सका लेकिन मन गहरी उदासी से भर गया।निराला जी की तरह जीवनानंद दास को भी पग-पग पर अच्छे कवि होने की क़ीमत चुकानी पड़ी।अच्छे कवियों के प्रति प्रकृति इतना निर्मम क्यों हो जाती है ? गहरे और दीर्घजीवी बिंबों की प्राप्ति के क्रम में शायद गतानुगतिक साधारण भौतिक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।जीवनानंद जी की पत्नी का लेखन भी हृदयस्पर्शी है।कल्लोल जी को बहुत धन्यवाद।